शनिवार, 13 मार्च 2021

क्या ‘‘सपेरों‘‘ के "अच्छे दिन" लौट रहे हैं?

भारत विविध संस्कृतियों का देश है। एक समय देश के विभिन्न भागों में खासकर ग्रामीण अंचलों में शेरों (सर्कसों में), बंदरो, सांपों, तोता, कबूतर, पक्षियों, सांडों, बैलों, घोड़े इत्यादि का सार्वजनिक व फिल्मों में प्रदर्शन कर जनता का मनोरंजन कर उनसे लगे लोग अपनी रोजी-रोटी कमाते रहे है। वन संरक्षण (जीव अत्याचार) अधिनियम 1980 के आने के बाद इन सब के सार्वजनिक प्रदर्शन पर लगभग रोक लग जाने से इनसे जुड़े लोग बेरोजगार से हो गए हैं। लेकिन कहते हैं ना कि ‘‘राजनीति जो ना कराए वह थोड़ा है’’। अर्थात "राजनीति: निमित्तम् बहुकृत वेषा"। आज की राजनीति में खासकर "चुनावी राजनीति" में आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू होने के बावजूद,‘‘सब कुछ जायज‘‘ है। इसलिए कि आज अधिकतर "गैर जायज" लोग ही राजनीति चला रहे हैं।

जायज क्या है? बात कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में प्रधानमंत्री की चुनावी ऐतिहासिक मेघा रैली के मंच पर उपस्थित फिल्म ‘‘मृगया’’ के लिये राष्ट्रीय पुरूस्कार प्राप्त पूर्व टीएमसी (तृणमूल) सांसद, प्रसिद्ध फिल्मी वेटरन कलाकार, मिथुन चक्रवर्ती के कथन की है। उन्होंने बंगाली भाषा में एक अपनी फिल्म का एक संवाद बोला है, जिसका अर्थ हैः- ‘‘मुझे एक हानिरहित सांप समझने की गलती न करें, मैं एक कोबरा हूं। लोगों को एक बार में डसंकर मार भी सकता हूं’’। वे कहते है कि वह पानी के सांप नहीं है, बल्कि कोबरा हूं,‘‘डसूंगा तो तुम फोटो बन जाओगे’’। भाजपा के किसी भी प्रवक्ता द्वारा उक्त कथन से अपने को अलग करने का कोई बयान फिलहाल अभी तक नहीं आया है। मौनम् स्वीकृति: लक्षणम्" । मिथुन चक्रवर्ती ने भी प्रासंगिकता  तथा समय व अवसर की "नाजुकता" को देखते हुए अपने उक्त अप्रासंगिक कथन के लिये "खेद" प्रकट नहीं किया है। कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड के बाबत चुनाव से संबंधित एक बात बहुत  प्रसिद्ध है कि  इस मैदान में जो भी पार्टी पूरा कब्जा कर लेती है, उसका पूरे बंगाल पर कब्जा हो जाता है। और आज प्रधानमंत्री की प्रथम चुनावी सभा ने यह दिखा दिया है कि  पूरा का पूरा  मैदान "मानव मुंडियो" से भरा पड़ा हुआ है । तब इस तरह के बेहूदा जहरीले बयान की क्या आवश्यकता है?

इससे यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि आज की राजनीति क्या इतनी ‘‘जहरीली‘‘ हो गई है कि उसके जहर की काट के लिए के लिए एक ‘‘जहरीले नाग‘‘ की आवश्यकता हो गई है? क्योंकि कहा यही जाता है कि एक ‘‘जहर‘‘ ही दूसरे ‘‘जहर‘‘ को काट सकता है। जब एक ‘‘जहरीला नाग‘‘ राजनीति में अपने विपक्ष के जहर को समाप्त कर ‘‘निष्प्रभावी‘‘ बनाएगा तो स्थिति की भयावहता की कल्पना की जा सकती हैं। फिर जब ये "कोबरा" तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के साथ थे और उनके कोटे से राज्यसभा में गए थे, तब तत्समय उनकी ‘‘मारण शक्ति‘‘ का प्रभाव विपक्षीयों पर क्यों नहीं दिखाई दिया? तब तो संसद में लगातार अनुपस्थिति के कारण उन्हें सांसद की सदस्यता से इस्तीफा तक देना पड़ गया था। तब चर्चित चिटफंड कंपनी सारदा घोटाला में उनका नाम उछला था। अभी तक तो भाजपा को राजनीति में ऐसा ‘‘पारस पत्थर‘‘ माना जाता रहा कि उनके संपर्क में आने पर ‘‘पीतल‘‘ भी ‘‘सोना‘‘ बन जाता है। परंतु अब तो ‘‘संपर्क‘‘ से ‘‘अमृत‘‘ भी ‘‘जहर‘‘ में बदल जाएगा। "विष रस भरा कनक घट जैसा"। शायद इसी को वे "आमार सोनार बांग्ला" कहते हैं।

