मंगलवार, 31 अगस्त 2021

‘‘निजीकरण’’ की ओर बढ़ती सरकार! ‘‘स्वयं’’ का ‘‘निजीकरण’’ कब करेगी?


वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने वर्ष 2021-22 के बजट में ‘‘एसेट्स मोनेटाइजेशन इनिशिएटिव’’ पर काफी जोर दिया था, जिसे कार्य रूप में परिणित करने के लिये 23 अगस्त को ‘‘नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन". (एनएमपी) (राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन) योजना लांच की। वित्तमंत्री ने ‘‘देश की पूंजी’’ "सरकारी सम्पत्ति" को विदेशी क्षेत्रों सहित "निजी क्षेत्रों" को  "लीज" पर देकर आगामी 4 वर्षो में लगभग 6 लाख करोड़ आय की योजना की परिकल्पना की घोषणा की। इनमें बिजली से लेकर राष्ट्रीय राज मार्ग, रेलवे, पेट्रोलियम पाइप लाइन, टेलीकॉम, खनन (माइन्स), एयरपोर्ट, पोर्ट, वेयरहाउस, स्टेडियम जैसे बुनियादी ढ़ाचे (कुल 8 मंत्रालय) शामिल है। किसी भी स्थिति में सम्पत्ति का “स्वामित्व“ सरकार के पास ही रहेगा। सिर्फ "अन या अडंर-यूटिलाइज्ड़ एसेट्स" (बेकार पड़ी अथवा कम उपयोग की गई सम्पत्ति) को ही निजी क्षेत्रों को देगी। तय निश्चित समय सीमा के पश्चात ’अनिवार्य’ रूप से दिया गया सम्पत्ति का प्रबंधन (कंट्रोल) निजी क्षेत्र को वापस सरकार को करना होगा। 

 सहसा ही यह विश्वास नहीं होता है कि क्या यह उस भाजपा का निर्णय है, जो "जनसंघ से लेकर भाजपा' तक के सफर में, सत्ता में आने के पूर्व तक, वर्ष 1991 में पी.वी. नरसिम्हा राव की कांग्रेसी सरकार से प्रारंभ की गई निजीकरण व आर्थिक उदारीकरण की नीति केे सख्त खिलाफ थी। वर्ष 1991 में स्थापित “स्वदेशी जागरण मंच“ जिसे “संघ“(राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) का "आर्थिक विभाग" भी कहा जाता है, के माध्यम से “पर उपदेश कुशल बहुतेरे“ की तर्ज पर भाजपा ने  स्वदेशी आंदोलन कर इस नीति का पुरज़ोर विरोध किया था। "डंकन प्रस्ताव" के भाजपा के राष्ट्रव्यापी विरोध को लोग अभी तक भूले नहीं है। यद्यपि भाजपा जब पहली बार केंद्र की सत्ता में आयी थी, अर्थात अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रीत्व काल में भी निजी व विदेशी विनिवेश की नीति का समर्थन किया गया था। तथापि भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक व स्वदेशी जागरण मंच के जनक दत्तोपंत ठेंगड़ी का बाजपेयी जी की सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की नीति को लेकर उनसे गहरे मतभेद थे।  

 देश की सम्पत्ति सार्वजनिक संस्थानों और प्राकृतिक संशाधनों को निजी हाथों में लम्बे समय के लिए चलाने के लिये ‘लाभ हानि’ सहित सौंपने की नीति को ’निजीकरण’ जो अब एक “राजनैतिक गाली“ व असुविधाजनक शब्द का रूप ले कर “मुन्नी से भी ज़्यादा बदनाम“ हो चुकी है, के बदले “लीज व मुद्रीकरण“ का ’नामकरण’ देकर सरकार उसे “जायज, उचित व आवश्यक’“ ठहरा रही है। तथापि वित्तमंत्री ने इस संपूर्ण मुद्रीकरण को "निजीकरण" मानने से स्पष्ट रूप से इंकार किया है। परन्तु बुनियादी ढ़ाचे के निर्माण के लिए इसे एक महत्वपूर्ण “वित्त पोषक“ जरूर बतलाया है। 51 प्रतिशत एफडीआई से लेकर एयरपोर्ट, रेलवे का निजीकरण का भाजपा पूर्व में विरोध कर चुकी है। कल्पना कीजिए कि “अंधे पीसें कुत्ते खांय“ की तर्ज पर आज लाल किला और रेलवे का आंशिक रूप से निजीकरण की ओर बढ़ाया गया कदम, यदि कांग्रेस सरकार के द्वारा उठाया गया होता तो, भाजपा देश में कितना बड़ा हंगामा खड़ा कर देती? 

‘‘परिर्वतन’’ का नारा देकर सत्ता में आने के बाद सिर्फ कुर्सी पर बैठे "चेहरों" का ही परिर्वतन हुआ है। सरकार की ‘नीति-रीति’ तो वही रहती है। चूंकि "कुर्सी" पर ‘‘सत्ता’’ की मजबूत पकड़ होती है, इसलिए वर्तमान में कुर्सी पर बैठा शासक कुर्सी को नहीं, बल्कि कुर्सी (सत्ता) अपने ऊपर बैठे ’शासक’ को अपने अनुकूल करती है।‘‘सत्ता’’ (कुर्सी) का यही सबसे बड़ा चरित्र होता है। अंततः लोकतंत्र में कुर्सी ही महत्वपूर्ण होती है। इस प्रकार लोकतंत्र के नाम पर जनतंत्र द्वारा जनता के साथ इसी तरह से मजाक होता रहेगा। इसलिये यदि आप ‘‘एनडीए’’ सरकार की तुलना ‘‘यूपीए’’ से करे तो, यूपीए सरकार की जो प्रमुख महत्वपूर्ण नीतियां थी, जिनका “एनडीए“ ने (विपक्ष में रहते हुये) विरोध किया था, वही नीतियां अब एनडीए के लिये “पवित्र गाय“ बन चुकी हैं, और कमोवेश वे सब नीतियों के ऊपर का "लेबल, रंग" बदलकर नया "रेपर" लगाकर लगभग वे ही नीतियां एनडीए सरकार ने लागू की है। इसीलिए कई लोगो को यह भ्रांति (कनफ्यूजन) भी है कि कहीं एनडीए यूपीए पार्ट-3-4 तो नहीं है? 

मुद्दा यहाँ फिलहाल मुद्रीकरण का है। वित्तमंत्री सीतारमण सहित सरकार के नुमाइंदे बार-बार स्पष्ट रूप से यह कहते-कहते थक चुके हैं कि सम्पत्तियों का स्वामित्व सरकार के पास ही रहेगा। कुछ समय के लिए निजी संस्थानों को सिर्फ "लीज" पर दिया जायेगा। और  लीज की निश्चित  समयावधि के समाप्त होने के पश्चात  प्रबंधन वापिस सरकार के पास आ जायेगा। " विक्रय व लीज" मैं निश्चित रूप से तकनीकि रूप से भारी अंतर है। परन्तु व्यवहार में 30-40-50 साल की लम्बी अवधि की लीज देकर "सम्पत्ति का हस्तातंरण" ठीक वैसे ही हैं, जैसा कि सरकार नजूल जमीन को लीज पर 30 से 90 वर्ष के लिये देती है, जिस पर पट्टेदार स्थायी निर्माण कर लेता है व कभी भी सरकार पुनः प्रवेश (री एंट्री) नहीं करती है। लम्बे समय तक अचल-चल सम्पत्ति के उपयोग उपभोग कर पट्टेदार द्वारा मुनाफा कमाने के बाद उस सम्पत्ति की क्या कंडीशन (स्टेटस) रह जायेगी, इसकी कल्पना करना बमुश्किल नहीं है। वैसे भाजपा प्रवक्ता उक्त कदम उठाने के पक्ष में न्यूनतम सरकार अधिकतम शासन (मिनिमम गवर्नमेंट और मैक्सिमम गवर्नेंस) के सिंद्धान्त को उद्धत कर रहे हैं। परंतु सरकार यह बतलाने को तैयार नहीं है कि जिन संपत्तियों से "निजी क्षेत्र" मुनाफा कमाएंगे सरकार उनसे "मुनाफा कमाने" में क्यों असफल रही है? रोग का सही इलाज "तंत्र" बदलने में नहीं बल्कि तंत्र को सुधारने में है।

