रविवार, 28 फ़रवरी 2021

माननीय न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा को ‘‘नमन‘‘।

चूँकि मैं स्वयं भी वकील हूं और सामान्य तया एक वकील व एक नागरिक की नजर में किसी भी न्यायाधीश का निर्णय न्यायिक होता है, अर्थात न्याय लिए हुए होता है। उच्चतम न्यायालय के निर्णयो को छोड़कर (वहां भी ‘‘पुनरावलोकन‘‘ का अधिकार है) बाकी समस्त  न्यायालयों की न्यायाधीशों के निर्णय से सहमत/असंतुष्ट होने पर गुण-दोष के आधार पर संबंधित पक्ष को सुपीरियर (वरिष्ठ) न्यायालय में जाने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। तथापि पिछले कुछ समय से न्यायालयों के न्यायिक निर्णयों की संबंधित पक्षों, समाज के अन्य लोगों, बुद्धिजीवियों, मीडिया इत्यादियों द्वारा अपने अपने हितों और सुविधा व विचारों के अनुकूल निर्णयों की सार्वजनिक आलोचना आजकल एक फैशन सा बन गया है। यह कितना उचित या अनुचित है, और किस सीमा तक यह आलोचना या प्रत्यालोचना की जा सकती है, यह एक अलगदा विषय है, जिस के विवाद में मैं फिलहाल नहीं जाना चाहता हूं।

परंतु वकील होने के साथ-साथ एक नागरिक और एक लेखक की हैसियत से टूल किट मामले में ‘‘दिशा रवि‘‘ की जमानत के प्रकरण में अतिरिक्त सेशन जज माननीय न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा द्वारा की गई तीखी टिप्पणियों पर अपने विचार व्यक्त करने से स्वयं को  रोक नहीं पा रहा हूं। कारण बड़ा साफ है। स्वाधीन भारत के 74 साल के स्वतंत्र न्यायपालिका के इतिहास में ‘‘लोकतंत्र और स्वतंत्रता के अधिकार‘’ के संबंध में एक निचली अदालत के न्यायाधीश द्वारा की गई इस तरह की शायद ही कोई टिप्पणी सार्वजनिक डोमेन में सामने आई हो। उक्त टिप्पणियों पर चर्चा करूं, इसके पहले आप कृपया उनकी टिप्पणीयों को पढ़ें, जो निम्नानुसार हैं

‘‘जिस टूल किट की बात की जा रही है उसका किसी तरह के हिंसा से कोई संबंध नहीं दिखता है‘‘

‘‘किसी लोकतांत्रिक देश में नागरिक सरकार को राह दिखाने वाले होते हैं। वे सिर्फ इसलिए जिलों में नहीं भेजे जा सकते क्योंकि वह सरकार की नीतियों से असहमत है‘‘।

‘‘व्हाट्सएप गु्रप बनाना टूलकिट एडिट करना अपराध नहीं हैं’’

‘‘देशद्रोह का मामला सिर्फ सरकार के टूटे गुरुर पर मरहम लगाने के लिए नहीं थोपा जा सकता है।’’ 

‘‘विचारों में मतभेद असहमति यहां तक कि नापसंद करना भी सरकार की नीतियों में निष्पक्षता लाने के लिए मान्य तरीके हैं।’’ 

‘‘दिशा के अलगावादी सोच के सबूत नहीं है।’’

‘‘ऋग्वेद का जिक्र कर कहां अलग-अलग विचारों को रखना ही हमारी सभ्यता का हिस्सा है।’’ 

‘‘फ्रीडम आफ एक्सप्रेशन में ग्लोबल ऑडियंस को टारगेट करना भी शामिल है। उसमें किसी तरह का कोई बैरियर नहीं हो सकता है‘‘

‘‘किसी भी लोकतांत्रिक देश में उसके नागरिक सरकार की अंतरात्मा की आवाज होती हैं।

स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय ‘‘आपातकाल‘‘, जहाँ 18 महीने की दमन पूर्ण और अत्याचार की अवधि में व्यक्तिगत नागरिक स्वतंत्रता तार-तार हो गई थी, के समय एक ‘‘पोस्टकार्ड‘‘ को भी ‘‘बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका‘‘ (हेवीएस कार्पस) मानने वाली उच्चतम न्यायालय व तत्पश्चात न्यायिक सक्रियता लिए हुए न्यायपालिका विभिन्न अवसरों पर उनके न्यायालय के समक्ष प्रकरणों पर सरकार के विरुद्ध या अन्य ‘‘तंत्रों‘‘ पर न्यायालय की आई कड़ी प्रतिक्रिया को हमने पिछले 74 सालों के स्वतंत्र भारत के गुजरते इतिहास में देखा है। एक ऐसे मामले में जहां पर ‘‘निर्णय‘‘ आने के पूर्व ही जिस ‘‘टूलकिट‘‘ को आधार बनाकर सरकार से लेकर लगभग पूरे मीडिया ने इसे ‘‘देशद्रोह‘‘ का बड़ा दस्तावेज बताते हुए प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर गिरफ्तारी की कार्यवाही की गई। उस पर न्यायपालिका की उक्त टिप्पणियां भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में निश्चित रूप से ‘‘एक मील का पत्थर‘‘ सिद्ध होगी, ऐसा मेरा मानना है। 

