शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2020

‘‘राहुल सिंह‘‘ का इस्तीफा! क्या भाजपा कार्यकर्ताओं की ‘‘छाती पर कील’’ तो नहीं?

प्रदेश में 28 विधानसभा की सीटों पर हो रहे उपचुनावों के दौरान ही एक और कांग्रेसी, दमोह के विधायक राहुल सिंह लोधी का इस्तीफा होकर भाजपा की टिकट पर उपचुनाव लड़ने की शर्त पर भाजपा में शामिल कर लिए गए। उपचुनावों के प्रचार के बीच राहुल सिंह को दमोह विधानसभा के भाजपा के नेता व कार्यकर्ताओं की ‘‘छाती पर सवार करवा के’’ मुख्यमंत्री आखिर भाजपा के उन कार्यकर्ताओं को ‘‘कोने में ठकेल कर’’ क्या ‘‘संदेश’’ देना चाहते है?

आपको याद ही होगा! अभी दो वर्ष भी व्यतीत नहीं हुये है, जब मध्यप्रदेश विधानसभा के हुये आम चुनाव में कांग्रेस को अल्प बहुमत मिला और ‘‘अनाथ’’ कांग्रेस के ‘‘नाथ’’ कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार का गठन हुआ। परंतु 15 महीनों में ही ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनैतिक आकांक्षाएं व महत्वाकाक्षाएं गुलाटी खाने लगी और अपने कट्टर समर्थक 22 व 3 अन्य विधायकों के साथ मिलकर विधानसभा की सदस्यता से सामूहिक रूप से इस्तीफा दे दिया और कमलनाथ सरकार को गिराकर उसे पुनः ‘अनाथ’ कर दिया। परिणाम स्वरूप ‘‘मामा’’ शिवराज सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार पुनः आरूढ़ हुई। सरकार बनने के बाद भी दल बदल का सिलसिला चलता रहा और 3 कांग्रेसी विधायकों ने इस्तीफा देकर भाजपा की सदस्यता ली। सरकार बनाने के लिए जितने विधायकों की बहुमत की आवश्यकता थी, उससे कहीं ज्यादा सरकार के गठन के पूर्व ही कांग्रेस से विधायकों को तोड़कर सशर्त भाजपा में शामिल कराया गया। 

इस घटनाक्रम से उन समस्त पुराने भाजपाइयों को मानो तो सांप ही सूंघ गया हो, जहां से वे पिछले चुनाव में कांग्रेसी विधायकों से चुनाव हार गये थे। ये भाजपाई नेतागण और उनके समर्थक गण भाजपा के ऐसे कट्टर समर्थक रहे हैं, जिन्होंने व उनके परिवारों ने जनसंघ से लेकर वत्र्तमान भाजपा के खडे विराट वृक्ष की ‘‘जड़ों को रोपा‘‘, ‘‘सींचा’’ और ऐसा ‘‘वट’’ वृक्ष बनाया, जिसकी ‘‘छाया’’ में वे सब जीवन के अंतिम समय तक ‘‘सम्मानपूर्वक रहने की इच्छाशक्ति व आकांक्षा पाले’’ हुए हैं। लेकिन रास्ता की लालसा व मौका परस्ती के कारण उन्हे ‘‘दूध की मक्खी’’ की तरह निकाल कर फेक दिया गया। चूंकि भाजपा की सरकार का गठन हो रहा था, इसलिए उन नेताओं व कार्यकर्ताओं ने एक अनुशासित सिपाही होने के नाते ‘‘खून का घूंट पी कर’’ भी ‘‘नेतृत्व‘‘ की बात को स्वीकार कर अपनी ‘‘राजनीतिक जीवन पूंजी’’ को पार्टी हित में ‘‘न्यांैछावर’’ कर दिया। लेकिन बात यही समाप्त नहीं होती है।

सरकार के गठन के बाद भी और उपचुनाव के दौरान इस तरह से कांग्रेस विधायकों का निरन्तर इस्तीफा दिलवा कर भाजपा में शामिल कर ‘‘किस बात’’ का ‘‘मैसेज’’ दिया जा रहा है, वह उन क्षेत्रों के कार्यकर्ताओं के समझ से परे है। और यह बात उनके उनकी ‘‘खोपड़ी के उपर से जा रही’’ है। यह बात तो तय है कि ये समस्त इस्तीफें सिंद्धान्तों की खातिर तो हुए नहीं है? उन्होंने इसी शर्त पर इस्तीफा दिया है कि होने वाले उपचुनावों में भाजपा के चुनाव चिन्ह पर उन्हें चुनाव लड़ाया जायेगा। इसका क्या यह अर्थ नहीं निकलता है कि यदि भाजपा में राजनैतिक सम्मान व पद पाना है तो, अब आपको ‘‘कांग्रेस के रास्ते‘‘ से होकर ही आना पड़ेगा? दशहरा उत्सव अभी हाल ही सम्पन्न हुआ है। ‘‘लक्ष्मण’’ व ‘‘विभीषण’’ का महत्व सर्व ज्ञात है। तत्समय सही विकल्प न होने के कारण विभीषण का औचित्य सही था।  परन्तु लगता है कि वर्तमान भाजपा ‘लक्ष्मण’ की बजाय ‘विभीषण’ के रास्ते को ज्यादा उचित मान रही है। विभीषण को वर्तमान में किस हेय दृष्टि से देखा जाता है? तो क्या वास्तव में यही सही रास्ता है? यह भाजपा कार्यकर्ताओं को तय करना हैं।

आखिर राहुल सिंह के इस्तीफें की आवश्यकता क्यों पड़ी? जब आपके पास पर्याप्त बहुमत हो गया है, तो अपने खून पसीने से पार्टी को मजबूत मुकाम हासिल कर बने ‘‘नेताओं‘‘ को छोड़कर/उपेक्षा कर  कांग्रेस के नेताओं को उनकी जगह चुनाव से लड़़ा कर पार्टी के प्रति निष्ठावान नेताओं की अर्जित राजनीतिक पूंजी को क्यों छीना जा रहा है? राहुल सिंह लोधी जो दमोह से भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व मंत्री जयंत मलैया को हराकर विधायक बने थे, के अब आगामी उपचुनाव में भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ने के कारण, उनकी राजनीतिक विरासत पार्टी ने छीन ली, जिसकी फिलहाल कतई आवश्यकता नहीं थी। चर्चित ‘‘डंपर कांड’’ के दौरान एक समय शिवराज सिंह की जगह जयंत मलैया के नाम मुख्यमंत्री पद के लिए चर्चित था और उनके पिता स्व. श्री विजय कुमार मलैया भी जनसंघ के जमाने से पार्टी से जुड़े रहे और प्रदेश के कोषाध्यक्ष भी रहे। डॉक्टर गौरीशंकर मुद्रित शेजवार, दीपक कैलाश जोशी, तेज सिंह सैंधव, व लाल सिंह आर्य, जय भान सिंह पवैया, रुस्तम सिंह, रामलाल रौतेल राव, देशराज सिंह यादव जैसे कई भाजपाई नेता है, जिन्हे अगली विधानसभा में भी टिकट इसीलिये नहीं मिल पाएगी, क्योंकि उनकी जगह कांग्रेस से आये विधायक भाजपा के उम्मीदवार बनकर चुनाव लड़ रहे है। और भाजपा नेतृत्व के लिये इन सब को जिताना न केवल नैतिक रूप से बल्कि सरकार के अस्त्तिव के लिए भी आवश्यक है। भाजपा के अंदरखाने की एक अपुष्ट खबर यह भी है कि ‘‘महाराजा’’ के उड़ते पंखों को सीमा में बांध दिया जाए, ताकि उनकी राजनैतिक सौदेबाजी की क्षमता को नियत्रिंत किया जा सकें। जिससे ‘‘राजा’’ भी अपना राजनैतिक तड़का लगाने को तैयार है। वैसे तो राजनीति में सब चीज जायज होती है। लेकिन भाजपा के लिये जब उसकी जरूरत न हो तब संघ के तृतीय वर्ष शिक्षित स्वयंसेवक के समान भाजपा कार्यकर्ता की कीमत पर यह ‘खोटी’ ‘‘राजनीति’’ उचित नहीं है। कांग्रेस का एक जमाना था, जब ‘‘फूलछाप कांग्रेसी’’ कहे जाते थे। अब जमाना पलट गया है, अब वे ‘‘पंजाछाप भाजपाई’’ कहलाते है। भाजपा के वफादार नेताओं को अंगूठा दिखाकर एवं कांग्रेस के बेवफा नेताओं को अंगूठी का नगीना बनाने का क्या संदेश जाता है? ‘‘यानी घर का जोगी जोगड़ा और आन गांव का सिद्ध?’’

