बुधवार, 22 सितंबर 2021

शासन-प्रशासन नागरिकगण क्यों कानून का मखौल बनाने में तुले हुए हैं।

 ‘‘गणपति बप्पा मोरिया‘‘ ‘‘अगले बरस तू जल्दी आ’’ के जयकारों के साथ हमेशा की तरह गणेश जी का विसर्जन हो गया। पिछले वर्ष कोविड-19 की विश्व व्यापी महामारी से हमारा देश भी पीडि़त होने के कारण पूरे देश में प्रायः सार्वजनिक रूप से गणेश जी की स्थापना व कार्यक्रम नहीं हुये थे। इस वर्ष महामारी के प्रकोप कम हो जाने पर गणेश उत्सव कार्यक्रम की अनुमति शासन-प्रशासन द्वारा कोविड-19 की महामारी को देखते हुए लागू महामारी अधिनियम के अंतर्गत जारी विभिन्न प्रतिबंधों और सावधानियों का पालन करने की शर्त के साथ दी गई। सामान्यतया प्रायः निचले प्रशासनिक स्तर पर उत्सवों के पूर्व शांति समिति की बैठक बुलाई जाकर नागरिकों के प्रतिनिधियों को समझाइश व आवश्यक निर्देश दिये जाते है। बावजूद बैठक, कानून और नियमों का न तो नागरिकों ने उन प्रतिबंधों और सावधानियों का पालन किया है और न ही ‘‘अंगूठा दिखाते इन उच्छृंखल‘‘ नागरिकों से कानून का पालन करवाने के लिए जिम्मेदार प्राधिकारियों द्वारा उक्त कानून को लागू करवाने की कोई अपनी इच्छा शक्ति दिखाई हो। हम सब ने ‘‘आंखें नीची‘‘ कर बेशर्म निगाहों से समस्त संबंधित व्यक्तियों को या तो बेशर्मी से अथवा निष्क्रिय रहकर कानून का उल्लंघन होते करते देखा है। इस प्रकार पूरे देश में किस तरह से कोविड-19 के प्रतिबंधों का उल्लंघन ही नहीं, बल्कि उसे एक मजाक बना दिया गया है। क्या यह ‘‘घर फूंक तमाशा देखने‘‘ जैसा नहीं है? पूरे देश में कोविड-19 के नियमों के उल्लंघन का एक भी प्रकरण कहीं भी दर्ज हुआ हो, ऐसा मीडिया ने कहीं रिपोर्ट नहीं किया है। क्या ‘‘कुएं में ही भांग पड़ी हुई है‘‘?

जब शासन-प्रशासन और नागरिकों तीनों पक्ष अच्छी तरह से यह जानते हैं की ऐसे धार्मिक कार्यक्रमों के अवसर पर उक्त नियमों का पालन न तो किया जा सकता है और न ही ‘‘शठे शाठ्यम् समाचरेत‘‘ की नीति को चरितार्थ करते हुए उनका पालन करवाया जाना संभव है। तब ऐसी अवस्था में शासन-प्रशासन द्वारा धार्मिक उत्सवों, कार्यक्रमों के अवसर पर उक्त नियम से छूट के लिए आवश्यक अधिसूचना जारी क्यों नहीं की जाती? ताकि हमारी आंखों के सामने नियमों के उल्लंघन का नंगा नाच तो नहीं हो पाता। यदि इसी तरह से नियमों के उल्लंघन होते रहे, तब एक समय ऐसी स्थिति आ सकती है कि जब हम कानून के उल्लंघन के आदतन होकर, गहन अपराधों के लिए भी लोगों के मन दिमाग की स्थिति ऐसी हो जाए कि, वे यह प्रकल्पना करने लगे हैं कि कानून तो सिर्फ किताबों में ‘‘शोभा बढ़ाने‘‘ के लिए बनाए जाते हैं। उनको लागू करने वाली एजेंसी कभी भी कानून की ताकत का उपयोग कानून की ‘‘छाती पर मूंग दलते‘‘ तत्वों पर लागू करने के लिए नहीं करती है। तब ऐसी स्थिति में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। अतः सभ्य समाज में सुशासन और सू प्रशासन में हम सबका मिलकर यह सामूहिक प्रयास होना चाहिए कि वे कानून जो हमें और समाज को नियमित स्वस्थ जीवन व्यतीत करने के लिए बनाए जाते हैं, उनका अक्षरसः पालन करने की आदत ड़ालें।

तीसरी लहर की जो बात कही जा रही है, वह उपरोक्त परिस्थितियों एवं मीडिया के इस संबंध में उदासीनता को देखते हुये वह उक्त आशंका को बल प्रदान कर सकती है। और चूंकि ‘‘गेहूं के साथ घुन भी पिसता है‘‘ अतः इस बात का विशेष ध्यान शासन-प्रशासन को रखने की आवश्यकता है।

शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

‘‘स्वतंत्र भारत के राजनैतिक इतिहास में आज तक का सबसे बड़ा राजनीतिक धमाका!’’

 क्या गुजरात में पुनः कोई ‘‘शंकर सिंह बाघेला‘‘ बनेगा?

देश की राजनीतिक दृष्टि से सबसे बड़े प्रदेश उत्तर-प्रदेश के बाद एक महत्वपूर्ण राज्य और प्रधानमंत्री व गृहमंत्री की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण राज्य गुजरात जिसे संघ व भाजपा ने अपनी राजनीति की एक 'प्रयोगशाला" बनाकर देश में ‘‘गुजरात मॉडल‘‘ के रूप में पेश किया गया है, आज वहां एक बिल्कुल सर्वथा नया "प्रयोग" कर नवनियुक्त, आरूढ़ मुख्यमंत्री भूपेन्द्र पटेल के मंत्रिमंडल का शपथ ग्रहण हुआ। यद्यपि मंत्रिमंडल का यह शपथ ग्रहण कल ही हो जाना चाहिए था। तथापि आज की सिद्धांतहीन चलताऊ राजनीति के विपरीत, ऐतिहासिक परिवर्तन करने की दृष्टि से पूरे के पूरे नये विधायक (कोई भी पुराने मंत्री नहीं) को ही मंत्रिमंडल में लिए जाने का समाचार ज्ञात होते ही लंबे समय से सत्ता पर बैठ कर सत्ता सुख भोग रहे राजनेताओं में असंतोष उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है। इसलिए उक्त राजनीतिक असंतोष को दूर करने के लिए शपथ गण समारोह को 24 घंटे टाला जाकर स्थिति को नियंत्रित करने का प्रयास अवश्य किया गया है, जैसा कि नहीं बनाये गये कुछ पूर्व मंत्रियों के (स्वेच्छापूर्वक?) सामने आयें बयानों से लगता हैं।

यदि भारतीय राजनीति को पीछे मुड़कर इतिहास को देखें तो, स्वतंत्र भारत के लोकतंत्र के राजनैतिक इतिहास में अभी तक किसी भी राज्य या केंद्र में "अंगारों पर पैर रखने का" ऐसा कोई उदाहरण आंखें गढा़ कर दूर-दूर तक देखने को नहीं मिलता है। जहां मुख्यमंत्री सहित पूरे मंत्रिमंडल को ही बदल दिया गया हो। यह "असामान्य कदम" व प्रक्रिया सामान्य प्रक्रिया तब कहलाती, जब एक पार्टी के सत्ताच्यूत जाने के बाद दूसरी पार्टी सत्तासीन होती है। ऐसा तभी संभव होता है। इस अनैपक्षित, अप्रत्याशित कदम ने इस बात को एक बार और सिद्ध कर दिया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का "56 इंच का सीना" सिर्फ विदेशों के लिए ही नहीं, (जिस कारण से पड़ोसी दुश्मन देश मोदी से घबराते हैं), बल्कि देश की राजनीति करने वालों के लिए भी है। राजनीति की वर्तमान प्रकृति, चरित्र, दशा, दिशा, लगभग पूर्णतः स्वार्थ युक्त होने के कारण राजनीति के निकृष्ट अवस्था में आ जाने के बावजूद, इस तरह हवा के बिल्कुल विपरीत, एकदम सफेद बिना दाग का चमकीला कदम उठाने का साहस सिर्फ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ही हो सकता है कि "आयी मौज फकीर की, दिया झोपड़ा फूंक"। इस तथ्यात्मक सत्य को भूपेंद्र मंत्रिमंडल के गठन ने पुनः सिद्ध किया है।