एक प्रश्न यहां उत्पन्न होता है कि वित्तमंत्री ने सरकारी-सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में “हमेशा“ समस्त निजी क्षेत्रों की कार्यकुशलता (एफिशिएंसी) को कैसे “बेहतर“ मान लिया? क्या अनिल अंबानी का उदाहरण सामने नहीं है? यदि वित्तमंत्री कार्यकुशलता पर यूएनडीपी द्वारा जारी पेपर्स का अध्ययन करती तो उन्हें यह ज्ञात हो जाता कि वोडाफोन-आइडिया जैसी टेलीफोन कंपनियां सहित अनेक प्रसिद्ध नामी निजि क्षेत्रों के संस्थान और उद्योगपति “एनपीए“ होकर दिवालियापन की स्थिति में आ गए हैं। अर्थात कार्यकुशलता, अक्षमता व कुप्रबंध की भागिता सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में है। लेकिन सरकार की प्राथमिकता गरीब जनता के आर्थिक हितों को संरक्षण देने के कारण होने से दोनों क्षेत्र की उक्त तुलना करना सही संदर्भित नहीं होगा। 

इससे भी बड़ा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि सरकार ने जो आगामी चार वर्षो में आय का आंकलन सार्वजनिक किया है, (स्वामित्व बिना बेचे) क्या वह वास्तविकता के नजदीक है या उसका धरातल पर उतरना संभव है? इसका दूसरा अर्थ यह भी निकलता है कि आर्थिक तंत्र की बदहाली होने के कारण ही सरकार ‘तंत्र’ को चलाने से अपने हाथ खींच रही हैं। अर्थात “फटे कपड़े ग़रीबी आयी“। अतः सरकार यह निश्चित निष्कर्ष पर निश्चित रूप से पहुंच चुकी है कि इन संस्थानों द्वारा न तो लाभ कमाया जा सकता है और न ही लम्बे समय तक इन्हे लाभ में चलाया जा सकता है। इनके बेहतर आपरेशन व उपयोग के लिये व सरकार की अव्यवस्था के कारण हुई खस्ता आर्थिक हालात से निपटने का रास्ता उक्त मुद्रीकरण (निजीकरण) ही है। ताकि हम “पेपर पर मालिक बने रह कर मन के मोदक रूपी आत्म सुख“ पाते रहें।

दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि निजिकरण की ओर बढ़ते इस रास्ते में “सामाजिक सुरक्षा“ का क्या होगा? सरकार हमेशा की तरह यह दावा अवश्य करेगी कि वह यह मुद्रीकरण की नीति लागू करते समय इन संस्थानों में कार्यरत कर्मचारियों के  हितों की सुरक्षा के लिए निजी क्षेत्रों पर व्यापक प्रभावी प्रतिबंध लगायेगी ताकि “शोषण व एकाधिकार“ न हो सके। इसकी विस्तृत जानकारी वित्त मंत्रालय ने जारी 196 पेजों की 2 पुस्तिकाओं में दी है, जिसमें उक्त पाइपलाइन में आने वाले क्षेत्रों और उनसे होने वाली संभावित आय की गणना भी की गई है। प्रश्न कड़क प्रभावी नियम-कानून बनाने का नहीं है, बल्कि हमेशा की तरह उसे कड़कता से प्रभावी रूप से लागू करने की समस्या का है। 

मुद्रीकरण की नीति की घोषणा करते समय एक ओर पहलु पर सरकार ने ध्यान नहीं दिया है कि उसके भी कुछ दायित्व व कर्तव्य ऐसे होते है, जहां आर्थिक लाभ-हानि की चिंता किए बिना जनता के प्रति अपने सामाजिक सरोकार को पूरा करने के लिए सरकार को आर्थिक (“अर्थ“के) अंकगणित को छोड़ते हुये कुछ आवश्यक कदम उठाने पडते हैं, जिसका आर्थिक बोझ आम जनों के हित में सरकार को वहन करना होता है। जो प्रायः निजी क्षेत्र लगभग बिल्कुल नहीं करते हैं। साफ है कि यह नीति इन संस्थानों में कार्यरत कर्मचारियों को तो “कसाई के खूंटे से बांधने के समान“ है। अतः इस योजना में सरकार कितनी सफल हो पायेगी फिलहाल इसका जवाब भविष्य के गर्भ में ही है। अच्छा सोचना, कल्पना करना और ऊंची उड़ान भरना गलत नहीं होता है। लेकिन यही सही भी तभी होता है, जब यह वास्तविकता के निकट हो, ताकि उसे धरातल पर उतारा जा सकें। अन्यथा मुंगेरीलाल के हसीन सपने के समान उसका भी यही हश्र होना लाजमी है।

 खराब तंत्र व्यवस्था के चलते सरकारी तंत्र और उस पर अप्रभावी, अदूरदर्शी व परिणाम विमुख सरकारी नीति व नियत्रंण के कारण यदि सरकार निजीकरण की ओर कदम बढ़ा रही है, जैसे कि “भेड़ अपने ही मूंड़े हुए ऊन का कंबल ओढ़े“ और वैसे ही मुद्रीकरण का आवरण ओढ़कर कदम उठाने का ही विकल्प मात्र यदि सरकार के पास "शेष" रह गया है। तब सरकार के स्वयं के शासन तंत्र (शासक) में तो उससे भी ज्यादा खराबियां हैं। अतः तब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जो सरकार स्वयं के शासन तंत्र की खराबी को दुरस्त करने में असफल रही है, जिस कारण उक्त मुद्रीकरण का निर्णय लेना पड़ रहा है। तब क्या सरकार में भी सुधार के लिये इसी नीति का अनुसरण करते हुये ‘‘सरकार’’ को निजी हाथों में सौंप नहीं देना चाहिये? थोडा इंतजार कीजिए! जब सरकार को इन संस्थानों को निजी क्षेत्रों में प्रबंधन में सौंपने का निर्णय लेने में काफी समय लगा है। तब “सरकार का मूल्यांकन“ करने में तो कई गुना समय ज्यादा लगेगा ही। शायद यह कार्य इस कार्यकाल में न हो पाये तो अगले कार्यकाल में तो जरूर हो जायेगा? क्योंकि यह बात तो तय है सरकार का स्वयं के तंत्र को भी मजबूत, सुदृण और पूर्णतः निरोगी होना सुदृढ़ शासन/प्रशासन के लिये आवश्यक है।

अंत में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने पत्रकार वार्त्ता में राहुल गांधी की बार-बार देश बेचने की कही गई बात की आलोचना करते हुए उल्टे ही कांग्रेस सरकार के तीन निजिकरण के निर्णयों का  उद्धरण कर देश बेचने का प्रश्नवाचक चिन्ह उनकी दादी इंदिरा गांधी पर ही लाद दिया? यानी “हेड्स आई विन, टेल्स यू लूज़“!! तथ्यात्मक रूप से दागे गए प्रश्न “सही“ होने के बावजूद स्मृति ईरानी चतुराई से या यह कहें बेशर्मी से यह तथ्य छुपा गई कि तब कांग्रेस के उठाए गए उदारीकरण के उन कदमों पर तत्समय क्या भाजपा ने उसे देश हित में मान कर, ताली बजाकर पूरे देश में स्वागत किया था? संसद में प्रशंसा का प्रस्ताव लाया था? या तत्समय यूपीए नेत्री इंदिरा गांधी या कांग्रेसी प्रधानमंत्री की पीठ थपथपाई थी? तब क्या उक्त कदम के स्वागत के लिये स्वदेशी जागरण मंच का गठन हुआ था? स्मृति ईरानी भूल गयीं कि “कांच के घर में रह कर दूसरों पर पत्थर नहीं फेंके जाते“। यद्यपि कांग्रेस प्रवक्ता द्वारा “प्रति प्रश्न“ न किए जाने से स्मृति ईरानी को आगे स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी और वे शर्मनाक (आकवर्ड) स्थिति का सामना करने से बच गई। राजनीति में सुचिता और  ईमानदारी का यह तकाजा है कि स्मृति ईरानी को यह जरूर बतलाना चाहिए था कि ततसमय भाजपा का विरोध "गलत" था और वैश्वीकरण की नीति सही थी, जिससे आज भाजपा समय की आवश्यकता अनुसार एक और अच्छे रूप में जनहित में जनता के सामने लायी है। इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि नीति चाहे कितनी ही देश हित में हो, विपक्ष में रहने पर उसका विरोध करना भी शायद “देश हित“ ही कहलाता है। वर्तमान विनिवेश, विदेशी सीधा निवेश (एफडीआई), मुद्रीकरण, निजीकरण, आर्थिक उदारीकरण या आप उससे अन्य कोई भी नाम दे दें, राजनीति के चलते भाजपा कांग्रेस दोनों आमने सामने खड़े न हो कर “बर्ड्स ऑफ द सेम फ़ीदर फ़्लॉक टुगेदर“ के समान एक दूसरे के पूरक होकर, परंतु देश के हितों के विरुद्ध जरूर खड़े दिखते हैं।

गुरुवार, 19 अगस्त 2021

ध्यानचंद "वि.(+)/(-)/(=)"? सचिन तेंदुलकर!


