शनिवार, 25 जनवरी 2020

साहस दिखाना व सच पर टिके रहना, आज की ‘‘राजनीति’’ में कितना मुश्किल?

देश के पूर्व कानून मंत्री, वरिष्ठ कानून विद, संविधान ज्ञाता व कांग्रेस के प्रमुख नेता कपिल सिब्बल का केरल साहित्य सम्मेलन में यह बयान कि, ‘‘संसद द्वारा पारित ‘‘सीएए’’ के कानून को कोई भी राज्य लागू करने से इंकार नहीं कर सकता है, यह असंवैधानिक होगा’’। उनके ऐसे बयान का स्वागत भी हुआ। लेकिन जैसी आशंका थी, उक्त बयान के कारण कुछ लोगों के द्वारा कांग्रेस पार्टी के घोषित लक्ष्य सेे तथाकथित विपरीत होने व मानने के कारण, एवं विशेष कर इससे सत्तापक्ष को कांग्रेस पर हमला करने का एक हथियार मिल जाने से तथा कांग्रेस की स्थिति असहज़ महसूस होने पर कपिल सिब्बल को पीछे हटना पड़ा/हटाया गया। तत्पश्चात उन्होंने ट्वीट के जरिये यह स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया कि ‘‘सीएए असंवैधानिक है एवं प्रत्येक राज्य की विधानसभा को संसद द्वारा पारित संशोधन के विरूद्ध प्रस्ताव पारित करने का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन उच्चतम न्यायालय द्वारा उसे संवैधानिक करार दिए जाने पर उसका विरोध करना मुश्किल हो जायेगा व उस स्थिति में उनके लिये यह परेशानी का सबब बनेगा’’।  
वस्तुतः पूर्व में कपिल सिब्बल ने जो कुछ कहा था, उसका पार्टी रूख से कुछ भी लेना-देना नहीं था। उन्हांेने मात्र संवैधानिक स्थिति को स्पष्ट किया था, जो सही भी है। लेकिन वरिष्ठ अधिवक्ता होने के अतिरिक्त वे पिछली यूपीए सरकार मंे कानून मंत्री भी रह चुके है, इसलिए उनके बयान को कांग्रेस का ही संस्करण मानकर कांग्रेस के विरोधियों ने उनकी आलोचना की। इसी कारण शायद कांग्रेस को अपने नेता को बैकफुट पर आने के लिये बाध्य करना पड़ा। वैसे सामान्यतया ऐसी स्थिति में पार्टी ऐसे बयानों को नेता का व्यक्तिगत मत बताकर अपना पल्ला झाड़ लेती रही है। 
कपिल सिब्बल ने यद्यपि यह तो कहा कि संवैधानिक रूप से इसका पालन अनिवार्य है, लेकिन साथ ही यह भी कह दिया कि यह संशोधन असंवैधानिक है। वस्तुतः इसे उच्च एवं उच्चतम न्यायालय में 144 याचिकाओं द्वारा चुनौती भी दी गई है। कांग्रेस पार्टी का यह मानना है कि यह (संशोधित) कानून नहीं लाया जाना चाहिए था। एक अधिवक्ता व कांग्रेस नेता दोनों ही रूप में कपिल सिब्बल सही ठहराये जा सकते थे व कांग्रेस के स्टैंड पर भी कोई आँच नहीं आती, यदि वे सिर्फ यहीं तक रूक जाते। लेकिन आगे जाकर उन्होंने विधानसभा द्वारा पारित प्रस्ताव को भी सही वैधानिक ठहरा दिया है, जिससे उनकी वकील वाली दृष्टि गलत सिद्ध हो गई।   
इसके पश्चात कांग्रेस के अन्य दो नेता पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद व हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने भी संसद द्वारा पारित कानून की संवैधानिक बाध्यता का उल्लेख किया है। राजनीति में आज स्पष्टवादिता व सत्य को स्वीकार करने का साहस बिल्कुल गीदड़ भभकी बन कर रह गया है। धारा 302 में फांसी की सजा का प्रावधान है। यदि यही उद्धरण किसी पार्टी नेता द्वारा किसी ऐसे राजनैतिक कार्यकर्ता के संबंध में जिस पर उक्त प्रकार का आरोप है (उसका उल्लेख करके) यदि वह यह कह दे कि आरोपी को फांसी की सजा भी हो सकती है, तो उसका यह बयान उसके विरूद्ध कदापि नहीं माना जाना चाहिए। बल्कि यह मानना ही उचित होगा कि वह मात्र कानून की वास्तविक स्थिति भर को व्यक्त कर रहा है। यही स्थिति कपिल सिब्बल ने भी स्पष्ट करने का प्रयास किया था, जिन्हे बाद में शायद दबाव के कारण पीछे हटना पड़ा। क्या इससे हम यह न समझें कि राजनीति में स्थिति आज इतनी ज्यादा बद से बदतर हो चुकी है?  
