शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

‘‘स्वतंत्र भारत के राजनैतिक इतिहास में आज तक का सबसे बड़ा राजनीतिक धमाका!’’

 क्या गुजरात में पुनः कोई ‘‘शंकर सिंह बाघेला‘‘ बनेगा?

देश की राजनीतिक दृष्टि से सबसे बड़े प्रदेश उत्तर-प्रदेश के बाद एक महत्वपूर्ण राज्य और प्रधानमंत्री व गृहमंत्री की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण राज्य गुजरात जिसे संघ व भाजपा ने अपनी राजनीति की एक 'प्रयोगशाला" बनाकर देश में ‘‘गुजरात मॉडल‘‘ के रूप में पेश किया गया है, आज वहां एक बिल्कुल सर्वथा नया "प्रयोग" कर नवनियुक्त, आरूढ़ मुख्यमंत्री भूपेन्द्र पटेल के मंत्रिमंडल का शपथ ग्रहण हुआ। यद्यपि मंत्रिमंडल का यह शपथ ग्रहण कल ही हो जाना चाहिए था। तथापि आज की सिद्धांतहीन चलताऊ राजनीति के विपरीत, ऐतिहासिक परिवर्तन करने की दृष्टि से पूरे के पूरे नये विधायक (कोई भी पुराने मंत्री नहीं) को ही मंत्रिमंडल में लिए जाने का समाचार ज्ञात होते ही लंबे समय से सत्ता पर बैठ कर सत्ता सुख भोग रहे राजनेताओं में असंतोष उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है। इसलिए उक्त राजनीतिक असंतोष को दूर करने के लिए शपथ गण समारोह को 24 घंटे टाला जाकर स्थिति को नियंत्रित करने का प्रयास अवश्य किया गया है, जैसा कि नहीं बनाये गये कुछ पूर्व मंत्रियों के (स्वेच्छापूर्वक?) सामने आयें बयानों से लगता हैं।

यदि भारतीय राजनीति को पीछे मुड़कर इतिहास को देखें तो, स्वतंत्र भारत के लोकतंत्र के राजनैतिक इतिहास में अभी तक किसी भी राज्य या केंद्र में "अंगारों पर पैर रखने का" ऐसा कोई उदाहरण आंखें गढा़ कर दूर-दूर तक देखने को नहीं मिलता है। जहां मुख्यमंत्री सहित पूरे मंत्रिमंडल को ही बदल दिया गया हो। यह "असामान्य कदम" व प्रक्रिया सामान्य प्रक्रिया तब कहलाती, जब एक पार्टी के सत्ताच्यूत जाने के बाद दूसरी पार्टी सत्तासीन होती है। ऐसा तभी संभव होता है। इस अनैपक्षित, अप्रत्याशित कदम ने इस बात को एक बार और सिद्ध कर दिया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का "56 इंच का सीना" सिर्फ विदेशों के लिए ही नहीं, (जिस कारण से पड़ोसी दुश्मन देश मोदी से घबराते हैं), बल्कि देश की राजनीति करने वालों के लिए भी है। राजनीति की वर्तमान प्रकृति, चरित्र, दशा, दिशा, लगभग पूर्णतः स्वार्थ युक्त होने के कारण राजनीति के निकृष्ट अवस्था में आ जाने के बावजूद, इस तरह हवा के बिल्कुल विपरीत, एकदम सफेद बिना दाग का चमकीला कदम उठाने का साहस सिर्फ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ही हो सकता है कि "आयी मौज फकीर की, दिया झोपड़ा फूंक"। इस तथ्यात्मक सत्य को भूपेंद्र मंत्रिमंडल के गठन ने पुनः सिद्ध किया है।

