गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

मोदी सरकार की 10 साल की कार्यावधि में दूसरी बार कदम पीछे हटे।

नवनिर्वाचित कुश्ती संघ का निलंबन! ‘‘कानूनी’’ व ‘‘तथ्यात्मक रूप’’ से गलत।

कुश्ती संघ के चुनाव संपन्न 

लंबे समय लगभग एक वर्ष पूर्व जनवरी से प्रारंभ हुई भारतीय कुश्ती संघ (रेसलिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया-डब्लू.एफ.आई) व खिलाड़ियों के बीच विवाद के चलते 28 नवंबर को उच्चतम न्यायालय द्वारा पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट द्वारा भारतीय कुश्ती संघ के चुनाव पर लगाई गई रोक को हटाते हुए उच्च न्यायालय में लंबित याचिका के परिणाम के अधीन चुनाव कराने के निर्देश दिए। अंततः 21 दिसंबर को कुश्ती संघ के बाकायदा नियमानुसार चुनाव कराए गए। अध्यक्ष पद पर निवर्तमान अध्यक्ष सांसद, बाहुबली व यौन उत्पीड़न के गंभीर अपराध का आरोपी, बृजभूषण शरण सिंह के बेहद करीबी विश्वास पात्र भागीदार, कुश्ती संघ के मंत्री तथा लगभग पिछले 12 वर्षों से कुश्ती संघ में रहे संजय सिंह भारी बहुमत से चुने गए। उल्लेखनीय बात यह कि संजय सिंह हरियाणा की राज्य पुलिस सेवा में कार्यरत अनिता श्योराण जिन्होंने ओडिशा इकाई के रूप में नामांकन भरा था, (जिसे कानूनन गलत बतलाया गया है) तथा जो बृजभूषण सिंह के खिलाफ लगे आरोप में एक गवाह भी है, को हराया। नागरिकों में मान-सम्मान, स्वाभिमान, आत्म स्वाभिमान व नैतिकता की ‘‘कमतर’’ होती भावना तथा चाटुकारिता की वृत्ति में निरंतर वृद्धि होने से ऐसे परिणाम अवश्यसंभावी ही थे।

बनी सहमति के विपरीत चुनाव परिणाम

महिला कुश्ती खिलाड़ियो द्वारा आंदोलन वापस लेते समय गृहमंत्री अमित शाह व खेल मंत्री अनुराग ठाकुर के साथ हुए समझौते के समय दोनों पक्षों के बीच अन्य बातों के साथ एक ‘‘समझ’’ यह बनी थी कि कुश्ती संघ से बृजभूषण शरण सिंह की छाया को भी दूर रखा जाएगा तथा कम से कम एक महिला "संघ" की पदाधिकारी बनाई जाएगी। परंतु ऐसा हो नहीं पाया क्योंकि तकनीकी रूप से सरकार या खेल मंत्रालय के हाथ में यह बात थी ही नहीं। क्योंकि किसी चुनना है यह अधिकार सिर्फ मतदाता के पास होता है। चुनाव कराने वाली संस्था अथवा सरकार उसमें अपनी मनमानी नहीं चला सकती है। यद्यपि अपने प्रभाव का उपयोग कर परिणाम को कुछ प्रभावित अवश्य कर सकती है। लेकिन ‘‘नीम पे तो निबोली ही लगती थी’’ लोकतांत्रिक तरीके से संपन्न हुए चुनाव में सरकार या खेल मंत्रालय का कोई सीधा हस्तक्षेप अमूनन नहीं होता है। हां यदि सरकार जिसने खेल मंत्रालय के माध्यम से संघ की चुनी गई पूरी कार्यकारिणी को निलंबित करने में जिस तरह का दबाव अभी बनाया, यदि वैसा ही दबाव चुनाव के पूर्व बृजभूषण सिंह पर बनाया होता, तब परिणाम शायद दूसरे ही होते। साथ ही उच्चतम न्यायालय के द्वारा जिस प्रकार क्रिकेट बोर्ड के संविधान में मंत्री (मिनिस्टर्स), 70 वर्ष से अधिक उम्र, एक व्यक्ति के कार्यकाल की अधिकतम सीमा आदि लगाई रोक को यदि आगे विस्तार कर समस्त खेल संघों में राजनेताओं की प्रविष्टि पर रोक लगा दी जाती, तब खेलों में विवाद की स्थिति ही नहीं होती।

 पदक वापसी से विवादों को पुन: हवा

उम्मीद थी कि चुनाव होने के बाद यह विवाद समाप्त हो जाएगा। परंतु दुर्भाग्यवश यौन अपराधों का आरोपी बृजभूषण सिंह जिसके विरुद्ध न्यायालय में प्रकरण चल रहा है, के ही चेले सिपहसालारों के चुनाव में भारी विजय प्राप्त करने से निसंदेह बृजभूषण शरण सिंह का कुश्ती संघ पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप पूर्व समान पूरी तरह से प्रभाव बना हुआ दिख रहा हैं जो आगे भी रहेगा। इस वस्तुस्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता है। प्रत्यक्ष उदाहरण जीतने के बाद अध्यक्ष संजय सिंह को मात्र एक माला पहनाई गई और बृजभूषण सिंह के गले को मालाओं को भर दिया गया। बृजभूषण सिंह के सपुत्र द्वारा किया गया ट्वीट उसकी पूरी स्थिति को और साफ कर देता है, ‘‘दबदबा है..., दबदबा तो रहेगा’। ‘‘बेशर्मी को तेरहवां रत्न’’ यूं ही नहीं कहा गया है। इस कारण से उनके विरुद्ध लड़ रही पीड़ित महिला पहलवान अपने को असहाय स्थिति में पाने से ‘‘अस्मिता’’ के अपमान को लेकर लंबी लड़ाई लड़ने वाली ओलंपिक पदक विजेता साक्षी मलिक (एकमात्र ओलंपिक विजेता महिला पहलवान) ने न केवल कुश्ती से सन्यास लेने की घोषणा कर दी, बल्कि उनके समर्थन में पदक विजेता बजरंग पूनिया ने भी अपना पद्मश्री अवार्ड वापस कर दिया। इसके बाद बबीता फोगाट व विनेश फोगाट ने अपने मेडल्स व डेफ ओलंपिक के गोल्ड मेडलिस्ट वीरेन्द्र सिंह ने भी अपना पद्मश्री सम्मान वापिस करने की घोषणा की। ‘‘नानक दुखिया सब संसार’’। फलतः कुश्ती संघ का वर्ष के प्रारंभ में शुरू हुआ विवाद वर्ष के अंत में फिर से सुर्खियों में आ गया।

