गुरुवार, 19 मई 2016

क्या देश में ‘‘मीड़िया’’ को ‘‘नियत्रिंत’’ करने का समय नहीं आ गया है ?

विगत दिवस माननीय उच्चतम् न्यायालय ने मानहानि से जुडे़ कानून के दंडात्मक प्रावधानांे की संवैधानिक वैधता की पुष्टी करते हुये कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार असीम नहीं है। विगत कुछ समय से अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश में मीड़िया विशेषकर इलेक्ट्रानिक मीड़िया जिस तरह से अनियत्रिंत व निरंकुश होकर जनता के बीच जो कुछ परोस रहा है उसे किसी भी लोकतांत्रिक प्रणाली में (जहॉं मीड़िया उसका आवश्यक अंग हैं) उचित नहीं ठहराया जा सकता है। जिस तरह न्यायिक सक्रियता के नाम पर माननीय न्यायलयों द्वारा दिये गये कुछ निर्णयांे पर जनता के कुछ क्षेत्रों में प्रश्न वाचक चिन्ह लगाए जा रहे हैं, (जैसा कि देश के कानून मंत्री ने भी हाल ही में इस संबंध में लगातार प्रश्न उठाये हैं) ठीक उसी प्रकार मीड़िया भी सक्रियता के नाम पर अपने अधिकार क्षेत्र व उत्तरदायित्व से बाहर जाकर वर्तमान में जो कुछ कर रहा हैं वह मीड़िया ट्रायल के रूप में ली जाने लगी है। इसे किसी भी रूप में उचित नहीं ठहराया जा सकता है। मीड़िया ट्रायल द्वारा न केवल एक व्यक्ति अधिकतम बल्कि यह कहा जाए कि एक अभियुक्त को निर्धारित फोरम द्वारा दोषी ठहराये जाने के पहले ही जनता के बीच सिद्ध दोषी जैसी बता दिया जाता हैं। हमारा लोकतंत्र विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका की संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत खड़ा हैं। लोकतंत्र का चौथा मजबूत स्तंभ (खंबा) स्वतंत्र प्रेस हैं जो यद्यपि हमारी संवैधानिक व्यवस्था का भाग नहीं है, लेकिन हमारे लोकतंत्र ने इसे वैसा अंगीकार कर स्वीकार किया हैं। यही हमारे लोंकतंत्र की खूबी भी हैं। 
लोकतंत्र का चौथा स्ंतभ मीड़िया लगभग स्वतंत्र और निष्पक्ष माना जाता हैं। 1975 में जब स्व. इंदिरा गंाधी ने देश में आपातकाल लगाया था तब स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार प्रेस की स्वतंत्रता पर न केवल प्रतिबंध लगाया गया था बल्कि दमन व अत्याचार कर मीड़िया का मुह बंद करने की कोशिश भी की गई थी। लेकिन तत्समय उस अत्याचार के विरूद्ध दृढता से खडे होकर मीड़िया अपने अस्तित्व को बनाये रखने में सफल रहा। यूं तो मीड़िया अपने अपनी स्वतंत्र अस्तित्व के प्रति हमेशा से सजग होकर कार्य कर रही हैं। परन्तु पिछले कुछ समय से, जिस प्रकार संविधान के तीनो तंत्रों को यह गलतफहमी हो गई है कि वे ही एक मात्र सर्वश्रेष्ठ हैं तथा वे ही सुचारू रूप से देश चला रहे है। इसीलिये वे परस्पर एक दूसरे की कमियों को बताकर तथा बारम्बार अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर उन कमियों को पूरा करने का आभास कराते रहे हैं। उसी प्रकार मीड़िया को भी यह गुमान हो चला हैं कि लोकतंत्र में वे ही एक मात्र सर्वश्रेष्ठ हैं। देश में सुचारू शासन चलाने की क्षमता व जिम्मेदारी उन पर रही हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से इलेक्ट्रानिक मीड़िया के रोल पर समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उंगली उठ रही है। बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि मीड़िया ने जिस तरह अपनी सीमा से बाहर जाकर कार्य किया हैं, इससे लोगो को उंगली उठाने का मौका मिला हैं। वास्तव में मीड़िया का कार्य एक तरफ तो शासन, प्रशासन की कमियों को उजागर कर जनता के सामने लाना है व दूसरी तरफ जनता की समस्याओं को शासन के सम्मुख प्रस्तुत करना हैं ताकि कार्यपालिका, विधायिका उस पर जनहित में निर्णय लेकर उन कमियों को दूर कर सके। कुछ समस्याएं व मुद्दे ऐसे भी हो सकते हैं जिन पर मीड़िया न्यायालय का भी ध्यान भी आर्कषित करना चाहता हैं, जिन पर न्यायालय कानूनी व संवैधानिक रूप से स्वविवेक से संज्ञान लेकर निर्णय ले सकते हैं। लेकिन इस सबके बावजूद मीड़िया को यह अधिकार कभी भी नहीं रहा हैं कि वह किसी भी घटना, दुर्घटना या मुद्दे को इस तरह से उठाये कि वह स्वयं अभियोजन की भूमिका में दिखने लगे। उसे किसी भी घटना, दुर्घटना का प्रसारण करते समय इस सीमा का भी ध्यान रखना चाहिये कि कही किसी भी व्यक्ति की निजता के अधिकार का उल्लंघन तो नहीं हो रहा है? जब भी किसी व्यक्ति की घटना या दुर्घटना में मृत्यु ,हत्या या आत्महत्या हो जाती हैं तो उसका परिवार गहरे सदमे में रहता हैं। तब मीड़िया परिवार की मानवीय संवेदनाएं को परे रख कर टी.आर.पी. के चक्कर में जिस तरह इनकी बाईट लेने का प्रयास करता हैं वह मानवीय संवेदनाओं को समाप्त कर देता हैं।
मुझे ख्याल आता हैं कि जब हमारे ही शहर में विगत माह एक परिचित सम्मानीय डॉक्टर के परिवार की पत्नि ने मानसिक तनाव में आकर आत्म हत्या कर ली थी जिसका सुसाइड़ नोट भी पाया गया था। तिस पर मी कुछ प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीड़िया ने (परिवार के सदस्यों के गहरे सदमे में होने के बावजूद) वातावरण की अनदेखी कर, दाह संस्कार के पूर्व ही प्रश्नों की बौछार लगा दी थी व एक स्टोरी चलाकर परिवार के सम्मान, चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगाने का असफल प्रयास किया था। इस तरह की अनेक घटनाये का चित्रण मीड़िया में आपने पिछले कुछ समय से लगातार देखा हैं। क्या मीड़िया इस तरह की घटनाओं में पुलिस का रोल अदा करते नहीं दिखती हैं? क्या मीड़िया में मानवीय संवेदना पूरी तरह समाप्त होती नहीं दिख रही हैं। यदि ऐसा नहीं है तो उनके सामने हो रही कोई घटना को रोकने के बदले उनके केमरा मेन केमरे में कैद कर अपनी टी.आर.पी. बढाने में क्यों लगे रहते हैं?
ऐसी स्थिति के कारण क्या अब समय नहीं आ गया है कि मीड़िया पर भी कुछ न कुछ प्रभावी नियत्रंण लगाया जाय। यदि अरूण जेटली बार-बार यह कह रहे हैं कि न्यायपालिका पिछले कुछ समय से कार्यपालिका, विधायिका के कार्य में बाधा डाल रही हैं व न्यायपालिका को अपनी लक्ष्मण रेखा स्वयं तय करनी चाहिये। तब अरूण जेटली यही सिद्धान्त प्रेस पर क्यों नहीं लागू करते हैं। क्या इसलिये कि न्यायपालिका मूक है जब कि प्रेस वोकल! मीड़िया के प्रति मूक रहने में कहीं उनके जेहन में मीड़िया की इसी सक्रियता का कोई अव्यक्त भय तो नहीं है?