एक इंटरव्यू में उन्होंने पूरे पश्चिम बंगाल की जनता को ही कोबरा कह दिया। शायद उनको एहसास हो गया होगा कि, एक कोबरा पूरी (टीएमसी) तृणमूल कांग्रेस को नहीं डस सकती है। उन्हे कई कोबरा की आवश्यकता होगी? आगे उन्होंने यह कहा कि मैं कॉम्प्रोमाइज पॉलिटिक्स नहीं करता हूं। शायद तीसरी चौथी बार दल बदल कर भाजपा में शामिल होना "कॉम्प्रोमाइज पॉलिटिक्स" नहीं है तो, वे कौन से "सिद्धांत" वाली राजनीति कर रहे है? कम से कम सिद्धांत शब्द को तो  शर्मिंदगी  न महसूस होने दे । सिद्धांत पर आधारित राजनीति ऐसे मिथुन मौशाय से सीखनी होगी?  

आगे वे कहते है कि ‘‘मारूंगा यहां पर लाश गिरेगी श्मशान में’’। तृणमूल कांग्रेस हिंसावादी राजनीति करते आ रही है, ये आरोप ही भाजपा आज नहीं काफी समय से लगा रही है, बल्कि वास्तविकता में भाजपा के सैकड़ों कार्यकर्ता हिंसक राजनैतिक  मुठभेड़ों के शिकार होकर मारे गये है। उसके जवाब में शायद मिथुन ‘दा’ भी मरने मारने व डसंने की बात कह रहे हो? भले ही उनके कहे गये कथन प्रसिद्ध फिल्मों के डॉयलाग हो, परन्तु उनका उन डॉयलागों के बोलने के अवसर व समय का ‘चुनाव’ कितनी प्रासंगिकता लिये है?  उन बयानों से ज्यादा उससे उत्पन्न "परसेप्पशन' पर क्या चिंता करने की ज्यादा आवश्यकता नहीं है?

खैर! राजनीति में अब "कोबरा" की आवश्यकता महसूस होनेे लगी है। इससे एक फायदा यह होगा कि ‘‘सपेरों’’ को भी रोजगार मिलने के अवसर खुल  जाएंगे। क्योंकि बिना प्रशिक्षित सपेरों के ‘‘नागों’’ का सार्वजनिक प्रदर्शन "अलक्षित" लक्ष्य को भी नुकसान पहुंचा सकता है। इसलिये अब देश के लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए प्रत्येक चुनाव की घोषणा होते ही सपेरों की मांग के विज्ञापन/ज्ञापन निकलने लगेंगे और बहुत से बेरोजगारों को कुछ समय के लिये ही सही रोजगार अवश्य मिल जायेगा। 

राजनीति में आखिर यह गिरावट कहां जाकर रुकेगी, इस पर आज शायद बुद्धिजीवी वर्ग भी सोचने को तैयार नहीं है?

शुक्रवार, 12 मार्च 2021

पेट्रोलियम उत्पादों के मूल्य निर्धारण की ‘‘नीति’’! भाजपा-कांग्रेस की "जनोपयोगी नीति" के बीच ‘‘पिसती’’ जनता।


पेट्रोलियम उत्पादों के लगातार बढ़ते मूल्यों पर पक्ष-विपक्ष जो पूर्व में ‘‘विपक्ष और सत्ता पक्ष‘‘ थे, की ‘‘नीतियों‘ (इसे ‘‘नीति’’ के बदले ‘‘राजनीति‘‘ कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा) का विस्तृत अध्ययन करने पर जो निष्कर्ष निकलता है, उसमें आम जनता अपने को ठगा सा महसूस कर रही है। कैसे! 