दो दो बार मुख्यमंत्री के प्रमुख दावेदार रहे, उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल व कांग्रेस की टिकट पर चुनाव जीत कर आए विधायक गण जो कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होकर मंत्री बने थे, उन्हें भी मंत्री न बनाना "उड़ता तीर लेने की तरह" एक बड़ा राजनीतिक दुस्साहस का कदम ही ठहराया जाएगा। तथापि कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुये नये विधायकों मे से 3 विधायकों को नए मंत्रिमंडल में मंत्री बनाया गया। इस तरह के राजनैतिक दुस्साहस वर्तमान में देश हित में फिलहाल सिर्फ नरेंद्र मोदी ही उठा सकते हैं। "यत्नम् विना  रत्नम् न लभ्यते"। गुजरात जहां से नरेंद्र मोदी व अमित शाह अपनी राजनीतिक पारी खेलकर क्रमशः देश के शीर्षस्थ पद प्रधानमंत्री व गृहमंत्री के पद तक पहुंचे। इसलिए गुजरात के प्रति उक्त जोड़ी का ज्यादा चिंता करना स्वाभाविक ही है। शायद इसी कारण से प्रधानमन्त्री ने नए मंत्रिमण्डल को बधाई दी हैं। ऐसे बधाई के उदाहरण अन्य राज्यों के मंत्रिमण्डल के गठन के समय कम ही देखने को मिलते हैं। इस परिवर्तन का मूल्यांकन अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के परिणाम पर ही निर्भर करेगा। देखना होगा कि "ऊंट किस करवट बैठता है"।

भाजपा हाईकमान के इस निर्णय से दो परस्पर विपरीत संदेश और जाते हैं। एक पूरी टीम को बदलकर विपक्ष के बजाय स्वयं भाजपा ने ही अपनी टीम को "नाकामी" करार कर दिया। दूसरा भाजपा के पास "टेस्ट टीम" के बराबर और उतनी ही मजबूत दूसरी टीम भी है, जो अगले वर्ष 2023 में होने वाले चुनावी (आम चुनाव) टी-20 मैच जीतने के लिए तैयार है । उक्त उठाए गए अकल्पनीय राजनीतिक कदम का राजनीतिक टीकाकारों के लिए एक और कारण से दिलचस्प विषय यह रहेगा कि गुजरात वह प्रदेश रहा है, जहां पूर्व में वर्ष 1995 में भाजपा में विद्रोह होकर सरकार गिर चुकी है। जहां भाजपा में एक ओर सामान्यतया  इस तरह की स्थिति देखने को नहीं मिलती है। वही दूसरी ओर खाटी संघी शंकर सिंह वाघेला दल बदल कर केशुभाई पटेल की सरकार को गिराकर खुद मुख्यमंत्री बन गए थे। कहते हैं "दूध का जला तो छांछ भी फूंक फूंक कर पीता है"। बावजूद उक्त 'काले इतिहास' के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने उक्त नपा-तुला परिगणित (केल कूलंटड) कदम उठाया है, जो निश्चित रूप से कॉफी सोच समझकर और उपरोक्त घटनाओं पर विचारोंपरांत ही उठाया होगा।

सामान्य सामाजिक-राजनीति जीवन में ओल्ड़ इज़ गोल्ड़ श्रेष्ठतर माना जाता रहा है। हमारे र्दशन में यह प्रचलित है कि जहर के इलाज के दो तरीके होते है। एक जहर-जहर को काटता है। और दूसरा जहर के असर को अमृत द्वारा खत्म करना। गुजरात के मंत्रिमंडल के गठन ने उक्त समस्त परसेप्शन को एकदम से किनारे कर दिया गया है। मंत्री होने के कारण समस्त मंत्री, मुख्यमंत्री सहित निर्दोष न होकर उनमें कुछ न कुछ खामियां (सत्ता का दोष?) उत्पन्न हो गयी है। (संभवतः परिर्वतन का कारण परिदर्शित हो रहा है) इस कारण से और पिछले आम चुनाव में पूर्ण बहुमत न मिलने की स्थिति को देखते हुये, आगामी विधानसभा के चुनाव चुनाव में सुनिश्चित जीत की प्राप्ति हेतु ही यह कदम उठाया गया प्रतीत लगता है। चुनाव में विजयी होकर  विजय रुपाणी और उनके मंत्रिमंडल मंत्रिमंडलीय साथियों (विजयी विधायकों) को अगले आम चुनाव में विजय सुनिश्चित करने हेतु आनंदीबाई पटेल को हटाकर नेतृत्व सौंपा जाकर विजय घोष करने का दायित्व दिया गया था। लेकिन उन्हें विजय सफर पूरा किए बिना ही असफल करार कर विजय दिलाने के योग्य न मानकर पराजित घोषित कर कर दिया। अतः इस कदम से पार्टी के भीतर राजनैतिक असंतोष का होना अवश्यंभावी है। क्योंकि राजनीति में सामान्यता कोई साधू-संत तो होता नहीं है। अतः इस उत्पन्न होने वाले अंसतोष की आशंका के दुष्परिणाम चुनाव परिणाम पर न पड़ने के लिए हाईकमान ने क्या-क्या कदम उठाये है, यह देखने-परखने की बात होगी। अन्यथा एक सर्वथा अप्रत्याशित कदम (मुख्यमंत्री चुनने से लेकर) उठाने से होने वाले फायदेे से उसकी प्रतिक्रिया में उत्पन्न नुकसान की संभावनाएं को देखते हुये कहीं यह प्रयास असफल व आत्मघाती तो नहीं होगा? फिलहाल यह  भविष्य के गर्भ में है।

चाल-चलन-चरित्र व चेहरे का शंखघोष करने वाली भाजपा राजनीति में निश्चित रूप से नये-नये योग व प्रयोग के युग के सिंद्धात की शुरूवात कर रही है। जब यह तर्क है कि मंत्री रहने के कारण सत्ता का अपना चारित्रिक दोष होने के कारण उनकी स्वच्छ छवि में कुछ न कुछ आंशका के बादल हो सकते है, तो वहीं सिद्धांत एक बार से अधिक चुने गए पुराने विधायकों पर क्यों नहीं लागू किया जाना चाहिये? क्योंकि वर्तमान में विधायक भी तो सत्ता के एक प्रतीक ही होते है। क्योंकि "लाल तो गुदड़ी में भी नहीं छुपते"। अंततः संघ व भाजपा हाई कमांड  की "नेतृत्व में आमूलचूल परिवर्तन"  की यह नई "शल्य नीति" क्या भाजपा शासित सभी राज्यों में आम चुनाव होने के पूर्व  तथा आगामी वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के पूर्व केंद्रीय स्तर पर भी लागू होगी ? यह देखना बड़ा दिलचस्प होगा। 

कुछ समय पूर्व तक भाजपा अनुभव व नये खून के सुमिश्रण की नीति को अपनी सत्ता की राजनीति में अपनाकर बढ़ावा दे रही थी। लेकिन पिछले कुछ समय से  भाजपा की कार्यनीति व कार्यप्रणाली का यदि बारीकि से विश्लेषण किया जाए तो, यह स्पष्ट हो जाता हैं कि वह देश को निम्न राजनैतिक प्रयोग व सिंद्धातों के संकेत व दिशा देने का प्रयास कर रही है। 

