मंगलवार, 28 मार्च 2017

गोवा में सरकार बनाने में कांग्रेस की ‘‘असफलता’’ या संविधान की हत्या?

पांच राज्यांे में साथ-साथ हुये गोवा विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, लेकिन सरकार बनाने में असफल रही। भाजपा ने न केवल बहुमत होने का दावा पेश किया बल्कि विधानसभा में विश्वास मत जीतने में भी सफल रही। गोवा के मुद्दे पर न केवल राजनैतिक मत, बल्कि वैधानिक मत भी बंटा हुआ हैं। इसके चलते कांग्रेस ने न केवल वरिष्ठ वकील एफ.एस.नरीमन के विचारो को प्रचारित कर आधार मानकर राज्यपाल के निर्णय की न केवल कड़ी आलोचना की बल्कि लोकसभा में भी हंगामा मचाया। मनोहर पर्रिकर बहुमत के प्रति न केवल स्वयं आश्वस्त थे बल्कि उन्होंने आशानुरूप सदन के पटल पर उसे सिद्ध भी कर दिया। गोवा के मामले में माननीय उच्चतम् न्यायालय के द्वारा पूर्व में एस.आर.बोम्मई के प्रकरण में दिये गये प्रतिपादित सिद्धान्त का बार-बार हवाला देकर कांग्रेस का यह कहते और मानते रहना कि ‘‘राज्यपाल महोदय को सबसे बडे़ राजनैतिक दल होने के कारण कंाग्रेस को सरकार बनाने के लिये निमंत्रण देना ही चाहिये था और बहुमत का निर्णय सदन के पटल पर ही किया जाना चाहिए था’’ व्यर्थ ही साबित हुआ। निश्चित रूप से एस.आर. बोम्मई व अन्य कई निर्णयों में माननीय उच्चतम् न्यायालय ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया हैं कि बहुमत का निर्णय सदन के इतर राज्यपाल भवन अथवा अन्य स्थान में नहीं बल्कि विधानसभा के पटल पर ही होना चाहिए। लेकिन एस. आर. बाम्ेमई के निर्णय के बावजूद, (जिसमें बहुमत के निर्णय के बिन्दु के अलावा 16 अन्य बिन्दु भी थे) सबसे बड़ी पार्टी द्वारा सरकार बनाने के लिए दावा पेश करने में असमर्थ रहने पर व इसी बीच दूसरी पार्टी द्वारा (अन्य पार्टियों के साथ गठबंधन बनाकर) बहुमत दर्शाते हुए दावा प्रस्तुत कर दिए जाने की स्थिति विशेष में राज्यपाल के पास उक्त गठबंधन के नेतृत्व में सरकार बनाने के लिये निमंत्रण देने के अलावा अन्य कोई विकल्प ही नहीं बचा रह गया था। 
एस.आर.बेाम्मई का प्रकरण व गोवा के प्रकरण में तथ्यों में मूलभूत अंतर हैं। एस.आर.बोम्मई के मामले में कर्नाटक के मुख्यमंत्री जनता दल के एस.आर.बोम्मई के द्वारा मंत्रिमडंल का विस्तार करने के दो दिन पश्चात् ही जनता दल के विधायक मंलाकेरी ने 19 विधायको के पत्र के साथ राज्यपाल को बोम्मई सरकार से समर्थन वापसी का पत्र लिखा जिसके पश्चात् राज्यपाल ने सरकार को भंग करने की सिफारिश राष्ट्रपति को भेजी व तदानुसार कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लागु कर दिया गया था जिसे उच्चतम् न्यायालय गलत करार कर यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि बहुमत का निर्णय सदन के पटल पर ही होना चाहिए। परन्तु गोवा में राजनैतिक परिस्थितियों को भॉंपते (शायद पार्टी में विभाजन की स्थिति के मद्वेनजर) हुये कांग्रेस कोई दावा प्रस्तुत करने में न केवल अनिश्चित देरी लगा रही थी बल्कि (राज्यपाल द्वारा भाजपा को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित करने तक) विधायक दल का नेता भी नहीं चुन पा रही थी। इन परिस्थितियों में राज्यपाल के पास क्या विकल्प रह गया था? जब एक पार्टी सरकार बनाने का दावा प्रस्तुत करे तब दूसरे विरोधी पक्ष को उसकी सूचना देने का राज्यपाल का दायित्व क्या संविधान में लिखा हैं? अथवा एक पार्टी द्वारा सरकार बनाने के लिये बहुमत