शनिवार, 28 अक्तूबर 2023

जातिगत आरक्षण, जनसंख्या गणना व रेवड़ियां, देश को किस दिशा में ले जाएगी?

जातिगत जनगणना

आरक्षण के साथ ही पिछले कुछ समय से देश में जातिगत जनसंख्या की गणना की मांग न केवल जोर-शोर से की जा रही है, बल्कि बिहार सरकार ने तो न्यायालीन अवरोधों से निपट कर जातिगत गणना के परिणाम भी प्रकाशित कर दिए हैं। यद्यपि भारत में जनगणना अधिनियम 1948 लागू है, जिसके अंतर्गत सिर्फ केन्द्र सरकार ही जनगणना करा सकती है। बिहार का अनुसरण करते हुए राजस्थान की गहलोत सरकार तथा मध्यप्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी जातिगत जनगणना कराने की घोषणा के साथ राहुल गांधी इसे आगामी चुनाव में मुख्य मुद्दा बनाते हुए दिख रहे हैं। वैसे वर्ष 2011 में यूपीए सरकार ने भी लगभग इसी तरह की जातिगत गणना ‘‘सोशियो इकोनॉमिक एंड कॉस्ट सेंसस’’ (एसइसीसी 2011) (सामाजिक आर्थिक और जातिगत जनगणना) कराई थी। तथापि उसके आंकड़े आज तक प्रकाशित नहीं हो पाए हैं। जातिगत गणना के पीछे जो सबसे बड़ा तर्क दिया जा रहा है, वह है ‘‘शेर से बाड़ भली’’ कि जिसकी जितनी संख्या उसकी उतनी भागीदारी सुनिश्चित हो। अर्थात ‘‘आरक्षण’’ शब्दावली का उपयोग न किया जाकर भागीदारी शब्द का प्रयोग किया गया है, जो ‘‘आरक्षण का ही एक स्वरूप’’ है। लेकिन इस बाड़ से तो ‘‘यारी का घर और दूर हो जायेगा’’ क्योंकि यह मांग; आरक्षण की वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था से भी ज्यादा खतरनाक इसलिए है, की आरक्षण कानूनी संवैधानिक और तकनीकी रूप से एक अस्थायी प्रावधान है, जबकि भागीदारी की मांग एक स्थायी प्रावधान होगा और यह मांग सबका साथ, सबका विश्वास, सबका प्रयास और सबका विकास की अवधारणा व भावना के विपरीत है।

अन्य शेष जातियों (सामान्य वर्ग) की जनगणना भी आवश्यक! 

जातिगत जनगणना के साथ शेष बची अन्य जातियों (सामान्य वर्ग) की गणना करना इसलिए भी आवश्यक है कि जनता को यह जानकारी होनी चाहिए कि देश के वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, न्यायाधीश, प्रोफेसर, पत्रकार, उद्योगपति, व्यापारी, सीमांत कृषक, शासकीय, अर्ध शासकीय एवं अशासकीय सेवा में रत वर्ग कर्मचारी, खिलाडी, कलाकार, कथाकार, ज्योतिषज्ञ, ड्राइवर, कुशल-अकुशल मजदूर, दिहाड़ी मजदूर, आदि विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले व्यक्ति किन-किन जातियों में कितने-कितने हैं, तभी ‘‘दूध का दूध और पानी का पानी’’ हो पायेगा। 

‘‘जितनी संख्या उतनी भागीदारी’’! मात्र सतही!

अब आप कल्पना कीजिए! जिसकी जितनी जनसंख्या उसकी उतनी हिस्सेदारी/ भागीदारी का अर्थ क्या है? क्या इस धरातल पर वस्तुतः उसी रूप में उतारा जा सकता है? यदि तर्क के लिए यह मान भी जाए तो किस तरह की स्थिति उत्पन्न होगी, इसकी कल्पना क्या आपने की है? भागीदारी का मतलब क्या सिर्फ सत्ता प्राप्ति का साधन ‘‘राजनीति’’ के क्षेत्र तक ही सीमित रहेगा या जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जनसंख्या अनुसार भागीदारी होगी? क्या ‘‘यह जहां का मुर्दा वही जलेगा’’ वाली स्थिति होगी। अथवा ‘‘सत्ता प्राप्ति के बाद’’ ‘‘जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जनसंख्या अनुसार भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी’’? 