दो दो बार मुख्यमंत्री के प्रमुख दावेदार रहे, उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल व कांग्रेस की टिकट पर चुनाव जीत कर आए विधायक गण जो कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होकर मंत्री बने थे, उन्हें भी मंत्री न बनाना "उड़ता तीर लेने की तरह" एक बड़ा राजनीतिक दुस्साहस का कदम ही ठहराया जाएगा। तथापि कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुये नये विधायकों मे से 3 विधायकों को नए मंत्रिमंडल में मंत्री बनाया गया। इस तरह के राजनैतिक दुस्साहस वर्तमान में देश हित में फिलहाल सिर्फ नरेंद्र मोदी ही उठा सकते हैं। "यत्नम् विना  रत्नम् न लभ्यते"। गुजरात जहां से नरेंद्र मोदी व अमित शाह अपनी राजनीतिक पारी खेलकर क्रमशः देश के शीर्षस्थ पद प्रधानमंत्री व गृहमंत्री के पद तक पहुंचे। इसलिए गुजरात के प्रति उक्त जोड़ी का ज्यादा चिंता करना स्वाभाविक ही है। शायद इसी कारण से प्रधानमन्त्री ने नए मंत्रिमण्डल को बधाई दी हैं। ऐसे बधाई के उदाहरण अन्य राज्यों के मंत्रिमण्डल के गठन के समय कम ही देखने को मिलते हैं। इस परिवर्तन का मूल्यांकन अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के परिणाम पर ही निर्भर करेगा। देखना होगा कि "ऊंट किस करवट बैठता है"।

भाजपा हाईकमान के इस निर्णय से दो परस्पर विपरीत संदेश और जाते हैं। एक पूरी टीम को बदलकर विपक्ष के बजाय स्वयं भाजपा ने ही अपनी टीम को "नाकामी" करार कर दिया। दूसरा भाजपा के पास "टेस्ट टीम" के बराबर और उतनी ही मजबूत दूसरी टीम भी है, जो अगले वर्ष 2023 में होने वाले चुनावी (आम चुनाव) टी-20 मैच जीतने के लिए तैयार है । उक्त उठाए गए अकल्पनीय राजनीतिक कदम का राजनीतिक टीकाकारों के लिए एक और कारण से दिलचस्प विषय यह रहेगा कि गुजरात वह प्रदेश रहा है, जहां पूर्व में वर्ष 1995 में भाजपा में विद्रोह होकर सरकार गिर चुकी है। जहां भाजपा में एक ओर सामान्यतया  इस तरह की स्थिति देखने को नहीं मिलती है। वही दूसरी ओर खाटी संघी शंकर सिंह वाघेला दल बदल कर केशुभाई पटेल की सरकार को गिराकर खुद मुख्यमंत्री बन गए थे। कहते हैं "दूध का जला तो छांछ भी फूंक फूंक कर पीता है"। बावजूद उक्त 'काले इतिहास' के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने उक्त नपा-तुला परिगणित (केल कूलंटड) कदम उठाया है, जो निश्चित रूप से कॉफी सोच समझकर और उपरोक्त घटनाओं पर विचारोंपरांत ही उठाया होगा।

सामान्य सामाजिक-राजनीति जीवन में ओल्ड़ इज़ गोल्ड़ श्रेष्ठतर माना जाता रहा है। हमारे र्दशन में यह प्रचलित है कि जहर के इलाज के दो तरीके होते है। एक जहर-जहर को काटता है। और दूसरा जहर के असर को अमृत द्वारा खत्म करना। गुजरात के मंत्रिमंडल के गठन ने उक्त समस्त परसेप्शन को एकदम से किनारे कर दिया गया है। मंत्री होने के कारण समस्त मंत्री, मुख्यमंत्री सहित निर्दोष न होकर उनमें कुछ न कुछ खामियां (सत्ता का दोष?) उत्पन्न हो गयी है। (संभवतः परिर्वतन का कारण परिदर्शित हो रहा है) इस कारण से और पिछले आम चुनाव में पूर्ण बहुमत न मिलने की स्थिति को देखते हुये, आगामी विधानसभा के चुनाव चुनाव में सुनिश्चित जीत की प्राप्ति हेतु ही यह कदम उठाया गया प्रतीत लगता है। चुनाव में विजयी होकर  विजय रुपाणी और उनके मंत्रिमंडल मंत्रिमंडलीय साथियों (विजयी विधायकों) को अगले आम चुनाव में विजय सुनिश्चित करने हेतु आनंदीबाई पटेल को हटाकर नेतृत्व सौंपा जाकर विजय घोष करने का दायित्व दिया गया था। लेकिन उन्हें विजय सफर पूरा किए बिना ही असफल करार कर विजय दिलाने के योग्य न मानकर पराजित घोषित कर कर दिया। अतः इस कदम से पार्टी के भीतर राजनैतिक असंतोष का होना अवश्यंभावी है। क्योंकि राजनीति में सामान्यता कोई साधू-संत तो होता नहीं है। अतः इस उत्पन्न होने वाले अंसतोष की आशंका के दुष्परिणाम चुनाव परिणाम पर न पड़ने के लिए हाईकमान ने क्या-क्या कदम उठाये है, यह देखने-परखने की बात होगी। अन्यथा एक सर्वथा अप्रत्याशित कदम (मुख्यमंत्री चुनने से लेकर) उठाने से होने वाले फायदेे से उसकी प्रतिक्रिया में उत्पन्न नुकसान की संभावनाएं को देखते हुये कहीं यह प्रयास असफल व आत्मघाती तो नहीं होगा? फिलहाल यह  भविष्य के गर्भ में है।

