शनिवार, 31 दिसंबर 2022

‘‘लिव-इन-रिलेशनशिप’’ दुष्परिणाम-दुरूपयोग?

 

 ‘‘बलात्कार’’ व सहमति के साथ ‘‘सहवास’’ में कुछ तो अंतर रहने दीजिए?                 

हाल में ही कुछ सेलिब्रिटीज की हत्या, वीभत्स हत्या और आत्महत्या होने पर यह सोचने के लिए विवश कर दिया है कि, ‘‘लिव-इन-रिलेशनशिप’’ भारतीय संस्कृति में कितनी जायज व उचित है?‘‘मूलभूत निजता के अधिकार’’ के आधार पर उनके सामाजिक और कानूनी मान्यता देने के पूर्व इसके दुरुपयोग-दुष्परिणाम की कितनी संभावनाएं अंतर्निहित हैं? अतः इस पर वर्तमान बढ़ती हुई घटनाओं को देखते हुए ‘‘राजहंस के समान नीर-क्षीर विवेक बुद्धि’’ से गंभीरता से विचार किए जाने की क्या नितांत आवश्यकता नहीं है?

अभी तुनिषा शर्मा (साथी शीजान खान) द्वारा की गई आत्महत्या (हत्या?) और इसके पूर्व श्रद्धा वाल्कर (शरीर के 35 टुकड़े) (साथी आफताब अमीन पूनावाला) और झारखंड की रूबिका पहाडिन नामक (शरीर के 50 टुकडे) की जघन्य तरीके से हत्या की गई। इन तीनों ही मामलों में वे तीनों युवतियों बिना शादी किए हुए लिव-इन-रिलेशन में साथी व्यक्ति के साथ रह रही थी। अब ‘‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहा से होय’’। जुलाई 2022 में नोयडा में लिव-इन-रिलेशनशिप में रहने वाले अजय चैहान ने आत्महत्या कर ली। इस प्रकार महिलाएं ही नहीं, बल्कि लिव-इन-रिलेशनशिप में रहने वाले पुरूष भी अप्राकृतिक मौत के शिकार हो रहे हैं। ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बात इन मामलों में यह भी है कि युवक और युवती के बीच मनमुटाव, लड़ाई झगड़े हुए जिनकी रिपोर्ट भी की गई, जिसकी जानकारी युवतियांे के माता-पिता को भी थी। बावजूद इसके जब तक वे युवतियाँ इस दीन-दुनिया से बेरहमी से विदा नहीं कर दी गई, उनके माता-पिता से लेकर समाज व स्वयं युवतियों ने उनके लिव-इन-रिलेशन जीवन पर प्रभावी आपत्ति नहीं की, जिसके उक्त दुष्परिणाम देखने को मिले।

उल्लेखित प्रकरणों में तुनिषा शर्मा ने तो परेशान होकर अथवा अन्य कारणों से आत्महत्या कर ली। इनकी माता श्री हत्या का एंगल (दृष्टिकोण) लाने का भी प्रयास कर रही हैं। तूनिषा का साथी शीजान खान के साथ तीन महीने का रिलेशन रहा। मृत्यु के 15 दिन पूर्व ही दोनों के बीच ब्रेकअप हो गया था। धर्म के साथ उम्र में भी बड़ा अंतर था। श्रद्धा वाल्कर को तो बुरी तरीके से बेरहमी के साथ 35 टुकड़े-टुकड़े कर मौत के घाट उतार दिया गया। उपरोक्त मामलों में युवकों के अन्य कई युवतियों के साथ अंतरग संबंध थे, जो शायद कलह विवाद का कारण बने। कहते है कि ‘‘दूध का जला छाछ भी फूक कर पीता है’’, परन्तु अन्य युवतियों से अनैतिक संबंधों की जानकारी अभिभावकों को होने के बावजूद वे अपनी बेटियों को लिव-इन-रिलेशन से इन जीवन साथियों से अलग नहीं कर पाए, जैसा कि उनकी मृत्यु के बाद अब वे क्रोध, दुख व विषाद् व्यक्त कर रहे हैं। 

इन तीन प्रकरणों में से दो प्रकरणों में मुसलमान युवक जीवन साथी थे, जिस कारण इन प्रकरणों को ‘लव-जिहाद’ का एंगल देने का भी प्रयास किया गया। परंतु इसी तरह के अनेक प्रकरणों में हमने यह देखा है कि ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ के टूटने पर युवती उस साथी युवक के ऊपर बलात्कार का केस दर्ज करवाती है, जिसके साथ वह महीनों, वर्षों साथ में रहकर सहमति के साथ सहवास करती है। उसका यह आरोप कदापि नहीं होता है कि ‘‘लिव-इन-रिलेशनशिप’’ के दौरान उसकी इच्छा के विरुद्ध जबरदस्ती साथी युवक ने सहवास किया। बल्कि आरोप यह लगाया जाता है कि उसके साथ शादी का प्रलोभन देकर शादी न करके धोखा कर या अन्य कोई लालच, धमकी, डर के कारण वह लिव इन रिलेशनशिप में रहती रही। ‘‘अपने बेरों को खट्टा कोई नहीं कहता’’। वास्तव में लिव-इन-रिलेशनशिप के टूटने के बाद युवतियों द्वारा इस तरह की लगभग की जा रही ब्लैकमेलिंग को रोकने के लिए सहमति के साथ किए गए सहवास को किसी भी स्थिति में बलात्कार की परिभाषा में नहीं लाना चाहिए, इस तरह के संशोधन की बलात्कार की परिभाषा में नितांत आवश्यकता है। धोके के साथ ली गई सहमति को धोखधड़ी का अपराध माना जाना चाहिये, जिस प्रकार ऐसी स्थिति में पुरूषों के लिये कानूनी व्यवस्था है। इसी कारण से भा.द.स. की धारा 376 लैंगिक रूप से समान नहीं है।   

बलात्कार में बल शब्द से ही यह स्पष्ट होता है कि बलपूर्वक जबरदस्ती युवती के साथ सहवास करना ही बलात्कार है। एक समय बलात्कार न केवल एक अत्यंत घृणित कृत्यों के साथ शब्द माना जाता रहा, बल्कि उससे एक खौफनाक खौफ और घृणित अपराध का आभास भी होता था। लेकिन आजकल बलात्कार और सहमति के साथ सहवास को बलात्कार की निकट लाकर बलात्कार की परिभाषा में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाकर उसकी व्याख्या व उसकी भयानकता को कम करने का प्रयास एक ओर किया जा रहा है। तो दूसरी ओर कानून को कड़क बनाकर सजा को कड़क कर उक्त अपराध के अपराधी को अधिकतम सजा देने का प्रयास भी किया जा रहा है। निश्चित रूप से सजा को कड़क बनाए जाना तो उचित और जायज है। परन्तु विपरीत इसके बलात्कार की परिभाषा को विस्तृत करने के नाम पर लिबरल (उदार) करना बलात्कार की वीभत्सता भयानक और घृणा को कम करने के ही बराबर है।