वर्तमान में पेट्रोल, डीजल और रसोई ईंधन गैस के जो दर (रेट्स) लगातार बढ़ रहे हैं, उस पर वर्तमान सत्तापक्ष और विपक्ष इस बढ़ोतरी को लेकर अब क्या कहती हैं, और जब वर्तमान विपक्ष सत्ता में और सत्ताधारी पार्टी विपक्ष में थी, तब दोनों पार्टियां क्या कहती थी? आप पाएंगे; दोनों ही पार्टियों के सत्ता और विपक्ष की भूमिका में आश्चर्यजनक रूप से समस्त तर्क, मत व विचार लगभग समान व एकरूपता लिए हुए हैं। दोनों ‘‘एक ही थैली के चट्टे-बट्टे’’ और ‘‘चोर चोर मौसेरे भाई’’ हैं। एक ‘‘नागनाथ (पूर्व सत्ता पक्ष) है, तो दूसरा सांपनाथ’’। यह बात जरूर है कि ‘‘नाग’’ की तुलना में सांप को कम नुकसानदायक माना जाता है। स्पष्ट है, पेट्रोलियम उत्पाद के संबंध में पूर्व में दोनों दलों द्वारा अपनाई गई यह नीति का परिणाम हुआ है कि, दोनों प्रमुख दलों की स्वयं की अब कोई "मूल अवधारणा  या नीति" न रहकर पेट्रोलियम उत्पादों ने "स्वयं" ही आगे आकर सत्ता पक्ष और विपक्ष की नीति को स्थाई रूप से तय सा कर दिया है, ऐसा लगता है। 

मतलब पेट्रोलियम उत्पादों  के मूल्यों के बढ़ने या कम होने पर सरकार या विपक्ष का अपना स्वयं का कोई ‘‘विजन‘‘ या ‘‘नीति’’ न होकर दोनों दल चाहे वे ‘‘सत्ता‘‘ में रहे हो अथवा ‘‘विपक्ष‘‘ में, उनके रोल और नीति को पेट्रोलियम उत्पादों ने स्वयं ही एक नीति निश्चित कर दी है। जिन्हें दोनों पक्ष अपनी-अपनी भूमिका अर्थात पक्ष या विपक्ष जिस भी स्थिति रहे हो, अपनाते  चले आ रहे हैं। इससे यह स्पष्ट है कि दोनों ही पक्ष जनता के हितों की बात न कर जब राजनैतिक दृष्टिकोण से अपने विरोधियों की आलोचना करना और अपने ‘‘कमजोर पक्ष‘‘ (अधिक दर) को मजबूती प्रदान कर ‘‘अपना उल्लू सीधा करना’’, यही नीति चलते आये है, जिससे ‘‘निरीह‘‘ जनता मानने व भुगतने को मज़बूर है। 

आपको याद होगा, देश के उपभोक्ताओं के लिये पेट्रोलियम उत्पादों के मूल्य निर्धारण की नीति को यूपीए सरकार ने "सरकारी नियंत्रण से मुक्त‘‘ कर कंपनियों के पाले में डाल दिया था, यह कहकर कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल (क्रूड ऑयल) के बढ़ते घटते मूल्य के आधार पर पेट्रोलियम कंपनीयां देशी बाजार में पेट्रोल-डीजल के दाम को तदनुसार निर्धारित कर सकेगीं और इसलिए अब पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ने के लिए सरकार जिम्मेदार नहीं है। इसे डायनमिक प्राइसिंग कहते है। यह "आधिकारिक सैंद्धातिक" स्थिति है। परन्तु  वास्तविक रूप से धरातल पर उतरी हुई नहीं है। यह इस बात से सिद्ध होती है कि दिन-प्रतिदिन, हफ्ता-पख़वाड़ा डीजल-पेट्रोल के मूल्यों में होने वाली वृद्धि ‘‘चुनाव के समय’’ अवकाश ले लेती है। यह छुट्टी सरकार ही तो देगी? अंर्तराष्ट्रीय बाजार तो नहीं? "आदर्श चुनाव संहिता लागू" होते ही मूल्य वृद्धि भी "आदर्श" दिखाने के लिए "रुक" जाती है?

