सोमवार, 23 नवंबर 2020

‘‘गुपकार गैंग‘‘ पर सिर्फ ‘‘राजनीति‘‘! या कड़ी कार्रवाई! अभी तक क्यों नहीं?


उक्त विषय को आगे बढ़ाने के पूर्व यह जानना जरूरी है कि आखिर गुपकार घोषणा-1 एवं-2 है क्या? जिसकी घोषणा करने वालो को ‘‘गुपकार गैंग’’ का नाम दिया गया है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाने के एक दिन पूर्व ही 4 अगस्त 2019 फारूख अब्दुल्ला की अध्यक्षता में जम्मू कश्मीर क्षेत्र की लगभग सभी बड़ी व छोटी राजनैतिक पार्टियां नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी), पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी), सीपीएम(एल), जम्मू एंड कश्मीर पीपुल्स मुमेंट (जेकेपीएम), अवामी नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीपुल्स कांफ्रेंस, इफ्तेहार पार्टी, पंैथर पार्टी एवं कांग्रेस (मात्र जेकएपी पार्टी को छोड़कर) ने एक बैठक कर सर्वसम्मति से हस्ताक्षर युक्त एक घोषणा पत्र जारी किया। ‘‘गुपकार रोड़’’ स्थित फारूख अब्दुल्ला के निवास स्थान में बैठक होने के कारण उसे ‘‘गुपकार घोषणा’’ कहा गया। उक्त आपात बैठक में राज्य में अर्द्ध सैनिकों की तैनाती और जम्मू-कश्मीर की पहचान, स्वायत्तता और उसके विशेष दर्जे को बनाये रखने के लिए सामूहिक रूप से प्रयास करने का निर्णय लिया गया। 

प्रमुख नेताओं की रिहाई के बाद 22 अगस्त 2020 को उक्त दलों में से 6 राजनैतिक दलों ने ‘‘गुपकार घोषणा पत्र’’ को आगे बढ़ाते हुये ‘‘गुपकार घोषणा-2’’ जारी की, जिसे लागू करवाने के लिए ‘‘पीपुल्स अलायंस फॉर गुपकार डिक्लेरेशन’’ (पीएजीडी) एक राजनैतिक गठबंधन बनाया गया। उक्त घोषणा पत्र में मुख्य रुप से अनुच्छेद 370 एवं 35ए की बहाली कर पूर्व से ही चला आ रहा जम्मू-कश्मीर का संविधान एवं विशेष राज्य का दर्जा, तथा  जम्मू-कश्मीर को पुनः पूर्ण राज्य के दर्जे की मंाग की घोषणा की गई। 24 अक्टूबर की ‘‘पीएजीडी’’ की बैठक के एक दिन पूर्व ही महबूबा मुफ्ती ने जो बयान दिया, जिसे सिर्फ ‘‘विवादित बयान’’ कहकर झाड़ा नहीं जा सकता है। संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकता के कारण देश के एक जिम्मेदार नागरिक होने से उस नागरिक दायित्व के बिलकुल विरूद्ध व बेशर्मी लिये हुआ महबूबा का यह बयान है, कि अनुच्छेद 370 की बहाली तक वे जम्मू-कश्मीर के झंडे के अलावा और कोई झंड़ा नहीं उठायेगीं। यद्यपि प्रेस के एक खंड ने उक्त महबूबा के बयान की बजाए ‘‘तिरंगे और राज्य के झंडे को एक साथ रखूँगी’’, बयान बतलाया है। फिलहाल इस संबंध में उनके स्पष्टीकरण की प्रतिक्षा है। इसके पहले फारूख अब्दुल्ला भी कह चुके है कि चीन की मदद से अनुच्छेद 370 ‘‘फिर लागू करेगें’’। 

निश्चित रूप से उक्त गुपकार घोषणा पत्र-2 सहित फारूख अब्दुल्ला व महबूबा मुफ्ती के बयान बेहद आपत्तिजनक और सिर्फ जम्मू-कश्मीर ही नहीं, बल्कि देश की अखंडता, संप्रभुता, सुरक्षा, सम्मान और संविधान पर प्रहार और संघात (चोट) पहुंचाने वाला है, जहां पर विश्व समुदाय को जम्मू-कश्मीर में अप्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप करने का न्योता भी दिया गया है। कोई भी सरकार ऐसी घोषणा पत्र व बयानों पर चुपचाप कैसे बैठे रह सकती है? 

पूर्व में ‘‘पीएजीडी‘‘ ने स्थानीय निकाय जिला विकास परिषदों के चुनाव में भाग न लेने की बात थी। परंतु अब उक्त गुपकार गठबंधन जिसे उनके विरोधी गुपकार गैंग कहते हैं, द्वारा कांगे्रस के साथ स्थानीय जिला विकास परिषद (डीडीसी) के चुनाव व पंचायतों के उपचुनावों की लड़ने की घोषणा पर भाजपा ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। गृहमंत्री अमित शाह से लेकर अनेक प्रमुख भाजपा नेताओं ने ट्विटर और बयानों के द्वारा गुपकार घोषणा को राष्ट्र विरोधी व पाकिस्तान प्रायोजित बताकर कांग्रेस से यह पूछा है कि गुपकार घोषणा जो ग्लोबल हो रही है, का क्या वे समर्थन करते हैं? कांग्रेस ने तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उनके राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने बयान जारी कर कहा कि कांग्रेस का ‘पीएजीडी‘‘ के साथ कोई गठबंधन नहीं है, न ही वह गुपकार घोषणा पत्र का हिस्सा है। डीडीसी के चुनाव में स्थानीय स्तर पर ‘पीजीएचडी‘ सहित अन्य कई छोटे-छोटे दलों के साथ मात्र कुछ सीटों का सामंजस्य भर है। लेकिन प्रवक्ता का यह बयान झूठा व तथ्यों के विपरीत है, क्योंकि कांग्रेस ने ‘‘गुपकार एक और गुपकार दो’’ दोनों घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए है।  

कांग्रेस ने तो वर्तमान में ‘‘सेल्फ गोल‘‘ मारने में महारथी हासिल सी कर ली है। तब फिर भाजपा गोल मारने का ‘दावा‘ करके स्वयं के हाथों को कीचड़ में अनावश्यक क्यों  सना रही है? प्रसिद्ध हाॅकी खिलाड़ी (गोलकीपर) ‘असलम शेर खान’ जो मेरे बैतूल संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के लोकसभा के सांसद रहे हैं, ने कुआलालंपुर में वर्ष 1975 के विश्व कप हॉकी में गोल का बेहतरीन बचाव कर बढ़िया गोलकीपिंग करके भारत को को जीत दिलाई थी। उनके कांग्रेस छोड़ने के बाद से (राजनैतिक) ‘‘खेल मैदान‘‘ में सही ‘‘गोलकीपर‘‘ न मिल पाने के कारण कांग्रेस को सेल्फ गोल खाने की आदत सी पड़ गई लगती है। यद्यपि असलम शेर खान कांग्रेस में वापस लौटे जरूर, लेकिन तब तक उनकी ‘फिटनेस‘ कमजोर हो जाने के कारण और ‘‘खेल‘‘ के ‘‘तकनीकी नियम‘‘ में आवश्यकतानुसार परिस्थितियों में भारी बदलाव होने से व कांग्रेस द्वारा उन बदलावों के साथ सामजंस्य न बैठाल पाने के कारण असलम भाई कांग्रेस को ‘‘सेल्फ गोल‘‘ मारने से रोक नहीं पा रहे हैं। वैसे इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि, भाजपा ने जब पीडीपी को समर्थन दिया था, तब उसका यह देशद्रोही और बेहूदा शर्मनाक बयान वाला चेहरा सामने नहीं आया था। जबकि कांग्रेस ने तब समर्थन किया जब उसका यह अराष्ट्रवादी रूप सामने आया है। इसलिए मैंने कांग्रेस का इसे सेल्फ गोल कहा है। ‘‘गुपकार घोषणा गठबंधन’’ का ‘‘हाथ का साथ’’ कहीं कांग्रेस को अस्त-पस्त, गुप्त व विलुप्त न कर दे?

यदि ऐसी स्थिति में यदि भाजपा ‘‘कांग्रेस के सेल्फ गोल के बदले‘‘ तीक्ष्ण बयानों के द्वारा ‘‘गोल मारने का श्रेय‘‘ लेना चाहती है, तो फिर उसको यह भी बताना होगा कि उसने देश विरोधी हरकतें/कार्यवाही करने के लिए ‘‘देशद्रोह का अपराध’’ से लेकर देश के अन्य सुरक्षा कानूनों के अंतर्गत ‘‘गुपकार गैंग’’ के विरुद्ध अभी तक कठोर कार्रवाई क्यों नहीं की? अनुच्छेद 370 समाप्त करने के बाद जब फारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती व अन्य राजनैतिक नेताओं द्वारा कोई अपराध नहीं किया गया था, तब भी अपराध व शांति भंग किए जाने की मात्र आशंका के मद्देनजर ही उन सब नेताओं को 6 महीने से लेकर 14 महीने तक ‘‘बंदी निरोधक‘‘ बनाए रखा गया। तब आज स्पष्ट ‘‘अपराध‘‘ करने के बावजूद सजा दिलाने के लिए कोई कार्यवाही न करना, क्या सिर्फ ‘‘राजनीति‘‘ नहीं कहलायेगी? यह हास्यास्पद लगता है कि जम्मू-कश्मीर के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष रविन्द्र रैना इनकी गिरफ्तारी की मांग कर रहे है। किससे? कौन करेगा? क्या ‘कांग्रेस’ इनको गिरफ्तार करेगी? 