वास्तव में लिव-इन-रिलेशनशिप हैं क्या? जब दो व्यस्क अपनी मर्जी से बिना शादी किये एक छत के नीचे रहते है, तो उसे लिव-इन-रिलेशनशिप कहते है। उसकी कोई कानूनी परिभाषा नहीं है। इसलिए यह अंधों का हाथी’’ बना हुआ है। परन्तु घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 की धारा एफ-2 में इसे परिभाषित किया गया है। तथापि उच्चतम न्यायालय ने ऐसे संबंधों की वैधता को बरकरार रखा है। वर्ष 1952 में गोकुल चंद बनाम परवीन कुमारी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि इस तरह कई सालों तक एक साथ रहना शादी ही मानी जायेगी। इसके बाद वर्ष 1978 में उच्चतम न्यायालय ने ‘‘बद्री प्रसाद बनाम डायरेक्टर ऑफ कंसोलिडेशन’’ के मामले की सुनवाई के दौरान बिना शादी किए एक ही घर में रहने को मान्यता दी और कहा कि दो व्यस्क लोगों का लिव-इन-रिलेशनशिप में रहना किसी भी भारतीय कानून का उल्लंघन नहीं है। वर्ष 2022 के पंजाब हाई कोर्ट के एक निर्णय ने विवाह के होते हुए भी दूसरे व्यक्ति के साथ ‘‘लिव-इन-रिलेशनशिप’’ में रहना अपराध नहीं माना है, क्योंकि एडल्टरी (व्यभिचार, परस्त्रीगमन/परपुरुष गमन) को अपराध की श्रेणी से पहले ही हटा दिया गया है, यद्यपि ‘तलाक’ के लिए यह एक वैधानिक आधार आवश्यक माना गया है। तथापि मेरी नजर में पंजाब उच्च न्यायालय का यह निर्णय उच्चतम न्यायालय के पूर्व निर्णय के विपरीत है, जहां लिव-इन-रिलेशनशिप को शादी की मान्यता दी है। तदनुसार ही और बालसुब्रमण्यम विरुद्ध सुल्तान के मामले में उच्चतम न्यायालय ने लिव-इन-रिलेशन से पैदा हुए बच्चे के पैतृक संपत्ति में अधिकार को मान्यता दी है। तथापि उच्चतम न्यायालय के द्वारा अवधारित लिव-इन-रिलेशनशिप को शादी की मान्यता देने की अवधारणा पर उसके ब्रेकअप होने पर क्या तलाक लेने की आवश्यकता होगी? यह एक बड़ा प्रश्न है, जो मन में उत्पन्न हुआ है, जिसके जवाब की प्रतीक्षा है।

लिव इन रिलेशनशिप की प्रथम स्टेज वर्तमान समय में सोशल मीडिया के माध्यम से चैट के सिलसिले का चालू होना होता है। फिर द्वितीय स्टेज डेट पर जाने की होती है। तत्पश्चात की अवस्था लिव-इन-रिलेशनशिप की होती है। इसकी कोई निश्चित समय अवधि नहीं है। आधुनिक परिवेश में एक नजर में लिव-इन-रिलेशनशिप एक दूसरे को समझने का बेहतर अवसर देकर परिणामस्वरूप शादी में परिवर्तित होकर अपना अस्तित्व समाप्त कर लिव इन रिलेशनशिप की अंतिम पड़ाव की यह एक आदर्श स्थिति है। इस दृष्टि से आधुनिक युग में लिव इन रिलेशनशिप का समर्थन किया जा सकता है, यदि शादी के पूर्व शारीरिक संबंध न बनाये जाएं क्योंकि सभ्य व नैतिक समाज में शादी ही शारीरिक संबंध बनाये जाने का एकमात्र वैध लाइसेंस है। परंतु वास्तविकता में यह अक्सर ‘‘दूर के ढोल सुहावने’’ ही सिद्ध होता है, क्योंकि व्यवहार व धरातल पर उक्त आदर्श स्थिति नगण्य ही है। इसलिए इसके वर्तमान में दिन-प्रतिदिन सामने आ रहे दुष्परिणाम को देखते हुए इसका विरोध तेजी से होते जा रहा है। इस पर ठीक उसी प्रकार से प्रतिबंध लगाये जाने चाहिए, जिस प्रकार से संविधान द्वारा प्रदत्त मूलभूत अधिकार से पूर्ण (एब्सुलूट) नहीं होते हैं, ताकि भारतीय सामाजिक व पारिवारिक व्यवस्था चरमराये-भरभराये-ढ़हाये नहीं? क्योंकि यह हमारी संस्कृति की हमारी मूल पहचान है, के विरूद्ध होकर नैतिक व सामाजिक रूप से अस्वीकार है।

बुधवार, 21 दिसंबर 2022

सुशासन बाबू? न ‘‘सु‘‘ न ‘‘शासन‘‘ सिर्फ ‘‘बाबू’’ रह गये।

बिहार के छपरा जिले में जहरीली शराब से अभी तक लगभग 70 से ज्यादा अकाल मृत्यु होकर काल के गाल में समा चुके हैं। ‘कालस्य कुटिला गतिरू’। आंकड़े इससे भी ज्यादा हो सकते है। बिहार सरकार पर विपक्ष द्वारा ऐसा आरोप लगाया जा रहा है कि सरकार संख्या को दबा रही है। पोस्टमार्टम किये बिना ही शवों को दफनाया जा रहा है। जहरीली शराब से देश में मौत की यह न तो पहली घटना है और न ही बिहार राज्य तक ही सीमित है। परन्तु बिहार के मुख्यमंत्री और समस्त राजनीति के रंगों को अपना कर स्वाद चख चुके सुशासन बाबू बने नीतीश कुमार की ‘‘क्षते क्षार-प्रक्षेपरू’’ रूपी दुर्भाग्यपूर्ण, मानव निर्मित प्रशासनिक लापरवाही व असफलता के कारण उक्त घटना घटी। इससे उत्पन्न आक्रात्मक आलोचनाओं की प्रतिक्रियात्मक बयान, कथन, भाव-भंगिमा नीतीश कुमार की जो आयी है, निश्चित रूप से वह न केवल ‘‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’’ की उक्ति के अनुरूप अकल्पनीय, असोेचनीय व अस्वीकार्य है, बल्कि भौंचक्का करने वाली भी है। एक चुने हुए जनप्रतिनिधि का, जनता की जान-माल की सुरक्षा से लेकर उनकी समग्र विकास का दायित्व होता है, से जनता द्वारा चुने गये मुख्यमंत्री से आम भुगतमान जनता ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद कदापि नहीं कर सकती है। वस्तुतः यह लोकतांत्रिक जन-प्रतिनिधियों की कार्यकुशलता व कार्यप्रणाली की स्थापित मान्य परसेप्शन के एकदम विपरीत है।