लेकिन ऐसा लगता है की इस ‘‘ओपन एजेड़े’’ के साथ छिपा हुआ कुछ अन्य एजेंडा भी है। नेतृत्व शायद कुछ ऐसे मजबूत नेताओं को किनारा करना चाहते है, जो सालों से पार्टी के स्तम्भ रहे है, भले ही वे पिछले विधानसभा चुनाव में चुनावी राजनीति में हार गये हो। शायद इसी का फायदा उठाकर मुख्यमंत्री इस छिपे हुये एजेंडे के तहत कांग्रेसी विधायकों को पद का लोभ व लालच देकर भाजपा में ला रहे है, जिसकी अब कदापि आवश्यकता नहीं है। कम से कम पूरे तपे हुये तपनिष्ट सिद्ध नेताओं की कीमत पर तो नहीं होना चाहिये। इस छिपे एजेंडे का कहीं यह दुष्परिणाम न हो जाए कि भाजपा का कड़क धूप, ठड़ व बरसात को झेल कर बना तपोनिष्ठ कार्यकर्ता पार्टी को मजबूत करने की बजाय मजबूरी में अपने अस्तित्व व सम्मान की खातिर इस चुनाव में चमत्कारी निर्णय लाकर पार्टी को सबक न सिखा दें? इसीलिए केन्दीय नेतृत्व को इस बात को ध्यान में लेकर चिंतन करने की महती आवश्यकता है। हर बार ‘‘शार्ट कर्ट’’ (सुगम व सरल) रास्ता अपनाना घातक हो सकता है? 

वर्तमान  में तो राजनीति में तो ‘‘राहुल’’ शब्द "अपशगुन' ही है। लेकिन मध्य प्रदेश भाजपा के लिए "राहुल" ठीक वैसे ही वरदान सिद्ध हो सकता है जैसा केंद्र में।

शनिवार, 24 अक्तूबर 2020

प्रधानमंत्री का संबोधन! कार्य रूप में कितना ‘‘परिणित‘‘!


कोरोना (कोविड-19) के संबंध में प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संबोधन कॉफी आवश्यक व अपेक्षित भी था। यद्यपि प्रधानमंत्री प्रारंभ से ही इस मामले में स्वयं तो काफी गंभीर, चिंतित व आवश्यक कदम उठाने में सक्रिय रहे हैं। परन्तु बात घूम फिर कर वहीं आ जाती है कि, उनके संबोधन के उपदेशों और निर्देशों का क्रियान्वयन से ‘‘लगाव‘‘ या ‘‘दूरी‘‘  उनके सहयोगी और अनुयायियों से लेकर आम जनता के बीच में कितनी है? सबसे बडा प्रश्न यही हैं। और प्रधानमंत्री जी ने इस अंतर को समाप्त करने के लिए ‘‘भावुक अपील‘‘ के अलावा कौन से कड़े कदम उठाने के संकेत दिये हैं? जिसका नितांत अभाव दिखाई देता है। कोरोना पर यदि वास्तव में प्रभावी व जल्द नियंत्रण पाना है तो, आज की परिस्थितियों में कोई नया कदम उठाने का नहीं, बल्कि उठाये गये कदमों को दृढ इच्छाशक्ति के साथ पूर्ण रूप से धरातल पर उतारने की आवश्यकता है, जिसकी कमी अभी भी परिदर्शित हो रही है।

प्रधानमंत्री जी ने नागरिकों को संबोधित करते हुए एक महत्वपूर्ण संदेश दिया,‘‘जब तक दवाई नहीं तब तक ढिलाई नहीं‘‘। लेकिन यह उक्ति तभी सार्थक हो सकती है, जब सरकार स्वयं भी ‘ढिलाई‘ न बरते। अर्थात प्रधानमंत्री उक्त संदेश को स्वयं के मंत्रिमंडलीय सहयोगी, पार्टी के वरिष्ठ नेतागण, मुख्य मंत्रीगण व उनके मंत्रिमंडलीय साथियों पर प्रभावी व सार्थक रूप में लागू करेंगे, तभी उनके संदेश का असर अन्य दूसरे व्यक्तियों व आम जनता पर प्रभावी रूप से पड़ेगा। क्योंकि आम नागरिक तो हमेंशा ही दिशा निर्देशों के लिए अपने नेतृत्व की ओर टकटकी निगाहों से देखता रहता है। परन्तु जब नेतृत्व उन निर्देशों का पालन स्वयं ही नहीं कर रहा हों, जिसका पालन करने का निर्देश वे अपने अनुयायियों को देते हैं, तब वे अनुयायी उनका कितना पालन करेंगे, यह स्पष्ट रूप से समझ में आता हैं। 

‘सावधानी हटी दुर्घटना घटी‘ ‘उक्ति‘ हम प्रायः ट्रकों के पीछे लिखी हुई देखते हैं, जो वर्तमान ‘‘कोरोना‘‘ के संदर्भ में सटीक बैठती है। और प्रधानमंत्री जी का अपने संबोधन में ‘‘ढिलाई‘‘ से आशय भी इसी सावधानी के हटने से है। पर आप देख रहे हैं कि भाजपा के केन्द्रीय मंत्रीगण, मुख्यमंत्री गण व उनके सहयोगी मंत्री, पार्टी के वरिष्ठ नेता गण सहित अनेक राजनैतिक पार्टियों के नेतागण, मंत्रीगण कोरोना काल में कोविड-19 से पीड़ित होते जा रहे है। यद्यपि प्रधानमंत्री ने स्वयं कोरोना के संदर्भ में बरती जाने वाली सावधानियों के समस्त मापदंडों का पूर्ण पालन किया है। परन्तु पार्टी के नेतागण व अधिकांश अनुयायी पालन नहीं कर रहे हैं, तो फिर आम जनता के लिए उक्त संदेश कैसे प्रभावशाली होकर कार्य रूप में परिणित हो सकता है? क्योकि यह तो मानना ही होगा कि आवश्यक सावधानियों के संबंध में दिये गये निर्देशों का अनुपालन न करने के कारण ही ये सब ‘‘माननीय‘‘ कोविड 19 से संक्रमित हुए हैं। इन सब संक्रमित ‘‘मान्यवरों‘‘ के विरूद्व महामारी या आपदा प्रबंध अधिनियम के अन्तर्गत ‘‘प्राथमिकी‘‘ दर्ज क्यों नहीं की गयी? क्या राजनेताओं का यह कहना तो हैं नही कि षड़यन्त्र के तहत उनके विरोधी जबरदस्ती "आवश्यक दूरी" को खत्म कर "बल पूर्वक" सम्पर्क कर उन्हे संक्रमित कर रहे हैं? यदि ऐसा है तब ऐसे महानुभावों के विरूद्व प्राथमिकी दर्ज क्यों नही की जाती हैं? क्या कानून का उल्लंघन आम नागरिकों व महामहिमों में कोई अन्तर करता है? क्योंकि देश में लाखों व्यक्तियों के विरूद्व उपरोक्त अधिनियम के अंतर्गत जुर्माना लगाया गया हैं व कुछ के विरूद्व प्राथमिकी भी दर्ज की गई हैं।

आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 और महामारी रोग अधिनियम 1897 सहपठित धारा 188 भादंवि संशोधित 2020, के अंतर्गत जारी किये गये समस्त आदेश, निर्देश, एसओपी, सावधानियों, चेतावनियों इत्यादि का पालन, शासन और प्रशासन ‘‘ढिलाई‘‘ से नहीं, बल्कि पूरी कानूनी शक्ति और दृढ इच्छा शक्ति के साथ न केवल ‘‘ढीठ जनता‘‘ पर लागू करे, बल्कि स्वयं के अर्थात शासन प्रशासन के स्तर पर भी उसको पूर्ण रूप से लागू करवाये। तभी प्रधानमंत्री का नागरिकों को दिया गया उक्त संदेश सार्थक व उपयोगी सिद्ध होगा जो राष्ट्रहित, समाज हित, पारिवारिक हित एवं स्वयं नागरिक के हित में है। 

वर्तमान में हम देख रहे हैं कि कोरोना से संबंधित सावधानियों के बाबत समस्त निर्देशों का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन सभी स्तरों पर हो रहा है। अर्थात कानून लागू करने वाली शक्तियां शासन और प्रशासन तथा जिन पर कानून लागू किया जा रहा है, अर्थात आम नागरिक गण। इसलिए तो यहां यही कहावत चरितार्थ होती है कि ‘‘इस हमाम में सब नंगे हैं‘‘। ऐसी दशा में समस्त स्तरों पर हो रही ढिलाई को रोकेगा कौन? एक तरफ सरकार ने  ‘‘कोरोना‘‘ के कारण अत्यंत सावधानी बरतने के चलते महामारी व आपदा प्रबंधन कानून के अंतर्गत आम नागरिक की व्यक्तिगत, सामाजिक, धार्मिक और व्यवसायिक गतिविधियों को अत्यंत सीमित कर दिया है। जिसे जनता जनार्दन ने चाहे-अनचाहे, कम-ज्यादा स्वीकार कर लिया है, जैसे धार्मिक स्थलों, शादी-ब्याह, अन्य सामूहिक कार्यक्रम, बाजार, माॅल, सार्वजनिक स्थान, परिवहन इत्यादि पर आंशिक प्रतिबंध, वर्क टू होम का प्रावधान आदि। बावजूद इसके, आम नागरिक वे सब आवश्यक सावधानियां नहीं बरत रहे है, जिसके लिए उक्त (जिन्हे मजबूरी में स्वीकारा, लेकिन कमरतोड़) प्रतिबन्ध लगाये गये हैं। सरकार तथा न्यायालयों का भी सावधानियां बरतने और प्रतिबंध लगाने के संबंध में दृष्टिकोण कितना अतार्किक व अव्यवहारिक है? जिसे किसी भी रूप में उचित और सही नहीं ठहराया जा सकता है। 