आपको याद करना चाहिए कि जब ‘गुपकार गैंग’ ने जिला विकास परिषदों के चुनाव में भाग न लेने की बात की थी, तब तक भाजपा ने उक्त गुपकार घोषणा बाबत कोई तीव्र प्रतिक्रिया नहीं की थी। लेकिन जैसे ही कांग्रेस के साथ सीटों के समझौते करके चुनाव लड़ने की घोषणा की गई, भाजपा एकदम से बेहद आक्रमण हो गई। क्या गुपकार गठबंधन दलों की राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने से भाजपा को चुनावी परिणामों के बाबत कोई ड़र लग रहा है? जम्मू-कश्मीर में हो रही किसी भी राजनीतिक प्रक्रिया में वहां के पंजीयत राजनीतिक दलों के अधिकतम भाग लेने पर हम विश्व समुदाय की नजर में ज्यादा सहज स्थिति में अपने को पाते हैं। 

वैसे विपरीत सिद्धांतों के गठबंधनों का इतिहास देश की राजनीति में भरा पड़ा हुआ है। अटल जी के समय एनडीए में स्वयं भाजपा ने अपनी पहचान के मुद्दे राम मंदिर, अनुच्छेद 370, समान सिविल कोड़ आदि को तत्समय अस्थाई रूप से तिलांजलि दे दी थी। रामविलास पासवान, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, मायावती, जयललिता, आदि के साथ सत्ता की भागीदारी भाजपा की सत्ता की सिद्धांतहीन राजनीति के उदाहरण रहे है। कांग्रेस तो इसकी जनक रही है। ‘‘न्यूनतम सामान्य कार्यक्रम’’ के साथ भाजपा के नेतृत्व में गठित ‘राजग’ के साथ ‘‘नेशनल कॉन्फ्रेंस’’ (एनसी) की सत्ता में भागीदारी सिर्फ दिल्ली में ही नहीं रही है, बल्कि वर्तमान में भाजपा करगिल (लद्दाख) में स्थानीय निकाय में अभी भी भागीदारी जारी है। तब आज उस एनसी के कांग्रेस के साथ मात्र सीटों के सामजंस्य पर आपत्ति क्यों? खासकर भाजपा द्वारा? ‘‘मात्र सीटों के सामंजस्य’’ के साथ चुनाव लड़ने में दलों के सिद्धातों के परस्पर स्वीकार/मानने का मुद्दा उत्पन्न नहीं होता है। 

भाजपा को ‘‘गुपकार गंैग’’ पर कांग्रेस को घेरने के पूर्व इस बात का भी जवाब देना होगा कि, उसने पूर्व में पीडीपी के साथ सत्ता की भागीदारी क्यों की? सत्ता की भागीदारी के समय यदि पीडीपी पूर्ण रूप से राष्ट्रीय थी, तो जिला परिषद की सत्ता में भागीदारी के लिए उसका कांग्रेस से हाथ मिलाने पर आप कांग्रेस को दोषी कैसे कह सकते हैं? और सामान्य नैतिकता भी आपको इस बात का अधिकार नहीं देती है। यह एक्सक्यूज (बहाना) करना कि, जब पीडीपी हमारे साथ थी तो, हमने उसे राष्ट्रवादी बनाए रखा, वह तिरंगा झंडे को मानती थी, भारत माता की जय करती थी, सही नहीं होगा। जैसा कि भाजपा प्रवक्ता टीवी बहसों में अपनी रक्षा में ये बातें कहते हैं। यदि भाजपा ‘‘राष्ट्रवाद को बनाने वाला पारस पत्थर’’ है, तो फिर उसने क्यों पीडीपी को छोड़ कर अराष्ट्रवादी होने दिया? स्पष्ट रूप से भाजपा को यह स्वीकार करना ही चाहिये कि पीडीपी के साथ उसका गठबंधन ‘‘होली अलायंस’’ (पवित्र गठबंधन) न होकर एक भूल थी, जो त्रुटि समझ में आते ही अलायंस तोड़ कर ठीक कर ली गई। आज के समय की यह आवश्यकता है कि एक अत्यंत संवेदनशील केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में असयंमित बयान बाजी न की जावे और राष्ट्र विरोधी ताकतों के विरूद्ध बिना शोर-शराबे के ठीक वैसे ही ठोस कदम उठाये जावें, जैसे दृढ़ कदम उठाकर अनुच्छेद 370 को समाप्त किया गया था। भाजपा को पूरी जिम्मेदारी से तुच्छ ‘‘राजनीति’’ से ऊपर उठकर अधिकारिक मजबूत राष्ट्रवादी नीति के साथ जम्मू-कश्मीर की स्थिति को संभालना चाहिए। 






शनिवार, 21 नवंबर 2020

रात्रिकालीन कर्फ्यू ! क्या ‘‘कोरोना’’ ‘‘केवल’’ ‘‘निशाचर’’ ही है?


देश में कोरोना (कोविड़-19) संक्रमितों की संख्या फिर तेजी से बढ़ने लगी है। वैसे तो यह संख्या पहले से ही बढ़ रही थी। लेकिन तत्समय बिहार व देश में हो रहे उपचुनावों के मद्देनजर इस पर सरकार व मीडिया का ध्यान कम ही जा सकता था। संक्रमितों की बढ़ती संख्या को देखते हुए पहले अहमदाबाद और अब मध्य प्रदेश में 5 शहरों व राजस्थान के 8 जिलों में दिन में चल रही अबाध गतिविधियों पर अन्य कोई अतिरिक्त प्रतिबंध लगाए बिना, रात्रिकालीन कर्फ्यू लागू कर दिया है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का कथन है कि  जब तक हालात नहीं सुधारते हैं, तब तक रात्रि में कर्फ्यू जारी रहेगा? गोया कोविड-19 के वायरस ‘‘निशाचर‘‘ हैं जो दिन में ‘सोते‘ हैं और रात्रि में ‘जग कर घूम-घूम कर‘ लोगों को संक्रमित करते हैं। वैसे ‘मानव’ जो रात्रि में नींद में चलता है वह ‘रोगी’ माना जाता है। लेकिन कोरोना रात्रि में स्वयं रोगी न होकर स्वस्थ्य होकर (सरकार की नजर में) दूसरो को संक्रमित कर रोगी बनाता है। इसलिए रात्रि मे कर्फ्यू लगा कर ‘‘उनके मूवमेंट‘‘ पर रोक लगाकर ‘‘संक्रमण‘‘ को रोकने का प्रयास किया है। इस प्रकार सरकार अपने कर्तव्य व उत्तरदायित्व को पूरा हुआ मानकर अपनी पीठ स्वयं ही थपथपा रही है। 
अब तक यह सब को पूर्णतः स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना वायरस (कोविड-19) का संक्रमण रोकने के लिए फेस मास, सैनिटाइजेशन, बार-बार हैंड वॉशिंग, और 6 फुट की दूरी  बनाए रखना, इन सब सावधानियों का कड़ाई से पालन करके ही कोरोना
वायरस के संक्रमण को पूर्णतः लगभग रोका जा सकता है। तब रात्रि में कर्फ्यू लगा कर कोविड-19 के उक्त सावधानी के नियमों का कितना पालन हो पाएगा? इसकी कल्पना आप स्वयं कर सकते हैं। रात्रि में इन कोविड़ सावधानियों का न तो पूर्ण रूप से पालन हो सकता है और न ही दिन में खासकर उस स्थिति में जब हम यह लगातार देख रहे हैं कि, खुले आम बेशर्मी के साथ या असावधानीवश अधिकांश लोग उक्त नियमों का लगातार उल्लंघन कर रहे हैं। दिन की तुलना में रात्री में उन सावधानियों के पालन की उतनी आवश्यकता भी  नहीं है। सरकार के किसी ‘सर्वे’ में यदि यह तथ्य संज्ञान में आया है कि कोविड-19 की सावधानियों के पालन का उल्लंघन  रात्रि की तुलना में दिन में बहुत कम हो रहा है, तब बात दूसरी है जिस तथ्य से जनता को भी अवगत कराया जाना चाहिये। 
वैसे यदि सरकार ‘‘परिवार नियोजन‘‘ की दृष्टि से उक्त सावधानियां जिसमें 6 फुट की दूरी शामिल है, का पालन करवाने के लिए रात्रिकालीन  कर्फ्यू लगा रही है, तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए! क्योंकि निश्चित रूप से इससे परिवार को ‘‘नियोजित‘‘ करने में सफलता मिलेगी! फिर चाहे  कर्फ्यू सफल हो या असफल होवे! क्योंकि असफल होने पर आदमी के ‘‘भगवान को प्यारा हो जाने की स्थिति में भी तो वह परिवार को नियोजित (संख्याकम) करने में अप्रत्यक्ष रूप से सहायक ही होगा? अतः उक्त नियमों का पालन करवाने के लिए रात्रि कालीन कर्फ्यू कैसे प्रभावशाली हो सकता है? जिस कारण से दिन में भी नियमों का कड़ाई से पालन हो जाए। कम से कम यह बात मेरे भेजे में तो नहीं घुस रही है। यदि आपके दिमाग में आ रही है, तो कृपया मुझे बताइए ताकि मैं अपने दिमाग को दुरुस्त तो कर सकूं।
इस पूरे कोरोना काल के दौरान हमने प्रायः यही देखा है कि चाहे केंद्रीय सरकार हो या राज्य सरकारें, ‘‘समझ बूझ’’ के साथ ‘समय‘ पर, ‘‘समयानुकूल’’, ‘समयबद्ध‘ निर्णय ‘समय‘ को देखते हुए नहीं लिया गए, जिसका भुगतान आप हम सब को करना पड़ रहा है। इसके लिए वे सब गैर जिम्मेदाराना नागरिक भी उतने ही जिम्मेदार हैं। जब हम ‘‘अपने व गैरों‘‘ में अंतर मानते हैं, रखते हैं ,अपने किसी परिचित को गले लगाते हैं और ‘‘गैरों‘‘ को दूर रखते हैं तो, कृपया आप भी इस ‘गैर‘ शब्द को ‘‘गैर जिम्मेदाराना‘‘ से हटा कर "जिम्मेदार" क्यों नहीं बन जाते हैं? जिम्मेदार हो जाइए? विश्वास मानिए, कोरोना वायरस का संक्रमण निश्चित रूप से रुक जाएगा।

