सोमवार, 23 दिसंबर 2013

क्या केन्द्रीय सरकार की नजर मे ‘उच्च न्यायालय‘ ‘उच्चतम न्यायालय’ या विधायिका के ऊपर है ?

 धारा 377 के संदर्भ में कुछ समय पूर्व उच्चतम न्यायालय द्वारा उसे संवैधानिक करार कर अप्राकृतिक यौन संबंध एवं समलैगिकता को अपराध मानने का निर्णय दिया गया था। इस संबंध में आज केन्द्रीय सरकार द्वारा उच्चतम न्यायालय में पुर्नःविचार याचिका दाखिल करना न केवल हास्यापद है बल्कि उससे भी ज्यादा हास्यासपद है वे आधार जो केन्द्रीय सरकार ने अपनी उक्त याचिका मे दिये है।
            भारतीय दंड संहिता एक केन्द्रीय कानून है जो 1860 में तत्कालीन विधायिका द्वारा पारित किया गया था। यह सर्वविदित है कि केन्द्रीय कानून बनाने का अधिकार सिर्फ संसद (विधायिका)को है। कानून की किसी भी धारा को समाप्त करने या उसमें संशोधन का अधिकार भी संसद को ही है। धारा 377 को उच्चतम न्यायालय द्वारा कानूनन् सही और संवैधानिक घोषित करने के बाद यदि केन्द्रीय सरकार की नजर में उक्त धारा जनहित मे नही है, नागरिक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का हनन है जैसा केन्द्रीय कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने उक्त पुर्नःविचार याचिका प्रस्तुत करने के संबंध मे कहा है। तब केन्द्रीय सरकार ने हाई कोर्ट मे दािखल की गई याचिका के पूर्व ही उसे समाप्त करने के लिए संसद मे कोई बिल क्यो नही लाया ? क्या दिल्ली उच्च न्यायालय मे केन्द्रीय सरकार ने धारा 377 को अवैध घोषित करने के लिये याचिका दायर की थी जिस कारण उसे उच्चतम न्यायालय में उसके विरूद्ध निर्णय आने के कारण पुर्नःविचार याचिका दायर करनी पडी ?उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बावजूद भी केन्द्रीय सरकार अपने वोटरो के हित मे यह पाती है कि यह धारा नागरिको के हित मे नही है तब भी उसे समाप्त करने के लिए कानून में संशाोधन के जरिये संसद मे बिल ला सकती थी। बजाय इसके उच्चतम न्यायालय के माध्यम से पुर्नःविचार याचिका दाखिल करके उसे अवैध घोषित करने की मंशा न केवल संसद की अवमानना है बल्कि उच्चतम न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को त्यागना या बौना करने जैसे है। 76 बिंदुओ के आधार पर दायर की गई पुर्नःविचार याचिका मे समलैंगिक लोगो को गंभीर अन्याय से बचाने के लिये व कई त्रूटियो के आधार पर टिकाउ निर्णय न होने का मुख्य आधार बतलाया है। यह कृत्य केन्द्रीय सरकार का खुद के सिर पर जूते मारने जैसा कार्य है। क्योकि कानून बनाने का कार्य संसद के माध्यम से सरकार ही करती है उसी प्रकार उसे संशोधन या समाप्त करने का अधिकर भी सरकार के माध्यम से संसद का ही है, उच्चतम न्यायालय का नही।इसलिए अपने द्वारा बनाये गये कानून को सरकार स्वयं जाकर उच्चतम न्यायालय मे यह कहकर की वह सही नही पूर्णतः नैतिकता के खिलाफ है व उसके संवैधानिक उत्तरदायित्व के विरूद्ध भी है। इतना स्पष्ट रूख तो केन्द्रीय सरकार ने उच्चतम न्यायालय में सुनवाई के दौरान दाखिल किये गये शपथ पत्र मे भी नही लिया था।
            उच्चतम न्यायालय में दाखिल की की गई पुर्नविचार याचिका में केन्दीय सरकार का यह तर्क की हाईकोर्ट (उच्च न्यायालय) के निणर्य के बाद वह कानून बन गया था और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से समलैगिक वर्ग को आहत पहुचेगा बहुत ही खतरनाक तर्क है। क्या केन्द्रीय सरकार उक्त कुतर्क देते समय यह भूल गई की इस देश का कानून उच्चतम न्यायालय का निर्णय होता है न कि हाई कोर्ट का निर्णय। यदि हाई कोर्ट के निर्णय के आधार पर कानून का पालन करने की बात की जाय तब बडी अराजकता की स्थिती पैदा हो जोयगी और उच्चतम न्यायालय के अस्तित्व का कोई औचित्य ही नही रहेगा। ऐसा लगता है केन्द्रीय सरकार अपना होश हवास खेा बैठी है और उसका विवेक समाप्त हो गया है। अन्यथा इस तरह की बचकानी हरकत उच्चतम न्यायालय मे पुर्नविचार याचिका दाखिल करके नही करती। अप्राकृतिक यौन (धारा 377) के मामले में केन्द्रीय सरकार का उक्त कार्य उसकी नपुसंकता को ही दर्शाता है। उसमे इतना साहस नही है कि वह उक्त धारा को समाप्त करने के लिए संशोधन बिल या अध्यादेश लाये जैसा कि उसके कई केन्द्रीय नेता उक्त निणर्य के बाद चर्चा कर रहे थेे।