चुनावी सभाओं, राजनीतिक रैलियों व राजनैतिक गतिविधियों में संख्या पर (पूर्ववर्ती लागू सीमा के अलावा) कोई प्रतिबंध नहीं।लेकिन धार्मिक, सार्वजनिक स्थलों में जाने में संख्या का प्रतिबंध जरूर है। इससे भी बड़ा सवाल यह उत्पन्न हो रहा है कि बिहार विधानसभा के आम चुनाव के साथ देश में हो रहे उप चुनावों में कोरोना के लिए बरती जाने वाली आवश्यक सावधानियों का पूरी उद्दंडता और बेशर्मी के साथ मंच पर बैठें उन व्यक्तियों के सामने, जिनका कर्तव्य व जवाबदेही ही इन नियमों का पालन करवाने की है, तथा प्रशासनिक अधिकारी गण जो चुनावी सभाओं का प्रबंधन देख रहे हैं, के समक्ष खुलेआम मखौल, और धज्जियां उड़ायी जा रही हैं। ‘‘जब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का"',यह कहावत पूरी तरह से यह चरितार्थ होती दिख रही है। सरकार की ‘आंख में उंगली डाल कर दिखाने‘ के बाद भी उसे यह सब क्यों दिखायी नहीं दे रही है?एक भी प्राथमिकी किसी के द्वारा और किसी के विरुद्ध दर्ज नहीं की गयी है। इन सबके सहित मीडिया के ठीक सामने भी कोरोना के समस्त "प्रोटोकॉल" की धज्जियां उड़ रही हैं। मीडिया ने भी यहां कर आगे आकर जनहित के अपने इस दायित्व को पूरा नहीं किया, जिसका वह चिल्ला चिल्ला कर दावा करता रहता है। परंतु प्रधानमंत्री जी का ध्यान इन कमिंयों की ओर नहीं गया, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि चुनाव आयोग आज नागरिकों को अपने पूर्व में जारी दिशा निर्देशों का स्मरण करा कर, उससे पुनः अवगत करा कर, पालन करने का अनुरोध तो कर रहा है, परन्तु स्वयं उल्लघंन का संज्ञान लेकर अपने निर्देशों के पालनार्थ कोई कार्यवाही नहीं कर रहा है। चुनाव आयोग की इस असहाय स्थिति देख कर आज पूर्व चुनाव आयुक्त स्वर्गीय टी एन शेषन की याद तरोताजा हो जाती है।

इसका मतलब साफ है कि यदि कोराना से आम आदमी को बचना है तो, वह ‘जांच‘ कराने के बजाय अपने मोहल्ले में सुबह से शाम तक प्रतिदिन भीड़ भरी चुनावी सभाएं कराता जाये और वह ठीक उसी प्रकार से कोरोना से बच जायेगा, जिस प्रकार से बिहार में नेताओं की चुनावी सभाओं में सम्मिलित होकर लोग कोरोना वायरस से बच रहे हैं? क्योंकि सरकार की यह सोच तो है नहीं कि ऐसी मीटिंगों से लोग कोरोना वायरस से संक्रमित होंगे? और यदि ऐसा नहीं है तो, फिर अपने सामने होने वाले उल्लंघनों के विरुद्ध महामारी अधिनियम के अन्तर्गत कार्यवाही क्यों नहीं की जा रही है? 

‘‘न्यायिक सक्रियता‘‘ के बाद आज की स्थितियों में "न्यायालय" भी कई बार परिस्थितियों व घटनाओं का "जनहित" में स्वतः संज्ञान लेकर  संबंधित पक्षों को नोटिस देकर कार्यवाही प्रारंभ कर देते हैं, जिसका भी अभाव बिहार की चुनावी सभाओं में उमड़ती भीड़  के संबंध में न्यायालय की तरफ से दिखायी दे रहा है। जबकि न्यायालय अभी भी दुर्गा उत्सव के कार्यक्रम में 45-60 व्यक्तियों की अधिकतम सीमा तय करने या पंडाल के ‘‘नो एन्ट्री जोन‘‘ (जिसमें बाद में संशोधन किया गया) तक ही "सीमित" है। आश्चर्य तो इस बात का हैं कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कोरोना के कारण लगी चुनावी सीमा पर रोक हटाने के लिए उच्चतम न्यायालय तक चले जाते हैं। लेकिन इस कारण  जीवन की निर्बाध गति पर लगी अवरोधो को हटाने के लिए न तो वे न्यायालय जाते है न ही स्वयं अवरोध हटाने का प्रयास करते हैं। मतलब साफ है, इस देश में ‘‘नीति‘‘ पर ‘‘राजनीति‘‘ तो प्रारम्भ से ही भारी है, लेकिन यह ‘‘राजनीति‘‘ "कोविड" पर भारी होकर यह कोविड को ही ‘डरा‘ देगी? बिहार के चुनाव में यह सिद्व हैं।

अतः स्पष्ट है कई मामलों में हमारे प्रधानमंत्री ने पूर्व में  सफलता पूर्वक कठोर और ठोस  निर्णय लेकर ‘‘राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय‘‘ स्तर पर अपने दृढ़ नेतृत्व की धाक जमाई है। इसके बावजूद कोविड-19 के संबंध में उनके निर्णय या तो सही नहीं रहे या सही समय पर नही लिये गये, या लिये ही नहीं गये। और जो कुछ निर्णय भी लिये गये तो  आम आदमी की मानसिकता को देखते हुये उन्हें लागू करने की आवश्यक दृढ इच्छा शक्ति का बुरी तरह से अभाव दिख रहा है। हम सिर्फ आंकड़ों के मायाजाल के माध्यम से देश में कोरोना काल से निबटने में तथाकथित सफलता को दर्शाने के लिए कभी जनसंख्या की तुलना में  संक्रमितो की कुल संख्या, संक्रमित होने की दर में सुधार होने के, कभी मृत्यु दर में सुधार होने के या कभी टेस्टिंग के बढ़ते आंकड़ों को लेकर विश्व के अन्य देशों की तुलना में घुमा फिरा कर सुविधानुसार जनता के बीच प्रस्तुत कर यह सिद्ध  करने में सफल रहे हैं, कि हमारा देश विश्व में तुलनात्मक रूप से कोविड-19 से काफी कम प्रभावित रहा है और हमारे देश में कोरोना से निबटने के लिए और इसकी रोकथाम के लिये तुलनात्मक रूप से बेहतर कदम उठाये गये हैं। निश्चित रूप से आंकडों के माया जाल की अपनी "अनुकूल प्रस्तुतियों" में हम विश्व में सर्वश्रेष्ठ हो सकते हैं, इसमें शायद कोई शक न हो। लेकिन यह ‘‘रोग‘‘ का सही उपचार व निदान नहीं है। 

बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

"आत्मरक्षा का अधिकार’’ ‘‘वास्तविकता में है! कितना ’?

‘‘पुलिस संज्ञान‘‘ के लिए कानून में संशोधन की आवश्यकता!