प्रधानमंत्री ने ओलंपिक खेलों में अर्जित उल्लेखनीय उपलब्धियों को ‘‘ध्यान’’ में रखते हुये ख़ासकर पुरूष व महिला हॉकी टीमों की असाधारण प्रर्दशन के साथ उल्लेखनीय सफलताएँ (ओलंपिक इतिहास में पहली बार महिला हॉकी टीम गत विजेता को हराकर सेमीफाइनल में पहुंची) मिलने पर‘‘ खेल का सबसे बड़ा पुरस्कार ‘‘राजीव गांधी खेल रत्न’’ का नाम बदलकर ‘‘मेजर ध्यानचंद खेल रत्न‘‘ नाम करने की घोषणा की। परंतु यहां पर ‘‘किसी‘‘ को पुरस्कृत करने के बजाए ‘‘दूसरे‘‘ को तिरस्कृत करने की भावना ज्यादा दिखती है। अन्यथा नाम बदलने के बजाय एक नए राष्ट्रीय खेल पुरस्कार की घोषणा की जाती? आमतौर पर जब किसी को पदक देकर या उनके नाम के पुरस्कार की घोषणा कर सम्मानित किया जाता है, तब उनके लाखों करोड़ों प्रशंसकों में प्रसन्नता की लहर सी दौड़ जाती है। परन्तु यहां पर तो सर्वोच्च खेल पुरस्कार का नाम ध्यानचंद के नाम पर "स्थानापन्न" करने के निर्णय की जानकारी मिलने पर उनके प्रशंसको के सालों पुराने खुदरे घाव ‘‘भरे‘‘ न होकर ‘‘हरे भरे‘‘ हो कर "तरोताजा" हो गये। देश कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक सूत्र, एक आवाज में सिर्फ और सिर्फ ध्यानचंद को ‘‘भारत रत्न’’ देने की माँग लंबे समय से करते चला आ रहा है। यह माँग तब और तेज हुई जब, देश में पहली बार ‘‘खेल‘‘ (स्पोर्ट्स) में वर्ष 2014 में क्रिकेट के ‘‘मसीहा‘‘ कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न दिया गया। ‘‘एक नजीर सौ दलीलों से बेहतर होती है‘‘। यद्यपि इसके पूर्व खेल में ‘‘भारत रत्न’’ देने की कोई प्रथा या नियम नहीं था।

मेरे कई साथियों ने कहा कि आज सचिन व ध्यानचंद की तुलना करने का समय नहीं आ गया है क्या? उनकी श्रेष्ठता की तुलना में आप लेख लिखिये। दोनों में से सर्वश्रेष्ठ कौन है? यह बतलाइये। वाल्मीकि रामायण में कहा गया हैः-‘‘अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः‘‘ अर्थात ‘‘अप्रिय किंतु सत्य बात कहने वाले वक्ता और श्रोता दोनों ही दुर्लभ होते हैं‘‘। मैंने कहा दोनों देश के सर्वकालीन अपने अपने क्षेत्र के बेजोड़ "हीरो (लीजेंड़)" है और उनकी तुलना करना उचित, सामयिक व संभव नहीं है। परंतु बारम्बार अनुरोध पर मैंने आगे तुलना करने का दुःष्साहसिक प्रयास किया है। आखि़र ‘‘ख़लक का हलक़ कौन बंद कर सकता है‘‘। किसी भी व्यक्ति की भावना को ठेस न तो मैं पहुंचाना चाहता हूं न ही यह उद्देश्य है। लेकिन जब लगातार यह कहां जाये कि सर्वश्रेष्ठ में सर्वश्रेष्ठ (बेस्ट ऑफ द बेस्ट) कौन है, तब यह कार्य भी करना पड़ता है।

ध्यानचंद अपनी करिश्माई खेल के कारण पूरे विश्व में हॉंकी के ‘‘जादूगर‘‘ कहलाये। वर्ष 1928 के अपने प्रथम ओलंपिक में ही ध्यानचंद द्वारा 14 गोल करने पर नीदरलैंड (हालैंड) के अधिकारियों ने शंका व्यक्त करते हुये कहा कि कहीं उनकी हॉकी में चुम्बक तो नहीं लगी हुई है? और वह आशंका निराधार पाए जाने पर उन्हे ‘‘हॉकी का जादूगर’’ कहा गया। विश्व के वे एक मात्र सर्व कालीन हॉकी के जादूगर कहलाए, क्योंकि उनके पहले और बाद में आज तक विश्व में कोई भी हाॅकी खिलाड़ी निसंदेह उन ऊंचाईयों, क्षमता और प्रतिभा को छू नहीं पाया है, जिसके लिये ध्यानचंद जाने जाते हैं। और उनकी अविच्छिन्न (अनवरत), पहचान, परसेप्शन, उन्हे विश्व का अभी तक का सबसे बड़ा हॉकी का खिलाडी के रूप में ‘‘पर्याय’’ व मिथक बनाती है। (भूतो न भविष्यति)

सचिन तेंदुलकर क्रिकेट के ‘‘भगवान‘‘ कहे जाते हैं। विश्व क्रिकेट के इतिहास में सबसे ज्यादा रिकार्ड शायद उनके ही नाम से हैं। यद्यपि 20वीं सदी में सुनील गावस्कर ने कई विश्व रिकार्ड बनाकर क्रिकेट में भारत का झंडा गाड़ा था। तब यह कहा जाता था ‘‘सन्नी‘‘ जैसा कोई नहीं? लेकिन क्रिकेट खेल ही ऐसा है, जहां ‘‘रिकार्ड बनते ही तोड़ने‘‘ के लिए। इस कारण ‘‘लिटिल मास्टर‘‘ सुनील गावस्कर के रिकार्ड को सचिन तेंदुलकर ने तोड़कर विश्व क्रिकेट में अपना एक अलग स्थान बनाकर ‘‘मास्टर ब्लास्टर‘‘ कहलाए। परन्तु ऐसा लगता है विराट कोहली से लेकर वर्तमान में खेल रहे क्रिकेटरस, सचिन के समस्त नहीं तो कुछ  रिकार्डो को तो भंग कर (तोड़) सकते है। क्रिकेट व हॉकी के खेल में यह एक मौलिक अंतर है। एक तरफ जहां सामान्य कल्पना के बाहर कठिन रिकार्ड (हॉकी) बनाना मुश्किल होता है, वही दूसरी ओर (क्रिकेट) रिकार्ड तोड़ने के लिए ही बनाया जाते हैं और टूटते है। 