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

संसद में लोकपाल बिल पारित! राजनीति का अर्द्धसत्य!

राजीव खण्डेलवाल:
                     अंततः 44 वर्ष से अधिक समय से लंबित लोकपाल बिल लोकसभा मंे पारित हो गया। ‘अन्ना’ के ‘अनशन’ के ‘दबाव’ व दिल्ली में ‘आप’ की अप्रत्याशित जीत के चलते जिस तरह से बिल राज्यसभा में प्रस्तुत कर कल पारित किया गया था। उससे इस बात की सम्भावना पूरी बलवती हो गयी थी कि अब लोकसभा में पारित होकर निकट भविष्य में राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होकर लोकपाल कानून का असली जामा पहन लेगा। लोकसभा में बिल पारित होते ही एक तरफ जैसे ही अन्ना समर्थकों ने खुशी जाहिर की और अन्ना ने राहुल गांधी सहित सभी पार्टियों को (समाजवादी पार्टी को छोड़कर) बधाई भेजी वह प्रतिक्रिया असहमझ थी। लेकिन इसके विपरीत केजरीवाल टीम के कुमार विश्वास ने इसे जिस तरह आज का काला दिन कहा यह भी कम आश्चर्यजनक कथन नहीं था। कुछ समय पूर्व तक एक साथ खड़े रहे अन्ना व केजरीवाल टीम के व्यक्ति आज विपरीत दिशा में खड़े होकर उनके द्वारा उपरोक्तानुसार कहा गया कथन राजनीति के उस अर्द्धसत्य को पूनः स्थापित करता है जिसमें रहने वाला हर व्यक्ति इससे इनकार करता है। 
                      यहां न तो अन्ना पूरी तरह सही है न ही वे अपने प्रतिक्रिया में सही थे और न ही कुमार विश्वास या केजरीवाल की टीम का लोकपाल के बिल के सम्बंध में की गई टिप्पणियां। लेकिन वास्तविक राजनीति का यही अर्द्धसत्य है। यदि पिछले वर्ष उस दिन को याद किया जाये जिस दिन लोकसभा में सर्वसम्मति से ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित कर प्रधानमंत्री ने चिट्ठी रामलीला मैदान में अनशन कर रहे अन्ना हजारे के पास भेजकर यह अनुरोध किया था कि वे संसद में व्यक्त की गई भावनाओं के अनुरूप अपना अनशन समाप्त करें। इस पर विचार और विश्वास कर जो तीन मुद्दे अन्ना ने उठाये थे उनको आधार मानकर लोकसभा ने सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया था, पर विश्वास कर अपना अनशन तोड़ा था। उन तीन मुद्दो का इस पारित लोकपाल बिल में न तो कोई हवाला है और न ही उस दिशा में जाने का कोई संकेत है। इसके बावजूद यदि अन्ना ने इस बिल का स्वागत किया है तो उसका एकमात्र कारण यही है कि 44 वर्ष से जो लोकपाल इस देश का कानून नहीं बन पाया वह कम से कम इस देश का कानून तो बन ही गया है। जिस प्रकार इस देश में 100 से अधिक संविधान संशोधन हो चुके है और विभिन्न कानूनों में संशोधन होते रहते है। उसी तरह इस बिल में भी भविष्य में सुधार सक्रीय रहकर व आंदोलन व अन्य तरह के दबाव के रहते उसकी संभावना बनी रहेगी। ठीक इसी प्रकार केजरीवाल की टीम कुमार विश्वास का इसे काला दिन कहना भी पूर्णतः सही नहीं है। उनका यह कथन तो सही है कि यह अन्ना द्वारा प्रस्तुत जनलोकपाल से मेल नहीं खाता लेकिन लोकसभा में पारित होने के बाद राज्यसभा में जब विचार हेतु प्रस्तुत किया गया। तब ‘‘संसद की प्रवर समिति’’ द्वारा दी गई 16 सिफारिशों में से 15 सिफारिशों को केन्द्रीय