हालांकि माननीय न्यायाधीश की उक्त टिप्पणियां पर विवाद हो सकता है और प्रश्न उठाया जा सकता है कि माननीय न्यायाधीश के सामने जब मामला सिर्फ जमानत की सुनवाई के लिए था, तब न्यायाधीश मामले के मूल मुद्दे/विषय पर लगभग निष्कर्ष पर पहुंचते हुए लगभग निर्णय कैसे दे सकते हैं? वे प्रकरण के मुख्य मुद्दे (हिंसा व देशद्रोह के आरोप) पर अपने ‘‘लगभग निष्कर्ष‘‘ (भले ही वह तकनीकी रूप से ‘‘अंतिम‘‘ न हो) को ‘‘सार्वजनिक‘‘ कैसे कर सकते हैं? इससे केस के ‘‘ट्रायल‘‘ पर क्या प्रभाव नहीं पड़ेगा? अभी तक हम निचली अदालतों के न्यायाधीशों द्वारा जमानत के आवेदन में अपराधियों के विरुद्ध की गई टिप्पणियों पर उच्च अदालत में यह कहकर आपत्ति करते हैं कि, इससे प्रकरण के ट्रायल पर विपरीत प्रभाव हो सकता है। लेकिन मैंने कभी भी ‘‘अभियोजन‘‘ के पक्ष में यह दलील सुनी नहीं है। माननीय न्यायाधीश की उक्त टिप्पणी ने इस बिंदु पर कानून विदो को जरूर विचार करना चाहिए।

इसके बावजूद माननीय न्यायाधीश ने जो साहस दिखा कर वास्तविक तथ्यों को रेखांकित कर सामने लाया है, उसके लिए निश्चित रूप से वे साधुवाद के पात्र हैं! उनके इस साहस की प्रशंसा भी की जानी चाहिए। साधुवाद व प्रशंसा इसलिए की जा सकती है, क्योंकि उक्त टिप्पणियां निर्णय का ‘‘एग्जीक्यूटिव भाग‘‘ न होकर विचारों की अभिव्यक्ति है। इन टिप्पणियों से मीडिया को पुनः एक बार सबक लेने की आवश्यकता है कि वह कोई ‘‘न्यायिक निर्णय‘‘ आए बिना आरोपी का मीडिया ट्रायल करना बंद कर दें। यही स्वस्थ पत्रकारिता होगी। सरकार ने अभी सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने के कुछ दिशा निर्देश जारी किए हैं जो अगले 3 महीने में लागू किए जाएंगे। इसी प्रकार मीडिया ट्रायल पर भी प्रतिबंध लगाने के लिए कुछ न कुछ अंकुश लिए हुए दिशा निर्देश जारी किए जाने की भी आवश्यकता है। 







शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

प्रधानमंत्री की (सरकारी कार्यक्रम में) मुख्यमंत्री ममता के प्रति ‘‘ममत्व’’ की कमी! कितना औचित्य पूर्ण?