1. (नौकरशाही समान) राजनीति में भी उम्र की समय सीमा का अलिखित निर्धारण। 

2. अनुभव को लगभग तिलांजली दे देना। 

3. नये खून को अधिकतम तरजीह देना। 

4. पूर्व प्रधानमन्त्री स्वं. अटल बिहारी बाजपेयी का सत्ता में आने के पूर्व जनता से यह सवाल यह रहता था कि पांच साल में रोटी पलट दो अन्यथा वह जल जायेगी, को दल में अपनाना। 

5. दूसरे दलो से "आयात" किये गये नेताओं को पदस्थापना देकर उनकी मूल विचार धारा को अपनी विचार धारा की मूलभूत पृष्ठभूमि में पूर्णतः विलीनिकरण का प्रयास। 

भाजपा उक्त पहली बार किए गए प्रयोग व  सिंद्धांत को क्या "कार्यकर्त्ताओं के धरातल तक" भी उतारेगी? अथवा यह मान लिया जाये कि "पद की सत्ता" के बिना, कार्यकर्ता ईमानदार व स्वच्छ छवि लिये होता है। ‘सत्ता’ ही "दुर्गण की जननी" है। यदि फिर ऐसा है, तो पूरी राजनैतिक कवायद सिर्फ सत्ता के लिये क्यों? इस प्रश्न का जवाब भी शायद भाजपा के पास ही है ?

अतः में उपरोक्त पूरे घटनाक्रम को एक लाइन में संक्षिप्त (समअप) किया जा सकता है। ‘‘मुख्यमंत्री ने स्वयं के विरूद्ध ही सर्वसम्मति से अविश्वास प्रस्ताव पारित करवाकर, स्पीकर ने भी इस्तीफा देकर, अपनी आवाज को बंद कर नये मुख्यमंत्री के नेतृत्व में पूरे नये मत्रियों के गठन का रास्ता साफ किया और नये मुख्यमंत्री पर भी सदन के नये चौकीदार (स्पीकर) की व्यवस्था की।‘‘


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जन्म दिवस की पूर्व संध्या पर उठाए गए इस ऐतिहासिक प्रयोग के लिए मैं प्रधानमंत्री को प्रयोग की सफलता सहित जन्मदिवस की शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं।

बुधवार, 15 सितंबर 2021

‘भाजपा ने गुजरात में भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री पद पर नियुक्त कर इतिहास रचा‘‘।

गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी का अचानक इस्तीफा जितना  आश्चर्यचकित लिया हुआ निर्णय रहा, उससे भी कहीं ज्यादा अचंभित करने वाला और बिल्कुल ही नाटकीय, अनेपक्षित,अप्रत्याशित निर्णय उनके उत्तराधिकारी के चुनाव के रूप में केन्द्रीय पर्यवेक्षक कृषि मन्त्री नरेंद्र सिंह तोमर द्वारा ‘‘दादा‘‘ (अपने लोगों के बीच में भूपेंद्र पटेल दादा नाम से ही लोकप्रिय है) भूपेंद्र पटेल की मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्ति की घोषणा करने पर हुई। वैसे भाजपा इस तरह के निर्णय के लिए जानी जाती रही है। पूर्व में भी भाजपा हाईकमान ने मुख्यमंत्रियों के चुनाव में कुछ इसी तरह के चैकाने वाले निर्णय सफलतापूर्वक लिए हैं। 

वास्तव में भाजपा ने आगे आने वाले विधानसभाओं के चुनावों में सत्ता व्यवस्था विरोधी भावना (एंटी इनकंबेंसी) तथा महामारी कोविड-19 से लड़ने की अव्यवस्था से उत्पन्न असंतोष से लड़ने के लिए चुनाव पूर्व मुख्यमंत्रियों को बदलने की नई नीति को अपनाया है, जिसकी सफलता का आकलन तो आगामी आने वाले विधानसभा चुनावों के परिणाम पर निर्भर करेगा। वैसे तो इस नीति का आंशिक सफलतापूर्वक क्रियान्वयन असम चुनाव मे देखने को मिल चुका हैं। जहां हुये आम चुनाव में पदासीन मुख्यमन्त्री सर्वानंद सोनोवाल को मुख्यमन्त्री पद के उम्मीदवार के रूप में घोषित न कर नयें व्यक्ति के मुख्यमन्त्री पद पर आने के अवरोध को रणनीति के तहत हटाया गया। फिर विधानसभा चुनाव में जीत के बावजूद पदासीन मुख्यमन्त्री को जीत का सेहरा बांधने की बजाय एक दूसरे प्रभावशाली व्यक्ति हिमंता बिस्वा सरमा जो कि कुछ समय पूर्व ही कांग्रेस से भाजपा में आये थे, को मुख्यमन्त्री पद पर आरूढ किया। 2012 में उत्तराखण्ड में आम चुनाव के तुरन्त पूर्व, भूतपूर्व मुख्यमन्त्री मेजर जनरल भुवन चन्द्र खण्डूरी को पुनः मुख्यमन्त्री बनाया गया। विधानसभा के आम चुनाव के पूर्व इस तरह की मुख्यमंत्री बदलने की सोच या कवायद सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी में हो सकती है। कांग्रेस पार्टी सहित किसी भी पार्टी में इस तरह के साहसिक निर्णय की कल्पना ही नहीं की जा सकती है, कार्यरूप देना तो दूर की बात हैं। हां, कांग्रेस में ऐसा होना संभव है, तभी जब ऐसा व्यक्तित्व ‘‘गांधी‘‘ जैसी पारिवारिक पृष्ठभूमि लिए हुये हो। 

वैसे कुछ राजनीतिक टीकाकार और विपक्ष भाजपा के इस कदम को 2017 में आनंदीबाई पटेल को मुख्यमंत्री पद से हटाने के बाद पाटीदार समुदाय में उत्पन्न असंतोष को दूर करने की कवायद भी ठहरा रहा है। निश्चित रूप से इस कदम के द्वारा पटेल समुदाय के असंतोष को दूर करने का प्रयास अवश्य किया गया है। लेकिन यदि सिर्फ यही एकमात्र कारण होता, तो गुजरात जैसे महत्वपूर्ण प्रधानमन्त्री व गृहमन्त्री के गृह राज्य के मुख्यमन्त्री जैसे महत्वपूर्ण पद के लिए तब फिर राजनीति के नए-नए नवाचार भूपेंद्र पटेल की बजाए उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल को बनाते, जो आनंदीबाई पटेल के बाद भी एक स्वाभाविक सशक्त दावेदार थे, और आज भी विजय रुपाणी के इस्तीफे के बाद सर्वाधिक सशक्त दावेदार राजनीतिक क्षेत्रों में न केवल माने जा रहे थे, बल्कि स्वयं नितिन पटेल ने भी अप्रत्यक्ष कथित रूप से मुख्यमंत्री बनने की अपनी इच्छा व्यक्त की थी, जो सामान्यतया भाजपा में नहीं की जाती है। बावजूद इसके नितिन पटेल को मुख्यमन्त्री बनाने से न तो यह चौकाने वाला निर्णय कहलाता या ठहराया जाता और न ही यह भाजपा की राजनीति की नई प्रयोगशाला का ‘‘प्रयोग‘‘ कहलाता, जो वर्तमान में भाजपा कर रही है और आगें करना चाहती है।  ‘नामी‘ व्यक्ति के ‘बदनाम‘ होने की संभावनाए के रहते "गुमनाम" भूपेन्द्र पटेल (जो नेता चुनने के लिये बुलाए गई विधायक दल की बैठक में सबके पीछें की लाईन में बैठे थें), को आगे लाने का एक कारण यह भी हो सकता हैं। वैसे "संघ दृष्टि" से लाइन के सबसे पीछे बैठा व्यक्ति को संख्या की गणना करने के कारण उसकी अहमियत सबसे सामने बैठे "अग्रेसर" के ठीक पीछे बैठें दूसरे नम्बर के व्यक्ति से ज्यादा होती हैं। (ऐसा ही गुजरात में भी घठित हुआ।) भाजपा हाईकमान का उक्त निर्णय इस बात को पुनः सत्यापित करता है कि सरकार और संगठन के किसी भी पद पर बैठा हुआ नेता सिर्फ एक ‘‘कार्यकर्ता‘‘ ही है जिस प्रकार ‘‘संघे शक्तिः कलौ युगे‘‘ के मार्ग पर चलने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक ‘‘स्वयंसेवक‘‘ होता है। 