सरकार के द्वारा स्वीकार किया जाकर जब राज्यसभा में यह बिल रखा गया तो निश्चित रूप से यह बिल जनलोकपाल न होने के बावजूद जनलोकपाल के काफी नजदीक था। कुमार विश्वास को इसे यह कहकर स्वीकार करना चाहिए था कि शेष मुद्दों पर जनजागरण और आंदोलन करके अन्ना के अधूरे कानून को पूरा करके जनलोकपाल बिल पारित कराया जाएगा। हमारे देश का यही सबसे बड़ा गुण है कि यहां प्रत्येक बात उपरोक्तानुसार ‘अर्द्धसत्य’ होते हुए भी सम्बंधित पक्ष सिर्फ स्वयं को ही सत्य होने का दावा करते है। यह अर्द्धसत्य कब सत्य की दिशा की ओर आगे बढ़ेगा, भारतीय राजनीति का यही एक प्रश्नवाचक चिन्ह है? जिसका जवाब भविष्य ही दे सकता है।
                      राजनीति का उपरोक्त अर्द्धसत्य सिर्फ उपरोक्त घटना से ही परिदर्शित नहीं होता है बल्कि दिल्ली में हुए आम चुनाव में आप पार्टी जिस प्रकार से पल-पल अपना रूख बदल रही है इससे भी राजनीति का यह ‘अर्द्धसत्य’ सत्य सिद्ध होता है। पिछले कुछ वर्षो के राजनैतिक पटल में कांग्रेस ने दिल्ली में सरकार बनाने के मुद्दे पर जनता के स्वीकार योग्य ऐसा पासा फेंका जिसकी उम्मीद ‘आप’ को जरा सी भी नही थी। ‘आप’ की 18 मांगो पर कांग्रेस के जवाब का तड़का क्रिकेट में गुगली फेंकने के समान था। जो आम लोगो के लिये तो अर्द्धसत्य है लेकिन दोनों पार्टी इस गुगली को अपनी विजय मान रही है। इसके जवाब में अरविंद केजरीवाल ने जोश में होश खोते हुए सरकार बनाने के मुद्दे पर यह कह कि इस मुद्दे पर जनता के बीच जाकर पूछना चाहते है, तब उन्हे इस बात का भी स्पष्टीकरण देना होगा कि एक बार जनता ने पॉच साल ‘आप’ को चुन लिये जाने के बाद आप किन-किन मुद्दो पर जनता के बीच जायेंगे? किन-किन मुद्दो को विधायक दल की बैठको के बीच में निपटायेंगे? सरकार बनाने पर किन-किन मुद्दो पर मुख्यमंत्री निर्णय लेंगे? किन-किन मुद्दो को आप पार्टी के संरक्षक के रूप में निपटायेंगे? यह भी स्पष्ट करना होगा। इस तरह क्या ‘आप’ प्रजातंत्र को मजाक की स्थिति में तो नहीं पहुंचा देंगे? या ‘आप’ यह भी कहने का भी साहस करेंगे की आप पार्टी का विधायक दल का नेता भी जनता ही चुने, न की चुने हुए विधायक। क्योंकि केजरीवाल के मन में बसे हुए लोकतंत्र में यह एक आदर्श व्यवस्था होगी जब विधायकगण केजरीवाल के दबाव के चलते अपना नेता न चुने। यह अवसर केजरीवाल ने दिल्ली की जनता को उसी प्रकार देना चाहिए जिस प्रकार सरकार बनाने लिये वे जनता के बीच ‘‘जाते हुए’’ दिखना चाहते है। यह भी राजनीति का अर्द्धसत्य ही हैं। यह बात समझ से परे है कि राजनीति का हर व्यक्ति राजनीति के इस अर्द्धसत्य को स्वीकार करके सत्य की ओर क्यों नहीं बढ़ना चाहता है? वास्तव में जिस दिन हमारे दिल में यह भावना दृढ़ रूप से आ जाएगी कि हम भी राजा हरिशचंद्र के समान सत्य की ओर बढ़ने का प्रयास करेंगे तभी लोग अर्द्धसत्य को राजनीति का मात्र ‘‘अर्द्धसत्य’’ ही मानकर उस यथार्थ को उसी रूप में स्वीकार कर सत्य की ओर चलेंगे तो ही देश का कल्याण होगा क्योंकि तभी राजनीति का भी कल्याण होगा। क्योंकि दूर्भाग्य से यह देश राजनीति से चलता है।