‘‘भारतीय दंड संहिता की धारा 96 से 106 तक’’ में प्रत्येक नागरिक को ‘‘संपत्ति’’ और ‘‘जान’’ की ‘‘सुरक्षा’’ के साथ-साथ परिवार की सुरक्षा के लिये भी ‘‘आत्मरक्षा’’ का मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। इसका मूल आधार व सिंद्धान्त यह है कि, कई बार घटित हो रही हिंसक अपराधिक घटनाओं में हिंसा के शिकार ‘‘भुगतयमान नागरिकों’’ को इतना वक्त भी नहीं मिल पाता है कि, वे अपने बचाव के लिए पुलिस सहायता की मांग कर पाये। तब ऐसी स्थिति से निपटने के लिये ही यह आत्मरक्षा का अधिकार दिया गया है। आत्मरक्षा का अधिकार सिर्फ कानूनी ही नहीं, बल्कि मौलिक भी है। आत्मरक्षा का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में मिले जीवन के अधिकार के तहत आता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कई फैसलों में इस बात पर जोर दिया हैै कि, राइट टू सेल्फ डिफेंस एक मौलिक अधिकार है। परन्तु गाली गलौज के खिलाफ राइट टू सेल्फ डिफेंस उपलब्ध नहीं है। यानी अगर कोई आपको गाली देता है, तो आप इसके जवाब में उसको गाली नहीं दे सकते हैं। आत्मरक्षा का अधिकार सिर्फ शारीरिक हमले के खिलाफ ही उपलब्ध है। यह अधिकार पूर्ण रूप से अबाघित नहीं है, बल्कि इसमें सबसे बड़ा प्रतिबंध यह है कि, एक नागरिक को आत्मरक्षार्थ केवल उतने ही प्रतिरोधी बल का उपयोग करने की विधिक स्वतंत्रता है, जितनी परिस्थितियों में अति आवश्यक है। 
‘‘आत्मरक्षा के अधिकार’’ की बात इसीलिए ध्यान में आयी, क्योंकि हाल ही में घटित उत्तर प्रदेश में ‘‘बलिया गोलीकांड‘‘ में आरोपी ठाकुर धीरेन्द्र प्रताप सिंह के द्वारा गोली चालान से एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई, व हिंसा में दूसरे पक्ष के भी कई लोग घायल हो गयें । उक्त घटना पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुयें वहां के विधायक सुरेन्द्र सिंह ने जातिवाद (ठाकुर) के आधार यह दावा किया (जबकि अभियुक्त ने ऐसा कोई दावा नही किया था) कि आरोपी ने अपनी व परिवार की जान की सुरक्षा में आत्मरक्षार्थ गोली चलाई। आगे वे एक तथ्यात्मक महत्वपूर्ण बात कहते है कि, यदि वह गोली चालन नहीं करता तो, उसके परिवार के 10-12 लोगों की हत्या हो जाती, जो कुछ सदस्यों के घायल होकर अस्पताल में भर्ती होने से सिद्ध है। वास्तव में आत्मरक्षा का यह अधिकार भारतीय दंड संहिता में वर्णित है और उसको हमारी न्यायिक प्रणाली ने भी मान्यता दी है। इसी कारण इस आधार पर कई हत्या के अपराधियों को न्यायालयों ने छोड़ा भी है।
प्रश्न यहाँ पर यही उत्पन्न होता है कि, क्या वास्तव में यह अधिकार कानून्न व न्यापालिका द्वारा मान्यता देने के बावजूद वास्तविकता लिये हुये व्यवहारिक रूप से एक नागरिक को प्राप्त है? यह प्रश्न इसलिए भी पैदा होता है कि आपराधिक न्यायशास्त्र में पुलिस की विभिन्न जांच एजेंसीज, एस.टी.एफ. सीबीआई सीआईडी आदि की एक निर्धारित जांच प्रकिया होती है। परन्तु जांच की इस प्रक्रिया में नागरिक के आत्मरक्षा का अधिकार के संज्ञान लेने का कोई अधिकार या प्रावधान जॉच टीम को नहीं है। मतलब जांच के दौरान जांच टीम यदि यह पाती भी है कि हिंसा का शिकार अभियोगी ने उक्त आत्म रक्षा के अधिकार के तहत निर्धारित सीमा के अधीन ही अपनी जान व सम्पत्ति की सुरक्षा करते हुये आवश्यक बल का प्रयोग किया हैं। और तदनुसार हमलावर आरोपी की मृत्यु होती है, तब वह ‘‘हत्या‘‘ का ‘‘आरोपी‘‘ नही है, यह तय करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ न्यायालय को ही है। अर्थात जॉच में पाए गये तथ्यों के आधार पर उक्त निष्कर्ष पर पहूंचने के बावजूद जांच अधिकारी इस निष्कर्ष का संज्ञान लेकर उस अभियुक्त को छोड़ नहीं सकते है और उसके विरूद्ध धारा 302 के अंतर्गत अपराध पंजीयत करके न्यायालय में चालान प्रस्तुत करना ही होगा। 
लेकिन इसी अधिकार से जुडी हुई एक हास्यास्पद बात यह भी है, कि एक अपराधी के प्रथम सूचना पत्र में धारा 302 के अपराध के लिये नामित (दर्ज) होने के बावजूद भी, यदि जांच के दौरान पुलिस जांच, सीआईडी जांच या अन्य कोई जांच या समक्ष अधिकारी या न्यायालय के आदेश के अंतर्गत की गई जांच अधिकारी यह पाते है कि, उसके विरूद्ध धारा 302 के अंतर्गत अपराध नहीं बनता हैै, तो वहां पर पुलिस को यह ‘‘अधिकार‘‘ है कि वह आरोप पत्र से उस अभियुक्त का नाम हटा कर शेष अभियुक्त/अभियुक्तों के विरुद्ध न्यायालय में चालान प्रस्तुत कर दे। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि, जब एक अभियुक्त को 302 का ट्रायल हुये बिना जांच के दौरान पाये गये तथ्यों के आधार पर पुलिस को उसे अभियुक्त न मानने का अधिकार है। तब यही सिंद्धान्त पुलिस के लिये आत्मरक्षा के अधिकार का संज्ञान लेने के लिये क्यों नहीं लागू किया जाता? 
इस क्षेत्र से जुड़े हुये न्यायविद्व, फौजदारी अधिवक्तागण, बुद्विजीवीगण और मानवाधिकार के क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्यिों की तरफ से पुलिस को यह क्षेत्राधिकार देने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता में आवश्यक संशोधन किये जाने की मांग क्यों नहीं आई? यह एक बड़ा अनुत्तरित प्रश्न है? इस आवश्यक सुधार के लिए समस्त संबंधितो सहित शासन को भी गंभीरता से इस पर विचार करने की आवश्यकता है। वह इसलिए कि हमारी न्यायिक प्रणाली में कई बार दी गई सजा भुगतने की बजाए बजाय सजा देने की प्रकिया से गुजरना ज्यादा कष्टदायक भुगतयमान होता है। अर्थात प्रॉसिक्यूशन (अभियोजन) पर्सिक्यूशन (उत्पीडन) में बदल जाता है। मतलब लम्बी न्यायिक प्रक्रिया से गुजरता हुआ आरोपी इतना उत्पीडि़त व हलकान हो जाता है कि अंततः अपराध से छूट जाने के बावजूद उसकी साख, उसका सब कुछ इस ट्रायल के दौरान समाज व परिजनों के बीच व उनकी दृष्टि में खो जाती है। जिसे किसी भी स्थिति में पुनः वापिस प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अतः न्यायिक प्रक्रिया के व्यवहारिक कष्टकारी भुगतयमान परिणाम को यदि आप आत्मरक्षा के अधिकार के साथ रखेगें, जोड़ कर देखेंगे तब आप यह महसूस कर पायेगें कि उस व्यक्ति को वास्तविकता में क्या फायदा हुआ? जब वर्षों ट्रायल (मुकदमा) चलने के बाद आत्मरक्षा के अधिकार के आधार पर आरोपी दोष मुक्त होता है, तब वह जेलों की सलाखें से बाहर तो आ जाता है। (क्योंकि सामान्यतया हत्या के आरोपी को जमानत नहीं मिल पाने के कारण वह जेल में ही रहता है)। परन्तु यदि आत्मरक्षा के उक्त अधिकार का संज्ञान लेने का क्षेत्राधिकार पुलिस क पास भी होता तो दोषमुक्त हुए आरोपी का न्यायालय में ट्रायल ही नहीं होता और इस प्रकार उसके अनावश्यक रूप से जेल में रहने से उसकी स्वतत्रंता के मूल व कानूनी अधिकार का न्यायिक प्रक्रिया (पुलिस द्वारा नहीं) द्वारा जो उल्लंघन हो रहा है वह नहीं होता। 
कुछ रूढिवादी, प्रतिक्रियावादी या प्रतिगामी अथवा कुछ अति सक्रियता वादी लोग चोह चिल्लाहट कर यह कह सकते है कि पुलिस को यह अधिकार दिये जाने पर वह उसका दुरूपयोग कर सकती है। अधिकारों के दुरुपयोग की बात तो वर्तमान में प्रत्येक क्षेत्र में विद्यमान है। बावजूद इसके क्या हम इस आधार पर आवश्यकतानुसार नए कानून का निर्माण या विद्यमान कानूनों में संशोधन नहीं कर रहे हैं? अतः यदि भारतीय दंड संहिता की धारा 96 से 106 तक में वर्णित जान माल की सुरक्षा का अधिकार को वास्तविक अर्थो में धरातल पर उतारकर उसका लाभ एक नागरिक को देना है, तो शासन और ला कमीशन व विधायिका का यह दायित्व है कि वह भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता में आवश्यक उचित संशोधन करके पुलिस की विभिन्न जांच एजेंसी को जांच के दौरान उक्त अधिकार के अस्तित्व मे पाए जाने पर उसका संज्ञान लेने का अधिकार दिया जावे। ताकि इस आधार पर एक निर्दोष व्यक्ति का गैरकानूनी ट्रायल न होकर उसकी स्वतंत्रता सुरक्षित रह सकें। अन्यथा इन अधिकारों को समाप्त किया जाना ही उचित होगा।

सोमवार, 19 अक्तूबर 2020

‘‘न्यूटन के गति‘‘ का नियम क्या ‘‘अपराधिक राजनीति पर भी लागू होता है?