का दावा प्रस्तुत कर देने के पश्चात् तक दूसरी पार्टी द्वारा कोई विरोध अथवा दावा प्रस्तुत नहीं कर पाने की स्थिति में उससे चर्चा करने का क्या कोई संवैधानिक व नैतिक बाध्यता हैं? इस सबका उत्तर नहीं में हैं। यहां यह भी उल्लेख करना सामयिक होगा कि उत्तर प्रदेश में क्रमशः मायावती व आम आदमी पार्टी ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि बहुमत न मिलने कि दशा में वे विपक्ष में बैंठना पसंद करेगें। न किसी को समर्थन देंगे, न किसी का समर्थन लेगे। यद्यपि गोवा में कांग्रेस ने इस प्रकार की कोई घोषणा नहीं की थी। लेकिन चुनाव परिणाम के बाद नई सरकार बन जाने तक उसके कृत्य लगभग ऐसे ही थे। कांग्रेस के द्वारा सरकार बनाने का  प्रयास, दावे या इच्छाशक्ति कुछ भी राज्यपाल के सामने प्रस्तुत नहीं किए गये। अतः राज्यपाल के पास सिवाय मनोहर पर्रिकर को निमंत्रित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया था।
कंाग्रेस के द्वारा कहा गया कि सरकार बनाने के लिये नेता चुनने व दावा करने की कोई समय सीमा नहीं होती हैं व उसे सरकार बनाने के लिये उचित समय नहीं दिया गया। जबकि उत्तर प्रदेश में भाजपा को नेता चुनने व सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिये तुलनात्मक रूप से (11 से 19 मार्च) तक  काफी समय दिया गया था। राज्यपाल पर एक तरफा जल्दबाजी के आरोप लगाये गये। सरकार बनाने की कोई समय सीमा संविधान में निर्धारित नहीं हैं, इससे इंकार नहीं हैं। न ही कोई न्यूनतम सीमा, न ही कोई अधिकतम सीमा। जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल हैं वहां पर भाजपा द्वारा नेता चुनने में की जा रही देरी के बावजूद राज्यपाल के पास दूसरी पार्टी, पक्ष या गठबंधन का सरकार बनाने का कोई दावा सामने नहीं आया था और न ही कोई अन्य सरकार बनाने की स्थिति में था। स्पष्ट रूप से भाजपा के पास वहां तीन चौथाई बहुमत था। जबकि गोवा में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद कंाग्रेस ने दावा पेश ही नहीं किया और जो पार्टी चुनाव में हार गयी थी व जिसका मुख्यमंत्री भी हार गया था, उसने अन्य पार्टीयों से गठबंधन कर बहुमत का दावा पेश किया था दिया एवं सरकार बनाकर बहुमत भी सिद्ध कर दिया। कंाग्रेस पार्टी के द्वारा राज्यपाल के उक्त निर्णय को उच्चतम् न्यायालय में चुनौती दी गई। 
माननीय उच्चतम् न्यायालय में भी कांग्रेस पार्टी ‘‘बहुमत का दावा या, आंकड़ा या शपथ पत्र पेश करने में असफल रही जैसा कि न्यायालय ने अपने आदेश में कहां भी हैं। वास्तव में कांग्रेस पार्टी को अपने नेता के चुनाव करने में पसीना आ रहा था। गोवा में उनकी पार्टी के चार-चार भूतपूर्व मुख्यमंत्री जीत कर आये थे जिसके कारण नेता के चुनाव में हुई देरी के लिये उनके आंतरिक राजनैतिक अडं़गे थे। इसी परिस्थिति विशेष का खामियाजा कांग्रेस पार्टी को भुगतना पड़ा। माननीय उच्चतम् न्यायालय ने भी कंाग्रेस की अपील को खारिज कर दिया। उच्चतम् न्यायालय के पूर्व निर्णय एस.आर. बोम्मई बंधनकारी हैं लेकिन वर्तमान प्रकरण एवं पूर्व प्रकरण में तथ्य साम्यता नहीं हैं। ‘‘पूर्ण बंेच’’ का निर्णय ही ‘‘युगल पीठ’’ पर बंधनकारी होता हैं। उच्चतम् न्यायालय को अपने पूर्व निर्णय पर पुनर्विचार करने का भी अधिकार हैं। अतः यह स्पष्ट हैं कि कांग्रेस गोवा में एक और राजनैतिक लड़ाई हार चुकी हैं।

शनिवार, 25 मार्च 2017

पांच राज्यों के चुनाव परिणाम के मायने?

