बुधवार, 23 नवंबर 2016

हंगामा हो गया...............हा..हा..हा..!

‘‘हंगामा हो गया’’ बॉलिवुड फिल्म ‘‘क्वीन’’ का एक प्रसिद्ध गाना है, जो आज विमु्द्रीकरण से उत्पन्न परिस्थिति को देखते हुए एकदम होठो पर आ जाता है। ‘‘हंगामा’’ सिर्फ दर्शकदीर्घा में ही नहीं है, बल्कि जो ’’फिल्म’’ दिखा रहे हैं उनके ‘‘बीच’’ भी है। हंगामा देश के हर क्षेत्र में ही नहीं अपितु नागरिक जीवन के हर क्षेत्र में भी मचा हुआ है। इस अचानक उत्पन्न हुए हंगामें को भड़काने की कोई बात नहीं कह रहा है, सब उसको समयरूपी पानी डालकर ठंडा करने का प्रयास कर रहे है। लेकिन ‘‘हंगामा’’ है कि, ठंडा होने का नाम ही नहीं ले रहा है।
आठ नवम्बर को अचानक पूरे देश में केंद्रीय सरकार के वित्त विभाग की अधिसूचना क्रं. 3407 ई द्वारा रू. 500 और 1000 के नोट का विमुद्रीकरण (डिमोनीटाईजेशन) कर दिया गया। अचानक  हुई इस कार्यवाही से देश में चारो तरफ उत्पन्न हंगामें से हाहाकार मच गया। यह पहला मौका नहीं है जब देश में प्रचलित कुछ मुद्रा का विमुद्रीकरण (डिमानीटाईजेश्न) किया गया हो। इसके पूर्व भी वर्ष 1978 में मोरारजी भाई ने 5000 और 10000 के नोटों का डिमोनीटाईजेशन किया था। यदि उस समय के 10000 की कीमत आज मापी जाये तो मूल्य सूचकांक के अनुसार वह इस समय 10 गुना से कम नहीं होगी। इस प्रकार इतने हाई डिनामिनेशन के नोट के बंद होने पर भी ऐसा हंगामा नहीं बरपा था जो आज बरप रहा है। परिस्थितियों में मात्र अंतर इतना हैं कि उस समय मुद्रा (करेंसी) को तुरंत बंद नहीं किया गया था। तब कुछ महीनो का समय दिया जाकर एक निश्चित भावी तारीख से मुद्रा को चलने से बंद किया गया था। जबकि आज इसे तुरंत (इंस्टेंट) मात्र 4 घंटे का समय देकर रात्री 12 बजे से बंद कर दिया गया। आज हर चीज व्यक्ति इंस्टेंट (तुरंत़) चाहता है। फिर चाहे वह इंस्टेंट कॉफी हो या इंस्टेंट कॉफी का भुगतान करने के लिए ‘कार्ड’ के द्वारा इंस्टेंट भुगतान। एक और महत्वपूर्ण अंतर वर्ष 1978 और आज की गई कार्यवाही में हैं, वह यह है कि उस समय 5 और 10 हजार रूपये के नोट के बदले कोई नये अंक के नोट की श्रृंखला (सिरीज) जारी नहीं की गई थी और न ही प्रचलित नोटों की श्रंृखला बंद कर कोई नई सिरीज जारी की गई थी। आज न केवल रू 2000 के नये अंक के नोट की श्रृंखला जारी की गई, बल्कि बंद किये गये 500 के नोट की भी नई सीरीज जारी की गई। 2000 के नोट जारी करने हेतु भारतीय रिजर्व बैंक ने 3 कारणों में से जो एक प्रमुख कारण बतलाया हैं वह उच्च मूल्य के बैंक नोटो का उपयोग गणना में न लिए गये धन के भंडारण के लिए होना है। इसका मतलब उसका उपयोग काला धन (ब्लेक मनी) केे संधारण के लिये होता हैं। तब एक साथ ही (सायमलटेनीईसली) पांच सौ के नोट बंद कर दो हजार के मूल्य के नोट जारी करने का औचित्य क्या रह जाता है। यह न केवल समझ से परे है बल्कि यह उक्त नोटो को बंद किये जाने के उद्धेश्यों को ही निष्फल कर देता है। यदि बात जाली नोटों के कारण की है तब भी सरकार पॉच सौ और हजार के नये श्रृंखला (सीरीज) के नोटो को छापकर उन्हे चलन में लाकर पुराने सीरिज को बंद कर सकती थी जिससे इस तरह का हंगामा तो खड़ा नहीं होता! और सरकार का उद्वेश्य भी पूरा हो जाता। 