देश के राजनीतिक इतिहास में यह शायद पहला अवसर है, जब एक ऐसे व्यक्ति को सीधे मुख्यमंत्री पद पर आसीन किया जा रहा है जो न तो पहले कभी मंत्री रहे हैं और जो मात्र 4 वर्ष पूर्व वर्ष 2017 में मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के राज्यपाल पद पर नियुक्ति किए जाने के  कारण इस्तीफा देने से उत्पन्न रिक्त स्थान उपचुनाव में ऐतिहासिक (एक लाख सत्रह हजार से भी ज्यादा ) मतों से जीतकर पहली  बार विधायक बने। इससे भी बड़ा एक उदाहरण महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का आपके सामने है, जो कभी विधायक  नहीं बने, बल्कि सीधे मुख्यमंत्री बने। परंतु दोनों में मूल-भूत अंतर यह है कि उद्धव ठाकरे हिंदू सम्राट शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के राजनैतिक उत्तराधिकारी होने के नाते  शिवसेना पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के कारण सिर्फ महाराष्ट्र में ही नहीं बल्कि देश में उनका एक स्थापित नाम और उनकी स्थापित पार्टी है। एक उदाहरण अन्ना आंदोलन से उत्पन्न पूर्व नौकरशाह अरविंद केजरीवाल का भी हैं। उन्होनें नवंबर 2012 में एक नई पार्टी ‘आप‘ बनाकर 2 साल के भीतर ही विधानसभा चुनाव जीतकर कांग्रेस के सहयोग से बनी सरकार के सीधे मुख्यमन्त्री बनें। वर्ष 1982 में प्रसिद्ध तेलुगू फिल्मी कलाकार पद्मश्री एन टी रामाराव ने भी सर्किट हाउस में हुए अपने अपमान से आहत होने पर एक नई पार्टी तेलगु देशम पार्टी का गठन कर 9 महीने के अन्दर ही विधानसभा के आम चुनाव में बहुमत प्राप्त कर सीधे मुख्यमन्त्री बनें। जबकि भूपेंद्र पटेल के साथ इस तरह की कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि नहीं रही है और न ही ‘‘काम बोलता है‘‘ अथवा ऐसी अलंकृत राजनैतिक पहचान रही है। वे राजनीति में सिर्फ ‘‘कारपोरेशन‘‘ अहमदाबाद महानगर पालिका की स्टैंडिंग कमेटी के चेयरमैन तक ही सीमित रहे हैं। यद्यपि पूर्व में ऐसे कुछ उदाहरण अवश्य मिल सकते है, जो विधायक होने के बाद मंत्री बने बिना सीधे मुख्यमंत्री बन गए। जैसे मध्यप्रदेश में सुंदरलाल पटवा, शिवराज सिंह चौहान, हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर ,बिहार में राबड़ी देवी, और अभी हाल में ही उत्तराखंड में नियुक्त किए गए पुष्कर सिंह धामी आदि।

एक और बात के लिए भाजपा हाईकमान को बधाई दी जानी चाहिए कि वे इस तरह के लिए गए अप्रत्याशित निर्णयों के फलस्वरुप परिवर्तन, राज्यों के शीर्षस्थ स्तर पर बहुत आसानी से कर लेते हैं। और पार्टी में किसी तरह का मुखर असंतोष, विरोध या विद्रोह नहीं हो पाता है, जैसा कि ऐसी स्थिति में अन्य किसी भी दूसरी पार्टी में हो तो, वहां विद्रोह पैदा हो जाता है। क्यों कि भाजपा का कार्यकर्ता ‘‘हाकिम की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी कभी नहीं चलता‘‘। जिन प्रदेशों में  कांग्रेस सत्ता में हैं, वहां किस तरह सिर फुटव्वल सड़क पर हाई कमांड के बार-बार समझौता करवाने के बावजूद ‘‘मैं भी रानी, तू भी रानी, कौन भरेगा पानी‘‘ की तर्ज पर चलती रहती है, यह सब देश देख रहा हैं। अतः देश की अन्य समस्त पार्टियों को भाजपा की इस ‘‘कला‘‘ को सीखने की आवश्यकता अपनी अपनी पार्टी के हितों को ध्यान में रखते हुए जरूरी है। आम चुनाव के पूर्व मुख्यमंत्री बदलने की परिवर्तन की इस नीति को भाजपा द्वारा अपना कर  चुनाव के पूर्व अभी तक चार-चार मुख्यमंत्री बदले गए, जिनसे अन्य पार्टियों को उक्त सबक मिलता है और उन्हे यह सीख लेनी  भी चाहिए। 

अब परिवर्तन की बयार का अगला नंबर निश्चित रूप से ‘‘माल कैसा भी हो, हांक ऊंची लगाने वाले‘‘ शिवराज सिंह चौहान पर आकर टिक जाता है। उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद मध्यप्रदेश में आम चुनाव के पूर्व नेतृत्व परिवर्तन होना अवश्यंभावी सा दिखता है। एक तो भाजपा अभी तक आम चुनाव में जाने के पूर्व मुख्यमंत्री बदलने की नई नीति अपना रही है, जिसके परिणाम स्वरूप बदलाव होना लाजिमी ही है। दूसरे शिवराज सिंह को वैसे भी 15 वर्ष से अधिक मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुए हो चुके हैं। वर्तमान राजनीति के "मूड" को देखते हुए व भाजपा की "राजनीतिक उम्र सीमा" के बंधन की अपनाई गई नीति को देखते हुए, शिवराज सिंह का जाना ब्रेकिंग न्यूज नहीं होगी, बल्कि जब तक वे पद पर बने हुए है वह एक आश्चर्यजनक बात व ब्रेकिंग न्यूज अवश्य बनी रहेगीं। ‘‘आखिर काठ की हांडी को कितनी बार चूल्हे पर चढ़ायेगी‘‘ पार्टी? वैसे, मध्यप्रदेश में भी, ‘असम‘ जैसा सफल प्रयोग दोहराया जा सकता हैं। अंत में राजनीति का एक सर्वमान्य सिद्धांत हमेशा से यह रहा है कि वह हमेशा अनिश्चितताओ से भरी रहती है। भाजपा के इस कदम ने राजनीति को पहचान देने वाले इस चरित्र की पुनः पुष्टि ही की है।

क्या ‘‘अब भी’’ ‘‘पंजशीर‘‘ पर भारत को ‘‘सैन्य अड्डा’’ बनाने की आवश्यकता नहीं है?

