सोमवार, 31 जुलाई 2017

‘नैतिकता’’ के आवरण का दावा करने के लिये ‘‘अनैतिकता’’ को ओढना कितना नैतिक!

बिहार की राजनीति में तेजी से बदलते राजनैतिक घटना क्रम के चलते 18 घंटे से भी कम समय में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का रंग हरा से भगवा हो गया। इस बदलते घटना क्रम में सभी पार्टीयों ने भ्रष्टाचार को लेकर नैतिकता को विभिन्न रूप में इस तरह से परिभाषित किया व उसका चीर-हरण़ कर इतना नंगा कर दिया कि नैतिकता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया, जिससे शायद स्वयं नैतिकता ही शर्मशार हो गई। राजनीति में एक समय राजनैतिक शुचिता व नैतिक आयाम के तहत (स्वं. लाल बहादुर शास्त्री) तत्कालीन रेल्वे मंत्री ने मात्र एक रेल दुर्घटना के घटित होते ही इस्तीफा देकर जो लक्ष्मण रेखा खीची थी, वह अब इतिहास और किताबों के पन्ने की बात हो कर रह गई हैं।
राजनैतिक हमाम में नंगी हुई समस्त राजनैतिक पार्टियों की नैतिकता को देखने परखने व व्याख्या करने का एक और मोैका बिहार के इस राजनैतिक घटना चक्र ने  दिया हैं। सर्वप्रथम बात नीतीश कुमार की नैतिकता की ही ले लें। राजनैतिक शुचिता, नैतिकता और जीरो टालरेंस (शून्य सहनशीलता) को महामुद्दा बनाकर नीतीश कुमार ने आकर्षक सत्ता सुंदरी मुख्यमंत्री की कुर्सी को ऐसी ठोकर मारी कि न्यूटन का ‘‘क्रिया की प्रतिक्रिया वाला’’ सिंद्धान्त याद आ गया। तदनुसार ही नीतीश द्वारा त्यागी गई मुख्यमंत्री की कुर्सी विपक्षी दल के हृदय की दीवार से टकराकर वापस आकर 16 घंटे में पुनः उन्हे प्राप्त हो गई, क्योंकि वह नैतिकता के फेविकॉल से लबरेज थी। 
वास्तव में  इस नाटक की शुरूवात तो उस दिन से ही हो गई थी, जब सी.बी.आई.ने भारतीय रेल्वे की निविदा के एक मामले में पूर्व रेल्वे मंत्री लालू प्रसाद यादव पर रेल्वे की हेरिटेज होटल बीएनआर होटल के विकास, मंेटेनेनस व आपरेशन (चलाने) के लिये हुये टेंडर में उनके परिवार पर तेजस्वी सहित सम्पत्ति लेने का फायदा पहुंचाने का आरोप लगाया गया। लालू यादव ने निविदा की शर्तो को (निविदा कर्त्ता) सुजाता होटल के पक्ष में कम करते हुये उसे फायदा पहंुचाया, जिसके एवज में निविदा कर्ता द्वारा बेहद कम कीमत पर डिलाइट मार्केटिग कम्पनी को 3 एकड़ जमीन दी गई, जो बाद में लालू के परिवार को हस्तांतरित कर दी गई। अतः स्पष्ट हैं कि तेजस्वी यादव आदेश देने में या फायदा पहंुचाने देने की स्थिति में नहीं थे। उन पर यह आरोप भी नहीं हैं कि उनने रेल्वे मंत्री के साथ मिलीभगत करके फायदा पहंुचाने का आदेश करवाया। इस प्रकार उसे निविदाकर से सीधे कोई फायदा भी नहीं मिला था। रेल्वे मंत्री को भी सीधे निविदाकार से फायदा नहीं मिला था। परिस्थितियांे जन नीतीश कुमार के इस कथन को कि उन्हांेने भ्रष्टाचार से कभी भी समझौता नहीं किया हैं, जिसके फलस्वरूप