जब इस देश में संविधान द्वारा प्रदत्त समस्त मूल अधिकार व कर्तव्य पूर्ण नहीं हैं जो संवैधानिक व कानूनी शर्तो के अधीन हैं। जब न्यायपालिका भीे कानूनों के अधीन ही कार्य करती हैं तब प्रेस को नियमित (रेगूलेट) करने के लिये कोई/कुछ नियम/कानून क्यों नहीं बनाएं जाने चाहिये ताकि वह स्वतंत्र, स्वच्छेचारी व निरंकुश न होकर एक जिम्मेदार मीड़िया के रूप में कार्य कर सके। क्या प्रेस पर नियत्रंण के लिये एक मात्र प्रेस कांउसिल ऑंफ इण्डिया एक सक्षम व सफल संस्था हैं? वर्तमान मीड़िया में पत्रकारिता वास्तविक पत्रकारो द्वारा न चलाई जाकर मीड़िया हॉऊस के द्वारा मीड़िया का चलन हो रहा हैं तब क्या मीड़िया हॉऊस के नियत्रंण से ‘‘मीड़िया’’ को दूर रखने के लिये प्रभावशाली कानून/नियम बनाने की आवश्यकता नहीं हैं?
 

सोमवार, 2 मई 2016

‘‘क्या भारत देश में शासन ‘‘न्यायपालिका’’ चलायेगी?’’

राजीव खण्डेलवाल:
विगत दिवस माननीय उच्चतम् न्यायालय ने डांस बार के लिए लाईसेंस देने के सम्बंध में महाराष्ट्र सरकार को पूर्व में दिये गये निर्देशों का पालन न करने पर कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि बार में डांस करना भीख मांगने से अच्छा है। यहॉ यह उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र सरकार ने पूर्व में वर्ष 2005 में अधिकांश राजनैतिक दलों एवं जनभावना के अनुरूप, नैतिकता के आधार पर डांस बार पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसके लिये महाराष्ट्र विधानसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव भी पारित किया गया था। इसके खिलाफ कुछ डांस बार संचालको ने न्यायालय में पिटीशन दायर की थी जिस पर अतंतः माननीय उच्चतम् न्यायालय ने नियम बनाकर डांस बार के लाईसेंस दिये जाने के आदेश दिये थे। महाराष्ट्र सरकार ने न्यायालय के निर्णय को ध्यान में रखते हुए साथ ही नैतिक मूल्यो के प्रति अपनी भावनाओं को सुरक्षित रखते हुए इस प्रकार के नियम बनाये कि किसी भी संचालक के लिए डांस बार का लाईसेंस लेना लगभग अव्यावहारिक व असंभव सा हो गया। इस पर उच्चतम् न्यायालय में पुनः याचिका दायर की गई जिस पर उपरोक्तानुसार निर्देश दिये गये।
भारतीय संविधान में लोकतांत्रिक शासन की व्यवस्था की गई है जिसके द्वारा देश का शासन चलाने के लिए कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका का प्रावधान किया गया है, जिनके अधिकार क्षेत्र भी स्पष्ट रूप से परिभाषित किये हुए है। भारत विश्व का सबसे बड़ा सफल लोकतांत्रिक देश माना जाता है, जहां जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार ही कार्यपालिका के माध्यम से शासन करती है। यदि शासन कानून या संविधान के किसी प्रावधान के विरूद्ध कोई निर्णय लेता है तो, न्यायपालिका को उसे रद्द करने का अधिकार प्राप्त है।