भारत की अफगानिस्तान-तालिबान नीति लगभग पिछले 1 महीने से चल रहे घटनाक्रम में भारत ने विदेश नीति के दृष्टि से लगभग अपने को ‘‘असंबद्ध दिखता हुआ रख‘‘ ‘‘गुटनिरपेक्ष नीति‘‘ की बजाएं ‘‘निरपेक्ष विदेश नीति‘‘ बनाई हुयी है। बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि अफगानिस्तान के संबंध में भारत ने "को नप होउ हमहिं का हानी" की नीति अपनाते हुए "कुछ न देखने व न करने" का दृष्टिकोण बनाया हुआ है, यही विदेश नीति है। अथवा भारत "विभूषणम्  मौनम् पंडिताणाम्" कि उक्ति पर अमल कर रहा है? परंतु "मौन की नीति" हर जगह समय उचित और सफल नहीं होती है। इस संबंध में अपनाई गई विदेश नीति शायद इतनी प्रभावकारी हो गई है कि तालिबान ने अपने सत्ता पर आरूढ़ होने का निमंत्रण जिन 6 देशों को भेजा है, उसमें ‘‘असंबद्ध भारत‘‘ शामिल नहीं है। शायद यह कदम भारत की तालिबान के प्रति अपनाई गई नीति का दूसरे पक्ष द्वारा स्वीकारोक्ति ही है। क्योंकि आश्चर्यजनक रूप से तालिबान ने उस देश रूस को भी निमंत्रित किया है, जिसने अमेरिका से भी पहले तालिबान के अस्तित्व पर संकट पहुंचाने का प्रयास किया था। 

जिस प्रकार राजनीति में कोई स्थाई शत्रु-मित्र नहीं होता है, वही सिद्धांत विदेश नीति पर भी लागू होता है। और शायद यही कारण है कि आक्रामक देश होने के बावजूद रूस और अमेरिका ने तालिबान से अपने संबंधों पर विचार करने में ‘‘ट्विस्ट’’ किया है। शायद इसी कारण से तालिबान से अमेरिका सुविधाजनक तरीके से बिना और नुकसान हुए पूर्व में हुए शांति समझौते के अनुसार तालिबान द्वारा निश्चित की गई डेडलाइन 31 अगस्त के पूर्व निकल पाया। बल्कि पंजशीर में नियंत्रण को लेकर चल रहा सैनिक संघर्ष में पंजशीर द्वारा पूरे विश्व से सहायता की अपील करने के बावजूद अमेरिका सहित कोई देश अभी तक सामने नहीं आया है।

भारत वह देश है, जिसने वर्ष 1915 में अफगानिस्तान के ‘काबुल’ में ‘‘आजाद’’ भारत की अनंतिम निर्वासित सरकार का गठन राजा (हाथरस उ.प्र.) महेन्द्र प्रताप सिंह ने अब्दुल हाफ़िज़ मोहम्मद बरकतउल्ला के साथ मिलकर किया था। मतलब भारत के अफगानिस्तान के साथ लंबे समय से पड़ोसी देश होने के नाते संबंध रहे हैं। वहां के आर्थिक विकास में भारत के योगदान को कमतर कर नहीं देखा जा सकता है। आज भी भारत सरकार की 23000 हजार करोड़ से अधिक की विकास योजनाएं का कार्य अफगानिस्तान में चल रहा है, जिसको पूरा करने की अपील तालिबानी नेताओं ने की है। बावजूद इसके जहां अफगानिस्तान में सरकार के विस्थापन से लेकर स्थापन तक, सबसे महत्वपूर्ण रोल भारत का होना चाहिए था, वहां भारत अनुपस्थित है या अनुपस्थित कर दिया गया है? अथवा भारत अफगान मामले में अस्तित्वहीन हो गया है। तालिबान द्वारा चीन को महत्वपूर्ण साझीदार बताकर और कट्टर भारत विरोधी देश पाकिस्तान मुख्य सूत्रधार बनकर फिलहाल तालिबान को अपने इशारों पर नचाने में सक्षम दिख रहा है। तालिबान की कथनी व करनी में भारी अंतर को वास्तविक मानकर ही कार्य योजना बनानी होगी क्योंकि "ओछे की प्रीत बालू की भीत" ही साबित होती है। 

ऐसी स्थिति में पाकिस्तान द्वारा तालिबानियों के माध्यम से भविष्य में भारत में आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने की आशंका से निपटने के लिए भारत के लिए क्या यह जरूरी नहीं हो गया है कि वह पंजशीर (अफगानिस्तान का एक महत्वपूर्ण प्रदेश) जिसने भारत सहित विश्व के देशों से सहायता की गुहार की है, वहां अपना सैनिक अड्डा स्थापित कर उसे सहायता देकर तालिबानियों पर अपना कुछ शिकंजा और नियंत्रण कर सके? कुछ सूत्रों के अनुसार अमेरिका वहां पर अपना सैनिक अड्डा स्थापित करने की सोच रहा है। भारत पूर्व में पूर्वी पाकिस्तान जो अब बांग्लादेश कहलाता है और श्रीलंका में अपनी सेना भेज चुका है। भौगोलिक दृष्टि से भारत के लिए महत्वपूर्ण एक और पड़ोसी देश ‘‘म्यांमार‘‘ में भी 1फरवरी 2021 को चुनी हुई सरकार का ‘‘तख्ता पलट‘‘ कर सैनिक शासन लागू हुआ था। तब भी वहां के नागरिक गण से लेकर विश्व, भारत से कुछ सक्रिय कदम उठाए जाने की आशा कर रहे थे,जो निराशा में बदल गयी। जैसा कि कहा भी आता है "भरोसे की भैंस पाड़ा ही जनती है"। 

चूँकि अफगानिस्तान में अब पुनः शासक बने तालिबान आतंकवाद के ‘‘पर्याय’’ रह चुके हैं व है। इसलिये आतंकवाद से लड़ने की नीति को भारत को बदलना होगा। "तेल देख तेल की धार देख" वाली नीति को छोड़ना होगा और आतंकवादियों की आतंकी कार्रवाई का रास्ता देखते हुए मात्र जवाबी कार्रवाई करने के बदले, भारत को अमेरिका और जर्मनी, इजराइल इत्यादि देशों से सीख लेते हुए आगे होकर मुख्य आतंकवादी और आतंकवाद के जनक को अमेरिका के समान उनकी मांद में घुसकर मार कर आना होगा, तभी हम देश से आतंकवाद की जड़ को मूल से समाप्त कर पाएंगे। ऐसा करने में भारत को  दिक्कत क्या है? यह बात आम नागरिकों के समझ से परे है। वर्तमान भारत एक शक्तिशाली देश है। देश के प्रधानमंत्री इस समय के विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय हेड ऑफ स्टेट है, यह सर्वे अभी हाल में ही आया है। प्रधानमंत्री मोदी 56 इंच का सीना लिए हुए हैं।" हाथी के पांव में सबका पांव होता है", क्योंकि कोई भी अंतरराष्ट्रीय कानून या प्रथा (कस्टम्स) भारत को घोषित आतंकवादियों को कहीं से भी पकड़कर मारने से नहीं रोकती है। ‘‘एक सिर के बदले दस/ सो गर्दन काट कर लाएंगे’’ ऐसे बयानवीर नेताओं को यह समझाना जरूरी है कि हमारी एक गर्दन भी क्यों कटे? इस संबंध में अमेरिकन सोच सोचने और विचारने की गंभीर आवश्यकता है। "मुंहबंद कुत्ता शिकार नहीं कर सकता", अतः पंचशीर की ‘‘नाॅर्दन अलायंस’’ को सहयोग देकर हम उक्त विषय में एक कदम आगे बढ़ने का संकेत अवश्य दे सकते हैं, जो भारत में तालिबान द्वारा आतंकवाद को बढ़ाने की आशंका को रोक सकता हैं। अंततः भारत को इस "असमंजता" से बाहर निकलना ही होगा कि क्या तालिबान एक संप्रभुता प्राप्त फौजी शासना देश है अथवा आतंकवादी शासित देश है? क्योंकि अफगानिस्तान में सत्तारूढ़ हुए तालिबानी मंत्रिमंडल में 37 में से 20  मंत्री संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित आतंकवादी व्यक्ति हैं ।

शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

31 अगस्त! अमेरिका ‘‘आतंकवाद’’ को ‘‘समाप्त’’ या ‘‘मजबूत’’ करने के लिए ‘‘जिम्मेदार’’ माना जायेगा?