(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

दिल्ली में सरकार गठन का संकट!

क्या वास्तव में दिया गया जनादेश द्वारा उत्पन्न हुआ है?
हाल ही में चार राज्यो में हुए चुनाव में से तीन राज्यो मे ‘‘भाजपा’’ को अप्रत्याशित सफलता (छत्तीसगढ को छोड़कर) प्राप्त हुई है। केंद्रीय राज्य दिल्ली मंे ‘‘आम आदमी पार्टी’’ (आप) की उपस्थिति के कारण भाजपा बहुमत नही पा सही, क्योकि शेष तीनो प्रदेशो में तीसरी शक्तियों नही थी, जैसा कि दिल्ली में थी जिस कारण कांग्रेस और भाजपा के बीच वोटो का ध्रुवीकरण हुआ। हॉलाकि राजस्थान में किशोरीलाल मीणा की ‘‘राष्ट्रीय प्रजा पार्टी’’ ने तीसरी शक्ति बनने का प्रयास किया लेकिन वह बुरी तरह से असफल हुई। दिल्ली में अगर आकड़ो के दृष्टि से देखे तो किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नही मिला, इस कारण से कोई भी पार्टी सिर्फ अपने बलबूते पर सरकार बनाने में असफल है। आश्चर्यजनक रूप से समस्त राजनैतिक पार्टियो ने इस वास्तविकता को स्वीकार कर नैतिकता की दुहाई देते हुये न केवल सरकार बनाने का दावा पेश नहीं किया बल्कि सरकार बनाने के लिये बिना मांगे एक दूसरे को सहयोग करने की इच्छा को भी इंकार कर दिया।
इतिहास की बानगी देखिये पूर्व मे दोनो राष्ट्रीय पार्टीयो ने चुनाव में बहुमत प्राप्त न होने की दशा में भी सरकार बनाने का दावा कर सरकार चलाई है। चलती सरकारो को जोड़-तोड़कर, दल बदलकर, या पार्टी में विभाजन करके न केवल गिराया है बल्कि इसी तरीके से सरकारे भी बनाई है व अल्पमत सरकार भी काफी समय (बहुमत में बदलने) तक चलाई है। फिर चाहे कांग्रेस हो भाजपा हो या फिर कोई क्षेत्रीय दल। कल्याण सिंह और जगदम्बिका पाल का उत्तर प्रदेश का उदाहरण हमारे सामने है। जगदम्बिका पाल मात्र एक दिन के लिए मुख्यमंत्री पद की शपथ ले पाये जिसे माननीय उच्च न्यायालय ने शून्य घोषित कर दिया था। झारखंड में मधुकोडा का उदाहरण भी सामने है जो अकेले निर्दलीय चुनाव जीतकर आने के बाद भी मुख्यमंत्री बन बैठे थे।
केजरीवाल का यह तर्क कि उन्हे सरकार बनाने के लिए जनादेश नही मिला है इसलिए वे सरकार नहीं बनायेगे। आवश्यक संख्या (बहुमत) नहीं मिला लेकिन आवश्यक जनादेश नहीं मिला यह कहना राजनैतिक पटल पर उभर रही परिस्थितियों के विपरित होगा। क्या यह एक राजनैतिक तर्क है, जो भविष्य की राजनीति को देख कर दिया गया  है, या जनादेश का अर्थ अपनी सुविधानुसार निकालने का तरीका है। जैसा की सामान्यतः राजनैतिक पार्टिया करती रही है। वास्तव मे दिल्ली की जनता ने आप पार्टी के विधायक 28 भाजपा के विधायक 31 और 8 विधायक कांग्रेस के लिये चुने है। 8 कांग्रेसी विधायक यदि किसी बात को कह रहे है तो वह उस क्षेत्र की जनता की भावना को ही प्रकट कर रहे है क्योंकि वे जनता के चुने हुये प्रतिनिधि है। जिस प्रकार की 28 विधायक की बात केजरीवाल कह रहे है। जब कांग्रेस ने अरविंद केजरीवाल के समर्थन मांगे बिना किसी शर्त के ‘‘आप’’ को समर्थन देने की घोषणा कर दी है व भाजपा भी इस का स्वागत कर रही है तब सरकार बनाने के लिए उसको स्वीकार न करने का केजरीवाल का तर्क बेमानी सिद्ध हो जाता है। क्योकि आप अपने ऐजेन्डे पर सरकार बनाने जा रही है। ऐसे में यदि कांग्रेस बिना किसी शर्त के समर्थन दे रही