 जाट समुदाय के बीच फैलता असंतोष

साक्षी मलिक, बजरंग पूनिया, फोगाट व अन्य महिला पहलवानों के जाट बिरादरी से होने के कारण जाटों के अंदर ही अंदर फैल रहे असंतोष को भांपते हुए शायद भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व के इशारों पर खेल मंत्री अनुराग ठाकुर के निर्देश पर खेल मंत्रालय ने धोबी पछाड़ दांव चलाकर उक्त चुनी गई पूरी बॉडी को ही आगामी आदेश तक के लिए चित (निलंबित) कर दिया। यानी ‘‘नयी बहू का दुलार नौ दिन’’ भी नहीं साथ ही भारतीय ओलंपिक संघ को 48 घंटे में तदर्थ बाडी बनाने को कहा।(अभी तीन सदस्यीय समिति बन भी गई है)। साथ ही नवनिर्वाचित अध्यक्ष के लिए गए समस्त फैसलों पर रोक लगा दी। ध्यान देने योग्य बात यह  है कि इस नए चुनाव की प्रक्रिया या वैधता को किसी भी व्यक्ति ने गैरकानूनी या अनियमितता होने के आधार पर कोई चुनौती नहीं दी थी। साथ ही निलम्बन की यह कार्यवाही किये जाने के पूर्व संघ या पदाधिकारियों को कोई कारण बताओं सूचना पत्र नहीं दिया गया। यद्यपि निर्वाचन के तुरंत बाद की गई बैठक में नवनिर्वाचित प्रधान सचिव प्रेमचंद शामिल नहीं हुए थे व जूनियर राष्ट्रीय खेल आयोजन का निर्णय उनकी जानकारी के बिना किया गया था। जबकि प्रधान सचिव का यह कहना है कि सचिव की अनुपस्थिति में कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता है। इसलिए प्रधान सचिव ने लिखित में आपत्ति ली। 

सतही आरोप जिनका चुनावी प्रक्रिया से संबंध नहीं

सरकार की ओर से यह कहा गया कि जो पदाधिकारी चुने गए हैं, उनके पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण सिंह से बड़े करीबी संबंध है व पिछले पदाधिकारीयो के पूर्ण नियंत्रण में प्रतीत होता है। प्रश्न यह है कि क्या कुश्ती संघ के नियम या देश के किसी भी खेल संस्था के नियम में ऐसा कोई प्रावधान है कि जहां पूर्व अध्यक्ष के करीबियों को चुना नहीं जाना चाहिए? क्या मतदाताओं को किसी विशिष्ट व्यक्ति को चुनने या न चुनने का निर्देश दिया जा सकता है। लोकतंत्र में यह क्या एक नई परिपाटी नहीं होगी? यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण बिंदु है जो आगे लोकतंत्र के लिए खतरनाक हो सकता है। निश्चित रूप से कुश्ती संघ के चुनाव का परिणाम ‘‘नैतिकता’’ से जुड़ा हुआ है, न की कानूनी प्रक्रिया से। निर्वतमान अध्यक्ष पर 7 कुश्ती महिलाओं ने ‘‘यौन अपराध’’ के आरोप लगाए थे और कुश्ती महासंघ के ‘‘मतदाताओं’’ ने उक्त गंभीर आरोप को नजर अंदाज करते हुए ऐसे व्यक्तियों को चुना जो आरोपी बृजभूषण सिंह के ‘‘ताश के पत्ते’’ है। जिनको ‘‘ फेंटने का अधिकार’’ सिर्फ उन्हीं के पास बना हुआ है। यह नैतिकता के गिरते हुए स्तर का एक बड़ा उदाहरण है, जो वस्तुतः सामाजिक दर्पण एवं व्यवस्था पर एक तमाचा ही है। जिस पर गहन चितंन-मनन की आवश्यकता है।

संघ के निर्णयों में नियमों की अनदेखी! 