सचिन द्वारा बनाएं प्रत्येक रिकार्ड को यदि एक जगह समाहित किया जाए तो एक किताब लिखी जा सकती है। इन रिकार्ड दर रिकार्ड बनाने के कारण ही वे क्रिकेट के ‘‘भगवान‘‘ कहलाये। ‘‘भगवान‘‘ का अर्थ ‘‘आस्था‘‘ से जुड़ा है, जो एक ‘‘जीवन‘‘ आसमान की ओर टकटकी निगाहों से ‘‘भगवान‘‘ को महसूस कर अपनी आस्था को मजबूत कर अच्छे जीवन निर्वाह की ओर चल पड़ता है। वहीं दूसरी ओर जादूगर की ‘‘जादूगरी की कला से‘‘, कला प्रेमी जनता मोहित, मंत्रमुग्ध होकर उसको अपनाने का प्रयास करती है। इस प्रकार जादूगरी ‘‘उत्प्रेरणा‘‘ (उत्प्रेरक) का कार्य करती है। जबकि ‘‘भगवान प्रेरणा‘‘ का कार्य करते है। इन दोनों में आश्चर्य करने वाली विरोधाभासी दिखनी वाली स्थिति यह हैै कि ‘‘लौकिक’’ रूप से हम ‘‘भगवान’’ को ‘‘अलौकिक‘‘ रूप में देखते है। जबकि वास्तविकता में ‘‘भगवान‘‘ (सचिन तेंदुलकर) आज भी हमारे आँखों के सामने हैं। ईश्वर उनको खू़ब लम्बी आयु दे, ताकि लंबे समय तक वे क्रिकेटर्स के प्रेरणास्रोत बने रहें। विपरीत इसके ‘‘जादूगर‘‘ (हाॅकी के) जो ‘‘लौकिक‘‘ रूप में से ही जादूगरी दिखा सकता है, वह ‘‘अलौकिक‘‘ हो गए। अब उनकी यादों और वीडियो के माध्यम से ही हम उन्हे महसूस व देख सकते है। वास्तविक दर्शन नहीं कर सकते हैं। ‘‘जिंदगी भले ही एक ही पीढ़ी की होती है लेकिन शोहरत पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है‘‘। 

एक और कारण दोनों ध्यानचंद और सचिन तेंदुलकर के व्यक्तित्व को अलग ठहराती है। जर्मन शासक, तानाशाह एडोल्फ हिटलर ने वर्ष 1936 ओलंपिक में ध्यानचंद के करिश्माई खेल के कारण जर्मनी को बुरी तरह से (8-1) से हराने पर ध्यानचंद को जर्मन नागरिकता, जर्मनी की तरफ से खेलने एवं मुहमांगी भारी धनराशी देने का प्रस्ताव किया था, जिसे उन्होंने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करते हुए यह कहा था कि ‘‘मुझे भारतीय ही बने रहने दीजिये‘‘। चूंकि बात ब्रिटिश इंडिया के समय की थी, इसलिए बात ‘‘नागरिकता‘‘ तक जा पहुंची थी। परंतु सचिन स्वतंत्र भारत के जन्मे भारतीय नागरिक हैं। इसलिए उन्हें ध्यानचंद जैसी परिस्थितियों से गुजरना नहीं पड़ा। दोनों के बीच समय परिस्थितियों में जमीन आसमान का अंतर होने के कारण ही सचिन "लोकप्रिय ब्रांड" बन कर अरबों के मालिक हुए, तो ध्यानचंद ‘‘ठन ठन गोपाल‘‘। तथापि हाॅकी के कारण ही उन्हे सेना में पदोन्नती मिलती गई। सचिन को जब वर्ष 2014 में ‘‘भारत रत्न’’ दिया गया तब इलेक्ट्रानिक मीडिया का तुलनात्मक रूप से अत्यधिक विस्तार और प्रभावी होने के कारण तेंदुलकर सिर्फ क्रिकेट के ही नहीं बल्कि देश के एक बहुत प्रसिद्ध व लोकप्रिय व्यक्ति बन गये।

हाॅकी देश का राष्ट्रीय खेल है, (अधिकृत रूप से नहीं) तो क्रिकेट सर्वाधिक लोकप्रिय खेल है। ‘प्रसिद्धि‘ का यह अंतर ही दोनों के व्यक्तित्व में भी अंतर ड़ालता है। 16 नवंबर 2013 में राजनैतिक दृष्टि व कारणों से वर्ष 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए तत्कालीन शासक पार्टी ने ध्यानचंद के ज्यादा मजबूत दावे को तथा पीएमओं द्वारा दी गई लगभग स्वीकृति को दरकिनार करते हुए सचिन की लोकप्रियता का फायदा उठाने के लिये न केवल सचिन को भारत रत्न देने की घोषणा की गई। बल्कि इसके पूर्व उन्हे राज्यसभा में भी (वर्ष 2012में) नामांकित किया गया था। उन्हे "पद्मविभूषण व राजीव गांधी खेल रत्न" से भी नवाजा गया। इस प्रकार सचिन तेंदुलकर का अप्रत्यक्ष रूप से राजनैतिक उपयोग किया गया। सचिन ‘‘ढाई दिन की बादशाहत‘‘ को इंकार कर नहीं सके, जैसा कि ‘‘गायत्री परिवार‘‘ के प्रमुख डा. प्रणव पंड्या ने राज्यसभा से मनोनीत किए जाने का प्रस्ताव मिलने पर विनम्रता पूर्वकअस्वीकार कर दिया था। और यहीं पर सचिन का व्यक्तिगत व्यक्तित्व (खेल का नहीं) कहीं न कहीं तुलनात्मक रूप से ध्यानचंद की तुलना में कमोत्तर प्रतीत होता सा दिखता है।  

एक और अंतर दोनों के ‘‘नामकरण‘‘ को लेकर दिखता है। ध्यानचंद ‘द्ददा’ का मूल नाम ‘‘ध्यान सिंह‘‘ था। ध्यान सिंह को सेना के प्रशिक्षण से दिन में समय न मिल पानी से वे रात्रि में प्रकाश के अभाव के कारण चंद्रमा की रोशनी में अभ्यास करते थे, जिस कारण से उनका नाम ‘‘ध्यान चंद‘‘ हो गया। अर्थात ‘‘कर्म‘‘ के कारण उनका नाम "ध्यानचंद" हुआ। इसके विपरीत सचिन का नाम उनके पिता ने अपने चहेते तत्कालीन प्रसिद्ध संगीतज्ञ "सचिन देव बर्मन" के नाम पर किया था। 

अंत में विश्व क्रिकेट के "अजूबा", "मसीहा" कहे जाने वाले भीष्म पितामह "सर डॉन ब्रेडमैन" ने ध्यानचंद और सचिन के बाबत् जो कहा था उससे आपको दोनों व्यक्तित्व का मूल्यांकन समझ में आ जायेगा। ऑस्ट्रेलिया में एक मैच के दौरान ताबड़तोड़ गोल करने देख मैच समाप्ति के बाद डॉन ब्रैडमैन ने ध्यानचंद से कहा ‘‘आप तो ऐसे गोल कर रहे थे मानो रन बना रहे है’’। इसी प्रकार सचिन के बाबत् कहा था ‘‘वह सचिन में अपना ‘‘अक्श‘‘ देख रहे है’’। 

इस देश की "माटी के दोनों लालों" के द्वारा देश का नाम "विश्व पटल" पर पहुंचाने के लिए मैं उन्हे प्रणाम करता हूं। और साधुवाद।

गुरुवार, 12 अगस्त 2021

‘‘खेल‘‘ में भी खेल-खेल में ‘‘खेला‘‘ होवे?


टोक्यो में चल रहे ओलंपिक में भारत को मिले पदकों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार सीधे संवाद (‘‘इंटरैक्ट‘‘) करके अथवा ट्वीट्स के माध्यम से खिलाड़ियों का उत्साह लगातार बढ़ाते जा रहे हैं। आमतौर पर मीडिया से सीधा संवाद ‘‘स्थापित‘‘ करने से ‘‘परहेज‘‘ रखने वाले हमारे प्रधानमंत्री अन्य मामलों में ख़ासकर देश को उपलब्धि दिलाने वाली स्पर्धाओं व आयोजनों (इवेंट्स) में भाग लेने वाले व्यक्तियों से जितना सीधा संपर्क रखते हैं, उतना पूर्व में हमने कभी भी किसी प्रधानमंत्री को रखते हुए नहीं देखा है। ‘‘शासक‘‘ और ‘‘शासित‘‘ के बीच जीवंत, जीवट संपर्क को बढ़ाने के लिए निश्चित रूप से प्रधानमंत्री साधुवाद के पात्र हैं। 

