बुधवार, 8 जनवरी 2020

मात्र ‘‘धार्मिक’’ शब्द प्रतिः स्थापितकर देशव्यापी आंदोलन की हवा क्यों नहीं निकाल दी जाती है?

यद्यपि सीएए बिल संसद में पारित होकर अधिनियम बन गया है, परन्तु उसे लागू करने के नियम अभी तक नहीं बनंे हैं। केन्द्रीय सरकार ने उस पर जनता से सुझाव भी मांगे है। इसके बावजूद देश के विभिन्न भागांे में उक्त कानून के विरोध व कुछ जगह समर्थन में आंदोलन प्रर्दशन चल रहे हैं। जानमाल की हानि हो रही है। सरकारी-गैर-सरकारी सम्पत्तियों को जलाया जा रहा है। देश के विकास व स्वास्थ्य के लिये यह बिलकुल भी ठीक नहीं है।
भारतीय जनता पार्टी ने तो मानवीय सहानुभूति का तत्व लिये पीडि़त मानवता को सहयोग देने के दृष्टि भाव से पीडि़त वर्गो को सहलाने के लिये देश में नागरिकता संशोधन अधिनियम लागू किया है। लेकिन इससे पिछले एक सप्ताह से देश में अंसतोष की जो ज्वाला फैली है व फैलायी जा रही है, उससे एक बड़ी चिंता उत्पन्न हुई है। लोकसभा में बिल प्रस्तुत करते समय गृहमंत्री अमित शाह ने स्पष्ट रूप से यह कहा था कि, अफगानिस्तान, बंग्लादेश व पाकिस्तान, के हिन्दु, सिख, जैन, ईसाई, बौद्ध, पारसी अल्पसंख्यक लोग जो धार्मिक रूप से पीडि़त है, उनको यह संशोधन अधिनियम संरक्षण प्रदान करेगा। साथ ही उन्होंने आगे यह भी कहा कि, चूंकि उन तीनो देशो के राष्ट्रीय धर्म मुस्लिम (इस्लाम) है, जहाँ ‘‘मुसलमान’’ अल्पसंख्यक नहीं, बल्कि बहुसंख्यक है, वहाँ उनकी किसी भी प्रकार धार्मिक रूप से प्रताडि़त होने की संभावना नहीं के बराबर है। इसलिये वे पीडि़त नहीं हो सकते है। अतः उन्हे उक्त संशोधित कानून की सहारे की आवश्यकता नहीं है। कहीं भी ज्यादातर अल्पंसख्यक लोग ही पीडि़त होते है। 
यद्यपि भारत धर्मनिरपेक्ष देश है, जिसका कोई राष्ट्रीय धर्म नहीं है। लेकिन हिन्दू बहुसंख्यक होने के नाते सारी दुनिया वाले उसे हिन्दू धर्म बहुसंख्यक मानते है और इसी कारण से मुस्लिम (इस्लाम) धर्म को मानने वाले मुसलमानों को उक्त संशोधन अधिनियम से बाहर रखने के कारण  स्वयं को वे निशाने पर मानने से, उनमे अनावश्यक रूप से कुछ स्वाभाविक ड़र व भय पैदा हो गया है, व कुछ पैदा कर दिया गया है। इस तथ्य के बावजूद कि, प्रधानमंत्री व गृहमंत्री द्वारा बार-बार नागरिकों को विशिष्ट रूप से मुस्लिमों को यह आश्वासित किया जा रहा है कि, यह अधिनियम नागरिकता देने का है, न की किसी की भी नागरिकता छीनने का। फिर भी ऐसा उत्पन्न ड़र समाप्त नहीं हो पा रहा है। इसलिये मैं विश्वास पूर्वक कह सकता हूं कि, मात्र एक शब्द के द्वारा उक्त समस्या की तीव्रता को कम व अल्पतर किया जा सकता है। गृहमंत्री यदि उक्त संशोधित कानून में एक संशोधन लाकर विभिन्न धर्मो हिन्दु, सिख ईसाई, जैन, पारसी के उल्लेख की जगह केवल एक शब्द ‘‘धार्मिक’’ अत्याचार का उल्लेख कर कर प्रति स्थापित कर दे, तो इस तरह उक्त ‘‘धार्मिक’’ शब्द में समस्त धर्म के लोग शामिल/समाहित हो जायेगें, जिसमें मुस्लिम भी होगें। इस प्रकार इस संशोधन से किसी भी प्रकार का धार्मिक