अब सरकार के इस महत्वपूर्ण उद्वेश्य को देश के हम नागरिक ही पलिता लगा रहे है, नये-नये रास्ते खोजे जा रहे है। सरकार को चूना लगाकर कालेधन को सफेद धन में बदल सकने के प्रयास यथा संभव किये जा रहे है। कोई कोई तो लम्बी दूरी के लिए रेलवे टिकिट की बुकिंग करा रहा हैं। (यदि सम्भव होता तो अन्टार्कटिका महाद्वीप की टिकिट भी बुक करा लेते।) रोजगार के नये अवसर खुल गये है। रूपये बदलवाने की लाईन में लगने हेतु 500 रूपये दिहाड़ी पर नये रोजगार का तबका पैदा हो रहा है। जिनने सोने-चॉदी के जेवर कभी नहीं पहने थे वे भी घर में संदूक में रखने के लिए रातभर सर्राफा बाजार में आकर भीड़ बढ़ा कर रास्ता जाम कर रहे है। इस कार्यवाही से सरकार सरकारी और गैर सरकारी व्यक्तिगत उधारी लेने वालो पर इतनी मेहरबान लगती है कि बगैर सरकार के नोटिस दिये और बिना पक्षकार के बुलावे ऋणि व्यक्ति फोन करके ऋण चुकाने की गुहार कर रहा है। उधार देने वाला मजे में है क्योंकि उसकी वसूली हो रही है और देने वाला भी क्योंकि उसके पास से जा रहे जो मात्र कागज के टुकड़े रह गये हैं का कुछ मोल बन पा रहा है।
लेकिन इन सब से जनता के मन में भ्रष्टाचार या भ्रष्टाचारियों के प्रति कोई घृणा का भाव आया हो ऐसा नहीं लगता। हाल ही में हमारे ही प्रदेश में व्यापम के नाम से बदनाम संस्था के कर्मचारी नये कलफ लगे हुए कड़क दो हजार के नोट से रिश्वत लेते हुए पकड़े गये। यदि कालाबाजारी, भ्रष्टाचार, कालाधन समाप्त करना है तो इन सब कार्यवाहियों में संलिप्त नागरिको को कड़क नैतिकता का मूल पाठ पढ़ाने के लिये क्लास में लगातार बैठाये जाने की आवश्यकता है। लेकिन प्रश्न फिर यही पैदा होता है कि इन नैतिक गुणों को पढ़ाने वाले इतने नैतिक शिक्षक कहॉं से लायेंगे? पुराना जमाना था जब सौ-सौ विद्यार्थियों पर एक-एक शिक्षक हुआ करता था। आज के वर्तमान युग में गुणात्मक शिक्षा के लिए हर 25-30 बच्चे पर एक शिक्षक होता है। यदि पुराने अनुपात को ही ले लंे तो भी क्या हमारे पास उतने शिक्षार्थी नैतिक मूल्य पढा सकने योग्य है? प्रश्न के उत्तर की आवश्यकता नहीं हैं क्यांेकि कई बार प्रश्न में ही उत्तर रहता है इसीलिए उसे प्रश्नोत्तर भी कहा जाता है।
यदि हम यह तथ्य स्वीकार करते है कि हमारे देश में नैतिकता की कमी है जो वास्तविकत्ता भी हैं तो फिर एक और रास्ता काले धन को बैंक में लाने का हैं। वो यह है कि केन्द्रीय सरकार अघोषित सम्पत्ति को घोषित करने का एक और मौका देे और व्यक्ति को बैंक में असीमित राशी जमा करने की स्वीकृति/अनुमति देवे तथा उस असीमित राशी पर अधिकतम 30 से 50 प्रतिशत की दर से जो भी सरकार तय करे और उस जमा राशी पर आयकर लेकर उसके द्वारा जमा की गई राशी को नियमित मानकर उसके स्रोत बाबत् जमा करने वाले व्यक्ति से किसी भी प्रकार की कोई पूछताछ नहीं करे। इससे निश्चित ही सभी प्रकार का कालाधन सरकार की नजर में आ जायेगा तथा वह बैक के माध्यम से टैक्स समायोजित कर लेने के उपरान्त देकर सफेद धन बनकर चलन में आ सकेगा और इस तरह इसके कारण होने वाले हंगामा से भी निजात मिल सकेगी।
 अंत में इस हंगामा के बीच एक और भी महत्वपूर्ण बात संज्ञान में आई कि उक्त कार्यवाही के बाद लगभग विगत 10 दिवस में न केवल पड़ोसी देश द्वारा की जाने वाली सीमा के उल्लघंन और आतंकवादी घटनाओं व नक्सलवादी घटनाओं में बहुत तेजी से कमी आयी हैं, बल्कि देश के  भीतर भी अपराध की घटनाओं में कमी अंकित की गई हैं जैसा कि गृहमंत्री ने स्वयं स्वीकार किया हैं।

मंगलवार, 8 नवंबर 2016

‘‘मानवाधिकार क्या मात्र ‘‘अपराधियों’’ का ही है! ‘‘आम नागरिकों’’ का नहीं ?