वैसे तो ‘‘ धतूरे के गुण महादेव   ही जानें’’ लेकिन केंद्रीय खेल मंत्रालय की हस्तक्षेप कर राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु की गई यह कार्रवाई किसी भी तरीके से कानूनी रूप से उचित नहीं ठहराई जा सकती है। एक अनेतिकता को दूर करने के लिए दूसरा अनैतिक कदम नहीं उठाया जा सकता है। यह आरोप लगाया गया कि नए चुने हुए संघ ने संविधान के अनुच्छेद xi के अनुसार 15 दिवस व आपातकालीन स्थिति में 7 दिवस की अवधि के प्रावधान के विपरीत बैठक तुरंत कर अंडर 15 और अंडर 20 वर्ष की जूनियर राष्ट्रीय कुश्ती खेल प्रतियोगिता को बृजभूषण सिंह के गृह जिला गोंडा में जल्दबाजी में आयोजित करने की घोषणा को प्रक्रिया व नियमों का उल्लंघन बतलाया। क्या इस आधार पर मात्र 3 दिन पहले ही चुने गए संपूर्ण बोर्ड को  निलंबित किया जा सकता है? अथवा यह उठाया गया चरम कदम कितना उचित है? जिस जल्दबाजी के आधार पर संघ की बैठक को अनुचित ठहराया गया, क्या वही जल्दबाजी की गलती खेल मंत्रालय ने संघ को निलंबित कर नहीं की? यदि जल्दबाजी करना ही थी तो बृजभूषण शरण सिंह के विरुद्ध पास्को एक्ट के अंतर्गत जब अपराध दर्ज हुआ था, तभी तुरंत गिरफ्तारी जो कानूनी रूप से भी आवश्यक थी, कर ली जाती तो मसला यहां तक नहीं पहुंचता। यदि बैठक के आयोजन पर व उसमें लिये निर्णय में किसी नियम का पालन नहीं किया गया है तो, अधिकतम संघ के खेल आयोजन के उस निर्णय को ही रद्द करने की मात्र आवश्यकता थी, जो की गई। परन्तु बाडी निलम्बित नहीं करना चाहिए था। नियमों का पालन कर नई तारीख में राष्ट्रीय खेल आयोजन करने की निर्देश संघ को दिए जाने थे। जबकि संघ का यह कहना है कि 31 दिसम्बर के पहले यदि यह राष्ट्रीय आयोजन नहीं किया गया तो सैकड़ों जूनियर खिलाड़ियों का एक वर्ष का केरियर बर्बाद हो जायेगा। इसीलिए उन्हे तुरंत-फुरंत यह निर्णय मजबूरी में लेना पड़ा।

अराजक स्थिति -अराजक हाथियार

संघ पर खेल मंत्रालय ने यह आरोप भी लगाया कि अभी भी बृजभूषण सिंह के घर से ही संघ का कामकाज चलाया जा रहा है। कुछ घंटों में या चंद दिनों में ही नया भवन दफतर के लिये मिलना संभव नहीं है। संघ के अध्यक्ष का यह कहना है कि बिना सचिव के निर्णय लेना का अध्यक्ष को अधिकार है, जिसे सचिव मानने के लिए बाध्य है। चूंकि खेल की उन्नति के लिए संघ निलंबित नहीं किया गया था। बल्कि इसके पीछे छिपा उद्देश्य राजनैतिक था। इसलिए यदि सिर्फ उक्त निर्देश दिए जाते तो संघ का निलम्बन नहीं होता और तब उनकी राजनैतिक उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो पाती। इससे यह बात भी स्पष्ट होती है कि एक ‘‘अराजक स्थिति’’ से निपटने के लिए ‘‘अराजक हथियार’’ का ही उपयोग करना होगा। ‘‘नाक दबाने से ही मुंह खुलता है’’, और यह सिद्धांत सिर्फ खेल पर ही लागू नहीं होता है, बल्कि देश की राजनीति से लेकर अन्य क्षेत्रों में भी लागू होता है, और हो रहा है। इससे निश्चित रूप से लोकतांत्रिक संस्थाएं और लोकतंत्र पर आंच आ सकती है। इससे बचा जाना चाहिए। इस प्रकार खेल मंत्रालय पर्यवेक्षण में हुए चुनाव नवनिर्वाचित कुश्ती संघ को भंग करने का लिया गया  निर्णय किसानों के तीनों कानून को वापस लेने के निर्णय के समान ही है।

मंगलवार, 19 दिसंबर 2023

मोदी के ‘‘मन’’ को मोहने वाले ‘‘मोहन’’ सबके ‘‘मन मोहन’’।

मोदी है तो ‘‘मुमकिन है ही नहीं’’ बल्कि ‘‘नामुमकिन कुछ भी नहीं है’’।

तीनों हिन्दी प्रदेशों में अप्रत्याशित अभूतपूर्व जीत के साथ ही मुख्यमंत्रियों की नियुक्तियां भी चुनावी परिणाम समान अभूतपूर्व व अप्रत्याशित रही हैं। अभी तक की प्रधानमंत्री नरेन्द्री मोदी की कार्यप्रणाली और निर्णयों से यह सिद्ध हो चुका है कि किसी भी राजनैतिक विश्लेषक, विशेषज्ञ, पंडित, ज्योतिष के लिए राजनैतिक निर्णयों के संबंध में भविष्यवाणी भूल कर भी करने की त्रुटि नहीं करनी चाहिए। ‘‘कबीरदास की उल्टी बानी भीगे कंबल बरसे पानी’’। नरेन्द्र मोदी की राजनैतिक निर्णय की कार्यप्रणाली पर यह जुमला फिट होता है, जो एक समय कांग्रेस के तत्कालीन कोषाध्यक्ष सीताराम केसरी के लिए बनाया गया था ‘‘न खाता न बही, जो केसरी कहे वही सही’’। ठीक इसी प्रकार ‘‘न खाता न बही जो ....?’’।

