
आखिर! जनमत संग्रह का अधिकार किसके पास है, व इसे कब व कैसे लागू किया जा सकता है? तनिक इसे भी समझने का प्रयास किया जाना चाहिए। जनमत संग्रह ‘‘मत संग्रह’’ या वह जनमत है, जो प्रत्यक्ष मतदान के द्वारा किसी विशिष्ट प्रस्ताव पर जनता की राय ली जाती है। संक्षिप्त में इसे प्रत्यक्ष लोकतंत्र का एक रूप ही कहा जा सकता है। जहाँ लोकतांत्रिक देशों में चुनाव के द्वारा विधायिका के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से शासन किया जाता है, वहाँ सामान्यतया प्रत्यक्ष रूप से किसी भी मुद्दे पर जनमत संग्रह करने की आवश्यकता नहीं होती है। जब-जब जनादेश द्वारा चुनी हुई सरकार निर्णय लेती है तो, उसे जनमत संग्रह के बराबर ही माना जाता है। इसके बावजूद यदि चुनी हुई जनादेश प्राप्त सरकार किसी मुद्दे पर जनता का विचार जानना चाहती है व स्वयं निर्णय लेने के लिये अपने को पीछे खींचती है, तब उस मुद्दे पर जनमत संग्रह कराने का अधिकार उसके पास होता है। लेकिन विरोधी पक्ष को कोई भी संवैधानिक, वैधानिक या कानूनी अधिकार नहीं है कि, वह किसी मुद्दे पर चुनी हुई सरकार से जनमत संग्रह करने की मांग कर मानने के लिये सरकार को बाध्य करें, मजबूर करें। यद्यपि विपक्ष अपने तई स्वतः जनता के बीच किसी भी मुद्दे को जनमत संग्रह कराने के लिये ले जा सकता है, आंदोलन कर शासन पर दबाव बना सकता है। लेकिन सरकार यदि सहमत नहीं है तो, वह जनमत संग्रह की मांग को अस्वीकार कर सकती है, जो उसका विशेषाधिकार है। लोकतांत्रिक देश में शासन चलाने की यही स्थापित प्रकिया है। लेकिन यदि लोकतंत्र प्रत्यक्ष प्रणाली से चलाया जाता है, जो श्रेष्ठतर माना जाता है तो, उसकी तीन स्टेज प्रथम इनियशेन (शुरूवात) द्वितीय जनमत संग्रह व तीसरी वापस बुलाने का अधिकार होती है जो कि ‘अन्ना’ आंदोलन के मुख्य बिन्दु भी रहे है।
लेकिन यदि किसी देश में लोकतंत्र परिपक्व नहीं है, या तानाशाही है, राजशाही है या सीमित लोकतंत्र है तो, वहाँ पर किसी भी मुद्दे पर जनमत संग्रह कराया जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की निगरानी में और सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के अनुसार भी किसी भी देश में किसी मुद्दे पर जनमत संग्रह करा सकता है। अभी हाल ही में इंग्लैण्ड में यूरोपियन यूनियन से अलग होने के लिये जनमत संग्रह (रायशुमारी) कराई गई थी। जुनागढ़ रियासत के भारत में विलय के समय भी जनमत संग्रह कराया गया था। लेकिन दीदी! याद रखिये, वह जनमत संग्रह संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में नहीं किया गया था। इसलिए यह समझने का प्रयास किया जाना चाहिए कि ममता दीदी जाने अनजाने में क्या कह गई? देश की सार्व-भौमिकता पर प्रश्नचिन्ह लगा कर देश के साथ-साथ स्वयं को भी कठघरे मे खड़ा कर गई, जिसकी उपेक्षा किया जाना कदापि उचित नहीं होगा।
लगता है, ममता बनर्जी यह तथ्य भूल गई है कि, जिस संविधान के अंतर्गत स्थापित लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत हुये आम चुनावों में प्रचड़ बहुमत प्राप्त कर केन्द्रीय सरकार ने सीएए बिल संसद में पारित कर अधिनियम बनाया है। उसी प्रक्रिया के तहत ममता दीदी भी बहुमत प्राप्त कर मुख्यमंत्री बनी हुई हैं, जिसके कारण से प्राप्त हैसियत से ही उनने उक्त बयान दिया है। क्या ममता दीदी जनमत संग्रह के उक्त सिंद्धान्त को स्वयं पर भी लागू करने का साहस दिखा सकेगी? क्योंकि जब वह लोकतांत्रिक तरीके से पारित नागरिक संशोधन अधिनियम को अलौकतंात्रिक व अवैधानिक मान कर अंतर्राष्ट्रीय संस्था की निगरानी में जनमत संग्रह कराना चाहती है। तब इसी आधार पर दीदी के विरोध में हो रहे आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में ममता के खिलाफ जनमत संग्रह पश्चिम बंगाल के बाहर किसी निष्पक्ष संस्था के नियंत्रण में क्यों नहीं कराया जाना चाहिए? ममता की उक्त मांग का सही व सटीक उत्तर यही होगा, तभी इस तरह की गैर संवैधानिक बयानांे की रोक व उनका पटाक्षेप हो पायेगा।
इसलिये अब समय आ गया है कि केन्द्रीय सरकार ममता के प्रति अपनी ममता (ममत्व, प्रेम) समाप्त कर उक्त बयान से उत्पन्न संवैधानिक संकट पैदा होने के कारण ममता सरकार को तुरंत बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू करें। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल का हालिया यह बयान बहुत महत्वपूर्ण है कि, राज्य में कानून व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है। यही बात केन्द्रीय मंत्री (पश्चिम बंगाल से चुने गये सांसद) भी कह रहे है। फिर भी! राज्यपाल इस आधार पर राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश केन्द्र को नहीं भेज रहे है, क्यों ? राष्ट्रपति शासन लगाने के पश्चात ममता बनर्जी की सरकार के कार्य प्रर्दशन व उनके द्वारा उठाये गये मुद्दे पर पश्चिम बंगाल के बाहर स्थित निष्पक्ष संस्था के द्वारा जनमत संग्रह कराया जाये तभी ममता को अपनी गलती का एहसास हो सकेगा। कहा भी गया है ‘‘लोहा ही लोहे को काटता है’’।
अतः इस तरह के ऐसे बयान पर यदि तुरंत कार्यवाही नहीं की जाती है, तो निश्चित मानिये, देश के दूसरे भागों में भी जहां देश को तोड़ने वाली शक्तियां तथाकथित मानवाधिकार, नक्सलवाद, जातिवाद के आधार पर जो देश के विभिन्न स्थानों पर जब कभी भी आंदोलन को उकसाते रहती है, उन्हे भी अपनी गैर जायज मांगांे को सामने लाने के लिये इससे प्रोत्साहन मिलेगा, जिसे निरूत्साहित किया जाना देश हित में आवश्यक है।