बिहार में यह राजनैतिक तूफान उठा, जो बिहार के हित में हैं, देखना होगा। इस संदर्भ में उनसे क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि न्यायालय द्वारा सजायाफ्ता जमानतदार लालू यादव जो सजायाफ्ता होने से चुनाव लड़ने योग्य भी नहीं थे, उनके व उनकी पार्टी ‘‘राजद’’ के साथ गंठबंधन कर जब उन्होंने चुनाव लड़ा था, तब उनकी वह नैतिकता व जीरो टालरेंश कहॉं चला गया था। यदि सजायाफ्ता व्यक्ति जीरो टालरेंश की परिधि में आ सकता हैं, तो मात्र प्रथम सूचना पत्र में नामित (जिसके विरूद्ध अभी जांच व अनुसंधान ही चल रहा है) व्यक्ति के विरूद्ध जब आरोप पत्र भी अभी पेश नहीं हुआ हैं, तब वह व्यक्ति जीरो टालरेंश की परिधि के बाहर कैसे हो सकता हैं? चुनाव (जो लोकतंत्र की आत्मा, प्राण और उसे वायु देने वाला होता है) लड़ने के अयोग्य लालू यादव के साथ नीतीश ने न केवल चुनाव लड़ा बल्कि जनता ने लालू को नीतीश से ज्यादा बहुमत देकर न केवल लालू यादव के अछूतापन को धोया ही, बल्कि नीतीश ने स्वयं मुख्यमंत्री पद को स्वीकार कर लालू को अंगीकृत भी किया। तब क्या यह सब कुछ सही था! श्रीमान सुशासन बाबु!नीतीश कुमार राजनीति के बडे़ चतुर खिलाड़ी रहे हैं, एवं कौन सी चाल कब चलना हैं, वे अच्छी तरह से जानते और समझते हैं, इसीलिये अबकी छटवीं बार भी वे पुनः मुख्यमंत्री बन गए हैं।  
आरजेडी के अध्यक्ष लालू यादव पर ही नहीं, बल्कि उनके कुनबे के कई सदस्यों पर भ्रष्ट्राचार के न केवल गंभीर आरोप लगे हैं, बल्कि कुछ पर तो मुकदमें भी चल रहे हैं। यदि नीतीश कुमार का ऐसे लालू के साथ मिलकर (स्वयं का बहुमत न होने के बावजूद, और लालू से कम सदस्य होने के बावजूद) मुख्यमंत्री की शपथ लेना जीरो टालरेंश के अंर्तगत था। तब नाबालिग तेजस्वी यादव के प्रति लगाया गया आरोप जीरो टालरेंश क्यों नहीं? क्यांेकि तब वे उस कृत्य के कर्ता भी नहीं थे, मात्र वे अधिकतम मासूम (इनोंसेंस) लाभार्थी थे। ठीक उसी प्रकार जैसा रिश्वत देने वाला नहीं ‘‘लेने वाला’’ भ्रष्टाचारी होता हैं, लेकिन वह लाभार्थी जरूर होता हैं। तेजस्वी के बचपन में लालू द्वारा स्वीकृत किए गए रेल्वे के टेंडर के कारण तेजस्वी को हुए लाभ के आरोप में भी नाबालिक तेजस्वी को कानूनन् जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता हैं। नीतीश कुमार यदि वास्तव में भ्रष्टाचार के विरोधी थे, तो उन्हे भ्रष्टाचार के आगे आत्मसर्म्पण करने के बजाय भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने का साहस तेजस्वी यादव से इस्तीफा मांगकर दिखाना चाहिये था, और (इस्तीफा न देने की स्थिति में) तेजस्वी को बर्खास्त करना चाहिये था। भले ही उस स्थिति में उनकी सरकार ही क्यो न चली जाती। तब भाजपा बिन मांगे ठीक उसी प्रकार बाहर से समर्थन देकर नीतीश की सरकार बनाती जैसा कि कांग्रेस ने दिल्ली में बिना मांगे प्रथम बार अरविंद केजरीवाल को बाहर से समर्थन देकर ‘‘आप’’ की सरकार बनाई थी। तब कुर्सी प्र्रेम का जो आरोप नीतीश कुमार पर लगा, उससे शायद वे बच सकतेे थे। नीतीश कुमार की नैतिकता तब कहॉं गई थी, जब उन्होने उस भाजपा से हाथ मिलाकर गठबंधन सरकार बनाई जिस भाजपा के खिलाफ जनता ने उन्हे आरजेड़ी के साथ मिलकर सरकार बनाने का जनादेश दिया था। 
