शनिवार, 29 अप्रैल 2023

‘‘उड़न परी’’ की ‘‘उड़ान’’। ‘‘शर्मसार’’ करने वाली।

भारत की विश्व विख्यात ओलंपिक विजेता, भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन की अध्यक्षा, एवं राज्यसभा सदस्य (नामित) पी.टी. उषा जो फर्राटेदार दौड़ के कारण बनी ‘‘पायली एक्सप्रेस’’ उड़न परी का कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पद पर ‘‘अंगद के पांव की तरह जमे हुए’’ सांसद बाहुबली बृजभूषण शरण सिंह के विरुद्ध यौन शोषण की महिला पहलवानों की जारी लड़ाई पर दिया गया बयान बेहद अपमानजनक होकर अफसोसजनक है। एक महिला होने के नाते तो उनका यह बयान बेहद शर्मनाक व आश्चर्यचकित करने वाला है। हो सकता है कि केन्द्रीय सरकार की सिफारिश से राज्य सभा की सदस्यता नामित होने के कारण शायद सरकार को प्रसन्नचित करने हेतु उक्त बयान हो सकता है। पी.टी. उषा के उक्त बयान ने उनकी ‘‘असंदिगध साख’’ पर कुछ दरार अवश्य पैदा कर दी है। 

उल्लेखनीय है कि देश की प्रसिद्ध विनेश फोगाट, साक्षी मलिक, बजरंग पूनिया, सहित 7 महिला (एक नाबालिग) पहलवानों ने भारतीय कुश्ती संघ के ‘‘अपने ही घर में डाका डालने वाले’’ अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के विरुद्ध यौन शोषण का मुकदमा दर्ज करने के लिए पिछले 7 दिवस से जंतर मंतर पर अपने समर्थकों साथियों सहित धरने पर बैठी हुई हैं। इसी मुद्दे को लेकर वे सब महिलाएं पूर्व में 3 महीने पहले जनवरी में भी धरने पर बैठ चुकी हैं। लेकिन ‘‘नक्कारख़ाने में तूती की आवाज’’ सुने कौन? देश के लिए मेडलों की बौछार लाने वाली, देश का सम्मान बढ़ाने वाली महिला पहलवानों को अन्य खिलाड़ियों के साथ प्रधानमंत्री ने अपने निवास में बुलाकर न केवल सम्मानित किया, बल्कि एक पुरानी कहावत ‘‘पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे होगे खराब’’ का उल्लेख करते हुए कहा कि उक्त कहावत वर्तमान में गलत सिद्ध हो गई है। तत्कालीन खेल मंत्री राज्यवर्धन सिंह और किरण रिजिजू ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वर्ष 2017 में शुरू की गई खेलो इंडिया नीति को उद्हरण करते हुए खिलाड़ियों की उपलब्धियों को उसका ही परिणाम बतलाया।

एक बात तो समझ से बिल्कुल परे है, जहां उच्चतम न्यायालय पूर्व में दिए गए अपने निर्णय (ललिता कुमारी विरूद्ध उत्तर प्रदेश सरकार) में यह सिद्धांत प्रतिपादित कर चुका हूं कि ऐसे मामलों में प्राथमिक जांच किए बिना ही तुरंत प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज की जानी चाहिए। विपरीत इसके यहां पर यह पीडि़त महिला पहलवानों को अपने साथ हुए यौन शोषण के विरुद्ध अपराधी के विरुद्ध एफआईआर दर्ज करने के लिए ही 3 महीनों से ज्यादा अवधि से एड़ी चोटी का संघर्ष करना पड़ रहा है। देश के इतिहास में इसके पूर्व ऐसा शायद कभी नहीं देखा गया कि यौन शोषण जैसे संज्ञेय गंभीर अपराध के लिए एफआईआर दर्ज करने के लिए धरने पर बैठना पड़ा हो, उस स्थिति में जहां भा.दं.स.की धारा 154 व 156 अंतर्गत संज्ञेय यौन अपराधों में एफआईआर तुरन्त दर्ज हो जाने का प्रावधान है। सिर्फ इसलिए की अपराधी एक कुश्ती महासंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के कारण शायद केंद्रीय खेल मंत्री के निकट होकर सत्ताधारी पार्टी का सांसद है। 

सुप्रीम कोर्ट में आज जब सुनवाई के लिए मामला आया तो सुनवाई प्रारंभ होने के पूर्व ही दिल्ली पुलिस ने आज ही एफआईआर दर्ज करने की बात का शपथ पत्र न्यायालय में दिया। यानी कि ‘‘औंधे मुंह गिरे तो दंडवत प्रणाम’’! अभी तक तो देश में न्याय मिलने में देरी की बात ही कही जाती रही थी, और इस कारण से ही ‘‘अतीक’’ जैसे गुर्गों की हत्या को सही तक ठहराया जा रहा था। परन्तु अब महिलाओं द्वारा अपने विरुद्ध किए गए यौन शोषण के विरुद्ध एफआईआर दर्ज कराने के लिए लंबा संघर्ष, जो कि अब तक ‘‘अरण्य रोदन’’ ही साबित हुआ है, किस ‘‘न्याय व राज व्यवस्था’’ की ओर इंगित करता है? यह इस देश की बेहाल कानूनी व राजनीतिक व्यवस्था के सांठगांठ (कोलुजन) का बेशर्म चेहरा ही प्रदर्शित करता है। ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया कि जहां एफआईआर दर्ज करने की बात की जा रही हो, वहां पर महिला खिलाड़ियों के रक्षक खेल मंत्री अनुराग ठाकुर इन खिलाड़ियों के भक्षक बने, ‘‘वीर भोग्या वसुंधरा’’ की उक्ति को चरितार्थ करने वाले कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह को संघ की अध्यक्ष की कुर्सी से हटाने के बजाय उन्हें बचाने के लिए एक कमेटी गठित कर मामले को ठंडे बस्ते में डालने का वैसा ही प्रयास कर देते हैं, जैसा कि इस देश में कभी भी कोई भी गंभीर अपराध, घटना, दुर्घटना घटने पर जांच आयोग या कमेटी गठित कर दी जाने की परम्परा सी हो गई है। क्या बात है, ‘‘औरों को नसीहत और खुद मियां फजीहत’’!  

हमारे देश में खेल संघों का खिलाड़ियों के खेल जीवन पर कितना महत्वपूर्ण हस्तक्षेप व नियंत्रण होता है कि यदि कोई खिलाड़ी से संघ के पदाधिकारी नाराज हो जाएं तो उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खेलों में खेलने का मौका मिलना प्रायः लगभग असंभव सा हो जाता है, इतनी पकड़ चंगुल पदाधिकारियों की तो होती ही है। ऐसी स्थिति में जब महिला पहलवान संघ के अध्यक्ष के विरुद्ध ही गंभीर आरोप लगा रही हैं, तब सुरक्षित निष्पक्ष जांच के लिए उनके भविष्य के सुरक्षित खेल जीवन के लिए और नैतिकता के आधार पर भी अध्यक्ष को अपने पद से तब तक हटाया जाना चाहिए, जब तक की जांच पूरी होकर प्रकरण न्यायालय में प्रस्तुत कर नहीं दिया जाता है।

ऐसी स्थिति में एक ‘‘संबल’’ के रूप में एक महिला दूसरी महिला से सपोर्ट (समर्थन) की उम्मीद करती है। परंतु उल्टे यहां तो पी टी उषा ने इन महिलाओं के साथ हुए अत्याचार के संबंध में कोई सहयोग, सांत्वना, ढाढस देने   की बजाय अपने अधिकारों के लिए धरने पर बैठने पर उन्हें अनुशासन का पाठ पढ़ाने के दुस्साहस के साथ यह कथन किया कि यह देश के लिए अच्छा नहीं हैं, भारत की छवि खराब हो रही है। उक्त बयान किसी भी रूप कानूनी, नैतिक या खेल की दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता हैं। निश्चित रूप से इससे देश की प्रतिष्ठा पर आंच आती है, परन्तु यह महिलाओं के धरने के कारण नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक कानूनी व्यवस्था में द.प्र.सं.की धारा 166 ए के प्रावधान के बावजूद यौन प्रकरण का मामला दर्ज न करने से। यह धरना प्रदर्शन कुश्ती संघ में तथाकथित व्याप्त भ्रष्टाचार व अनियमितताओं के विरुद्ध नहीं था, जिसके लिए अनुशासन का पाठ पढ़ाया जाए? अनुशासन का पाठ यदि कोई पढ़ा सकता है तो वह कुश्ती संघ ही। अन्य कोई खेल संगठन या भारतीय ओलंपिक संघ अध्यक्ष नहीं। क्योंकि यदि कोई तथाकथित अनुशासन भंग हुआ है, तो वह कुश्ती संघ का हुआ है, जिनकी वे महिला पहलवान सदस्य हैं। महिला पहलवान भारतीय ओलंपिक संघ के विरुद्ध भी धरना प्रदर्शन में बैठी नहीं है। अतः ओलंपिक संघ को बोलने का क्या अधिकार बनता है? यानी कि ‘‘जबरन तू कौन मैं ख्वाब-मखाह’’। सिर्फ इसलिए कि महिला पहलवानों ने एक महिला होने के नाते व ओलंपिक संघ के अध्यक्ष होने के नाते पी टी उषा की ओर राहत व सहानुभूति की टकटक निगाहे से देखने की जुर्रत की?   