विभेद नहीं दिखेगा व धार्मिक शब्द धार्मिक आधार पर भेदभाव न करने की संविधान की मूलभूत भावना की रक्षा ही करेगा। चूंकि गृहमंत्री के स्वयं के शब्दों में मुस्लिम देशों में इस्लाम धर्म होने के कारण उनके बहुसंख्यक होने से वे धार्मिक रूप से कदापि उत्पीडि़त नहीं हो सकते हैं। इसलिये वे लोग प्रस्तावित इस संशोधन बिल के बावजूद निश्चित रूप से भारत सरकार के पास शरण लेने नहीं आयेगंे। इस तरह गृहमंत्री का बिल पारित करने का उद्देश्य भी व्यर्थ नहीं होगा। अर्थात ‘‘सांप भी मर जाए लाठी भी नहीं टूटे’’ की कहावत को वे क्यों नहीं वे चरितार्थ करते है? कम से कम आंदोलन में सम्मिलित मुस्लिम समाज की भागीदारी को जिस कारण से हवा दी जा रही है, वह उक्त संशोधन करने पर स्वयं ही दूर हो जावेगी। तब उनका अवरोध करने का कानूनी व नैतिक बल भी समाप्त हो जायेगा। 
सीएबी, सीएए, एनआरसी, अब एनपीआर तथा जनगणना (सैंसस) षब्दों के जाल पिछले कुछ दिनों से लोगो के दिल दिमागों पर लगातार हथोड़े की तरह बरस रहे है। इस पर कभी और बहस कर लेगंे। 
लेकिन अभी दो तथ्यों को स्पष्ट करना जरूरी है। एक प्रधानमंत्री का यह कथन कि एनआरसी पर 2014 के बाद हमारी सरकार ने कभी कोई चर्चा ही नहीं की जो न केवल आश्चर्यमिश्रित कथन है, बल्कि तथ्यों के विपरीत भी है। संसद में नौ बार भाजपा सरकार द्वारा इस शब्द का उल्लेख विभिन्न संदर्भ-अवसरों पर किया गया था। सीएबी संसद में प्रस्तुत करते समय गृहमंत्री ने स्पष्ट रूप से एनसीआर का उल्लेख करते हुये यह कहा था कि सीएबी व एनआरसी दो पृथक पृथक बातें है। हम अभी एनआरसी नहीं ला रहे हैं। लेकिन आप यह मानकर चलिये कि सरकार संसद में चर्चा के उपरांत 2024 के पूर्व पूरे देश में एनआरसी लागू करेगी। रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने भी ऐसा ही बयान संसद के बाहर दिया था। क्या गृहमंत्री सरकार के भाग नहीं है? निर्णय न होना व चर्चा न होने में बहुत अंतर है। प्रधानमंत्री ने निर्णय की नहीं बल्कि चर्चा ही न होने की बात कही थी। 
दूसरी बात अब एनपीआर को भी एनआरसी के समान ही सीएए से पृथक बतलाया जा रहा है। केन्द्रीय केबीनेट द्वारा एनपीआर लागू करने के निर्णय लेने के बाद जब यह प्रश्न किया गया कि फिर एनपीआर को असम में क्यों नहीं लागू किया जा रहा है? तब भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ताओं गौरव भाटिया सहित ने यह स्पष्टीकरण दिया कि, उच्चतम न्यायालय के निर्देर्शो के अनुसार, असम में एनआरसी की कार्यवाही की गई है। अतः वहाँ पर एनपीआर अभी लागू नहीं होगी। जब वे दोनो मुद्दे पृथक-पृथक स्वतंत्र है, तब एनपीआर वहाँ लागू न करना स्पष्टतः भाजपा के उक्त स्टैड़ के विपरीत है, जब वह यह कहती है कि ये दोनों बाते पृथक-पृथक है। क्योंकि उच्चतम न्यायालय में तो एनपीआर का मामला ही नहीं है। उच्चतम न्यायालय मे यह मामला तभी माना जायेगा जब एनपीआर व एनआरसी को एक सिक्के के दो पहलू माने जावें। इसलिये असम में एनपीआर के लागू न करने की बात के लिए उच्चतम न्यायलय की कार्यवाही का सहारा लेना तथ्यों के बिलकुल विपरीत है। बल्कि इससे तो यही प्रतीत होता है कि एनपीआर के आगे की स्थिति ही एनआरसी है। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण प्रष्न यह हैं तथा यह समझ से भी परे है, कि एनपीआर, एनआरसी व सीसीए पृथक-पृथक है या एक ही लिंक के भाग है, इस पर समस्त पक्षों द्वारा विवाद क्यों बनाया जा रहा है। वास्तव में भाजपा नेताओं की उक्त मुद्दे को अप्रभावी रूप से व गलत तरीकों तर्को से बचाव (रक्षा) करने के कारण ही अनावष्यक रूप से देश में भ्रम व उलझन की स्थिति पैदा हो गई हैं, जो यर्थाथ सत्य से परे है।
एक बात और समझ से परे है, जब देष में 1955 से नागरिकता अधिनियम लागू है, जिसके तहत शरणार्थियांे को नागरिकता प्रदान की जाती रही हैं। स्वयं गृहमंत्री का लोकसभा में यह कथन है कि, पिछले पांच सालो में लगभग 860 लोगों को नागरिकता पुराने कानून के तहत ही प्रदान की गई है। तब आज उक्त संषोेधित कानून की आवष्यकता क्यों पड़ी ? क्यांेंकि इस संशोधन से शरणार्थीयों के अधिकार मेें कानूनन् या तथ्यात्मक स्थिति में कोई अंतर नहीं आता है। आज भी संषोधित कानून में मुस्लिम धर्माम्वलियांे को छोड़ देने के बावजूद यदि भारत सरकार के पास कोई मुस्लिम पीडि़त नागरिकता के लिए आवेदन देता है तो, भारत सरकार को उक्त आवेदन पर विचार करने का अधिकार है व उसे नागरिकता प्रदान की जा सकती है। फिर समस्त पक्षों द्वारा इतना सब बवंडर देश में क्यों पैदा किया जा रहा है, प्रश्न यही हैं? 
एक ओर बात जब हम घुसपेठियों को इस आधार पर देश से बाहर निकालना चाहते है कि वे हमारे देश के नागरिकों के हक छीन रहे हैं, (जबकि वास्तव में तो हमें उन्हे इस आधार के बिना भी मात्र घुसपेठिया होने के कारण ही निकाल देना चाहिए) तब इन नये नवेले लाखों/करोड़ो व्यक्तियों को (जिनके आकड़े केन्द्रीय शासन ने दिये है) (पीडि़तों) किन-किन नागरिकों के अधिकारों को काटकर नागरिकता प्रदान की जायेगी? इसका जवाब नहीं है। क्या पाकिस्तान, बंग्लादेश व अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों को धार्मिक अत्याचार (रिलीजियन पर्सीक्यूशन) के आधार पर भारत सरकार उनके द्वारा नागरिकता मांगने पर उन्हे (पुराने कानून के अंतर्गत) नागरिकता नहीं प्रदान कर सकती है? इसका स्पष्टीकरण भारत सरकार को देना चाहिये।
असम-महाराष्ट्र से लेकर देश के विभिन्न प्रदेशों में अपनी-अपनी अस्मिता संस्कृति के अस्तित्व को लेकर (जैसे असम में असमिया संस्कृति को लेकर चिंता है) उन नये नवेले नागरिकांे को इन प्रदेशों द्वारा स्वीकार न करने की स्थिति में क्या नया बखेड़ा पैदा नहीं हो जायेगा? इस पर भी गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। सरकार को यह भी बतलाना चाहिए कि उसके पास उपरोक्त तीनों देशों के धार्मिक रूप से पीडि़त कितने व्यक्तियों के नागरिकता प्राप्त करने के लिये आवेदन लम्बित है। जिस कारण से उसे सीएए लाना पड़ा।

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