हमने तत्समय भी देखा था कि अंर्तराष्ट्रीय बाजार में कीमत बढ़ने पर तो हमारी देशी बाजार में मूल्य अवश्य बढ़ जाते थे, लेकिन मूल्य कम होने पर उसका प्रभाव (लाभ) तेल कंपनियां हम उपभोक्ताओं को लगभग नहीं देती थी। इस प्रकार पेट्रोलियम उत्पाद सरकार के लिए एक बहुत बड़ी आय (रेवन्यू) एकत्रित करने का एक सुगम ‘‘हथियार‘‘ बन गया। आपको याद होगा, यूपीए सरकार में अंतरराष्ट्रीय मार्केट में जब वर्ष 2003-04 में 20 डालर प्रति बैरल से वर्ष 2011-12 में 110 डालर प्रति बैरल मूल्य तक क्रूड आयल की कीमत बढ़ गई थी, तब भी देश में ₹ 65 के आसपास पेट्रोल बिकने पर तत्कालीन विपक्ष भाजपा ने किस तरह से हो हल्ला हंगामा कर देश भर में प्रदर्शन किया था।  विरोध के "प्रतीक' बैलगाड़ी, साइकिल, सिलेंडर, पदयात्रा आदि एक समान ही रहे, सिर्फ झंडे-डंडे अलग रहे। नरेंद्र मोदी व देश की खुशकिस्मती से अंर्तराष्ट्रीय मार्केट में क्रूड ऑयल की कीमत कम होकर 45-50 डालर प्रति बैरल तक गिरने के बाद वर्तमान में 60-65 डालर हो जाने के बावजूद भी देश के भीतर पेट्रोल डीजल की कीमत कम होने के बजाएं बढ़ती ही जा रही है, जो आज ₹100 प्रति लिटर के आसपास तक पहुंच गई है। पिछले छः सालो में पेट्रोल पर लगने वाली एक्साइज ड्यूटी 12 बार बढ़ाई जाकर (मात्र 2 बार कम की गई) पिछली यूपीए सरकार की तुलना में अभी तक की अधिकतम एक्साइज ड्यूटी वर्तमान सरकार ने  लगाई है। वर्तमान में भारतीय तेल कंपनियां लगभग 30 प्रति लिटर की कीमत पर कच्चा तेल आयात कर एक्साइज डूयटी, वेट व डीलर कमीशन जुड़कर लगभग 100 प्रतिलिटर डीज़ल हो गया है। इससे यह स्पष्ट है कि पेट्रोल-डीज़ल की कीमत का सीधा संबंध विेदेश में कच्चे तेल की कीमत से नहीं, बल्कि देश में लग रहे विभिन्न टैक्स व डीलर कमीशन से है। 

 केंद्र सरकार का यह आरोप कि राज्य सरकारों ने पेट्रोलियम प्रोडक्टस् पर वेट की दर बढ़ा दी है और उन्हें डीजल-पेट्रोल की कीमतें कम करने के लिए वेट की दर भी कम करनी चाहिए, अपनी जिम्मेदारी से बचने और जनता की ‘‘आंखों में धूल झोंकने’’ का यह तर्क, नहीं मात्र कुतर्क ही है। यूपीए की तुलना में एनडीए के समय राज्य सरकारें (अधिकांश राज्यों में एनडीए की ही सरकारें हैं) द्वारा लगाया गया  वेट की औसतन दर ज्यादा बढ़ाई गई है, जिसके लिए स्वयं एनडीए ही जिम्मेदार है। देश में विभिन्न राज्यों में पेट्रोलियम उत्पादों  पर वेट की "असमान दरों" को दूर कर पूरे देश में एकरूपता लाने के लिए केंद्रीय सरकार पेट्रोलियम  उत्पादों को "जीएसटी" के अंतर्गत क्यों नहीं ला रही है? जब अधिकांश राज्य सरकारें और व्यापारी वर्ग इस बात के लिए तैयार है। देश में मात्र पांच राज्यों में ही तो विपक्ष एवं सहयोगियों की सरकारें है। उनमें से भी अधिकांश राज्य पेट्रोलियम  उत्पादों को जीएसटी के अंर्तगत लाने के लिए तैयार हैं। ऐसी स्थिति में एक राष्ट्र, एक झंडा, एक नागरिकता, एक राष्ट्र भाषा, एक कर, एक दर के विचार को मजबूत करने वाली भाजपा की सरकार द्वारा जीएसटी के अंतर्गत पेट्रोल उत्पादों को न लाने और उससे उत्पन्न परिणाम/दुष्परिणाम के लिए सिर्फ केंद्र सरकार ही जिम्मेदार मानी जाएगी। हिमायती सरकार यह भी भूल रही है कि पेट्रोलियम  उत्पादों पर कर लगाने व बढ़ाने से नागरिक को स्वयं "एक ही बार" ही कर देना नहीं होता है। बल्कि ड़ीजल के मंहगा होने से ट्रांसपोर्ट की लागत बढ़ जाने से माल की लागत बढ़ जाने के कारण एक उपभोक्ता को हर खरीदे गये माल पर अप्रत्यक्ष रूप से कई बार टैक्स देना होता है, जो "बहु बिन्दु" टैक्स हो जाता है। इस पर न तो सरकार की नागरिकों के प्रति चिंता है और न ही नागरिक बहु बिन्दु टैक्स बावत चिंतित है। 