पी.टी. उषा को इस बात से सबक लेना चाहिए कि विभिन्न खेलों के मेडल और पुरस्कार प्राप्त खिलाड़ियों जिसमें प्रसिद्ध क्रिकेटर कपिल देव, हरभजन सिंह, वीरेंद्र सहवाग, इरफान पठान, मदनलाल, ओलंपिक चैंपियन नीरज चोपड़ा अभिनव बिंद्रा, निकहत जरीन चैंपियन बॉक्सर, सानिया मिर्जा टेनिस चैंपियन, रानी रामपाल हॉकी खिलाड़ी आदि खिलाड़ी गण और सोनू सूद, पूजा भट्ट जैसे कलाकारों ने महिला पहलवानों के समर्थन में कथन, बयान, ट्वीट्स किए हैं, जिन्हें देखते हुए पीटी उषा को अपना ‘‘क्षते क्षार प्रक्षेप रूपी’’ बयान तुरंत वापस ले लेना चाहिए। खासकर इस स्थिति को देखते हुए जब आज अपराधी के खिलाफ दो अधिनियम के अंतर्गत एफआईआर दर्ज हो गई है। हां इन महिलाओं द्वारा 10-12 वर्ष पूर्व किये गये यौन अत्याचार को भी प्राथमिकी में दर्ज कराया है, जिस विलम्ब का कोई स्पष्टीकरण अभी तक उनकी ओर से नहीं आया है। यौन अत्याचार की घटना की जगह, दिन व समय के बाबत भी परस्पर विरोधाभासी कथन तथाकथित रूप से आये है। साथ ही कुछ क्षेत्रों में इस कुश्ती संघ के विरूद्ध लड़ाई के लिये एक मोहरा बनाये जाने की बात भी कही जा रही है। इसके अतिरिक्त आपराधिक मामले दर्ज करने के लिए एक अधिकारहीन सिविल कमेटी जिसे आपराधिक मामला दर्ज करवाने का कोई अधिकार नहीं है, के लिए ये महिला पहलवान क्यों सहमत हो गई? ऐसी अस्पष्ट स्थिति में पी.टी.उषा की नजर में यदि महिलाओं का यौन अत्याचार के आरोप प्रथम दृष्टया गलत है, तब जरूर पी टी उषा के स्टैंड (रुख) का समर्थन किया जा सकता है। परंतु ऐसा करने के पूर्व पी.टी. उषा को अपना रुख उक्त इस संबंध में स्पष्ट करना होगा।

एक बात और! जब महिला पहलवानों को यौन शोषण जैसे गंभीर अपराध के लिए उच्चतम न्यायालय के द्वारा एफ आई आर दर्ज करने के संबंध में प्रतिपादित सिद्धांत के बावजूद एफआईआर दर्ज करने के लिए लिए 3 महीनों से अधिक से संघर्ष करना पड़ रहा है। ‘‘जब बेशर्मी तेरा ही आसरा’’ हो तो, क्या ऐसी स्थिति में  वह पुलिस थाना जो अभी तक एफआईआर दर्ज करने में  आनाकानी कर रहा था, उच्चतम न्यायालय के निर्देश के बाद एफ आईआर दर्ज करके त्वरित जांच सही दिशा में कर पाएगी या करेगी? हालाकि मुख्य न्यायाधीश ने सुनवाई के दौरान यह जरूर कहा कि वे व्यक्तिगत रूप से मामले का पर्यवेक्षण करेगें। ऐसे प्रभावशाली अपराधी व्यक्ति के विरुद्ध जिस पर 84 गंभीर आपराधिक प्रकरण दर्ज होकर बाहुबली हैं, जो सत्ताधारी पार्टी का सांसद है, जिसका राजपूत समाज पर बड़ा व्यापक प्रभाव है? तब क्या महिला पहलवानों को सीबीआई जांच अथवा उच्चतम न्यायालय के पर्यवेक्षण में जांच की मांग नहीं करना चाहिए?

अंत में उच्चतम न्यायालय ने 3 महीने तक प्राथमिक जांच (जिसकी आवश्यकता बिल्कुल भी नहीं है) पूरी कर अपराध दर्ज न करने के लिए दिल्ली पुलिस को फटकार क्यों नहीं लगाई? सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनवाई का नोटिस जारी करने के बाद भी तुरंत एफआईआर दर्ज नहीं की गई और तीन दिन बाद सुनवाई के दिन जब दिल्ली पुलिस को यह लगा कि उच्चतम न्यायालय उन्हें बत्ती दे सकता है, तब दिल्ली पुलिस की ओर से  एफआईआर दर्ज करने के आशय का शपथ पत्र प्रस्तुत किया गया। पुलिस अधिकारियों द्वारा द.प्र.सं. की धारा 154, 156 के अनुसार यौन शोषण जो कि  धारा 354 ए के अंतर्गत एक संज्ञेय अपराध है के लिए प्राथमिकी दर्ज न करने पर धारा 166 ए के अंतर्गत ऐसे दोषी पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज करने के निर्देश क्यों नहीं दिए? अगली सुनवाई में शायद इन प्रश्नों के उत्तर मिल सके?

राष्ट्रपिता गांधी के देश में ‘‘गांधी’’, ‘‘गांधीवाद’’ ‘‘अप्रसांगिक’’ हो गए हैं क्या?

अतीक अहमद गैंग के स्वयं के साथ 6 अपराधियों के एनकाउंटर व हत्या हो जाने के मामले में न्यायपालिका की भूमिका भी एक नागरिक के जीने के अधिकार व अंतिम संस्कार करने के अधिकार के संरक्षण में दिखती हुई नहीं दिख रही है। उच्चतम न्यायालय ने परमानंद कटारा बनाम भारत संघ और अन्य के मामले में वर्ष 2015 संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मृतक का सम्मान पूर्वक दाह संस्कार को मान्यता दी है। याद कीजिए! जब अतीक को साबरमती जेल से उत्तर प्रदेश लाया जा रहा था, तब उसने उच्चतम न्यायालय से गुहार लगाई थी कि उसे उत्तर प्रदेश न भेजा जाए। उसकी जान को खतरा है व कहीं भी उसका एनकाउंटर किया जा सकता है। जान के इस खतरे को अतीक अहमद ने मुख्य न्यायाधीश एवं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम से लिखी चिट्ठी में तस्दीक की है, जिसमें दो व्यक्तियों के नाम लिखे गये है, जिन पर हत्या होने की दशा में आरोप लगाया गया है। उक्त पत्र सोशल मीडिया में वायरल है। उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को सामान्य रूप से मात्र सुरक्षा के निर्देश देकर अतीक अहमद को उच्च न्यायालय में जाने की छूट दी थी। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये उसके बयान लिये जा सकते थे। पुलिस चाहती तो साबरमती जेल में भी बयान ले सकती थी। क्या इसके पूर्व अभियुक्तों की पेशी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए नहीं हुई? बयान दर्ज नहीं हुए हैं? जब वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए न्यायालयीन प्रक्रिया (वकीलो के तर्क) चल सकती है, तब ऐसी बेहद गंभीर स्थिति में ऐसी सुरक्षा की दृष्टि से स्वयं वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए पेशी कराई जाना चाहिए थी। लेकिन कहते हैं ना कि "घोड़े को पानी दिखाया जा सकता है लेकिन उसे पिलाया नहीं जा सकता" और ऐसा न होने के कारण अंततः यह मृत्यु का कारण बनकर, व्यक्त की गई आशंका सत्य सिद्ध हो गई। क्या स्व संज्ञान से उच्चतम न्यायालय  अतीक की सुरक्षा के लिए पूर्व में दिए गए के निर्देशों का पालन करने में असफल रहने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार से स्पष्टीकरण मांगेगी? मांगना भी चाहिये क्योंकि "कड़वी भेषज बिन पिये, मिटे न तन का ताप"। 

क्या यह अमानवीय नहीं है कि अतीक अहमद से पुलिस द्वारा पूछताछ उसके लड़के की एनकाउंटर में हुई मृत्यु के 24 घंटे के भीतर ही की गई? ‘‘सुपुर्द ए खाक’’ में मिट्टी देकर श्रद्धांजलि देने में भी बहुत सीमित प्रविष्टि दी गई। अतीक अहमद की यह मांग क्यों नहीं मानी गई कि उसे उसके लड़के के जनाजे में शामिल होने दिया जाए या कम से कम वीडियो कॉल द्वारा शव दिखा दिया जाए क्योंकि "घायल की गति घायल जाने"। क्या पुत्र असद के शव को स्वतंत्र रूप से परिवार को ‘‘सुपुर्द ए खाक’’ के लिए  सौंप दिया गया था? ऐसा लगता है अंतिम संस्कार की पूरी प्रक्रिया भारी पुलिस प्रशासनिक बल के कड़े निर्देश में न्यायालय के 11.00 बजे खुलने के पहले ही जल्दबाजी में पूर्ण कर दी गई। क्योंकि न्यायालय में अतीक अहमद की अंतिम संस्कार में शामिल होने का आवेदन लगा था। इस कारण आवेदन निष्फल ( इंफ्रुक्ट्यूयेस) हो गया। कौन सा पहाड़ टूट जाता, यदि उनका अंतिम संस्कार 2 घंटे बाद हो जाता, जब तक न्यायालय का निर्णय आ जाता अथवा एक-दो दिन बाद अतीक अहमद से पूछताछ कर ली जाती? उच्चतम न्यायालय ने अंतिम संस्कार में शामिल होने के आवेदन को निष्फल करने के लिए पुलिस से यह क्यों नहीं पूछा गया कि अंतिम संस्कार करने में इतनी जल्दबाजी क्यों की गई? एक दुर्दांत अपराधी जो भारतीय नागरिक है, के नागरिक अधिकार में क्या अंतिम क्रिया करने का संवैधानिक अधिकार शामिल नहीं है? यह मानवाधिकार की दृष्टि से नहीं बल्कि कानून की दृष्टि से भी एक बड़ा प्रश्न है? 