 ‘‘न्यूटन‘‘ क्या भारतीय राजनीति को ‘‘न्यूट्रल‘‘ कर देगें?


मैं विज्ञान का छात्र रहा हूं। बचपन में मैंने पढ़ा है कि ‘‘न्यूटन के गति‘‘ के तीसरे नियम के अनुसार ‘‘हर क्रिया के बराबर (समान) और विपरीत प्रतिक्रिया होती है‘‘। प्रसिध्द वैज्ञानिक ‘‘न्यूटन‘‘ ने अपनी पुस्तक ‘‘प्रिंसीपिया मैथमैटिका‘‘ (वर्ष 1687) के पृष्ठ 20 पर उक्त नियम लिखा है। यह नियम दो वस्तुओं पर बल के पारस्परिक प्रभाव के बीच के बंधन का वर्णन करता है। इसके कई उदाहरण हैं! जैसे बन्दूक चलाना, नाव चलाना, मनुष्य का तैरते हुए आगे बढ़ना, रॉकेट लॉन्चिंग आदि आदि। इस सिद्धांत को अभी तक कोई चुनौती अधिकाधिक रूप से कहीं से भी नहीं मिली है और आज भी यह नियम सर्वमान्य है। यद्यपि न्यूटन के उक्त नियम में वस्तु का आकार पूरी तरह महत्वहीन है, लेकिन कुछ चल रहे नये शोधों के अनुसार प्रतिक्रिया वस्तु के आकार पर निर्भर करती हैं। अर्थात प्रतिक्रिया क्रिया के ‘‘बराबर, कम या ज्यादा‘‘ भी हो सकती हैं। परंतु राजनीति में अथवा अपराधिक क्षेत्र में या ज्यादा सही यह कहना होगा कि राजनीति के अपराधीकृत  होते जा रहे हैं क्षेत्र में भी यह सिद्धांत लागू होता है या किया जा रहा है, जो अभी ज्ञात हुआ है। किसी ‘‘आपराधिक कृत्य‘‘ को इस नियम का तर्क देकर उसका औचित्य सिद्ध करने का दुस्साहस निश्चित रूप से आज की गिरती हुई राजनीति में बिल्कुल उसी तरह संभव है जैसे हथेली पर सरसों उगाना। यह आश्चर्य का तो नहीं, लेकिन बेहद दुखद अवश्य है।

बात उत्तर प्रदेश की है, जहां बलिया जिले के दुर्जनपुर गांव (यथा नाम तथा गांव) में हुई गोली कांड में एक व्यक्ति की गोली मारकर हत्या कर दी जाती है। ‘‘बलिया‘‘ उत्तर प्रदेश का सबसे पुराना हिस्सा और बिहार सीमा से लगा हुआ वह जिला है, जहां से कभी ‘‘युवातुर्क‘‘ चंद्रशेखर  सांसद हुआ करते थे, जो बाद में देश के प्रधानमंत्री बने। उत्तर प्रदेश को ‘‘उत्तम प्रदेश‘‘ बनाने की घोषणा वाले लोकप्रिय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के प्रदेश में उनके बैरिया विधानसभा क्षेत्र के विधायक सुरेंद्र सिंग उक्त घटना के ‘‘कारण‘‘ में न्यूटन के विश्व प्रसिद्ध उपरोक्त सिद्धांत का हवाला बहुत ही बेशर्मी से दे रहे हैं, और लगातार दे रहे हैं। यद्यपि विधायक का यह कथन तो कुछ सीमा तक सही है कि, इस मामले में मीडिया सिर्फ एक पक्ष को ही उद्धृत कर रहा है। दूसरे पक्ष के भी कई लोग घायल होकर अस्पताल में भर्ती है। उनको चोट कैसे आई और इसके लिए कौन कौन जिम्मेदार हैं, इस बाबत मीडिया बिल्कुल भी ‘‘हाईलाइट‘‘ नहीं कर रहा है। न ही विधायक की मांग के बावजूद दूसरे पक्ष के विरुद्ध प्रशासन द्वारा कोई ‘‘प्राथमिकी‘‘ दर्ज की गई है। परंतु वही विधायक उसी सांस मैं हत्या के आरोपी की भर्त्सना व आलोचना करना तो दूर, बल्कि उसके द्वारा गोली चलाया जाना आत्मा रक्षा में उठाया गया कदम कहकर, आरोपी हत्यारे धीरेन्द्र प्रताप सिंह की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं, जो भाजपा का कार्यकर्ता, होकर भाजपा के सैनिक प्रकोष्ट का अध्यक्ष व उनका सहयोगी हैं। अन्यथा विधायक के कथनानुसार तो आरोपी द्वारा गोली चालन न करने पर उसके ही परिवार के दस बारह लोगों की हत्या हो जाती। यद्यपि अब स्वयं आरोपी का यह कथन वायरल हो गया है कि, उसने गोली ही नहीं चलाई। वैसे भी आत्मरक्षा में गोली चलाने से सामने वाले व्यक्तियों की मृत्यु हो जाने पर मुकदमा तो धारा 302 का ही दर्ज होगा। अभियुक्त के प्रति सुरक्षा का अधिकार को तो न्यायालय ही तय करेगीं, पुलिस नहीं। यह भी कानून में एक कमी है, जिसकी फिर कभी चर्चा करेंगे। हद तो तब हो गई जब विधायक ने आरोपी हत्यारे के आत्मसम्मान की रक्षा से जाति के आत्मसम्मान तथा स्वयं के कर्तव्य को जोड़ दिया। विधायक सुरेंद्र सिंग आरोपी द्वारा की गई गोली चालन को ‘‘क्रिया की प्रतिक्रिया‘‘ बतलाते हुए घूम रहे हैं। यह सार्वजनिक जीवन जीने वाले चुने हुए जनप्रतिनिधि के लिए शर्मसार करने वाली बात है। 

ये वही विधायक सुरेंद्र सिंह है, जो हमेशा अपने ‘‘अटपटे, उलूल, जुलुल व विवादित‘‘ बयानों के कारण मीडिया में चर्चाओं में रहते हैं। आपको याद होगाय हाथरस बलात्कार कांड पर, पहले उनका यह बयान आया था कि ‘‘फर्जी महिला के दलित उत्पीड़न के नाम पर किसी का भी जीवन संकट में पड़ सकता है‘‘। फिर बाद में इसी घटना पर यह भी कहा कि ‘‘संस्कार‘‘ से ही ‘‘बलात्कार की घटनाएं रुकेगी‘‘। यहां तक तो फिर भी गनीमत थी। लेकिन आगे वे यह कह गए कि ‘‘माता-पिता अपनी जवान बेटी को सांशारिक वातावरण में रहने का तरीका सिखाएं‘‘। लेकिन लड़कियों के साथ लड़कों को भी संस्कार देने का बात वे भूल गए। ‘‘मुसलमान कई बीवियां रखते हैं और उनकी औलादे जानवर प्रवृत्ति की होती है।’’ वे मीडिया को ‘‘दलाल‘‘ तथा डॉक्टरों को ‘‘राक्षस‘‘ तक भी कह चुके हैं। इस तरह से वह हमेशा ही विवादित बयानों  से मीडिया की सुखीयों में बने रहते हैं। तथापि विधायक के इस (दुः) साहस की प्रशंसा इसलिए जरूर की जानी चाहिए कि, वे पीडि़त परिवार के लिए उपजी सहानुभूति की धारा व भीड़तंत्र के विरूद्ध भी अपने सहयोगी कार्यकर्ता आरोपी को बचाने के लिये न केवल अपने स्टैंण्ड पर अड़े हुये है, बल्कि इसके लिए उन्होने एक हफ्तेे बाद थाना पर हजारों साथियों के साथ धरना देने की चेतावनी भी दी हैं। अन्यथा ऐसी स्थिति में तो नेता ‘‘भाग‘‘ खड़े होते हैं। और एक सर्वकालिक तकिया कलाम कह देते कि ‘‘कानून अपना काम करेगा‘‘, और स्वयं को अपनी जिम्मेदारी से मुक्त मान लेते हैं।

