गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

''लिव इन रिलेशनशिप'' क्या भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में स्वीकार योग्य है ?


माननीय उच्चतम न्यायालय ने शादी के बगैर साथ रहने और शादी के पूर्व सहमति से शारीरिक संबंध बनाने को अपराध नहीं माना है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने उक्त कृत्य को अपराध न निर्धारित करते समय यह कहा है कि याचिकाकर्ता इस सबंध में कोई प्रमाण पेश नही कर सका है और स्वयं आवेदक ने यह तथ्य, स्वीकार किया है। भारतीय संविधान के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय का निर्णय अंतिम और बंधककारी होता है और उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर किसी प्रकार के बहस की भी कोई गुंजाइश भारतीय संविधान में नहीं है। इसलिए यदि उच्चतम न्यायालय का निर्णय गलत है तो उसपर पुनर्विचार याचिका उच्चतम न्यायालय में दाखिल की जा सकती है और तब याचिका कर्ता उस निर्णय में यदि कोई खामिंया है तो उनको माननीय उच्चतम न्यायालय के ध्यान में लाकर निर्णय के परिवर्तन की मांग कर सकता है। यह लेख लिखने का कदापि आशय माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णय को न तो चेलेंज करना है और न ही उस पर कोई बहस करना है। लेकिन भारतीय समाज पर इस निर्णय का क्या परिणाम होगा उसकी विवेचना मात्र ही इस लेख का उद्देश्य है। माननीय उच्चतम न्यायालय जब यह कहता है कि शादी के बगैर साथ रहने का सहमति के साथ शारीरिक सबंध बनाना कोई ''अपराध'' ''भारतीय दंड संहिता'' में नहीं है तो वह सही कहता है। आपको मालूम होगा यह विवाद तब हुआ था जब अभिनेत्री खुशबू ने उक्त बयान दिया था और उसके आधार पर एक नागरिक ने एक याचिका माननीय उच्चतम न्यायालय में दाखिल की थी। यदि भारतीय दंड संहिता में जो वर्ष १८६० की बनी है में उक्त कृत्य को अपराध की श्रेणी में नहीं लिया गया है तो इसका मतलब यह नहीं है की वह अपने आप में सही सिद्ध हो जाता है। भारतीय दंड संहिता लागू होने के बाद हमने उसमें आज तक कई संशोधन किये है और कई कृत्यों को भारत सरकार या राज्य सरकारों ने 'अपराध' की श्रेणी में लाकर दंड की व्यवस्था की है जैसे की अभी हाल ही में एक पति पत्नि के बीच बिना सहमति के सहवास को बलात्कार माना गया है, जो भारतीय संस्कृति के लिए एक नई व्याख्या है। इसके लिए आवास्यकतानुसार भारतीय दंड संहिता की धारा ३७५ एवं ३७६ में संशोधन किया गया है। क्या ''सहमति'' से प्रत्येक कृत्य को कानूनी जामा पहनाया जा सकता है? भ्रष्टाचार के मामले में दोनों पक्ष ''सहमत'' होते है लेकिन वह फिर भी कानूनी अपराध है। ''सहमति'' लोकतंत्र का आधार है स्तभ है। समाज को और देश को द्रुत गति से बढ़ाने का सबसे अच्छा प्रेरक ''सहमति'' है लेकिन वह ''सहमति'' अलग है जहां दो पक्ष दो व्यक्ति 'सहमति' बनाकर संस्कृति की मर्यादा को तार तार कर दें इसलिए हमें सहमति असहमति में अंतर करना पड़ेगा तथा तदानुसार व्यवहार में भी। हमें यह भी ज्ञात है कि इस देश के इतिहास में माननीय उच्चतम न्यायालय ने कई ऐसे landmark निर्णय दिये है जिसमें सरकार का ध्यान व्यवस्थाओं की कमियों की ओर दिलाया गया है और उन कमियों को दूर करने के लिए उनके संबंध में आवश्यक कानून बनाने के लिए केंद्रीय शासन को निर्देशित भी किया है। जैसा कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने सत्या विरुद्ध तेजा सिंह (वर्ष १९७५ एआईआर एससी पेज १०५) में यह निर्धारित किया है कि जिस प्रकार भारतीय हिन्दू नागरिक को विदेश में ३ माह से अधिक रहने पर डिवोर्स लेने का अधिकार होता है। जिसकी बहुत ही सरल प्रक्रिया है जबकी भारत में हिन्दू मरीज एक्ट के अन्दर कुछ निश्चित आधार पर ही लबी प्रक्रिया से गुजरने के बाद प्राप्त होता है। उक्त मामले में इस संबंध में सरल कानून बनाने के लिए केंद्र सरकार को निर्देशित करें ताकि भारतीय महिलाएं और पुरुष मात्र विवाह विच्छेद के लिए विदेश न जा सके। विदेशो में में जब लिव इन रिलेशनशिप के कारण विवाह जैसी संस्थाएं टूट के कगार पे है। और उससे सामाजिक व्यवस्थाएं चर्मरा रही है तब वे भारत की ओर इस आशा के साथ देखते है कि यहां का सामाजिक ढाचा का आधार उसकी संस्कृति का