मंगलवार, 17 नवंबर 2020

चुनाव परिणाम ‘‘आप आये’’(बिहार में) ‘‘बहार‘‘ आयी।

 


‘‘बिहार’’ के आये इस चुनाव परिणामों ने पिछले चुनावों के अपने चरित्र को कमोवेश प्रायः बनाये रखा है। तो फिर बिहार का चरित्र क्या है? आईये इसको जानने का प्रयास करते है। याद कीजिए! पिछले विधानसभा के चुनाव में लगभग समस्त ‘‘ओपिनियन व ‘‘एग्जिट पोल’’(निर्गम मतानुमान) को नकारते हुये ‘‘जेडीयू‘‘ व ‘‘आरजेडी’’ के गठबंधन को बहुमत प्राप्त हुआ, और स्टुडियोज मंे विश्लेषण करने बैठे चुनावी पंडितों व विशेषज्ञों तक को भी आश्चर्यचकित होना पड़ा था। इस चुनाव परिणाम ने भी एग्जिट पोल के इतिहास को लगभग पुनः दोहराया है। सिर्फ एबीपी न्यूज सी वोटर का एग्जिट पोल ही लगभग सटीक बैठा है। यद्यपि इस चुनाव परिणाम में भी कुछ मिथक बनें, तो कुछ टूटे भी है। अत इन दृष्टिकोण सेे इन चुनावीे परिणामों का गहराई से अध्ययन कर 

विश्लेषण किया जाना आवश्यक हैं। 

‘‘बिहार’’ में हार शब्द शामिल है। वैसे तो ‘‘हार‘‘ का विपरीत शब्द ‘‘जीत‘‘ होता हैं। परन्तु ‘हार’ का एक अर्थ ‘‘जीत‘‘ भी होता है। कैसे! जब जीतने के बाद ‘‘हार‘‘ (माला) पहनायी जाती हैं। अर्थात सामान्य रूप से बिना हार (माला) के जीत का प्रदर्शन नहीं होता है। यह चुनाव परिणाम दोनों गठबंधनों को एक साथ जीत दिलाता है, अथवा अहसास कराता है, तो हार भी दिलाता है या असहास भी कराता है।ं यह इस चुनाव की एक महत्वपूर्ण विशेषता हैं। यह कैसे! बात पहले जीत की कर ले! एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिलने से उसे जीत मिल गई। इसका सीधा अर्थ यही है कि महागंठबन हार गया। यह सीधा सा ‘‘अंकगणित’’ व धरातल पर लागू होने वाला परिणाम है। लेकिन जब मैं यह कहता हूं कि एनडीए के साथ ‘‘महागंठबन’’ की जीत भी हुई है, तब इसके राजनैतिक मायने होते है। राजनैतिक-सार्वजनिक जीवन में पूर्ण विजय या सफलता तभी मानी जाती है, जब आप अकंगणित के आकडों को जीतने के साथ उससे जुड़े परशेपशन (अनूभूति) पर भी विजय प्राप्त करंे, जो बिना शक के इस चुनाव में सिर्फ बीजेपी ने ही प्राप्त ही की। 

लालू यादव के जेल में रहने के बाद एक तरफ 31 वर्षीय 9 वीं पास तरफ तेजस्वी यादव थे, जिनके उपर कभी राजनीति के हीरो रहे व वर्तमान में विलेन लालू की बदनामी की छाया व छाप थी। लेकिन लालू की प्रति छाया के बिना तेजस्वी का यह पहला चुनाव था। चुनाव प्रारंभ होने की घोषणा के बाद उनकी पार्टी के दलित नेता शक्ति मलिक की हत्या का आरोप भी उन पर व उनके भाई पर लगा था। यद्यपि डेढ़ साल वे उपमुख्यमंत्री जरूर रहे, लेकिन राजनीति का अनुभव तुलनात्मक रूप से बहुत कम था। जबकि उनके राजनैतिक विरोधी बडे़ नाम व स्टार नीतीश कुमार सहित देश के समस्त यशवस्वी विश्वसनीय राजनैतिक स्टारस् से तेजस्वी कैसे मुकाबला कर पायेगा, इसका आंकलन चुनाव प्रांरभ के पूर्व तक राजनैतिक पंडितों नगणय मान रहे थे। क्योकि विधानसभा के पूर्व हुये लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से हारी राजद को एक भी सीट नहीं मिली थी।

चुनाव की घोषणा होने के बाद समय बीतते-बीतते तेजस्वी का ’तेज’ भी निखरने लगा और वही ‘तेज’ पूरे बिहार में बहार कर अपना रंग दिखाने लगा। उनकी सभाओं में भी उतनी वह भीड़ दिखने लगी, जितनी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सभा में आती थी। सभाओं के भीड़ के समस्त रिकार्ड ध्वस्त हो गये। 

इन सबसे अलग महत्वपूर्ण बात यह रही कि बहुत ही कम अनुभवी लेकिन राजनैतिक परिवार में पैदा हुये युवा कम पढ़े लिखे तेजस्वी नेे रोजगार को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाकर उसे चुनाव में एक नरेटिव बनाने मंे पूर्णतः सफल रहे। यद्यपि हम पीछे मु़ड़कर देखे तो दूर-दूर तक ऐसा नरेटिव निश्चित होते कभी नहीं देखा गया। यद्यपि अन्य मंागों के साथ एक मांग रोजगार की होने के बावजूद वह मुख्य मुद्दा कभी भी नहीं बन पाया। लेकिन इस तेजस्वी ने बिना किसी शक व सुबहा के उक्त चुनावी मुद्दा बना कर समस्त राजनैतिक पाटियों को उस मुद्दे पर केंद्रित कर दिया। यही उसकी सूझबूझ व सबसे बड़ी राजनैतिक सफलता है। यह सफलता इसलिए भी बड़ी है, कि बिहार वह प्रदेश रहा है जिसे मडंल-कमंड, अगड़ा-पिछड़ा, पिछड़ा-अतिपिछड़ा, मंदिर-मंस्जिद जैसे विवादित मुद्दों ने जकड़ रखा है और उन मुद्दों से बिहार हारा नहीं और न ही कभी बाहर आया और न ही उससे बाहर लाने का प्रयास कभी किया गया। 

पिछले विधानसभा और उसके बाद हुये लोकसभा के चुनाव में मिले आरजेडी के वोटों का प्रतिशत और प्राप्त सीटों का भी आंकलन करे तो यह स्पष्ट है कि पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में राजद को 6 सीटे कम मिली, लेकिन तब जदयू का साथ था। तथापि आज इन चुनावों में विधानसभा में वह न केवल सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी (भाजपा से भी 1 सीट ज्यादा मिले) बल्कि लगाकर मतों में भी इजाफा हुआ हैं। (लगभग 9 प्रतिशत की वृद्धि)। इस प्रकार इसके पूर्व के विधानसभा के चुनावों में जहां जदयू राजद के लिये एक एसेटस् थी जो अब साथ में नहीं है। परन्तु वर्तमान में कांग्रेस एक बोझ बन गई। बावजूद इन सबके राजद की यह हार के बाद भी उसकी  जीत ही कहलाएगी।

‘‘एनडीए’’ ‘‘सुशासन कुमार‘‘ के नेतृत्व में सुशील कुमार के साथ बिना ‘‘चिराग‘‘ के बहुमत की रोशनी से, आराम से सरकार बना लेगी, यह आंकलन राजनैतिक पडिंतांे का भी रहा। स्वयं एनडीए ने भी दो तिहाई बहुमत का दावा किया। परन्तु लोजपा ने अधिकतर  पाटियों की जीत में सफल अंड़गे लगाये। फिर चाहे वह घोषित विरोधी पाटी जदयू हो या भाजपा जो चिराग घोषित सहयोगी पाटी थी। राजद, कांग्रेस सहित अधिकतर पाटियों के वोट काटकर ‘‘वोट कटवा’’ पार्टी बनने में उसको कोई गुरेज परहेज नहीं थे। 2 सीटों से घटकर 1 सीट हो जाने के बावजूद चिराग पासवान वह परशेप्शन जीतने में विजयी रहे जो उन्होंने  जेडीयू को हराने का संकल्प लिया था। तथापि वह नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनने से रोक नहीं पाये।  