शराबबंदी के कारण अवैध शराब के उपभोग से हुई मृत्यु और जहरीले शराब की खपत चाहे शराबबंदी हो अथवा न से हुई मृत्यु में अंतर है। यहां मूल प्रश्न जहरीले शराब के निर्माण, वितरण व उसके उपभोग का है न कि ‘‘शराबबंदी’’ का है, इसको सबको समझना होगा। जिन प्रदेशों में शराबबंदी लागू नहीं है, क्या नीतीश कुमार वहां जहरीले शराब से हो रही मृत्यु को ‘‘बद अच्छा बदनाम बुरा’’ की तर्ज पर उचित ठहरा सकते हैं? इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना में सरकार की दो स्पष्ट असफलताएं सामने दिखाई दे रही है। प्रथम लागू की गई शराबबंदी को पूर्णतः लागू करने में राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति के बावजूद प्रशासनिक असफलता। द्वितीय जहरीले शराब के निर्माण को रोकने में सूचना तंत्र और प्रशासनिक तंत्र दोनों की बड़ी विफलता। 

अंततः एक मानव नागरिक की संलिप्तता, संलिगता व दोषी अपराधी, मनोवृत्ति, प्रवृत्ति के कारण ही कोई अपराध व आपराधिक वारदात घटती है। तो क्या सरकार हर अपराध के लिये यह कहकर कि ‘‘फिसल पड़े तो हर हर गंगे’’, अपने संवैधानिक कानून का राज बनाये जाने के दायित्व से मुक्त हो सकती है कि जिस अपराधी व्यक्ति ने कानून तोड़ा है, उसका दुष्परिणाम वैसा आना ही है? अर्थात अपराध किया इसलिए अपराधी भुगते? अरे ‘‘जान है तो जहान है’’ सुशासन बाबू, जो जान से गया वह क्या भुगतेगा? भुगतना तो उसके अभागे परिवार को है। उक्त सिद्धान्त सुशासन बाबू ने वर्तमान जहरीली शराब के पीने से हुई मौत पर एक बार नहीं लगातार तीन बार विभिन्न अवसरों पर कहा है। ऐसी स्थिति में सुशासन बाबू का सुशासन तो दूर शासन का भाव ही खत्म होता दिखता है, विपरीत इसके कहीं न कहीं उनका अहम, घमंड परिलक्षित होता और ‘‘अंधे के आगे रो कर अपने दीदे खोने’’ वाला दिखता है। जब वे विधानसभा में अपने साथी बिहार के उपमुख्यमंत्री के साथ ‘‘मुस्कराते हुए’’, साथ ही ‘‘रौद्र रूप’’ के साथ पत्रकारों की ओर आमुख होते हुए वे कहते है ‘‘जो पियेगा वह मरेगा ही’’, तब मानवीय संवेदनाएं तो दूर-दूर तक तनिक भी दिखाई नहीं देती है। जब ‘‘रोम जल रहा था, नीरो बंसी बजा रहा था’’, वही हाल नीतीश कुमार का है।  

निश्चित रूप से तथ्यात्मक, तकनीकी और कानूनी रूप से नीतीश कुमार के कथन शाब्दिक रूप से सही होने के बावजूद, लोकतंत्र के लोकप्रिय चुने गये जननेता के रूप में उनका यह कथन अत्यंत निंदनीय, अस्वीकार योग्य व भर्त्सना योग्य है। उक्त वर्णित भाव भंगिमा लिए उक्त अविवेकपूर्ण कथन ‘‘अविवेकरू परमापदाम् पद्मरू’’ का लक्षण है, इस कारण उन्हें स्वयं पद पर बैठने का कोेई नैतिक अधिकार नहीं रह जाता है और न ही मृतक 70 लोगों की आत्मा राज्यपाल के शरीर में प्रवेश कर उन्हें कुर्सी पर चैन से बैठने देगी? राज्यपाल को  सरकार को तत्काल भंग कर देना चाहिए।

आखिर लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार का दायित्व होता क्या है? कानून व्यवस्था बनाये रखने से लेकर जनता जनार्दन का समुचित समग्र तथा संपूर्ण विकास के लिए विभिन्न कानूनों को विधानसभा में पारित करवा कर अपनी प्रशासनिक क्षमता का परिचय देते हुए भरपूर उपयोग कर कानूनों को धरातल के स्तर पर अधिकतम लागू करवाने का दायित्व आखिरकार सरकार अथवा उनके मुखिया मुख्यमंत्री की ही होती है। वह ‘‘तबेले की बला बन्दर के सिर’’ मढ़कर बच नहीं सकता। लागू किये गये कानूनों का जो नागरिक उल्लंघन कर अपराध करते है, उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई अवश्य की जानी चाहिए। परंतु नीतीश कुमार का यह तर्क नहीं कुर्तक है कि कानून का उल्लंघन कर एक नागरिक ने अपराध किया है तो, मुआवजा का प्रश्न कहां उत्पन्न होता है? घटना में मरे व्यक्तियों जो प्रायः निर्बल व अत्यंत गरीब वर्ग के है, को मुआवजा दे देने से आपकी शराबबंदी की नीति गलत नहीं हो जाती है, न ही उसके औचित्य पर प्रश्न खड़ा हो जाता है। यह पूर्णतः मानवीय संवेदनशीलता का मामला है। भारतीय संस्कृति में जहां व्यक्ति कितना ही बुरा क्यों न हो, उसकी मृत्यु हो जाने पर सिर्फ उसके गुणों का बखान होता है? अवगुणों का नहीं? क्यों इस संस्कृति की इस पहचान, छाप को भी नीतीश कुमार भूल गये?

जेपी (जयप्रकाश नारायण) की कार्यस्थली से निकले नेता नीतीश कुमार शायद यह भूल गये है। वास्तव में इस देश में हर्जाना एक राजनैतिक टूल बन गया है, जहां घटना की गंभीरता व उससे उत्पन्न आक्रोंश को कम करने के लिए घटनाओं की प्रकृति को देखते हुए मानव जीवन के मूल्यों को भी विभिन्न कीमतों द्वारा निर्धारित कर तदानुसार लाखों रुपए से करोड़ों रुपयों में किया जाकर मुआवजे की ‘रेवड़ी’ बांट दी जाती है। नीतीश कुमार केजरीवाल की ‘‘सब धान बाइस पसेरी’’ वाली रेवड़ी नीति से असहमत हो, तब भी मुआवजा बांटना रेवड़ी नहीं है, इतना सुशासन बाबू को समझना होगा। 

बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री, सुशील मोदी की उक्त दुखद घटना पर एक सधी हुई प्रतिक्रिया के लिए उनकी प्रशंसा अवश्य की जानी चाहिए। प्रथम उन्होंने स्पष्ट कहा कि मुख्यमंत्री की नियत पर कोई शक नहीं है। बेशक शक की गुंजाइश की कोई संभावना भी नहीं है, क्योंकि बीते छः सालों में ढाई करोड़ लिटर अवैध शराब जब्त की जाकर, साढे छः लाख से ज्यादा लोगों की गिरफ्तारी हुई है। दूसरा यदि कोई नीति (शराबबंदी) असफल हो रही है, तो उस पर पुनर्विचार अवश्य किया जाना चाहिए। 

कहते हैं न कि ‘‘संगत का भी असर‘‘ होता है, जिसका आचरण, व्यवहार, कार्य क्षमता व कार्य कुशलता पर बड़ा व गहरा प्रभाव पड़ता है। ऐसा लगता है कि, ऊक्त उक्ति बिहार के मामले में सही सिद्ध होती दिख रही है। जहरीली शराब की हृदय हिला देने वाली जो घटना घटित हुई, कही वह नीतीश कुमार की एक अच्छी संगत एनडीए छोड़ने का दुष्परिणाम तो नहीं है? और उसके आगे मुआवजा न देने के अड़ियल अमानवीय रवैया से तो निश्चित रूप से आरजेडी की ‘‘राम मिलाई जोड़ी’’ की संगत का स्पष्ट असर दिखता है। इसलिए नीतीश कुमार को समस्त दृष्टिकोण से इस घटना से उत्पन्न अनेक प्रश्नचिन्हों पर गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श करना चाहिए। सिर्फ इसलिए कि उनकी शराबबंदी की नीति 100 प्रतिशत सही है, और ये घटनाएं हर प्रदेश में होती रहती है, इसलिए इस नीति पर पुनर्विचार नहीं किया जायेगा, समायोचित नहीं होगा। ‘‘जो जैसा करेगा, वैसा ही भरेगा’’ इस सिद्धांत को यदि नीतीश कुमार बेचारे, निरीह, मजबूर अपराधी मृतकों पर लागू कर रहे है, तो कभी स्वयं पर लागू कर सोचिये? दूध का दूध व पानी का पानी हो जायेगा। सत्य को असभ्य तरीके से कहना भी सत्य का अपमान होकर, सामान्य लोगों के गले में नहीं उतरेगा। 

शराबबंदी सामाजिक दृष्टिकोण से बहुत अच्छी व्यवस्था है जो शांति के लिए जरूरी है। इस कारण सड़कों पर छेड़छाड़ की घटना घटनाएं कम ही होती है, महिलाएं ज्यादा सुरक्षित महसूस करती है। शराबबंदी दुनिया के कई देशों में लागू करने की कोशिश की गई। भारत में इन पांच प्रदेशों गुजरात, नागालैंड, मिजोरम, बिहार, उत्तराखंड में शराबबंदी लागू है।

गुरुवार, 15 दिसंबर 2022

क्या कांग्रेस का चिंतन और ‘‘राजनीतिक विवेक’’ ‘शून्य’ हो गया है?

यूपीए सरकार के समय एक अनाम लेखक भारतीय राजनीति में परोसे जा रहे अपशब्द, राजनीतिक गालियों, जहरीले बोल  (जिसे राजनीति का रिवाज बना दिया गया है) पर किताब लिखना चाहते थे। परन्तु उसमें वे असफल हो गये, क्योंकि तत्समय राजनैतिक वातावरण सदाचार युक्त होकर तुलनात्मक रूप से ठीक-ठाक ही था, और विपक्षी दल अटल जी और आडवाणी की भाजपा का चरित्र निश्चित रूप से वर्तनाम विद्यमान समय आज की तुलना में और कांग्रेस की तुलना में बहुत बेहतर था। अतः तत्समय विपक्ष अर्थात् भाजपा द्वारा सत्तापक्ष अर्थात् कांग्रेस के नेताओं को बहुत कम गालियां मिलने के कारण, वह किताब अधूरी ही रह गई। एनडीए सरकार आने के बाद जब गालियों का नया दौर चला (नए दौर की नई गालियां) तब उस अनाम व्यक्ति को पुनः ख्याल आया क्योंकि अब शब्दों से लेकर गालियों, जहरीले बोलों की निडर बाढ़ सी आ गई। सूप और चलनी सब बोलने लगे है।

राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व एवं अनुशासन समितियों द्वारा अधिकांश मामलों में ऐसे बयानों को रोकने के लिए नेताओं के खिलाफ प्रायः कोई बड़ी कड़ी कार्रवाई नहीं की जाती रही है, बल्कि उसे अनसुना, अनदेखा कर दिया जाता रहा है। इस प्रकार पिछले कुछ समय से इस रिवाज में तेजी से वृद्धि होकर कांग्रेस नेताओं द्वारा दी जा रही धडाधड गालियों से पर्याप्त सामग्री संचित हो जाने से मुझे ऐसा लगता है कि निकट भविष्य में किताब लिखी जा जाकर उसका प्रकाशन भी हो जाएगा। मेरे एक दोस्त जो यह लेख लिखते समय सामने ही बैठे थे, उन्होंने टोकते हुए तपाक से कहा, भाई साहब इस विषय पर एक नहीं कई किताबें लिखी जा सकती है, क्योंकि इस समय दिल्ली में जैसे कचरे का पहाड़ (जो एक राजनैतिक मुद्दा) बन गया है, वैसे ही गालियों का पहाड़ भी बन गया है। आप उनका अर्थ समझ ही गए होंगे। उन अभद्र गालियों का उदहरण करना यहां शोभायमान नहीं होगा। कांग्रेस की वर्तमान में हालत ऐसी ही है।

हाल ही में मध्य प्रदेश कांग्रेस के  नेता व पूर्व मंत्री दमोह (हटा) के राजा पटेरिया का बयान बड़ा गर्म चर्चा का विषय बना हुआ है, जिस पर मध्य-प्रदेश सरकार के गृहमंत्री मिश्रा ने तुरन्त संज्ञान लेकर एफआईआर दर्ज कराकर पुलिस ने राजा पटेरिया को गिरफ्तार भी कर लिया। इन घटनाओं से एक बड़ा गंभीर प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या कांग्रेस का शीर्षस्थ नेतृत्व इतना विवेक शून्य हो गया है? क्या कांग्रेसी नेतृत्व को इतनी सी भी समझ नहीं हैं कि "अपने करनी ही पार उतरनी होती" है और इस तरह के "अधजल गगरी"  रूपी बयानवीरों के बयानों से कांग्रेस को कौन सा फायदा मिल पाएगा ? यदि कांग्रेस के बयान वीरों की यह बात मान भी जाए कि उनके बयानों का अर्थ का अनर्थ निकाला जाकर उन्हें बदनाम किया जा रहा है, तब भी उनके अर्थपूर्ण बयान से कांग्रेस या बयानवीर