आधारभूत स्तंभ शादी की वह व्यवस्था है जहां महिला को एक भोग के रुप में ना माना जाकर समान के रुप में दर्जा दिया गया है। चाहे फिर वह पत्नि के रुप में हो माता, बेटी या बहन के रुप में हो। उस परिपेक्ष्य में यदि हम माननीय उच्चतम न्यायालय के उक्त निर्णय को देखे तो जो ''भाव'' ''भारतीय संस्कृति'' की ''नीव'' है, आस्था है, ''रीड़ की हड्‌डी'' है, उस भावना को देखते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय से उस निर्णय को देते समय यह अपेक्षा की जाती है कि 'लिव इन रिलेशनशिप' जो भारतीय समाज को स्वीकार न होने के कारण एवं नैतिक मूल्यों के विरूञ्द्ध होने के कारण गलत है। इस कारण से भारतीय दंड संहिता में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं होने के कारण इसके लिए कानून बनाने के लिए भारत शासन को निर्देश अवश्य दिया जाने चाहिए ऐसी माननीय उच्चतम न्यायालय से अपील किया जाना गलत नहीं होगा। एक दैनिक पत्र में इस बारे में किया गया सर्वे इस बात को सिद्ध करता है कि भारतीय समाज 'लिव इन रिेलेशनशिप' को नहीं स्वीकारता है और यही बात इस बात को सिद्ध करती है कि याचिकाकर्ता ने छः महिने के अंदर इस कारण उत्पन्न अपराध के संबंध में कोई सबूत पेश नही कर पाया जैसा की माननीय उच्चतम न्यायालय ने कहा है यह स्वयंमेव सिद्ध करता है कि अभिनेत्री खुशबू के बयान के बावजूद भारतीय समाज ने उस कृत्य को न तो स्वीकारा है और न ही अंगीकार किया है इसलिए उसके दुष्परिणाम न आना स्वाभाविक है। यदि समाज उक्त कृत्य को स्वीकारता है तो उसके दुष्परिणाम अवश्य आयेंगे और उसकी समय सीमा उस कृत्य को समाज के द्वारा स्वीकारने की गति के साथ तय होगी। 'एनडी टीवी' केञ् 'चक्रव्युह' प्रोग्राम में इस विषय पर परिचर्चा देखने का मौका भी मिला। भारत देश कृषि प्रधान देश है, देश की ३/४ जनसंख्या गांवो में रहती है महानगर देश के विकास के बिंब है। महानगर में रहने वाले व्यक्तिञ् के विचारों के आधार पर यह सपूर्ण देश के विचार है ऐसा मानना उचित नहीं होगा। प्रश्न फ्री सेक्स का नहीं है, प्रश्न सेक्स की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने का नहीं है प्रश्न सेक्स स्वतंत्रता का नहीं है। प्रश्र्र यह है जिस समाज में जिस संस्कृति में हम रहते है, जिसने हमारे जीवन को दिशा दी है क्या वह सही है या नहीं है? और यदि वह सही है तो क्या उस संस्कृति में 'लिव इन रिलेशनशिप' शामिल है और यदि नहीं है तो उसे उचित कैसे कहा जा सकता है। एनडी टीवी की परिचर्चा में शामिल लोग जब अपने विचार व्यक्त कर रहे थे तो मैं उन लोगो से एक ही प्रश्र् पूछना चाहता हूं कि जिन लोगो ने इसके पक्ष में तर्कञ् दिये क्या वो उसे स्वयं पर लागू कर सकते है? जब हम इस कृत्य की कल्पना करते है तब उस समय एक पुरुष के सामने महिला होती है और वह महिला हमारी मां, बहन, बेटी भी हो सकती है या अन्य कोई भी। क्या लिव इन रिलेशनशिप के पक्षधर लोगो से यह प्रस्न नहीं पूछा जाना चाहिए कि उसे स्वीकार करने के लिए इन महिला में से कोइ एक हो तो क्या वे इसे स्वीकार करेंगे? उपदेश व तर्क करना आजकल एक आम चलन हो गया है और खुद पर लागू करना यह बहुत कठिन। कहने का तात्पर्य यह है जब कोई व्यक्ति किसी कृत्य को सही ठहराने का प्रयास करता है तो सर्वप्रथम उसका यह नैतिक दायित्व बनता है कि वह उस कृत्य को स्वयं पर लागू करकेञ् उसे सही सिद्ध करें तभी वह उसको दूसरो पर लागू करने का नैतिक अधिकारी होता है। अन्यथा सुर्खिया पाने के लिए बयान देने वाले वीरो की कमी इस देश में नहीं है। ''लिव इन रिलेशनशिप'' के आधार पर जो संताने उत्पन्न होगी उनके भविष्य का क्या होगा? समाज में उनका क्या स्थान होगा यह भी एक प्रश्र् है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने जो निर्णय दिया वह उनके समक्ष प्रस्तुत जो विद्यमान कानून है उनके तहत ही दिया है। यदि उनके इस निर्णय ने उक्त विषय पर एक बहस छेड़ दी है तो उस बहस का अंतिम पटाक्षेप तभी होगा जब भारत सरकार उस पर भारतीय संस्कृति के अनुरूप एक कानून लाये जैसे कि शाहबानो प्रकरण में लाया गया था।

''धन्य हो ऐसी सर्वसमति'' ........भारत देश ''सर्वसमत'' निर्णय की ओर जा रहा है ?... ''सांसद'' ''विधायक'' बधाई कें पात्र है ?