कपिल सिब्बल अपने ट्वीट के माध्यम से दिये गये स्पष्टीकरण में एक बात और बिल्कुल गलत कह रहे है कि, विधानसभा को संसद द्वारा पारित कानून के विरूद्ध कानून पारित करने का कानूनन संवैधानिक अधिकार है। साथ ही वे आगे यह भी कहते हैं कि यदि उच्चतम न्यायालय उक्त संशोधित कानून को वैध मानेगें, तब समस्या खड़ी हो जायेगी। इसका मतलब साफ है कि संसद द्वारा पारित किसी भी कानून को केवल उच्चतम न्यायालय में ही चुनौती दी जा सकती है, राज्य की विधानसभाओं में प्रस्ताव पारित करके नहीं। यही हमारा लोकतांत्रिक संसदीय संवैधानिक ढाचा भी हैं। इसलिए विधानसभा में सीएए के विरूद्ध पारित प्रस्ताव मात्र कागजी रहकर राजनैतिक स्टैंड व शिफूगा भर है, वह कानून नहीं माना जा सकता। यही बात कपिल सिब्बल अच्छी तरह से जानते है, तब वे इस बात को सार्वजनिक रूप से क्यों नहीं कह पा रहे है? तथा अपनी पार्टी के विधानसभाओं में सत्ताधीश नेताओं को क्यों नहीं समझा पा रहे है। यहीं पर आकर उनके स्वतंत्र वकील होने के अस्तित्व पर एक प्रश्नचिन्ह तो अवश्य लग जाता है। उनकी यही मजबूरी देश की राजनीति को गर्त में ले जाने की ओर एक और कदम है। 
कोई भी कानून जो प्रारंभ से ही शून्य है, उसे विधानसभा में पारित करने के बावजूद वह कानून नहीं बन सकता है। क्योंकि उसका प्रभाव प्रांरभ से ही शून्य ही रहेगा। इसीलिए विधानसभा द्वारा पारित होने के बावजूद न्यायालय में उसे चुनौती देने की भी आवश्यकता नहीं है। यानी संसद द्वारा पारित कानून के विरूद्ध विधानसभा द्वारा कैसे भी पारित कानून इसी श्रेणी में आता है। अतः विधानसभा मात्र एक कागजी प्रस्ताव ही पारित कर सकेगी, जिसकी कानूनी व संवैधानिक वैधता शून्य होगी। मात्र इस सीमा तक ही विधानसभा का अधिकार है, इससे आगे बिल्कुल भी नहीं। 
कपिल सिब्बल क्या इस तथ्य को स्पष्ट करने का कष्ट करेगंे कि संसद द्वारा पारित कानून के विरूद्ध विधानसभा किस कानूनी प्रावधान के अंतर्गत वैधानिक रूप से कानून पारित कर सकती है, जिसे लागू किया जा सकता है। विधानसभा द्वारा पारित प्रस्ताव संसद द्वारा पारित कानून के विरूद्ध होने के कारण क्या वह शून्य नहीं हो जावेगा? इसलिए यह मानना कि विधानसभा को संवैधानिक रूप से केन्द्र के कानून को वापिस लेने का प्रस्ताव पारित करने का अधिकार है, वार्तालाप हेतु व तकनीकि रूप से तो सही हो सकता है, लेकिन वैधानिक रूप से गलत है। ऐसे प्रस्ताव का वैसा ही असर होगा, जैसे विधानसभा एक प्रस्ताव पारित कर दे कि पाक अधिकृत कश्मीर को भारत में मिलाने के लिए केन्द्रीय सरकार पाकिस्तान पर हमला करें। 
राज्य की विधानसभा इस प्रस्ताव के द्वारा उस कानून के प्रति मात्र अपने विरोध को ही दर्शित कर पा रहे है, इससे ज्यादा इसका कुछ भी प्रभाव नहीं। लेकिन विरोध की यह प्रक्रिया निश्चित रूप से न तो नैतिक है, न कानूनी है, न वैधानिक है और न ही उचित है। राजनैतिक और शासन के स्तर पर इस पर विरोध दर्शाने का अधिकार प्रदेश को है, जो राज्य के लोग कर भी रहे है। लेकिन आप विधानसभा में बहुमत का दुरूपयोग करके लागू न किया जा सकने वाला कानून पारित कर संवैधानिक संकट उत्पन्न करके विधानसभा के विरोध को दर्ज नहीं करा सकते। इसके बजाए उक्त विरोध दर्शाने के लिए मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर पुनर्विचार करने की मांग कर सकते है। अधिकतम विधानसभा में पुनर्विचार का प्रस्ताव पारित कर सकते है। सिब्बल को अपनी पार्टी के मुख्यमंत्रियों को यह बात समझानी होगी। सीएए असंवैधानिक है, यह कहने भर का पूर्ण अधिकार प्रत्येक विरोधी का माना जा सकता है। परन्तु उसका विरोध राजनैतिक रूप से जनता द्वारा व कानूनी रूप से उच्चतम न्यायालय में जाकर ही किया जा सकता है। विधायिका अर्थात राज्यों की विधानसभाओं में कदापि नहीं। इस वस्तुस्थिति को सदैव ध्यान में रखने की गहन आवश्यकता है। 
राजनीति में गिरावट व राज का नीति से हटने का एक बहुत बड़ा कारण सत्य की अस्वीकारिता ही है। व्यक्ति एवं जो पार्टी, संस्था, सत्य को जितना स्वीकारेगा वह उतना ही सफल हो पायेगा, क्योकि सच (सत्य) बहुत ही कड़वा होता है, ऐसा कहा जाता है। सत्य का यही कड़वा तत्व आपके व्यक्तित्व पर दाग लगाता है, को दूर करने के लिये आपको मीठा तत्व अर्थात अच्छा (सद्) प्रयास करने होगें, तभी तो आपके व्यक्तित्व का सही विकास होगा, समाज, पार्टी, व अंततः देश का विकास हो सकेगा। इसीलिए कपिल जी देश हित में अपेक्षा है आगे आप राजनीति में सच (सत्य) को स्वीकार करने व लागू करने का साहस भी प्रदर्शित करेगें।      

बुधवार, 8 जनवरी 2020

थल सेना अध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने आखिर गलत क्या कहा!

विगत दिवस थल सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने एक इवेंट के दौरान सीएए के विरोध में हुये प्रदर्शन के बीच देश में हुई हिंसा की आलोचना की थी, जिस पर सियासी भूचाल आ गया। उन्होंने कहा ‘‘नेता वे नहीं हैं, जो गलत दिशा में लोगों का नेतृत्व करते हैं....जैसा कि हम लोग गवाह रहे हैं कि, बड़ी संख्या में विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के छा़त्रों ने शहरों और कस्बों में आगजनी और हिंसा करने के लिए जन और भीड़ की अगुवाई कर रहे हैं, यह नेतृत्व नहीं हैं’’।
वर्ष 1947 के विभाजन के पूर्व का भारत का वह भाग जो आज पाकिस्तान कहलाता है,  हमारा पड़ोसी देश है। लोकतांत्रिक भारत से अलग हुये भाग पाकिस्तान में तो सैनिक शासन को भी जनता स्वीकार कर लेती है और सैनिक तानाशाह बाद में चुनाव में भाग लेकर स्वयं को लोकतांत्रिक भी सिद्ध कर लेते हैं। लेकिन विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में सेना प्रमुख  युद्ध के अलावा यदि देश की अन्य किसी भी समस्या(ओं) पर अपने विचार व्यक्त करते हैं, तो सामान्यतया खासकर राजनीतिक क्षेत्रों में उसे उस सीमा तक स्वीकार नहीं किया जाता है, जिस सीमा तक वे बयान/कथन उन राजनीतिक क्षेत्रों में कार्य करने वालो के प्रति अनुकूल नहीं (खिलाफ में) माने जा सकते हैं। अर्थात उनका बयान यदि किन्ही राजनीति दलों को सूट (सुहाता) करता है तो, वे उक्त बयान को सही ठहराकर अपने पक्ष में वातावरण बनाने का प्रयास करते है। जबकि विरोधी पक्ष उस बयान के कारण खुद को अपने आप को स्वयं ही कठघरे में खड़ा महसूस करने के कारण वे उक्त बयान की आलोचना करने लगते है। सेना प्रमुख ने ऐसा क्या विशेष कह दिया जिसके कारण विपक्षी दलों को साँप सूँघ गया व जो सत्तापक्ष को सुगंघ (अनुकूलता) दे गया?