 नेताओं को कोई फायदा होता दिखता नहीं है। क्योंकि ऐसे "थोथा चना बाजे घना वाले" बयानों की कोई भी उचित संदर्भ या औचित्य दिखाई देता नहीं है। फिर भी यदि उनके बयान के बताये गये अर्थ को ही सही मान लिया जाए तब भी क्या उससे कांग्रेस को चुनावी फायदा हो सकता है?  ऐसे बेतुके निर्लज्ज बयानों से तो जनता की नजर में  कांग्रेस नेताओं के प्रति सहानुभूति उत्पन्न  नहीं हो सकती है। स्पष्ट है कांग्रेस नेतृत्व का ध्येय वाक्य  "सूरदास खल करी कमरी चढ़े न दूजो  रंग" हो चुका है और कांग्रेस में सही राजनैतिक सोच, चिंतन व मारक नीति और  प्रवती का परिपक्व अनुभवी नेतृत्व ही नहीं रह गया है, तभी तो यह स्थिति हो गई है। गालियों जैसी आक्रामकता यदि कांग्रेस की नीति-रीति में होती तो सच मानिए  आज कांग्रेस की दशा और दिशा ही दूसरी होती।

विवेकहीन राजनैतिक शून्यता व दिमागी खोखलेपन का बड़ा उदाहरण राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा है, जो यात्रा के प्रारंभ होने के तुरंत बाद गुजरात में होने वाले चुनाव से नहीं (लगभग नहीं के बराबर) गुजरती है। परन्तु 2023 के दिसम्बर में मध्य-प्रदेश व राजस्थान से 12 व 18 दिनों के लिए गुजर रही है। यदि हार के  ड़र से राहुल गांधी के नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह लगने की आशंका के कारण भारत जोड़ो यात्रा गुजरात  नहीं ले जायी गई तब भी 56 इंच के सीने वाले साहसी विपक्षी से मुकाबले में असफल ही ठहराया जायेगा। यह कोई धार्मिक यात्रा नहीं है? जैसा कि देश में लालाकृष्ण आडवाणी ने राम जन्मभूमि की धार्मिक यात्रा निकाली थी। तथापि उससे भी उन्हें व भाजपा  को बड़ा राजनीतिक फायदा मिला था। वस्तुतः भारत जोड़ो यात्रा निसंदेह एक राजनैतिक यात्रा ही है, जो कांग्रेस की जनता के बीच गिरते जनाधार को रोककर विस्तार करने की तथा राहुल गांधी के आभा मडंल पर पड़ी निराशा के धूल को हटाकर चमकीला बनाने का एक सार्थक प्रयास है कि "बाज के बच्चे मुंडेरो पर नहीं उड़ा करते" । परंतु यात्रा के दौरान ही कांग्रेस के नेताओं को जोड़ना तो दूर, चली आ रही टूटन में वृद्धि ही होती गई। कांग्रेस की टूटन रुकी नहीं। जनता की भीड़ आ रही है। परन्तु उसका फायदा तभी मिल पाता जब  कांग्रेस का संगठन मजबूत होता व जनता के मन में जगे उत्साह को कांग्रेस सही दिशा नेेतृत्व दे पाता। लेकिन दूर्भाग्यवश यह कहावत यहां चरिथार्त होती है ‘‘4 दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात’’। यात्रा अपनी क्षणिक चमक देती हुई  चल रही है। परन्तु इसका प्रभाव व लाभ कांग्रेस अपनी दिशाहीन नीति के कारण और कमजोर नेतृत्व के कारण नहीं उठा पा रही, जिसका ही यह परिणाम है कि चुनाव लड़ने के लिए ‘‘सबको परखा, हमको परखों’’ व ‘‘पार्टी विथ डिफ्ररेंश’’ का नारा गढ़ने वाली भाजपा को को अब नये नारे गढ़ने की आवश्यकता ही नहीं होती है। 

वस्तुतः कांग्रेस की कार्यप्रणाली ही भाजपा को चुनाव जिताने के लिए नारा देती है। जब-जब कांग्रेस नेताओं ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को उपमा स्वरूप गाली दी, तब-तब प्रधानमंत्री की लोकप्रियता बढ़ी, यानी "ज्यो ज्यो भीगे कामरी क्यों क्यों भारी होय" । यह एक सच्चाई है। वर्ष 2014 में कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने चायवाला कहकर भाजपा को चाय वाला का नारा दे दिया जो अंततः सफल हो गया जिस कारण ‘‘चायवाला’’ ही प्रधानमंत्री बन गया। 2018 में राहुल गांधी ने ‘‘चौकीदार चोर है’’ के कथन को भी भाजपा ने मुद्दा बनाकर जनता की सहानुभूति बटोरी। नवीनतम उदाहरण राजा पटेरिया का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर दिया गया बयान है, जिसे दोहराना भी उचित नहीं है। उक्त कथन के लिए अभी तक राजा पटेरिया ने  गलती मानकर माफी नहीं मांगी है। बल्कि  पटेरिया ने हत्या शब्द का अर्थ हार बताकर एक  नई राजनीतिक शब्दावली को रचा है।

राजा पटेरिया का उक्त कथन आगामी मध्य-प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए भस्मासुर साबित न हो जाये? क्योंकि कांग्रेस ने उसके अर्थ या अनर्थ को अभी तक नहीं समझा है अन्यथा उन्हें बिना किसी पूर्व सूचना के पार्टी से अभी तक तुरन्त बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता। इसके पूर्व गुजरात चुनाव के दौरान कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के मोदी के प्रति अपशब्दों का प्रयोग कर कांग्रेस को गुजरात चुनाव में नुकसान पहुंचाया । इसलिए "ज्यादा जोगी मठ उजाड़" की प्रतीक बन चुकी दिशाहीन कांग्रेस कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने वाले कांग्रेस नेतृत्व की कमी के कारण मोदी व भाजपा को अगले पांच साल चुनावों में कोई खतरा नहीं है, यह साफ है।

परन्तु इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि भाजपा इस मामले में पूरी तरह दूध की धुली है। भाजपा नेताओं के भी ‘‘बकलोल’’ कम नहीं है। तथापि कमोत्तर जहरीले व थोड़ी बहुत मर्यादा लिए होते हैं। भाजपा का लगातार चिंतन शिविर व कार्यशाला लगाने के कारण यह बेहतर स्थिति हो सकती है। अतः वास्तव में कांग्रेस को दोहरी गति चिंतन शिविर लगाने की नितांत आवश्यकता है। 

