शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

‘‘उच्चतम् न्यायालय का ‘‘निर्णय’’ कितना प्रभावी ‘‘कितना औचित्यपूर्ण’’?

संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार ‘‘उच्चतम् न्यायालय’’ के समस्त निर्णय न्यायिक और बंधनकारी होते है। लेकिन इसके बावजूद हमेशा ही उच्चतम् न्यायालय के निर्णयांे के औचित्य पर बहस होती रही है और यह स्वस्थ्य व मजबूत लोकतंात्रिक न्याय व्यवस्था का एक श्रेष्ठ उदाहरण है। आरोपित नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने से संबंधित प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने आज जो निर्णय दिया हैं वह वर्तमान जन आंकाक्षाओं को निराश करता हैं। उच्चतम् न्यायालय ने आरोपित प्रत्याशी के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने से यह कह कर इंकार कर दिया कि अयोग्यता का प्रावधान अदालत नहीं जोड़ सकती हैं, क्योंकि यह कार्य संसद का हैं। फिलहाल दागी नेताओं को मात्र आरोपित होने पर चुनाव लड़ने से छूट दी है, जो नीति पूर्व से ही चली आ रही है। यद्यपि उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में यह कहा है कि राजनीति का अपराधीकरण बढ़ा हैं, तथा व्यवस्था में भ्रष्टाचार भी बढा हैं, जो खतरनाक है। 
उच्चतम न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया है कि सभी पार्टियाँ अपने उम्मीदवारो के आपराधिक रिपोर्ट कार्ड नागरिकों के सामने उजागर करें, उसका प्रचार प्रसार करे, एवं उम्मीदवार स्वयं भी ‘‘उस पर लम्बित समस्त आपराधिक प्रकरणों की जानकारी जनता को बतावें। सबसे विचित्र बात प्रथमतः यह है कि देश के उच्चतम न्यायालय ने इस प्रकरण में ‘‘कानून बनाने का कार्य संसद का है’’, इस आधार पर हस्तक्षेप करने से इंकार किया जबकि इसी न्यायालय ने पूर्व में अन्य कई मामलों में ऐसे निर्णय/निर्देश दिये है जो कानून बनाने के समान ही हैं। तब ऐसे संवेदनशील मामले में जहां एक ओर स्वयं उच्चतम न्यायालय मामले की गंभीरता को देखते हुये अपराध का प्रचार प्रसार कर आरोपी को तदानुसार आचरण करने का अवसर दे रहा है तो दूसरी ओर वही देश न्यायालय राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिये यह कहकर कि इस पर कानून बनाने का अब वक्त आ गया है, (ताकि आपराधिक रिकार्ड वालों को सदन में जाने से रोका जा सके) क्या यह दोहरा मापदण्ड़ कहलायेगा हैं? परन्तु ऐसा करते-करते दागी नेताओं को चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने से रोकने के लिए कानून बनाने की जिम्मेदारी उस संसद पर छोड़ दी हैं जिसमें पहिले से ही 180 से ज्यादा (लगभग 34 प्रतिशत) दागी संासद शामिल है। अर्थात जब संसद ही