सेना का कार्य सिर्फ देश की सीमा की सुरक्षा करना व दुश्मनों से युद्ध का सामना करना भर ही नहीं हैं, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर आंतरिक सुरक्षा व शांति को बनाये रखना भी उनका कर्त्तव्य व दायित्व है, जिसे वे अभी तक बखूबी निभाते आ रहे हैं। देश में शांति बनाये रखने के लिये जब पुलिस, अर्द्धसैनिक बल, जैसे सीआरपीएफ इत्यादि फोर्स असफल हो जाते है तब, देश में तूफान, बाढ,़ सूखा इत्यादि व अचानक उत्पन्न आये संकट की स्थिति में सेना अपना सब कुछ लगा कर व जान पर खेलकर भी स्थिति का सफलता पूर्वक सामना करके उसे सामान्य कर अपना कर्तव्य निभाती है। विगत कुछ दिनों से सीएए बिल एवं एनपीआर को लेकर देश में कई जगह आंदोलन चल रहे हैं। कुछ जगह आंदोलन हिंसात्मक रहे हैं व आगजनी की घटनाएं भी हुई है। इस कारण मात्र उत्तर प्रदेश में ही 18 जाने जा चुकी है व देश की अन्य जगहों में भी कुछ और मौते हुई है। हिंसा का तांडव रोकने के लिए स्थिति से निपटने के लिये नागरिकांे की जान माल की सुरक्षा के खातिर सेना को कई बार अपने सैनिकों को भी खोना पड़ा है। देश की सीमा की सुरक्षा के खातिर लड़ते हुये या युद्ध में मृत्यु होने पर वे शहीद कहलाते है। लेकिन देश के भीतर आंतरिक शांति बनाये रखने के लिए जब वे अपना सब कुछ देश पर कुर्बान कर जान दे देते है, तब सामान्यतः उन्हे शहीद का दर्जा नहीं मिलता है। सेना प्रमुख ने अपने बयान में क्या इसी व्यथा को ही तो व्यक्त नहीं किया? क्योंकि गृह हिंसा रोकने में भी कई बार सेना को जवानों को खोना पड़ता है। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में हिंसा की प्रतिक्रिया में प्रति-हिंसा से भी इंकार नहीं किया जा सकता हैं।
उक्त बयान किसी भी प्रकार से न तो किसी के खिलाफ है और न ही समर्थन में है, बल्कि यर्थाथ वस्तुस्थिति को (अपनी सीमाओं में रहकर) मात्र इंगित भर करता है। सेना प्रमुख ने उक्त बयान देकर कोई राजनीति नहीं की है, जैसा कि उनकी आलोचना में कहा जा रहा है। राजनीति तो वास्तव में वे दल ही कर रहे है, जो हिंसा को बढ़ावा दे रहे है। एक ओर समस्त राजनैतिक दल एक सिरे से आंदोलन में हिंसा की गहन आलोचना करते नहीं थकते है व उसे पूर्णतः गलत ठहराते है। लेकिन उक्त मौखिक आलोचना मात्र पेपर पर सिंद्धान्त के रूप में ही रह जाती है, कार्यप्रणाली में नहीं दिखती है। जब जनरल ने हिंसा की आलोचना की किसी व्यक्ति, दल या नेता या राजनैतिक मंशा या कार्यक्रम का उल्लेख किये बिना ही की है तो, फिर उनके बयान की आलोचना करने वालो के प्रति क्या यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि, चंूकि वे लोग हिंसा में लिप्त है, इसलिए जनरल द्वारा की गई आलोचना को वे इसे स्वयं के विरूद्ध मानकर उससे छुब्ध होकर उनके बयान की आलोचना की  तथा ‘जनरल’ को राजनीति न करने की सलाह तक दे डाली है। हिंसा के विरूद्ध बयान देने वालों व उसकी तथाकथित कड़ी निंदा करने वालों दलों के लिये जनरल द्वारा हिंसा की गई आलोचना उनके द्वारा राजनीति कैसे हो सकती है। यदि वह राजनीति है तो, निश्चित रूप से वे दल व व्यक्ति भी हिंसा की राजनीति करने के लिये जिम्मेदार माने जायेगें, क्योंकि वे स्वयं भी चिल्ला चिल्लाकर आंदोलन में हुई हिंसा की आ
लोचना ही कर रहे हैं।
पूर्व गृहमंत्री पी. चिंदबरम का सेना प्रमुख के उक्त बयान पर यह पलटवार किया कि ‘‘आप आर्मी के मुखिया है और अपने काम से काम रखिये ....