देश में इस समय ‘‘किसान आंदोलन‘‘ के बाद सबसे ज़्यादा चर्चा और मीडिया में छायी हुई विषय वस्तु यदि कोई है, तो वह पश्चिम बंगाल में होने वाले आगामी विधानसभा के आम चुनाव। जहां पर प्रमुख रूप से तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच गला-काट प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप राजनीतिक संघर्ष, मारामारी की सीमा तक काफी पहले से ही पहुंच चुकी है। ऐसा लगता है कि पश्चिम बंगाल एक बार फिर ‘‘प्लासी के युद्ध की स्थिति में‘‘ पहुंच चुका है। भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में काफी पहले से यह एजेंडा बना लिया है कि यदि पश्चिम बंगाल से ममता की विदाई ‘‘ममता पूर्वक‘‘ संभव न तो येन केन प्रकारेण पूरी ताकत के साथ ‘‘विदाई‘‘ दे दी जाए। अर्थात ‘‘सीधी उंगली से घी न निकले’’ तो ‘‘उंगली टेढ़ी’’ करने में कोई गुरेज नहीं। 
इस मामले में नरेंद्र मोदी और अमित शाह काफी दूरदर्शी दृष्टि वाले नेता है, जिन्होंने अपने नेतृत्व की दूरदर्शिता की छाप कई बार स्थापित व सिद्ध भी की है। इसी कड़ी में कई लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि प्रधानमंत्री जी ने जो ‘‘दाढ़ी‘‘ बढ़ा रखी है, वह पश्चिम बंगाल में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव को दृष्टि में में रखते हुए राष्ट्रीय कविवर रवींद्र नाथ टैगोर की जन्म भूमि व कर्मभूमि पश्चिम बंगाल के होने के कारण ‘‘बंगाली सेंटीमेंट्स‘‘ से जुड़ने के लिए की गई है। खैर! भाजपा नेतृत्व के सतत प्रयास का ही आज यह परिणाम है कि पश्चिम बंगाल में लेफ्ट पार्टियों का मोर्चा व कांग्रेस को पीछे छोड़ भाजपा पिछले पांच वर्षो में चतुर्थ स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच गई। 
मैं बात कर रहा था, प्रधानमंत्री की पश्चिम बंगाल के हल्दिया में 7 फरवरी को हुई सरकारी सभा की। जिसमें लगभग 5000 करोड़ से ऊपर की पश्चिम बंगाल के विकास जुड़ी विभिन्न परियोजनाओं का लोकार्पण व शिलान्यास प्रधानमंत्री द्वारा किया गया। ‘निमंत्रित’ होने के बावजूद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस कार्यक्रम में नहीं पहुंची। 23 जनवरी को कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल हॉल में सुभाष चंद्र बोस की 125वी जयंती पर हुए कार्यक्रम में प्रधानमंत्री की मौजूदगी में दर्शकों के एक वर्ग द्वारा ‘‘जय श्रीराम’’ के नारे लगाकर उनका तथाकथित मजाक उडाये व चिड़ाए जाने को लेकर ममता बेहद ख़फा है। उक्त सभा में प्रधानमंत्री को धन्यवाद देने के अतिरिक्त यह कहकर कि बुलाकर ‘‘अपमान अस्वीकार्य‘‘ है, ममता अपना भाषण दिये बिना वापस मंच पर बैठ गई। यद्यपि नारे प्रधानमंत्री की सहमति या अनुमति से नहीं लगे थे। लेकिन किसी व्यक्ति को चिढ़ाने के उद्देश्य से भगवान श्रीराम के पावन नाम को एक माध्यम बनाया जाये, यह अपने आप में एक निंदनीय कृत्य है। परंतु ठीक इसके विपरीत, एक भारतीय हिन्दू के भगवान श्रीराम के नारे से चिढ़ना तो और भी ज्यादा शर्मनाक व निंदनीय है। यदि ममता को भगवान श्रीराम के नारे से सार्वजनिक रूप से इतनी चिढ़ है (जो उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं है) तो ममता ने प्रत्युत्तर में प्रधानमंत्री के मंच पर चढ़ते समय अपने कार्यकर्ताओं से ‘‘अल्लाह हो अकबर‘‘ के नारे क्यों नहीं लगवा दिए। निश्चित रूप से इस पर मोदी की वह प्रतिक्रिया नहीं होती, जो ममता ने की थी।
हल्दिया का कार्यक्रम एक पूर्णतः सरकारी कार्यक्रम था। यह भाजपा की कोई चुनाव रैली तो थी नहीं? शायद इसीलिए ममता ने यह तय कर लिया कि आगे वे प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा नहीं करेगी। क्योंकि ‘‘काठ की हांडी बार-बार चूल्हे पर नहीं चढ़ाई जा सकती है‘‘। ममता की प्रधानमंत्री के सरकारी कार्यक्रम से ‘‘सउद्देश्य अनुपस्थिति‘ क्या एक संवैधानिक पद में बैठे हुए व्यक्ति द्वारा अपने से ऊंचे संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का अपमान व अनादर नहीं है तो क्या? साथ ही लोकतंत्र में यह जनता का भी अनादर है। वास्तव में यहां पर ममता मंच साझा कर प्रधानमंत्री से बंगाल के लिए एक ‘‘आर्थिक पैकेज‘‘ की मांग करके स्वयं को जन हितैषी दिखा कर प्रधानमंत्री को संकोची (ऑकवर्ड) स्थिति में लाकर अपने कौशल व राजनैतिक चातुर्य का सार्वजनिक प्रदर्शन कर सकती थी! तथापि प्रधानमंत्री ने ममता की अनुपस्थिति में, अपने उद्धबोधन में ‘‘ममता मयी’’ न होकर (कभी किसी समय वह हुआ करते थे) ‘‘निर्ममतापूर्वक ममता की निर्ममता को उजागर किया‘‘। प्रश्न यह कि एक पूर्णतः सरकारी कार्यक्रम में जिसमें सरकारी योजनाओं का उद्धघाटन-शिलान्यास किया गया हो में, प्रधानमंत्री द्वारा ममता बनर्जी व राज्य सरकार की राजनैतिक रूप से आलोचना करना कितना नैतिक, उचित और जायज है?
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, गृहमंत्री अमित शाह से लेकर भाजपा के पश्चिम बंगाल के राष्ट्रीय प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय आदि अनेक नेताओं का पश्चिम बंगाल का लगातार सतत दौरा चल ही रहा है, जिसमें वे ममता सरकार के विरुद्ध लगातार तथ्यों व साक्ष्यों के आधार पर ममता को जनता के बीच सफलतापूर्वक ‘‘विलेन‘‘ ठहरा रहे हैं। यह उनका अधिकार भी है। नरेंद्र मोदी जी को भी भाजपा की रैली में भाजपा नेता के रूप में सरकार व मुख्यमंत्री की आलोचना करने का पूर्ण अधिकार है, इसमें कोई शक़-वो-शुबह नहीं है। लेकिन एक केंद्रीय सरकारी कार्यक्रम में राज्य सरकार की ‘‘राजनैतिक‘‘ आलोचना करना कहां तक उचित है? 
यदि ममता बनर्जी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के 125 वीं जयंती के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री के खि़लाफ कुछ बोलती तो, क्या वह जायज व उचित होता? बिल्कुल नहीं! विपरीत इसके, इससे तो अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भी एक खराब संदेश ही जाता। यद्यपि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का प्रधानमंत्री की उपस्थिति में मंच से ‘‘जय श्रीराम’’ के नारे लगाने पर अपनी नाराजगी व्यक्त कर ‘‘अतिथि को निमंत्रण देकर, बुलाकर, बेइज्जत व असम्मानित करने का कथन’’ करना, साथ ही अपने उद्बोधन में कुछ न बोलना भी समय व कार्यक्रम की गरिमा को देखते हुए वांछनीय व सही नहीं था। भारतीय राजनीति में तो प्रत्येक राजनीतिज्ञ को हर पल ‘‘राजनीति‘‘ करने का खूब अवसर मिलता रहता है। परंतु कुछ अवसर ऐसे होते हैं जहां ‘‘राजनीति‘‘ छोड़कर ‘‘नीतिगत‘‘ बात ही करना चाहिए। ‘‘अन्यथा करधा छोड़ तमाशा जाए, नाहक चोट जुलाहा खाए‘‘ वाली स्थिति बन जाती है। उक्त अवसर भी एक ऐसा ही ‘‘अवसर‘‘ था। वक्त की नज़ाकत को देखकर ही अपने विषय व कथनों का चयन प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किया जाना फिर चाहे वे नरेन्द्र मोदी हो अथवा ममता बनर्जी। 
प्रधानमंत्री ने कोलकाता के विक्टोरिया पैलेस में ममता बनर्जी की उपस्थिति में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती ‘‘पराक्रम दिवस’’ के रूप में मनाने के कार्यक्रम में अपने उद्बोधन में ममता या उनकी सरकार पर कोई कटाक्ष या आलोचना नहीं की थी। तब बीपीसीएल की एलपीजी इंपोर्ट टर्मिनल व डोभी-दुर्गापुर नेचुरल गैस पाइपलाइन सेक्शन को राष्ट्र को समर्पित करने वाले पूर्णतः सरकारी कार्यक्रम में ममता की अनुपस्थिति में ममता व पश्चिम बंगाल सरकार पर राजनैतिक आरोप लगाने को उचित और ‘‘सामयिक‘‘ नहीं कहा जा सकता है। प्रधानमंत्री जी को इससे बचना चाहिए था।



रविवार, 7 फ़रवरी 2021

‘‘राष्ट्रवाद‘‘ की प्रखर पार्टी भाजपा के शासन में क्या देश का ‘‘राष्ट्रवाद कमजोर‘‘ हो गया है?