प्रथम मोदी-शाह युक्ति के उक्त मुख्यमंत्रियों को मनोनीत करने के निर्णयों से भौंचक्का विपक्ष जैसे कि ‘‘बिजली कड़की कहीं और गिरी कहीं’’, राजनैतिक विश्लेषकों को आश्चर्यचकित कर देने के बावजूद कहीं न कहीं उपरोक्त निर्णयों के कुछ हल्के से संकेत सांकेतिक रूप से ही सही, मोदी ने अवश्य दे दिये थे। यह अलग बात है कि मीडिया से लेकर समस्त विशेषज्ञ, विश्लेषक, दावा करने वाले लोग उसे पढ़ नहीं पाए। याद कीजिए! तीनों प्रदेशों के लिये नियुक्त पर्यवेक्षकों में ही यह संकेत छुपा हुआ था कि तीनों प्रदेश में भविष्य की, खासकर लोकसभा चुनाव की व्यूह रचना को देखते हुए विपक्ष की जातिगत गणना के हथियार को बोथल करने के लिए जातिगत समीकरण को साधते हुए और कौन-कौन प्रदेश के प्रमुख चेहरा बनेंगे। छत्तीसगढ़ में आदिवासी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अर्जुन मुड्ढा को भेजकर आदिवासी मुख्यमंत्री, मध्यप्रदेश में राष्ट्रीय पिछडा वर्ग मोर्चा अध्यक्ष के लक्ष्मण को भेजकर पिछडा वर्ग के मुख्यमंत्री, राजस्थान में ब्राह्मण चेहरा सांसद सरोज पांडे को भेजकर ब्राम्हण चेहरा मुख्यमंत्री बनाने के संकेत दे दिये थे। तीन-तीन पर्यवेक्षकों की कदापि आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि न तो विधायकों से मिलकर रायशुमारी करना था और न ही एक-एक विधायक को समझाकर केन्द्र के नामंकित नाम पर सहमति बनानी थी। क्योंकि यह तो ज्ञात ही नहीं था कि हाईकमान का निर्णय क्या है? इसलिए एक पर्यवेक्षक न भेजकर तीन-तीन भेजे गये, ताकि संकेत देने वाले पर्यवेक्षक पर ध्यान केन्द्रित न हो। 

लेकिन मोदी है, तो मुमकिन ही नहीं है बल्कि नामुमकिन कुछ भी नहीं है। ‘‘मोदी कभी कच्चे घड़े में पानी नहीं भरता’’, मोदी मैजिक है, तो इतिहास की नई-नई उचांईओं को गढ़ना मोदी को आता है। मोदी ने 77 साल के स्वतंत्र भारत के इतिहास में बिल्कुल नया इतिहास रच दिया, जब राजस्थान में भजनलाल शर्मा के सिर पर मुख्यमंत्री का साफा पहनवा दिया। शर्मा देश के ऐसे पहले मुख्यमंत्री होंगे, जो विधानसभा में प्रथम दिवस प्रवेश ही मुख्यमंत्री के रूप में करेगें। यद्यपि इसके पूर्व देश में प्रथम बार विधानसभा अथवा सीधे विधायक से मुख्यमंत्री कई बन चुके है। गुजरात में भूपेंद्र भाई पटेल, मनोहर लाल खट्टर, सुंदरलाल पटवा आदि अनेक नाम है। लेकिन विधायक के रूप में चुनकर नव निवार्चित विधानसभा का प्रथम दिन ही उनका मुख्यमंत्री बनना यह अभी पहली बार हुआ है। तीनों मुख्यमंत्री की संघ पृष्ठभूमि है, जो आज की एक राजनीतिक योग्यता व आवश्यकता है। 

बात मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव की भी कर ले! यह भाजपा ही है, जो देश ‘‘चाय वाले’’ को प्रधानमंत्री को बना सकते हैं, एक पकोड़े बेचने वाले (होटल व्यवसायी) को महाकाल के आशीर्वाद से मुख्यमंत्री बनाने के निर्णय के साहस (दुःसाहस) लिए भाजपा नेतृत्व मोदी शाह की जोडी की वंदना तो की ही जानी चाहिए। एक सिक्के के हमेशा दो पहलू होते है। आधा गिलास खाली है अथवा आधा गिलास भरा है। ठीक उसी प्रकार प्रधानमंत्री के उक्त निर्णयों की भी समीक्षा की जानी चाहिए। निर्णय के पक्ष के पीछे एक बड़ा कारण एक दरी उठाने वाले कार्यकर्ता को मुख्यमंत्री के सिंहासन पर बैठालने का है। तो दूसरा बडा प्रश्न छिपा हुआ यह भी है कि क्या इससे उन नेताओं व कार्यकर्ताओं के बीच में, जो यह मान कर चल रहे थे कि ‘‘खि़दमत से ही अज़मत है’’, यह मैसेज नहीं जाएगा कि काम करने से फायदा क्या? क्योंकि परिणाम, शाबाशी तो मिलने से रही? इसलिए कार्यकर्ताओं की मेहनत से जब कार्यकर्ता अपने नेता को आगे बढ़ता है और उस नेतृत्व को केन्द्रीय हाईकमान स्वीकार नहीं करता है तो क्षोभ, गुस्सा निराश होना स्वाभाविक ही है। शिवराज सिंह चौहान से लेकर अन्य क्षत्रप नेताओं प्रहलाद सिंह पटेल, नरेन्द्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय को चुनावी मैदान में उतारकर उनके अथक प्रयासों से उक्त भारी मिली जीत के बावजूद हाईकमान ने उन्हें नेता नहीं चुना। न ही प्रदेश का चेहरा चुनने में उनसे चर्चा की गई। यह संदेश भविष्य के लिए ठीक नहीं है, इससे बचा जाना चाहिए। 

