सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

अरविंद केजरीवाल का बयान! संविधान व लोकतंत्र विरोधी कौन?

‘‘दिल्ली सरकार बनाम उपराज्यपाल’’ के मामले में उपराज्यपाल एवं दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र के विवाद पर उच्चतम न्यायालय का बहुप्रतिक्षित निर्णय आ गया है। उक्त निर्णय पर आई दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की त्वरित प्रतिक्रिया मुख्यमंत्री पद पर बैठे हुये व्यक्ति के लिये न केवल अत्यधिक अमर्यादित है, वरण वह संविधान व लोकतंत्र के विरूद्ध भी हैै। केजरीवाल का यह बयान कि निर्णय ‘‘जनतंत्र विरोधी है’’ सत्य है, लेकिन यह सत्य किसके लिये? वास्तव में संविधान व जनतंत्र विरोधी कौन है? यही यक्ष प्रश्न हैं?
आलेख को आगे बढ़ाने के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि इस पूरे मामले का एक महत्वपूर्ण सत्य यह भी है कि केजरीवाल पीड़ित पक्ष बनकर उच्चतम न्यायालय के समक्ष उन मुद्दो को लेकर ‘‘न्याय’’ के लिये गये, जिनका कानूनी अस्तित्व चुनाव लड़ने के पूर्व उनके समक्ष था। अर्थात दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद दिल्ली राज्य के अधिकारों में कोई परिवर्तन केन्द्रीय सरकार द्वारा नहीं किया गया था। मतलब साफ है कि चुनाव के पूर्व केजरीवाल जानते थे कि दिल्ली प्रदेश के पास कौन-कौन से अधिकार है, जिनके रहते हुये भी जनता ने उन्हे वोट दिया था। इन्ही अधिकारों को रहते हुये केजरीवाल के पूर्व भाजपा व कांग्रेस के मुख्यमंत्रीयों ने भी विरोधी दल की केन्द्र में सरकार होने के बावजूद शासन चलाया। किसी भी मुख्यमंत्री ने केजरीवाल के समान केन्द्रीय सरकार या उपराज्यपाल पर सरकार न चलाने देने के आरोप इस तरह के नहीं लगाये थे। वास्तव में दिल्ली राज्य के लिये अधिकारो की लड़ाई कानूनी न होकर राजनैतिक होनी चाहिये थी।
सिविल सोसाइटी में एक संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत हमारे लोकतांत्रिक प्रणाली का यह एक सर्वमान्य व अटल सिंद्धान्त है, कि उच्चतम न्यायालय का निर्णय अंतिम व बंधनकारी होता है। जब कभी न्यायालय कोई निर्णय देता है, तो निश्चित रूप से एक पक्ष संतुष्ट होता है, वहीं दूसरा पक्ष, जिसके प्रतिकूल निर्णय आता है, असंतुष्ट हो जाता है। यद्यपि वह उसे पसंद नहीं आता है, फिर भी (उच्च्तम न्यायालय का होने के कारण) बंधनकारी होने से उसे रूखे मन से ही सही, उसे  मान्य व स्वीकार करना पड़ता है। उसकी विवेचना, समालोचना, आलोचना की जा सकती है; निर्णय पर प्रश्नवाचक चिन्ह भी लगाया जा सकता हैं; उसमें कमियाँ निकाली जा सकती है; कमियों पर मीडिया सार्थक बहस भी करवा सकता हैं; परन्तु इन सबके बावजूद उसे जनतंत्र विरोधी नहीं कहा जा सकता। यद्यपि इन्हीं आधारों पर विशेषज्ञ पुर्निविचार याचिका दायर कर सकते है। फिर भी न्यायिक निर्णयों की आलोचना की एक कानूनी, संवैधानिक व स्थापित प्रचलित नैतिक सीमा भी है। लेकिन न्यायिक निर्णय को जनतंत्र या संविधान विरोधी कहना और इसे लोगो की अपेक्षाओं के खिलाफ बताना तो नितांत गैर-जिम्मेदाराना व बेवकूफी भरा कथन है। बल्कि ऐसे बयान देकर अरविंद केजरीवाल