वैसे हमारी भारतीय संस्कृति की बड़ी खूबसूरती और विशेषता यह है कि जीते जी जो सम्मान नहीं दिया जाता है, वह व्यक्ति के मरने के बाद उसे दिया जाता है, चाहे आदमी कितना ही बुरा क्यों न हो। इस खूबसूरती को शायद पुलिस प्रशासन के साथ कुछ अतिरेक लोग भी भूल गए हैं। क्या अतीक अहमद व अशरफ को विधानसभा व लोकसभा में श्रद्धांजलि दी जाएगी? श्रद्धांजलि के वक्त सदन में माननीय सदस्य सम्मान में क्या कहेंगे? अथवा पूर्व सदस्यों को श्रद्धांजलि देने के नियम व परिपाटी में कोई बदलाव किए जाएंगे?

वैसे अतीक अहमद का जो इतिहास रहा है, वह 44 वर्ष का राजनैतिक सत्ता के आश्रय व सहयोग से दुर्दांत माफिया अपराधी का रहा है। जिस पर एक बार एनएसए भी लग चुका है। बावजूद इसके वह पांच बार विधायक और एक बार सांसद चुना जा चुका था। वह राजनीति में निर्दलीय, अपना दल, समाजवादी और उस बसपा (पत्नी शाइस्ता परवीन व बेटों) में जिस की मुखिया मायावती पर वह समाजवादी पार्टी में रहते हुए सर्किट हाउस कांड में हमला कर चुका था, गोते लगा चुका है। भाई अशरफ भी विधायक रह चुका है। क्या ऐसी स्थिति में वह जनता (मतदाता) बिल्कुल निर्दोष है, जो बार-बार ऐसे अपराधी को चुन रही थी व उसी जनता से पॉवर (सत्ता) प्राप्त कर माफिया अपनी आपराधिक दुनिया को मजबूत करता रहा था। आख़िर "कड़वी बेल बहुत तेजी से जो बढ़ती है"।

यह बात भी बहुत हद तक सही है कि ऐसे दुर्दांत राजसत्ता से घिरे अपराधी के विरूद्ध 102 आपराधिक प्रकरण सम्पूर्ण परिवार पर 160 प्रकरण दर्ज है, और 1168 करोड़ की संपत्ति को जब्त हुई है। अपराधी के विरुद्ध साक्ष्य देने न्यायालय में लोग आने का साहस कहें या दुस्साहस, जुटा नहीं पाते हैं। इस कारण से उन्हें न्यायालयीन सजा नहीं मिल पाती है। उसे अभी हाल में ही कुछ दिन पूर्व मात्र एक अपहरण (उमेश पाल जिसकी अभी हत्या कर दी गई) के मामले में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। बावजूद इसके अपराधियों को भी न्यायालयीन प्रक्रिया से गुजारकर सजा दिलानी चाहिए, जो उसका एक संवैधानिक अधिकार है। इसके लिए न्याय व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन किया जाए कि तुरन्त व निश्चित रूप से सजा हो सके यह आज के समय की आवश्यकता है। तब तक इस न्याय व्यवस्था की कमी को पूरा करने के लिए क्या ऐसे अपराधियों से निपटने के लिए सभ्य समाज में असभ्य तरीका अपनाया जाता रहेगा? शासन-प्रशासन के इशारों पर मानव निर्मित सजा देंगे? अथवा कानून निर्मित सजा दिलाएंगे? फर्जी एनकाउंटर, मानवाधिकार, मानवता व इंसानियत के खिलाफ है। "एक बार ख़ून मुंह लग जाये तो छूटता नहीं है"। हम जंगलराज में नहीं रह रहे हैं, रामराज्य, सुशासन में रह रहे हैं। आक्रोश, गुस्सा आवेश व भावुक होना एक सामान्य मानवीय प्रक्रिया का हिस्सा है। परंतु हमें उस पर उचित नियंत्रण रखना ही होगा, अन्यथा हम दूसरों के लिये मिसाल क्या बनेंगे? ‘‘घर में दिया जला कर ही चौराहे पर दिया जलाया जाता है’’।

विश्व में गांधी के देश के रूप में भारत की पहचान होने के बावजूद क्या देश में गांधीवाद गांधीजी के सिद्धांतों का पालन हो रहा है? गांधी जी के ‘‘अनतिक्रमणीयो हि विधिः’’ और ‘‘अहिंसा परमो धर्मः’’ के सिद्धांत के साथ एक मुख्य सिद्धांत यह भी था कि साध्य की पवित्रता के साथ-साथ साधन की भी उतनी ही पवित्रता होना आवश्यक है, अन्यथा ‘‘करि कुचाल अंतहीन पछतानी’’ वाली स्थिति अवश्यंभावी है। एनकाउंटर में लक्ष्य को पाने के लिए अपनाया गया तरीका उतना ही पवित्र स्वच्छ और कानूनी हो, इस पर विचार करने की आवश्यकता है। खासकर उन नेताओं को भी जो प्रत्येक वर्ष गांधी जयंती पर गांधी जी के स्मारक राजघाट जाकर प्रणाम कर श्रद्धांजलि देते हैं, और उन्हें याद करते हैं।

बुधवार, 19 अप्रैल 2023

एनकाउंटर के तरीके का नया ईजाद! हिरासत में हत्या होने देना?

एक माफिया गैंग को समाप्त करने के लिए दूसरे नये माफिया गैंग का निर्माण?

उमेश पाल हत्याकांड के दो आरोपियों का किया गया एनकाउंटर और तत्पश्चात दो दिन बाद ही दो प्रमुख आरोपीगण अतीक व उसका भाई अशरफ की पुलिस हिरासत में हुई हत्या क्या प्लांटेट है या अचानक अप्रत्याशित घटित घटना क्रम है? लोहा लोहे को ही काटता है की तर्ज पर माफिया गैंग को नई माफिया गैंग द्वारा तो मौत के घाट नहीं तो उतार नहीं दिया गया है? क्योंकि "शेर की मांद कभी खाली नहीं रहती"। यह भी एक संयोग ही है कि अतीक को पेशी में लाये जाने के समय ही पहला एनकाउंटर हुआ था? और अब अतीक के पुलिस रिमांड लिये जाने के बाद रात्रि लगभग 10.30 बजे जब उसे काल्विन अस्पताल ले जाया जा रहा था, तब उक्त हत्याओं को अंजाम दिया गया। 

दुर्दांत अपराधी माफिया किंग अतीक अहमद व भाई अशरफ की पुलिस कस्टडी में हत्या अचंभित करने वाली है। तीनों हत्यारों ने पुलिस द्वारा कोई कार्रवाई किये जाने के पूर्व ही तुरंत आत्मसमर्पण कर दिया। ये तीनों आरोपी कौन थे? अलग-अलग जगह से संबंध रखते हैं। परस्पर कोई परिचय नहीं था। बावजूद इसके वह सब कब परस्पर मिले, एकत्रित हुए और हत्या की योजना बनाई? महंगी, विदेशी, प्रतिबंधित, पिस्टल कहाँ से आयी? इन्हें खरीदने के लिए 7-8 लाख रुपये कहां से मिले? जबकि इन तीनों हत्यारों के परिवारों की आर्थिक स्थिति बेहद सामान्य बताई जा रही है। 48 घंटे से रेकी कर रहे थे? इसकी भनक तक पुलिस को नहीं लगी। न्यायालय का ऐसा कोई आदेश नहीं था कि अभियुक्तों को रूटीन जांच के लिए अस्पताल ले जाया जाए। अस्पताल ले जाते समय उतनी कड़ी सुरक्षा नहीं थी, जैसे पूर्व में थी। सुरक्षा में तथाकथित कमी की गई? अस्पताल स्टाफ अथवा डॉक्टर को भी अतीक के आने की कोई सूचना नहीं थी। तब फिर इन हत्यारों को यह सूचना कैसे मिली? गाड़ी अस्पताल के गेट के अंदर न ले जाकर पहले ही रोककर पैदल क्यों ले जाया जा रहा था, जबकि रास्ता साफ था? पुलिस सुरक्षा के बावजूद तीनों हत्यारों अभियुक्त के इतने निकट कैसे पहुंच गए कि उनकी कनपटी पर पिस्तौल अड़ा दी गई? बावजूद इसके 10 राउंड फायरिंग की गई? पुलिस द्वारा प्रत्युत्तर में कोई फायरिंग नहीं की गई?  न ही सुरक्षा या अटैक (आक्रमण) की दृष्टि से हथियार निकालने का कोई  प्रयास किया गया? सामान्य रूप से प्रेस कार्ड दिखाकर प्रेस वाले अभियुक्त से बात करने के लिए भीड़ में घुसते हैं? जिस कारण झूठा कार्ड हत्यारे बनाकर पत्रकार के रूप अतीक के पास पहुंचे। पत्रकारों को क्यों अभियुक्तों के बिल्कुल पास तक जाने दिया गया व बातचीत करने दिया गया?  इस तरह के अनेकोनेक प्रश्न सोशल मीडिया में चल रहे है, फिलहाल जिन पर मैं कदापि जाना नहीं  चाहता हूं, लेकिन "एक तिनका भी हवा का रुख़ बता देता है"।