यदि उपरोक्त परिप्रेक्ष्य में माननीय उच्चतम् न्यायालय के उक्त निर्णय को कसौटी पर परखा जाय तो यह स्पष्ट होता है कि यह राज्य व केन्द्र सरकार का अधिकार क्षेत्र हैं कि वह शासन चलाते हुए न केवल नैतिक मूल्यों का संरक्षण करे, संधारण करे बल्कि उन्हे उच्च स्तर पर ले जाने का प्रयास भी करे ताकि वह अपने निर्णयों को आसानी से क्रियांवित कर सके जो जनहित में लोकप्रिय एवं लोकोपयोगी निर्णय साबित हो सके। इस सम्बंध में कोई दो मत नहीं हो सकते है कि भारतीय संस्कृति के संदर्भ में डांस बार का चलना न केवल नैतिक मूल्यों के विरूद्ध है अपितु इससे समाज में अपराध और कई गैर कानूनी कार्याे को बढ़ावा मिलता हैं व पारिवारिक क्लेश भी बढ़ता है। बार-डंास बार गर्ल को डंास जीवन उपार्जन के लिए संवैधानिक अधिकार प्रदान नहीं करता है। कोई भी कृत्य जो नैतिकता के विरूद्ध है, उसे रोजी-रोटी के आधार पर संवैधानिक आधार का औचित्य  प्रदान नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा माना गया तो जुएं के अड्डो से लेकर वैश्यागमन आदि तक के समस्त गैर-नैतिक कार्य संवैधानिक व कानूनी बन जावेंगे। 
‘डांस’ (नृत्य) करना एक कला है और उससे पैसा कमाया जा सकता है, कमाया भी जाता हैं और यह संवैधानिक अधिकार भी हो सकता है जैसा कि माननीय उच्चतम् न्यायालय ने कहा है। लेकिन डांस बार में जिस प्रकार का डांस होता है वह प्रायः अश्लीलता की सभी हदे पार कर जाता है। जो हमारे नैतिकता के मूल्यों के विपरीत है। समाज में भी बार डांसर को हेय दृष्टि से देखा जाता है। (यद्यपि उसी डांस को फिल्मों में हम परिवार के साथ बैठकर देखते भी है) इसलिए बार डांस के द्वारा पैसा कमाना गलत तरीके से पैसा कमाना नहीं है तो और क्या है? एक अन्य तथ्य का यहा उल्लेख करना समाचीन होगा जहां उच्चतम न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार द्वारा बनाये गये डांस बार लाईसेंस के नियमों पर यह कथन किया कि इसकी शर्ते ऐसी है कि सरकार द्वारा प्रतिबंध (बेन) न लगाने के बावजूद इन शर्तो के कारण बार खोला जाना सम्भव नहीं है। क्या माननीय उच्चतम न्यायालय ने इस दिशा में खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम 2006 के अंतर्गत 2013 में बने नियमों पर कभी ध्यान गया है? इस नियम में जिस तरह की शर्ते बनाई गई है, वे ठीक बार लाईसेंस की शर्तो के समान उतनी ही कड़क - कठोर व अव्यवहारिक है जिनके तहत सरकार भी यदि चाहे तो उन नियमों को पूर्णतः लागू करते हुए अपना रेस्टॉरेंट नहीं चला सकती है इन नियमों के सम्बंध में कभी माननीय न्यायालय ने ऐसा नहीं कहा कि इन नियमों के रहते कानूनन् कोई भी रेस्टॉरेंट नहीं चल सकता है। इस कारण से यह अधिनियम खाद्य् विभाग के लिए भ्रष्ट्राचार का बहुत बड़ा माध्यम बन गया है। 
मैं नहीं समझता कि महाराष्ट्र सरकार ने डांस बार प्रतिबंधित कर किसी कानून या नागरिक अधिकारों का उलंघन किया या जिसके लिए उच्चतम् न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़े। क्योंकि कोई भी नागरिक अधिकार निरपेक्ष या पूर्ण नहीं होता हैं। आखिर चुनी हुई सरकार को जनहित में (उसकी दृष्टि में) अपने विवेक के अनुसार निर्णय लेने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। और यदि कोई निर्णय जनता के विरूद्ध है तो पांच वर्ष बाद जनता के पास यह अधिकार है कि वह उस मुद्दे पर सरकार को मतदान के अधिकार द्वारा उखाड़ फेंके। तब यहॉं पर न्यायालय को हस्तक्षेप करने का क्या अधिकार है? विगत कुछ वर्षो में न्यायालय ने न्यायिक सक्रियता के रहते हुये बहुत से ऐसे  निर्णय दिये है जो सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से उसके अधिकार क्षेत्र में आते प्रतीत नहीं होते है। चूंकि वे निर्णय प्रथम दृष्ट्या जनता के हित में हुए इसलिए वे जनता द्वारा स्वीकार कर लिए गये। फिर चाहे वह सीएनजी गैस-बस का मामला हो, डीजल टैक्सी का मामला हो, पर्यावरण का मामला हो, शनि सिंग्नापुर मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का मामला हो, जल संकट के कारण आई.