          आश्चर्यजनक रूप से वर्तमान में भाजपा भी पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य निर्धारण नीति को ‘‘यूपीए सरकार ने लागू की थी’’, कहकर उससे अपना पल्ला झाड़ अवश्य रही है। लेकिन वह यह बतलाने को तैयार नहीं है कि, यदि वह नीति ग़लत है तो, भाजपा सरकार नीति को बदल कर पूर्व स्थिति में क्यों नहीं ला देती है? न ही भाजपा यह बतला रही है कि ऐसा करने में कौन सी संवैधानिक या क़ानूनी अड़चन है? लेकिन आश्चर्य तो आज उससे भी ज्यादा इस बात का होता है कि, जनोंमुखी सरकार के मंत्री गण और पार्टी के प्रवक्ता गण पेट्रोलियम  उत्पादों की मूल्य वृद्धि के औचित्य को इस आधार पर सही ठहराने का प्रयास कर रहे हैं कि, ‘‘देश के बहुमुखी चौमुखी विकास‘‘ में प्रत्येक नागरिक का सहयोग होना चाहिए। पेट्रोलियम उत्पादों पर लगे कर के माध्यम से सरकार के पास रेवेन्यू (राजस्व) का एक बड़ा ‘‘स्त्रोत‘‘ आ रहा है, जहाँ नागरिकों से कर रूप में वसूले गये इन रूपयों का उपयोग,  देश की विकास के लिए बन रही "योजनाओं के क्रियान्वयन" में लग रहा है। इसलिए नागरिकों का यह दायित्व है कि वे कर के रूप में अपने अंशदान को राष्ट्रीय हित में दें। 

         निश्चित रूप से देश के विकास में एक नागरिक की भागीदारी की सरकार की ‘‘सकारात्मक‘‘ सोच को अवश्य धन्यवाद देना चाहिए। लेकिन दुख का विषय तो यह है कि, यही कार्य (मूल्य वृद्धि के माध्यम से योगदान का) यूपीए सरकार के समय में जब हो रहा था, तब तत्कालीन विपक्ष भाजपा ने नागरिकों को देश के विकास में सहयोग देने के लिए डीजल पेट्रोल की महंगाई में भागीदार होने के लिए जन आंदोलन चलाकर "निरुत्साहित" क्यों किया? वास्तव में यदि केंद्र सरकार प्रत्येक नागरिक की देश के विकास में टैक्स (कर) देकर अपना अंशदान से सहयोग करने की भावना को मजबूत करना ही चाहती हैं तो, फिर सरकार ‘‘सब्सिडी‘‘ क्यों देती हैं? और सब्सिडी प्राप्त करने वाले नागरिकों को देश के विकास में योगदान से ‘‘वंचित‘‘ क्यों करती हैं? सरकार जब कोई टैक्स, कर, उपकर, अतिरिक्त कर, सेस, अतिरिक्त सेस, ड्यूटी इत्यादि विभिन्न नामों से लगने वाले ‘‘कर‘‘ को कम करती हैं, या हटाती है तब अपनी पीठ थपथपाने के लिए और शाबाशी पाने के लिए जनता को रिलीफ़ (सहायता) देने की बात कहती हैं? इस तरह का ‘‘दोहरा चरित्र‘‘ चाहे कोई भी राजनैतिक पार्टी या गठबंधन हो, इस देश की राजनीति को कब तक चलायेगा? क्योंकि अब यह कहना तो बेमानी होगा कि राजनीति में दोहरा चरित्र चलता है।

              मूल्य वृद्धि के संबंध में अज़ीबोग़रीब तर्क की श्रंखला में कभी ‘‘मौसम‘‘ तो कभी वैश्विक संक्रमित महामारी "कोरोना' को भी कारण बता दिया जाता है। केंन्द्रीय पेट्रोलियम मंत्री के कथनानुसार अंर्तराष्ट्रीय बाजार में ईधन का उत्पादन कम होना और अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए ओपेक व ओपेक प्लस देशों के द्वारा ईधन का उत्पादन कम करने से अंर्तराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में वृद्धि हुई है। सांसद महेन्द्र सिंह सोलंकी का यह हास्यादपद और गरीब जनता के  "भूखे पेट" को चुभने  वाला बयान आता है कि, अगर पेट्रोल के मूल्य में वृद्धि हो रही है तो, उसी अनुपात में लोगों की आमदनी भी "बढ़ी" है।