     11 मार्च को आये पांच राज्यों के चुनाव परिणाम विपक्ष के लिये आंधी और तूफान से ज्यादा एक ऐसीे सुनामी लेकर आये जिस तरह 11 मार्च को जापान के सेंडाड़ में अब तक का सबसे विध्वंशकारी व विनाशकारी भूकंप आया था। परिणाम पर गहरी नजर रखने वाले चुनाव विश्लेषकों व जीतने व हारने वाली पार्टियों सभी की नजर में उक्त परिणाम पूर्णतः अप्रत्याशित व अद्धभुत रहे। यद्यपि उत्तर प्रदेश में भाजपा का नारा था ‘‘अबकी बार 300 के पार’’। लेकिन यह नारा कार्यकर्ताओं में जोश पैदा करने व विपक्ष को हतोत्साहित करने भर के लिये था। उत्तर प्रदेश में समस्त राजनैतिक पंडितों का स्वस्थ्य आकलन भाजपा के पक्ष में अधिकतम 250-280 सीटों के आस पास था। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह एवं प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं सार्वजनिक रूप से उत्तर प्रदेश विधानसभा के उक्त परिणामों का अप्रत्याशित होना स्वीकार किया हैं। यही बात निश्चित रूप से मोदी जी द्वारा भाजपा केन्द्रीय कार्यालय में दिये गए स्वागत भाषण में भी परिलक्षित होती हैं। लेकिन इस तथ्य के बावजूद भी (मात्र पंजाब को छोड़कर) इतना प्रचड़ बहुमत मिलना क्या मोदी सरकार की 3 साल की नीतियों पर जनता की स्वीकार्यता नहीं दर्शाता हैं? 
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पहली बार भाजपा को लोकसभा चुनाव 2014 में प्रचंड़ बहुमत प्राप्त हुआ था। परन्तु विधानसभा के चुनाव के मध्य केन्द्रीय सरकार की रीति-नीति कार्यप्रणाली व कार्य सम्पादन की प्रगति के संबंध में पक्ष-विपक्ष के बीच जिस तरह की नोक-झोंक हुई, उसके बावजूद ऐसा परिणाम निश्चित रूप से दर्शाता हैं कि पांचों राज्यों के परिणाम एक तरह से केन्द्र सरकार की नीतियों पर मोहर हैं। पांचों विधानसभाओं के इन परिणामों की एक विशेषता यह भी रही हैं कि समस्त (पाचों) राज्यों में जनता ने स्थापित सरकार के विरूद्ध निर्णय दिया। (यह बात और हैं कि गोवा में भाजपा ने कांग्रेस की अक्रर्मण्यता के कारण पुनः सरकार बना ली)। पंजाब के चुनाव में अकालियों का साथ भाजपाइयों को ले डूबा। महाराष्ट्र में चुनाव के पूर्व भाजपा ने शिवसेना का साथ छोड़ने का जो साहसिक कदम उठाया और उसे सफलता मिली। ठीक उसी तरह की स्थिति यदि पंजाब में भी हो जाती तो शायद इन चुनावों में इस तरह के परिणाम नहीं आते। स्मरण कीजिये 2014 के लोकसभा चुनाव, जब देश भर में भाजपा को प्रथम बार पूर्ण बहुमत के साथ अप्रत्याशित जीत मिली थी। पांच विधानसभा चुनाव परिणामों पर मोदी जी की प्रतिक्रिया से सिद्ध होता हैं कि उनके लिये विधानसभा चुनाव के ये परिणाम लोकसभा चुनाव के परिणामों से ज्यादा महत्वपूर्ण सिद्ध हुये हैं। क्यांेकि इन परिणामों ने न केवल वर्ष 2019 के चुनाव हेतु उनका रास्ता  साफ कर दिया बल्कि 2024 तक पार्टी द्वारा प्रस्तावित सरकारी कार्य योजनाआंे के क्रियान्वयन की तैयारी पर भी मुहर लगा दी। जैसा कि जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी स्वीकार किया हैं। मोदी ने अपने भाषणों में उनकी कुछ योजनाआंें के जो लक्ष्य 2024-26 के लिये तय किया जाना बताया हैं उनसे भी यही परिलक्षित होता हैं कि वे वर्ष 2019 के चुनाव में पार्टी की जीत को लेकर आश्वस्त हैं। 