जो नेताओं को करना है, वह नेता ही करेगें, यह आर्मी का काम नहीं है कि वे नेताओं से कहे कि हमें क्या न करना चाहिए’’, एक बहुत ही बचकाना पूर्ण बयान है। इससे तो यही झलकता है कि चिंदबरम की कांग्रेस पार्टी भी हिंसा में लगी थी, क्योंकि वह हिंसा की आलोचना करनेे वाले जनरल के बयान को अपने विरूद्ध ले रही है। चिंदबरम के शब्दों में कि उक्त बयान सेना प्रमुख के क्षेत्राधिकार से परे है, जो सरासर गलत है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम येचुरी तो एक कदम आगे जाकर कह गये कि यह सशस्त्र बलों में हो रहा राजनीतिकरण हैं। वास्तव में हिंसा की आलोचना करने वाले बयान की आलोचना करने का मतलब साफ है कि, उन आलोचकगणों का कहीं न कहीं संबंध हिंसा से रहा है जिस पर जनरल साहब ने उंगली उठाई है, जिससे वे तिलमिला उठे है। यह बयान के आने का समय पर अवश्य कुछ लोगों को शंका/कुंशका हो सकती है, क्योंकि इसके तीन बाद ही उन्हे चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ बना दिया गया है। हालाकि उक्त पद पर उनका नाम इस बयान के पूर्व से ही काफी गंभीर रूप से चर्चित था।

मोहन भागवत का 130 करोड़ लोगों को हिन्दू मानने वाला बयान।

संघ की स्थापना से लेकर अभी तक तथाकथित हिन्दू कट्टरवाद का करारा जवाब
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने तेलंगाना (हैदराबाद) में आरएसएस स्वयं- सेवकों के तीन दिवसीय विजय संकल्प शिविर में एक बड़ा बयान यह दिया है कि, संघ की नजर में भारत में पैदा होने वाला भारत माँ का प्रत्येक व्यक्ति हिन्दु है, फिर चाहे उसकी संस्कृति या धर्म कोई भी हो या वह किसी भी तरह की पूजा में विश्वास न रखता हो। भारत माता की समस्त संतान जो राष्ट्रवादी भावना रखते हैं, भारत की संस्कृति व विरासत का सम्मान करते हैं, हिन्दु समाज है। अर्थात भारत की 130 करोड़ की पूरी आबादी हिन्दु है। जन, जल, जंगल, जमीन, जानवर से प्यार करने वाले व सभी का कल्याण करने वाली श्रेष्ठ संस्कृति का आचरण करने वाले सभी हिन्दू हैं। 
अभी तक कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगते रहे हैं और भाजपा व संघ पर हिन्दू तुुष्टिकरण का आरोप लगाया जाकर उनको साम्प्रदायिक बताया जाता रहा है। संघ के इतिहास में यह एक ऐतिहासिक क्षण आया है, जब संघ प्रमुख ने तथाकथित साम्प्रदायिकता और हिन्दुत्व के आधार पर संघ की आलोचना करने वालो को एक बड़ा करारा जवाब दिया है। अभी तक संघ को हिन्दुआंे का संगठन व भाजपा को मुख्य रूप से हिन्दुआंे की पार्टी माना ंजाता रहा है। इन पर आरोप यही लगते रहे है कि वे समस्त हिन्दु-मुस्लिमों को धर्म के आधार पर बाँट- बाँट कर साम्प्रदायिक तुुष्टिकरण करके वोट की राजनीति कर रहे हैं। 
अब इस देश में पैदा होने वाले 130 करोड़ लोगांे को पैदाईश के आधार पर हिन्दू मान लिया गया है, जिसमें मुस्लिम पैदाईश व्यक्ति भी शामिल है। देश में कुछ शेष भारत के बाहर पैदा हुये व्यक्ति बचे जाते हैं, जिन्होंने शरनागत रूप से भारत में आकर नागरिकता प्राप्त की है या आकर नागरिकता प्राप्त करना चाहते है, उन्हीं सबके लिए सीएए लाया गया है। तब इस देश का कौन सा ऐसा नागरिक रह गया है जिसे संघ अपना नहीं मानता है। इस एक मान्यता से तुष्टिकरण की राजनीति चलाने वाले खासकर मुसलमानों को बरगलाने की राजनीति चलाने वाले नेताआंे और दलों की हवा ही खिसक गई है। क्यांेकि अभी तक जिस मुददे पर वे संघ के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं, उसे संघ प्रमुख ने एक झटके में आईना के समान स्वच्छ व साफ कर दिया है। समस्त नागरिकांे को एक ही र्दृिष्ट (भारत माता के पुत्र) से देखने वाला संघ, अब देश का एकमात्र सबसे बड़ा संगठन हो गया है। इस गहन सोच का व्यापक रूप से देशहित में स्वागत किया जाना चाहिए। क्योंकि पक्षपाती आलोचक तो आज भी आलोचना से बाज नही आएंगे, लेकिन एक कहावत का भी ध्यान रखिए, ‘‘आलोचकों का कभी भी स्मारक नहीं बनता है,’’। इस कथन ने सरकार की सीएए पर होने वाली समस्त आलोचनाआंे को भी खारिज करने का एक बडा हथियार भाजपा को दे दिया है। अब आशा की जानी चाहिए, कम से कम भविष्य में धर्म के आधार पर राजनीतिक दल राजनीति न कर सिध्दांतो व मुददो को लेकर यदि राजनीति करेंगंे, तो निश्चित रूप से सर्वसाधारण जनता का यर्थाथ कल्याण कर सकेंगें।

मात्र ‘‘धार्मिक’’ शब्द प्रतिः स्थापितकर देशव्यापी आंदोलन की हवा क्यों नहीं निकाल दी जाती है?