             निश्चित मानिए! भारतीय जनता ‘‘नृप होउ, हमहिं का हानी’’ की लीक पर चलने वाली है और उसकी ‘‘अन्याय‘‘ सहने की आदत काफी पुरानी है व वह इसकी अभ्यस्त हो चुकी है। जनता की अपने अधिकार क्षेत्रों के अधिकार के लिए संघर्ष करने की मानसिकता पूरे देश में न तो एक जैसी है और न ही समस्त वर्गों में एक जैसी है। मात्र कुछ वर्ग स्वयं होकर और कुछ वर्ग "उकसाए" जाने पर "अधिकारों' के लिए आंदोलनरत होते है। अन्यथा जनता तो उस दुधारू गाय के समान है, जिसका सब कुछ दूध से लेकर गोबर तक राजनेता छीन कर अपने उपयोग में ले लेते हैं और बदले में उसको खाने के लिए जरूरी मिलने वाला चारा भी राजनेता खा जाते हैं। 

         क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी आदि एक से एक वीर पुरुष और शांतिप्रिय शखि़्सयत/व्यक्तित्व हुए वाले देश में वर्तमान में नागरिकों  की जो ‘‘सुप्त व अचेतन अवस्था‘‘ हैं, क्या वह हम आपको "आंदोलित" नहीं करती है? देश के आम नागरिकों का यह सोच क्या उचित है कि देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए आज फिर कोई  गांधी,  बोस, भगत सिंह, पं. दीनदयाल उपाध्याय पैदा हो जाए? एक नागरिक अपने अपेक्षित उत्तर  दायित्वों  जिसकी पूर्ति नहीं कर रहा है, से विमुक्त व मुक्त होकर ऐसे वीरों की ओर सिर्फ "टकटकी निगाहों" से देखने से क्या "संतुष्ट" हुआ जा सकता है? सबसे बड़ा "यक्ष" प्रश्न आज यही है?

रविवार, 7 मार्च 2021

‘‘रुपए‘‘ के साथ ‘‘पैसे‘‘ का ‘‘अभी भी’’ ‘‘महत्व’’ है?

पिछले कुछ समय से ‘‘महंगाई‘‘ व ‘‘भ्रष्टाचार‘‘ का मुद्दा ‘राजनीति’, राजनैतिक दलों या अन्य किसी के लिये भी अमूनन विवाद का विषय नहीं रहा गया है। सालों लंबे समय से महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते हुए समस्त पक्ष अर्थात सरकार व विपक्ष और उनको वोट देने वाले नागरिकों ने इसे (भ्रष्टाचार व महंगाई) को अपनी कार्य प्रणाली की ‘‘कार्यकुशलता’’ (सरकार ने) विपक्ष ने इसे एक ‘‘रूटीन’’ और (नागरिकों ने) इसे जीवन की एक ‘‘नियति’’ मान लिया है। अर्थात शासन व विपक्ष को इसे मुद्दा बनाए बिना ही राजनीति करनी पड़ रही है। क्योंकि इन दोनों ज्वलंत व नागरिकों के जीवन स्तर को नियत्रिंत करने वाले मुद्दों पर फिर चाहे शासन पर कोई भी राजनैतिक पार्टी आरूढ़ रही हो, इन दोनों मुद्दों के लिये जिम्मेदार समस्त तंत्रों को काबू में नहीं ला पाए है और उन्हे नियत्रिंत करने में बुरी तरह से विफल रहे है। अर्थात मर्ज बढ़ता गया, ज्यों ज्यों दवा की। इसलिये ‘‘इलाज‘‘ करने की इरादा ही शायद अब त्याग दिया गया है। यह कहना ज्यादा सामयिक व उचित होगा कि अब ‘भ्रष्टाचार’ व ‘मंहगाई’ समस्त तंत्रों में गहराई तक उतर कर धुलमिल होकर स्वयं का ‘‘स्वतंत्र व प्रथक‘‘ अस्त्तिव खोकर ‘तंत्र’ का ही भाग हो गई है। जिस कारण से वह अब राजनैतिक मुद्दे की सूची से बाहर ही हो गयी  है।