प्राथमिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हत्यारों के आत्मसमर्पण के बाद पुलिस द्वारा उनके अपराध स्वीकृति के बयान के बाद क्या 10 घंटे में जांच पूरी हो गई? इस कारण पुलिस ने अगले दिन न्यायालय में पुलिस रिमांड तक नहीं मांगा? और तीनों हत्यारों की न्यायिक रिमांड दी गई। और अब कौन से "अंतड़ियों के बल खोलना बाक़ी रह गया" जो कि आज पुलिस ने 7 दिन की पुलिस रिमांड मांगी जो 4 दिन की मिली। परन्तु इस प्रश्न का कोई जवाब पुलिस ने अभी तक नहीं दिया कि तुरन्त पहले अवसर पर ही पुलिस रिमांड क्यों नहीं मांगी गई? दोनों अभियुक्तों की हत्या करने के बाद फिर तीनों हत्यारों की हत्या का इतनी शीघ्रतिशीघ्र इनपुट कैसे मिल गया? जिस कारण ही उन्हे 24 घंटे के भीतर ही प्रयागराज के नैनी जेल से प्रतापगढ़ जेल में शिफ्ट कर दिया गया। जबकि आश्चर्यजनक रूप से अतीक की हत्या का कोई इनपुट पुलिस को नहीं मिला? उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा इसके पूर्व सामान्यतया एनकाउंटर में अपराधियों के मारे जाने के बाद की गई कार्रवाई को लेकर पत्रकार वार्ता कर पत्रकार के प्रश्नों के उत्तर दिये जाते रहे हैं। परन्तु आश्चर्यजनक रूप से इस मामले में अभी तक ऐसा नहीं किया गया! क्यों?

घटना के पूर्व और घटना के तत्काल बाद आई यू. पी. शासन-प्रशासन और भाजपा के नेताओं की प्रतिक्रियाओं की बौछारांे से मामला आपके सामने आईने समान साफ हो जाता है कि ‘‘ख़ून सर चढ़ कर बोलता है’’। भाजपा ने ट्वीट किया, हमने पूर्व में ही मिट्टी में मिला देंगे का कथन कर दिया था। माफिया राज को मिट्टी में अवश्य मिलाइए। परन्तु अपराधी को मिट्टी में मिलाने का कार्य तो ईश्वर का है। ‘‘कोई काला कौआ तो खा कर आया नहीं’’। 

मंत्री स्वतंत्र देव सिंह का बयान कि यह ‘‘कुदरत का आसमानी फैसला’’ है। केशव प्रसाद मौर्य उपमुख्यमंत्री का यह बयान कि हत्यारों का ऐसा ही हश्र होना था।  "दिल में गांठ हो तो बानी में आंट आ ही जाती है"। क्या केशव प्रसाद मौर्य तय करेंगे कि आरोपी हत्यारे थे? या हत्या के मात्र आरोपी थे? और यदि उनको ही यह तय करना है तो न्यायालय, भारतीय दंड संहिता व दंड प्रक्रिया संहिता की आवश्यकता क्या है? न्याय में देरी अन्याय है, का प्रत्युत्तर ‘‘माफिया की समात्ति माफिया द्वारा’’ क्या ऐसा त्वरित तथाकथित न्याय का नया तरीका तो उत्तर प्रदेश सरकार ने ईजाद तो नहीं कर किया है? उत्तर प्रदेश शासन क्या यह भूल गया है कि एक ‘अपराधी’ चाहे वह कितना ही दुर्दांत माफिया क्यों न हो, उसकी सुरक्षा का कानूनी व संवैधानिक दायित्व सरकार का ही है। 

 "सोने को मुलम्मे की ज़रूरत नहीं होती" लेकिन इन सब एनकाउंटर व उक्त दोनों हत्या की घटना घटित होने के बाद मुख्यमंत्री योगी का प्रथम प्रतिक्रिया यही थी कि प्रदेश में कानून का राज है।  अब माफिया किसी को डरा, धमका नहीं सकता है। यानी कि "हींग जाय पर बास न जाय"। उच्च सुरक्षा के घेरे के बावजूद हत्यारों की हत्या हो जाना, ‘‘क्या कानून का राज कहलायेगा’’? हत्या का कोई इनपुट न मिलना, क्या सुरक्षा एजेंसी की कोई विफलता नहीं है? तीनों हत्यारों के हत्या करने के बाद यह कथन कि हमे भी माफिया बनना है, क्या कानून के राज में माफिया बनने की सार्वजनिक घोषणा होती हैं? हत्या की घटना के तुरंत बाद ही "हंडिया चढ़ा, नोन की दरकार" वाली पुलिस विभाग की ही दो जाचंे बैठा दी गई। एक एसआईटी। दूसरी एसआईटी की पर्यवेक्षण (मॉनिटरिंग) के लिए तीन सदस्यीय दल एडीजी प्रयागराज की अध्यक्षता मेें बनाई गई। पुलिस विभाग जिस पर ही उंगली उठ रही है के द्वारा की जाने वाली जांच कितनी निष्पक्ष व प्रभावी होगी? आज ही इन्ही पुलिस बल में से 5 पुलिस कर्मियों को निलंबित भी कर दिया गया। इसके अतिरिक्त बिना मांगे आश्चर्यजनक रूप से त्वरित रूप से न्यायिक जांच की घोषणा कर दी गई, जो सामान्यतः जनता की मांग या भुक्तभोगी परिवार की मांग पर ही कुछ समय पश्चात की जाती है। 

न्याय का यह महत्वपूर्ण सिद्धांत कि न केवल न्याय होना चाहिए, बल्कि न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए। मतलब पूरी पारदर्शी प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए। "सौ सयाने एक मत" का यह सिद्धांत पुलिस बल्कि पूरी कार्रवाई पर भी लागू होता है। यहां पर तो एनकाउंटर किए जाने के पूर्व ही लगातार काफी समय से भविष्यवाणी की जाती रही, गाड़ी उलट जाएगी, मिट्टी में मिला देंगे आदि-आदि। उक्त कथनों की बाढ़ निश्चित रूप से पुलिस प्रशासन की एनकाउंटर के वास्तविक होने (फेक नहीं) पर प्रश्नचिन्ह अवश्य लगाती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि "हुकम हमारा जोर तुम्हारा"? साथ ही दोनों हत्या के ऊपर उल्लेखित संपूर्ण घटनाक्रम व परिस्थितियों को देखते हुए इन तीनों हत्यारों का कोई न कोई हैंडलर्स होने की ओर भी निश्चित रूप से इशारा करती है। प्रश्न फिर यह उत्पन्न होता है कि यह हैंडलर्स कौन। क्या उनका भी कोई राजनैतिक व प्रशासनिक व्यक्ति आंका है? इस हैंडलर्स के कारण इन तीनों अपराधी को भी जान का खतरा है? जिस प्रकार अपराध दुनिया में कहा जाता है अपराधी कितना ही चतुर क्यों न हो अपने पीछे सुराग छोड़ ही जाता है, जिस कारण वह बाद में पकड़ा ही जाता है। यह तथ्य इन तीनों हत्यारों पर भी लागू होता है। घटना को अंजाम देने में उक्त उत्पन्न प्रश्नों की बौछारों के जैसे जैसे उत्तर मिलते जायेगें इन अपराधियों का भी शायद वहीं अंत होगा जो जेल में जाकर सजा होने के पहले ही अतीक व अशरफ का हुआ। 

न्यूज चैनल ‘‘आज तक’’ की ब्रेकिंग न्यूज हैडिंग ‘‘बिहार के सुशासन में खनन माफिया का कोहराम’’ के साथ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का कथन ‘‘उत्तर प्रदेश में कानून राज हैं,’’ से आप न्यूज चैनल की दयनीय परिस्थितियों को बखूबी समझ सकते है।

सोमवार, 17 अप्रैल 2023

उमेश पाल हत्याकांड के हत्यारों की ‘मौत पर नहीं’ किन्तु तरीकों पर अफसोस!