शायद विधायक को न्यूटन का क्रिया प्रतिक्रिया का नियम का वास्तविक अर्थ मालूम नहीं है। क्योंकि न्यूटन ने जो नियम बतलाया था, उसमें क्रिया की प्रतिक्रिया बराबर की लेकिन ‘‘विपरीत दिशा‘‘ में होने की बात कही थी। यहां पर  विधायक के अनुसार न्यूटन की क्रिया प्रतिक्रिया के उक्त नियम को यदि लागू कर दिया जाए तो जिस व्यक्ति ने हत्या (क्रिया) की है, उसकी प्रतिक्रिया में इस कृत्य के विपरीत उसे कार्य करना होगा। अर्थात मृतक पीडि़त व्यक्ति के घर जाकर परिवार के सदस्यों के बीच रहकर  इस तरह से प्रायश्चित करना होगा, ताकि परिवार के लोग उस व्यक्ति की कमी व दुख को भूल जाए । अर्थात हत्या का आरोपी प्रायश्चित करते करते उस दुखित, पीडि़त परिवार में स्वयं को ...हुई जगह में लगभग ‘स्थापित‘ कर ले। वास्तव में न्यूटन की यही क्रिया की प्रतिक्रिया होगी। इस संबंध में आपको प्रसिद्ध फिल्मी कलाकार राजेश खन्ना ‘‘काका‘‘ की एक फिल्म शायद उसका नाम ‘‘दुश्मन‘‘/‘‘रोटी‘‘ है, की याद दिलाना चाहता हूं, जिसमें राजेश खन्ना इसी तरह का प्रायश्चित करते हैं।

न्यूटन का यह नियम राजनीति में या सार्वजनिक जीवन में अच्छे कार्यों पर क्यों नहीं लागू होता है, यह एक शोध का विषय होना चाहिए। मतलब यदि एक पार्टी राजनीति में कोई अच्छा कार्य  करती  है तो, प्रतिक्रिया में उसकी एकदम विपरीत विरोधी दूसरी पार्टी उतना ही अच्छा काम क्यों नहीं कर पाती है? प्रश्न यह है। अर्थात भाजपा और कांग्रेस परस्पर एक-दूसरे के अच्छे कार्यों से प्रेरणा लेकर और बेहतर कार्य क्यों नहीं कर पाते हैं, कर सकते हैं? ‘‘रामराज्य‘‘ लाने के लिए यह स्थिति बनानी ही होगी। ‘‘न्यूटन‘‘ को शायद यह पता नहीं था कि भविष्य में, 21वीं सदी में, राजनीतिक अपराधीकरण के क्षेत्र में भी राज नेता अपने अपराधी साथियों की चमड़ी बचाने के चक्कर में उनके नियम को अपने तरीके से लागू करेंगे? अन्यथा वह अपने गति के तीसरे नियम के साथ और एक स्पष्टीकरण इस सिद्धांत को स्पष्ट करने के लिए अवश्य जोड़ देते। ताकि राजनेताओं को यह सिद्धांत का उपयोग करने में ‘‘असहजता‘‘ नहीं होती। वैसे न्यूटन की ‘‘आत्मा‘‘ ‘‘आकाश‘‘ से अवश्य देख रही होगी और अपना सिर फोड़ रही होगी ,यदि उसके सिद्धांत की ऐसी फजीहत होनी थी, तो शायद वे यह नियम निर्मित ही नही करते?

बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

'चिट्ठी’ से महाराष्ट्र में उठा भूचाल! मुख्यमंत्री/राज्यपाल बर्खास्त किये जाने चाहिये?

हमारे देश की लोकतंत्रीय व्यवस्था ने यद्यपि अप्रत्यक्ष लोकतंत्रीय प्रणाली अपनाई हुई है। तथापि देश का वास्तविक शासक प्रधानमंत्री ही होता हैं, जिसका चुनाव प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष संसदीय प्रणाली द्वारा होता है। लेकिन इसी व्यवस्था में तीन बड़े संवैधानिक पद राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति (देश के लिये) और राज्यपाल (प्रदेश के लिए) तथा केन्द्र शासित प्रदेश के लिए ‘उपराज्यपाल’ होते है, जो पद के लिये ‘‘शोभामय’’ होने के बावजूद तकनीकि रूप से ‘‘वास्तविक’’ शासकों के ऊपर ही होते है। यह प्रश्न आज इसीलिए पुनः उठ खड़ा हुआ है, क्योंकि महाराष्ट्र के महामहिम राज्यपाल महोदय ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से मंदिरों को खोलने के लिए चिट्ठी लिखी हैं।

राज्यपाल को किसी भी विषय पर अपने प्रदेश की जनता के हित में मुख्यमंत्री का ध्यान आकर्षित करने के लिए न केवल चिट्ठी लिखने का अधिकार है, बल्कि वे विधानसभा द्वारा पारित प्रस्ताव को जनहित में रोक कर, पुर्नविचार के लिए मंत्रिमंडल के पास वापिस भेज सकते है। कुछ विशिष्ट स्थितियों में तो वे सरकार को निर्देश भी दे सकते है। यहां तक तो ठीक है। परन्तु आज यहां पर उनके अधिकार क्षेत्र से ज्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न उक्त ‘चिट्ठी’ क्या वास्तव में राजनीति से परे है, जनहित में है, अथवा उनके व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा के तहत लिखी गई है? इसकी विस्तृत व निष्पक्ष चर्चा किये जाने की जरूर आवश्यकता है। राज्यपाल की उक्त चिट्ठी बिल्कुल भी ‘‘राजनीति से परे‘‘ नहीं है। यदि चिट्टी के लिखें मज़मून (जो स्पष्ट रूप से राज्यपाल की निष्पक्षता को संदिग्ध बनाती है) को छोड़ भी दे तब भी राज्यपाल का गोवा के मुख्यमंत्री जहां के भी वे राज्यपाल है, को उसी मुद्दे पर अर्थात मंदिर खोलने के लिए चिट्ठी न लिखने की स्थिति, जो उनकी पूर्व राजनीतिक पृष्ठभूमि व गोवा की सरकार की राजनीतिक स्थिति ‘‘समान‘ होने के कारण ही हुई है, महामहिम के ‘‘राजनीतिक एजेंडे‘‘ को स्पष्ट रूप से उभारती है। यह चिट्ठी महामहिम ने उस वक्त क्यों नहीं लिखी, जब सरकार द्वारा ‘‘बार‘‘ खोले गए थे, जिसका हवाला इस चिट्टी में देकर उन्होंने अपने (कु) तर्क को बल देने का (असफल) प्रयास किया है।  

इसमें कोई दो मत नहीं है कि राज्यपाल भी इस देश के एक संभ्रांत नागरिक है। और नागरिक होने के नाते उनके स्वयं का व्यक्तिगत अधिकार, नागरिक अधिकार तथा संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार और मानवाधिकार उन्हें प्राप्त है। क्या ये अधिकार पद पर रहते हुये स्थगित हो जाते है? प्रश्न सबसे बड़ा यहां पर यही है। यदि इन अधिकारों में से किसी का भी उल्लघंन सरकार या संस्थागत व्यवथापिका द्वारा हो रहा है, तो उनसे लड़ने के लिए, उसका विरोध करने के लिए और उन अधिकारों की रक्षा के लिए, बात जब शासन के विरूद्ध लड़ने की हो तब, इस संवैधानिक पद पर बैठेे रहकर भी क्या राज्यपाल अपने अधिकारों की रक्षा की लड़ाई लड़ सकते है? राजनैतिक शुचिता और नैतिकता (जो आज एक दूर की एक ‘‘कोड़ी’’ हो गई है) का यह तकाजा है कि उक्त अधिकारों की लड़ाई के लिये महामहिम संवैधानिक पद से इस्तीफा देकर ही एक ‘‘नागरिक’’ की हैसियत से देश के संविधान द्वारा प्रदत्त कानून का उपयोग करते हुये अपने स्वाभिमान की रक्षा की जानी चाहिये। यही एक सही व आदर्श स्थिति होगी। परन्तु देश का यही तो दुर्भाग्य है कि, चालाक व धूर्त राजनितिज्ञों ने इस नैतिकता व आदर्शवाद को जनता से छीनकर स्वयं को इन ‘‘आवरणों’’ से ढ़ककर इतना सुशोभित कर लिया है कि इस संबंध में वे उस जनता को आदर्शवाद व नैतिकता का सिर्फ पाठ सिखाने के कार्य को ही अपना आदर्श व नैतिक होना मानते है, जिस जनता की नैतिकता व आदर्शवाद को इन नेताओं ने ही अपने कार्यो व कार्य प्रणाली के द्वारा छींना हो।