दागी नेताओं से भरी पड़ी है, तब ऐसी संसद की स्वयं पर किसी भी प्रकार की रोक लगाने के लिए कानून बनाने की इच्छा शक्ति की कल्पना भी एक आम नागरिक कैसे कर सकता है? न्यायिक प्रक्रिया, दंड प्रक्रिया सहिंता, कानून, इत्यादि के दुरूपयोग के आधार पर हम कोई कार्यवाही ही न करें, यह उचित नहीं होगा। अपितु प्रत्येक कानून व व्यवस्था में दुरूपयोग किए जानेे की संभावनाएं हमेशा बनी रहती है। प्रश्न उन संभावनाओं को कम करना है, न कि वैसे दुरूपयोग से ड़र कर नियम कानून में हम कोई सुधार लाने के प्रयास ही न करेें।  
उच्चतम् न्यायालय ने इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि एक आरोपित नागरिक को तो सदचरित्र प्रमाण पत्र न मिलने के आधार पर नौकरी ही नहीं मिल पाती हैं तब उसी समानता पर लोकतंत्र में जनसेवा की सर्वोच्च नौकरी (कोई भी चुना हुआ नेता यही जुमला कहते-कहते नहीं थकता कि वह जनता का सेवक या नौकर हैं।) क्यों कर मिलना चाहिए, यही विरोधाभास इस निर्णय में भी परिलक्षित हो रहा है।
वैसे यह निर्णय ‘आप’ पार्टी के लिये राहत देने वाला है। चूँकि इसी मुद्दे को केजरीवाल ने  अन्ना आंदोलन के समय यह कहकर उठाया था कि असली संसद तो यहाँ है जो सामने रामलीला मैदान में बैठी जनशक्ति है। जिसमें एक तिहाई से ज्यादा संासद आरोपित हैंं‘ वह देश की संसद’’ तो दागी है। उन दागी संासदो को इस्तीफा देकर आरोप मुक्त हो जाने के बाद पुनः चुनाव लड़कर आना चाहिए। परन्तु जब दिल्ली में सरकार बनाई तब यही सिद्धान्त स्वयं उन्होने नहीं अपनाया। उनमें उनकी पार्टी के 20 से भी ज्यादा विधायक/मंत्री दागी है। 
‘दागी’ का सरल मतलब होता है दाग का लग जाना। जब हमारे कपड़े पर दाग गिर जाता है तो हम कपडे़ को अच्छी तरह से तब तक साफ करते है जब तक उसका दाग छूटकर वह साफ नहीं हो जाता है। अतः जिस प्रकार हम कपड़ो को सावधानी पूर्वक इस तरह उपयोग करते है ताकि किसी भी स्थिति में दाग न लगे। ठीक उसी प्रकार नेताओं को भी अपना सार्वजनिक जीवन इतनी सावधानी के साथ शुचिता पूर्वक जीना चाहिए ताकि किसी भी व्यक्ति को उस पर दाग लगाने का अवसर ही न मिले। अन्यथा दागी व्यक्तित्व को उस पर लगे दाग के एवज मंे कुछ न कुछ अवश्य भुगतना पड़ेगा। इसीलिए आम जनता की यह अपेक्षा कि आरोपित प्रत्याशी को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए सर्वथा उचित व न्याय संगत हैं तथा उसे शीघ्रताशीघ्र मान्य किया जाना चाहिए। इस धारणा को मजबूत करने में न्यायालय से संसद तक सभी को एकदम एकसाथ मजबूत कदम उठाने होगे। तभी बेदाग भारतीय लोकतंत्र का सच्चा उदय हो पायेगा। 

सोमवार, 17 सितंबर 2018

‘‘सरकारें ’’ देशहित में ‘‘जुमलों’’ से कब बाहर आयेगीं?