इसी क्रम में प्रधानमंत्री ने लोगों के आयेे ‘‘आग्रह‘‘ की ‘‘भावनाओं‘‘ को देखते हुए ‘‘राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार‘‘ के नाम से राजीव गांधी के नाम को ‘‘स्थानापन्न‘‘ कर ‘‘हॉकी के पर्याय‘‘ बने ‘‘मेजर ध्यानचंद‘‘ के नाम पर रखने के निर्णय की जानकारी ट्वीट करके दी है। जबकि देश प्रधानमंत्री से मेजर ध्यानचंद को और सम्मानित व गौरवान्वित करने के लिए उनके नाम को ‘‘प्रतिस्थापित‘‘ द्वारा नहीं बल्कि ‘‘भारत रत्न‘‘ के लिय ‘‘स्थापित‘‘ करने की उम्मीद लगाए हुए था? यह तो ‘‘भूखे को ‘‘बासी’’/‘‘जूठी’’ रोटी‘‘ खिलाकर जिम्मेदारी पूर्ण करने का दावा जैसी बात हुई। जैसा कि इस देश में हमेशा से होता आया है, स्वागत और आलोचनाओं के फूल और कांटे बिछाने (बयान आने) शुरू हो गए हैं। अर्थात गिलास आधा खाली है या भरा है, इसका आकलन होना प्रारंभ हो गया है। उक्त निर्णय ऊपर से जितना आकर्षित करता है, गहराई में जाने पर वैसा न होकर आप यह महसूस करेगें कि उक्त निर्णय कितना ‘‘अधूरा‘‘ है और ‘उत्साहित‘ व ‘‘सम्मान‘‘ करने के बजाय ‘‘उपहास‘‘ व ‘‘अपमानित‘‘ करने वाला है। कैसे? आगे देखते हैं।

आप जानते हैं कि खेल का देश का सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कार ‘‘राजीव गांधी खेल रत्न‘‘ पुरस्कार है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार देश का सर्वोच्य बड़ा ‘‘नागरिक‘‘ पुरस्कार ‘‘भारत रत्न‘‘ है, सेना की सर्वोच्च रैंक ‘‘फील्ड मार्शल‘‘ (जो एक सम्मान है), युद्ध के मैदान में ‘‘परमवीर चक्र’’, शांति के दौरान सैन्य सेवा में धैर्य व साहस के लिए ‘‘अशोक चक्र’’, सिनेमा जगत (फिल्मी कलाकार) का ‘‘दादा साहेब फाल्के’’, साहित्य क्षेत्र का ‘‘ज्ञानपीठ’’ एवं साहित्य अकादमी इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों के सर्वोच्च पुरस्कार है। ‘‘हॉकी के जादूगर‘‘ कहे जाने वाले हॉकी का पर्याय बने मेजर ध्यानचंद का वास्तविक नाम ध्यान सिंह था। दिन में सेना के प्रशिक्षण में लगे रहने के कारण समय कम होने व रात्रि में ही प्रकाश के अभाव में चंद्रमा की रोशनी में अभ्यास करने के कारण उनका नाम ध्यान चंद पड़ गया। जहां तक देश द्वारा ‘‘ओलंपियन ध्यानचंद’’ को सम्मान देने की बात है, ऐसा नहीं है कि इस दिशा में पहले कोई भी कदम नहीं उठाया गया। पहला सार्थक कदम 1956 में देश का तीसरा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘पद्म भूषण‘ देकर किया गया। तत्पश्चात तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वर्ष 2012 में ध्यानचंद की ‘‘जयंती‘‘ 29 अगस्त को प्रत्येक वर्ष ‘‘राष्ट्रीय खेल दिवस’’ के रूप में मनाने की घोषणा करके की। क्या मेजर ध्यानचंद मात्र एक हॉकी खिलाड़ी ही थे? हिटलर की जर्मन नागरिकता व सम्मान देने के प्रस्ताव को ठुकराने वाले ध्यानचंद क्या देश को अभूतपूर्व, अपूरणीय योगदान देने के कारण एक सम्मानित नागरिक की हैसियत से सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘‘भारत रत्न‘‘ पाने के हकदार नहीं है? ‘‘लाल गुदड़ियों में नहीं छुपते‘‘। यहां ध्यान चंद के ‘‘हक़‘‘ से ज्यादा देश के करोड़ों नागरिकों की सर्वसम्मत इच्छा, प्रसन्नता व आत्म संतुष्टि का भी सवाल है? 

देश में हॉकी, जो कि वर्ष 1926 के पूर्व से खेली जा रही है, की पहचान विश्व में भारतीय खेल के रूप में क्या क्रिकेट की तुलना में ज्यादा नहीं है? जिसका पूरा श्रेय ध्यानचंद को ही जाता है। क्रिकेट जो कि अंग्रेजों का खेल कहा जाता है, शायद अंग्रेजों की गुलामी में रहने के कारण उस मानसिकता के कुछ अंश अभी भी शेष रहने से हमने ‘‘अंग्रेजियत खेल क्रिकेट‘‘ में तो तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वर्ष 2013 में (खेल दृष्टि से नहीं बल्कि 2014 में होने वाले आम चुनाव की दृष्टि से) नियम में परिर्वतन कर भारत रत्न दिया। जबकि तत्समय पीएमओ की स्वीकृति पहले ध्यानचंद के नाम पर मिल चुकी थी (एक आरटीआई एक्टिविसट हेमंत चंद दुबे की रिपोर्ट के अनुसार)। इसी को कहते हैं ‘‘अशर्फियों की क़ीमत नहीं और कोयलों पर मुहर‘‘। इसके पूर्व खेल में भारत रत्न दिए जाने का कोई नियम या प्रथा नहीं थी। आज भी विश्व का सबसे बड़ा पुरस्कार ‘‘नोबेल पुरस्कार‘‘ ‘‘खेल‘‘ को छोड़कर अन्य कई क्षेत्रों में है। पत्रकारिता, लेखनी, साहित्य, संगीत, कला, फिल्म, विज्ञान इत्यादि अनेकानेक क्षेत्रों में अपने-अपने स्वतंत्र सर्वोच्य पुरस्कार होने के बावजूद इन क्षेत्रों में कार्य करने वालो मे से कई सम्मानीय नागरिकों को भारत रत्न पुरस्कार से समय-समय पर नवाजा गया। परंतु विश्व में भारतीयता की पहचान का डंका बजाने वाली हॉकी के लिए विश्व ने दिये ‘‘अलंकरण‘‘ ‘‘हॉकी के जादूगर’’ को नजर अंदाज कर सरकारों का मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न देने पर ‘‘ध्यान पूर्वक ध्यान‘‘ अभी तक क्यों नहीं गया, यह समझ से परे है। जबकि ‘‘ख़ुशबू को अत्तार की सिफारिश की जरूरत नहीं होती‘‘।

प्रधानमंत्री द्वारा लिया गया उक्त निर्णय ‘‘सम्मान‘‘ के बजाय मेजर ध्यानचंद के साथ-साथ खिलाड़ियों का ‘‘उपहास‘‘ और ‘‘अपमान‘‘ ज्यादा दिखता है। जिस व्यक्ति (लीजेंड) को आप स्वयं देश के सर्वोच्च पुरस्कार भारत रत्न के योग्य नहीं मान रहे हैं, जिसकी न्यायोचित मांग पूरे देश में काफी समय से की जा रही है। तब उस (सरकार द्वारा) ‘‘असम्मानित‘‘ (भारत रत्न के लिए) व्यक्ति के नाम से आप दूसरों को ‘‘सम्मानित‘‘ कैसे महसूस कर व करा सकते हैं, यह एक बड़ा यक्ष प्रश्न है? यानी ‘‘हेड्स आई विन, टेल्स यू लूज‘‘। प्रधानमंत्री जब यह कहते हैं कि लोगों की आग्रह की ‘‘भावनाओं‘‘ के अनुरूप यह निर्णय लिया गया है, तो उनको यह भी बतलाना चाहिये कि उक्त खेल सम्मान का नाम राजीव गांधी हटाकर मेजर ध्यानचंद रखने के लिये कितने लोगों ने कब और कैसे उक्त आग्रह किया? और उससे ‘‘कम‘‘ संख्या में लोगों ने ध्यानचंद को भारत रत्न देने की वक़ालत की क्या? 