़उत्तर प्रदेश चुनाव की एक प्रमुख विशेषता मुख्तार अंसारी का महु सदर विधानसभा से विजयी होना है। मुख्तार अंसारी के खिलाफ राजनैतिक पार्टियॉं, राजनैतिक विश्लेषकगण व मीडिया एक दागी होने का आरोप लगा कर लगातार निंदा करते रहे हैं। अखिलेश यादव ने भी अपनी पार्टी को स्वच्छ दिखाने के लिये न केवल समाजवादी पार्टी में मुख्तार अंसारी की पार्टी एकता आवाम दल के विलय का विरोध किया, बल्कि उसे टिकिट भी नहीं दिया। तत्पशाच् मुख्तार अंसारी ने बसपा पार्टी से टिकिट प्राप्त कर विजय प्राप्त की। जनता के द्वारा दागी व्यक्ति को चुनने पर न तो मीड़िया ने इस पर कोई आवाज उठायी, और न ही कोई हाय तौबा मचाई। इस प्रकार किसी व्यक्ति विशेष के दागी होने के कारण जब कोई व्यक्ति या पार्टी उसे टिकट न देने का साहस दिखाती हैं, परन्तु दूसरे दल द्वारा टिकिट दिये जाने पर जनता जब उसी को चुनकर भेजती हैं तब उस जीत से क्या यह सिद्ध नहीं हो जाता हैं कि जन मानस के मन में केवल दबंग व दागी होना ही अयोग्यता की  निशानी नहीं हैं? वरण् यदि दागी व्यक्ति के चरित्र का दूसरा पक्ष उज्जवल हैं, वह जनसेवी हैं तो जनता उसके दागी व्यक्तित्व वाले एक पक्ष को नजर अंदाज करके उसके जनसेवी उज्जवल चरित्र को स्वीकार कर उसे चुन लेती हैं। क्या जनता के इस प्रकार के विचित्र विवेक पर प्रश्न चिन्ह नहीं उठाया जाना चाहिए? जो मीड़िया किसी नेता के खंॉंसे जाने की प्रवृत्ति पर भी बहस करा लेता हैं। क्या उसे जनता के ऐसे विवेक पर भी बहस नहीं कराना चाहिए। आखिर राजनीति में अपराधीकरण पर रोक कैसे लगेगी? मुख्तार अंसारी यदि स्वयं में पूर्णतः सक्षम होते तो उसे किसी पार्टी (समाजवादी, बाद में बसपा) के सहारे की आवश्यकता नहीं होती। लेकिन पूर्णतः सक्षम न होने के बावजूद उसने अपनी उतनी क्षमता अवश्य प्रदर्शित की हैं जो एक लोकतांत्रिक राजनीति में आवश्यक होती हैं। समाजवादी पार्टी छोड़कर बसपा (जो चुनाव में बुरी तरह से हार गई हैं) की टिकिट पर चुनाव जीतकर आना जनता के बीच उसकी मजबूत राजनैतिक पकड़ को ही प्रदर्शित करता हैं। लेकिन वह पकड़ इतनी मजबूत भी नहीं हैं कि वह अपने भाई व बेटा को जितवा पाता (जो हार गये हैं)।
जीत व्यक्ति को कई बार घमंड़ से भर देती हैं तो कई बार उसे और नम्र बना देता हैं। मोदी के व्यक्तित्व पर जीत के दोनो प्रभाव पाए गये हैं। वर्ष 2014 कीे जीत से सीएम से पीएम तक पहुॅचने के कारण उनके व्यक्तित्व में कुछ ज्यादा गरूऱ-घंमड़ दिखता हैं जो उनके व्यक्तित्व से झलकता रहा हैं, तो इन पांच प्रदेशों (जो कि देश का अल्पांश मात्र हैं) की जीत ने मोदी के व्यक्तित्व में अब गरूऱ-घंमड़ की जगह नम्रता भर दी हैं। यह नम्रता विजय के बाद केन्द्रीय भाजपा कार्यालय में आयोजित सम्मान स्वागत समारोह में उनके द्वारा दिए गये भाषण में भी झलकी हैं।

गुरुवार, 2 मार्च 2017

एक नागरिक की ‘देशभक्ति’ पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाये जाने का कितना औचित्य ?