भोपाल जेल से 8 दुर्दान्त आतंकवादी विचाराधीन (अंडर ट्रायल) अपराधियों के भागने पर मुठभेड़ (एनकांउटर) में समस्त आतंकवादी मारे गये-कैसे व क्यों मारे गये, उस पर विवाद व राजनीति हो सकती है, बल्कि यह कहा जाए कि उस पर जमकर घोर विवाद व राजनीति हो रही हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रश्न यह नहीं हैं कि उक्त घटना कितनी सत्य अथवा वास्तविक हैं, या अर्द्धसत्य हैं, बल्कि प्रश्न यह हैं कि क्या मानवाधिकार आयोग के अधिकार क्षेत्र में मात्र अपराधियों के मानवाधिकार ही आते हैं। प्रश्न यह इसलिये भी उत्पन्न हुआ हैं क्योंकि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने उक्त घटना का स्वतः संज्ञान लेकर नोटिस जारी किये हैं। 
प्रश्न यह हैं कि एक सामान्य नागरिक, पुलिस/अर्द्ध सैनिक बल या सैनिक बल, के जंाबाज सैनिक, जब किन्हीं अपराधियों या आतंकवादियों के द्वारा मारे जाते हैं, तब उसके/उनके मानवाधिकार के स्वतः संज्ञान की आवश्यकता की याद मानवाधिकार आयोग को क्यों नहीं आती हैं? प्रश्न यह हैं कि क्या मानवाधिकार आयोग का कार्य क्षेत्र सिर्फ पुलिस कस्टड़ी वाले आतंकवादी के पुलिस मुठभेड़ों में मरने वाले आतंकवादियों तक ही सीमित हैं? प्रश्न यह भी उत्पन्न होता हैं कि क्या आतंकवादी घटनाओं में शहीद हुये अन्य नागरिकों का (कोई भी) मानवाधिकार नहीं होता हैं? क्या देश की सुरक्षा को परे रखकर केवल आतंकवादियों और अपराधियों के मानवाधिकार की ही सुरक्षा की चिंता करते रह जाना चाहिए? क्या ऐसा करने से असामाजिक तत्वों को अवांछित प्रश्रय और पनपने का अवसर नहीं मिलेगा जिससे केवल अव्यवस्थता और आराजकता ही बढेगी। भोपाल जेल से भागे समस्त अपराधी ‘सिमी’ संगठन के सदस्य थे जिसे ‘‘गैर कानूनी संगठन’’ न केवल राज्य सरकार द्वारा घोषित किया गया हैं, बल्कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी राज्य सरकार के उक्त आदेश को अंतिम रूप से सही ठहराया हैं। उक्त 8 आतंकवादियों पर देशद्रोह के गंभीर आरोप हैं जिनमें से चार आतंकवादी पूर्व में भी खंडवा जेल से भाग चुके थे ऐसे (गैर कानूनी संगठन के) दुर्दान्त आतंकवादी, विचाराधीन अपराधियों की मुठभेड़ में हुई मृत्यु पर मानवाधिकार आयोग द्वारा नोटिस जारी करने से समस्त सामान्य शंातिप्रिय देशभक्त नागरिको के मन में एक कौतूहल अवश्य पैदा हुआ हैं कि क्या मानवाधिकार देश की एकता सुरक्षा व अस्मिता से भी बड़ा हैं।  
सिमी के मुठभेड़ में मारे गये आंतकी निश्चित रूप से विचाराधीन अपराधी थे, सजायाफ्ता नहीं थे। लेकिन यदि उनके अपराधों का सम्पूर्ण इतिहास पढ़ा जाये तो ‘‘निश्चित रूप से वे दुर्दान्त अपराधी कई-कई बार अपराध करने वाले अभियुक्त हैं,‘‘यह निष्कर्ष निकालना कतई गलत नहीं होगा। इसीलिए माननीय न्यायालयों ने भी उनके जमानत आवेदनों को गुण दोष के आधार पर समय - समय पर अस्वीकार किया हैं। क्योंकि उन प्रकरणों में अपराधियों के विरूद्ध पर्याप्त साक्ष्य थे। अन्यथा ‘‘जमानत एक नियम हैं व ‘‘अस्वीकार करना’’ एक अपवाद हैं,’’ के न्यायिक सिद्धान्त के आधार पर अभी तक सभी जमानत नहीं पा जाते? लेकिन मानवाधिकार को केवल अपराधियों व आतंकियों तक ही सीमित कर देना क्यांेकि उनकी मृत्यु मुठभेड़ में हुई हैं, यह कदापि उचित नहीं होगा। चूंकि एक व्यक्ति का मानवाधिकार दूसरे व्यक्ति की स्वतंत्रता व सुरक्षा के अधिकार को अतिक्रमित नहीं कर सकता हैं। पुनः एक व्यक्ति का मानवाधिकार तभी तक वैध, उचित व मान्य हैं जब तक वह दूसरे व्यक्ति के मानवाधिकार को चोट नहीं पहंुचाता हैं। 