पी.एल मैच स्थानातंरित करने का मामला हो या इसी तरह के अन्य अनेक इसी तरह के मामले हांे। उच्चतम् न्यायालय का शायद यह प्रथम निर्णय है जो आम जनता के हित में न होकर समाज के एक छोटे से वर्ग की संतुष्टि मात्र के लिए दिया गया प्रतीत होता है। ‘‘न्यायिक सक्रियता’’ (जिसके संबंध में हाल में ही माननीय उच्चतम् न्यायालय के मुख्य न्यायधीश ने चिंता व्यक्त की है) के प्रभाव में न्यायालयों द्वारा न्यायिक निर्णयों के माध्यम से राज्य -केन्द्र शासन को समय -समय पर विभिन्न निर्देश कुछ करने या न करने के जो दिये गये है, उनसे यह लगता है कि न्यायपालिका अप्रत्यक्ष रूप से उन बहुत से क्षेत्रो में अपने उन निर्देश-निर्णयों के द्वारा शासन करने का आभास दे रही है, जो निर्णय वास्तव में एक चुनी हुई सरकार को लेने चाहिए थे। इसका दूसरा पहलू शायद न्यायपालिका द्वारा स्वयं को सुर्प्रीम मानना भी है। हाल में ही उत्तराखंड हाईकोर्ट द्वारा राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने के मामले की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की गई कि राष्ट्रपति राजा नहीं हैं जिसके आदेश की समीक्षा नहीं की जा सकती हैं। क्या यहीं सिंद्धान्त न्यायपालिका पर भी लागू नहीं होता हैं? यदि राष्ट्रपति सर्वोपरि नहीं तो न्यायपालिका के न्यायाधीश किस तरह सर्वोपरि मान लिये जॉंय। जबकि संविधान ने उच्चतम् न्यायालय के निर्णय के पूर्नावलोकन (रिव्यु) का प्रावधान किया हैं जिसका उपयोग करके कई बार उच्चतम् न्यायालय ने अपने पूर्व निर्णय को बदला भी है। 

    न्यायालय सरकार का ध्यान अवश्य उन मुद्दो की ओर आकर्षित कर सकती है ताकि सरकार उस पर तदानुसार निर्णय ले सके लेकिन उन मुद्दो पर आदेश देना भले ही वह जनहित में ही क्यों न हो, (जहां संविधान या कानून का उलंघन नही होता है,) वे न्यायालय की कार्य सीमा को अतिकृमित करते प्रतीत होते है। इसका कारण एक यह भी हो सकता है कि जब एक ‘‘संस्था’’ अपने उत्तरदायित्व के प्रति विफल हो रही हो तब दूसरी संस्था उस शून्य को भरने का प्रयास कर रही होती है। लेकिन दूरदृष्ट्रि में यह भारतीय लोकतंत्र के लिए न तो एक स्वस्थ्य परम्परा होगी न ही उसके ‘‘स्वास्थ्य’’ के लिए ठीक रहेगी। इसलिए यदि न्यायालय अपने क्षेत्राधिकार में रहकर सरकार की गलतियों को या उनके जनहितैषी  कर्तव्य के प्रति उदासीनता को समय-समय पर चेताने की सीमा तक उजागर करे तो उससे संवैधानिक संस्था विधायिका अपनी गलतियों को सुधारकर दूर करने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहेगी, और तभी एक स्वस्थ्य लोकतंत्र सुचारू रूप से कार्य कर पायेगा जिसकी कल्पना हमारे संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेड़कर ने की थी। 

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