‘‘महामहिम’’ यह लिखते है, जब बाजार, माल, चित्रपटगृह सब खोल दिये गये हो, तो ‘मंदिर’ क्यों नहीं खोले जा रहे है? तंज कसते हुये लिखते हैं, ‘‘लाकडॉउन का मजाक उडाया गया था, तो अब लाकडॉउन क्यों लगाया जा रहा है।’’ महाराष्ट्र के राज्यपाल आगे लिखते हुये मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को यह भी याद दिलाते है कि वे ‘‘हिन्दुत्व’’ के मजबूत पक्षधर रहे है, और सार्वजनिक रूप से भगवान श्री राम के प्रति अपनी भक्ति भी व्यक्त की है। उनके द्वारा विट्ठल रुक्मणी मंदिर का दौरा किया गया था। लेकिन दूसरी तरफ ‘‘देवी देवताओं’’ के स्थलों को नहीं खोला गया है। आगे फिर प्रश्नवाचक कथन लिखते है, ‘‘क्या आपने अचानक खुद को धर्मनिरपेक्ष (सेकुलर) बना लिया है?’’ इस शब्द का पत्र की लेखनी में चयन न केवल देश के लिए बहुत घातक है, बल्कि यदि कोई सामान्य व्यक्ति उक्त बात कहता या लिखता तो उसके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही भी की जा सकती है। परन्तु संवैधानिक पद पर बैठे हुये माननीय ऐसे कथन कर रहे है, तो क्या वे यह भूल गये है कि, देश के संविधान का एक प्रमुख तत्व धर्मनिरपेक्षता है व स्वयं महामहिम भी इससे बंधे हुये है? और ‘‘हिन्दुत्व होना’’ ‘‘धर्म निरपेक्षता’’ का ही भाग है, जिसे समय-समय पर न्यायालय ने परिभाषित भी किया है। तब महामहिम इन दोनों शब्दों ‘‘हिन्दुत्व’’ व ‘‘धर्म निरपेक्षता’’ को एक दूसरे के विपरीत क्यों बता रहे है? क्या धर्मनिरपेक्ष होना एक अपराध है, गाली है, तो संवैधानिक पद पर बैठे महामहिम ने एक ‘‘हिन्दुत्व’’ वाले मुख्यमंत्री के धर्मनिरपेक्ष न होने से संविधान के विरूद्ध कार्य करने के कारण उन्हे मुख्यमंत्री पद से क्यों नहीं बर्खास्त कर दिया? क्या राज्यपाल के कहने का यह अर्थ कदापि नहीं निकलता है कि महामहिम व मुख्यमंत्री सेकुलर नहीं है? 

इस बात को भी महामहिम ने ध्यान में रखना चाहिये कि देश में सबसे ज्यादा कोरोना का संक्रमण महाराष्ट्र राज्य में ही है। अतः जहां तक ‘‘बार‘ खोलने का बात है, राज्यपाल शायद इस बात को भूल गये है कि सर्वप्रथम केंद्र सरकार द्वारा जारी ‘‘एसओपी‘‘ में ही बार खोलने की बात कही गई थी। जब स्वयं केन्द्र सरकार की नजर में ‘‘धार्मिक स्थानों‘‘ की अपेक्षा ‘‘बार‘‘ खोलने की प्राथमिकता हो तो, सिर्फ और सिर्फ राज्य सरकारों को इसके लिये दोषी ठहराना कहां तक उचित है? अनलॉक 5 के चलते केन्द्र सरकार स्वयं यह नहीं मान रही है कि पूरे देश में समस्त गतिविधियां पूर्ण रूप से जारी की जा सकती है। इसीलिये इन पर निर्णय लेने का विवेकाधिकार राज्य सरकारों पर छोड़ा गया है। तब राज्यपाल की यह चिट्टी जो ‘‘पत्र की चारों तरफ की सीमाएं ’’सुंदर’’ सी लिखावट के बंधन से सजी हुई आबद्ध है, क्या वह क्षेत्राधिकार का उल्लघंन करने के कारण ‘‘सुंदरता‘‘ को नष्ट करती हुई नहीं लगती है? यह स्पष्ट नहीं है कि राज्यपाल ने उक्त चिट्टी स्वयं के अधिकार के हनन होने के कारण लिखी है या उनके पास इसके संबंध में कोई ज्ञापन, मांग पत्र या शिकायत आई है, जिसे उन्होनें मात्र ‘पोस्टमैंन’ की तरह अग्रेषित किया हो? जो सामान्य रूप से एक राज्यपाल का कार्य होता है। इसीलिए उद्धव ठाकरे का यह जवाब ठीक तो हो सकता है कि ‘‘मुझे अपना हिन्दुत्व साबित करने के लिए राज्यपाल के प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं हैं।’’ परन्तु यदि वे स्वयं भी संवैधानिक नैतिकता की मर्यादा का पालन करते हुये महामहिम पद की गरिमा को बनाये रखने के लिए इस तरह के बयान नहीं देते तो, शायद उनकी गरिमा व साख और ज्यादा अच्छी बनी रहती।

अंत में; राज्यपालों के मुंह तभी खुलते हैं, जब राज्यपाल जिन राजनीतिक परिवेशों व पृष्ठभूमि से आते हैं, उसी पृष्ठभूमि व विचारधारा के विपरीत या केंद्र शासित पार्टी की विरोधी पार्टियों की राज्य सरकारों के होने पर ही महामहिम ‘‘सरकार‘‘ पर निशाना साधते हुए अपने विचार व्यक्त करते हैं। अन्यथा तो वे सरकारों की हां में हां ही मिलाते रहते हैं। क्या आपने उत्तर प्रदेश, राजस्थान व मध्यप्रदेश में इतनी वीभत्स घटनाएं होने के बावजूद वहां के राज्यपाल को मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर चिंता व्यक्त करते हुये देखा है? इस संबंध में राकांपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद पवार का प्रधानमंत्री को चिट्टी लिखी जाना न केवल सामयिक है, बल्कि इस चिट्ठी में जो ‘‘तेवर‘‘ दिखाए गये हैं, वह तो और भी साहसिक है और यह उनकी राजनीतिक परिपक्वता को ही दर्शाता है।

‘‘मानक’’ का रखा जाए ध्यान तो खुशनुमा हो सकता है ‘‘जीवन’’!

 14 अक्टूबर ‘‘विश्व मानक दिवस के उपलक्ष्य में’’ लेख         


आज विश्व मानक दिवस है। वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए मानकीकरण के महत्व के रूप में नियामकों, उद्योग और उपभोक्ताओं के बीच जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से ‘‘विश्व मानक दिवस’’ मनाया जाता है। यह अंतर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आईएसओ) के स्थापना दिवस के रूप में विश्व भर में मनाया जाता है। माना जाता है कि मानकों के तकनीकी फायदे हैं और इससे उत्पादों तथा सेवाओं को बेहतर बनाने तथा इनसे जुड़े उद्योगों को अधिक कुशल बनाने में मदद मिलती है।यदि इनमें मानकों का उचित पालन न हो तो व्यक्ति का जीवन सुखमय की बजाए दुखमय हो जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय मानक दिवस प्रतिवर्ष 14 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है। यह दिन उन हजारों विशेषज्ञों के प्रयासों का सम्मान करता है जो अमेरिकन सोसाइटी ऑफ मैकेनिकल इंजीनियर्स (एएसएमई), अंतर्राष्ट्रीय इलेक्ट्रोटेक्निकल कमीशन (आईईसी), अंतर्राष्ट्रीयकरण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठन (आईएसओ), अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार जैसे मानक विकास संगठनों के भीतर स्वैच्छिक मानकों को विकसित करते हैं। यूनियन (आईटीयू), इलेक्ट्रिकल एंड इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर्स संस्थान (आईईईई) और इंटरनेट इंजीनियरिंग टास्क फोर्स (आईईटीएफ)।

14 अक्टूबर को विशेष रूप से तारीख को चिह्नित करने के लिए चुना गया था, 1946 में, जब 25 देशों के प्रतिनिधियों ने पहली बार लंदन में इकट्ठा किया और मानकीकरण को सुविधाजनक बनाने पर केंद्रित एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन बनाने का फैसला किया। हालांकि एक साल बाद आईएसआंे का गठन हुआ था। लेकिन पहला विश्व मानक दिवस वर्ष 1970 में ही मनाया गया था।

इस दिन की शुरुआत मानकों के विकास संगठनों के भीतर स्वैच्छिक मानकों को विकसित करने वाले हजारों विशेषज्ञों के प्रयासों को सम्मान व श्रद्धजंली देने के लिए भी की गई। मंशा थी कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वैश्विक मानकीकरण की दिशा में जो भी अच्छे प्रयास किए जा रहे हैं, उनका फायदा विकासशील देशों को भी मिलेगा। इससे न केवल उनके व्यापार में बढ़ोतरी होगी बल्कि सामाजिक−आर्थिक क्षेत्र में भी बदलाव आएगा। 

मानक के माध्यम से आज पूरा विश्व एक दूसरे से जुडा हुआ है। हमारा डेबिट, क्रेडिट कार्ड प्रत्येक एटीएम मशीन से हमारे लिए पैसे निकाल देता है। किसी भी दुकान से हमारे लिए वस्तुएं खरीद सकता है। जो बल्ब हम बाजार में कहीं से भी खरीदते हैं, वो हमारे घर में लगे होल्डर में फिट आता है।यह सब मानको के कारण ही संभव हुआ है। मानकों से ही मशीन, पुर्जों तथा उत्पादों में आपस में तालमेल अत्यंत सरल हुआ है।