यद्यपि भ्रष्टाचार के मामले में निश्चित रूप से वर्तमान एनडीए सरकार का प्रदर्शन (परफॉर्मेंस) कहीं बेहतर कहा जा सकता है। जहां पर यूपीए की सरकार समान ‘‘पीएमओ‘‘ पर कोई भ्रष्टाचार के मामले में उंगली नहीं उठा पाया है, और संस्थागत भ्रष्टाचार के कांडों (स्केंडल) के आरोप भी तुलनात्मक रूप से कम व सतही ही लगे है। अन्यथा नीचे के स्तर तक भ्रष्टाचार ‘‘शिष्टाचार नवाचार और एक अलिखित नियम‘‘ सा बन गया है। इसीलिए नागरिकों को भी इसे जीवन की एक आवश्यक बुराई मानकर इसके साथ जीना ही होगा। जो ‘‘शैली’’ नागरिकों ने मजबूरी में सीख ली है व वे इसके अब अम्यस्त भी हो गये है। बकौल गालिब ‘‘मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसां हो गयी’’। और इसीलिये अब तो ‘‘इसे‘‘ शायद बुराई मानने से भी परहेज किया जाने लगा है। आज के लोकतंत्र की ‘‘राजनीति’’ और व्यक्तिगत जीवन के ‘‘विकास‘‘ में अब यह एक ‘‘संजीवनी‘‘ का काम करने सा लग गई हैं, ऐसा लगता है। उपरोक्त भूमिका लिखने का मकसद मात्र यह है कि, क्या आज वास्तव में तीनों पक्षों में से किसी भी पक्ष के लिए महंगाई एक मुद्दा रह गई है? इस पर आज थोड़ा हटकर विचार करते है। 

आज जब चारों तरफ महंगाई की आग में आम नागरिक झुलसने के लिए विवश हैं, और झुलस रहे है, तब उनका महंगाई के विरुद्ध उस तरह का ‘‘विरोध’’ पब्लिक डोमेन में नहीं आ रहा है, जैसी कि तीव्र प्रतिक्रिया पूर्व में हुआ करती थी, क्योंकि तब वह जिंदा बहस तथा चर्चा का ज्वलंत मुद्दा हुआ करती थी। इसी प्रकार वर्तमान शासक जो पूर्व में विपक्ष हुआ करते था, उनकी आवाज महंगाई के संबंध में वैसे ही होती थी, जैसे वर्तमान में विपक्ष की, जो पूर्व में शासक हुआ करती थी। अर्थात महंगाई के संबंध में सत्ता पक्ष और विपक्ष के तर्क में आश्चर्यजनक रूप से ‘‘गहरी समानता‘‘ व लगभग ‘‘एकरूपता’’ देखने को मिलती है व होती है। दोनों ‘‘मियां की जूती मियां के सर’’ पर मारने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। सिर्फ ‘‘स्थान’’ परस्पर बदल (एक्सचेंज हो) जाते हैं। खैर! देश के वर्तमान राजनैतिक पटल पर कम से कम कहीं तो राजनैतिक दल एक साथ खड़े हुये दिख रहे हैं? ये क्या कोई कम बात है?

इस महंगाई के दौर में सबसे प्रमुख बात यही कही जाती है कि ‘‘रुपए का अवमूल्यन‘‘ हो कर व्यक्ति की क्रय क्षमता ‘‘कम‘‘ हो गई है। यह बात आर्थिक विशेषज्ञों के दृष्टिकोण से तो सही हो सकती है। लेकिन मैं इसके दूसरे पहलू की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं कि ‘‘न्यायालय’’ और ‘‘सरकार’’ दोनों की नजर में रुपए का ‘‘अवमूल्यन‘‘ न होकर उसके ‘‘मूल्यांकन‘‘ में वृद्धि हो गई है। वह कैसे! इसे आगे समझते हैं।

पहले बात ‘‘रुपए‘‘ के मूल्य की ही कर ले। आपको याद ही होगा कि देश के माननीय उच्चतम न्यायालय ने अवमानना के मामले में प्रशांत भूषण को न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया जाकर उन्हें ₹1 के फाइन भरने पर जेल जाने से छूट प्रदान की थी। इस निर्णय के पूर्व तक क्या आपके हमारे जीवन में एक रुपए का कोई मूल्य रह गया था? उच्चतम न्यायालय ने एक रूपए के मूल्य को पुर्नस्थापित किया। इस प्रकार स्पष्ट है ₹1 का मूल्य का पुर्नस्थापना उच्चतम न्यायालय के द्वारा की जाने पर शायद ‘‘₹1‘‘ को भी अब ‘‘गर्व‘‘ महसूस हुआ होगा की ‘‘रुपया‘‘ होने के बावजूद न्यायालय के इस निर्णय के पूर्व तक उसकी कोई ‘‘औकात‘‘ ही नहीं बची थी। भिक्षावृत्ति करने वाला भी ₹1 का नोट लेने से इंकार कर देता था। इस प्रकार ₹1 के महत्व को हमने देखा, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत भूषण के मामले में स्थापित किया। जिसके कारण प्रशांत भूषण एक रुपए जमा करके जेल जाने से बच गए। आइए अब ‘‘पैसे‘‘ का ‘‘मूल्य‘‘ देखते हैं, जिसे सरकार कैसे व किस प्रकार ‘‘पुनर्स्थापित‘‘ कर रही है।