प्रयागराज (इलाहाबाद) के उमेश पाल हत्याकांड में दो आरोपी जिनमें एक मुख्य आरोपी अतीक अहमद का बेटा असद तो दूसरा उसका सहयोगी शूटर गुलाम का एनकाउंटर हो गया या कर दिया गया? (इन दोनों के अंतर को समझना होगा?) और मौत के घाट उतारे गए। इसके पूर्व उमेश हत्याकांड के ही दो अन्य आरोपियों की भी दो पृथक-पृथक एनकाउंटर में मृत्यु हो चुकी है। अब मुख्य गैंग का सरगना आरोपी अतीक अहमद व उसका भाई अशरफ की भी पुलिस कस्टडी में तथाकथित पत्रकार बने तीन व्यक्तियों ने गोली मारकर हत्या कर दी। अभी भी उमेश पाल हत्याकांड के कुछ शूटर फरार है। सामान्य सी बात है, ‘‘एक आंख फूटे तो दूसरी पर हाथ रखते हैं’’। उमेश पाल के परिवार व उक्त हत्याकांड में हुए शहीद पुलिस परिवार ने उक्त कार्रवाई पर तसल्ली जताई है। उमेश पाल की पत्नी ने असद की हत्या के बाद न्यूज एजेंसी एएनआई से कहा था कि अतीक की हत्या भी वैसे ही हो, जैसे मेरे पति की हत्या की गई थी, जो अंततः वस्तुतः सत्य हो ही गई। तथापि शहीद पुलिस परिवार के पिता ने अतीक के सम्पूर्ण परिवार छोटे, बड़े सबकी एनकाउंटर या फांसी की मांग की है। इन हत्यारों की मृत्यु और हत्या से उन सभी परिवारों को निश्चित रूप से उनके हृदय में जल रही आग को शांति अवश्य मिली होगी। अतीक गैंग के कारण जिस किसी ने अपना कोई खोकर जो दर्द वे सब अभी तक  झेल रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा दर्द को अब अतीक का बचा शेष परिवार झेलेगा। ‘न्याय’ तो हुआ हां! यदि मीडिया में प्रचारित अतीक के 40 साल के राजनैतिक सत्ता के साथ युक्त आपराधिक जीवन का अध्याय सच है तो? उत्तर प्रदेश शासन-प्रशासन व पुलिस की उक्त सफलता पर बधाई। परंतु यह सिक्के का मात्र एक पहलू  है। 

सिक्के के हमेशा दो पहलू होते है। इसका दूसरा पहलू निश्चित रूप से चिंताजनक है। क्योंकि उक्त ‘न्याय’ ‘अन्याय’ के द्वारा किया गया प्रतीत होता है। यह समझने के लिए एनकाउंटर का कानूनी अर्थ समझ लिया जाए। एनकाउंटर का शाब्दिक हिन्दी अर्थ मुठभेड़ (भिड़ंत) है। इसका सामान्य अर्थ हिसांत्मक संघर्ष है। सामान्यतया अपराधी पर काबू पाने के लिए जवाबी कार्रवाई के दौरान किए गया बल प्रयोग ‘‘एनकाउंटर’’ कहलाता है। किंतु इसमें कही भी मृत्यु को सुनिश्चित करना अंतर्निर्मित (इनबिल्ट) नहीं है, जैसा कि आजकल ‘एनकाउंटर’ शब्द में मृत्यु (हत्या) शामिल है, चलन में ऐसा स्वयमेव मान लिया जाता है। जैसा कि शहीद पुलिस परिवार ने स्वयं अतीक अहमद परिवार के ‘‘एनकाउंटर’’ की मांग मतलब मौत की की है। इससे यह समझा जा सकता है कि एनकाउंटर शब्द के अर्थ को कितना अनर्थ बना दिया है। एनकाउंटर यानी मुठभेड़ में आरोपी पकड़ा जा सकता है, घायल हो सकता है, भाग भी जाता है, और अपरिहार्य परिस्थितियों में अंतिम स्थिति में मारा भी जा सकता है। परन्तु ‘‘सिर्फ और सिर्फ मारा ही नहीं जायेगा’’?  

भारतीय कानून व संविधान में एनकाउंटर कही भी उल्लेखित या परिभाषित नहीं है। परन्तु उच्चतम न्यायालय ने पी.यू.सी.एल विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य (2014) में दिए गए निर्णय में एनकाउंटर के संबंध में 16 सूत्रीय दिशा-निर्देश निर्धारित किये है जिसमें धारा 176 के अंतर्गत अनिवार्य स्वतंत्र मजिस्ट्रेट जांच व मानवाधिकार आयोग को सूचना देना शामिल है। पुलिसकर्मियों के खिलाफ तुरंत प्रभाव से आपराधिक एफआईआर दर्ज कर धारा 157 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट को सूचना देना भी आवश्यक है। वर्तमान परिस्थितियों में बढ़ते हुए एनकाउंटर व तदनुसार विवादों पर रोक लगाने के लिए दिये उच्चतम न्यायालय को उक्त 16 सूत्री निर्देश के अतिरिक्त पुलिस जांच दल के साथ एक वीडियोग्राफर के रहने के भी निर्देश भविष्य में देना चाहिए, ताकि पूरी घटना की रिकॉर्डिंग हो सके। यानी कि ‘‘ऊंट की चोरी झुके झुके नहीं हो सकती’’। इससे पुलिस जांच दल की कार्रवाई पर कोई उंगली उठ ही नहीं पायेगी। साथ ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी एनकाउंटर के संबंध में वर्ष 1997 में दिशा निर्देश जारी किए हैं। अतः मजिस्ट्रेट जांच के बाद ही इस एनकाउंटर की सत्यता सिद्ध हो पायेगी। 

एनकाउंटर होना न तो कोई नई बात है और न ही अवैधानिक। किंतु याद रहे कि ‘‘विधान इंसान के लिये है, इंसान विधान के लिये नहीं’’। पुलिसिया अनुसंधान प्रक्रिया में आरोपी को गिरफ्तार करने से लेकर गिरफ्त में आए व्यक्ति के छूटकर भाग जाने की कोशिश में एनकाउंटर एक अंतिम कड़ी के रूप में वैधानिक है, जिसका उपयोग (दुरुपयोग नहीं?) परिस्थितियों की मांग अनुसार होना चाहिए। परंतु निश्चित रूप से अपराधियों से निपटने के लिए उनके खौफ को समाप्त करने लिए एनकाउंटर एक सामान्य कानूनी प्रक्रिया नहीं है। एक बात और एनकाउंटर का मतलब कदापि यह नहीं है कि हर आरोपी को मौत के घाट ही उतार दिया जाए। ‘‘ककड़ी चोर के कान उमेठना ही काफी होता है’’। आरोपी द्वारा सुरक्षाबलों पर बल प्रयोग फिर चाहे गोली चलाई जाए या अन्य किसी तरीके से जान को गंभीर खतरा होने पर ही आत्मरक्षार्थ आरोपी पर गोली चलाई जानी चाहिए। इसका भी एक नियम यह है की गोली सामान्यतः कमर के नीचे मारी जाती है, सिर या छाती में नहीं, जब तक की यह आशंका प्रबल न हो कि यदि आरोपी को तुरंत गोली मारकर मार नहीं गिराया गया, तो उसकी गोली से सुरक्षा बल को हानि हो सकती है। ये सब बातें कानून की किताबों में और न्यायालय के निर्णयों में लिखी और सुनाई जाकर मात्र ‘‘शोभायमान’’ होकर व्यवहार में ‘‘गूलर का फूल’’ हो गयी है। जैसे कि वर्तमान मामले में असद व शूटर गुलाम दोनों को सीने पर गोली लगने के बाद मोटरसाइकिल से गिरने के बावजूद उसके हाथ में पिस्टल थी, यह तथ्य भी संयोग ही कहा जा सकता है?