माले व असदुद्दीन औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम के विपक्ष में व सत्ता के साथ न होने के बावजूद बहुत फायदा में रही और उन्हांेने अपनी संख्या बल में क्रमशः 8 व 5 की बढ़ोतरी की। असदुद्दीन औवैसी पहली बार ही बिहार के चुनाव में उतरे और वह झंडा गाढ़ कर अब उनका अगला कदम पश्चिम बंगाल होगा। ‘हम’ व ‘वीआईपी’ भी फायदे में रही है, जो एनडीए में रहे। जबकि चुनाव के पूर्व वह तेजस्वी के साथ थे। सिर्फ कांग्रेस ही एकमात्र पार्टी ऐसी रही जो सिर्फ घाटे ही घाटे में रही है, जो परिपाटी (कांग्रेस मुक्त भारत) मोदी के आने के बाद से लगभग चली आ रही है। देश के उपचुनावों ने भी कांग्रेस की उक्त घाटे की स्थिति पर ही मुहर ही लगाई है। 

एक सबसे महत्वपूर्ण बात इस चुनाव की जो रही जिस पर किसी भी राजनैतिक पंडितों से लेकर राजनैतिक पाटियों ने ध्यान नहीं दिया वह 15 वर्ष का लालू का जंगलराज के विरूद्ध 15 वर्ष के सुशासन बाबू के नीतीश कुमार का सुशासन। समस्त पक्ष-विपक्ष व आंकलनकर्ता इस बात को भूल गये कि पिछला विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार व लालू ने साथ मिलकर लड़ा था, जिससे दोनों के गठबंधन को भारी विजय प्राप्त हुई थी। जिसका अर्थ यही होता है कि न केवल नीतीश कुमार स्वयं ने उक्त तथाकथित 15 वर्ष के लालू के जंगलराज को गलत नहीं समझा या उसे भुला दिया और जनता भी उस पर अपने मतों की सील लगाकर उक्त जंगलराज के मुद्दे को पिछले विधानसभा के चुनाव परिणाम ने दफना कर समाप्त कर दिया था। इस प्रकार पिछले विधानसभा के चुनाव में दोनों के बंधन को जिताकर सरकार बनाकर मजबूत किया लेकिन शायद फेवीकोल का घोल न चढ़ने के कारण व जोड़ मजबूत नहीं बन पाया और ड़ेढ़ वर्ष में ही चाचा भतीजे के उक्त परस्पर बंधन टूट गये। 

बात मध्यप्रदेश के उपचुनावांे की भी कर ले जैसा की मैंने ऊपर लिखा ‘‘अंकगणित’’ हमेशा सही स्थिति को नहीं दर्शाते है। मध्यप्रदेश की 28 में से 19 सीट जीतने के बावजूद भाजपा जीती नहीं, हारी है। उसको समझने के लिये थोडा सा आपको माथे पर बल देना होगा। याद कीजिये! इन 28 में से 25 सीटे भाजपा के ‘‘पास’’ थी। अब 25 सीटों में से 19 पर विजस प्राप्त करना और कांग्रेस की 3 सीटों की जगह 9 सीटों पर विजय प्राप्त करना जीत किसकी हुई है, आप खुद आंकलन कर सकते है। आप कह सकते है कि पिछले विधानसभा के चुनावों में 25 कांग्रेस की टिकिट पर विधायक चुने गये थे, इसीलिए कांग्र्रेस की हार है। आपने जब 25 विधायकों को शामिल किया तब भाजपा नेतृत्व ने यह माना था कि इन सबका व्यक्तित्व तो प्रभावशाली है, परन्तु ये लोग गलत पार्टी में थे। और अपनी आत्मा की आवाज के कारण इस्तीफा देकर भापजा के साथ आये हंै और आपने भी अंर्तमन से उन्हे स्वीकार किया था कि उनके जुड़ने से पार्टी की स्थिति मजबूत होगी। एक अच्छे व्यक्ति का एक अच्छी पार्टी से जुड़ने के बाद ‘‘सोने पर सुहागा’’ जैसी स्थिति होने के बाद 9 लोगांे की हार को आप कैसे जीत कह सकते है? और उसका बचाव कैसे किया जा सकता है? इसीलिए मैं बार-बार यह कहता हूं वास्तविक जीत वही कहलाती है जहां आंकडांे के साथ परसेप्शन भी जीता जाये। जैसे भाजपा ने बिहार चुनाव में दोनों पर विजय प्राप्त कर की।  

इसीलिए यह चुनाव दिवाली के अवसर पर सबके लिये कुछ न कुछ मुस्कुराहट रही परन्तु कांग्रेस की दिवाली न होकर दिवाला निकल गया।


बुधवार, 11 नवंबर 2020

पत्रकार’’ व ‘‘वकील’’ क्या ‘‘तंत्रों‘‘ से ऊपर है?


