शनिवार, 16 नवंबर 2019

‘‘50-50!’’ ‘‘क्या राजनीति में इसका अर्थ अलग होता है’’!

                                 
अंततः शिवसेना-भाजपा का वर्ष 1990 से चला आ रहा लगभग 30 वर्ष पुराना गठबंधन टूट गया। तथाकथित 50-50 फॉमूले को आधार बनाकर महाराष्ट्र विधानसभा के परिणाम आने के तुरन्त बाद से ही शिवसेना के प्रवक्ता एवं सांसद संजय राउत लगातार यही कहते रहे है कि मुख्यमंत्री तो शिवसेना का ही बनेगा। 50-50 के सूत्र को स्पष्ट करते हुये संजय राउत ने यह भी स्पष्ट किया कि लोकसभा चुनाव के समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के बीच परस्पर यह तय हुआ था कि, आगामी विधानसभा चुनाव में 50-50 की बराबरी की हिस्सेदारी होगी तथा सत्ता की भागीदारी भी 50-50 प्रतिशत की होगी। पिछले 20 दिनों से शिवसेना इस फॉमूले पर अडि़ग है, जिसको भाजपा द्वारा न मानने के कारण ही, शायद देश का सबसे पुराना लम्बे समय तक चलने वाला गठबंधन टूट गया।
यद्यपि अमित शाह का 50-50 के फॉमूले के विषय में कोई बयान नहीं आया और न ही किसी प्रकार का खंडन! लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने अमित शाह के हवाले से अवश्य यह कहा कि इस संबंध में उनकी अमित शाह से बात हुई है, और उन्होंने ऐसे किसी भी समझौते से स्पष्ट इंकार किया है। तथापि अमित शाह ने यह कहा कि शिवसेना की तरफ से ऐसा प्रस्ताव जरूर आया था। आज 20 दिन बाद अमित शाह का उक्त समझौते से इंकार करते हुये बयान अवश्य आया है। इतने दिनों बाद बयान आने पर प्रश्न लगाना तो लाजमी ही है। इसके विपरीत उद्धव ठाकरे ने बार-बार यह स्पष्ट किया कि इस पर सहमति बनी थी। परन्तु भाजपा उन्हें झूठा ठहराने पर तुली हुई है। यदि शिवसेना के प्रवक्ता संजय राऊत का यह कथन सही मान भी  लिया जाय कि लोकसभा चुनाव के दौरान 50-50 के सूत्र पर दोनो पार्टी के बीच सहमति बनी थी, तो फिर शिवसेना को अपनी बात को सही सिद्ध करने के लिए निम्न बातों का जवाब देना आवश्यक होगा।
1. यदि 50-50 की समस्त बातों में साझेदारी तय हुई थी, तो फिर शिवसेना विधानसभा चुनाव में 50 प्रतिशत से कम सीटों पर चुनाव लड़ने के लिये कैसे सहमत हो गई? सीटों के बटवारे के समय ही इस आधार पर विरोध क्यों नहीं किया। उसी समय इस मुद्दे पर गठबंधन को तिलाजंली क्यों नहीं दे दी? क्योंकि 50-50 वाला फॉमूला तो विधानसभा चुनाव के पहले ही लोकसभा चुनाव के समय बन गया था, जैसा शिवसेना स्वयं दावा कर रही है। 2. यदि इस 50-50 के सूत्र में मुख्यमंत्री का पद भी शामिल है, अर्थात ‘‘ढ़ाई-ढ़ाई साल का मुख्यमंत्री’’ तो फिर पहले ही शिवसेना को मुख्यमंत्री पद क्यों मिलना चाहिए, बाद के ढ़ाई वर्ष में क्यों नहीं? जबकि भाजपा से शिवसेना की सीटे लगभग आधी (105-56) है। 
3. क्या यह तय हुआ था कि 50-50 सूत्र के तहत शिवसेना को पहले मुख्यमंत्री का पद मिलेगा। यद्यपि ऐसा कोई दावा शिवसेना ने नहीं किया है, वह सिर्फ यह कह रही है कि मुख्यमंत्री तो शिवसेना का ही बनेगा। अतः बेहतर यह होता कि प्रथम ढ़ाई वर्ष वह भाजपा को मुख्यमंत्री पद व ढ़ाई वर्ष बाद उक्त फॉमूले के आधार पर मुख्यमंत्री पद पर दावा करती और नहीं मानने पर तब  गठबंधन तोड़ती?  