 

पिछले 72 दिनों से चले आ रहे किसान आंदोलन के समर्थन में आयी एक विदेशी नागरिक, प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय पॉप आइकन रिहाना के ‘‘एक ट्वीट‘‘आने के बाद, एक के बाद एक आये अनेक अंतर्राष्ट्रीय शख़सियतों-कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन त्रुदो, प्रसिद्ध पर्यावरणविद् स्वीडिश एक्टिविस्ट कुमारी ग्रेटा थनबर्ग, जिम कोस्टा यूएस हॉउस प्रतिनिधी, क्लाउडिया वेबबे ब्रिटिश सांसद, मिया खलीफा, गायक जे सीन डॉ. जियस, अमांडा केरनी, अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भांजी मीना हैरिस जो एक वकील व लेखिका है, इत्यादि के ट्वीट्स आने पर सरकार से लेकर देश की मीडिया तक में ऐसी तूफान जैसी हलचल मच गई की, प्रतिक्रिया स्वरूप "उल्टी माला फेरते हुए" अनेकों ट्वीट्स की बाढ़ सी आ गयी। स्वयं केंद्र सरकार के विदेश मंत्रालय को बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इन ट्वीट्स व प्रतिक्रियाओं को ‘‘गैर जिम्मेदाराना‘‘ ठहराते हुये यह कहना पड़ा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ समूह इन प्रदर्शनों पर ‘‘अपने ऐजेंडे़" थोप रहे है। कनाडा के उच्चायुक्त को तो विदेश मंत्रालय में बुला कर कर आपसी संबंध बिगड़ने की  सीमा तक की गहरी नाराजगी व्यक्त की गई।(यद्यपि अमेरिकन राष्ट्रपति की प्रतिक्रिया के संबंध में विदेश विभाग ने सावधानीपूर्वक बहुत ही सधी हुई प्रतिक्रिया दी)। विदेश मंत्रालय सहित अनेक प्रसिद्ध शख्सियतों द्वारा "हाकिम की  अगाड़ी  और घोड़े की पिछाड़ी" से बचते हुए पक्ष-विपक्ष के इन ट्वीटस् का संज्ञान लेने से यह लगने लगा कि क्या देश का ‘‘राष्ट्रवाद‘‘ इतना कमजोर है, ‘‘या हो गया है‘‘ कि ‘‘वह‘‘ (राष्ट्रवाद) ‘‘राष्ट्र‘‘ को छोड़कर जा रहा है। वह भी उस पार्टी के शासनकाल में जो वर्तमान में प्रखर राष्ट्रवाद की एकमात्र प्रतीक बनी हुई है, जिस कारण उसकी ‘‘सुरक्षा’’ हेतु हमे इतना ‘‘आक्रमक’’ होना पड़ रहा है। 

राष्ट्रवाद को ‘‘धक्का लगने‘‘ की चिंता की बात देश के एक प्रबुद्ध वर्ग द्वारा इसलिये की जा रही है, क्योंकि अनेक प्रसिद्ध विदेशी शख़िस़यतों ने किसान आंदोलन के समर्थन में दी गई प्रतिक्रियाओं के रूप में अपने जो मत व्यक्त किए हैं, को उक्त वर्ग द्वारा उसे हमारे देश के आंतरिक मामलों में स्पष्ट रूप से हस्तक्षेप माना जा रहा है, अथवा बताया जा रहा है। सहजतः जिसे देश किसी भी रूप में स्वीकार नहीं कर सकता है और न ही करना चाहिये। इस संप्रभुता की रक्षा के लिए देश का प्रत्येक नागरिक सरकार के साथ हमेशा से खड़ा था, खड़ा है, और खड़ा रहेगा। 

परंतु यहां पर सबसे बड़ा प्रश्न यही उत्पन्न होता है कि, क्या ये समस्त विदेशी प्रतिक्रियाएं हमारे देश के आंतरिक मामलों में वास्तविक रुप से हस्तक्षेप की सीमा में आती भी हैं अथवा नहीं? इसका विश्लेषण करने के पूर्व आपको इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि किसान आंदोलन के किसी भी नेता या संयुक्त किसान मोर्चा ने "को नृप होऊ,  हम का हानि" की तर्ज पर इन विदेशी नागरिकों से किसी भी प्रकार का कोई समर्थन या सहायता की अपील या मांग नहीं की है। परन्तु निश्चित रूप से विदेशी नागरिकों की तरफ से आये हुए इन समर्थनों का स्वागत किसान संगठनों ने अवश्य किया है। यद्यपि आंदोलन में शामिल एक किसान नेता ने जरूर कनाडा के प्रधानमंत्री के किसान आंदोलन के प्रति समर्थन के कथन को देश के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप बताया है।

