शुक्रवार, 26 जून 2020

सरकारें व मीडिया कोरोना से ‘‘संक्रमित’’ देश को कहीं ‘‘भयाक्रांत’’ कर ‘भय‘ से संक्रमित तो नहीं कर रही हैं?

देश में लॉक डाउन लगे लगभग तीन महीने व्यतीत हो चुका है। लेकिन पहले दिन से लेकर आज तक केंद्रीय सरकार सहित समस्त सरकारों से लेकर संपूर्ण मीडिया ने ‘‘भय’’ का वातावरण ही उत्पन्न किया हुआ है व उसे लगातार बनाए रखा है। भय से भयाक्र्रांत होती स्थिति को ‘‘बनाकर‘‘ जनता के सामने प्रस्तुत किया है व किया जा रहा है। इससे निसंदेह एक आम नागरिक चाहे वह कोरोना वायरस से संक्रमित हो अथवा नहीं, उक्त भय से भयभीत होकर ‘ड़र‘ के अंधकारमय जीवन व्यतीत करने के लिए विवश है। ‘सावधानी’ व ‘भय’ में अंतर है, इसे मीडिया को समझना चाहिये।  
याद कीजिए, देश में जब लॉक डाउन घोषित हुआ था, तब कुल 519 व्यक्ति संक्रमित थे। 30 जनवरी को पहला संक्रमित व्यक्ति भारत में केरल प्रदेश में आया था और आज 440215 व्यक्ति देश में संक्रमित हैं। कुल मृतकों की संख्या 14011 हो गई है। जबकि लॉकडाउन के दिन तक मात्र 9 ही व्यक्तियों की मौत हुई थी। स्पष्ट है, संक्रमित व्यक्तियों की संख्या और संक्रमण से होने वाली मृत्यु की संख्या या दर में कोई कमी परिलक्षित नहीं हो रही हैं, वैसे ही  ‘भय‘ के ग्राफ में भी कोई कमी नहीं आ रही है। 
नागरिकों में यह ‘‘भय की बीमारी‘‘ स्वस्फूर्त नहीं है, बल्कि सरकार और मीडिया का इसमें प्रमुख रोल रहा है। वस्तुतः जब कोरोना से बचने के लिये बनाएं गए ऐसे (‘‘सुरक्षा कवच’’) ड़र के बावजूद, संक्रमितों की संख्या में कोई कमी नहीं हो रही है, तो फिर क्या अब समय नहीं आ गया है कि इस तरह के ‘‘ड़र के वातावरण‘‘ को पूरी तरह से समाप्त किया जावे। जनता की इस कोरोना वायरस के साथ सुरक्षित व पूर्ण सावधानीपूर्वक जीने की इच्छा शक्ति को पूर्णतः मजबूत किया जावें। सभी  आवश्यक सावधानियों को बरतने की शिक्षा देकर उनका अनिवार्य रूप से पालन करने के लिए नागरिकों को मजबूती के साथ ‘‘मजबूर‘‘ भी किया जावें। वास्तव में नागरिकांे को कोरोना के भय से नहीं, बल्कि कोरोना से लड़ना है, जिस प्रकार हमें बीमार से नहीं बीमारी से लड़ना होता है। यदि किसी बीमारी का उपचार ‘भय’ से करना है तो कुछ समय के लिये व अस्थायी रूप से प्रांरभिक स्तर पर ही उसका कुछ वास्तविक फायदा जरूर हो सकता है। लेकिन भय के डोज के अधिक्य ने उससे हुए कुछ फायदे कोे निष्प्रभावी बना दिया है। अतः हम भय उत्पन्न कर बनाये रख कर हम उक्त लड़ाई को मजबूत करने के बजाए कमजोर ही कर रहे हैं।    
इस ड़र को दूर करने के लिये सरकारों को कुछ कदम उठाने होगें। जनता के बीच यह प्रचार प्रसार करना होगा कि, कोरोना वायरस के संक्रमण को संख्या व समय सीमा में अब बांधा नहीं जा सकता है। यह बात भी उतनी ही सत्य सिद्ध हो रही है कि, हमारे देश के नागरिकों की ‘निरोधक क्षमता‘ तुलनात्मक अच्छी, मजबूत व सुदृढ़ होने के कारण तथा ‘वायरस’ की घातक (मारक) क्षमता कमजोर पड़ जाने के कारण इससे होने वाली मृत्यु दर अत्यल्प