प्रथम भाग
जब भी किसी प्रसिद्ध ‘पत्रकार’ अथवा ‘वकील’ पर ‘‘आपराधिक कानून’’ के तहत कोई कार्यवाही की जाती है या शुरू किए जाने का प्रयास होता है, तब प्रायः कार्यवाही करने वाले तंत्रों के ‘हाथ पाव फूल’ जाते हैं। क्योंकि पत्रकार और वकील जगत समाज के प्रमुख वर्ग माने जाते है तथा प्रायः वे स्वयं भी इस बात की तसदीक करते है। इस कारण से वे अपने-अपने समूह वर्ग के सदस्यों के व्यक्तिगत हित में यह नारा लेकर खड़े हो जाते हैं कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया और पहला स्तंभ ‘न्यायपालिका’ जिसका वकील वर्ग एक महत्वपूर्ण भाग है, खतरे में आ गया है। ‘‘प्रतिबद्ध’’  न्यायपालिका का खतरा है’’‘‘प्रेस की आजादी को खतरा है’’ और इस खतरे को जब तब बदनाम‘‘आपातकाल‘‘ का नाम दे दिया जाता है। 
बात ‘रिपब्लिक टीवी’ के मालिक अर्नब गोस्वामी की मुंबई पुलिस द्वारा 2 साल पुराने (बंद) खात्मा लग चुके प्रकरण में की गई गिरफ्तारी के मामले की है। उक्त मामला इंटीरियर डिजाइनर अन्वय नाइक को रिपब्लिक टीवी के द्वारा बकाया भुगतान न करने के चलते तनाव के रहते नाइक व उसकी मां ने आत्महत्या कर ली थी। आत्महत्या के पूर्व स्व. नाइक ने पत्र लिखकर अर्नब पर आर्थिक व्यवहार व धोखाधड़ी का आरोप लगाने पर अर्नब के विरूद्ध प्रकरण पंजीबद्ध किया गया था, जिसमें तत्कालीन फडणवीस सरकार के समय खात्मा रिपोर्ट लग गई थी। मई 2020 में उनकी बेटी अदन्या नाइक की नई शिकायत के आधार पर पुनः जांच के आदेश दिये गये और तदानुसार उक्त गिरफ्तारी की हुई कार्यवाही पर पुनः ध्यान आकर्षित हुआ है। 
इसके कुछ समय (लगभग ढ़ाई महीने) पूर्व प्रसिद्ध वकील मानवाधिकार व जनहित याचिका विज्ञ प्रशांत भूषण के मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने 1 रूपये के मूल्यांकन को बढ़ाकर रूपये का सम्मान बढ़ाकर, प्रशांत भूषण को 1 रूपये जुर्माना भरने के आदेश दिये थे। मुंबई पुलिस द्वारा जिस तरह व तरीके से अर्नब गोस्वामी की उक्त प्रकरण में गिरफ्तारी की गई है और पूर्व में भी पिछले कुछ समय से उनके विरुद्ध विभिन्न आपराधिक अधिनियम के अंतर्गत मुंबई पुलिस द्वारा तीन-तीन बार कार्यवाही की गई है, उन सब सम्मिलित कार्यवाहियों से निश्चित रूप से मुंबई पुलिस और अंततः महाराष्ट्र सरकार की नियत व कार्यवाही पर सवालिया निशान व ऊंगली उठना स्वाभाविक ही है। 
देश की ‘चलताऊ’ राजनीति के वर्तमान स्वरूप को देखते हुए अर्नब के प्रकरण में सत्ता व कानून के दुरुपयोग के आरोप लगना लाजमी है और आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति भी चलना तय है। परंतु महत्वपूर्ण प्रश्न यहां पर यह है कि अर्नब गोस्वामी के साथ विगत कुछ समय से जो कुछ भी हुआ है, और हो रहा है वह महाराष्ट्र सरकार द्वारा ‘तंत्र’ के तथाकथित दुरुपयोग का मामला हो कर भी क्या उसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अर्थात संपूर्ण मीडिया के विरुद्ध कार्यवाही माना जाना चाहिये? ठीक इसी प्रकार प्रशांत भूषण के विरुद्ध की गई कार्रवाई को भी क्या संपूर्ण वकीलों की जमात के विरुद्ध कार्रवाई माना जाएगा? क्योंकि फैसला आने के बावजूद तत्पश्चात सीनियर वकीलों के एक बड़े समूह ने इस संबंध में सीधे मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र देकर फैसले से असहमति व्यक्त करते हुये सजा देने का विरोध किया था, जो शायद न्यायिक इतिहास में पहली बार हुआ है। क्या इन आधारों पर व्यक्तिगत घटना को सम्पूर्ण वर्ग द्वारा अपने उपर हमला मानकर प्रतिकार किया जाना चाहिये? क्योंकि ‘‘आर भारत टीवी’’ लगातार धमकी भरी प्रतिक्रिया द्वारा यह कह रहा है कि राजनैतिक प्रतिशोध के चलते की गई गिरफ्तारी के कारण न्यायहित में पीड़ित अर्नब को तुरंत छोड़ा जावें। दोषी अधिकारियों को निलंबित किया जाये। अन्यथा 120 करोड़ जनसंख्या के रोड़ पर आ जाने की आशंका है। अर्नब के माध्यम से समस्त ‘‘मीडिया’’ ‘वर्ग’ को पीड़ित रूप में कटघरे में लाने की मंशा के चलते सभ्य समाज में उक्त विषय का गंभीर व अति संवेदनशील बनाये जाने के प्रयास पर गंभीरता से निष्पक्ष रुप से चर्चा कर सही हल व निष्कर्ष निकालने की भविष्य के लिये आवश्यकता है। आइए इसी दिशा में कुछ हल ढूंढ़ने का आगे प्रयास करते हैं।
अर्नब गोस्वामी यद्यपि रिपब्लिकन टीवी के प्रधान सम्पादक हैं, जिस कारण से वे चैथे स्तंभ के एक भाग भी हैं, परन्तु पहले वे देश के ‘‘एक नागरिक’’ हैं। प्रश्न यह है कि इस देश में नागरिकों (अर्नब, एक नागरिक सहित) के साथ ज्यादती क्या पहली बार हो रही है? इसके पूर्व में नहीं होती रही ? या भविष्य में नहीं होगी? बेशक एक श्रेष्ठ, स्वस्थ्य व परिपक्व लोकतंत्र में किसी भी नागरिक के साथ एक असहिसष्णुतापूर्वक और कानून का दुरूपयोग कर, पक्षपातपूर्ण एवं बदनियति से प्रतिशोधात्मक कार्यवाही नहीं की जानी चाहिये। परन्तु सुधार के लिये समस्त रूकावटों व सावधानियों के किये गये प्रबंध के बावजूद लोकतंत्र के जन्म से अभी तक यही होता आ रहा है। यद्यपि इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि उसका जवाब भी वही असहिसष्णुता, कानून को अपने हाथ में लेना, न्यायपालिका पर अनावश्यक दबाव या घोर अनुउत्तरदायित्व कार्य कलाप हो सकता है। जब किसी भी नागरिक के साथ किसी भी प्रकार ज्यादती होती है तो, उसके पास एकमात्र संवैधानिक अधिकार न्यायालय की शरण में जाकर अपने मूल अधिकारों की रक्षा करना होता है। और अपने संवैधानिक व कानूनी अधिकारों के गैर कानूनी रूप से हनन किये जाने पर सक्षम न्यायालय से हर्जाना मांगने का अधिकार भी होता है। 
आपराधिक कानून के अंतर्गत किसी भी आरोपी की गिरफ्तारी के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने काफी समय पूर्व एक विस्तृत गाइड़लाईन जारी की थी, जिसे न्यायालय के निर्देशानुसार प्रमुख अखबारों में व्यापक रूप से प्रकाशित भी किया गया था। बावजूद इसके उक्त निर्देशो का कितना पालन होता आता आया है? आरोपी को हथकड़ी लगाने के संबंध में भी उच्चतम न्यायालय द्वारा वर्ष 1978 में सुनील बतरा विरूद्ध दिल्ली प्रशासन के प्रकरण में तत्पशाच कई प्रकरण में जारी गाइड़लाईन का आज भी निरतंर उल्लघंन होता आ रहा है। उच्चतम न्यायालय से लेकर अधीनस्थ न्यायालयों ने और अपनंे को सबसे जिम्मेदार चैनल कहने वाला रिपब्लिक टीवी ने कब? न्यायालय के उक्त बंधनकारी निर्देशों का पालन न होने की आवाज उठाई और उसे न्यायालय की अवमानना मानकर आवश्यक कार्यवाही की मांग कर अपने अतिरिक्त उत्तरदायी या उत्तरदायी होने का परिचय कराया? या इस विषय को लेकर रिपब्लिक टीवी ने क्या न्यायपालिका की गरिमा की सुरक्षा लगातार तीन महीने सुशांत कांड के समान रिपोर्टिंग की? क्योंकि उक्त मुद्दे लोकहित, जनहित, न्यायहित व देशहित से जुड़े है, जिनका रखवाला होने का दावा रिपब्लिक टीवी लगातार करते आ रहा है। राष्ट्रहित के एकमात्र झंडेवरदार सिर्फ रिपब्लिक टीवी ही नहीं है? अन्य अधिकांश चैनल भी अपना अपना सहयोग इस दिशा में देते आ रहे है।  
मतलब साफ है, सार्वजनिक जीवन जीने वाले ‘‘सम्मानीयों’’ पर जब कभी कानून का ड़ंडा वैध या अवैध रूप से पड़ता है, तब ‘खुद’ पर आसमान टूट पड़ने के कारण उसे ‘‘तंत्र’’ का मुद्दा बतलाकर देशहित खतरे में हैं, का विलाप करने लगते है। जबकि उनका गलत तरीके से निज स्वार्थ वश उक्त विलाप करना ही देशहित के विरूद्ध है। तब हम क्या उस नागरिक के साथ हुई ज्यादती व्यक्तिगत घटना को ‘‘संपूर्ण तंत्र की असफलता‘‘ या उस पूरे ‘‘नागरिक समाज‘‘ के साथ हुई ज्यादती से जोड़ सकते हैं, प्रश्न यह है?यदि हाँ तो फिर एक ‘‘नागरिक’’ अर्नब गोस्वामी के साथ हुई ज्यादती की घटना को सम्पूर्ण प्रेस जगत के साथ जोड़कर और आपातकाल की परिभाषा तक ले जाना, क्या अपने आप में एक ज्यादती नहीं होगी? क्योंकि अर्नब के विरूद्ध प्रस्तुत मामले में की गई कार्यवाही एक आर्थिक व्यवहार व षड़यंत्र के आरोपों के तहत की गई है। न कि एक पत्रकार का दायित्व निभाते हुये ‘‘कोपभाजन’’ बनने के कारण हुई है। 
अर्नब यद्यपि एक प्रमुख पत्रकार है, तथापि वे संपूर्ण मीडिया के पर्यायवाची या प्रतिबिम्ब नहीं है,हमें व उन्हे समझना होगा। पुलिसिया तरीके से पुलिस कार्यवाही पर गुस्सा होना/आना स्वभाविक व जायज है। परन्तु पब्लिक डोमेन में रहने वाले खासकर पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य करने वाले व्यक्ति के लिये गुस्से में संतुलन खोना सही नहीं है। जब प्रमुख वर्ग (मीडिया) के एक ख्याती प्राप्त व्यक्ति के साथ शासन-प्रशासन तंत्र द्वारा सत्ता, अधिकारों, नियमों व कानून का दूरूपयोग कर ज्यादती की जाती है, तभी वह प्रमुख व्यक्ति ज्यादती के दर्द को महसूस व अहसास कर पाता है। अन्यथा उनके वर्ग के एक सामान्य व एक सर्वबेहाल आम नागरिक जैसे न जाने कितने नागरिक तंत्र के दुरूपयोग का दिन-प्रतिदिन शिकार होते रहते है। परन्तु उनकी न तो स्वयं की कोई आवाज होती है और न ही कोई उठाता है और वह आवाज एक नामचिन के साथ हुई कथित अत्याचार के शोर में दब जाती है। आम निरीह नागरिक के साथ हुई ज्यादती के गहरे दाग तभी लोगों केा दिखते है या उनका दर्द महसूस होता है, जब तक वह पीड़ित नागरिक पत्रकार या वकील का चोला नहीं पहन लेता है। 
अब जब तंत्र में आवश्यक या अल्प सुधार भी न हो पा रहा हो, शायद तभी समस्त सार्वजनिक जीवन के प्रमुख व्यक्तिगण अत्याचार से पीड़ित होने पर ही तंत्र की इस कमी को दूर करने के लिये कुछ न कुछ सुधार करने के बाबत अवश्य सोचेंगें और आवश्यक कदम उठा पायेगें। आज के युग में यह भी तंत्र के इलाज का एक मजबूरी में उठाया हुआ कारगर तरीका हो सकता है, और तंत्र को सुधारने की इस दृष्टि से भी अर्नब और उसके साथ खड़े लोगों को सोचने की नितांत आवश्यकता है। 
                                 *द्वितीय भाग*
रिपब्लिक एवं आर भारत टीवी के मुख्य संपादक अर्नब गोस्वामी के साथ ज्यादती, पक्षपात पूर्ण रवैया, राजनैतिक प्रतिशोध व दुश्मनी निकाले जाने की बात मीडिया में कम परन्तु आंशिक रूप से राजनैतिक क्षेत्रों में ज्यादा की जा रही है। क्या उसी पैरामीटर व प्लेटफार्म पर ‘अर्नब’ को भी खड़ा नहीं करेगें? सर्वप्रथम अर्नब क्या एक राजनैतिज्ञ है? जो राजनैतिक द्वेश की बात की जा रही है। शायद हो सकता है, वे एक विशिष्ट राजनैतिक एजेंड़ा लेकर पत्रकारिता कर रहे हो? तभी तो राजनैतिक प्रतिशोध की बात स्वयं रिपब्लिक टीवी भी कर रहा है। 