4. क्या 50-50 का फॉमूला विधानसभा विधानसभा अध्यक्ष पद पर भी लागू होगा। अर्थात ढ़ाई-ढ़ाई साल के लिए विधानसभा अध्यक्ष पर का भी बटवारा होगा, इस बाबत शिवसेना ने कुछ नहीं कहां। क्योंकि आपने सभ्यता सत्ता की आधे-आधे की भागीदारी की बात की है व समान रूप से बाटने की बात रही है।
5. क्या कम सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद मं़त्रिमंडल में भागादारी भी 50-50 फॉमूले कांे तहत ही होगी, यह भी स्पष्ट नहीं है।
6. क्या चुनाव परिणाम मेें बराबरी की जीत अथवा स्ट्राईकिंग रेट न आ पाने के बावजूद भी मंत्रिमंडल में 50-50 की ही भागाीदारी होगी? 
7. क्या मंत्रियों के विभागों के बटवारे के संबंध में भी 50-50 का फॉमूला लागू होगा।
8. क्या ‘‘मलाईदार’’ विभाग को चिन्हित करके उनका बंटवारा भी उक्त फॉमूले के तहत होगा?
9. जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनाव के दौरान मंच पर भाषण देते हुये यह कहा था कि ‘‘केन्द्र में नरेन्द्र व महाराष्ट्र में देवेन्द्र’’। जब शिवसेना ने उक्त कथन पर आपत्ति क्यों नहीं की? नरेन्द्र मोदी ने अपने उक्त उद्बोदन में अपना आश्रय स्पष्ट कर दिया था। 
मतलब साफ है!, सत्ता की भागीदारी के प्रत्येक अवसर पर पूर्ण रूप से पूर्ण शुद्धता के साथ 50-50 का फामूला लागू होगा, प्रश्न यह है? मतलब स्पष्ट है, शिवसेना के पास इन बातों का जवाब नहीं है। अतः शिवसेना का इस गठबंधन को तोड़ना बेमानी ही कहलायेगा, माना जायेगा। 
वैसे तो राजनीति में ‘‘वायदा’’ नहीं वायदा खिलाफी ही अधिकतम होती है। वायदा करने के बावजूद सिंद्धान्त को एकतरफ रखकर व्यवहारिक राजनीति के चलते फायदे-लाभ की दृष्टि से ‘‘हैसियत’’ व शक्ति को देखकर ही वायदा निभाने के धर्म को पूरा किया जाता है। इस दृष्टिकोण से शिवसेना को चुनाव परिणाम को देखते हुयेे हैसियत का आकलन स्वयं कर लेना ज्यादा बेहतर होगा।
वैसे जहाँ तक भाजपा द्वारा वायदा खिलाफी का प्रश्न है, यह न तो कोई पहली बार हुआ है और न ही आखरी बार है। यहाँ भाजपा द्वारा मेरे साथ की गई वादा खिलाफी का उल्लेख करना सामयिक हो गया है। स्व. विजय कुमार खंडेलवाल सांसद के निधन से उत्पन्न हुये उपचुनाव में मुझे तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित प्रदेश के पूरे नेतृत्व ने एकमत से इस वायदे के साथ सहयोग मांगा कि आगामी विधानसभा चुनाव में आपको बैतूल विधानसभा से टिकिट दी जावेगी। लेकिन सिर्फ यही वादा खिलाफी नहीं हुई, बल्कि टिकिट न दिये जाने पर अपनी मजबूरी बताते हुये प्रादेशिक नेतृत्व ने (शिवराज सिंह सहित) निगम अध्यक्ष बनाने का पुनः आश्वासन दिया व भरोसा दिलाया। लेकिन पुनः वादा खिलाफी हुई। इससे स्पष्ट है, आज की राजनीति में नैतिकता का कोई स्तर न रह जाने के कारण वायदे का कोई महत्व नहीं रह गया है। इसलिये वायदे तो अंसख्य होते है, लेकिन परिपालन मात्र उंगलीयों पर गिनने लायक ही होते हैं।

‘‘विलय’’ के ‘‘प्रतीक’’ को ‘‘विभाजन’’ का ‘‘तड़का’’! यह कैसा सम्मान?