है। सरकार को यह भी बतलाना चाहिये कि, इस लॉकडाउन की अवधि में कोरोना से हुई मृत्यु की तुलना में दुर्घटना (एक्सीडेंट) हृदय रोग, कैंसर व किड़नी रोग से कितनी मृत्यु हुई हैं? क्योंकि उक्त बीमारियाँ जीवन के लिये घातक व खतनाक होते हुये भी जीवन का आवश्यक भाग बनने के बावजूद, हम  अपना जीवन बिना ड़र (कोरोना की तरह से पैदा हुये) के जी रहे है। कोरोना के पहिले की अवधि व कोरोना काल की अवधि कें तुलनात्मक आंकड़ों को प्रस्तुत कर नागरिकों के दिल में बैठा हुआ ड़र सफलतापूर्वक कम किया जा सकता है। तभी वह अधिक ताकत व आत्मबल के साथ कोरोना वायरस से सफलतापूर्वक लड़ पायेगा।
नागरिकों को इस बात के लिये शिक्षित व प्रेरित करना ही होगा कि, आपकी जान की सुरक्षा सावधानी बरतते हुये आपके अपने सुरक्षित हाथों में पुर्णतः सुरक्षित है। ‘‘सावधानी हटी! र्दुघटना घटी!‘‘ यह कोरोना काल का नहीं, बल्कि एक शाश्वत कथन है। सामान्यतया एक अनपढ़ ट्रक ड्राइवर भी उक्त मुहावरें के अर्थ व महत्व को समझता है। लेकिन पढ़ा लिखा वर्ग ही वर्तमान में लॉकडाउन के नियमों का सबसे ज्यादा उल्लघंन कर रहा है। उसे उक्त बात स्वयं के जीवन के हितार्थ क्यों समझ में नहीं आ रही है? क्या उक्त उत्तरदायित्व, कर्त्तव्य व कार्य, सरकार व मीडिया के साथ स्वयंसेवी संगठनों, आध्यात्मिक संगठनों, गुरूओं व सामाजिक संस्थाओं, और अंततः स्वयं एक नागरिक का नहीं है? इस प्रश्न के उत्तर में ही (आर्थिक चक्र के पहिये के चलते रहने के साथ ही) कोरोना का इलाज शामिल है।   
यह समझने का प्रयास कीजिये कि ‘‘कोरोना ड़र‘‘ कितना गहरा है? यह हमारी संस्कृति की रीढ़ की हड्डी पारिवारिक रिश्तों व सामाजिक दायित्वों को ही तार-तार किये जा रहा है। जब मैने एक प्रमुख समाचार पत्र में यह पढ़ा कि पूणे (पूना) मेें तीन कम्पनीयाँ (संस्थाएं) कोरोना से हुई मृत्यु की अंतिम क्रिया-कर्म का कार्य करने के लिये बनी है। ‘‘हृदय घात’’ तो नहीं हुआ (क्योंकि मैं पूर्व से ही हृदयरोग का मरीज हूं) लेकिन ‘‘हृदय पर घात’’ (चोट) अवश्य लगी। अभी तक तो लावारिश लाशों की अंतिम क्रिया-कर्म के लिये जन संस्थाएं आगे आती रही है, जैसा कि बैतूल में जन आस्था संस्था ऐसे सामाजिक कार्यो में काफी आगे है। लेकिन वारिश वाली लाशों का वारिशों द्वारा कोई दावा न करना, उसके अंतिम क्रिया-कर्म के लिये आगे न आना, किस बात का घोतक है? क्या यह ‘‘कोरोना’’ के ड़र से उत्पन्न अत्यंत वीभत्स व अकल्पनीय स्थिति नहीं है? क्या कोई भी वारिश मृतक व्यक्ति की चल अचल सम्पत्ति पर कोई दावा करने से चूक रहा है? या वह सिर्फ मृतक शरीर पर ही दावा नहीं कर रहा है? स्थिति बहुत ही गंभीर, नाजुक व शर्मशार करने वाली है। इसको सुधारने के लिये सरकार से लेकर गैर-सरकारी व स्वयंसेवी संगठनों के स्तर पर कोई निश्चित, सार्थक व पर्याप्त प्रयास अभी तक होती हुई नहीं दिख रही है। यह कोरोना काल की सबसे घिनौनी उत्पत्ति (उपलब्धि?) हैं। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Popular Posts