बावजूद इसके हाईकमान का मोहन यादव का चयन सही मायनों में लोकसभा को देखते हुए बहुत महत्वपूर्ण और आशाजनक परिणाम की आशा लिए हुए है। जमीन से जुड़ा व्यक्ति जब शीर्ष पर पहुंचता है, तब उसकी कार्य क्षमता और बढ जाती है। वो दिन हवा हुए जब ‘‘ख़ुशामद ही आमद है’’ राजनीति का ध्येय वाक्य हुआ करता था। मोहन यादव ऐसे ही व्यक्ति है जिन्हें अब अपने कार्य क्षमता को बढ़ाने के साथ सिद्ध करने अवसर है। प्रथम महती दायित्व लोकसभा की समस्त सीटों को जिताने का है। इस दायित्व को निभाने की घोषणा 29 की 29 लोकसभा सीट जीतकर लाने की शिवराज सिंह चौहान ने की है। प्रश्न यह है कि क्या वे घोषणाओं को धरातल पर उतारने में मुख्यमंत्री का सहयोग करके श्रेय मुख्यमंत्री मोहन यादव को लेने व देने में तो कोई द्वंद तो उनके मन नहीं होगा? निश्चित रूप से शिवराज सिंह का अनुभव और मोहन यादव की ऊर्जा जिस पर हाईकमान का आशीर्वाद हो, सिर पर हाथ रखा हो, यह कार्य बखूबी कर पायेगें। खासकर उस स्थिति में जब हारी हुई कांग्रेस की आत्मावलोकन की वह क्षमता ही नहीं बची हो, जिस पर कार्य कर अवसाद से उभर कर आगे बढ़ सके, जो क्षमता भाजपा नेतृत्व के पास है। छः महीने पूर्व 70 सीटें के स्वयं व अन्य समस्त आकलन को 163 में बदल दिया। मध्य प्रदेश के नये मुख्यमंत्री के रूप में भाई मोहन यादव को प्रदेश की जनता की ओर से हृदय की गहराइयों से हार्दिक बधाइयां। वे सफल हो मध्यप्रदेश आगे बढ़े इन्हीं शुभकामनाओं के साथ।

शुक्रवार, 15 दिसंबर 2023

गणतंत्र की पहचान ‘‘लोकतंत्र’’ का संसद में कहीं गला तो घोंटा नहीं जा रहा हैं?

भारत विश्व का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए देखी-परखी श्रेष्ठ प्रणाली संसदीय प्रणाली अपनाई गई है। लोकतंत्र के चार खम्भों में से दो खंभे एक संसद व दूसरी सर्वोच्च न्यायालय धरातल पर एक दूसरे के ऊपर सर्वोच्च न होकर पूरक है। परन्तु ‘‘वास्तविकता सत्ता’’ तो संसद में ही निहित है, जो जनता को प्रतिबिंबित करती है। संसद लोकतंत्र की वह संस्था है, जहां जनता की समस्त समस्याएं, मुद्दों का सकारात्मक हल खुली बहस के बाद सर्वसम्मति या बहुमत से निर्णय लिया जाकर न्यायलीन समीक्षा के अधीन रहते लागू किया जाता है। यही हमारे संसदीय लोकतंत्र की एक बड़ी छाप रही है। 

यदि हमारे संसदीय इतिहास को पलट कर देखा जाए तो दो शताब्दि पूर्व तक जहां पर सांसदों खासकर विपक्षी सांसदों को न केवल अपनी बात प्रस्तुत करने का पूरा अवसर स्पीकर सहित सत्ता पक्ष द्वारा दिया जाता रहा है, बल्कि वे अपनी वाक्पटुता व बौद्धिकता लिए हुए भाषणों से पूरी संसद को प्रभावित करते रहे हंै। याद कीजिए अटल बिहारी वाजपेयी का विपक्ष के नेता के रूप में उनके शेरो शायरी से युक्त भाषणों को आज भी सदन व सदन के बाहर उद्धरित किया जाता है। आचार्य जेपी कृपलानी, डाॅ राममनोहर लोहिया, डॉ. भीमराव अम्बेड़कर, डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, जगन्नाथ राव जोशी जैसे न जाने अनेक महान हस्तियां रही है, जिन्हे संसद में देखकर शायद संसद भी अपने को गौरवान्वित महसूस करती रही है। परन्तु पिछले कुछ दशकों से संसद में संसदीय व्यवहार व वचनों में जो गिरावट आई है, संसदीय परम्पराओं का जो खुलेआम उल्लंघन हो रहा है, उससे संसद को एक तरह से चुनावी सभा का मंच बना दिया है, ‘‘जहां उलझना आसान सुलझना मुश्किल’’, और जो तू-तू, मैं-मैं गाली-गलौज की एक पहचान बन गई है। 

ताजा मामला कैश-फाॅर क्वेरी में टीएमसी की सांसद महुआ मोइत्रा को संसद से निष्कासन का है। मामला गंभीर प्रकृति का होने के बावजूद क्या मामला इतना गंभीर व संगीन था, जहां मात्र ‘‘लाॅग इन’’ का पासवर्ड अनाधिकृत व्यक्ति को देने के आधार पर एक चुने हुए सांसद को अधिकतम सजा सदस्यता समाप्त की दी जानी चाहिए थी, प्रश्न यह है? यद्यपि ‘‘लाॅग-इन’’ शेयर न करने का कोई संसदीय नियम नहीं हैं। तथापि नैतिकता के स्तर पर तो यह निश्चित रूप से यह मामला बहुत गंभीर है, इसमें भी कोई शक ही नहीं है। संसद में प्रश्न पूछने का अपना ‘‘लॉग इन पासवर्ड’’ किसी अधिकृत दूसरे व्यक्ति को देना निश्चित रूप से गंभीर नैतिक अपराध है, जिसके गंभीर दुरुपयोग की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है। परन्तु यह त्रुटि आपराधिक तभी होगा, जब देश की सुरक्षा पर कोई आंच आ जाती, जैसा कि आरोप में शिकायतकर्ता ने लगाया था। हिरानंदानी द्वारा विदेश (दुबई) से प्रश्न पूछने मात्र से ही महुआ मोइत्रा देशद्रोही नहीं हो जाती हैं। देश के कई नागरिक विदेशों सहित दुश्मन देश के नागरिकों से आईएसडी द्वारा बात करते हैं। क्या वे सब भारत के हितों को नुकसान कर देशद्रोही हो जाते है? ‘‘ऐब को भी हुनर की दरकार होती है’’। असावधानी, अज्ञानता अथवा बेवकूफी के कारण दुबई में बैठे व्यक्ति को दिया ‘‘लाॅग इन’’ से देश की सुरक्षा को खतरा वस्तुतः उत्पन्न हुआ क्या? ऐसा कोई दावा अथवा तथ्य सामने नहीं आया। उक्त लाॅग इन का (दुरू) प्रयोग? कर सब प्रश्न ‘‘अडानी’’ के संबंध में तब पूछे गये थे, जब अडानी के संबंध में पूरा विपक्ष संसद में लगातार प्रश्न पूछ रहा था। 