है, इसके बावजूद निकट-दूरस्थ भविष्य में यदि किसी मुददे पर कांग्रेस के विधायक ‘‘आप’’ सरकार से समर्थन वापस लेते है तो या तो भाजपा समर्थन देकर या अनुपस्थित रहकर उक्त मुद्दे पर सरकार को बचा सकती है। यदि यह मुददा जनहित मे है या ‘‘आप’’ के ऐजेन्डे में शामिल है। इसके विपरीत भी यदि सरकार राजनैतिक चालबाजी के कारण गिरती है तो गिराने वाला दल को मध्यवर्ती चुनाव में जनता को न केवल कड़ा सबक सिखायेगी बल्कि ‘‘आप’’ को पूर्ण बहुमत देकर अपनी विवेक का परिचय भी देगी।
इसलिए अरविंद केजरीवाल दिये गये जनादेश केा विभाजित करके उसका राजनेतिक अर्थ न निकाले और यदि कांग्रेस जनादेश को देखते हुए बिना किसी शर्त के और बिना आपके मांगे यदि ‘‘आप’’ को समर्थन दे रही है तो केजरीवाल को उन्हे धन्यवाद देकर सरकार बनाकर अपने ऐजेन्डा पर तुरंत कार्य प्रारंभ करना चाहिए क्योकि तब केजरीवाल पर कोई भी व्यक्ति यह आरोप नही लगा सकता है कि उन्हे सत्ता के लिए बेमेल गठजोड़ किया है। 
 वैसे भी संविधान मे यह व्यवस्था है कि सरकार चलाने के लिये विधानसभा में उपस्थित सदस्यों का बहुमत ही सदन में होना चाहिए न कि कल चुने हुए सदस्यो का। इसलिए कांग्रेस और भाजपा दोनो सीधे समर्थन न देकर विधानसभा मे किसी भी मुददे पर परिस्थितिवश अनुपस्थित रह कर या पक्ष में वोटिंग कर अपना दायित्व पूर्ण कर सकते है। जैसा कि मुलायम सिंह यूपीए सरकार के साथ कर रहे है। लेकिन यहां अंतर स्पष्ट है। यूपीए सरकार की सत्ता की मजबूरी है इसलिए उन्हे मुलायम सिंह की कई बार गलत सही बातो को स्वीकार करना पड़ता है। लेकिन अरविंद केजरीवाल चुंकि सत्ता के भूखे नहीं है, जो अभी तक उन्होने सिद्ध भी किया है। भविष्य में ऐसी स्थिति पैदा होने पर वे जनता के बीच सीधे जाकर  पूर्ण बहुमत के साथ लौट सकते है। तब जनता अपनी गलती स्वीकार कर लेगी। लेकिन जनता को यह अवसर प्रदान तो कीजिए की वास्तव में उसके द्वारा भारी गलती हुई है और कोई परिस्थिति शेष नहीं बची है। यह तभी संभंव होगा जब केजरीवाल जनता से किये वादों को पूरा करने के लिए उक्त बहुमत न होने के बावजूद परिस्थितिजन्य उत्पन्न बहुमत को स्वीकार कर सरकार बनाकर सरकार चलाने का सफल प्रयास करे। इसके बावजूद दोनों राजनैतिक पार्टियों द्वारा भविष्य में उन्हे असफल करने के प्रयास करने पर वे जनता के बीच पुनः चुनाव के लिए जा सकते है।
अंत में जनादेश के बाबद केजरीवाल की व्याख्या को बारीकी से देखा जाय तो केजरीवाल ने जनता के निर्णय को हमेशा सर्वांेपरी माना है। एबीपी न्यूज चैनल द्वारा किए गये सर्वे व अन्य लोगो के विचारो को देखा जाय तो आम जनता भी यही चाहती है कि केजरीवाल सरकार बनाये। इसके बावजूद यदि वे वास्तविक जनादेश न मिलने के नाम पर अड़े रहते है तो उन्हे यह नहीं भूलना नहीं चाहिये कि उन्हे कुल वैध मतो का 50 प्रतिशत मत नहीं मिला है जो ही एक वास्तविक लोकतंत्र है जिसकी लड़ाई वह हमेशा से लड़ते चले आ रहे है। तो उन्हे क्या यह घोषणा नहीं करना चाहिये कि वे 50 प्रतिशत से अधिक वैध मतदाताओं का समर्थन मिलने पर ही सरकार बनायेंगे? केजरीवाल का एक तरफ यह आव्हाहन कि अच्छे लोग अपनी पार्टी छोड़कर हमारा समर्थन देवे लेकिन पार्टियों के समर्थन से परेज भी विरोधाभाषी कदम है जिसका भी जवाब उन्हे जनता को देना होगा। 