आखि़र भारत सरकार ध्यानचंद को भारत रत्न क्यों नहीं देना चाहती है, इसका ‘‘व्हाइट पेपर‘‘ जनता के बीच जारी होना चाहिए (क्योंकि इसके पूर्व सरकार में बैठे कई नुमाइंदे महत्वपूर्ण विषयों पर व्हाइट पेपर जारी करने की मांग करते रहे हैं)। ताकि जनता उनके द्वारा चुनी गयी लोकप्रिय सरकार की उस भावना, तर्क व युक्तियुक्त कारण को समझ सके? इससे जनता को यह भी ज्ञात हो सकेगा कि प्रधानमंत्री से भारत रत्न की मांग करने वाले नागरिकों की तुलना खेल रत्न का नाम बदलने वालो की संख्या ज्यादा है? तभी तो लोकप्रिय प्रधानमंत्री ने ज्यादा लोकप्रिय मांग को स्वीकार कर ‘लोकतंत्र’ को सम्मान दिया। तदनुसार देश की जनता का ‘‘ध्यान‘‘ ध्यानचंद को ‘‘भारत रत्न‘‘ दिलाने से भंग होकर हट जाएगा? ताकि ‘‘चंद‘‘ (‘ध्यान’ तो रहा/रहे नहीं?) ताली पीटने वाले  अपने को सही ठहरा सके।

देश और ध्यानचंद का शायद यह दुर्भाग्य ही कहलायेगा कि ब्रिटिश भारत को तीन ओलंपिक में एकमात्र पदक तीन-तीन बार ‘‘स्वर्ण‘‘ दिलाने वाले जादूगर ध्यानचंद ‘‘स्वाधीन देश‘‘ से स्वर्ण  प्राप्त करने में तीन-तीन बार चूक कर ‘‘चांदी/कांस्य‘‘ का मेडल ही प्राप्त कर ‘‘मुट्ठी भर आसमान से ही संतोष‘‘ कर देश के कर्णधारों की ‘‘चांदी‘‘ कर दी। प्रथम 1956 में पदम विभूषण मिलने पर, फिर वर्ष 2012-13 में राष्ट्रीय खेल दिवस उनके नाम पर घोषित होने पर और तत्पश्चात सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न मिलने पर और आज राजीव गांधी खेल पुरस्कार का नामकरण उनके नाम पर होने पर। जिस प्रकार पुरूष व महिला हाॅकी टीमें गत विजेताओं को हराकर सेमीफाइनल में पहुंच कर स्वर्ण से चूक गईं, उसी प्रकार आज फिर ध्यानचंद स्वर्ण (भारत रत्न मरणोपरांत) से चूक गये। ‘‘कहते हैं कि गलती ख़ुद अंधी होती है लेकिन वह ऐसी संतान पैदा करती है जो देख सकती है‘‘। 

ऐसा लगता है ‘राजनीति’ का ‘‘खेला होवे’’ का कीड़ा, क्रीडा, (खेल) में ‘‘खेल खेल’’ में भी लगा दिया गया है। जहां तक खेल पुरस्कारों का नामकरण राजनेताओं के नाम पर होने का प्रश्न है, वहाँ समस्त राजनैतिक पार्टियों की सरकारों की भागीदारी रही है व वे सब एक ही प्लेटफार्म पर खड़ी हैं। इस प्लेटफॉर्म पर, एक फारसी मुहावरे के अनुसार ‘‘हरचे आमद इमारते नो साख़त‘‘ अर्थात जो आया उसने अपनी एक नयी इमारत तामीर की। जब भी जिसको मौका मिला है, मौक़ा कभी छोड़ते नहीं है। यह अलहदा एक अलग विषय है, जिस पर पृथक लेख में कभी चर्चा करेंगे। इस देश में खेल नीति, स्वास्थ नीति, कृषि नीति, शिक्षा नीति, सांस्कृतिक नीति आदि अनेक नीति स्वतंत्र रूप से होकर विभिन्न मंत्रालय के मंत्रियों और सचिवालय द्वारा संचालित होती है! परंतु इन सब नीतियों को बनाने व धरातल पर उतारने में ‘गुणवत्ता (मेरिट्स) की बजाए ‘‘राजनीति‘‘ हावी हो जाती है! इसलिए अभी भी आज राजनीति ‘‘खेल नीति‘‘ पर भी भारी पड़ रही है! जय हो राजनीति! 1,000 से अधिक ‘‘गोल‘‘ दागने वाले ध्यान चंद का ‘सोना‘ (स्वर्ण पदक) शायद दाग (ने) के कारण सरकार ने ही ‘‘गोल‘‘ (गायब) कर दिया, आखि़र कब तक? भारत रत्न की महत्ता प्रभुता सर्व कालीन स्वीकारिता व निष्पक्षता बनाए रखने के लिए ध्यानचंद को भारत रत्न देना ही होगा। यह बात ‘‘चंद‘‘ लोगों के ‘‘ध्यान‘‘ में आनी ही चाहिए जो निर्णय लेते हैं।


सोमवार, 9 अगस्त 2021

आज की ‘‘राजनीति’’ में ‘‘एफआईआर‘‘ क्या एक ‘‘राजनीतिक टूल‘‘ या ‘‘टूलकिट‘‘ बन गया है?

 बिना ‘‘जांच के ‘‘एफआईआर‘‘ की ‘‘वापसी‘‘  या ‘‘नस्ती‘‘ कानूनी रूप से कितनी ‘‘उचित‘‘ है?

        

लोकतंत्र में चुना हुआ लोकप्रिय शासन (सरकार) प्रशासन के माध्यम से जनता की आकांक्षाओं की पूर्ति करने का प्रयास कर ‘‘जन सेवा’’ करने में प्रयासरत रहता है। लोकतंत्र की सही यही पहचान है। ‘शासन’ के संबंध में प्रशासन का मतलब मुख्य रूप से ‘सामान्य प्रशासन’, ‘न्याय प्रशासन’ और ‘पुलिस प्रशासन’ से होता है। पृथक-पृथक स्वतंत्र अस्तित्व लिए परस्पर बेहतर सामंजस के साथ उक्त तीनों भागों (अंगों) द्वारा कार्य करने पर ही शासन; शासन करने में सफल हो सकता है। पुलिस प्रशासन; शासन का एक महत्वपूर्ण अंग होता है, जिसकी कार्यप्रणाली पर ही जनता के बीच शासन की छवि निर्भर करती है। पुलिस कार्यप्रणाली पर चर्चा करने पर स्वाभाविक रूप से ‘‘एफआईआर‘‘ शब्द सामने आ जाता है।उक्त भूमिका लिखने का तात्पर्य मात्र यह है कि वर्तमान में असम व मिजोरम के बीच दुर्भाग्यवश चल रही पुलिसिया झड़पे व तनातनी के दुष्परिणाम व दुष्प्रभाव व उससे उत्पन्न बिन्दु का एक गंभीर आकलन हो सके। 

स्वतंत्र भारत के इतिहास में किन्ही राज्यों जिनकी सीमाएँ परस्पर मिलती है, के बीच खूनी झड़प पुलिस बलों के बीच नहीं हुई, जैसी की दुर्भाग्यवश असम और मिजोरम की पुलिस के बीच कछार जिले में अंतर-राज्यीय सीमा पर हाल (26 जुलाई) में ही हुई झड़प में असम पुलिस के 5 जवान सहित सात लोग मारे गए। ‘‘स्ट्रेटिजिक ऑफेसिव प्रिसिपल ऑफ वार’’ राष्ट्र के दो प्रदेशों के बीच लागू नहीं होता है। यद्यपि सीमा विवाद को लेकर दोनो राज्यों के बीच नागरिकों का परस्पर संघर्ष व नागरिकों व पुलिस के बीच संघर्ष का विवाद तो पुराना है। एक राज्य के लिए वे जवान ‘‘शहीद‘‘ हुए तो दूसरे राज्य के लिए क्या...? ‘‘अपने बेरों को कोई खट्टा नहीं बताया’’। देश के गृहमंत्री अमित शाह द्वारा 25 जुलाई को शिलांग में ली गई समस्त पूर्वोत्तर राज्यों के मुख्यमंत्री की बैठक के तुरंत बाद हुई यह घटना ‘‘कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश एक है‘‘ पर एक ‘‘कलंक‘‘ है। 