कल्पना कीजिए एक आंकड़ों (बिहार राज्य में) के अनुसार पिछड़े वर्गों में शामिल विभिन्न जातियों की कुल जनसंख्या (63 प्रतिशत) को एससी एवं एसटी की जनसंख्या के साथ मिलाने पर वह कुल जनसंख्या का लगभग 85 प्रतिशत (84.59 प्रतिशत) हो जाती है। अब क्या इस आधार पर क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी की टीम में 85 प्रतिशत खिलाड़ी इन वर्गो का होना आवश्यक हो जाएगा? फिल्मों में क्या स्थिति बनेगी? क्या ट्रेन के डिब्बांे, बसों में भी यात्रियों की भागीदारी इसी तरह से सुनिश्चित की जाएगी? क्या कारखाने खोलने से लेकर नौकरी देने तक में भी ऐसी ही व्यवस्था हो पाएगी? राहुल गांधी जब पिछड़े वर्गे के आईएएस में भागीदारी के संबंध में आंकड़े देते हुए यह कहते है कि 90 सचिवों में सिर्फ 3 पिछड़ा वर्ग के है, जो देश का मात्र 5 प्रतिशत बजट संभालते हैं, के आंकड़ों की चर्चा करते हैं। तब उनका मतलब जनसंख्या के अनुसार भागीदारी क्या सिर्फ आईएएस तक ही सीमित होने तक है? परन्तु वे स्वयं जनता को यह नहीं बतलाते है कि एआईसीसी (कांग्रेस) के केंद्रीय व राज्यों के कार्यकलापों में पिछड़ा वर्गो के कितने कर्मचारी कार्यरत है? न ही राहुल गांधी से उनका विपक्ष यह प्रश्न करने की जुर्रत करता है। क्या भागीदारी सिर्फ सत्ता पाने तक की ही सीमित रहेगी अथवा संवैधानिक दायित्व और सामाजिक उत्तरदायित्वों में भी उतनी ही होगी? इस तरह के सैकड़ों प्रश्न उत्पन्न होते हैं, जिनका जवाब राजनीति के चलते न तो मिल पाएगा और न ही कोई देना चाहेगा, बल्कि आपको ‘‘पिछड़ा विरोधी’’ घोषित कर दिया जाएगा। 

50 प्रतिशत महिला भागीदारी? जितनी संख्या उतनी भागीदारी में कोई चर्चा नहीं?

लगभग 50 प्रतिशत महिलाओं की जनसंख्या होने के बावजूद ‘‘जिनती संख्या उतनी हिस्सेदारी’’ की बात करने वाले नेतागणों ने इन 50 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी पिछड़े वर्गो से सुनिश्चित करने का कोई ‘‘कथन’’ अथवा ‘‘प्रतिबद्धता’’ नहीं दर्शायी है, जो उक्त प्रतिपादित सिद्धांत के एकदम विपरीत है। आश्चर्य की बात तो यह है कि आरक्षण और जनसंख्या अनुसार हिस्सेदारी की बात करने वाले समस्त राजनेता गण चाहे किसी भी पार्टी के क्यों न हों, ‘‘लंका में सब बावन गज के’’ वे सब समाज के जातिगत विभाजन और जातिवाद का मंच पर विरोध करते हैं, समरसता की बात करते हैं, सबका साथ सबका विकास की बातें करते हैं। इस तरह इनका दो-मुंहापन स्पष्ट रूप से जनता के सामने परिलक्षित है। परन्तु साथ ही दुर्भाग्य की बात यह भी है कि जनता नेताओं के इस दोहरेपन पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया देने में असमर्थ है। ‘‘वक्र चंद्रमहि ग्रसहु न राहू’’ फिर वह कोई भी व्यक्ति हो, चाहे आरक्षित वर्ग का हो अनारक्षित वर्ग का हो या पिछड़ा वर्ग का हो।

‘‘रेवड़ी’’ या ‘‘जरूरी न्यूनतम आवश्यकता’’

देश में इस समय ‘‘जनहित’’ लोकहित के नाम पर रेवड़ियां अथवा आर्थिक रूप से बेहद कमजोर वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ‘मुफ्त’ या ‘सब्सिडी’ के साथ जीवनदायी सुविधा देने, बांटने का कार्य केंद्र से लेकर लगभग हर राज्य की सरकारें कर रही हैं । एक लोकप्रिय और जनोन्मुखी सरकार के लिए कौन सी सुविधाएं रेवड़ियां है और कौन सी या जरूरत मंद आवश्यकताएं है, इनके बीच बहुत ही बारिक ‘‘लक्ष्मण रेखा’’ है। प्रधानमंत्री स्वयं कई बार कह चुके हैं, रेवड़ी बांटना संस्कृति (कल्चर), बंद करना होगा। परंतु कई बार केंद्रीय सरकार भी जनता की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करते-करते लक्ष्मण रेखा को पार कर ‘‘रेवड़ी’’ बांटने में लग जाती हैं इसलिए ‘रेवड़ी’ संस्कृति पर रोक कानूनी प्रक्रिया द्वारा ही लगाई जा सकती हैं। क्योंकि ‘‘जब ‘‘देने’’ वाला ‘‘राजी’’ और ‘‘लेने’’ वाला राजी तो क्या करेगा काजी’’। ‘‘घूस देना-लेना’’ देश में एक अपराध है। फिर रेवड़ियां भी तो एक ‘घूस’ ही है। तब भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में संशोधन कर रेवड़ियों को ‘‘घूस की परिभाषा’’ में लाकर क्यों नहीं रोक लगाने का प्रयास समस्त राजनीतिक पार्टियों करती हंै? जहां समस्त राजनीतिक पार्टियां सिद्धांत रूप से इस बात पर सहमत है कि रेवड़ियां नहीं बटनी चाहिए और इस पर रोक होनी चाहिए।

मुफ्तखोरी! व्यक्तित्व के विकास में अवरोध।

यदि व्यक्ति को बिना प्रयास के जीवन उपयोगी सभी न्यूनतम आवश्यक साधन सरकार द्वारा उपलब्ध करा दिये जायेगें तो फिर व्यक्ति व व्यक्तित्व का निर्माण व विकास कैसे हो पायेगा? क्या ऐसा व्यक्ति अकर्मण्य नहीं हो जाएगा? और इस कारण से प्रतिभाओं के विकसित होने का अवसर नहीं मिल पायेगा। इन बातों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।

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