रामजश कॉलेज दिल्ली में हुई घटना के संबंध में वर्ष 1999 में हुये शहीद केप्टन मनदीप सिंह की बेटी गुरमेहर के द्वारा किये गये ट्वीट पर कुछ लोगों द्वारा उसकी देशभक्ति पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाना कितना जायज व उचित हैं? जेएनयू दिल्ली में पिछले वर्ष हुई घटना (वर्तमान घटना से कुछ हटकर) के बाद यह प्रश्न एक बार पुनः उत्पन्न हुआ हैं। आखिर गुरमेहर ने क्या ट्वीट किया? यदि उन शब्दों व उसके पीछे छुपे भाव को देखा जाए (जैसा कि उसकी मां ने बाद में स्पष्ट किया हैं) तो उसने वही कहां हैं जो हमेशा से भारत सरकार की पाकिस्तान के प्रति यथा संभव शांति, सद्भाव व अस्तित्व की नीति रही हैं। युद्ध मात्र एक अंतिम अस्त्र हैं। भारत सरकार ने हमेशा अपनी आत्मरक्षार्थ पाकिस्तान के आक्रमण का मुहतोड़ जवाब दिया हैं। आगे बढ़कर उसने कमी भी पाकिस्तान पर आक्रमण नहीं किया हैं। इसके विपरीत अमेरिका सहित विश्व के कई देशों ने अपने हितो के पालन में स्वतः आक्रमण की नीति अपनाई हैं। 
हमारे देश काश्मीर से कन्याकुमारी तक अनेकता में एकता समाविष्ट हैं। राजनीति में भी अम्मा से चिनम्मा (तमिलनाडू) तक सफर करने के बावजूद हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहलाता हैं। भिन्न-भिन्न प्रथाओं, रीति-रिवाजों, पूजा पद्धतियांें विश्वास एवं अंघ-विश्वासों के बावजूद हमारा देश एक शांति प्रिय, आध्यात्मिक देश माना जाता हैं जो सदियों से आधुनिकता के साथ-साथ अपनी संस्कृति की पहचान की धरोहर व विशिष्टताएॅ संजोए हुये हैं। इस तरह जब हमारी संस्कृति, लोकतंत्र व आध्यात्म के विभिन्न प्रारूप मौजूद हैं, तब हमारे देश में मात्र एक कथन (जिसका कुछ भाग निश्चित रूप से अनुचित व अवॉंछनीय हैं) को सीधे देशभक्ति से बॉंधना और उसपर एकतरफा देशभक्ति का प्रश्न पैदा कर देना क्या अपने आप में स्वयं पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाता हैं? आखिर देशभक्ति हैं क्या? क्या यह दो शब्दों देश-भक्ति की सन्धि मात्र हैं? लोगों को किसी भी घटना (फिर वह चाहे कितनी ही असंगत क्यों न हो) पर सीधे देशभक्ति का प्रश्न उठाने के पहिले यह तो समझ लेना चाहिए कि देशभक्ति वास्तव में किसे कहते हैं तथा देशभक्ति के साथ कैसे जिया जाता हैं? 
जिस किसी भी व्यक्ति ने इस देश में जन्म लिया अथवा इस देश की नागरिकता प्राप्त कर ली हैं, ऐसा प्रत्येक नागरिक देशभक्त हैं, और कम से कम तब तक देशभक्त हैं जब तक कि (सजा की बात छोड़ भी दे तो) उस पर किसी देशद्रोह के आरेाप की प्रथम सूचना पत्र दर्ज नहीं हो जाता है।ं देशप्रेम एक कथन मात्र नहीं हैंं जिसे एक जुमले के द्वारा खंड़ित कर दिया जाए! मैं रामजश कॉलेज दिल्ली में हुई घटना के संबंध में देशभक्ति का प्रश्न उठाने वालांे सेे यह जानना चाहता हूं कि क्या उन्होंने आरोपित व्यक्ति के खिलाफ देशद्रोह के अपराध की प्रथम सूचना पत्र देश के किसी भी थाने में दर्ज कराई हैं? देश के एक जागरूक देशभक्त नागरिक होने के कारण क्या देश के प्रति उनसे यह अपेक्षित कर्त्तव्य नहीं हैं। अतः उक्त दायित्व न निभा पाने के कारण क्या वे स्वयं देशद्रोही की श्रेणी में नहीं आ जाते हैं? 