31 अक्टूबर को देश के लौहपुरूष पूर्व गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की 143 वीं जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सम्मान देते हुये देश को सबसे खूबसूरत लेकिन चर्चित समस्याग्रस्त जम्मू-कश्मीर प्रदेश आंतक से प्रभावित क्षेत्र कश्मीर एवं शांत क्षेत्र जम्मू तथा लद्दाख का पुर्नगठित करके विभाजन कर दो नये केन्द्रशासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर और लद्दाख, अस्तित्व में लाए और इस प्रकार मूल जम्मू-कश्मीर राज्य का अस्तित्व समाप्त कर दिया। निश्चित रूप से जम्मू-कश्मीर राज्य में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाकर जो  अल्कपनीय एवं लगभग असंभव सा कार्य केन्द सरकार ने किया, उसके इस साहसिक कार्य के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं उनका नेतृत्व असीम एवं अगणित बधाई के पात्र हैं। लेकिन इस उपलब्धि को सरदार पटेल की जंयती से जोड़कर और उसे सरदार पटेल के प्रति समर्पित कर महिमा-मंडित करना कितना सही, जायज व उचित है, यह एक बड़ा प्रश्न उत्पन्न करता है।,  आज के अंधभक्त मीडिया के शोर-शराबे में ऐसा प्रश्न उठाना भी शायद क्या साहसिक कार्य नहीं कहलायेगा?
देश के करोडांे नागरिक निसंदेह इस बात को मानते है, और न ही उस पर कोई विवाद है, कि देशी रियासतों के स्वतंत्र अस्तित्व को समाप्त करके एक अखंड राष्ट्र निर्माण में सरदार पटेल की अहम भूमिका उस युग में एक योग की तरह रही। अर्थात जोड़ने वाली रही। मललब साफ है! अंग्रेजो ने अखंड भारत को टुकडो़ं में बनाएं रखने के लिए षड़यंत्रकारी योजना के तहत (ब्रिटिश इंडिया की) स्वतंत्र 565 देशी रियासतों में से प्रत्येक रियायत को यह विकल्प दिया गया था कि, वे पाकिस्तान में अथवा भारत में रहे या अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखें। भविष्य के दूरगामी परिणामों को भाँपते हुये उस षड़यंत्र को सरदार पटेल ने अपनी बुद्धि, कौशल, क्षमता व विवेक से 565 में से 562 रियासतांे को भारत संघ में तुरंत विलय कर लेने का जो महती कार्य किया था, उसी कारण से ही वे ‘‘लौहपुरूष’’ बने व सरदार कहलाएं। किसी भी कैसी ही विचार धारा वाला व्यक्ति ही क्यों न हो, वह ‘‘सरदार पटेल’’ को सम्पूर्ण सम्मान आदर व श्रृद्धा की दृष्टि से ही देखता है। ऐसी समस्त 565 रियासतांे का भारत संघ में विलय कर एक मजबूत भारत बनाने वाले व्यक्ति के सम्मान में पूर्व से ही विभाजित जम्मू-कश्मीर का दो केन्द्र प्रशासित प्रदेश में विभाजित कर सम्मान देने का कार्य, शायद सरदार पटेल की आत्मा को ठेस पहंुचाने वाला कार्य नहीं है? जम्मू-कश्मीर के विलय के मुद्दे पर यदि जवाहर लाल नेहरू गलती नहीं करते व पूर्ण निर्णय का अधिकार अगर उसी समय सरदार पटेल को मिला होता तो, आज पूरा अखंड जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न भाग होता। उनका यह कथन आज भी देशवासियों के दिल में गंूजता कि हम जम्मू-कश्मीर की एक इंच भूमि भी नहीं देगें। जम्मू-कश्मीर प्रदेश को विभाजित रूप में उनके सम्मान में प्रस्तुत करना बिल्कुल भी उचित नहीं लगता है। यद्यपि राजनैतिक दृष्टि से वोट बैंक को मजबूत करने के लिए इसे एक राजनैतिक कदम माना अवश्य जा सकता है। अन्य किसी भी दृष्टि से यह तुलना न तो सामायिक है, और न ही तथ्यों की समानता लिये हुये है, बल्कि इसके विपरीत अर्थ लिये विलय और विभाजन साथ में दर्शाने वाली हैं।