स्वयं ही जनतंत्र व संविधान विरोधी सिद्ध होकर व उसी लोकतंत्र की हत्या कर रहे हैं जिसके द्वारा वे स्वयं मुख्यमंत्री चुने गये है। लोकतंत्र जिन चार खम्बों पर मजबूती से खड़ा है, उसमें सबसे प्रमुख न्यायपालिका ही है, जो अन्य तीन खम्बों को (सुरक्षा) कवच प्रदान करती है। यदि पक्षकारों को उच्चतम न्यायालय के निर्णयों की इस सीमा तक आलोचना करने की अनुमति दे दी जायेगी, तब न तो स्वतंत्र न्यायपालिका रह पायेगी, न ही लोकतंत्र रह पायेगा और संविधान भी नहीं बच पायेगा। दृढ़ता (बेसिक स्ट्रकचर-केशवानंद भारती प्रकरण में) के साथ लचीलापन लिए हुए संविधान जिसमें अभी तक 101 संशोधन हो चुके हैं, के कारण ही हमारा लोकतंत्र परिपक्व होता जा रहा है तथा संविधान की सुरक्षा व सम्मान का दायित्व भी इसी न्यायपालिका का है। 
केजरीवाल जो स्वयं एक अर्द्ध न्यायिक प्रक्रिया का भाग रहे है (आयकर आयुक्त के रूप में)। क्या उन्हे इतनी भी समझ नहीं रह गई है कि न्यायालय लोगो की अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर   निर्णय नहीं देता है, बल्कि संवैधानिक व कानूनी पहलुओं को ध्यान में रखकर निर्णय देता हैं। फिर चाहे वह निर्णय लोगों की अपेक्षाओं के अनुरूप हो अथवा नहीं, लोगो को अच्छा लगे या नहीं। यदि सरकार को यह लगता है कि न्यायिक निर्णय सिर्फ लोगो के हित व इच्छाओं के अनुरूप ही तो उन्हे सरकारी कानून बनाते समय इस तथ्य पर सुक्षमता व गंभीरता से ध्यान देकर कानून का निर्माण पूर्णतया जनता के हितेषी बनकर जनता के हित में बनना चाहिये ताकि न्यायिक समीझा करते समय उसका निष्कर्ष भी वहीं निकल सकें।   
केजरीवाल का उक्त बयान अराजकता लिये हुए है, जो उसके पूर्व में दिये गये बयान को ही दोहराता है जब उन्होने कहा था ‘‘वे कहते है मैं अराजक हूँ, हाँ मैं मानता हूँ  कि मैं अराजक हँू।’’ न्यायिक निर्णय, लोकतंत्र (जनतंत्र) का चुनाव परिणाम नहीं है; जहां आप हार जाने के बाद कैसी भी आलोचना कर सकते है। जनतंत्र के निर्णय (चुनाव परिणाम) व न्यायपालिका के निर्णय के बीच के अंतर को समझना आवश्यक हैं। जनतंत्र द्वारा फूलन देवी चुनाव जीतती है लेकिन वही फूलन देवी न्यायपालिका द्वारा सजा पा जाती है। 
अतः केजरीवाल के विरूद्ध केवल मानहानि का प्रकरण दर्ज किया जाना ही पर्याप्त नहीं होगा। चंूकि अपने उपरोक्त कथन से वे लोकतंत्र को ही खतरे में डाल रहे है, जो कृत्य देशद्रोह  किए जाने के समान है। अतः केन्द्रीय शासन द्वारा उन्हे तुंरत बर्खास्त कर उनके खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज करके कार्यवाही करना चाहिए। राजनैतिक बयान-बाजी चलती रहेगी। लेकिन प्रशासन व केन्द्रीय सरकार यह कहकर बचने का प्रयास न करे कि अभी तक किसी ने भी केजरीवाल के विरूद्ध प्रथम सूचना पत्र दर्ज नहीं कराया हैं। केजरीवाल के इस बयान के समय को भी ध्यान में रखने की नितांत आवश्यकता है। यह बयान ऐसे समय पर आया है, जिसके एक दिन पूर्व ही उन्होने समस्त विपक्ष को दिल्ली में एक ही मंच पर इक्ठ्ठा किया था। ऐसी स्थिति में समस्त राजनैतिक दलों का भी दायित्व बनता है कि वे देश हित में केजरीवाल के इस बयान की सख्त आलोचना करे। 