बात लालू यादव व राहुल गांधी की नैतिकता की भी कर ले। लालू यादव ने आज नीतीश कुमार पर धारा 302 हत्या के आरोपी होने के जो गंभीर आरोप लगाये, वह आरोप लालू नेे कल तक नहीं लगाया था, क्योंकि तब नीतीश स्वंय लालू द्वारा बनाये गये मुख्यमंत्री थे। हत्या का आरोप  जो विधानसभा चुनाव के  पूर्व का है, तब लालू यादव ने विधानसभा के चुनाव में नीतीश कुमार को कम मत मिलने के बावजूद मुख्यमंत्री क्यांे बनाया? लालू को अपने नेता शरद यादव की उस नैतिकता को याद रखना चाहिये जब उनका नाम हवाला कांड में आने पर उन्होंने तुरंत लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था, चालान या ट्रायल की प्रतीक्षा नहीं की थी। इसलिये दूसरो की नैतिकता का सवाल उठाने के पहले स्वयं की नैतिकता भी तो परखों! यह कहा भी गया हैं कि कांच के घर में रहने वाले दूसरे के घर पर पत्थर नहीं फेंका करते। 
जहॉ तक राहुल गांधी व कंाग्रेस की नैतिकता का प्रश्न हैं, उस पर चर्चा या विचार करना मात्र समय की बर्बादी हैं। स्वतंत्रता प्राप्त होने के समय की या उसके पूर्व की कांग्रेस व आज की कांग्रेस में जमीन आसमान का अंतर हैं। कंाग्रेस का यदि भ्रष्टाचार से परहेज होता, तो 1984 में तीन चौथाई बहुमत प्राप्त करने वाली पार्टी आज 50 से भी कम सीटों पर सिमट कर राजनैतिक हाशिये में नहीं आ जाती। इसलिये कांग्रेस से भ्रष्टाचार या नैतिकता के मुद्दे पर कुछ भी आशा करना नितांत बेवकूफी कहलायेगी।
अंत में भाजपा की भी बात कर लें। भाजपा मानती है कि वह ऐसा पारस पत्थर हैं जो समस्त बुराइयों को अच्छाई में बदलकर सोना बना देती हैं। नीतीश कुमार राजनैतिक खेल की पहली पारी में उनके साथ ओपनर थे, तब वे सोना थे और तब उनके चौंके, छक्के ही नहीं, उनका एक एक रन भी भाजपा को अच्छा लगता था। तब धीमी गति से रन बनाने का आरोप लगाकर उन्हे टीम से निकाला नहीं गया था। जब तक भाजपा के साथ थे, नीतीश कुमार सुशासन बाबू के साथ बिहार के विकास के प्रतीक थे। नीतीश कुमार के पाला बदलकर भाजपा का साथ छोड़ने के साथ ही बिहार का विकास रूक गया व भाजपा को उनके डीएनए में ही खोट नजर आने लगा। लेकिन वह डीएनए जब एनडीए में मिल गया तो वह डीएनए अब पुनः बिहार के विकास को प्रतीक का चेहरा माना जा रहा हैं। भाजपा को सुशासन बाबू नीतीश कुमार की इस नैतिकता को समर्थन देने के लिये धन्यवाद? 

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