पिछले कुछ समय से खासकर उत्तर प्रदेश जो देश का ‘‘उत्तम प्रदेश’’ होने के लिए तड़प रहा है, में एनकाउंटर एक विजय रूपी घमंड का सूचक और चिन्ह सा बन गया है। यानी ‘‘ख़ुद ही नाचे, और ख़ुद ही निछावर करे’’। परिणाम स्वरूप योगी सरकार में वर्ष 2017 से अभी तक 183 एनकाउंटर हो चुके हैं। क्या भारतीय आपराधिक कानून में ऐसे दुर्दांत अपराधियों को न्यायालय द्वारा सजा नहीं दिलाई जा सकती है, जो एनकाउंटर करके दी जा रही है? यदि कानून, कानून व्यवस्था, तंत्र इतनी लचर, कमजोर व निष्प्रभावी हो गई है, तो उसमें निश्चित रूप से आमूलचूल परिवर्तन करने की तुरंत आवश्यकता है। ‘‘आंख के बदले आंख’’ ‘‘कान के बदले कान’’ अथवा ‘‘जान के बदले जान’’ दुर्दांत अपराधियों के संबंध में देश की जनता के एक वर्ग को शायद सुहा सकता है, क्योंकि जनता कभी-कभी भावुक हो जाती है। परंतु कानून का आवरण पहनाकर ऐसी सजा की स्वीकृति सभ्य समाज कदापि नहीं दे सकता है। यह लोकतांत्रिक देश भारत है, कट्टरवादी मुस्लिम राष्ट्र नहीं जहां ‘‘शरिया कानून’’ अनुसार सजा दी जाती है। 

एक और तथ्य एनकाउंटर के संबंध में कानूनी रूप से सर्वमान्य है, वह यह की एनकाउंटर प्लांट (पूर्व निर्धारित) कभी नहीं होता है, बल्कि परिस्थितियों वश अचानक, अनचाहे हो जाता है। सिवाय आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में जहां निश्चित रूप से पूर्ण योजनाबद्ध तरीके से उन्हें समाप्त करना होता है, जो देश की सुरक्षा के लिए आवश्यक है। परन्तु वह एनकाउंटर नहीं है।

इस लेख का उद्देश्य और भावना किसी भी दुर्दांत अपराधी के प्रति सहानुभूति बटोरना, पैदा करना कदापि नहीं है। किन्तु मात्र इस आरोप की आशंका से एनकाउंटर के कानूनी-मानवीय पक्ष की अनदेखी कर दी जाए, वह भी उचित नहीं होगा। क्योंकि हम एक सभ्य संस्कृति व संविधान तथा कानून का पालन करने वाले समाज के अभिन्न अंग हैं। पूर्व में हमारे देश के दो-दो प्रधानमंत्रियों की हत्या हो चुकी है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में जाति विशेष का बड़े पैमाने पर नरसंहार हो जाता है। तब भी ऐसे हत्यारों को भारतीय वकील (राम जेठमलानी जैसे प्रतिष्ठित) मिल जाते है, और उन्हें फांसी की सजा नहीं होती है। तब वकील पर प्रश्नचिन्ह नहीं उठाया जाता है क्योंकि वकील का धर्म ही वकालत करना है, ऐसा मानकर संतोष कर लिया जाता है। तब ऐसे गंभीर प्रश्नों को उठाने वालों पर क्यों उंगली उठाई जानी चाहिए? उमेश पाल हत्याकांड के हत्यारों को पारदर्शी कानूनी प्रक्रिया अपनाकर फांसी पर लटका कर या वैधानिक एनकाउंटर कर अपने दायित्व की पूर्ति करने का प्रयास सरकार ने क्यों नहीं किया? बजाए इसके सरकार व पार्टी द्वारा एनकाउंटर करने के पूर्व वैसा वातावरण बनाया जाकर शासन व पार्टी स्तर पर पूर्व में कही गई भविष्यवाणी को वास्तविकता में परिणत कर एनकाउंटर करने के कदम की राजनीतिक माइलेज लेने का प्रयास करना सही नहीं ठहराया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार विरोधी दलों द्वारा घटना की राजनीतिक दृष्टि से आलोचना कर माइलेज लेना भी गलत है। परन्तु राजनीति जो न कराए वह थोड़ा है।

शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

जमानत एक ‘‘अधिकार’’ है अस्वीकार एक ‘‘अपवाद’’ है! कितना ‘‘धरातल’’ पर वास्तविक?

15 अगस्त 1947 को देश के स्वाधीन होने के पश्चात् भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू होकर ‘‘भारतीय गणराज्य’’ बना।

तत्पश्चात् आवश्यकतानुसार समय-समय पर विभिन्न विशिष्ट अपराधों के लिए बहुत से कानून देश में बनते चले आ रहे हैं। परन्तु सामान्यतः समग्र अपराधों के लिए दंडित करने के लिए मुख्य रूप से जो कानून हैं, वह भारतीय दंड संहिता है, जो कानून स्वाधीनता के पूर्व वर्ष 1860 से ब्रिटिश शासन काल से चला आ रहा है। देश के स्वतंत्र होने के बावजूद यही आधिकारिक आपराधिक दंड संहिता है। इसी प्रकार अपराधी को दंड देने के लिए आपराधिक कानूनों के क्रियान्वयन के लिए प्रमुख दांडिक कानून 1881 में दंड प्रक्रिया संहिता बना था। परन्तु स्वतंत्रता के पश्चात् वर्ष 1973 में इसे समाप्त कर हमारी आवश्यकता के अनुरूप नई दंड प्रक्रिया संहिता कानून 1973 बनाया गया। परंतु दुर्भाग्यवश ब्रिटिश समय से चले आ रहे भारतीय दण्ड संहिता 1860 कानून को आज तक निरसन (रिपील) नहीं किया गया। हां आवश्यकतानुसार अनेकानेक संशोधन जरूर होते गये हैं। 

भारतीय दंड संहिता व अन्य दाण्डिक कानूनों में वर्णित अपराधों को दो श्रेणी में रखा जा सकता है। प्रथमतः वे अपराध जहां जमानत थाने से ही मिल जाती है, जिसे जमानतीय अपराध कहा जाता है। तो दूसरी और गैर जमानती अपराध होते हैं, जहां जमानत देने का अधिकार न्यायालय के विवेक पर निर्भर होता है। इसमें अधिकतम सजा देने वाला अपराध की धारा 302 भी शामिल है। इसके अतिरिक्त कुछ गंभीर अपराधों को रोकने के लिए निरोधक अधिनियम राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम 1980 (बाकी निरोधक अधिनियम बनकर बाद में समाप्त (निरसन/रिपील) कर दिए गए) जहां बिना मुकदमा चलाये और बिना जमानत के अधिकार के एक निश्चित समय तक आरोपी व्यक्ति को निवारकध्निरोध (प्रिवेंटिव डिटेंशन) में जेल के अंदर रखने का अधिकार होता है। यद्यपि ‘‘निरोध’’ की समीक्षा लिए एक बोर्ड भी होता है। 

भारतीय उच्चतम न्यायालय ने अनेकोनेक बार निर्णय लिए है, जिसमें जमानत के बाबत बार-बार रेखांकित किया गया है कि जमानत नियम है, जेल एक अपवाद। उच्चतम न्यायालय का यह प्रतिपादित सिद्धांत जो राजस्थान बनाम लालचंद, उर्फ बलिया 1978 में दिया गया है, अधीनस्थ समस्त न्यायालयों सहित ट्रायल (निचली) कोर्ट पर भी बंधनकारी है। परन्तु क्या वास्तव में वर्तमान में जमानत देने के संबंध में अधीनस्थ न्यायालयों का दृष्टिकोण उक्त प्रतिपादित सिद्धांत के अनुरूप रहा है? इस पर गंभीरता से समग्र रूप से विचार करने की आवश्यकता है। यह विचार विमर्श शासन-प्रशासन, विधायिका और न्यायालय के स्तर पर ही नहीं, बल्कि इस पर आम जनता व बुद्धिजीवियों के साथ एक सार्थक चर्चा करने की नितांत आवश्यकता है, जो आज के समय की मांग है। उक्त मुद्दे पर ध्यान दिलाने का तात्कालिक कारण मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी और अभी तक उन्हें जमानत न देने से उत्पन्न हुई है। 

जमानत देने के संबंध में चार-पांच बातों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है जो समय समय पर न्यायालयो ने रेखांकित किए हैं। प्रथम अपराधी साक्ष्यों को धमकाने, डराये नहीं। दूसरा दस्तावेजी साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ न करे। तृतीय पेशी पर उपस्थिति सुनिश्चित हो। चतुर्थ जांच में पूर्ण सहयोग करे और अंतिम उसके देश छोडने की या भागने की संभावना न हो। परन्तु इन महत्वपूर्ण आधारों के अलावा आज कल डिजीटल युग में मीडिया चाहे वह प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक या सोशल मीडिया हो, के हावी हो जाने के कारण जमानत आवेदन पर सुनवाई के समय न्यायालय की कहीं न कहीं प्रभावित होने की आशंका बनी रहती है, क्योंकि न्यायाधीश भी तो एक मानवीय व्यक्ति ही होता है। कुछ मामलों में अपराधी की हैसियत,  जगन जघन्य, नृशंस, घृणित अपराध व अपराध के घृणित व अमानवीय तरीके से क्रियान्वयन से जनमानस के बीच उद्धरित हुई प्रतिक्रिया के कारण जमानत पर छोडने पर परिवार व समाज में उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, इस बात से कहीं न कहीं न्यायाधीश का निर्णय प्रभावित होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है? इस कारण से आरोपी के जमानत के अधिकार पर कहीं न कहीं भावनात्मक व गैरकानूनी अतिक्रमण दोनों हो सकता है। वैसे जमानत पाना अथवा न पाना या निर्दोष या दोषी होने का कोई पैमाना नहीं है।