इस दिन को मनाने का एक और उद्देश्य है। अर्थव्यवस्थाओं के लिए मानकीकरण की आवश्यकता के प्रति जागरूकता फैलाना है। कम दाम में उत्तम गुणवत्ता के उत्पाद तैयार करने या सेवाएं देने के लिए प्रक्रियाओं को लागू करते हुए लक्ष्यों को हासिल करने की क्षमता ही दक्षता है। 

व्यक्ति के जागने से लेकर सोने तक उत्पाद व सेवाओं के मानक

:-सुबह जिस अलार्म से उठते हैं, कई बार उसके धोखा देने से लोगों को बड़ा नुकसान हुआ है।

:-जिम में कसरत करते समय यदि उपकरण मानकों का नहीं है तो लेने के देने पड़ जाते हैं। 

:-नाश्ते के लिए प्रयोग होने वाला टोस्टर कई बार हादसों को जन्म देता है। इसमें भी जरूरी हैं मानक।      

:-दांत मांजने के लिए प्रयोग होने वाला ब्रश कमतर मानक का है तो अच्छे भले दांत खराब हो जाते हैं। 

:-ऑफिस या कारोबार तक जाने के लिए प्रयोग होने वाले वाहन की कमी से कई बड़े नुकसान हुए हैं। 

:-जिस लिफ्ट में हम ऊपरी मंजिल तक जाते हैं, उसके मानकों की कमी हमें मुश्किल में डाल देती है। 

:-जिस कंप्यूटर पर हम काम करते हैं, उसका मानकों से कमतर होने से हमारा कीमती समय खराब हो जाता है। 

:-जिस भोजन को हम स्वास्थ्यवर्द्धक समझ कर ग्रहण करते हैं। उसका सब स्टैंडर्ड होना हमें बीमार करता है। 

इस प्रकार के अनेकानेक उदाहरण हो सकते है।

रविवार, 4 अक्तूबर 2020

‘‘कारसेवक’’ क्या ‘‘अराजक’’ व ‘‘असामाजिक‘‘ तत्व थे?


अयोध्या के ‘‘विवादित ढांचा’’ ढहाए जाने के आरोप के मुकदमे का बहुप्रतीक्षित निर्णय आखिर 28 साल बाद आज आ ही गया। सीबीआई की विशेष न्यायालय ने 49 आरोपियों में से बचे समस्त 32 जीवित आरोपियों को सबूतों के अभाव में ‘‘निरापराधी’’ घोषित किया। ‘‘सम्मानित’’ आरोपियों सहित प्रायः देश ने इस निर्णय का स्वागत ही किया है।
आज जब निर्णय आने वाला था, तब मैं टीवी देख रहा था। ‘हेडलाइंस’ चालू हो गई थी। माननीय न्यायाधीश निर्णय का ’भाग’ पढ़ रहे थे। फिर एकदम से ब्रेकिंग न्यूज दिखाई गयी। समस्त 32 आरोपी निर्दोष घोषित कर बाईज्जत बरी कर दिए गए। चेहरे पर खुशी के भाव आ गये। धीरे-धीरे समाचार आगे बढ़ता है। माननीय न्यायाधीश कहते हैं, आरोपियों के विरूद्ध कोई साक्ष्य नहीं है, किसी भी आरोपी की संलिप्तता ढ़ाचा गिराने या उसके लिये लोगों का उकसाने में नहीं पायी गई। बल्कि इसके उलट कुछ आरोपियों ने तो ढांचा गिराने से रोकने का प्रयास भी किया। ‘चेहरे’ पर खुशी के भाव बढ़ते जाते हैं। जज कहते हैं, बाबरी विध्वंश की घटना अचानक हुई। पूर्व नियोजित नहीं थी। फिर आगे अचानक समाचार आता है, चूंकि ढांचा गिराया गया है, इसलिए निश्चित रूप से यह अज्ञात असामाजिक तत्वों का कार्य होगा। मुकदमें का सबसे दुखद पहलु यह है कि विशेष न्यायालय ने बचाव पक्ष के वकील द्वारा प्रस्तुत 400 पेजों की लिखित व मौखिक दलील स्वीकार कर ली, जिसमें यह कहा गया कि सांकेतिक कारसेवा के निर्देश की अवेहलना करने वाले अराजक तत्वों ने ही ढ़ाचा ढ़हाया। 
इसी दौरान मेरे पारिवारिक बुजुर्ग सेवानिवृत्त सहायक आयकर कमिश्नर जी का फोन आता है और वे मुझे बधाई देते हैं। मैं पूछता हूं, किस बात की बधाई? वे कहते हैं, सब छूट गए हैं। मैं एकदम से किंकर्तव्यविमूढ हो जाता हूं। समझ में नहीं आता है, बधाई कैसे स्वीकार करूं? ढांचे के ऊपर भगवा झंडा फहराने के बाद हुई कार सेवा के दौरान मुलायम सिंह सरकार की पुलिस द्वारा की गई अंधाधुंध गोलीबारी से‘‘दो कोठारी‘‘ बंधु ( राम एवं शरद कोठारी) सहित  16  कारसेवक ‘‘शहीद‘‘ हो गए थे। इस कारण उत्पन्न जोश व आक्रोश ने आंदोलन को और हवा दी और तदनुसार राम जन्मभूमि आंदोलन के आयोजक कर्ताओं के आह्वान पर अपनी दृढ़ आस्था के साथ  पहुंचकर हजारों कारसेवकों ने अयोध्या पहुंचकर उक्त विवादित ढांचे को गिराने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग दिया था। इन सब को माननीय न्यायालय ने अराजक व असामाजिक तत्व ठहराया दिया। इसलिये बधाई स्वीकार करने में हिचक थी। विश्व हिंदू परिषद से लेकर मंदिर आंदोलन के सर्मथक किसी भी नागरिक ने तथा "ढांचा" को गिराने वालों ने उक्त निर्णय की इस आधार पर आलोचना नहीं की कि ‘‘विवादित ढांचा‘‘ गिराने वाले लोग अराजक असामाजिक तत्व नहीं थे। किसी ने भी अभी तक उक्त आदेश के विरुद्ध इस मुद्दे पर अपील मे जाने की बात भी नहीं कही है। बल्कि समस्त सम्मानित आरोपित नेताओं के दोष मुक्त किए जाने से खुशी से सब लबालबाब है। सभी माननीयों के दोषमुक्त हो जाने पर ‘‘जान बची लाखों पाये’’ की खुशी में इतना डूब गये कि, हजारों कार्यकर्त्ताओं को न्यायालय द्वारा अराजक व असामाजिक ठहराये के निर्णय के भाग के किसी ने भी नोटिस (संज्ञान) नहीं लिया।
हमारा जीवन कितना खोखला है तथा छिछलापन व दोहरापन लिए हुयें है, यह उक्त निर्णय पर आयी प्रतिक्रिया से दर्शित होता है। पूरा देश जानता है! किन व्यक्तियों और संगठनों के आह्वान पर देश के राष्ट्रवादी सोच के लोग अयोध्या पहुंचे थे। मैंने भी आंदोलन में भागीदारी की थी। यद्यपि मैं अयोध्या नहीं गया था। परन्तु अयोध्या पहुंचे लोग किसी भी रूप में ’अराजकतावादी’ नहीं थे, यह देश के सामने स्पष्ट है। इसलिए उन लोगो द्वारा माननीय विशेष न्यायालय द्वारा उन लोगों के प्रति की गई उन टिप्पणी के लिए उच्च न्यायालय के दरवाजे जरूर खटखटाने चाहिए, जिनके आह्वान पर अपनी आस्था के साथ राष्ट्र के गौरव के प्रतीक भगवान श्रीराम जन्मस्थली अयोध्या में मंदिर निर्माण के वास्ते राम प्रेमी कारसेवक पहुंचे थे।
इस देश में कानून का उल्लघंन ही तो राजनैतिक आंदोलन होता है। यही नहीं ‘‘नियमानुसार कार्य करना’’ भी आंदोलन होता है। तब राजनैतिक या धार्मिक एजेंडे को लेकर किया गया श्रीराम जन्मभूमि आंदालेन के अंतर्गत अयोध्या कूच करने की योजना, निश्चित रूप से राजनैतिक/ धार्मिक कृत्य है। जहां कानून का उल्लंघन तो है, लेकिन वह अराजक तत्वों द्वारा नहीं, बल्कि राजनैतिक व धार्मिक आस्था लिये हुये व्यक्तियों द्वारा किया गया है। कानून के उल्लंघन मात्र से ही कोई व्यक्ति ‘‘अराजक’’ नही हो जाता हैं। अतः न्यायालय के उक्त अराजकता वाले निष्कर्ष को उच्च न्यायालय में चुनौती जरूर दी जानी चाहिये।

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