अर्नब पर हुई ज्यादती पर अमित शाह से लेकर तमाम प्रमुख भाजपा नेताओं के बयान आये जिन्होंने इस घटना को लोकतंत्र के चैथे स्तंभ पर हमला से लेकर आपातकाल तक बता दिया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो इसे लोकतंत्र का गला घोटना बता दिया। परन्तु ‘‘राजनैतिक’’ आरोप के चलते शायद योगी यह भूल गये कि उनके स्वयं के ‘‘उत्तम प्रदेश’’ उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर का नमक रोटी प्रकरण, जिसमें मिड़-डे-मील के रखरखाव के संबंध में पत्रकार पवन जायसवाल की गिरफ्तारी, बिजनौंर के एक गांव में पांच पत्रकारों के विरूद्ध दलित समुदाय के पानी न लेने-देने की खबर को फर्जी बताते हुये मुकदमा दर्ज करना, आजमगढ़ में पुलिस की बिना नम्बर की गाड़ी की खबर दिखाने वाले पत्रकार पर प्रकरण दर्ज करना, न जाने ऐसे कितने मुकदमे दुर्भावना पूर्ण व पत्रकारों को अनुचित दबाव में लाने के लिये व प्रताड़ित किये जाने के लिये दर्ज किये जाते रहे है। तब लोकतंत्र व मीडिया कितना मजबूत हुआ होगा? रिपब्लिक टीवी टीवी ने राष्ट्रहित में पत्रकारों के साथ हुये उक्त समस्त अत्याचारों पर कितना हाय तोबा मचाया? (सुशांत की सियासत के समान) यह बात भी अर्नब के छिपे राजनैतिक ऐजेंड़ा की पुष्टी ही करती है क्योंकि प्रायः अन्य पाटियों के नेताओं के बयान अर्नब के समर्थन में नहीं आये।
सार में ‘निष्पक्षता’ व कत्र्तव्य पालन की उम्मीद रखने वाले व्यक्ति से क्या स्वयं की निष्पक्षता, कत्र्तव्य निवर्हन व ‘सच’ की उम्मीद नहीं की जानी चाहिये? क्या अर्नब इस बैरोमीटर पर खरे उतरते है? कहा भी जाता है, ‘‘कांच के घर में रहने वाले व्यक्ति को दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेकना चाहिये’’। बात कड़वी हो सकती है। अर्नब के साथ हुई उक्त घटना के लिये यदि आप पूरे तंत्र व राष्ट्र को खीचेगें, आरोपित (ब्लेम) करेगें, (तथाकथित) प्रेस की आजादी को खतरा है, आवाज बुलंद करने वालों को भी तब अपने तर्क को वजन देने के लिये अर्नब को भी उसी पैमाने से उसी तराजू में तौंलकर निष्कलंक दिखाना होगा। तभी आप की बात का वजन कई गुना बढ़ पायेगा। वैसे भी हमेशा सबको आयना दिखाने के साथ कभी-कभी स्वयं को भी आयने के सामने रखना चाहिये, ताकि वास्तवित धरातल का अहसास महसूस होता रहे।  
अर्नब की तथाकथित ‘निष्पक्षता’, राष्ट्रहित व मीडिया रिपोर्टिंग के कुछ मूलभूत मान्य तथाकथित सिंद्धातों के कत्र्तव्य पालन का एक सुपरिचित उदाहरण है, सुशांत केस का मीडिया कवरेज। एक सुशांत सिंह फिल्मी कलाकार की आत्महत्या की घटना का कोई ‘‘सामाजिक सरोकार’’ या ‘‘देश की सुरक्षा’’ से कोई लेना-देना नहीं था जो आत्महत्याओं की अन्य अनके घटनाओं के समान एक सामान्य घटना मात्र है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के इतिहास में अभी तक किसी मीडिया हाॅउस ने लगातार इतने लम्बे समय (लगातार तीन महीने से ज्यादा) का स्लाट किसी एक ‘‘सामान्य’’ घटना को नहीं दिया है जो रिपब्लिक भारत ने किया है। उक्त घटना के तथाकथित आरोपियों का मीडिया ट्रायल कर दोषी भी करार कर दिया गया। इसी के चंद दिन बार हुई दूसरे कलाकार ‘समीर शर्मा’ की आत्महत्या को रिपब्लिक टीवी ने कितने समय का स्लाट दिया? क्या सिर्फ इसलिए नहीं कि वह कलाकार ‘बिहार’ का नहीं था या मुंबई के मुख्यमंत्री निवास से उसके तार नहीं जुड़ पा रहे थे? इस लगातार प्रसारण के पीछे अर्नब का उद्देश्य क्या है? जिस घटना पर आत्महत्या के अलावा सीबीआई जांच में भी अभी तक कुछ अतिरिक्त (उकसाने के) साक्ष्य भी नहीं ढूढ़ पाई है, तब उसे हत्या का नाम देकर एक नागरिक को देश के सामने हत्यारा घोषित कर उसकी प्रतिष्ठा को धूल चटाना (जो अब वापिस नहीं आ सकती है) व उसके लिये माफी भी न माँगना; क्या यही सही व न्याय दिलाने वाली पत्रकारिता है? 
माननीय मुबंई उच्च न्यायालय ने (जिससे स्वयं अर्नब ने मामलों में सहायता पायी है) भी सुशांत प्रकरण में इतनी ज्यादा हो रही मीडिया ट्रायल पर ‘‘एनबीए’’ व सूचना मंत्रालय से कार्यवाही करने की बात कही तो, अर्नब ने अपने को उस न्यूज ब्राड़कास्ट एसोशियेसन से हटाकर खुद का एक नया संघ ‘‘न्यूज ब्राड़कास्टिंग फेड़रेशन’’ बना लिया। कानून का पालन करने के बड़े-बड़े दावा करने वाले अर्नब गोस्वामी के पास क्या कानून का पालन करने का यही तरीका बचा था?  
अर्नब ‘‘एक व्यक्ति’’ नहीं ‘‘भारत की आवाज’’ है। ‘‘120 करोड़ लोग’’ इस मुद्दे पर खड़े है, यह ‘‘अघोषित आपातकाल’’ है। ‘‘पूछता है भारत’’। ऐसी रिपोर्टिग ‘‘आर भारत’’ टीवी कर रहा है। हमने तो ‘‘आपातकाल’’ के समय भी ‘‘जेपी आंदोलन’’, में 100 करोड़ लोगों को आंदोलन के साथ खड़े होते नहीं देखा, जब सिर्फ मीडिया ही नहीं बल्कि पूरा ‘‘लोकतंत्र’’ ही खतरे में था। मीडिया के आपके अन्य समस्त साथीगण घटना की वैसी निरंतरता व प्रमुखता से रिपोर्टिंग नहीं कर रहे। वे ही जब आपके साथ नहीं है, तब 100 करोड़ लोग जिन्हे रोजी-रोटी से ही फुरसत नहीं है, उनके सहित 120 करोड़ लोगों का अर्नब के साथ होने का दावा कर क्या रिपब्लिक टीवी सही रिपोर्टिंग कर रहा है? यह घटना कौन सी धार्मिक मामलों या देश की सुरक्षा से जुड़ी है, जहां रिपब्लिक टीवी धार्मिक क्षेत्र के विभिन्न संतो व ‘सेना’ के रिटायर्ड मेजर जनरल आदि की प्रतिक्रियाएं अर्नब के समर्थन में लेकर दिखा रहा है। क्या अपने बचाव में ऐसे बचकाने दावे निष्पक्ष, स्वच्छ व सही मीडिया रिपोर्टिंग है? दुर्भाग्य से या सुनियोजित तरीके से घटित घटना से उत्पन्न आग की अग्नि को शांत करना ‘देशहित’ है या किसी व्यक्तिगत घटना के कारण व्यक्तिगत हितों के लिये जबदस्ती उन्माद पैदा करने का प्रयास करना राष्ट्र हित है? यह अर्नब व जनता को तय करना है। 
उक्त घटना के लिये बार-बार सोनिया, राहुल गांधी का नाम लेकर आप कौन सी निष्पक्षता व सही रिपोर्टिंग कर रहे है? इसका क्या यह मतलब नहीं निकाला जाए कि मोहम्मद साद की अभी तक भी गिरफ्तारी न होने के लिये आपके उक्त नजरिये से मोदी ‘‘जिम्मेदार’’ है? क्या आपने मोहम्मद साद की गिरफ्तारी का मुद्दा जिसका निश्चित रूप से राष्ट्र की सुरक्षा व आमजन के स्वास्थ्य से संबंध है, को सुशांत के समान ऐजेंड़ा बनाकर लगातार प्रश्न उठाकर ‘साद’ का ‘‘मीडिया ट्रायल’’ किया जैसा कि आपने सुशांत प्रकरण में ‘रिया’ का किया था? रिपब्लिक टीवी की रिपोर्टिंग कितनी निष्पक्ष व तथ्य लिये हुये है, यह मुंबई उच्च न्यायालय ने उसके समक्ष दायर फिल्म उद्योग से जुड़े 34 अभिनेता-निर्माता द्वारा दायर की गई याचिका पर रिपब्लिक टीवी, टाइम्स नाऊ, व टीवी 9 का उल्लेख करते हुये यह कहा कि ये मीडिया हाॅउस न्यूज न देकर अपनी ओपिनियन दे रहे है। उच्च न्यायालय ने इसके लिये इनके वकीलों को कड़ी फटकार भी लगाई।  
यदि आपके साथ आपके व्यक्तिगत विरोधी अथवा अन्य कारणों से हुये विरोधियों ने निष्पक्ष होकर कानून का पालन नहीं किया है तो, लोकतंत्र में कानून के राज में आपको अपनी रक्षा में इसके विरोधी बर्ताव करने का अधिकार स्वयंमेव नहीं मिल जाता है? सभ्य समाज में आपको अपने अधिकारो की रक्षा के लिये कानूनी प्रक्रिया की सहायता से व एक उत्तरदायी नागरिक का दायित्व निभाकर ही चलना होगा। अराजकता का जवाब अराजकता नहीं हो सकता है। जहां रिपब्लिकन टीवी इस गिरफ्तारी की घटना को लगातार पिछले 100 घंटे से सिर्फ उक्त घटना की ही रिपोर्टिग कर रही है। इसके पश्चात कुछ अन्य समाचार के शीर्षक व वीडियो क्लिक दिखाये गये। वहीं वह देश में और विदेश में हो रही अन्य घटनाओं को रिपोर्टिग लगभग नहीं के बराबर है। जैसे अमेरिका में हो रहे राष्ट्रपति के चुनाव की। जबकि अन्य टीवी चैनलों में इस घटना के साथ अन्य घटनाओं की रिपोर्टिग भी हो रही है। क्या सिर्फ इसलिये कि आप उस चैनल के मालिक है? यदि बात सिर्फ शुद्ध पत्रकारिता की है, तब टीवी चैनल को अर्नब के मालिक होने के प्रभाव से हटकर मुक्त होकर एक स्वतंत्र व निष्पक्ष रूप से इस घटना व अन्य समाचारांे को प्रसारित करना चाहिये। 
अंत में अर्नब ने जमानत के आवेदन में कानून के उस प्रावधान का पालन न करने का गंभीर आरोप लगाया कि पुलिस ने सक्षम न्यायालय से बंद हो चुके प्रकरण में पुनः जांच प्रांरभ करने के पूर्व अनुमति नहीं ली जो कि गलत व तथ्यों के विपरीत है। उक्त प्रकरण में शिकायतकत्र्ता अदन्य नाइक द्वारा दायर अपराधिक याचिका क्रमांक 1543/2020 में दिनांक 22.09.2020 को मुबंई उच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार को जांच के निर्देश दिये प्रतीत होते है। इस प्रकार उनका यह कहना कि उक्त कार्यवाही अवैध होकर प्रारंभ से ही शून्य है, प्रथम दृष्टियता गलत प्रतीत होती दिखती है। क्योंकि अर्नब की गिरफ्तारी पर न्यायिक मजिस्ट्रेट ने 14 दिनों का न्यायिक हिरासत दी है, जमानत नहीं दी। हाईकोर्ट ने भी अनुरोध के बावजूद तुरंत अंतरिम सहायता न देकर प्रकरण अगले दिन और फिर आगे सुनवाई के लिए रख दिया और आज जमानत देने से इंकार कर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका निरस्त कर दी। अर्थात हिरासत को अवैध (शून्य) नहीं किया, शून्य करणीय (वायडेबल) जरूर हो सकती है।
एक समय जब अर्नब टाइम्स नाऊ में थे, तत्समय उनका स्तर इतना ऊँचा था कि मैंने अन्य समस्त चैनलों को देखना छोड़ दिया था। मुझे याद आता है रामजेठमलानी व राज ठाकरे ही ऐसे शख्स रहे जो अर्नब का सामना प्रभावी होकर कर पाये। रिपब्लिक टीवी प्रारंभ करने के बाद अर्नब स्वयं पत्रकार कम बल्कि एक विशिष्ट ऐजेंड़ा लिये हुये कार्य करते हुये दिख रहे है, यह अर्नब के गिरते स्तर का प्रमाण है। 
चूंकि मैं एक वकील हूं और यदि पत्रकार नहीं भी हूं तो, लेखक होने के कारण उसी जीनस का तो हूं ही। इसीलिए उक्त दोनों रूपों में आये अपने विचारों को आपके साथ साझा कर रहा हंू व उपरोक्त सिद्धांत अपने पर भी लागू करता हूं।