एक और बात! वर्तमान में जमानत प्रकरणों को लेकर न्यायालय में समयावधि लम्बी होने की है। गिरफ्तार होने के बाद महीने, दो महीने, छः महीने यहां तक कई बार साल भर तक निर्णय में समय व्यतीत होकर जमानत हो पाती है। पुलिस द्वारा 90 दिनों के भीतर (कुछ मामलों में 60 दिनों में) चालान प्रस्तुत होने के बाद जांच प्रक्रिया पूरी हो जाती है। इस प्रकार मुकदमे की सुनवाई (ट्रायल) प्रारंभ हो जाती है। सामान्यतया आरोप (चार्ज) पर बहस व सुनवाई बहुत कम होती है। न ही न्यायालय और न ही वकील इस मुद्दे को गंभीरता से लेते है। अन्यथा कई मुकदमों में इसी स्टेज (अवसर) पर आरोपी डिस्चार्ज (आरोप मुक्त) हो सकता है। दोषमुक्त हो जाने के बाद निर्दोष आरोपी की जमानत न मिलने की अवधि का कारावास गैर-कानूनी व गैर-संवैधानिक हो जाता है। परन्तु इसके उपचार के लिए वर्तमान में हमारे कानून में कोई व्यवस्था नहीं है, जो नागरिक के संवैधानिक अधिकार व मानवाधिकार पर एक रुकावट होकर गंभीर चोट पहुंचाती है। आज भी हमारे समाज में यदि एक दिन के लिए भी व्यक्ति को थाने में बैठा लिया जाए अथवा जेल भेज दिया जाए तो, उसकी समस्त सामाजिक प्रतिष्ठा धूमिल हो जाती है।

जमानत अस्वीकार करते समय क्या न्यायालय को इस बात को भी ध्यान में नहीं रखना चाहिए कि 55-60 प्रतिशत मामलों में सजा न होकर अपराधी दोषमुक्त कर दिये जाते है? इनमें से भी बहुत कम मामलों में संदेह का लाभ देकर अभियुक्तों को दोषमुक्त किया जाता है। जबकि जापान, कनाडा, अमेरिका, इजरायल में सजा की दर क्रमशः 99, 97, 93 व 90 प्रतिशत है। एक सर्वे के अनुसार भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत सजा का औसत 46 प्रतिशत है। मतलब लगभग 54 प्रतिशत गिरफ्तार निर्दोष व्यक्तियों को यदि जमानत नहीं मिलती है, तब बिना अपराध किये उसे उस जुर्म की सजा काटनी होती है, जो अपराध उसने किया ही नहीं है। इसकी प्रामाणिकता न्यायालय का स्वयं का दोषमुक्ति का आदेश होता है। तब ऐसी स्थिति में क्या हमारे संविधान में वर्णित व्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल अधिकार व नागरिकों की स्वतंत्रता पर खतरा नहीं हैं? जिसके कारण से हजारों निर्दोष व्यक्ति जमानत न पाने के कारण जेलों में सड़ेे/पड़े हैं। क्या उनकी स्वाधीनता, स्वतंत्रता को कानूनी प्रक्रिया द्वारा अब गैरकानूनी प्रक्रिया से छीना नहीं जा रहा है? इस पर एक कानूनविद, विशेषज्ञों का आयोग बनाने की आवश्यकता है, जिनमें निम्न प्रमुख चार मुद्दों पर व्यापक विचार विमर्श अवश्य किया जाना चाहिए। 

प्रथम भारतीय दंड संहिता की जगह नया आपराधिक दंड कानून बनाया जाना चाहिए जो देश की वर्तमान परिस्थितियों की मांग के अनुरूप हो। दूसरा भारतीय साक्ष्य अधिनियम में मुकदमे (अभियोजन) की जो प्रक्रिया है, उसमें भी आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। तीसरा पीड़ित परिवार को आरोपी/अभियुक्तों से आवश्यक सुरक्षा मिलनी चाहिए, और पीड़ित का मनोबल अपराधी से लड़ने के लिए बनाये व बढाये रखने के लिए कहीं न कहीं उसे प्रशिक्षित करने की भी आवश्यकता है। चैथा हर्जाना मिलने का प्रावधान होना चाहिए, जिसके भुगतान का दायित्व अभियुक्त के साथ-साथ शासन की भी जिम्मेदारी होना चाहिए। क्योंकि जब कोई अपराध घटित होता है, तो निश्चित रूप से कानून व न्याय व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी प्रशासन की होती है। चरमराती प्रशासनिक व्यवस्था के चलते अपने उत्तरदायित्व व कर्तव्यों के पालन में असफल होने के कारण हुई घटनाओं के लिए प्रशासन भी एक जिम्मेदार हिस्सा है। अतः संबंधित जिम्मेदार अफसर के खिलाफ आपराधिक नहीं तो दीवानी हर्जाना भुगतान देने की कार्रवाई तो होनी ही चाहिए। प्रायः यह देखा जाता है कि जमानत के आवेदन के बाद तुरंत सुनवाई नहीं होती है। ऐसी स्थितियों में सिर्फ जमानत के लिए ही क्या विशिष्ट न्यायालय नहीं बनाई जानी चाहिए जिसका क्षेत्राधिकार सिर्फ जमानत आवेदन पर सुनवाई का ही हो? ठीक उसी प्रकार जैसे चुने हुए जनप्रतिनिधियों के लिए एमपी-एमएलए की कोर्ट त्वरित न्याय के लिए बनाई गई है। ताकि जमानत आवेदन आने पर दिन प्रतिदिन तुरंत सुनवाई हो सके, जिससे शीघ्रताशीघ्र न्याय मिल सके व ‘‘न्याय में देरी न्याय न मिलने के बराबर है’’ की युक्ति को झुठलाया जा सके।

सोमवार, 3 अप्रैल 2023

21वीं सदी के प्रधानमंत्री का पढ़ा लिखा होना आवश्यक है? अरविंद केजरीवाल! पढ़ा लिखा अनपढ़ ‘मूरख’ केजरीवाल?