यद्यपि सीएए बिल संसद में पारित होकर अधिनियम बन गया है, परन्तु उसे लागू करने के नियम अभी तक नहीं बनंे हैं। केन्द्रीय सरकार ने उस पर जनता से सुझाव भी मांगे है। इसके बावजूद देश के विभिन्न भागांे में उक्त कानून के विरोध व कुछ जगह समर्थन में आंदोलन प्रर्दशन चल रहे हैं। जानमाल की हानि हो रही है। सरकारी-गैर-सरकारी सम्पत्तियों को जलाया जा रहा है। देश के विकास व स्वास्थ्य के लिये यह बिलकुल भी ठीक नहीं है।
भारतीय जनता पार्टी ने तो मानवीय सहानुभूति का तत्व लिये पीडि़त मानवता को सहयोग देने के दृष्टि भाव से पीडि़त वर्गो को सहलाने के लिये देश में नागरिकता संशोधन अधिनियम लागू किया है। लेकिन इससे पिछले एक सप्ताह से देश में अंसतोष की जो ज्वाला फैली है व फैलायी जा रही है, उससे एक बड़ी चिंता उत्पन्न हुई है। लोकसभा में बिल प्रस्तुत करते समय गृहमंत्री अमित शाह ने स्पष्ट रूप से यह कहा था कि, अफगानिस्तान, बंग्लादेश व पाकिस्तान, के हिन्दु, सिख, जैन, ईसाई, बौद्ध, पारसी अल्पसंख्यक लोग जो धार्मिक रूप से पीडि़त है, उनको यह संशोधन अधिनियम संरक्षण प्रदान करेगा। साथ ही उन्होंने आगे यह भी कहा कि, चूंकि उन तीनो देशो के राष्ट्रीय धर्म मुस्लिम (इस्लाम) है, जहाँ ‘‘मुसलमान’’ अल्पसंख्यक नहीं, बल्कि बहुसंख्यक है, वहाँ उनकी किसी भी प्रकार धार्मिक रूप से प्रताडि़त होने की संभावना नहीं के बराबर है। इसलिये वे पीडि़त नहीं हो सकते है। अतः उन्हे उक्त संशोधित कानून की सहारे की आवश्यकता नहीं है। कहीं भी ज्यादातर अल्पंसख्यक लोग ही पीडि़त होते है। 
यद्यपि भारत धर्मनिरपेक्ष देश है, जिसका कोई राष्ट्रीय धर्म नहीं है। लेकिन हिन्दू बहुसंख्यक होने के नाते सारी दुनिया वाले उसे हिन्दू धर्म बहुसंख्यक मानते है और इसी कारण से मुस्लिम (इस्लाम) धर्म को मानने वाले मुसलमानों को उक्त संशोधन अधिनियम से बाहर रखने के कारण  स्वयं को वे निशाने पर मानने से, उनमे अनावश्यक रूप से कुछ स्वाभाविक ड़र व भय पैदा हो गया है, व कुछ पैदा कर दिया गया है। इस तथ्य के बावजूद कि, प्रधानमंत्री व गृहमंत्री द्वारा बार-बार नागरिकों को विशिष्ट रूप से मुस्लिमों को यह आश्वासित किया जा रहा है कि, यह अधिनियम नागरिकता देने का है, न की किसी की भी नागरिकता छीनने का। फिर भी ऐसा उत्पन्न ड़र समाप्त नहीं हो पा रहा है। इसलिये मैं विश्वास पूर्वक कह सकता हूं कि, मात्र एक शब्द के द्वारा उक्त समस्या की तीव्रता को कम व अल्पतर किया जा सकता है। गृहमंत्री यदि उक्त संशोधित कानून में एक संशोधन लाकर विभिन्न धर्मो हिन्दु, सिख ईसाई, जैन, पारसी के उल्लेख की जगह केवल एक शब्द ‘‘धार्मिक’’ अत्याचार का उल्लेख कर कर प्रति स्थापित कर दे, तो इस तरह उक्त ‘‘धार्मिक’’ शब्द में समस्त धर्म के लोग शामिल/समाहित हो जायेगें, जिसमें मुस्लिम भी होगें। इस प्रकार इस संशोधन से किसी भी प्रकार का धार्मिक विभेद नहीं दिखेगा व धार्मिक शब्द धार्मिक आधार पर भेदभाव न करने की संविधान की