कुछ एक प्रतिक्रियाओं को छोड़ दिया जाए तो, अधिकतर विदेशी नागरिकों की प्रतिक्रियाओं में या तो किसानों से बातचीत करने का सुझाव दिया है या ‘‘कृषकों को शांतिपूर्ण आंदोलन करने का हक है, यह लोकतंत्र का हिस्सा है‘‘ जैसी उक्तियां कथित की है (जैसा कि अमेरिकन राष्ट्रपति ने तीनों कृषि सुधार कानूनों का स्वागत करते हुए  कहा है)। यद्यपि अमेरिकन राष्ट्रपति की प्रतिक्रिया का यह भाग अवांछित था। और यदि अमेरिकन राष्ट्रपति की प्रतिक्रिया के इस भाग की तुलना ‘‘रिहाना’’ की प्रतिक्रिया से की जाए, जहां से यह "टि्वटर-विवाद" प्रारंभ हुआ है तो, निश्चित रूप से अमेरिकन राष्ट्रपति की प्रतिक्रिया का उक्त भाग भारत अमेरिका के वर्तमान  सुद्रड  संबंधों को देखते हुए ज्यादा ‘‘कठोर‘‘ है। यद्यपि अभी केंद्रीय शासन की जांच एजेंसियों ने "ग्रेटा टूल किट" जो भारत विरोधी एजेंड़ा चलाने वाली टूल किट (जिसे ग्रेटा ने शेयर किया था) है, के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर जांच प्रारंभ कर दी है। यह बतलाया गया है कि इस "टूल किट' का उपयोग भारत विरोधी प्रचार में लगातार हो रहा है निश्चित रूप से यदि टूल किट में देश को बदनाम करने के षड्यंत्र के साक्ष्य व तथ्य पाए जाते हैं, तो उनके विरूद्ध जरूर कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। कुछ एक ने तो इसे "ग्लोबल साजिश" की संज्ञा भी दे दी है। लेकिन अभी तक प्रायः किसी भी विदेशी व्यक्ति ने सरकार की किसानों के संबंध में अपनायी गयी नीति की आलोचना नहीं की है। सरकार द्वारा पारित तीनों कृषि सुधार क़ानूनों की भी इन अधिकांश प्रतिक्रियाओं में आलोचना नहीं की गयी है, जिसे हमारे आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कहा जा सकता हो। कॉन्स्टिट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप के 75 नौकरशाह सदस्यों ने विदेशी ट्वीटस् का जवाब दिये बिना सीधे केंद्र सरकार को निशाना बनाते हुए एक खुला पत्र लिखकर सरकार के किसान आंदोलन के संबंध में अपनाई गई नीति की आलोचना कर अप्रत्यक्ष रूप से उनका नैतिक समर्थन ही किया है। 

दूसरा, सबसे पहली विदेशी प्रतिक्रिया प्रसिद्ध पॉप गायिका रिहाना ने जानकारी के अभाव में जरूर यह कहा था कि ‘‘इस बारे में कोई बात क्यों नहीं कर रहा हैं’’ जो तथ्यपरक न होकर गलत थी। विपरीत इसके, वास्तव में सरकार बाक़ायदा बातचीत कर रही है, और अभी तक हुई कुल 11 दौर की बातचीत सार्वजनिक है। ये विदेशी ट्वीटस् भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की सीमा में आते हैं अथवा नहीं? इसका सही व निष्पक्ष विश्लेषण करते समय आपको यह बात भी ध्यान में लानी होगी कि हमारे देश के नागरिकों और शासनारूढ़ व्यक्तियों की विश्व के विभिन्न भागों में हुई घटनाओं के संबंध में की गई प्रतिक्रियाएं, वक्तव्य और विचार भी क्या दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप के अतिक्रमण की सीमा में तो नहीं आते हैं? जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 के हटने के बाद केंद्रीय सरकार की पहल पर यूरोपीय संघ के सांसदों को बुलाकर कश्मीर घाटी में धुमाने  से शायद  स्वेच्छा से हस्तक्षेप की नई परिभाषा तो  गठित नहीं होगी?  वैसे "आलोचना" व "हस्तक्षेप" में अंतर है  व अंतर करना चाहिए। हर "आलोचना"  हस्तक्षेप नहीं है परंतु "हस्तक्षेप" में आलोचना अवश्य शामिल है। वैसे भी यदि लोकतंत्र को वास्तविक अर्थों में "मजबूत" करना है तो "असहमति व आलोचना के स्वर को" सुनने की "क्षमता" बढ़ाने ही होगी।

             वर्तमान में जो पैरामीटर हमारे देश के आंतरिक मामलों में तथाकथित हस्तक्षेप को लेकर अपनाया जा रहा है, तो अमेरिका में हुए ‘‘हाउड़ी मोदी‘‘ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कहना कि ‘‘अब की बार ट्रंप सरकार‘‘ आदि इस प्रकार के हमारे गणमान्य नागरिकों  व राजनेताओं के अनेक कथनों व  ट्वीट्स को भी उसी पैरामीटर पर नहीं मापा जाना चाहिये? तभी तो आप निष्पक्ष निष्कर्ष निकाल कर न्याय कर पायेंगे। वैसे एक और महत्वपूर्ण बात पर किसी का भी ध्यान नहीं जा रहा है कि यदि विदेशी तत्व जब सरकार की नीति का ‘‘समर्थन‘‘ कर रहे होते तो उसका स्वागत किया जाता है। तब वह हमारे देश के आंतरिक मामलों में " हस्तक्षेप " नहीं माना जाता है। लेकिन यदि वे "आलोचना" करते हैं तो, उसे हस्तक्षेप के रूप में महिमामंडित कर दिया जाता है। यानी कि "मीठा मीठा गप और कड़वा कड़वा थू"। सकारात्मकता और नकारात्मकता मतों के बीच आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की ‘‘झूलती‘‘ परिभाषा कितनी उचित है, इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है।

            अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार (कुछ प्रतिबंधों के साथ) सिर्फ देश की सीमा तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह देश की सीमा के बाहर जाकर भी विश्व पटल पर व्यापक स्तर तक है, जहां जाकर वह शायद ‘‘मानवाधिकार‘‘ के रूप में परिणित हो जाता है, जाना जाता है। ‘‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता‘‘ ‘‘स्वच्छंदता और उद्दंडता‘‘ में परिणित न हो जाये, इस "लक्ष्मण रेखा" (सीमा) का ध्यान रखने की आवश्यकता ज़रूर है। इस दृष्टिकोण से भी किसान आंदोलन वउस पर आयी विदेशी ट्वीट्स व प्रत्युत्तर में दिये गये जवाब को  देखने की आवश्यकता  है।   