एक आईआरएस (भारतीय राजस्व सेवा) व पूर्व आयकर कमिश्नर रहे अरविंद केजरीवाल का उक्त प्रश्न ही पढ़ा लिखे होने की नहीं, बल्कि गैर समझदारी होने की निशानी है, जो लगभग अनपढ़ मूर्खों जैसी स्थिति ही है। पढ़ा लिखा होने व समझदार तथा बुद्धिमान होने का मतलब क्या होता है? इस अंतर को समझना होगा। हर पढ़ा लिखा व्यक्ति पोस्ट डिग्री होल्डर, समझदार, बुद्धिमान हो यह जरूरी नहीं है। ठीक इसी प्रकार हर अनपढ़ व्यक्ति गधा, बुद्धिहीन, गैर समझदार हो यह भी आवश्यक नहीं है। निश्चित रूप से आज के युग में 21वीं सदी में शिक्षा का महत्वपूर्ण महत्व है। परंतु इसका कदापि यह मतलब नहीं निकाला जा सकता है कि लोकतांत्रिक संसदीय शासन में अनपढ़ व्यक्ति देश की बागडोर संभाल नहीं सकता है? जिस व्यक्ति को मताधिकार का अधिकार है, सिर्फ उसकी उम्र 18 से 25 वर्ष होने पर वह देश का प्रधानमंत्री बन सकता है। फिर वह चाहे चाय वाला हो या तथाकथित अनपढ़। इस सामान्य से ज्ञान को क्या अपने आप को पढ़ा-लिखा और ज्ञानी मानने वाले केजरीवाल नहीं जानते हैं?
पढ़ा लिखा होने का मतलब सिर्फ स्कूल जाना या कॉलेज जाकर डिग्री प्राप्त करना ही नहीं होता है। हमारी ऐतिहासिक संस्कृति में तो शिक्षा गर्भ में ही प्रारंभ हो जाती है। अभिमन्यु का उदाहरण क्या केजरीवाल भूल गए हैं? आज भी बच्चों का सबसे बड़ा शिक्षक उसके माता-पिता होते हैं। उसके बाद गुरु शिक्षक का नंबर आता है। वैसे प्रधानमंत्री की शिक्षा व डिग्री पर प्रश्न उठाने वाले और दिल्ली की शिक्षा का भारत में नहीं विश्व में बार-बार डंका बजाने वाले केजरीवाल क्या यह भी बताने का कष्ट करेंगे कि लगभग 10 साल से आपका शासन व्यतीत हो जाने के बावजूद आज भी दिल्ली जो देश की राजधानी है, में साक्षरता का प्रतिशत (88%) केरल (96%) की तुलना में कम क्यों है? केजरीवाल समान केरल के मुख्यमंत्री अपनी साक्षरता का ढिंढोरा नहीं पीटते है।
वस्तुतः ‘‘वक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू’’ के सूत्र वाक्य को पकड़ कर चलने वाले केजरीवाल की आदत देश में नए-नए नैरेटिव तय (फिक्स) करने की हो गई है। इसी तारतम्य में उन्होंने यह नया पासा फेंका कि देश के प्रधानमंत्री के पद पर पढ़ा लिखा व्यक्ति ही होना चाहिए और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पढ़े-लिखे नहीं हैं। केजरीवाल इसके पहले यह तय कर ले कि प्रधानमंत्री अनपढ़, कम पढ़े लिखे मंदबुद्धि या उनकी डिग्री और पोस्ट डिग्री, झूठी फर्जी है? केजरीवाल द्वारा सूचना के अधिकार के अंतर्गत प्रधानमंत्री की डिग्री की जानकारी प्राप्त करने के लिए दिए आवेदन पर गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा उन पर लगे रूपये 25000 के जुर्माने के पश्चात केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कुछ कथनों का उल्लेख किया तथा कुछ नीतियों असफल होने की बात कही और उन सब बातों को प्रधानमंत्री की अनपढ़ता से जोड़ दिया। यानी ‘‘यार का गुस्सा भतार के ऊपर’’। बयानवीर केजरीवाल के बयानों व आरोपों की लंबी सूची देखें तो वे स्वयं उन्ही आधारों पर ज्यादा मूर्ख होते दिखते हैं, जिन आधारों पर वे प्रधानमंत्री को दिखाने का असफल प्रयास कर रहे हैं। केजरीवाल यह भूल जाते हैं कि अनुच्छेद 53 के अनुसार भारत संघ की कार्यपालिका की शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है। मतलब संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री अपने मंत्रिमंडल सहयोगियों की सहायता से निर्णय लेकर राष्ट्रपति को लागू करने के लिए भेजते हैं और पूरा शासन देश में राष्ट्रपति के नाम से होता है। तब ऐसी स्थिति में एक व्यक्ति की तथाकथित अनपढ़ता लोकतंत्र में कहां बाधा पैदा कर रही है? वास्तविक धरातल में भी देश में शासन एक व्यक्ति नहीं चलाता है। संपूर्ण विधायिका से लेकर प्रशासनिक तंत्र की सक्रिय भागीदारी से ही शासन-प्रशासन चलता है। अन्यथा एक व्यक्ति के शासन से तो वह मोनार्की हो जाएगा? केजरीवाल के उपरोक्त तर्क नहीं, बल्कि कुतर्क इस बात को सिद्ध नहीं करते हैं की पढ़ा लिखा होना ही आवश्यक नहीं है, बल्कि बुद्धिमान व समझदार होना भी आवश्यक है। जो सिर्फ डिग्री मिलने से नहीं होता है, जैसा कि मैंने ऊपर उल्लेखित किया है। वैसे अनुभव भी एक शिक्षा है।
इस देश में कितने ऐसे राजनेता रहे हैं जो अनपढ़ या कम पढ़े लिखे थे, लेकिन उन्होंने सफलतापूर्वक शासन किया है, और अपना कर्तव्य निभाया है। पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह का उदाहरण सबके सामने है, जो स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाए थे। परंतु पिताजी के कहने पर गुरुमुखी पढ़कर ग्रंथी बन गए थे। इसलिए ज्ञानी कहलाए जो बाद में देश के राष्ट्रपति भी बने। विपरीत इसके ऐसे भी कितने उदाहरण है, जहां बहुत पढ़े-लिखे आईएएस आईआरएस होने के बावजूद बुद्धि का अजीरण होकर बुद्धिमान न होने के कारण देश को नुकसान ही पहुंचाया है। मतलब अपने कर्तव्य का पालन करने में पूरी तरह से असफल रहे हैं। ‘‘आंखों के आगे नाक तो सूझे क्या ख़ाक’’ की श्रृंखला में गिनती में केजरीवाल भी आते हैं। राजनीति में भाग न लेने के लिए बच्चे की कसम खाकर से लेकर दागी सांसदों को संसद से इस्तीफा देकर मुकदमा लड़कर दोषमुक्त होकर पुनः चुनाव लड़कर संसद में आने की पुरजोर मांग करने वाले अन्ना की राजनीतिक पार्टी न बनाने की सलाह को दरकरार कर नई राजनीतिक पार्टी आप का गठन कर राजनीति में आने वाले केजरीवाल ने वही सब न अपनाने वाला कार्य नीति को पूर्ण रूप से अपनाकर अपने में आत्मसात इसलिये कर लिया है कि ‘‘सियासत के लिये रियासत’’ जरूरी है। इसको क्या पढ़ा लिखा होना कहेंगे? या बुद्धिमानी कहेंगे? या समझदारी कहेंगे? या फिर सिर्फ बेवकूफी ही कहलाएगी? बेवकूफी कौन करेगा? अनपढ़ आदमी ही तो करेगा? मतलब पढ़ा लिखा होकर अनपढ़ +मूर्ख!
प्रधानमंत्री की डिग्री जानने का अधिकार प्रत्येक नागरिक को अवश्य है। भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता संबित पात्रा की गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा केजरीवाल रुपये 25000 के जुर्माने के संबंध में की गई पत्रकार वार्ता के जवाब में सांसद संजय सिंह क्या कह गए? ‘‘क्या देश का प्रधानमंत्री फर्जी व झूठी डिग्री लेकर देश पर राज कर सकता है’’? सच कहा है, ‘‘जैसी रूह से फरिश्त’’। इतने बड़े आरोप (गंभीर कितने?) के संबंध में क्या केजरीवाल, संजय सिंह ने प्रथम दृष्टया कोई साक्ष्य प्रस्तुत किया है? ‘‘खाता न बही जो केसरी कहे वही सही’’ (कांग्रेस में जब सीताराम केसरी कोषाध्यक्ष हुआ करते थे, तब यह जुमला बहुत चलता था) उसी तर्ज पर  केजरीवाल के मुखारविंद से निकले शब्द बिना किसी साक्ष्य के अक्षरसः सही है, ऐसा मान लिया जाए? ‘‘मतलब केजरीवाल कहे जो सही बाकी सब बेमतलब’’?
केजरीवाल ने प्रधानमंत्री के अनपढ़ होने का प्रश्न खड़ा कर अनजाने में ही देश की लगभग 140 करोड़ जनसंख्या में से लगभग 100 करोड़ मतदाताओं की संख्या को सीमित कर लगभग 23ः अनपढ़ लोगों का मतदान का अधिकार ही छीन लिया है? एक अनुमान के अनुसार भारत में साक्षरता का प्रतिशत लगभग 73ः है। आखिर देश के अनपढ़ प्रधानमंत्री को चुन कौन रहा है? जब अनपढ़ देश का प्रधानमंत्री नहीं हो सकता है, तो अप्रत्यक्ष रूप से लोकसभा सदस्यों के द्वारा  प्रधानमंत्री को चुनने वाला अनपढ़ वोटर को मतदान का अधिकार कैसे हो सकता है? मतलब यह कि ’’शाह ख़ानमं की आंखें चुंधियाती हैं, शहर के चिराग गुल कर दो’’। एक पढ़े-लिखे बददिमाग अक्ल के अजीरण लिए केजरीवाल की खोपड़ी में इतनी सी बात समझ में नहीं आई तो फिर उसे पढ़ा लिखा अनपढ़ गवार कहना ज्यादा उचित होगा जो अनपढ़ से भी गए बीते हो गए हैं।
भाजपा पर आरोप लगाते समय केजरीवाल, सांसद संजय सिंह यह कहते थकते नहीं है कि भाजपा में जो जितना बड़ा भ्रष्टाचारी है, वह उतना ही बड़ा पदाधिकारी। इसी तर्ज पर आप पर यह आरोप बहुत आसानी से लगाया जा सकता है जो जितना ज्यादा पढ़ा-लिखा, वह उतना ही बड़ा झूठा। केजरीवाल के पढ़े लिखे हो कर अनपढ़ से भी गए बीते होने की एक बानगी जरूर देख लीजिए। साफ स्वच्छ छवि लिए हुए देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर पहली बार किसी नेता केजरीवाल ने व्यक्तिगत रूप से भ्रष्टाचार के आरोप यह कहकर लगाए हैं की अदानी मामले में भ्रष्टाचार मोदी ने किया है, अदाणी तो मात्र मैनेजर है। यह साहस नहीं दुस्साहस है, और दुस्साहस पढ़ा लिखा नहीं अनपढ़ व्यक्ति ही कर सकता है।
मनीष सिसोदिया पर शराब घोटाले के आरोप लगने पर स्कूल नीति का हवाला दे कर जवाब देना कौन से पढ़े-लिखे होने का सबूत है? केजरीवाल द्वारा भ्रष्टाचार में लिप्त अपने मंत्रिमंडल सहयोगियों को जिन्हें अभी तक न्यायालय से जमानत भी नहीं मिली है, सत्यवादी हरिश्चंद्र बतलाना तथा शहीद-ए-आजम भगत सिंह से तुलना करना आईआरएस (भारतीय राजस्व सेवा) की पढ़ाई में  किस विषय में बतलाया गया है? यदि पढ़ने लिखने से केजरीवाल जैसे झूठे और गैर समझदार व गैर जिम्मेदाराना व्यक्तित्व का निर्माण होता है, तो ऐसी पढ़ाई को तौबा। अच्छा है, प्रधानमंत्री मोदी ऐसी पढ़ाई नहीं पढ़ें हैं।
अंत में केजरीवाल क्या यह बतलाने का कष्ट करेंगे कि आप के दो-दो मंत्री जेल में होने के बावजूद आप उनको दागी नहीं मानते हैं। तब मध्य-प्रदेश में विश्व का सबसे बड़ा शिक्षा कांड व्यापमं जैसे घटने, नकल तथा डिग्री खरीदने की लगातार बारंबार घटनाओं को देखते हुए क्या ऐसे लोगों को पढ़ा लिखा कहेंगे? इससे तो हमारे तथाकथित अनपढ़ मोदी ही अच्छे है।

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