बावजूद इससे बडा प्रश्न यह उठता है कि कांग्रेस हिमाचल में अच्छा परिणाम दे पायी। मतलब साफ है। कांग्रेस अपने बलबूते अथवा नेतृत्व के कारण नहीं, बल्कि वहां भाजपा सरकार के बुरी तरह से असफल रहने के कारण जनता की नजर में अलोकप्रिय हो जाने से उसे जीत मिली व चली आ रही परिपाटी का पालन हुआ। इसलिए तीसरा मजबूत वैकल्पिक विकल्प न होने पर "बिल्ली के भाग्य  से छींका टूटने"  के कारण कांग्रेस पुनः सरकार में आयी। यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा व केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर जो हिमाचल प्रदेश के ही है, सघन चुनावी दौरा नहीं करते तो शायद 25 सीटें भी नहीं मिल पाती। हिमाचल के चुनाव परिणाम भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को हिमाचल के संबंध में निर्णय लेने के लिए एक सीख जरूर देती है।

शनिवार, 10 दिसंबर 2022

गुजरात विधानसभा चुनाव परिणाम के प्रभाव! क्या 2023 में होने वाले मध्य-प्रदेश विधानसभा के आम चुनाव में ‘‘प्रयोग’’ दोहराया जायेगा।

गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा को जो प्रचंड जीत मिली, वह न केवल ऐतिहासिक है, बल्कि बहुत कुछ अप्रत्याशित भी है। पश्चिम बंगाल के मार्क्सवादी सरकार के रिकार्ड 34 वर्ष के लगातार शासन के बाद भाजपा का दूसरा सबसे बड़ा यह रिकार्ड है। भाजपा की जीत की उम्मीद तो हर किसी को थी। परंतु गुजरात राज्य बनने के बाद जीत के समस्त रिकार्ड को ध्वस्त करते हुए ऐसी बंपर और बड़ी ‘‘अंग अंग फूले न समाने’’ वाली जीत की उम्मीद शायद स्वयं भाजपा को भी नहीं थी। यद्यपि वलसाड में प्रधानमंत्री ने कहा था ‘‘नरेन्द्र ने भूपेन्द्र को समस्त रिकार्ड ध्वस्त करते हुए जीत जिताने की उम्मीद अवश्य जताई थी’’। निश्चित रूप से इसका पूरा का पूरा एकमात्र श्रेय वहां के माटी के लाल, लम्बे समय तक मुख्यमंत्री रहे और देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ही जाता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एक बड़ी खासियत यह है कि चुनावी राजनीति में वे चुनाव को कभी भी हल्के में नहीं लेते हैं। चुनाव जीतने के लिए वे ‘‘आपद् काले मर्यादा नास्ति’’ किसी भी सीमा तक चले जाते हैं, भले ही वे कदम अन्यों की नजर में उनके कद व पद की गरिमा के अनुरूप होते  हों अथवा नहीं। देश के इतिहास में किसी भी राज्य की विधानसभा का यह पहला चुनाव है, जहां प्रधानमंत्री मंत्री ने 39 रैली व सभाएं की (तीन बड़े रोड़ शो किये) जिसके द्वारा वे लगभग 134 से ज्यादा विधानसभा क्षेत्रों तक पहुंचे। विपरीत इसके राहुल गांधी ने मात्र दो 2 रैली की और 3 आदिवासी विधानसभा क्षेत्र तक ही पहुंच पाए। जबकि राजस्थान व मध्य-प्रदेश में जहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं, के चलते वे मध्य-प्रदेश में 12 दिन दे चुके हैं और राजस्थान में भी लगभग 18 दिन समय दे रहे है। राहुल गांधी की भारत जोड़ों यात्रा जो सिर्फ और सिर्फ राजनैतिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु पार्टी को मजबूत करने के उद्देश्य से निकाली गई है। रैली प्रारंभ होने के कुछ समय बाद ही तुरंत हो रहे चुनावी राज्य हिमाचल को इस यात्रा में न जोड़ना, गुजरात को लगभग न जोड़ना व अगले वर्ष होने वाले चुनावी राज्य मध्य-प्रदेश व राजस्थान को भर पर जोड़ना किस राजनैतिक समझ को दर्शाता या सिद्ध करता है? इससे समझा जा सकता है कि गुजरात से ‘‘आंखें चुराती’’ कांग्रेस चुनाव प्रारंभ होने के पूर्व ही मैदान छोड़ ‘‘आंखें फेर’’ चुकी थी। शायद कांग्रेस पार्टी को यह लगता होगा कि राहुल गांधी को पूरी ताकत से चुनावी अभियान में उतरने पर अपेक्षित सफलता न मिलने की आंशका में राहुल गांधी के नेतृत्व पर बड़ा प्रश्नचिन्ह फिर लग जायेगा?
विपरीत इसके भाजपा ने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात विधानसभा चुनाव की 15 महीने पूर्व से ही तैयारी शुरू कर दी थी। तदनुसार योजना अनुसार तब मुख्यमंत्री व पूरा का पूरा मंत्रिमंडल स्पीकर सहित को बदल दिया गया ‘‘सर सलामत पगड़ी तो हजार’’ और नये नवेले विधायक भूपेन्द्र पटेल के नेतृत्व में नई सरकार का गठन कर दिया। इसमें से भी 5 मंत्री के टिकट काटे गये जिसमें से 4 में भाजपा जीती। भाजपा नेतृत्व ने 27 सालों की बढ़ रही सत्ता विरोधी लहर को पढ़ लिया था। इसलिए उसकी काट के लिए कठोर और प्रभावी कदम उठाया गया जिसमें भाजपा को उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली। विपरीत इसके कांग्रेस नेतृत्व ने पिछले गुजरात विधानसभा चुनाव की उपलब्धि को बनाए रखने व बढ़ाने के लिए आवश्यक पसीना नहीं बहाया, जबकि उन्हें भाजपा से ज्यादा ताकत के साथ चुनौती मैदान में कूदना था, जैसा कि केजरीवाल की आप पार्टी कूदी। परिणाम स्वरूप कांग्रेस गुजरात के इतिहास में सबसे बुरी स्थिति में पहुंच गई। सच मानिए यदि गुजरात में कांग्रेस ‘आप’ समान मीडिया प्लेटफॉर्म में उतरती व भाजपा समान धरातल पर जनता के बीच जाती तो परिणाम इतने बूरे नहीं होते।
बडा प्रश्न गुजरात के संदर्भ में क्या 19 साल के भाजपा के ‘‘अंगूठी के नगीने‘‘ व 17 वर्ष के एंटी-इनकम्बेंसी फैक्टर (सत्ता विरोधी लहर) को दूर करने के लिए भी केन्द्रीय नेतृत्व नरेन्द्र मोदी व अमित शाह गुजरात प्रयोग को दोहराएंगे? इस प्रश्न का उत्तर शायद जनवरी 2023 तक निश्चित रूप से मिल जायेगा। यह बात सिर्फ हवा में नहीं है, बल्कि राजनीति और मीडिया के क्षेत्रों में चल रही गर्म चर्चा में शुमार है। इस संभावित परिवर्तन को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा ने गुजरात चुनाव के बाद एजेंडा आज तक के महामंच में शामिल होकर प्रश्न का जवाब देते हुए यह कथन दिया कि गुजरात का प्रयोग अन्य राज्यों में किया जा सकता है, ऐसा कह कर मानो ‘‘कलम तोड़ कर रख दी’’ है व इस मुद्दे को और हवा दे दी है। इसका साफ संकेत मध्य-प्रदेश की ओर है। इसीलिए वरिष्ठ मंत्रीगण, विधायकगण व मुख्यमंत्री गुजरात के इस परिणाम से आंतरिक रूप से सुखी होने के बजाए "कालस्य कुटिला गति" से उत्पन्न तनाव होने से गुजर रहे होगे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ‘‘अशांतस्य कुतः सुखम्’’। परन्तु इस संभावित प्रयोग पर एक प्रश्नवाचक चिंह अवश्य लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुजरात के माटी के है, इसलिए वहाँ तो उन्होंने सफलतापूर्वक छक्का लगा दिया। परन्तु क्या मध्य-प्रदेश में भी वे उतने ही प्रभावशाली व उपयोगी सिद्ध होगें, यह देखने की बात होगी? शायद इसलिए यहां सत्ता के साथ संगठन में भी संगठन स्तर में भी आमूलचूल परिवर्तन होने की भी चर्चा है।
तीन प्रदेशों में हुए में चुनावों में तीनों पार्टियों भाजपा, कांग्रेस व आप को एक-एक प्रदेश में सत्ता मिली। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि तीनों जगह के जनादेश (हार-जीत एक साथ) को हृदय से स्वीकार करने में तीनों पार्टियों को हिचक हो रही है, क्योंकि देश की राजनीति की गत इस तरह की हो गई है। देश की राजनीति का यह एक बड़ा दुर्भाग्य है कि हारा हुआ दल जनता के जनादेश को शाब्दिक रूप में तो अवश्य शिरोधार्य करते हैं। परन्तु साथ ही वह ऐसे उनके विपरीत आये निर्णय के लिए विरोधियों द्वारा जनता को भ्रमित करने का आरोप भी जड़ देते है। जबकि स्वस्थ लोकतंत्र में हार के निर्णय को स्वीकार कर, जनता द्वारा तय किये गये विपक्ष के रोल को सफलतापूर्वक निभा कर, जनता के बीच जाकर, उनके सामने रखकर सत्तापक्ष की जन विरोधी नीतियों को अगले चुनाव में आने का प्रयास हारी हुई पार्टी को करना चाहिए। फिलहाल राजनीतिक पार्टियों में ऐसी स्वीकारिता का आत्मबल नहीं है।