            उपरोक्त घटना से संबंधित एक संयोग और देखिए। यह ट्विटर बाजी तब हो रही है जब भारत के लोकतंत्र की प्रतिष्ठा पर ‘‘आंच‘‘ आयी हुई है। इकोनॉमिक्स इंटेलिजेंस यूनिट की हाल ही में आयी सर्वेक्षण रिपोर्ट में विश्व के सबसे बड़े  लोकतांत्रिक देश भारत के लोकतंत्र की विश्व में स्थिति वर्ष 2014 के 27 वें स्थान की तुलना में फिसल कर आज 53 वें स्थान पर आ  गयी  है। "लोकतंत्र" की यह गिरावट ट्विटर-बाजी के इस संयोग को देखते हुए कहीं और नीचे तो नहीं  चली जायेगी? यद्यपि उक्त रिपोर्ट का आना और ट्विटर-बाजी का यह संयोग भी देश हित में नहीं है। किसान आंदोलन को रोकने के लिए ‘‘बैरिकेड‘‘ के नाम पर कीले व नुकीले छड़ों को बिछाने का कार्य किस ‘‘लोकतंत्र‘‘ की निशानी है? आज तक विश्व के सबसे बड़े भारतीय लोकतंत्र में पूर्व में जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में चला ऑल इंडिया रेल कर्मचारियों के आंदोलन से लेकर, जेपी आंदोलन, किसान नेता शरद जोशी व महेंद्र सिंह टिकेट के किसान आंदोलन, मजदूर नेता दत्ता सामंत का मजदूर आंदोलन, बाबा रामदेव ,अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार व काला धन विरोधी आंदोलन आदि आदि हुए एक से बड़े आंदोलन में भी इस तरह के ‘‘अमानवीय अवरोध‘‘ नहीं लगाए गए। आज जब केंद्रीय सरकार और भाजपा शासित अनेक राज्यों की सरकारें अंग्रेजों के समय के गुलामी के प्रतीक चिन्हों और नामों को बदलने की लगभग मुहिम छेड़े हुए हैं। तब ऐसी स्थिति में कील ठोकना भी एक "प्रतीकात्मक" कृत्य है, जिसका अर्थ (नहीं बल्कि अनर्थ) लोकतंत्र की "छाती" (हृदय) में कील ठोकने जैसा निकलता है, जिससे न केवल बचा जाना चाहिए था, बल्कि बचा जा सकता था।( 2 दिन बाद  इन लोहे की कीलों की पट्टी को  उखाड़ भी दिया गया) क्योंकि इस "कृत्य" से विश्व में लोकतंत्र की स्थिति के अगले सर्वेक्षण में भारत की स्थिति क्या वर्तमान 53 से और नीचे तो नहीं गिर जाएगी ?

            कुछ बात अब‘‘राष्ट्रवाद‘‘ ‘‘संप्रभुता‘‘ और ‘‘सार्वभौमिकता‘‘ की भी कर ले जिसे हो रही इस ट्विटर बाजी ने विवाद का एक अखाड़ा बना  एक व्यक्ति पर एक नहीं  ट्वीट  थोड़े के समान दिया है। निश्चित रूप से हमारे देश का ‘‘राष्ट्रवाद‘‘ पूर्ण रूप से मजबूत है और राष्ट्रवाद की पोषक भाजपा के शासन में और मजबूत  हुआ है, इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए। परंतु स्थिती यह तभी संभव है, जब हम अपने देश की मजबूत राष्ट्रवादिता और संप्रभुता को  कुछ लचक (लचीलेपन) का इनपुट दें। अन्यथा एक व्यक्ति का एक लाइन का "ट्वीट" भी एक मजबूत हथोड़ा बनकर  एक चोट से ही हमारे मजबूत राष्ट्रवाद में "क्रेक" (दरार) पैदा कर देता है, कर देगा या करने का एहसास (परसेप्शन) करा देगा, जैसा कि वर्तमान में हो रहा है। 

जहां एक विदेशी व्यक्ति के ट्वीट के बाद से उत्पन्न हुई परिस्थितियों की प्रतिक्रियाओं में देश की ज्ञानी जानी-मानी हस्तियां, फिल्मी कलाकार जैसे लता मंगेशकर, अक्षय कुमार, अजय देवगन, सुनील शेट्टी, करण जोहर, कगना रनौत, एकता कपूर  खिलाडि़यों सचिन तेंदुलकर, विराट कोहली, रवि शास्त्री, अजिंक्य रहाणे आदि  के एक के बाद एक ट्वीट्स आ रहे हैं। इनमें से तो कुछ ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्ति भी शामिल है, जो सामान्यतया इस तरह के मामलों में ट्वीटस नहीं करते हैं। उनके ट्वीट्स का आना जैसे सचिन तेंदुलकर का, जिससे निश्चित रूप से  हमारे देश का राष्ट्रवाद कमजोर होता हुआ दिखेगा। यद्यपि इन सब  महानुभावों की प्रतिक्रियाएं राष्ट्रवाद को मजबूत करने हेतु ‘‘सामने वालों‘‘ को जवाब देने के लिए ही हो रही है। परंतु यदि हम यह मान लेते कि इन विदेशी प्रतिक्रियाओं से हमारी राष्ट्रवाद की सेहत पर किंचित भी असर नहीं होता है तो, प्रतिक्रियाओं पर प्रत्युत्तर की प्रतिक्रिया देने व इस     "दुश्चक्र" (विसीएस सर्किल) की आवश्यकता ही नहीं होती। मैं मानता हूं, जहां तक राष्ट्रवाद का प्रश्न है, हम एक मजबूत राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा के शासन में हम अपनी "भारतीय संस्कृति लिए हुए राष्ट्रवाद" को पूर्णतः सुरक्षित व मजबूत रखकर जीवन जी रहे हैं, जिस पर अनावश्यक विवाद से बचा जा कर राष्ट्रवाद के ‘‘तनिक तथाकथित संकट की अनुभूति" (परसेप्शन) को उत्पन्न होने का मौका ही नहीं दे।

सोमवार, 1 फ़रवरी 2021

गणतंत्र दिवस 2021! ‘‘गण‘‘ व ‘‘तंत्र‘‘ के बीच उत्पन्न हुई ‘‘रार‘‘ कैसे खत्म होगी?