(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

माननीय उच्चत्तम न्यायालय का जस्टिस गांगुली यौन शोषण प्रकरण में निर्णय! एक असहाय स्थिति।

              माननीय उच्चत्तम न्यायालय के पूर्व सेवानिवृत न्यायाध्ीष एवं पष्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जस्टिस ऐ. के. गांगुली पर उनकी एक महिला ला इंटर्न (प्रषिक्षु) द्वारा  यौन शोषण का आरोप लगाया गया था। इसकी जांच स्वप्रेरणा से माननीय उच्चत्तम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीष ने तीन सदस्यीय कमेटी बनाकर कराई गई जिसकी रिपोर्ट आज प्रकाषित हुई है। इसमें कमेटी ने प्राथ्मिक जॉच में जस्टिस गांगुली पर लगे यौन शोषण के आरोप को प्रथम दृष्टाया सही  पाया है। लेकिन सबसे आष्चर्यजनक बात जो उच्चत्तम न्यायालय ने इस प्राथमिक जांच रिपोर्ट पर विचार करने के पष्चात कही है वह यह कि न्यायाधीषों की बैठक बुलाकर माननीय उच्चत्तम न्यायालय ने यह निर्णय लिया है कि घटना के वक्त जस्टिस गांगुली न तो उच्चतम न्यायालय की सेवा में थे और न ही ला प्रषिक्षु का कोई संबंध उच्चत्तम न्यायालय से था और न ही वह उच्चत्तम न्यायालय में वह प्रषिक्षु थी इसलिये माननीय उच्चत्तम न्यायालय ने यह कहा कि वह अपनी आरे से  कोई कार्यवाही नहीं करेंगा । माननीय उच्चतम न्यायालय की उक्त प्रकरण की यह समीक्षा अत्यंत आष्चर्यजनक व हतप्रत करनेवाला निर्णय बुद्धिजीवी नागरिको  के बीच महसूस हुई।  
          वास्तव में माननीय उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय न्याय व्यवस्था को हिला देने वाला और उच्चत्तम न्यायालय के प्रति अभी तक पैदा हुये विष्वास में एक प्रष्न चिन्ह अवष्य लगायेगा? क्या यह वही उच्चतम न्यायालय नही है और क्या जनता को यह ख्याल नही है कि सन 1975 में आपात् काल लगने के बाद माननीय जस्टिस भगवती ने एक मीसाबंदी द्वारा अपने अवैध निरोध (बंदी) के विरूद्ध एक पोस्टकार्ड को हेवियस कार्पस याचिका मानकर सुनवाई करके तत्समय न्यायिक क्षेत्र में वाह वाही लुटी थी और उनका यह कदम एक बडा क्रांतिकारी कदम न्यायिक क्षेत्र में माना गया था । कहने का मतलब यह कि जब माननीय उच्चतम न्यायालय के ध्यान में कोई बात लाई जाती है जिसमें प्रथम दृष्टाय कानून का उल्लघन होना प्रतीत