बुधवार, 4 नवंबर 2020

बिहार के चुनाव ‘‘परिणाम’’ कहीं ‘‘अंकगणित‘‘ को गलत तो सिद्ध नहीं कर देंगे?


बिहार के चुनाव परिणाम प्रायः अप्रत्याशित ही रहे हैं। याद कीजिये! पिछले विधानसभा के आम चुनाव के परिणाम। पहले घंटे के निकले प्रारंभिक रुझान पर स्टूडियोज में बैठे समस्त ज्ञानी, बुद्धिजीवी, मूर्धन्य पत्रकार, राजनीतिक पंडित व विशेषज्ञों द्वारा तेजी से प्रतिक्रिया देने के बाद परिणाम के धीरे-धीरे और अंततः एकदम से विपरीत हो जाने के कारण उन लोगों को शर्मिंदा तक होना पड़ा था। अतः यह चुनाव भी अप्रत्याशित परिणाम लाये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये। वैसे बिहार ‘‘अप्रत्याशितता’’ अन्र्तविरोध व ‘‘विरोधाभास’’ की कर्मभूमि रही है। केंद्रीय भूमिका लिये हुये ‘जेडीयू’ परस्पर घोर विरोधी ‘राजद’ व भाजपा के साथ बार-बार सत्ता सुख ले रही है। ‘‘जेपी आंदोलन’’ से लेकर उससे उत्पन्न नेता या तो जेल में है या ‘‘सुशासन बाबू’’ से होकर अब वे शायद शासन करने लायक भी नहीं रह जायेगें। एक ‘‘मोदी’’ के रहते दूसरे ‘‘मोदी’’ की जरूरत नहीं कहने वाला प्रदेश आज ‘‘मोदी मोदी’’ हो रहा है। ‘‘मोदी’’ के सम्मान में आयोजित भोज को निरस्त करने वाले आज ‘‘मंच साझा’’ करने के लिये तड़प रहे है। चुनावी सभाओं में अनुच्छेद 370 हटाने को अपनी उपलब्धियां बताने वाले प्रधानमंत्री अनुच्छेद का विरोध कर चुके मुख्यमंत्री के लिए वोट मांग रहे हैं। बिहार की राजनीति का उपरोक्त ‘‘विरोधाभास’’ तो देखिए, जहां तीन-तीन बार नीतीश कुमार ने मोदी की अवमानना की हो और नीतीश द्वारा बिना माफी मांगे या खेद प्रकट किए ही मोदी को ऐसे नीतीश कुमार के लिए वोट मांगने पड़ रहे है। राजनीति की यही "निम्न पराकाष्ठा" है। 'राजनीति जो न कराए सो थोड़ा है'!

‘‘राजद‘‘ के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री पद के दावेदार लालू यादव के सुपुत्र, पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने ‘‘महागठबंधन’’ का ‘‘बदलाव का संकल्प पत्र’’ जारी करते हुए यह घोषणा की कि वे प्रथम कैबिनेट में ही पहले हस्ताक्षर से 10 लाख ‘‘बेरोजगार नौजवानों‘‘ को ‘‘सरकारी नौकरी‘‘ देंगे। उक्त घोषणा ने न केवल राजनीतिक क्षेत्रों में तहलका मचा दिया बल्कि राजनीतिक विश्लेषकों को थोड़ा अचंभित भी कर दिया। सिर्फ ‘‘नौंवी पास’’ व्यक्ति का इतना बड़ा आर्थिक दाँव/पासा फेकना?बिना देर किये मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एवं उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने तेजस्वी के 10 लाख लोगों को नौकरी देनी की घोषणा पर कटाक्ष करते हुए कहा कि इसके लिए 58 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा धन की व्यवस्था करनी पड़ेगी, जो कि वर्तमान में सरकार के कुल वार्षिक बजट लगभग 2 लाख करोड़ को देखते हुए, समस्त अन्य खर्चों व विकास खर्चों की मदों के मद्देनजर बिल्कुल भी सम्भव नहीं है। ‘तंज‘ कसते हुए यह कहा कि क्या यह व्यवस्था ‘नकली नोटों को छापकर’ या उन पैसो से जिसने ‘जेल’ पहुंचाया है, से होगी? उन्होंने तेजस्वी की उक्त उद्घोषणा को ‘‘ढ़पोरशंखी घोषणा‘‘ और चुनावी ‘जुमला’ तक बता दिया।