नरेन्द्र मोदी द्वारा सरदार पटेल की जंयती पर अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के 5 अगस्त के निर्णय को उन्हे समर्पित करने का कथन आश्चर्यचकित करता है। यह मांग तो पंडित नेहरू सहित पूरे देश की रही है। याद कीजिए, संसद के अंदर अनुच्छेद 370 का प्रावधान लाते समय यह घोषणा की गई थी, यह बिल्कुल अस्थायी प्रावधान है। 70 वर्ष बाद इस अस्थायी प्रावधान को हटाया गया है तो निश्चित ही उसके लिये मोदी की प्रशंसा में कसीदे पढे़ जाने चाहिए। लेकिन इसे सिर्फ वल्लभ भाई पटेल को समर्पित करना समझ के बाहर है। वह इसलिये भी कि, अभी भी अनुच्छेद 370 संविधान से पूरी तरह से हटाया नहीं गया है, बल्कि अनुच्छेद 370 (1) संविधान का आज भी भाग है। जबकि भाजपा सहित समस्त लोगों की मांग उसे पूर्णतः समाप्त करने की थी। फिर सरदार पटेल ने जम्मू-कश्मीर के विभाजन की कोई बात कभी भी नहीं कहीं थी, जिन्हे विभाजित कश्मीर समर्पित किया गया है। सरदार पटेल ने इसे केन्द्र शासित प्रदेश बनाने की  कल्पना भी कभी नहीं की थी, जिस रूप में आज इसे समर्पित किया गया है। इसके अतिरिक्त यदि तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू जिनके अधीन गृहमंत्री वल्लभ भाई पटेल व सचिव कष्णा मेनन थे उन्हें रियासतों के विलय का श्रेय नहीं दिया गया है, तो आज कश्मीर पर अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने का श्रेय भी सिर्फ गृहमंत्री अमित शाह को ही दिया जाना चाहिए, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को क्यों ?
जम्मू-कश्मीर पूर्ण राज्य के रूप में स्वतंत्रता के समय से ही भारत का अभिन्न अंग है। गृहमंत्री के लिए संसद में बिल प्रस्तुत करते समय जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने के उद्देश्य से उसे दो भागों में बाँटकर दो केन्द्र शासित प्रदेश बनाकर जम्मू-कश्मीर व लद्दाख केन्द्र शासित प्रदेश बनाया जाना क्यों आवश्यक लगा? इसका कोई कारण नहीं समझाया गया है। यद्यपि यह अवश्य कहा गया कि जम्मू-कश्मीर को समय आने पर पुर्नः पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जायेगा। जबकि भाजपा की घोषित पुरानी नीति में प्रांरभ से ही में उक्त बातों का कभी भी, कही भी उल्लेख नहीं रहा। लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से प्रथक किये जाने की कोई पापुलर प्रभावी मांग भी कभी नहीं रही थी। यूं तो छोटे मोटे स्तर पर देश के कई भागो में नये प्रदेश बनाने की मांग समय-समय पर उठती रहती है, जैसे बोडोलैंड, गोरखालैंड, पूर्वांचल, अवध प्रदेश, बुंदेलखंड, विध्य प्रदेश एवं विदर्भ इत्यादि इत्यादि।
निश्चित रूप से केन्द्र सरकार को अपनी पीठ तब थपथपानी चाहिये, जब वह पीओके पर भारत का तिरंगा झंडा गाड दे। आने वाली सरदार वल्लभ भाई की जयंती पर यह तौहफा पेश करे, सही में तभी वह उनके प्रति सच्चा समर्पण होगा। आगे यह संभव होता भी दिख रहा है, जिसका पूरा श्रेय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अभी से दिया जाना चाहिए। इससे पूर्व तक यह मात्र एक कल्पना भर रही है, जो केवल कागजों पर प्रस्ताव के रूप में प्रतिपादित होती रही और सिर्फ भाषणों में ही इसका उल्लेख सुनाई देता रहा। उसको कार्य रूप में परिणीत भी किया जा सकता है, यह विश्वास एवं अहसास व ताकत आम जनता से लेकर पूरे मीडिया में अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी बना देने के बाद ही उत्पन्न हुई है, जिसका पूरा श्रेय भी मोदी सरकार को ही देना होगा।

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