यद्यपि हम विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होने का दावा करते हैं, और हैं भी। तथापि जनता लोकशाही से, लोकतांत्रिक तरीके से लोकतांत्रिक मूल्यो के आधार पर देश चलाने की अपेक्षा करती है। लेकिन पिछले कई  दशकों से हमारे देश में लोकतंत्र के नाम पर ‘‘जुमले बाजी’’ ही चल रही है। एक ‘जुमले’ मात्र से कई बार सरकार बनने या बिगड़ने लगती है। 
वर्ष 1965 में ‘‘जय जवान जय किसान’’ के चुनावी नारे की बोट पर चढ़कर कांग्रेस ने चुनाव तो जीता, लेकिन आज तक न तो जवानों की वन रेंक वन पेंशन को अंतिम रूप से संतोषप्रद निदान हो पाया है (जबकि सेना के मामलो में असंतोष किंचित सा भी नहीं रहना चाहिये) और न ही किसानो की जय-जय कार लगने के बावजूद उनको फसल के लागत मूल्य का दुगना मूल्य मिला हैं। अर्थात यह भी अभी तक जुमला ही रह गया है। 
निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण एवं देशी रियासतों के राजाओं के प्रिविपर्स व विशेषाधिकार की समाप्ति के बाद इंदिरा गांधी ने वर्ष 1971 में ‘‘गरीबी हटाओं’’ का नारा दिया था, जिस नारेे के द्वारा उन्होने गैर कांग्रेस-वाद के नारे के विरूद्ध भारी भरकम जीत दर्ज की थी। लेकिन बाद में वह एक जुमला सिद्ध हो गया। ‘‘गरीब’’ की गरीबी कितने प्रतिशत कम हुई, यह तो भगवान ही जाने (क्योकि आम जनता ने आज तक ऐसा महसूस नहीं किया)। वास्तव में, यदि गरीबी कम हुई होती तो कांग्रेस को (60 साल की सत्ता के बाद भी) आज भाजपा पर देश की आर्थिक स्थिति को खराब कर गरीब विरोधी सरकार होने का आरोप नहीं लगाना पड़ता। अर्थात् आर्थिक स्थिति के कारण गरीबी बढ़ती गई ‘‘यह स्वयं कांग्रेस भी मान रही है। परन्तु तत्समय तो यह जुमला बहुत उछला कि’’ भले ही गरीबी कम न हो पाई हो अपितु गरीब जरूर खत्म होते जा रहे है; और यही आज  भी देश का सबसे बड़ा जुमला सिद्ध हो रहा है। 
वर्ष 1977 को ही ले; जब आपातकाल के कारण ‘‘जे.पी’’ (जय प्रकाश नारायण) ने ‘‘इंदिरा हटाओं देश बचाओं’’ के नारे (जो शायद देवकांत बरूआ, तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष ‘‘इंदिरा ही भारत हैं, भारत ही इंदिरा है’’ के कथन के संबंध में दिया था) के साथ-साथ जनता पार्टी द्वारा ‘‘मानवाधिकार’’, व ‘‘स्वतंत्र मीडिया’’ एवं ‘‘लोकतंत्र बचाने’’ का नारा दिया था। इस जुमले पर घमंडी कांग्रेस सरकार बुरी तरह से घराशाही हो गई थी। लेकिन जनता पार्टी ने ‘‘शासक’’ हो जाने मात्र को ही लोकतंत्र बहाली मानकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। ढ़ाई वर्ष के अल्प काल में ही लोकतंत्र स्वच्छंदता व अराजकता में बदल गया और जनता पार्टी को आरएसएस की दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर अपनी सत्ता बीच में ही खोना पड़ी। इस तरह लोकतंत्र बचाओं का नारा भी अंततः एक जुमला ही सिद्ध होकर रह गया और वास्तविक लोकतंत्र अर्थात ‘‘जनता’’ का ‘‘जनता के लिए’’ एवं ‘‘जनता द्वारा’’ के संबंध में जन नागरिक आज भी प्रतीक्षारत है।
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वर्ष 1984 में ‘‘जब तक सूरज चाँद  रहेगा इंदिरा तेरा नाम रहेगा’’ के नारे के साथ सहानुभूति लहर पर चढ़कर तीन चौथाई से ज्यादा बहुमत (314सीट) प्राप्त करने के बावजूद उक्त बहुमत कांग्रेस ने मात्र 5 साल में ही खो दिया और इस प्रकार इंदिराजी का नाम चांद के अस्तित्व तक रहने की बात मात्र एक कल्पना होकर रह गई।  