यह वही संसद है, जहां वर्तमान संविधान को लागू किया है, जिसके द्वारा ही ‘‘कानून का राज’’ का निर्माण हुआ है। कानून सबके के लिए बराबर है। संसद द्वारा स्थापित उसी न्याय प्रणाली में यह व्यवस्था है, जहां हर अपराधी को अपने बचाव में सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है और उसको उक्त अधिकार दिये बिना देश की कोई भी अदालत चाहे वह संसद ही क्यों न हो, न्याय नहीं दिला सकती है। यह एक प्राकृतिक न्याय का मूलभूत सर्वमान्य, सर्वकालीन सिद्धांत है। कानून का यह भी सिद्धांत है ‘‘न्याय न केवल मिलना चाहिए, बल्कि न्याय मिलते हुए दिखना भी चाहिए’’। न्याय का यह सिद्धांत भी दशकों से चला आ रहा है। अन्यथा तो ‘‘उघरहिं अंत न होई निबाहू .....’’।

उक्त पूरे प्रकरण में कितनी गंभीर कानूनी त्रुटि हुई और किस तरह से जल्दबाजी में महुआ मोइत्रा को अडानी के खिलाफ प्रश्न पूछने पर ‘‘सूली पर लटकाया’’ गया है, यह प्रथम दृष्टया स्पष्ट दिखाता है कि "रहना है तो कहना नहीं और कहना है तो रहना नहीं"। प्रथम उच्चतम न्यायालय वकील जय अनंत देहाद्राई (जो मोइत्रा के पूर्व मित्र थे) के पत्र के आधार पर सांसद निशिकांत दुबे (जिसके खिलाफ महुआ मोइत्रा ने फर्जी डिग्री के आरोप लगाये थे) के अक्टूबर 2022 में लिखे पत्र के आधार पर स्पीकर ने संसद की एथिक्स कमेटी के पास उक्त मामले को भेजा। वह मूल भुगतयमान शिकायतकर्ता न होकर मात्र एक माध्यम है, जिसने उस व्यवसायी दर्शन हिरानंदानी की शिकायत दर्ज कराई जिसके द्वारा पहले इंकार के  चार दिन बाद शपथ पत्र प्रस्तुत किया गया था। दर्शन हिरानंदानी सीधे शिकायतकर्ता नहीं थे। मोइत्रा और दुबई में बैठा व्यक्ति ( हिरानंदानी) के बीच हुए कुछ ‘‘चैट’’ और लाॅग इन पासवर्ड को शेयर कर यह आरोप लगाया कि महंगे उपहार व नगदी के बदले में मोइत्रा ने संसद में प्रश्न पूछने के लिये अपना ‘‘लॉग इन’’ पासवर्ड हिरानंदानी के साथ शेयर किया और दुबई में रहकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बदनाम करने के लिए अडानी के विरुद्ध प्रश्न पूछे गये। ‘‘ऊंट की चोरी ऐसे निहुरे निहुरे थोड़े ही होती है’’। 

वास्तविक शिकायतकर्ता हिरानंदानी का एक शपथ पत्र जो एक सादे कागज पर (लेटर हेड या स्टांप पेपर पर नहीं) एथिक कमेटी के सामने प्रस्तुत किया गया। परन्तु आश्चर्य की बात यह थी न तो उस व्यक्ति को एथिक कमेटी के दौरान जांच के लिए बुलाया गया और न ही उससे ऑनलाइन किसी तरह की पूछताछ की गई, जिस तरह की पूछताछ महुआ मोइत्रा को आचार समिति में बुलाकर की गई। शिकायतकर्ता एवं गवाह से प्रतिप्रश्न (क्राॅस एग्जामिनेशन) का अधिकार एक आरोपी सांसद का संवैधानिक अधिकार है, जिसका पालन न करने पर पूरी कार्यवाही स्वयमेव अवैध होकर प्रारंभ से ही शून्य हो जाती है, जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने उनके निर्णयों में यह न्यायिक सिद्धान्त प्रतिपादित किया।  