एक आम नागरिक की नजर में क्या 10, 20, 50 या 90 पैसे की कोई ‘‘वैल्यू‘‘ (मूल्य) रह गई है? इसका उत्तर निसंदेह निर्विवाद रूप से ‘‘नहीं‘‘ ही है। लेकिन इसके बावजूद मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि, आपकी नजर में ही अब उक्त पैसे की वैल्यू इतनी ज्यादा हो गई है कि, आप इस कारण से बढ़ रही महंगाई के विरुद्ध गुस्से में हैं। मेरा मतलब पेट्रोल डीजल की कीमत में बढ़ोतरी को लेकर आपकी परेशानी व झुनझुनाहट से है। सरकार पेट्रोल व डीजल के मूल्य में पिछले कुछ-कुछ समय में ‘‘पैसों‘‘ की वृद्धि करके पेट्रोल के मूल्य को एक सैंकड़े के आसपास तक ले आई है, जब पेट्रोल का मूल्य ₹100 के आसपास हुआ तब, आपको एहसास हुआ, कि जिस प्रकार बूंद बूंद से सागर भरता है, उसी प्रकार मात्र कुछ कुछ पैसों की लगातार बढ़ोतरी ने पेट्रोल के मूल्य का शतक बना दिया। अब आपको ‘‘पैसे का मूल्य‘‘ भी ‘‘रुपए के मूल्य‘‘ की तुलना में ज्यादा लग रहा होगा और समझ में आ गया होगा। 

इस प्रकार पैसे के मूल्य की बढो़त्री होने के कारण सरकार, बैंक और समस्त व्यापारिक पैसे के लेन देन के लिये समस्त जिम्मेदार लोगों को एक अकवंर्ड स्थिति में ला दिया है जहां 50 पैसे से ऊपर होने पर 1 ₹ और 50 पैसे से कम होने पर 0 माने जाने की प्रचलित मान्यता प्राप्त थी। लेकिन यह स्थापित मान्यता को पैट्रोलियम मूल्यों में पैसों से वृद्धि करते समय प्रथक कर दिया।

क्या इस ‘‘पुर्नमूल्यांकन‘‘ व पुर्नस्प्रतिष्ठा दिलाने के लिए आपको सरकार  और उच्चतम न्यायालय को इस बात के लिए बधाई व धन्यवाद नहीं देना चाहिए? जहां एक ओर रुपए के पुर्नमूल्यांकन से नागरिक को ‘‘राहत‘‘ (जेल जाने से) मिली है, तो दूसरी और ‘‘पैसे‘‘ के पुर्नमूल्यांकन से नागरिक तकलीफ भोग रहा है। यह विचित्र खेल वर्तमान में निरीह और ‘‘मूंडी गई भेड़’’ के समान चुपचाप भुगत रही जनता के सामने हो रहा है, जिसके लिए स्वयं जनता ही ज्यादा जिम्मेदार है, और कोई नहीं? क्योंकि प्रत्येक गलत चीज का विरोध करने का जो मूल अधिकार संविधान में नागरिक को दिया है, उस अधिकार को नागरिक गण शायद भुला बैठे हैं या अपने को पूरी तरह उनके द्वारा चुनी गई सरकार पर निर्भर होकर इसे अपनी नियति ही मान रहे हैैं। इसीलिए संविधान द्वारा प्रदत्त जीने के अधिकार की सुरक्षा के लिये स्वयं जनता को ही आगे आना होगा जो न केवल उनके स्वयं के हित में होगा बल्कि अंततः देशहित में भी होगा। 

फिलहाल इतना ही! पेट्रोल पदार्थ के मूल्य के विरोध के संबंध में सरकारी नीति की विवेचना अगले लेख मेंय अन्यथा लेख यहाँ लम्बा हो जायेगा।

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