इसके पश्चात् वर्ष 1989 में मंडल व कमंडल का जुमला आया। इस पर भी सरकार बनती बिगडती गई। मंडल का डंक आज तक भी भुक्त भोगी भोग/भुगतने को मजबूर है और ‘‘कमंडल’’ आज भी भगवान श्रीराम जन्म स्थल (अपनी अधिकृत जगह पर) मंदिर बनने का रास्ता ताक रहा है। ‘‘सौगंध राम की खाते है, मंदिर वही बनायेगे’’; ‘‘विपक्ष’’ से ‘‘सत्ताधारी दल’’ होकर, देश के 23 राज्यो में शासन करने वालों के नारे को अभी भी न्यायालय के निर्णय का इंतजार है। इस प्रकार राम मंदिर के निर्माण का नारा भी लगातार आज तक जुमला मात्र ही बना हुआ है। ऐसा कब तक बना रहेगा यह भी भविष्य के गर्भ में है। धारा 370 हटाने का बहुत पुराना संकल्प को आज भी लोग मात्र एक जुमला ही मानते है। महिलाओं को बराबर का अधिकार एवं विधायिका में 33 प्रतिशत का आरक्षण देने का प्रस्ताव भी कई वर्षो से संसद में अटका हुआ रहकर जुमले का पहनाव ओढ़कर निरीह बनकर प्रतिभूत होने की बाँट जोह रहा है और वास्तविकता नहीं बन पाया है। 
प्याज की महगाँई के आसूँ एक सरकार को बदल देते है तो सत्तारूढ़ होने वाले दल को कुछ ही समय में रूला भी देते है और इस तरह ‘‘प्याज’’ भी एक जुमला ही बनकर रह जाता है। इस प्रकार समस्या जस की तस बनी रहती है। वर्ष 2010 में तृणमूल कांग्रेस द्वारा पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान दिया गया नारा ‘माँ’ ‘माटी’ व ‘मानुष’ के तीनो तत्वों का आज कही अता-पता न होकर वह एक जुमला मात्र बच गया है। विदेशों से कालाधन लाकर प्रत्येक नागरिक के खाते में 15 लाख जमा होगंे, इस सर्वाधिक आकर्षक जुमले को कौन भूल सकता है? क्योकि वर्तमान सरकार ने स्वतः ही बाद में इसे जुमला मान लिया। ‘‘गर्दन जमीन पर कट रही है व टेबिल पर बिरयानी खा रहे है’’ यह भी मात्र एक आरोप न रहकर जुमला ही सिद्ध हुआ। आज तक सीमा पर आंतकी गतिविधियों व शहीदो की संख्या में कितनी तुलनात्मक कमी हुई है? यह आपके सामने ही हैं। ‘‘एक राष्ट्र एक दर’’ का समस्त पक्षो द्वारा दिये गया नारे का जी.एस.टी. में आज क्या हर्स हुआ है यह आपके सामने ही हैं। रूपया गिर रहा है, देश की साख गिर रही है, यह कथन भी रूपये के 73 डॉलर तक पहुचने के कारण बुरी तरह से एक जुमला ही सिद्ध हो रहा है। आज की सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद का वह बयान है जो पेट्रोल व डीजल के मूल्यो की वृद्धि पर  आया है कि ‘‘हम इसके लिये कुछ नहीं कर सकते’’ यह स्वीकारिता आज का सबसे बड़ा जुमला बना हुआ है। कारण स्वयं रविशंकर प्रसाद सहित एनडीए के अधिकांश सदस्योे ने कुछ वर्षो पूर्व ही तत्कालीन यूपीए सरकार को पेट्रोल व डीजल की मूल्य वृद्धि पर बुरी तरह से घेरा था। उस समय उन्होंने बैलगाड़ी व साईकल के प्रदर्शन द्वारा अपना सांकेतिक विरोध भी दर्ज कराया था। आज इस जुमले पर वर्तमान सरकार स्वयं ही असहाय हैं। ‘‘विदेशी घरती पर मोदी का डंका’’ भी एक जुमला इसलिए हो गया है क्योकि सीमा से लगे समस्त पडोसी देशों में (भूटान को छोड़कर) मोदी का डंका नहीं बज पा रहा हैं (इस संबंध में अटलजी का यह कथन महत्वपूर्ण है कि ‘‘हम लोग अपने दोस्त तो बदल सकते हैं पर पडोसी नहीं बदले सकते’’) वर्तमान में पड़ोसियों से संबंध किस स्तर तक गिर गये है, यह सर्वविदित ही है। वर्तमान के ‘‘सबका साथ, सबका विकास’’ एवं ‘‘अच्छे दिन-आने वाले है’’ बहुप्रचलित जुमलों  के परिणाम आपके सामने है। क्या वास्तविकता को देखते हुये हम इन्हे जुमला कहने से परहेज कर सकते है?