विश्व की 3 प्रमुख शक्तियों में से एक, बल्कि कुछ एक मामलों में तो दोनों प्रभावशाली देशों चीन व रूस से भी ज्यादा बड़ी महाशक्ति अमेरिका है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका के नाम से जानी जाती है। यह महाशक्ति अतीत में विभिन्न मामलों में विश्व के विभिन्न देशों को अपनी शर्त्तो को मनवाने के लिये चेतावनी व डेडलाइन देती रही है। परन्तु ‘उल्टी गंगा’ देखिये! एक छोटे से ‘‘तालिबान’’ ने अफगानिस्तान की जमीन से समस्त विदेशी सैनिकों की वापसी की 31 अगस्त की डेडलाइन (समय सीमा) देकर और उसका समयावधि के समाप्त होने के 24 घंटे पूर्व ही सुपर पॉवर अमेरिका, रूस, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, नाटो देश सहित समस्त विदेशी फौजों की रवानगी कराकर डेडलाइन का पालन करवाकर अपनी ताकत का लोहा मनवाकर विश्व को चौंका दिया। हमारी संस्कृति में एक बड़ी कहावत है ‘‘अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे’’ लेकिन अमेरिका के अम्यर्पण (लगभग समर्पण) ने इस मुहावरे को ही बदलकर ‘‘ऊट कंकड के नीचे’’ कर दिया है। स्वयं अमेरिका ने इसे विश्व का सबसे बड़ा एयर लिफ्ट बतलाया, जिसमें 123000 से ज्यादा लोगो को लिफ्ट कर अफगानिस्तान से बाहर लाया गया। 2 फरवरी 2020 के ‘‘दोहा’’ में अमेरिका (ट्रम्प प्रशासन) व तालिबान के बीच शांति समझौता होकर अमेरिका सेना की अफगानिस्तान से वापसी पर सहमती बनी थी, जिसके तारतम्य में अतंतः विदेशी सेनाओं की उक्त वापसी की कार्यवाही पूर्ण हुई।

सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यहाँ पर यह है कि अफगानिस्तान में 20 साल रहकर भी अमेरिका ने ‘‘क्या खोया और क्या पाया’’? एक तो यह निश्चित रूप से अमेरिकन नागरिकों के सोचने का विषय है। लेकिन दूसरा विश्व पर वर्तमान व आगे इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, यह भी एक सोचनीय विषय है। 11 सितम्बर को अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर के वर्ल्ड ट्रेंड़ सेंटर में ‘‘अलकायदा’’ द्वारा विश्व के इतिहास में सबसे बड़ा नुकसानदायक आतंकवादी हमला किया गया था, जिसमें 57 देशों के करीब 3000 (2996) लोगों की दर्दनाक मौत हुई थी। 9/11 के हमले के एक महीने बाद से ही अमेरिका ने 2 मई 2011 को (‘‘ऑपरेशन इंड्योरिंग फ्रीडम’’) के तहत तालिबान के खि़लाफ युद्ध छेड़कर अफगानिस्तान में चल रही तालिबानियों की सरकार को न केवल सत्ता से अपदस्थ कर नई सरकार का गठन किया, बल्कि 9/11 के लिए जिम्मेदार आंतकवादी नेता अलकायदा सरगना (प्रमुख) ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान के भीतर घुसकर एबटाबाद शहर में निस्तनाबूद किया। 

इस लड़ाई में अमेरिका ने न केवल अपनी सेनाएं बल्कि करोड़ों की संख्या व अरबों डॉलर के अत्याधुनिक हथियार, साजो समान जैसे एम 16 असाल्ट रायफलें, माइन गाडी़ बख्तरबंद गाडियां, ब्लैक हॉक, हेलीकॉपटर, फाइटर बांबर आदि अमेरिकन व अफगानिस्तान के सैनिकों को उपलब्ध कराता रहा। एक अनुमान के अनुसार तालिबान से लड़ाई में अमेरिका अभी तक 2 बिलियन डॉलर से ज्यादा खर्च कर चुका है। अमेरिका पर हुये इस आतंकवादी हमले के 20 वर्ष पूरे हो रहे है। तब यह प्रश्न बेहद प्रांसगिक हो जाता है कि 31 अगस्त को अमेरिका ने अफगानिस्तान को छोड़ते समय ‘‘कसाई के खूंटे’’ से बांधकर जाते-जाते विश्व को क्या दिया? 

सबसे दुभार्गयपूर्ण व चिंताजनक स्थिति विश्व के लिए 31 अगस्त को जो बन रही है, उसने चिंता में ड़ाल दिया है। वह यह कि अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान छोड़ते समय इन घातक हथियारों को न तो पूर्णतः नष्ट ही किया गया और न ही अमेरिकन सैनिक इन्हे अपने साथ ले गये। बल्कि ऐसा लगता है कि वे हथियार उन तालिबानियों को अमेरिकन सौनिकों को सुरक्षित जाने देने के रास्ते के बदले में चौथ वसूली के रूप में सौंप दिये गये है। कुछ मीडिया रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका ने फायटर हेलीकॉप्टर व प्लेन को निष्क्रिय किया है। लेकिन बड़ा सवाल यह भी है कि ये निष्क्रिय किये गये हथियार सुधारे जाने योग्य होकर उपयोग लायक है कि नहीं? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि अमेरिका अपने लड़ाकू एयरक्राप्ट को उड़ाकर वापिस अमेरिका क्यों नहीं ले आये? अफगानिस्तान से अमेरिका के निकलने की इससे बेहतर नज़ीर और कुछ हो नहीं सकती है कि‘‘निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन, बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले’’। 

तालिबानी मूलतः आंतकवादी रहे हैं जो एक कट्टर सुन्नी इस्लामिक संगठन है। जिसे वर्ष 1994 में पाकिस्तानी आएसआई की छत्र छाया में ही आतंकवादी मुजाहिद कमांडर मोहम्मद उमर ने स्थापना की थी। तालिबानियों की पहचान पूरे विश्व में एक आंतकवादी संगठन के रूप में रही है। जब पहली बार तालिबानी अफगानिस्तान में सत्ता में आये, तब मात्र तीन इस्लामिक देशों पाकिस्तान, सउदी अरब व संयुक्त अरब अमीरात ने ही मान्यता दी थी। जबकि आज जब लगभग 90 देशों ने सुरक्षित निकलने के लिए तालिबानियों ने समझौता किया है। यद्यपि ‘‘सज्जनों और दुर्जनों’’की मैत्रीछाया रूपी होती है किंतु विश्व में तालिबान की स्थिति और उसके प्रति विश्व दृष्टिकोण में यह अंतर स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। इससे भारत का सबसे ज्यादा चिंतित होना स्वाभाविक हैं। क्योंकि वह पहले से ही पाकिस्तानी आंतकवादियों से जूझ रहा है, उनका सामना कर रहा है। तालिबानियों को भी पाकिस्तान की जमीन से लेकर हथियारों व पैसों तक का संरक्षण प्राप्त रहा है। क्योंकि ‘‘चूहे का जाया बिल ही खोदता हैं’’। चूंकि पाकिस्तानी मूल की तुलना में पंख्तून ज्यादा बहाद्दुर व उग्रवादी होते है। अंतः उनके आतंकवादी होने पर भारत के लिए समस्या का बढ़ना स्वाभाविक है। प्रेसीडेंट जो बाइडेन ने तालिबान की तुलना में अलकायदा व आएसआइएस को ज्यादा खतरनाक आतंकवादी संगठन बतलाया है। जिससे अमेरिका का पूर्णतः स्वार्थ प्रकृट होते दिखता है। 