बुधवार, 7 दिसंबर 2022

पैंतीस टुकड़ों का एक शव, एक सौ पैंतीस मौत पर भारी।

अभागा दिन हुआ रविवार दिनांक 30 अक्टूबर 2022 को हुई गुजरात के मोरबी जिले की मच्छु नदी पर बना 142 वर्ष पुराना केबल ब्रिज के टूटने पर हुई असामयिक हृदय विदारक दुर्घटना में 135 लोगों को अकाल, अकारण ‘‘मानव निर्मित घोर असावधानी’’ (गैर इरादतन हत्या) के कारण काल के गाल में जाना पड़ा। पांच दिनों तक चले 300 से अधिक लोगों के नदी में डूबने व निकालने के खोज व बचाव अभियान के चलते पांच-छः दिनों तक मीडिया की हेडलाइन बनी रहकर, घटना के लिए सरकार ने हाई पावर कमेटी, जांच आयोग और एसटीएफ का भी गठन कर दिया गया।

इस तरह की घटनाओं से सरकार जिम्मेदार व्यक्तियों के विरूद्ध उत्पन्न आक्रोश से निपटने के लिए आज की राजनीति का एक रटा-रटाया कथन ‘‘कानून अपना कार्य करेगा’’, दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा और उन्हें सख्त से सख्त सजा दी जाएगी, बयान उक्त घटना के लिए जिम्मेदार प्रशासन व शासन की ओर से आया। नौ आरोपियों जिसमें ओरेवा के दो मैनेजर, दो टिकट क्लर्क के साथ दो ठेकेदार और तीन सुरक्षा गार्ड शामिल थे, को गिरफ्तार किया गया। मोरबी नगरपालिका के मुख्य अधिकारी को निलंबित कर दिया गया। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संवेदनाएं भी व्यक्त की गई। परन्तु इस बात का कोई जवाब उच्चतम न्यायालय सहित आज तक नहीं मिला कि यदि शासन व प्रशासन की लापरवाही उक्त घटना में होगी, जो प्रथम दृष्टया दिखती भी है व एफएसएल रिपोर्ट में भी उभरी है, तो उसकी जांच कौन सी स्वतंत्र एजेंसी (अॅथॉरिटी) करेगी जो राज्य के शासन व प्रशासन के प्रभाव से एकदम मुक्त होगी? क्योंकि यहां तो ‘‘कुए में ही भांग पड़ी हुई है’’। मीडिया सहित उपरोक्त समस्त संस्थाओं ने शायद इसे ‘‘एक्ट ऑफ गॉड’’ मान लिया है, जैसा कि यह कथन ओरेवा कंपनी के मैनेजर ने दिया था, जो कि ‘‘पीडि़तों के घावों पर नमक छिड़कने के समान‘‘ है।