कभी-कभी सोचकर हास्यास्पद लगता है कि राजनीतिक जुमलेबाजी से ग्रस्त नेतागण घरेलू जीवन में कैसा बर्ताव करते होंगे? घर में मनपसंद सब्जी ना बनने पर; देखिये मैं इस प्रकार की सब्जी की कड़े शब्दों में निंदा करता हूँ। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में इस प्रकार की सब्जी को कोई जगह नहीं हैं। बच्चों द्वारा किसी चीज के लिए जिद करने पर देखिये ये आपके निजी विचार है। पार्टी आपकी विचारधारा से सहमत नहीं हैं। पत्नी के साथ घरेलू झगड़े को लेकर रिश्तेदारों के बीच देखिये मेरे शब्दों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है। मुझे बदनाम करने के लिए ये विपक्ष की एक चाल है और अंत में पत्नी के द्वारा सुलह न करने पर देखिये मेरे शब्दों का गलत मतलब निकाला गया है। मेरे कहने का कदापि यह मतलब नहीं था इत्यादि-इत्यादि।
इस प्रकार यह स्पष्ट है इस देश की राजनीति चाहे पक्ष द्वारा हो अथवा विपक्ष के द्वारा हो, जुमलो पर ही आधारित व केन्द्रित होती है; वास्तविकता पर नहीं। जनता असहाय मूक दर्शक मात्र बन कर रह गई है। समस्त नेतागण देश को सोने की चिड़िया कहते नहीं अघाते। यदि वास्तव में देश को सोने की चिड़िया बनाना है तो सरकारों को अपनी कार्यशैली को जुमलों से हटकर एक कदम आगे बढ़कर वास्तविकता व हकीकत में उतारने की आवश्यकता है। तभी हमारा यह देश विकास की ओर तेजी से आगे बढ़ पायेगा। अन्यथा विश्व के अन्य देशों की तुलना में हम हमेशा पिछड़ते ही जायेगे व पिछड़ते-पिछड़ते एक समय अंतिम निचले स्तर पर खड़े हो जायेगे। क्योकि विश्व तो ‘‘वास्तविकता’’ का अनुशरण करते हुये तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है, जहाँ शायद इस तरह के जुमलों का कोई स्थान नहीं है। 
अतं में वर्ष 1989 के चुनाव में वी.पी. सिंह को लेकर बना एक जुमला ‘‘राजा नहीं फकीर हैं, देश की तकदीर हैं’’ जो शायद देश की यर्थाथ स्थिति को ही व्यक्त करता है, इसलिये वह (एक मात्र) जुमला नहीं रह गया है। लेकिन इसके विपरीत भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का देश के नागरिको से स्वच्छता का आव्हान निश्चित रूप से जुमला सिद्ध न होकर एक सफल अभियान बनते जा रहा है। इसी प्रकार से समस्त जुमलों को मूर्त रूप देने की समय की आवश्यकता है। लेख खत्म करते-करते एक बात और ध्यान में आयी केजरीवाल की अभूतपूर्व नायाब घोषणा ‘‘आपकी सरकार आपके द्वार‘‘ की तर्ज पर जो 70 से अधिक सेवाओं को घर पहुंच सेवा के रूप में मूर्तरूप देने का ऐतहासिक संकल्प लिया गया हैं। उम्मीद है वह संकल्प जुमला न रहकर तेजी से वास्तविकता का असली जामा पहन सकेगा, ताकि दूसरे नेताओं व दल के लिये भी यह प्रेरणा स्रोत बनकर वे सही व सार्थक दिशा को अपनाने में अग्रसर होगें।    

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