मामला संसद के अंदर का नहीं है, जहां सामान्यतः उच्चतम न्यायालय हस्तक्षेप नहीं करती है। मामला संसद के बाहर का है और वैसे भी संसद के अंदर भी प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का पालन किया ही जाना चाहिए। जब किसी व्यक्ति के खिलाफ संसद की कार्यवाही करने जा रही है तब उस अभियोगी सांसद को सुनवाई का पूरा अवसर दिया जाना चाहिए। लगभग 600 पेजों (495 एनेक्सर्स सहित) की रिपोर्ट को मात्रा दो घंटे में पढ़कर संसद में सांसदों को बहस की अनुमति देना  सुनवाई  का अवसर न देने के बराबर ही कहां जाएगा। क्योंकि कहते हैं कि ‘‘अंतर अंगुली चार का झूठ सांच में होय’’। वैसे भी विशेषाधिकार समिति ने निष्कासन की सजा तय कर उक्त सिफारिश के साथ रिपोर्ट को सदन के पटल पर प्रस्तुत करने में त्रुटि है। वस्तुत: समिति को आरोपी सांसद को सिर्फ दोषी पाया जाकर सजा देने के लिए संसद के पास आवश्यक कार्यवाही हेतु रिपोर्ट देनी चाहिए थी। सजा की प्रकृति व परिमाण तय करने का अधिकार संसद को ही है। पार्टी द्वारा व्हिप जारी करना भी प्राकृतिक न्याय के विरूद्ध है क्योंकि तब सांसदों को स्वतंत्र रूप से मत-अभिमत देने का अधिकार सदस्यता खोने की दर से नहीं रह जाता है।। संसदीय मंत्री द्वारा संसद में यह कहा गया कि इसके पूर्व भी जब इसी तरह के पुराने मामले में वर्ष दिसंबर 2005 में 10 लोकसभा एवं 1 राज्यसभा सदस्य की सदस्यता समाप्त की थी। तब तत्कालीन स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने उन निष्कासित सदस्यों को बोलने का अवसर नहीं दिया था। इसी को कहते हैं, ‘‘औरों को नसीहत खुद मियां फजीहत’’। उक्त प्रकरण वर्तमान प्रकरण से इस कारण से भिन्न हैं कि वहां एक निजी चैनल द्वारा किए गए स्टिंग ऑपरेशन में प्रश्न पूछने के बदले पैसे लेते हुए कैमरे में कैद हुए थे, माननीय सांसदगण नोटों के साथ पकडे गये थे।  वीडियो भी बायकायदा रासायनिक जांच में  सही पाये गये थे। परन्तु यहां पर किसी तरह का सबूत प्रस्तुत नहीं किया, सिवाय उस व्यक्ति के शपथ पत्र के जिसने पहले तीन दिन पूर्व संबंधित मामले से इंकार कर दिया था।  
बड़ा प्रश्न यह है कि हमारी संवैधानिक व संसदीय कार्य प्रणाली (संसद चलाने के नियमों) में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जहां इस तरह की दुरूद्देश्य पूर्ण दुरूपयोग की घटना होने पर कोई सजा का प्रावधान हो। साक्षरता की कमी के कारण प्रत्येक सांसद इतना सजग नहीं होता है कि उसे समस्त संसदीय नियमों की जानकारी हो। हमारे जीवन में भी हमें कई ऐसे अनुभव मिल जायेगें, (मेरे अनुभव में है) जहां विधायकों, सांसदो के लेटर पेड खाली हस्ताक्षर किये हुए दूसरे व्यक्तियों के पास प्रश्नोतर के लिए पडे़ रहते है। (जब प्रश्नोत्तर आॅनलाईन नहीं होते थे।) आज भी संसद मंे मत विभाजन में कई मत अवैध हो जाते है। अतः यह एक अज्ञानता का प्रश्न भी हो सकता है। परन्तु निश्चित रूप से प्रस्तुत प्रकरण में अज्ञानता का प्रश्न न होकर लापरवाही का हो सकता है।

परन्तु सवाल यह है कि ‘‘लाॅग इन’’ का उपयोग अथवा दुरुपयोग करके संसद या देश की कौन सी सार्वभौमिकता, अखंडता पर ‘‘प्रहार’’ हुआ है, यह बात जब तक सिद्ध न हो जाये, तब तक कोई भी कार्यवाही बेमानी होगी। इस अपराध के लिए कोई एफआईआर भी दर्ज नहीं कराई गई है। न ही हिरानंदानी के खिलाफ और न ही महुआ मोइत्रा के खिलाफ। इस मामले के पहले के एक मामले में दिल्ली के सांसद रमेश बिधूड़ी द्वारा संसद में साथी सांसद को अपशब्द, गाली आदि देने पर इसी तीव्रता से कोई कार्यवाही अभी तक नहीं हुई है। प्रारंभिक जांच भी प्रारंभ हुई कि नहीं यह भी संज्ञान में नहीं है। लोकतंत्र में विपक्ष को यदि इस तरह से कुचलते रहेंगे तो, लोकतंत्र कैसे मजबूत होगा? यह सबको सोचने की आवश्यकता है। तथापि यह सत्ता पक्ष का काम नहीं है कि विपक्ष को मजबूत करे। परन्तु साथ ही सत्ता पक्ष का यह भी काम नहीं है कि वह विपक्ष को क्षेत्राधिकार के बाहर जाकर प्रचंड बहुमत के आधार पर कुचलने का कार्य करे।

प्रहलाद सिंह पटेल मध्य प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री।

3 दिसंबर को मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनाव परिणाम की गणना में चुनाव के दौरान बनी अनपेक्षित सामान्य धारणा के विपरीत भाजपा को 163 सीटों के साथ प्रचंड बहुमत प्राप्त होने के कारण शायद मुख्यमंत्री चुनने में इतना समय लग रहा है। वैसे ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा है। पूर्व में भी इससे भी अधिक समय कई बार मध्य प्रदेश में ही नहीं, अनेक राज्यों में भी मुख्यमंत्री का चुनाव करते समय भाजपा ही नहीं वरन् दूसरी राजनीतिक पार्टियों को भी लगा था। इसलिए इसे वर्तमान में एक सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया ही मानी जानी चाहिए।