प्रश्न यह उठता है कि क्या अमेरिका को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में इस बेहद गैर जिम्मेदाराना व्यवहार व पूर्ण स्वार्थ से भरी कार्यवाही के कारण आतंकवाद को मजबूत करने के लिये मजबूत खुराक देने के लिये जिम्मेदार नहीं ठहराया जायेगा? यह अधिकार किसी भी देश को नहीं है कि अपने वतन के लोगों की जान बचाने के लिए दूसरे वतन के लोगों की जान की सुरक्षा को खतरे में ड़ाले। भारत सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष के महत्वपूर्ण पद पर विराजमान है। देश का नेतृत्व एक मजबूत और विश्व में अपनी मजबूती के लिए जाने जाने वाले नरेंद्र मोदी के ह़ाथों में है। दोहा में तालिबान प्रतिनिधि व भारतीय राजदूत के बीच हुई औपचारिक मुलाकात-बातचीत का स्वागत किया जाना चाहिये। चूंकि उक्त बातचीत तालिबान के पहल पर की गई, मतलब ‘निंद्रा’ से भारत को उसी तालिबान ने उठाया जिन्हे ही निंद्रा के लिये जिम्मेदार माना था, जैसा कि मैने पूर्व में लिखा था। भारत की अध्यक्षता में हुई सुरक्षा परिषद की बैठक में अफगानिस्तान की धरती का आतंकवाद के लिये उपयोग न होने का प्रस्ताव उपस्थित 13 सदस्यों की सर्वसम्मति से पारित हुआ है। तथापि चीन व रूस इसमे अनुपस्थित रहे। विश्व के देशों के नागरिक व सरकारें यह उम्मीद करती है कि भारत अपना रोल इस समय बखूबी निभाएं। 

धन्यवाद।

बुधवार, 1 सितंबर 2021

भारत की अफगानिस्तान-तालिबान ’’नीति’’? भारत कब ’’कुंभकरणीय नींद’’ से जागेगा?

 