लेख के मुख्य विषय ‘‘एफआईआर‘‘ पर आ जाएं। दोनों राज्यों के बीच हुए उक्त खूनी संघर्ष के बाद मिजोरम सरकार ने असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा नौकरशाहों सहित 6 पुलिस के अधिकारियों व अन्य 200 अज्ञात पुलिस कर्मियों के विरुद्ध हत्या के प्रयास और आपराधिक षड़यंत्र के अपराध की एफआईआर अर्थात् प्रथम सूचना पत्र दर्ज कर ली। यद्यपि मिजोरम के मुख्य सचिव ने यह कथन जरूर किया है कि मुख्यमंत्री ने सरमा को शामिल करने की मंजूरी नहीं दी है। मुख्यमंत्री के विरूद्ध ऐसी शायद प्रथम एफआईआर है। यद्यपि कुछ समय पूर्व ही विभिन्न शहर का नाम बदलने को लेकर अरूणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री के विरूद्ध स्टुडेंट यूनियन ने एफआईआर दर्ज की थी। इसी प्रकार असम पुलिस ने भी मिजोरम के राज्य सभा सदस्य के. वनलावेना व अनेक पुलिस अधिकारियों के विरूद्ध हत्या के प्रयास सहित विभिन्न धाराओं में आपराधिक प्रकरण दर्ज किए गये हैं। तदनुसार दो राज्यों की पुलिस ने प्रकरण दर्ज व्यक्तियों के उपस्थित होने हेतु समनस् भेजे। केंद्रीय गृह मंत्री के हस्तक्षेप के बाद मिजोरम के मुख्यमंत्री ने असम के मुख्यमंत्री के विरूद्ध एफआईआर वापस लेने का निर्णय लिया, तदनुसार असम के मुख्यमंत्री ने भी राज्यसभा सांसद के विरूद्ध वापस लेने का निर्देश दिया, ताकि परस्पर बातचीत का वातावरण बन सके। 

सबसे बड़ा प्रश्न यहां यही उत्पन्न होता है की एक दर्ज एफआईआर क्या बिना जांच के राजनीतिक अथवा क़ानून व्यवस्था के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु वापस ली जा सकती है? प्रथम सूचना पत्र दर्ज होने के बाद ही जांच प्रारंभ की जाकर तथ्य पाए जाने पर सक्षम न्यायालय में अपराध/अपराधों के विरुद्ध चालान प्रस्तुत किया जाता है। अथवा एफआईआर के तथ्य; तथ्यहीन पाये जाने पर प्रथम सूचना पत्र नस्ती (फाईल) भी की जा सकती है। न्यायालय में चालान प्रस्तुत होने के बाद भी शासन के अनुरोध पर न्यायालय की अनुमति से अपराधिक प्रकरण वापिस लिया जा सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 154 में यही व्यवस्था है।

अतः एफआईआर संज्ञेय अपराध का पहला लिखित महत्वपूर्ण दस्तावेज होता है, जिसका दुरूपयोग राजनैतिक हथियार के रूप में नहीं किया जाना चाहिये। परन्तु वर्तमान में हमारी शासन व्यवस्था इस तरह की हो गई है कि पुलिस प्रशासन स्वतंत्र रूप से कार्य करने में स्वयं को लगभग अक्षम पाते हैं। राजनैतिक दबाव के चलते एफआईआर दर्ज होने से लेकर जांच प्रक्रिया व निष्कर्ष तक प्रभावित होती है। अर्थात् राजनैतिक सत्ता का भरपुर (दुरू)/(उ)पयोग पुलिस प्रशासन के माध्यम से अपराधिक मामलों में हस्तक्षेप करने में होता है। यह कटु सत्य पुनः असम व मिजोरम सरकारों द्वारा परस्पर एक दूसरे के विरूद्ध एफआईआर दर्ज करने से लेकर फिर वापिस लेना से स्थापित होती हैं। क्योंकि दोनों मामलों में एफआईआर तथाकथित घटित हुये अपराध के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आने वाले जांच अधिकारी (थाना/चौकी) द्वारा स्वयं न की जाकर घटना की जांच किये बिना मुख्यमंत्री के निर्देशों पर की गई। फिर वापिस लेने की कार्यवाही भी मुख्यमंत्री के निर्देशों पर की गई। गोया शासन का कार्य एफआईआर दर्ज करना या वापिस लेना ही रह गया है? इस प्रकार यहाँ पर भी दोनों सरकारों द्वारा एफआईआर का (उ)/(दुरू)पयोग एक राजनैतिक उद्देश्य की प्राप्ति हेतु राजनैतिक टूल के रूप में किया गया है व जा रहा है जो संवैधानिक, का़नूनी व नैतिक रूप से सिद्धांतः गलत है। क्योंकि  इस प्रकार शासनाधिकार का दुरूपयोग होने से यह दुरूपयोग प्रायः अपने राजनैतिक विरोधियों के विरूद्ध व उपयोग हितेषियों के लिये होता रहा है व रहेगा, जिस पर रोक लगाये जाने की अत्यंत आवश्यकता है। तभी आम जनता का पुलिस तंत्र की क्षमता, कार्यकुशलता व निष्पक्षता पर विश्वास जम पायेगा।


बुधवार, 4 अगस्त 2021

आखिर! ‘‘राजनीति‘‘ में (कु) ‘‘नीति‘‘ के गिरने का ‘‘क्रम’’ ‘‘कब’’ व ‘‘कहां’’ जाकर रुकेगा?


पश्चिम बंगाल के आसनसोल लोकसभा क्षेत्र के भाजपा सांसद, पूर्व केंद्रीय मंत्री और 90 के दशक से 12 भाषाओं में फिल्मी गीत-संगीत की दुनिया के प्रसिद्ध और लोकप्रिय गीतकार बाबुल सुप्रियो की सोशल मीडिया ‘‘फेसबुक‘‘ पोस्ट के माध्यम से ‘‘राजनीति‘‘ से ‘‘सन्यास’’ लेने और लोकसभा से एक महीने के भीतर इस्तीफ़ा देने के निर्णय की अचानक जानकारी मिली। हाल में ही हुए केंद्रीय मंत्रिमंडल के चिरप्रतीक्षित पुनर्गठन में अप्रत्याशित उनसे लिये गये इस्तीफे (शायद केंद्रीय मंत्री रहते हुये टाॅलीगंज विधानसभा से हुई हार) के कारण अपमानित व आहत होने, और पश्चिम बंगाल भाजपा के नेतृत्व से मतभेदों के चलते, भाजपा की पश्चिम बंगाल में हुई बड़ी जीत के दावों के विपरीत हुई हार के परिणाम आने से व्यथित होकर (क्योंकि वे स्वयं को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मानते थे) बाबुल सुप्रियो ने उक्त कदम ‘‘निराशा‘‘ में उठाया है, राजनीतिक दृष्टि से प्रथम दृष्टया ऐसा माना जा सकता है।‘‘अशांतस्य कुतः सुखम्‘‘।

सोशल मीडिया में पोस्ट ड़ालते हुए बाबुल सुप्रियो ने कहा कि वह सामाजिक कार्यों (समाज सेवा) के लिए ही राजनीति में आये थे। लेकिन कहते हैं न कि ‘‘असफलता में ही सफलता की कुंजी छुपी होती है‘‘। अतः अब वे यह महसूस करते हैं कि बगैर राजनीति के या राजनैतिक दल के सदस्य रहे बिना भी, सामाजिक कार्य व लोगों की सेवा की जा सकती है। इसीलिये वे राजनीति को ‘‘अलविदा‘‘ कह रहे हैं। संसद सदस्यता से एक महीने के भीतर इस्तीफा दे देंगे वे न तो कोई दल बना रहे हैं और न ही किसी अन्य पार्टी में जा रहे हैं। (वे जानते हैं कि ‘‘भेड़ जहां जायेगी वहीं मुंडेगी‘‘। अचानक अनपेक्षित रूप से घटित पूरे घटनाक्रम को विरोधी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने तो इसे ‘ड्रामा’ क़रार कर दिया है। वस्तुतः बाबुल सुप्रियो का उक्त कथन अर्धसत्य है, क्योंकि ‘राजनीति‘ से ‘‘नीति‘‘ अलविदा तो बहुत पहले हो चुकी है, इसलिये उसे छोड़ने का प्रश्न कहां पैदा उत्पन्न होता है। जहां तक राजनीति की मुख्य ताकत व पहचान ‘‘राज‘‘ (सत्ता) की बात है, राजसत्ता का प्रतीक वह मंत्री पद भी छीना जा चुका है। अब मात्र सांसद रह जाने के बावजूद पार्टी में भी उनकी ‘सत्ता‘ का प्रभाव न्यूनतम रह गया है। अतः वे सिर्फ सांसद पद ही छोड़ सकते हैं, जिसको कार्यरूप देना अभी बाक़ी है।