होता है या स्वयं उच्चतम न्यायालय के संज्ञान में कोई जानकारी आती है तो उच्चत्तम न्यायालय ने उस पर हमेषा ही कार्यवाही की है। ऐसे अनेक उदाहरण माननीय उच्चतम न्यायालय के इतिहास से भरे हुए है। लेकिन जस्टिस ए के गांगुली के प्रकरण में जांच समिति ने प्रषिक्षु के आरोपो को प्रथम दृष्टतया तथ्य सही पाये जाने के बावजूद इस आधार पर कि जस्टिस गांगुली घटना के समय उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीष नही थे या प्रषिक्षु सें कोई संबंध  उच्च्तम न्यायालय का नहीं था कथित किया गया है इसलिए कोई कार्यवाही नही की जा रही है वह निष्चित रूप से घोर निराषावादी व माननीय उच्चतम न्यायालय का विसंगति पूर्ण आधार (Contradictory) है। क्योंकि यदि वे दोनों व्यक्ति  माननीय उच्चतम न्यायालय से संबंधित नही थे तो उच्चत्तम न्यायालय ने स्व प्रेरणा से कमेटी बनाकर जांच क्यों की । इसका जवाब माननीय न्यायालय ही दे सकता है । इससे तो यह इस बात का संदेष ही जनता के बीच जायेगा कि जब एक न्यायिक साथी पर कोई आरोप पीड़िता द्वारा लगाया जाता है जो कि प्रथम दृष्टाया उच्चतम न्यायालय द्वारा सही भी पाया जाता है तो भी माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा कार्यवाही न करने का निर्देष भेद भाव की दृष्टि से देखा जायेगा और अपने साथी के बचाव में कार्य करना माना जावेगा। वास्तव में एक नागरिक की हैसियत से भी जब जस्टिस गांगुली दोषी पाये गये है तब माननीय उच्चतम न्यायालय  को भारतीय दंड संहिता  एवं दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अपने रजिस्ट्रार को उचित कार्यवाही करने के निर्देष देने चाहिए थे।

             न्याय व्यवस्था का जनता के प्रति पूर्ण विष्वास बना रहे इस लिये माननीय उच्चत्तम न्यायालय कानून के अंतर्गत आवष्यक कार्यवाही करने के निर्देष देवें बजाय इसके यह जुमला जो हमेषा सुनने को मिलता है कि कानून  अपना काम करेगा । ताकि न्याय पालिका एक मूक दर्षक के रूप में देखती हुई न दिखे और जनता का न्याय पालिका के प्रति विष्वास पूर्वत् और पूर्णरूप से बना रहे अन्यथा यह एक घटना और उच्चत्तम न्यायालय का उक्त दोहरा तर्क न्यायपालिका पर पडे धब्बे को दूर नहीं कर पायेगा।

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