इसके लगभग एक पखवाड़े बाद (14 नवम्बर) को दिल्ली में एक बहुत ही वीभत्स व घिनौनी हत्या एक जाति की पीड़िता होकर दूसरे वर्ग विशेष द्वारा उसकी निर्मम हत्या कर शवों को पैंतीस टुकड़ों में टुकड़े-टुकड़े (टुकड़े-टुकड़े गैंग? एक प्रसिद्ध उक्ति हो गई है) कर दिया गया। छः महीने पूर्व 18 मई 22 को हुई घटना का पता लगने पर तब से लेकर आज तक श्रद्धा हत्याकांड ही मीडिया के हृदय पटल पर लगातार इतनी गहराई से छाया हुआ है कि अन्य पटल पर धूमिल हो गये है। इस कारण से आम मानस के माथे में सलवटे व दिलों व दिमाग में भी दहशत भरी भावना छा गई है। ऐसा लगता है कि शव के 35 टुकड़े के लिए मीडिया ने प्रत्येक दिन एक टुकड़े के लिए प्रसारण तय कर लिया है। मानों प्रत्येक दिन एक टुकड़े की स्टोरी दी जाकर उक्त घटना की याद को तरोताजा रखा जावें।
प्रश्न बड़ा साधारण परन्तु महत्वपूर्ण है कि एक सौ पैंतीस लोग आम नागरिक थे, साधारण या मध्यम वर्ग के लोग थे, यद्यपि इसमें बीजेपी सांसद मोहन भाई केदारिया के परिवार के 12 सदस्य भी शामिल थे। इसमें 5 बच्चे भी है। विभिन्न धर्मों को मानने वाले थे। हिन्दू-मुस्लिम का एंगल नहीं था। इस कारण से एक पखवाड़े बाद हुई दूसरी घटना जिसमें एक आधुनिक लड़की जो बिना शादी के अभिभावक की जानकारी में दो साल से ज्यादा समय से भी लड़ाई-झगड़े के साथ लिव-इन-रिलेशन में रह रही थी, की हत्या बर्बरतापूर्ण की जिस हत्या को मीडिया ने 135 मौतों से भी बड़ी घटना इसे बनाया। प्रेमिका द्वारा शादी के लिए जोर डालने पर प्रेमी ने ही निर्मम हत्या कर दी। शुद्ध रूप से यह एक प्यार और प्यार में धोखे का संबंध था, जहां लव जिहाद वाली कोई बात नहीं थी। बावजूद इसके, ‘‘बाल की खाल निकालते हुए‘‘ घटना को लव जिहाद बनाने की कोशिश होकर राजनीतिक रंग डालने का प्रयास किया गया। जेल ले जाते समय आफताब को हिन्दू संगठन के लोगों ने लव-जिहाद के आधार पर हमला किया। निश्चित रूप से उक्त अपराध हर हालत में अक्षम्य है और कड़ी से कड़ी सजा फास्ट टेªक कोर्ट के द्वारा अति शीघ्र दी जाकर ऐसे अपराधियों को सबक सिखाने की आवश्यकता है, ताकि भविष्य में इस तरह के दुर्दान्त कृत्य करने की हिम्मत कोई और न जुटा सके। परन्तु दोनों घटनाओं को लेकर मीडिया द्वारा बनाया गया परसेप्शन व नरेटिव कितना गैरजिम्मेदार अविवेकपूर्ण व औचित्यपूर्ण है इस पर शक की कोई गुंजाइश है क्या?
लेकिन बड़ा प्रश्न यह है कि मीडिया लगातार इसका प्रसारण करके ब्रेकिंग न्यूज बनाकर क्या सिद्ध करना चाहती है? अपने कौन से और किस दायित्व को निभाना चाहती है? इसके साथ ही एक सौ पैंतीस लोगों की हुई मृत्यु पर जोर-शोर से आवाज लगातार क्यों नहीं उठाई गई कि जिस व्यक्ति का नगरपालिका के साथ केबल ब्रिज सुधारने का अनुबंध था उसके मालिक ने बाकायदा पत्रकार वार्ता कर स्थानीय शासन-प्रशासन को जानकारी दिये बिना व बिना अनुमति के पुल को आवागमन के लिए खोल दिया उनके विरूद्ध आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई और ‘‘एक चुप सौ को हराये‘‘ की तजऱ् पर न ही कोई पूछताछ की गई, न एफआईआर दर्ज हुई। गिरफ्तारी का तो प्रश्न ही कहां उत्पन्न होता है? जब यह स्थिति स्पष्ट रूप से सामने आ चुकी है कि प्रथम दृष्टया मुख्य रूप से ठेकेदार ही जिम्मेदार है। उत्तर प्रदेश में हुई एक रेप की घटना का खयाल आता है जहां बलात्कार की घटना पर एक मीडिया चैनल ने मुहिम चला दी थी की जब तक एसपी को बदला नहीं जाएगा तब तक यह कार्यक्रम चलेगा। लेकिन यहां पर किसी भी मीडिया द्वारा ठेकेदार के खिलाफ कोई मुहिम इस तरह की नहीं चलाई गई। क्या इसलिए कि वह बड़ा अमीर व राजनैतिक रूप से प्रभावशाली व्यक्ति है जिसकी ‘‘ठकुरसुहाती करना‘‘ मीडिया की मजबूरी हो और जो व्यक्ति स्वर्गवासी हो गये वे इतने प्रभावशाली नहीं थे कि गुजरात की चुनावी राजनीति को प्रभावित कर सके, शायद इसीलिए न्यायालय से लेकर शासन व प्रशासन तक का उन पर उचित ध्यान नहीं गया?
शायद मीडिया भी इस बात को स्वीकार करता है कि पूरे देश को हिला देने वाली श्रद्धा हत्या प्रकरण की तुलना में मोरबी की 135 व्यक्ति की मृत्यु देश के दिलों दिमाग को तुलनात्मक रूप से झकझोर नहीं कर पाई। क्या इसलिए कि इस देश की इस तरह की असामयिक सामूहिक मौतों के अनेकानेक उदाहरण को सहने की क्षमता समस्त तंत्र सहित देश की जनता ने बना ली है।
मीडिया को यह समझना होगा की टीआरपी बढ़ा कर ‘‘चांदी काटने‘‘ का यह तरीका न तो सही और न ही प्रभावी है। परन्तु इसके लिए जनता को भी आगे आकर मीडिया की ‘‘आंखों के जाले साफ कर‘‘ इस गलतफहमी को दूर करना होगा कि इस तरह की घटनाओं की लगातार ब्राडिंग कर प्रसारण से मीडिया की टीआरपी बढ़ती है। अंततः मीडिया जो भी प्रसारण करता है, उसके पीछे दो ही उद्देश्य प्रमुख होते है। पहले अपने आकाओं (मालिकों) को जो कहीं न कहीं राजनीतिक दलों से जुड़े हुए है, और राजनीतिकों की ‘‘नाक के बाल‘‘ हैं, उनके हितों को साधना। दूसरा उन हितों को सफलतापूर्वक बढ़ाये व बनाये रखने के लिए अपनी टीआरपी को बनाए रखना। इसी को कहते हैं ‘‘कोयले की दलाली में हाथ काले करना‘‘। एनडीटीवी से इस्तीफा दिये, बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि इस तरह की परिस्थिति निर्मित कर दी गई है कि निकालने के पहले ही इस्तीफा देना रवीश कुमार की मजबूरी हो गई। टीवी चैनल से निकाले जाने के बाद आये उनका यह कथन कि बावजूद ही महत्वपूर्ण है कि टीवी देखना बंद कर देना चाहिये। तथापि यदि टीवी चैनल में रहते हुए रवीश कुमार यह बात बोलते तो इसका प्रभाव 100 गुना होता।  मेरा यह निश्चित मत है कि इस देश की अनगिनत समस्याओं का एक प्रमुख कारण हमारा इलेक्ट्रानिक मीडिया ही है और यदि उस पर प्रभावी अंकुश सरकार नहीं लगाती है, तो निश्चित मानिए देश का समग्र विकास, एकता, अखंडता, सम्मान बच नहीं पायेगा। और तब जो लोग जिम्मेदार है वे कार्रवाई न करके भी अप्रासंगिक हो जायेगें।

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