आखिर देशप्रेम हैं क्या? क्या आंतरिक सुरक्षा में लगे हुई संस्था (सिस्टम) के कार्य कलाप देशप्रेम की सीमा में नहीं आते हैं? क्या देश के सुद्रढ़़, मजबूत खुशहाल व विकास की ओर ले जाने के लिये अपने नागरिक कर्त्तव्यों के पालनार्थ स्वयं की आहुति देने का कार्य प्रत्येक नागरिक का नहीं हैं? क्या इसे देशप्रेम में नहीं गिनना चाहिए? और यदि यह सब देशप्रेम हैं तो एक नागरिक की कोई चूक/असावधानी, कर्त्तव्य हीनता या देश के ‘‘स्वास्थ्य’’ पर किसी भी प्रकार का चूना लगाने वाला कलाप क्या उसे देशद्रोह की अंतिम परिणिति  तक ले जाना उचित होगा। क्या प्रत्येक वह कार्य जो देशप्रेम की परिभाषा में नहीं वे देशद्रोह कहलायेगे प्रश्न यह हैं। कुछ लोग यह कह सकते हैं कि जिस प्रकार न्याय अंधा होता हैं उसी प्रकार देशप्रेम भी अंधा होता हैं। निश्चित रूप से न्याय अंधा कहलाने के बावजूद, आज भी नागरिको का इस न्याय व्यवस्था पर पूर्ण विश्वास हैं। वे न्याय पाने के लिये इसी न्याय व्यवस्था के पास जाते हैं। उसी प्रकार देशप्रेम भी अंधा होता हैं और अंधा होना भी चाहिये। जो मात्र एक कथन/कार्य कलाप/एकमात्र घटना से खंड़ित नहीं हो जाता हैं। मातृप्रेम व देशप्रेम में कोई अंतर नहीं हैं। जितना प्रखर मातृत्व प्रेम होता हैं उतना ही देशप्रेम भी। मॉं का अपने बच्चें के प्रति प्रेम प्राकृत हैं वह बच्चे के कार्य/उश्रंृखलता के अनुसार कम या ज्यादा नहीं होता हैं। उसी प्रकार एक नागरिक का देशप्रेम भी प्राकृतिक व स्वाभाविक हैं। अपवाद हर क्षेत्र में होते हैं। अतः हर वह व्यक्ति जो देश की अखंडता व अस्मिता के साथ खिलवाड़ करता हैं वह देशद्रोही हैं और उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही कर उसे सजा दिलाना देशप्रेम हैं। सिर्फ बयान बाजी से यह कर्त्तव्य पूरा नहीं हो जाता। क्या देशभक्ति को हल्के फुलके ढंग से लेकर उस पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाना आजकल एक फैशन नहीं बन गया हैं?
हमारे समाज में ही कुछ नागरिक विभिन्न अपराध में लिप्त पाये जाते हैं जिन पर भारतीय दंड़ संहिता, अपराध दंड़ प्रक्रिया व विभिन्न कानूनों के अंतर्गत अभियोजन चलाये जाते हैं न्यायालय द्वारा उन्हें सजा दिलाने का प्रयास किया जाता हैं। यद्यपि ऐसे सभी अभियोगी/अपराधियों के ऐसे कार्य एक भारतीय नागरिक होने नाते देश के विधान व संविधान के विरूद्ध हैं, परन्तु क्या वे सब.देशद्रोही हो गये हैं? श्रीमान जी, देशप्रेम की परिभाषा को उसी लचीले पन के साथ लीजिये जिस लचीले पन के साथ आज देश में लोकतंत्र, स्वतंत्रता, सहमति-असहमति की संस्कृति विद्यमान व पल पूल रही हैं। 
जय हिंद!      

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