 

देश में प्रति वर्ष 26 जनवरी को मनाये गये गणतंत्र दिवस के समान ही इस वर्ष भी  गणतंत्र दिवस मनाया गया। परंपरागत रूप से प्रत्येक वर्ष गणतंत्र दिवस मनाये जाने के बावजूद हर साल का गणतंत्र दिवस अपने पिछ्ले गणतंत्र दिवस से कुछ न कुछ विशिष्टता और नयापन लिये होता ही है। परिणामतः इस वर्ष का गणतंत्र दिवस भी पिछले वर्ष के गणतंत्र दिवस से कई मायनों में कुछ विशिष्टता और भिन्नता लिये हुए है। किस तरह से कितना परिवर्तन इस गणतंत्र में हमें देखने को मिला, इसकी विवेचना की ही जानी चाहिये, ताकि हम यह समझ सकें कि यह परिवर्तन कितना सकारात्मक या नकारात्मक रहा हैै जिससे वर्ष 2022 का गणतंत्र और उपलब्धियों के साथ मनाया जा सके। 

पहले इसके सकारात्मक पहलुओं की चर्चा कर लें। आपको याद ही होगा कि पिछले वर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाये जाते समय कोविड-19 (कोरोना वायरस) के घने बादल चीन से प्रारंभ होकर विश्व में तेजी से फैल रहे थे। भारत में भी कोरोना वायरस के संक्रमण की आशंका के संकेत मिलने प्रारंभ हो गये थे और अधिकृत रूप से कोविड-19 का प्रथम संक्रमित मरीज भारत में 30 जनवरी को केरल प्रदेश के त्रिशुर शहर के ‘‘कासरगोड‘‘ गांव में पाया गया था। अर्थात हमारे गणतंत्र दिवस-2020 का प्रारंभ ही नयी वैश्विक बीमारी कोविड-19 के साथ हुआ, जो तेजी से हमारे देश सहित विश्व के अनेक देशों में फैलता चला गया। लेकिन आज गणतंत्र 2020 की समाप्ति पर और नये गणतंत्र 2021 के प्रारंभ होने पर हमने पिछले गणतंत्र के प्रारंभ की तुलना में आज निश्चित रूप से विश्व के अन्य देशों की तुलना में कोरोना वायरस संक्रमण को काफी हद तक नियंत्रित कर कुछ निश्चिंतता की स्थिति को प्राप्त अवश्य किया है।

यद्यपि कोविड-19 पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है। लेकिन बीच में एक समय ऐसा था, जब हमारे देश में प्रतिदिन औसतन 50000 से अधिक नये लोग संक्रमित हो रहे थे, इसकी तुलना में आज प्रतिदिन औसतन 5000 से भी कम लोग संक्रमित हो रहे हैं। इसी प्रकार ‘‘मृत्यु-दर’’ घटाने और ‘‘रिकवरी रेट’’ में वृद्धि करने में भी हमने ‘‘अपना हाथ जगन्नाथ‘‘ की उक्ति को अपनाते हुए, कुशल प्रबंधन द्वारा नियंत्रण कर अच्छी सफलता प्राप्त की है। इसके लिए हमारे समस्त स्वास्थ्य कर्मचारी, कोरोना वारियर बधाई के पात्र हैं। यह सब इसलिये हो पाया, क्योंकि ‘‘गण‘‘ और ‘‘तंत्र‘‘ के बीच सामंजस्य बिठाने का प्रयास दोनों तरफ से हुआ, जिसके उपरोक्त सफल परिणाम निकले। यही हमारे गणतंत्र की विशिष्टता और सफलता है। यद्यपि नागरिकों के बहुत से अनुउत्तरदायी, आत्मघाती व्यवहार भी देखने को मिले है। विश्व के कुछ देशों में तो राष्ट्राध्यक्षों को कोरोना वायरस से निपटने में सफलता प्राप्त न मिलने पर इस्तीफे़ तक देने पड़ गए। जैसे आज इटली के राष्ट्राध्यक्ष को इस्तीफा देना पड़ गया।

परंतु आज ‘‘गणतंत्र‘‘ का प्रारंभ 63 दिन से अधिक हो चले किसान आंदोलन से ‘‘आतंकित‘‘ है या ‘‘अलंकृत‘‘ है, यह गहरे विवाद के साथ ही गहन विषाद का विषय भी है। लोकतंत्र में बिना ‘‘गण‘‘ के ‘‘तंत्र‘‘ अस्तित्वहीन है और बिना ‘‘तंत्र‘‘ के ‘‘गण‘‘ अराजकतावादी हो जाता है। इसीलिए गण और तंत्र के जुड़े रहने से ही गणतंत्र की महत्ता और उसका वजूद है। 