भविष्यवाणी नहीं! वास्तविकता।

मध्य प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री पूर्व केंद्रीय मंत्री व वर्तमान में नरसिंहपुर विधानसभा के नवनिर्वाचित विधायक प्रहलाद सिंह पटेल, भाजपा प्रदेश अध्यक्ष कैलाश विजयवर्गीय, नरेंद्र सिंह तोमर राष्ट्रीय महासचिव, गोपाल भार्गव विधानसभा अध्यक्ष, शिवराज सिंह चौहान, केंद्रीय कृषि मंत्री और प्रदेशाध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा केंद्र में प्रहलाद पटेल की जगह राज्य मंत्री बनाए जाएंगे। दो उपमुख्यमंत्री बनाए जाएंगे। इनमें से एक  रीता पाठक पूर्व सांसद व विधायक सीधी होगी । यह न तो कोई भविष्यवाणी है और न ही चुने हुए विधायकों का कल आने वाले परिणाम के पूर्व का एग्जिट पोल है। प्रदेश में वर्तमान में उत्पन्न नई राजनीतिक परिस्थितियों और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं गृहमंत्री अमित शाह की बेजोड़ जोड़ी की वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में जीत सुनिश्चित करने के लिए उनकी सूक्ष्म दूरदृष्टि व माइक्रो मैनेजमेंट को देखते हुए ऐसा होना अवश्यसंभावी है।

प्रहलाद सिंह पटेल! एक व्यक्तित्व

प्रहलाद सिंह पटेल का जन्म 28 जनवरी 1960 को नरसिंहपुर जिले के गोटेगांव में एक किसान परिवार में हुआ है। एमए.एलएलबी शिक्षित प्रहलाद पटेल पेशे से वकील है। यद्यपि उन्होंने राज्य प्रशासनिक सेवा की परीक्षा पास करके डीएसपी बनने के मौके को ठुकरा दिया था। तथापि वर्ष 1980 में जबलपुर विश्वविद्यालय से छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने जाकर पटेल ने अपना राजनीतिक जीवन प्रारंभ किया था। भारतीय जनता मजदूर महासंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। प्रहलाद पटेल का राजनीतिक सफल जीवन एक तेज-तर्रार निष्कलंक राजनीतिक व्यक्तित्व के रहते मित्रता निभाने व ‘‘स्पष्ट सोच’’ के साथ अपनी बात दृढ़ता से रखने वाले राजनीतिक व्यक्तित्व के रूप में रहा है। प्रहलाद पटेल मध्यप्रदेश की सियासत के एक मंझे हुए और माहिर खिलाड़ी हैं। प्रहलाद पटेल मां नर्मदा के अनन्य भक्त हैं और दो बार नर्मदा परिक्रमा कर चुके हैं। प्रहलाद भाई के राजनीति में यदि दोस्त कम है, (क्योंकि वे दोस्ती निभाना जानते है) तो दुश्मन उससे भी कम है। मुझे याद आता है, उनके राजनीतिक गुरु स्वर्गीय प्यारे लाल जी खंडेलवाल के आशीर्वाद से वह बहुत ही कम उम्र (मात्र 29 वर्ष की) में ही वर्ष 1989 में पहली बार लोकसभा चुनाव लड़े थे व विजय होकर आए थे। अब तक चार अलग-अलग लोकसभा सीटों सिवनी, बालाघाट, छिंदवाड़ा और दमोह से चुनाव लड कर जीत चुके हैं। परन्तु उन्हें सिवनी और छिंदवाड़ा से एक-एक बार हार का सामना भी करना पड़ा। वे वर्ष 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में कोयला राज्य मंत्री बनाये गये थे। वर्तमान में मोदी सरकार में स्वतंत्र प्रभार के राज्य मंत्री थे।

प्रहलाद सिंह पटेल ही क्यों

प्रहलाद सिंह पटेल, शिवराज सिंह चौहान, नरेंद्र सिंह तोमर और कैलाश विजयवर्गीय ने लगभग एक ही समय में एबीवीपी (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) व युवा मोर्चा में एक साथ राजनीतिक जीवन प्रारंभ किया है। राजनीतिक सफर में यद्यपि शिवराज सिंह चौहान, प्रहलाद सिंह पटेल से एक कदम आगे हैं, तो केंद्र की राजनीति में प्रहलाद सिंह पटेल, नरेंद्र सिंह तोमर से आगे रहे हैं और राज्य की राजनीति में कैलाश विजयवर्गीय, प्रहलाद पटेल से आगे रहे हैं। सुश्री साध्वी उमाश्री भारती के बाद वे बुंदेलखंड, महाकौशल क्षेत्र के वरिष्ठतम नेता व लोधी वर्ग में गहरी पैठ रखने वाले नेता हैं। तीनों हिन्दी प्रदेशों के हुए विधानसभा के चुनावों में जो राजनीतिक परिस्थितियाँं जातिगत समीकरण से बन रही है, उसमें छत्तीसगढ़ में आदिवासी चेहरा को मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है, तो मध्य प्रदेश में पिछड़ा वर्ग के शिवराज सिंह की जगह दूसरे पिछड़ा प्रहलाद सिंह पटेल को बनाया जा रहा है। जातिगत समीकरण में अन्य दावेदार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक शतरंज की गोटी में फिट नहीं बैठ पा रहे हैं। तथापि प्रधानमंत्री मोदी की अभी तक की कार्यप्रणाली को देखते हुए कोई भी पूर्वानुमान लगाना खतरे से खाली नहीं हैै। अतः एक दूसरे प्रदेश में "असंतुष्ट" महारानी को संतुष्ट करने के लिए यदि यहां पर भतीजे महाराज को संतुष्ट कर दिया जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए?

Popular Posts