मूलभूत भावना की रक्षा ही करेगा। चूंकि गृहमंत्री के स्वयं के शब्दों में मुस्लिम देशों में इस्लाम धर्म होने के कारण उनके बहुसंख्यक होने से वे धार्मिक रूप से कदापि उत्पीडि़त नहीं हो सकते हैं। इसलिये वे लोग प्रस्तावित इस संशोधन बिल के बावजूद निश्चित रूप से भारत सरकार के पास शरण लेने नहीं आयेगंे। इस तरह गृहमंत्री का बिल पारित करने का उद्देश्य भी व्यर्थ नहीं होगा। अर्थात ‘‘सांप भी मर जाए लाठी भी नहीं टूटे’’ की कहावत को वे क्यों नहीं वे चरितार्थ करते है? कम से कम आंदोलन में सम्मिलित मुस्लिम समाज की भागीदारी को जिस कारण से हवा दी जा रही है, वह उक्त संशोधन करने पर स्वयं ही दूर हो जावेगी। तब उनका अवरोध करने का कानूनी व नैतिक बल भी समाप्त हो जायेगा। 
सीएबी, सीएए, एनआरसी, अब एनपीआर तथा जनगणना (सैंसस) षब्दों के जाल पिछले कुछ दिनों से लोगो के दिल दिमागों पर लगातार हथोड़े की तरह बरस रहे है। इस पर कभी और बहस कर लेगंे। 
लेकिन अभी दो तथ्यों को स्पष्ट करना जरूरी है। एक प्रधानमंत्री का यह कथन कि एनआरसी पर 2014 के बाद हमारी सरकार ने कभी कोई चर्चा ही नहीं की जो न केवल आश्चर्यमिश्रित कथन है, बल्कि तथ्यों के विपरीत भी है। संसद में नौ बार भाजपा सरकार द्वारा इस शब्द का उल्लेख विभिन्न संदर्भ-अवसरों पर किया गया था। सीएबी संसद में प्रस्तुत करते समय गृहमंत्री ने स्पष्ट रूप से एनसीआर का उल्लेख करते हुये यह कहा था कि सीएबी व एनआरसी दो पृथक पृथक बातें है। हम अभी एनआरसी नहीं ला रहे हैं। लेकिन आप यह मानकर चलिये कि सरकार संसद में चर्चा के उपरांत 2024 के पूर्व पूरे देश में एनआरसी लागू करेगी। रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने भी ऐसा ही बयान संसद के बाहर दिया था। क्या गृहमंत्री सरकार के भाग नहीं है? निर्णय न होना व चर्चा न होने में बहुत अंतर है। प्रधानमंत्री ने निर्णय की नहीं बल्कि चर्चा ही न होने की बात कही थी। 
दूसरी बात अब एनपीआर को भी एनआरसी के समान ही सीएए से पृथक बतलाया जा रहा है। केन्द्रीय केबीनेट द्वारा एनपीआर लागू करने के निर्णय लेने के बाद जब यह प्रश्न किया गया कि फिर एनपीआर को असम में क्यों नहीं लागू किया जा रहा है? तब भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ताओं गौरव भाटिया सहित ने यह स्पष्टीकरण दिया कि, उच्चतम न्यायालय के निर्देर्शो के अनुसार, असम में एनआरसी की कार्यवाही की गई है। अतः वहाँ पर एनपीआर अभी लागू नहीं होगी। जब वे दोनो मुद्दे पृथक-पृथक स्वतंत्र है, तब एनपीआर वहाँ लागू न करना स्पष्टतः भाजपा के उक्त स्टैड़ के विपरीत है, जब वह यह कहती है कि ये दोनों बाते पृथक-पृथक है। क्योंकि उच्चतम न्यायालय में तो एनपीआर का मामला ही नहीं है। उच्चतम न्यायालय मे यह मामला तभी माना जायेगा जब एनपीआर व एनआरसी को एक सिक्के के दो पहलू माने जावें। इसलिये असम में एनपीआर के लागू न करने की बात के लिए उच्चतम न्यायलय की कार्यवाही का सहारा लेना तथ्यों के बिलकुल विपरीत है। बल्कि इससे तो यही प्रतीत होता है कि एनपीआर के आगे की स्थिति ही एनआरसी है। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण प्रष्न यह हैं तथा यह समझ से भी परे है, कि एनपीआर, एनआरसी व सीसीए पृथक-पृथक है या एक ही लिंक के भाग है, इस पर समस्त पक्षों द्वारा विवाद क्यों बनाया जा रहा है। वास्तव में भाजपा नेताओं की उक्त मुद्दे को अप्रभावी रूप से व गलत तरीकों तर्को से बचाव (रक्षा) करने के कारण ही अनावष्यक रूप से देश में भ्रम व उलझन की स्थिति पैदा हो गई हैं, जो यर्थाथ सत्य से परे है।
एक बात और समझ से परे है, जब देष में 1955 से नागरिकता अधिनियम लागू है, जिसके तहत शरणार्थियांे को नागरिकता प्रदान की जाती रही हैं। स्वयं गृहमंत्री का लोकसभा में यह कथन है कि, पिछले पांच सालो में लगभग 860 लोगों को नागरिकता पुराने कानून के तहत ही प्रदान की गई है। तब आज उक्त संषोेधित कानून की आवष्यकता क्यों पड़ी ? क्यांेंकि इस संशोधन से शरणार्थीयों के अधिकार मेें कानूनन् या तथ्यात्मक स्थिति में कोई अंतर नहीं आता है। आज भी संषोधित कानून में मुस्लिम धर्माम्वलियांे को छोड़ देने के बावजूद यदि भारत सरकार के पास कोई मुस्लिम पीडि़त नागरिकता के लिए आवेदन देता है तो, भारत सरकार को उक्त आवेदन पर विचार करने का अधिकार है व उसे नागरिकता प्रदान की जा सकती है। फिर समस्त पक्षों द्वारा इतना सब बवंडर देश में क्यों पैदा किया जा रहा है, प्रश्न यही हैं? 
एक ओर बात जब हम घुसपेठियों को इस आधार पर देश से बाहर निकालना चाहते है कि वे हमारे देश के नागरिकों के हक छीन रहे हैं, (जबकि वास्तव में तो हमें उन्हे इस आधार के बिना भी मात्र घुसपेठिया होने के कारण ही निकाल देना चाहिए) तब इन नये नवेले लाखों/करोड़ो व्यक्तियों को (जिनके आकड़े केन्द्रीय शासन ने दिये है) (पीडि़तों) किन-किन नागरिकों के अधिकारों को काटकर नागरिकता प्रदान की जायेगी? इसका जवाब नहीं है। क्या पाकिस्तान, बंग्लादेश व अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों को धार्मिक अत्याचार (रिलीजियन पर्सीक्यूशन) के आधार पर भारत सरकार उनके द्वारा नागरिकता मांगने पर उन्हे (पुराने कानून के अंतर्गत) नागरिकता नहीं प्रदान कर सकती है? इसका स्पष्टीकरण भारत सरकार को देना चाहिये।
असम-महाराष्ट्र से लेकर देश के विभिन्न प्रदेशों में अपनी-अपनी अस्मिता संस्कृति के अस्तित्व को लेकर (जैसे असम में असमिया संस्कृति को लेकर चिंता है) उन नये नवेले नागरिकांे को इन प्रदेशों द्वारा स्वीकार न करने की स्थिति में क्या नया बखेड़ा पैदा नहीं हो जायेगा? इस पर भी गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। सरकार को यह भी बतलाना चाहिए कि उसके पास उपरोक्त तीनों देशों के धार्मिक रूप से पीडि़त कितने व्यक्तियों के नागरिकता प्राप्त करने के लिये आवेदन लम्बित है। जिस कारण से उसे सीएए लाना पड़ा।

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