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2019

2019 के लोकसभा चुनाव केे बाद ‘‘एनडीए’’ के प्रधानमंत्री क्या नितिन गडकरी होगें?

भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष, आरएसएस के करीबी, कॉर्पोरेट और व्यापार जगत के चहेते और केन्द्र की मोदी सरकार के नियत अवधि में अपेक्षित परिणाम देने वाले सड़क परिवहन, जहाज रानी व गंगा सफाई विभाग के मंत्री नितिन गडकरी केे पिछले कुछ समय से जो बयान आ रहे है वे निश्चित रूप से सामान्य से हट कर रहे हैं। गडकरी के मन की बात की कुछ बानगिया निम्नानुसार हैंः-
पहला 4 अगस्त 2018 के ‘‘आरक्षण देकर क्या होगा नौकरियां ही नहीं है’’। दूसरा अक्टूबर 2018 में ‘‘भरोसा नहीं था जीतेगें, तो बडे़ वादे किए, लेकिन जीत गए’’। तीसरा 23 दिसम्बर 2018 को एक कार्यक्रम में उन्होने कहा, ‘‘यदि मैं पार्टी का अध्यक्ष हंू और मेरे सांसद और विधायक अच्छा नहीं करते है, तो कौन जिम्मेदार होगा’’? मुझे नेहरू के भाषण पसंद हैं, कहते हुये उन्होने कहा कुछ ‘‘सिस्टम को सुधारने के लिए दूसरे की तरफ उंगली क्यों करते हो, अपनी तरफ क्यों नहीं करते हो। जवाहर लाल नेहरू कहते थे ‘‘इंडिया इज़ नॉट ए नेशन. इट इज़ ए पॉपुलेशन, इस देश का हर व्यक्ति देश के लिए प्रश्न है, समस्या हैं, तो मैं इतना तो कर ही सकता हूँ कि मैं स्वयं देश के सामने समस्या नहीं बनूंगा’’। तीन विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद पुणे में एक कार्यक्रम के दौरान नितिन गडकरी ने कहा, सफलता के कई दावेदार होते है, लेकिन विफलता में कोई साथ नहीं होता। ‘‘सफलता का श्रेय लेने के लिए लोगों में होड़ रहती है, लेकिन विफलता को कोई स्वीकार नहीं करना चाहता, सब दूसरे की तरफ उंगली दिखाने लगते हैं। नेतृत्व को हार व विफलता की भी जिम्मेदारी स्वीकार करने चाहिए’’। एक टीवी कार्यक्रम को दिये साक्षात्कार में गडकरी ने कहा ‘‘हमारे पास इतने  नेता हैं, और हमंें उनके सामने बोलना पसंद है, इसलिए हमें उन्हे कुछ काम देना हैं। उन्होंने एक फिल्म के सीन का जिक्र करते हुए कहा कि ‘‘कुछ लोगों के मुंह में कपड़ा डाल कर मुंह बंद करने की जरूरत है’’। अभी हाल ही मंे यह बयान आया है कि सपने दिखाने वाले नेता लोगों को अच्छे लगते हैं, पर दिखाए हुए सपने अगर पूरे नहीं किए तो जनता उनकी पिटाई भी करती है, इसलिए सपने वही दिखाओं जो पूरे हो सकें गडकरी ने कहा कि मैं सपने दिखाने वाले में से नहीं हूं मैं जो बोलता हूं वो 100 फीसदी डंके की चोट पर पूरा करता हूं। ये समस्त बयान निश्चित रूप से भाजपा की संस्कृति से न तो मेल खाते है और न ही भाजपा की आंतरिक कार्य पद्धति में सामान्य या असामान्य रूप से ंसंभव होते हैं। मतलब साफ है, संघ प्रमुख को विश्वास में लिये बिना या उनकी मूक सहमति या इशारों के बगैर ऐसे बयान संभव नहीं है। 
याद कीजिए भाजपा की कार्यप्रणाली जनसंघ के जमाने से जहां स्थापित पार्टी लाईन के बाहर जाकर जिसने भी कोई प्रश्न वाचक चिन्ह लगाया है, नेतृत्व पर उंगली उठाई है या नीतियों अथवा नीतिगत फैंसलों पर प्रश्न किया है उन्हे या तो पार्टी के बाहर ही कर दिया गया या उनके पर कतर दिये गये या (मार्गदर्शक मंडल बनाकर) उन्हे एक कोने में बैठा दिया गया। पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष पीताम्बरा दास, बलराज मधोक से लेकर लालकृष्ण आडवानी तक, वीरेन्द्र कुमार सकलेचा, सुश्री उमा भारती आदि ऐसे अनेक ज्वलंत उदाहरण आपके सामने है। इस वास्तविकता के बावजूद नितिन गडकरी ने जो कुछ भी विभिन्न अवसरो पर कहने की हिम्मत की, वह सत्यता है। लेकिन  भाजपा के आज के राजनैतिक परिवेश में कोई भी व्यक्ति चाहे वह कितने ही उच्च ओहदे पर क्यों न हो, आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व की सहमति के बिना ऐसा (दुः)साहसी कदम नहीं उठा सकता।  इसीलिए ऐसा भासित होता है कि भविष्य की स्थिति का आकलन कर 2019 के लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद उत्पन्न होने वाली आशंका पूर्ण (आशा पूर्ण नहीं) स्थिति का मुकाबला करने के लिए नितिन गडकरी को आगे कर उन्हे एनडीए के प्रधानमंत्री पद की ओर अग्रेसित किया जा रहा है। इसका स्वागत भी किया जाना चाहिये। भविष्य के दुष्परिणाम की आशंकाओं को महसूस /स्वीकार करके राजनीति में जब योजना बद्ध दूर-दृष्टि की नीति अपनाई जाती है, तभी उस विपरीत स्थिति से सफलतापूर्वक निपटा जा सकता हैं। संभवतः संघ की इसी मंशा के अनुरूप नितिन गडकरी के उक्त बयान आये हों।
उक्त सच्चाई को मानते हुये ही शायद कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने कहा गडकरी जी के बयान पर मैं एक हिन्दी की कहावत याद कराना चाहता हूं ‘‘कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना’’ याने उनकी निगाहें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रहती है, और निशाने पर प्रधानमंत्री हैं।

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