उपरोक्त संपूर्ण कथन (या कथा?) अपने आप में एक प्रकार की कूटनीतिज्ञ राजनीति लिये हुए है और शायद आज की ‘‘राजनीति‘‘ इसी को कहते हैं। व्यक्ति जीवन से तो अलविदा जरूर होता है, लेकिन अधिकांशतः व्यक्ति राजनीति को पूर्ण रूप से अलविदा नहीं कह पाते हैं। राजनीति का मतलब सिर्फ पार्टी राजनीति ही नहीं होती है, बल्कि राजनीति, सामाजिक, धार्मिक क्षेत्र में व यहाँ तक कि फिल्मी गीत-संगीत के क्षेत्र में भी होती है, जहाँ से बाबुल सुप्रीयो राजनीति में आ कर वहीं वापिस जा रहे हैं। ‘‘साझे की हंडिया को चैराहे पर फूटने से बचाने के लिये‘‘ भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के द्वारा सार्वजनिक रूप से बाबुल सुप्रीयो से उक्त निर्णय पर पुनर्विचार हेतु की गयी अपील के प्रत्युत्तर में दो दिन बाद बाबुल सुप्रियो की जे.पी. नड्डा से हुई मुलाक़ात के बाद आया उनका यह बयान गौरतलब है कि वे ‘‘अब लोकसभा से इस्तीफा तो नहीं दे रहे हैं, लेकिन राजनीति से दूर रहेंगे‘‘। मूल पोस्ट में लिखी बात कि ‘‘वे हमेशा बीजेपी का हिस्सा रहेगें‘‘ को बाद में हटा दिया। बंगाल बीजेपी के अध्यक्ष दिलीप घोष का कथन कि क्या उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया? तथा यह उनका निजी फैसला है, जो कि भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा के स्टैंड के प्रतिकूल है। वर्तमान भारतीय राजनीति की यही ‘‘विशिष्टता‘‘ तो ‘‘शेष‘‘ रह गयी है।

बाबुल सुप्रियो ने अपने सन्यास व इस्तीफ़े के लिये दिये गये कारणों से राजनीति में एक नया अध्याय जोड़ दिया है। सामान्यतया सामाजिक और राजनीतिक कार्य व कार्यकर्ता  अलग-अलग होते हैं, परिभाषित होते हैं व अपनी पृथक-पृथक पहचान लिये होते हैं। परंतु यहां पर तो फिल्मी ‘‘गीत-संगीत‘‘ का क्षेत्र छोड़कर ‘‘सामाजिक‘‘ कार्य करने के लिये ही तो बाबुल सुप्रीयो ‘‘राजनीति‘‘ में आये। जबकि अधिकांशतः अन्य नेतागण तो प्रायः देश सेवा के लिये राजनीति में आने का ‘दावा‘ करते है। गोया, सामाजिक कार्य करने के लिए राजनीति की सीढ़ी चढ़ना जरूरी है? इस ‘‘गलत‘‘ बात को ‘‘सही‘‘ समझने में बाबुल सुप्रियो को 7 साल लग गये। (उन्होंने वर्ष 2014 में भाजपा के प्लेटफाॅर्म से राजनीति में पदार्पण किया था)। यह तो वही बात हुई कि-                  

‘‘शब को मय ख़ूब सी पी, सुब्ह को तौबा कर ली,   

  रिंद के रिंद रहे, हाथ से जन्नत न गयी‘‘।

राजनीति को ‘‘टा टा‘‘ करके सांसद बने रहने का उनका पुनर्निर्णय शायद देश की राजनीति को क्या एक ‘‘नई दिशा‘‘ नहीं देगा? उन्होंने एक और नया शिगूफा दिया कि बिना राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे वे अपनी संसदीय जिम्मेदारी का निर्वहन करते रहेंगे। जबकि सालों राजनीति के रंग में डूबे व समाहित हो जाने के बावजूद अनेक नेता गण अपनी संसदीय जिम्मेदारी पूर्ण व अच्छी तरह से निभा नहीं पाते है। अभी तक तो देश की लोकतंत्रीय प्रणाली की राजनीति में दलीय और (बहुत कम) निर्दलीय राजनीति का ही बोलबाला व वर्चस्व रहा है। राजनीति को ‘‘बाय बाय‘‘ कह, सन्यास ले कर संसदीय राजनीति की पारी को पूर्ण करना कहीं, राजनीति की एक ‘‘नयी थ्योरी‘‘ को तो ईजाद नहीं कर रही है? ‘‘संसद सदस्य‘‘ के ‘‘सन्यासी‘‘ हो जाने पर वह दलगत राजनीति के पचड़े से दूर हो जायेगा। क्योंकि ‘‘पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं‘‘। व्यक्तिगत स्वार्थ या स्वार्थ भावना से परे रहकर वह सिर्फ और सिर्फ देश के लिये ही सोचेगा व तदनुसार कार्य करेगा, जिससे देश मजबूत होगा, और समाज सेवा का कार्य चलता रहेगा। (जैसा कि बाबुल सुप्रीयो ने कहा है)। निस्संदेह व्यक्ति से परिवार व उससे आगे बढ़ते हुए परिवार से समाज और अंततः समाज से ही देश का निर्माण होता है। 

यदि देश में अपनायी गयी संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली के अंतर्गत लोकसभा व राज्यसभा के समस्त 795 संसद सदस्य तथा विधानसभाओं और विधान परिषदों के सभी सदस्यगण भी ‘‘सन्यास की इस नयी राजनीति‘‘ व संसदीय राजनीति को अपना लें तो, संसद में जो ‘‘गतिरोध‘‘ अभी चल रहा है, वह न केवल समाप्त हो जायेगा बल्कि भविष्य में भी ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं होगी और ‘‘चोर उचक्का चैधरी, कुटनी भई प्रधान‘‘ वाली दलगत राजनीति के चलते देश के स्वास्थ्य व विकास पर जो विपरीत प्रभाव पड़ रहा है, उसकी भी समाप्ति हो जायेगी और देश तेजी से विकास, समृद्धि उन्नति और खुशहाली की ओर बढ़ेगा। ‘‘अंधेरों को कोसने से बेहतर है चि़राग़ रौशन करना‘‘। इसलिये ‘‘चैरिटी बिगिन्स एट होम‘‘ की तर्ज पर इस नयी सन्यास की राजनीति के सिद्धांत को अपनाकर अन्य सम्मानीयों को भी रास्ता दिखाने के लिए न केवल बाबुल सुप्रियो धन्यवाद के पात्र हैं, बल्कि जे.पी. नड्डा को भी धन्यवाद अवश्य दिया जाना चाहिये, क्योंकि उनसे मुलाकात के बाद ही बाबुल सुप्रियो ने लोकसभा से अपने इस्तीफे के निर्णय को बदला तो जरूर, परंतु राजनीति से दूरी बनाये रखने के अपने पूर्व निर्णय को बरक़रार रखते हुए।

परिणामस्वरूप अंत में, मोहम्मद रफ़ी (फिल्म नीलकमल वर्ष 1968) व बाद में सोनू निगम का गाया यह ‘गीत’ ‘‘बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले’’, दिल से बाहर आकर गुनगुनाने की इच्छा जागृत होने लगी। परन्तु जिनकी जुबान पर शायद यह गीत था, परिस्थितियों के घटनाक्रम को देखते हुए इसे शायद अपने दिल में ही उतार लिया?। घर से निकलने के बाद भी दुनिया की किसी भी महिला से उसका बाबुल कभी नहीं छूटता। सुप्रियो से उनका ‘राजनैतिक बाबुल’ छूटना सामान्यतः हमारी समग्र राजनीति और विशेषकर भाजपा की कार्यप्रणाली का ज्वलंत उदाहरण है। संभव है कि उनके हटने के असली राज (अगर कोई हैं तो) कुछ समय के बाद सामने आयें।


Popular Posts