यहां तक तो ठीक था। परन्तु तेजस्वी की ‘‘नौकरी’’ देने की उक्त घोषणा का बेरोजगार नवयुवक मतदाताओं पर तेजी से पड़ते हुए प्रभाव के भय से चिंतित होकर आनन-फानन में उक्त दावे की आलोचना करने के अगले ही दिन ‘‘महागठबंधन‘‘ के विरोधी गठबंधन ‘‘एनडीए‘‘ की ‘‘डबल इंजन की सरकार‘‘ (जिसे अभी अभी लालू ने ‘‘ट्रबल इंजन‘‘ की सरकार कहां है) के एक प्रमुख घटक भारतीय जनता पार्टी ने पांच सूत्र एक लक्ष्य व ग्यारह संकल्पों के साथ ‘‘संकल्प विजन डाॅक्यूमेंट‘‘ जारी किया, जिसमें ‘‘अटका बनिया देय उधार‘‘ की तर्ज पर 19 लाख लोगों को ‘‘रोजगार‘‘ देने का वादा किया गया। जब पत्रकारों ने यह पूछा कि 10 लाख नौकरी की घोषणा पर अमल होना संभव ही नहीं है, कहकर आप तो तेजस्वी की आलोचना कर मजाक उड़ा रहे थे, फिर अब 19 लाख की बात कैसे? इस पर उन्होंने यह स्पष्टीकरण दिया कि हम ‘‘नौकरी‘‘ की नहीं ‘‘रोजगार‘‘ देने की बात कर रहे हैं। 

यहीं पर एनडीए तेजस्वी की फेंकी हुई ‘‘गुगली’’ में फंस गई। नौकरी का नहीं ‘‘सरकारी नौकरी’’ का महत्व है। सरकार पर काबिज व ‘सरकार’ का महत्व समझने वाले ‘‘सरकारी’’ नौकरी का महत्व नहीं समझ पाये और यही पर तेजस्वी भारी पड़ गये। एनडीए महागठबंधन की पहली कैबिनेट में नौकरी देने की घोषणा की तकनीकि त्रुटियां, कमियां व अड़चन बतलाने के अलावा स्वयं इस बात का स्पष्टीकरण नहीं दे पाया कि इन 19 लाख रोजगार में नौकरी की कितनी संख्या शामिल है? और ये 19 लाख रोजगार वे कितने दिनों में देंगे? इस कारण उन्हें अगर-मगर करते हुए अगल-बगल झांकना पड़ रहा है।

तेजस्वी 10 लाख नौकरी किस प्रकार देंगे, उसका ब्योरा भी वे जनता के बीच लगातार प्रस्तुत कर रहे हैं। जो कम पढ़े लिखे नेता की कम पढ़ी लिखी जनता को ‘भा‘ भी रहा है। 19 लाख जो कि ज्यादा बड़ा आंकड़ा है, की तुलना में 10 लाख (लगभग आधा) पर मतदाता ज्यादा विश्वास कर रहे हैं, जो अंक गणित की अति सामान्य धारणा के विपरीत है। इसीलिए लेख का उक्त ‘शीर्षक‘ दिया गया है। इसी कारण पहले तेजस्वी के दावे का मखौल उड़ाना, ‘बोगस’ करार देना, फिर उसकी काट के लिये 19 लाख रोजगार की बात करना, परन्तु उसमें नौकरी के आंकड़े व समय सीमा न देने के कारण परिर्वतन की चाह के चलते जनता तेजस्वी पर ज्यादा विश्वास करने के लिये मजबूर सी हो गई लगती है। संभवतः बिहार के चुनावों में शायद यही होने भी वाला है।

बिहार विधानसभा के महत्वपूर्ण हो रहे आम चुनाव के ‘‘आंकड़ों’’ के ‘‘रण’’ में ‘‘तेजस्वी‘‘ के पीछे देश के समस्त ‘‘यशस्वी‘‘ ‘‘विश्वसी’’ लोग लग गये हैं। जिस कारण से दिनों दिन बढ़ते विश्वास के साथ तेजस्वी एक युवा चेहरे के रूप में उभर रहे हैं। लालू यादव के ‘‘दाग‘‘ व ‘‘कांड’’ फिलहाल कहीं भी उनका पीछा करते हुए नहीं दिख रहे हैं। शायद इस कारण से तेजस्वी ‘यशस्वी‘ बनने की ओर आगे बढ़ रहे हैं, और एनडीए की ‘‘ईंट से ईंट‘‘ बजाने के लिये कृत-संकल्प दिखायी पड़ रहे हैं। परंतु तेजस्वी के पीछे पड़े उक्त ‘‘यशस्वीगण’’ ‘‘आकाश पाताल एक कर के‘‘ भी तेजस्वी के ‘‘तेज‘‘ को पीछे छोड़ पायेंगे? यह देखने की बात होगी। 

‘‘लालू राबड़ी की चुनाव प्रचार में ‘‘फोटो‘‘ न लगाने पर तेजस्वी की आलोचना करना ‘‘राजनैतिक समझ’’ से परे है। अपने को अधिक समझदार मानने वाले राजनीतिक गण कृपया यह बताने का कष्ट करेंगे कि आपकी आलोचना से ड़र कर या जवाब में यदि तेजस्वी अपने माता-पिता की फोटों ‘‘तीसरे दौर’’ के चुनाव प्रचार में लगा दें तो क्या आप फूलों मालाओं की हार के साथ उनकी ‘‘समालोचक प्रशंसा’’ करेंगे? ‘दागी’ होने के कारण माता-पिता होने के बावजूद तेजस्विनी ने उनकी फोटों नहीं लगाई तो, राजनीति में ‘‘स्वच्छता’’ बढ़ाने के लिये तेजस्वी की पीठ थपथपाई जानी चाहिये थी। एनडीए के लिये तो तेजस्वी का यह कदम ‘‘आत्मघाती’’ गोल सिद्ध हो सकता था। यदि एनडीए ‘दागी’ स्थिति को तेजस्वी द्वारा अप्रत्यक्षतः स्वीकार किये जाने के कारण फोटो न लगाने के लिये (आलोचना करने के बजाए) साहस पूर्वक आगे आकर तेजस्वी को बधाई दे देते! देश की ‘‘राजनीति’’ ऐसी ‘‘राजनीति’’ से कब ऊपर उठकर जनहित नीति व स्वस्थ्य व स्वच्छ ‘राजनीति’ में परिणित होगी, देश इसकी प्रतीक्षा कर रहा है।

वर्तमान चुनाव में चिराग पासवान ‘‘अपनी खिचड़ी आप‘‘ पका रहे हैं। उनका नारा ‘‘नीतीश कुंआ तो तेजस्वी खाई’’ को चिराग के एक ‘‘शुभचिंतक‘‘ ने आगे बढ़ाया ‘तेजस्वी खाई तो चिराग पलटाई।‘ ’’पलटवार‘‘ व ‘‘वोट कटुवा‘‘ (भाजपा की निगाहों में) ‘‘कुआं एवं खाई‘‘ में से किसका ‘‘चिराग‘‘ जलाकर ‘‘उजाला‘‘ पैदा करेंगें, ‘‘अंकगणित‘‘ को सही या गलत सिद्ध करेंगे, यह तो 10 नवंबर को ही पता चल पाएगा। तब तक कुछ अन्य और ‘‘शब्द बाणों’’ का आनन्द लीजिये!

चुनाव परिणाम जो भी आए, लेकिन निश्चित रूप से तेजस्वी इस बात के लिए बधाई के पात्र हैं कि इस आम चुनाव में ‘‘रोजगार के मुद्दे‘‘ को (रोजी-रोटी के साथ जोड़कर) मुख्य चुनावी एजेंडा व ‘‘नरेटिव‘‘ के रूप में केंद्रित करने में वे सफल होते दिख रहे है। तेजस्वी ने एक नया नारा दे दिया है कि, इस चुनावी त्यौहार में जनता कमाई, पढ़ाई, सिंचाई, दवाई, महंगाई, सुनवाई, व कार्यवाही करने वाली सरकार चुनें। बिहार, जिसकी पहचान ही‘‘अगड़ा-पिछड़ा‘‘ ‘‘दलित-अति दलित‘‘ ‘‘जातिवाद की राजनीतिक पहचान‘‘ है और लालू यादव तथा राजद की पहचान भी इसी रूप में रही है। बावजूद इसके अभी तक देश में किसी भी प्रदेश में हुए आम चुनावों अथवा लोकसभा के चुनावों में ‘‘गरीबी हटाओ‘‘, ‘‘मंदिर मस्जिद‘‘, ‘‘मंडल कमंडल‘‘, भ्रष्टाचार व अन्यायों मुद्दों के बीच ‘‘रोजगार का मुद्दा‘‘ होते हुए भी यह मुद्दा इन अनेकानेक मुद्दों की भीड़ के बीच जो ढ़क जाता था, को ‘‘मुख्य मुद्दा‘‘ बना कर उस पर समस्त पार्टियों को विचार करने व बोलने के लिए विवश कर दिया। ‘‘चुनावी राजनीति’’ को नई दिशा देने के प्रयास के लिए निश्चित रूप से वे बधाई के पात्र हैं।

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