आज संविधान दिवस पर राजपथ पर राष्ट्रीय परेड़ के साथ किसानों की ट्रैक्टर रैली का क्या और कितना औचित्य है? यह विचारणीय है। क्या किसान राज पथ पर इकट्ठे होने वाले ‘‘गण‘‘ से अपने को अलग ‘‘गण‘‘ मान रहे थे? जो उन्होंने अलग से अपनी शक्ति दिखाने का निर्णय लिया। क्या यह शक्ति प्रदर्शन राष्ट्रीय दिवस गणतंत्र दिवस को छोड़कर अन्य दिन नहीं हो सकता था? क्योंकि गणतंत्र दिवस, विश्व में हमारी राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक है। क्या इसके यह मायने नहीं निकलते हैं कि किसान संगठन अपने आंदोलन के प्रति विश्व का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं? और अंततः जिस अराजकता की आशंका व्यक्त की जा रही थी, वह अशांति और अराजकता की स्थिति दिल्ली में प्रवेश करने वाले समस्त मार्गों में थोड़ी बहुत होती हुई दिखायी दी। इस कारण आंदोलनरत कुछ प्रमुख किसान नेताओं को भी यह स्वीकार करना पड़ा कि पिछले 2 महीने से ज्यादा से चला आ रहा आंदोलन, जो कि प्रायः शांतिपूर्ण रहा, और जो शांति आंदोलन का बल थी,उसके भंग होने से आंदोलन कमजोर होगा। यह तो वही बात हुई कि ‘‘अंधे अंधा ठेलिया दोनों कूप पड़ंत‘‘! इस स्थिति को टालने के लिए ही तो सरकार लगातार बार-बार किसान संगठनों से आज के दिन ट्रैक्टर रैली न निकालने का (असफल) अनुरोध कर रही थी। किसान नेताओं द्वारा दिल्ली में की जाने वाली ट्रैक्टर रैलियों के औचित्य को सिद्ध करने के लिये इसे गणतंत्र में भाग लेने वाला अभूतपूर्व कदम बताया गया! कहा गया कि गणतंत्र दिवस पर यदि जवानों की परेड हो सकती है तो, किसानों की क्यों नहीं। परंतु दुर्भाग्यवश यह वास्तव में तब ‘‘अभूतपूर्व‘‘ हो गया, जब ‘‘लाल किले‘‘ पर जहां स्वतंत्रता प्राप्ति से अभी तक सिर्फ देश के प्रधानमंत्री ही तिरंगा झंडा फहराते रहे, वहां इन आंदोलनकारियों ने या इनके बीच घुसे अराजक तत्वों ने (जैसा कि बाद में कुछ किसान नेताओं ने ऐसा कह कर अपना पल्ला झाड़ लिया) उस जगह तिरंगे के बदले दूसरा झंडा लगा दिया। जो झंडा लगाया गया उसे सिख धर्म में ‘‘निशान साहिब‘‘ कहा जाता है और यह सिख धर्म में बड़ा ‘‘पवित्र‘‘ माना जाता है! और इसलिये भी एक पवित्र निशान को गलत तरीक़े से सही जगह न रखना या न लगाना भी यह दिखाता है कि उन तत्वों का सिख धर्म के प्रति कितना सम्मान है। इससे यह भी दृष्टिगोचर होता है कि उनके मन में अपने राष्ट्र के ‘‘गणतंत्र‘‘ के प्रति कितनी आस्था है। ‘‘यानी दूसरे का असगुन करने के लिये अपनी नाक कटाना‘‘। अतः स्पष्ट है आज का यह गणतंत्र दिवस गण और तंत्र के बीच जो एक दरार खींच गया, उसे तुरंत भरा जाये, इसी में ही समझदारी है, यही देशभक्ति है और यही हमारी गणतंत्र दिवस के प्रति सच्ची भावना होगी।

अंत में मैं आंदोलनरत किसानों और किसान संगठनों व उनके नेताओं से अनुरोध करना  चाहता हूं कि देश में 26 जनवरी को संविधान लागू होने के दिवस पर किसानों को क्या यह विचार नहीं करना चाहिए कि इस दिन संविधान लागू हुआ था? (न कि निरस्त हुआ था?) जिसके द्वारा कानून बनाने की शक्ति संसद को मिली। इसलिए आज शक्ति प्राप्त संसद द्वारा पारित उस कानून जिसे लागू हुए मात्र 4 महीने भी नहीं हुए है, की समाप्ति की बात करना संवैधानिक और न्यायोचित नहीं है। यद्यपि वर्तमान में उच्चतम न्यायालय ने उक्त कानून के लागू होने पर रोक अवश्य लगा दी है। और सरकार ने भी ऐसा ही रोक का प्रस्ताव डेढ़ वर्षो के लिये संयुक्त किसान मोर्चा की बातचीत के दौरान दिया है। ऐसा नहीं है कि संसद ने देश में लागू किए गए कानूनों को समाप्त कर उनके स्थानों पर नए कानून नहीं बनाएं हो। जैसे ब्रिटिश इंडिया के जमाने से वर्ष 1861 में लागू दंड प्रक्रिया कानून को समाप्त किया जाकर वर्ष 1973 में नया दंड प्रक्रिया संहिता क़ानून बनाया गया। इसी प्रकार आयकर अधिनियम 1961 को समाप्त कर नया ‘‘प्रत्यक्ष कर संहिता’’ लागू करने का प्रस्ताव पिछले कई सालों से (वर्ष 2000) से विचाराधीन है। 1 जुलाई 2017 से लागू जीएसटी को अभी मात्र साढ़े तीन वर्ष ही हुए हैं, जब की उसमें आवश्यकता अनुसार अभी तक 46 संशोधन हो चुके हैं। कहने का मतलब यही है कि किसी क़ानून को रद्द या समाप्त कर उसकी जगह नया क़ानून लाने में वर्षो लग जाते है। तब तक संशोधनों की बाढ़ लग जाती है। क्योंकि उनके परिणामों का विश्लेषण होता है। वही स्थिति इन तीनों भूमि सुधार कानूनों के साथ भी हो सकती है। इसे किसान समझने को तैयार क्यों नहीं है जबकि सरकार तीनों कानूनों में आवश्यक संशोधन करने के लिए तैयार है, यह कथन वह ग्यारह दौरों की बातचीत के दौरान बारंबार कह चुकी है। किसान नेताओं की नजर में यदि काले कानूनों की समस्त धाराएं किसानों के हितों के विपरीत हैं, तो वे उक्त समस्त धाराओं के बदले नई धाराओं का संशोधन का प्रस्ताव देकर गेंद सरकार के पाले में क्यों नहीं डालते हैं? इससे उनका उद्देश्य भी पूरा हो जाएगा और सरकार समस्त आवश्यक संशोधन करके संसद द्वारा पारित तीनों कानूनों के अस्तित्व को बनाए रख उसकी सार्वभौमिकता की रक्षा भी हो जाएगी। अन्यथा अब यही माना जाएगा कि लड़ाई दोनों पक्षों के बीच सिर्फ ‘‘अहम’’ (ईगो) की रह गई है, मुद्दों की नहीं, क्योंकि सरकार भी एमएसपी पर सहमत होने के बावजूद क़ानून बनाने में ‘‘दाये बाये’’ हो रही है।

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