चाल-चलन-चरित्र व चेहरे का शंखघोष करने वाली भाजपा राजनीति में निश्चित रूप से नये-नये योग व प्रयोग के युग के सिंद्धात की शुरूवात कर रही है। जब यह तर्क है कि मंत्री रहने के कारण सत्ता का अपना चारित्रिक दोष होने के कारण उनकी स्वच्छ छवि में कुछ न कुछ आंशका के बादल हो सकते है, तो वहीं सिद्धांत एक बार से अधिक चुने गए पुराने विधायकों पर क्यों नहीं लागू किया जाना चाहिये? क्योंकि वर्तमान में विधायक भी तो सत्ता के एक प्रतीक ही होते है। क्योंकि "लाल तो गुदड़ी में भी नहीं छुपते"। अंततः संघ व भाजपा हाई कमांड  की "नेतृत्व में आमूलचूल परिवर्तन"  की यह नई "शल्य नीति" क्या भाजपा शासित सभी राज्यों में आम चुनाव होने के पूर्व  तथा आगामी वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के पूर्व केंद्रीय स्तर पर भी लागू होगी ? यह देखना बड़ा दिलचस्प होगा। 

कुछ समय पूर्व तक भाजपा अनुभव व नये खून के सुमिश्रण की नीति को अपनी सत्ता की राजनीति में अपनाकर बढ़ावा दे रही थी। लेकिन पिछले कुछ समय से  भाजपा की कार्यनीति व कार्यप्रणाली का यदि बारीकि से विश्लेषण किया जाए तो, यह स्पष्ट हो जाता हैं कि वह देश को निम्न राजनैतिक प्रयोग व सिंद्धातों के संकेत व दिशा देने का प्रयास कर रही है। 

1. (नौकरशाही समान) राजनीति में भी उम्र की समय सीमा का अलिखित निर्धारण। 

2. अनुभव को लगभग तिलांजली दे देना। 

3. नये खून को अधिकतम तरजीह देना। 

4. पूर्व प्रधानमन्त्री स्वं. अटल बिहारी बाजपेयी का सत्ता में आने के पूर्व जनता से यह सवाल यह रहता था कि पांच साल में रोटी पलट दो अन्यथा वह जल जायेगी, को दल में अपनाना। 

5. दूसरे दलो से "आयात" किये गये नेताओं को पदस्थापना देकर उनकी मूल विचार धारा को अपनी विचार धारा की मूलभूत पृष्ठभूमि में पूर्णतः विलीनिकरण का प्रयास। 

भाजपा उक्त पहली बार किए गए प्रयोग व  सिंद्धांत को क्या "कार्यकर्त्ताओं के धरातल तक" भी उतारेगी? अथवा यह मान लिया जाये कि "पद की सत्ता" के बिना, कार्यकर्ता ईमानदार व स्वच्छ छवि लिये होता है। ‘सत्ता’ ही "दुर्गण की जननी" है। यदि फिर ऐसा है, तो पूरी राजनैतिक कवायद सिर्फ सत्ता के लिये क्यों? इस प्रश्न का जवाब भी शायद भाजपा के पास ही है ?

अतः में उपरोक्त पूरे घटनाक्रम को एक लाइन में संक्षिप्त (समअप) किया जा सकता है। ‘‘मुख्यमंत्री ने स्वयं के विरूद्ध ही सर्वसम्मति से अविश्वास प्रस्ताव पारित करवाकर, स्पीकर ने भी इस्तीफा देकर, अपनी आवाज को बंद कर नये मुख्यमंत्री के नेतृत्व में पूरे नये मत्रियों के गठन का रास्ता साफ किया और नये मुख्यमंत्री पर भी सदन के नये चौकीदार (स्पीकर) की व्यवस्था की।‘‘


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जन्म दिवस की पूर्व संध्या पर उठाए गए इस ऐतिहासिक प्रयोग के लिए मैं प्रधानमंत्री को प्रयोग की सफलता सहित जन्मदिवस की शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं।

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