अमेरिका सेना की वापसी के प्रेसीडेंट ‘‘जो बाइडन’’ के निर्णय के परिणाम स्वरूप अफगानिस्तान में नई तालिबानी हुकुमत का शासन होकर वह जब से स्वतंत्र हुआ है और अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में तालिबान ने अपना झंडा फहराकर एक प्रदेश पंजशीर घाटी को छोडकर शेष प्रदेशों पर रा प्रायः अपनी हुकुमत स्थापित की हैं। तब से ही मेरे कई सहयोगी और मीडिया मित्रों ने मुझ से बार-बार यह अनुरोध किया कि ’’तालिबान’’ पर आपका अभी तक कोई लेख नहीं आया है, जबकि ज्वलंत विषयों पर प्रायः आपके लेख आते हैं। अतः आप इस विषय पर एक लेख जरूर लिखिए। 
वास्तव में अफगानिस्तान में लगभग 2300 अमेरिकी सैनिकों के मारे जाने के बाद अमेंरिका सेना की वापसी के साथ ही तालिबानी-अफगानिस्तान संबंधी “इतनी अधिक बहुआयामी सामग्री“ भारत सहित विश्व पटल पर मीडिया के विभिन्न माध्यमों से आ चुकी हैं कि लेख लिखने की हिम्मत ही नही कर पाया। वैसे भी वरिष्ठ सम्मानीय पत्रकार स्तंभ लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष डॉ वेद प्रताप वैदिक (जिन्होनें मेरे लेखों के संकलन की किताब ‘‘कुछ सवाल जो देश पूछ रहा है आज?’’ का विमोचन किया था), विदेश नीति मामलों के विशेषज्ञ, खासकर भारत-अफगान नीति के मर्मज्ञ माने जाते हैं। वे अभी तक इस विषय पर 5 लेख लिख चुके हैं, जहां पर डॉ वैदिक ने भारत-अफगान-तालिबान नीति की सारगर्मित विवेचना की है। इस कारण से भी लेख लिखने की जरूरत महसूस नहीं हुई। फिर भी डॉ. वैदिक द्वारा विस्तार से लिखे गए मुद्दों को स्वीकारते हुए इस लेख में मैं कुछ अनछुए भावों को लेकर यह लेख डॉ. वैदिक को समर्पित करता हूं। लेख इसलिए भी लिख रहा हूॅ कि मेरे शुभ चिंतकों द्वारा स्वयं मुझ पर भी कुंभकरण की नींद के आरोप न लग जायें, जैसा कि इस लेख में सरकार पर लग रहे हैं।
एक कहावत है ’’दीवाल पर जो इबारत लिखी हो, उसे व्यक्ति ने हमेशा पढ़ना चाहिए’’ चाहे वह उसके कितनी ही खिलाफ क्यों न लिखी गयी हो। तभी भविष्य में उस मुद्दे व समस्या से निपटा जा सकता है। ’’तालिबान’’ के मामले में उक्त मुहावरा वर्तमान में भारत सरकार पर “सटीक“ सा बैठता है। विश्व में खासकर पडोसी देशो में हो रही राजनैतिक अस्थिरता, आंतरिक युद्ध व सत्ता पलट की स्थिति में देश के नेतृत्व का सबसे बड़ा कर्त्तव्य व सर्वोपरि जिम्मेदारी अपने राष्ट्रीय हितों की अनिवार्य रूप से रक्षा करना होती हैं। दुर्भाग्यवश भारत पडोसी देश अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा (रूस-अमेरिका को घुटने टिकवाकर) रचे गये इतिहास को सिर्फ इसलिए पढ़ने का प्रयास नहीं कर रहा हैं, कि तालिबान को वह दुश्मन देश मानकर (जो वास्तव में है भी), उसके वर्तमान अस्तित्व को स्वीकार करने की मनोदशा फिलहाल भारत की लगती नहीं है। तथापि तालिबान समस्या से विश्व में सबसे ज्यादा लंबे समय तक प्रभावित यदि कोई देश रहेगा तो वह सिर्फ ‘‘भारतीय महाद्वीप’’ का देश भारत ही है। क्योंकि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओकेे) की 106 किलोमीटर की सीमा अफगानिस्तान से लगती हैं। जैसा कि जी-7 समिट (शिखर सम्मेलन) के अध्यक्ष ब्रिटिश सांसद टोम टंगनधात सहित कई सांसदों ने अफगान समस्या पर चर्चा के लिए बुलाई गई बैठक में भी भारत को बुलाए जाने की जोरदार वकालत की। भारत-अफगान के संबंध बहुत पुराने रहे हैं और इन में उतार-चढ़ाव भी आते रहे है। 
अफगानिस्तान में 5 साल तक तालिबानियों के सत्ता में रहने के बाद वर्ष 2001 में अमेरिकी नेतृत्व की सेना ने तालिबान को अफगानी सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था। पूर्व में भी 10 साल तक रूस भी अफगानिस्तान में रहा लेकिन तालिबान लड़ाकों के आगे झुक कर वहां से रूस को भी हटना पड़ा। लेकिन जब से तालिबानियों का अफगानिस्तान में 20 साल बाद पुनः कब्जा हुआ है, तब से ही भारत “भई गति सांप छछूंदर केरी“ की अवस्था में है। क्योंकि पाकिस्तान द्वारा भारत में खासकर कश्मीर में संचालित आतंकवादियों की गतिविधियों के साथ और एक गैंग पाकिस्तान की ‘‘अंगूठी की नगीना“ तालिबानियों की, वह भी पाकिस्तान द्वारा पोषित होेने के कारण भारत के लिए निश्चित रूप से चिंता का यह एक बड़ा विषय है। लेकिन इस कटु सत्य को तो हमें स्वीकार करना ही पडे़गा कि तालिबानियों का अफगानिस्तान पर लगभग पूर्ण कब्जा व नियन्त्रण होकर वे अब उसके “शासक“ हो गये है। अतः हम जब तक उनके अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर पाते है, तब तक हम उससे निपटने के लिए सही कारगर नीति नहीं अपना पायेंगें। “ए ब्लाइंड मैन इज़ नो जज ऑफ कलर्स“। तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जा करने पर इसे तालिबानियों ने स्वतंत्रता की जीत बताया है। इसलिए भारत की ओर से एक “त्वरित कूटनीतिक प्रतिक्रिया व पहल“ की आवश्यकता थी, जिसके अभाव में देश की विदेश नीति पिछड़ गई है, ऐसा लगता है।
 मीडिया द्वारा भाजपा प्रवक्ताओं से इस संबंध मेे बार बार प्रतिक्रिया पूछे जाने पर जवाब में अधिकृत राजनयिक प्रतिक्रिया देने से बचते हुये यही कहा कि भारत की प्रथम प्राथमिकता अपने देश के नागरिकों को सुरक्षित वापस देश लाने की है। (जो “आपरेशन देवी शक्ति“ द्वारा नागरिको को वापस लाया भी जा रहा हैं।) दूसरी अफगानिस्तान में अभी सरकार का गठन ही नहीं हुआ है। यह एक प्रकार से विदेश नीति को विभाजित करने का प्रयास मात्र ही है, क्योंकि यह दोनों ही मुद्दे अंततः विदेश नीति का ही तो भाग है। अतः ये दोनों ही तर्क बेहद लचीले और भारत जैसे सार्वभौंमिक राष्ट्र की विश्व में वर्तमान मजबूत स्थिति को देखते हुए व अफगानिस्तान में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका के रहने के कारण उचित प्रतीत नहीं लगती है। “ये पर्दा छुपाता कम और दिखाता ज्यादा हैं’’। खासकर जब भारत सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष हो, जिसका कार्य ही विश्व के राट्रों को आतंकवादियों व विदेशी आक्रमणों से सुरक्षा प्रदान करना है। स्वयं सुरक्षा परिषद ने अफगानिस्तान की राजधानी काबूल पर तालिबान के कब्जें के तुरंत बाद 16 अगस्त को जारी बयान की तुलना में दो हफ्ते में ही 27 अगस्त को अफगानिस्तान के संबंध में जारी विज्ञप्ति, में ‘तालिबान’ शब्द का उपयोग आश्चर्यजनक रूप से नहीं किया। ऐसी स्थिति में हम भारतीय नागरिक हमारे विदेश नीति निर्धारको से कुछ ज्यादा ही उम्मीद रखते हैं।
              हमारे देश के प्रधानमंत्री को विश्व की प्रमुख महाशक्तियों के राष्ट्राध्यक्षों से भी कई मामले में आगे बताया जाता है। और वास्तव में हमारे प्रधानमंत्री की क्रियाशीलता व बौद्धिक क्रियाकुशलता के कारण विश्व पटल पर उन्होनें अपनी व्यक्तित्व की एक महत्वपूर्ण छाप अवश्य छोड़ी है। ऐसे मजबूत प्रधानमंत्री के रहते हुए ऐसी लचर अफगान नीति क्यों? पूरे विश्व को ज्ञात हैं कि 3-4 प्रमुख तालिबान नेताओं के बीच ही सत्ता की भागीदारी होना है, जिन्होने अमेरिकी सेना से टक्कर लेकर अपना लोहा बनवाया। मोहम्मद उमर के साथ मिलकर मुल्ला बरादर ने वर्ष 1994 में एक सुन्नी इस्लामिक कट्टरपंथी राजनीतिक आंदोलन पाकिस्तानी ‘‘आएसआई’’ (इंटर सर्विसेस इंटिलिजेंस) की सहायता से तालिबान (तालेबान) स्थापना करने के बाद, बर्तमान में मुल्ला बरादर ही तालिबान के प्रमुख नेता हैं।
 जब रूस और अमेरिका जिसने पहले तालिबान को जन्म देकर पुष्ट किया, फिर नष्ट करने का प्रयास किया। बावजूद इसके दोनो देश अफगानिस्तान में भी तालिबानियों के पुर्नस्थापित होने से तालिबानी नेताओं से न केवल प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष संपर्क रख रहे हैं, बल्कि तालिबानी अफगानिस्तान को मान्यता देने की भी सोच रहे हैं। तब हमारा देश राजनैतिक संवाद स्थापित करने में लगभग अक्रमणय की स्थिति में क्यों हैं? देश के विपक्षी दलों की स्थिति भी कमोवेश यही है। प्रधानमन्त्री द्वारा अफगान समस्या पर चर्चा के लिए बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में विपक्षी दलों ने कोई ठोस सकारात्मक सुझाव सरकार को इस अक्रमणयता व असमंजस की स्थिति से निकलने के लिए नहीं दिये। इससे लगता है कि इस तालिबानी-अफगान समस्या ने देश के सभी नेताओं की राजनयिक सोच को लकवा मार दिया हैं। यह स्थिति कब तक बनी रहेगी, यह एक भारी प्रश्न है? जो न केवल हमारे देश की साख को विश्व में प्रभावित कर रही हैं। बल्कि अंततः लंबे समय में भारत-अफगान रिश्तों के संबंध में हमारे देश के राष्ट्रीय हितों को भी प्रभावित करेगी। 
विदेशी मंत्री, रक्षा मंत्री या सरकार के प्रवक्ता की बजाय हमारे प्रथम रक्षा प्र्रमुख (चीफ ऑफ डिफेंस) (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत का बयान आया, जहां उन्होंने तालिबान को "20 साल पुराना वाला ही तालिबान" ठहराते हुये अप्रत्यक्ष रूप से तालिबानियों के खिलाफ लगभग धमकी भरा अंदाज में यह कहा कि अफगानिस्तान से भारत की ओर होने वाली गतिविधियों से देश में आंतकवाद जैसे ही निपटा जायेगा। यह अनावश्यक कथन होकर वर्तमान स्थिति को देखते हुये बुद्विमद्ता पूर्ण या औचित्य पूर्ण नहीं कहा जा सकता हैं। तथापि भारत की यह पहली अधिकृत प्रतिक्रिया मानी जा सकती हैं। वैसे भारत सरकार ने शाब्दिक प्रतिक्रिया न देते हुए अफगानिस्तान से अपने राजदूत वापस बुलाकर व दूतावास बन्द कर कार्य रूप में जो प्रतिक्रिया दी है, वह मौजूद विधमान परिस्थितियों को देखते हुए व भविष्य में हमारी अफगानिस्तान के साथ के रिश्तो को दृष्टिगत करते हुए उसमें एक रूकावट जरूर बन सकती हैं। 
जहां तक भारत का सवाल है, तालिबानियों ने अभी तक भारत के प्रति कोई धमकी या भारतीय नागरिकों पर कोई अत्याचार नहीं किए हैं, न ही ऐसी कोई मीडिया रिपोर्ट अभी तक की हैं। विपरित इसके  उन्होंने  अफगानिस्तान में चल रही विभिन्न परियोजनाओं को पूरा करने के लिए न केवल भारत से कहा हैं, बल्कि कश्मीर को भारत-पाक का आन्तरिक मामला भी बतलाया हैं। तालिबान के कमांडर शैख मोहम्मद अब्बास ने भारत के साथ आर्थिक व व्यापारिक संबंधो के साथ बेहतर संबंध बनायें रखने की इच्छा जाहिर की हैं। भारम अभी तक 23000 हजार करोड़ रू. से अधिक निवेश अफगानिस्तान में कर चुकी है। तथापि इन बयानों की “बिटवीन द लाइन्स“ पढ़ने पर मिले निष्कर्षाे के आधार पर तालिबानियों व उनके इरादांे (आशय) पर एकदम से विश्वास करना भी घातक हो सकता है। फिर भी हमारे अफगानिस्तान के साथ पूर्व अनुभव को लेते हुए, ख़ासकर तालिबान का हमारे प्रति घोषित/अघोषित और पूर्व कार्य प्रणाली को ध्यान में रखकर सरकार को आगे आकर कुछ सकारात्मक सक्रिय कदम अवश्य उठाने होंगे। संयमता जरूर बरतियें, जैसा कि सर्वदलीय बैठक में सरकार ने अपना पक्ष रखा हैैं। परन्तु असमंजता को दूर करना भी जरूरी हैं। चूंकि भारत के लिए तालिबान एक कैंसर जैसा हैं। अतः उसका इलाज भी वैसा ही करना पड़ेगा।
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