इस घटना पर पूरे देश में हुई क्रिया-प्रतिक्रया से एक दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी उत्पन्न हुआ हैं कि क्या देश की राजनैतिक दिशा व पहचान यही हैं। आतंकवादियों के मानव जाति के रूप में गिनने के बजाय केवल जाति मानव (मुसलमान) के रूप में गिनने की चेष्टा करने का ‘‘मौलाना दिग्विजय सिंह’’ का प्रयास न केवल समरसता व सहिष्णुता के सिद्धान्त के बिलकुल विपरीत हैं बल्कि वह कहीं न कहीं देश की समभाव व सांप्रदायिक एकता की भावना में रूकावट के रूप में खड़ा हो रहा हैं। दिग्विजय सिंह से यह क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि यदि मारे गये समस्त आतंकवादी मुसलमान थे, जिसकी ओर वे इशारा कर रहे हैं, तो इस तरह कहीं अनजाने में वे इस ओर तो इशारा नहीं कर रहे हैं, कि समस्त मुसलमान आतंकवादी होते हैं! अन्यथा इन आठ व्यक्तियों के खिलाफ अपराधों की विभिन्न धाराओं में जब मुकदमें दर्ज हुये थे, तत्समय तत्काल उनका ऐसा बयान क्यों नहीं आया? वास्तव में वे समस्त अपराधी हैं और उनके खिलाफ देश द्रोह के आरोप हैं। अभियुक्त की एक ही जात होती हैं अपराधी। दिग्विजय सिंह से यह भी पूछा जाना चाहिये कि पाकिस्तान एक मुस्लिम राष्ट्र हैंे जो न केवल आंतकवाद को जन्म दे रहा हैं बल्कि पनाह भी दे रहा हैं, जिसको खुद उनकी यूपीए की सरकार ने समय-समय पर स्वीकार किया था, जो तथ्य रिकार्ड़ पर भी उपलब्ध हैं, तो फिर तब उन्होंने मुस्लिम आतंकवाद पर ऊंगली क्यों नहीं उठाई।  
जब किसी नागरिक की किसी भी घटना में मृत्यु होती हैं, या पुलिस कस्टडी में मृत्यु होती हैं तब यह कहा जाता है कि उसके अधिकारों की रक्षा के लिये भारतीय दंड़ संहिता व दंड़ प्रक्रिया सहिंता के पर्याप्त प्रावधान अपराधियों को सजा दिलाने के लिए भारतीय संविधान में हैं, जो एक न्यायिक प्रक्रिया हैं। तदनुसार तब उसके मानवाधिकार की बात ही नहीं की जाती और उसका वह मानवाधिकार गौंण हो जाता हैं व भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त कानून ऊपर हो जाता हैं। लेकिन जैसे ही कोई आतंकवादी या अपराधी पुलिस की कार्यवाही में मारा जाता है तब उसका मानवाधिकार  भारतीय कानून से कैसे ऊपर माना जाने लगता है। देश में कानून की सबसे बड़ी यही विड़म्बना हैं। 
देश का दुर्भाग्य ही है कि वह ‘‘मुस्लिम कट्टरवाद’’ और ‘‘मानवाधिकार’’ के बीच झूल रहा हैं। उससे आगे जाकर देश की अस्मिता, सुरक्षा व सम्मान का प्रश्न गौण होते जा रहा हैं। इस बात को देश के नागरिक नहीं  समझ पा रहे हैं जो उन्हें समझने की जरूरत हैं। इसीलिए ‘‘जन बल आगे आकर अविलम्ब दिग्विजय सिंह जैसे व्यक्तियों के मॅंुंह को बंद करे’’ यही देश हित में होगा।

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