मध्य प्रदेश विधानसभा में विधायको के वेतन सबंधी विधेयक लगभग सर्वसमति से पारित हो गया। जिसपरसर्वसमति बनाने के लिए समस्त विधायक गण बधाई के पात्र है क्योंकि इस देश में ''सर्वसम्मति'' का 'अकाल' हैचाहे वह ''राष्ट्रीय एकता'' का प्रश्न हो, ''सुरक्षा'' का प्रश्न, ''स्वाभिमान'' या ''नैतिकता'' का प्रश्न हो समस्त मुद्दो परकिसी भी प्रकार की कोई सहमति तो इस देश के जनप्रतिनिधियों के बीच है और ही नागरिकों के मध्यइसलिए ऐसे वातावरण में से किसी भी मत पर एकमत होना निश्चित ही स्वागत योग्य कदम है। माननीयविधायकों को इस बात की भी बधाई दी जानी चाहिए की उन्होने इस बात को स्वीकार कर लिया है की देश में बहुततेजी से मंहगाई बढ़ गई है इसलिए उस महंगाई के असर को कम करने के लिए खुद के वेतन बढ़वाकर भार कोकम करले ताकि शांत मन से जनता की महंगाई पर भी विचार किया जा सके? जिस देश के कर्णधार बनाने वालेशिक्षकों का वेतन (मध्यप्रदेश में मात्र २६०० मासिक मान्यता प्राप्त स्कूञ्ल में जो सामान्यतः दैनिक मजदूरी से भीकम है) वहां ३६००० हजार वेतन (सुविधाए अलग)पाने वाले व्यक्तिञ् कितने है ? यदि विधायको का विधायकी कायह कथन सही है कि हमें अपने क्षेत्र की जनता की सुविधाओं का ध्यान रखने के लिए आतिथ्य करने के लिए औरअपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए जो हमें वर्तमान वेतन और सुविधाएं मिल रही है वे कम है। तो उनसे यहभी पूछा जाना चाहिए कि चुनाव आयोग ने जो चुनाव खर्च की सीमा तय की हैया वास्तव में में वे उस सीमा केअंदर ही खर्च करके चुनाव लड़ते है? और यदि नहीं तोया वास्तव में जो उन्हे सुविधांए और वेतन मिल रहा है वेभीया पूरी की पूरी अपने कर्तव्य के पालन में खर्च करदेते है? (अपवाद सब जगह है) इसलिए यदि इनजनप्रतिनिधियों ने अपने से उपर की ओर देखकर जो बहुत ही कम संया में है अपने से नीचे की ओर और अपनेआसपास के वातावरण को देखा होता तो शायद उनका अन्दर का मन इतना विचलित हो जाता कि वे ऐसे विधेयकको पेश करने की पैरवी कभी नहीं करते। भौतिक युग में भौतिक सुख प्राप्त करने का अधिकार हर व्यक्तिञ् को है जोबगैर 'अर्थ' के सभव नहीं है लेकिन संविधान द्वारा प्रदा विशेषाधिकार प्राप्त करने वाले चुने गये प्रतिनिधियों का कार्यचुनाव के दौरान गरीब के प्रति किये गये लच्छेदार भाषणों से भी तो मेल खाना चाहिए।
आज
भी भारत की आधी जनता धरती के बिछौने पर सोकर आसमान की चादर ओढ़ते हुए दिशाओं के
वस्त्र पहनती है। जिस देश में आज भी आधी जनसंया दो जून की रोटी प्राप्त करने में पूरे शरीर पसीने से गीलाकर नहा लेती है (और इस प्रकार पानी की बचत करती है), जिस देश में निम्र वर्ग मध्यम वर्ग महंगाई के तलेदबकर अपने आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए गलत रास्ते अपनाने को मजबूर हो जाते है वहां पर शायदविधयिकों के''विधाता'' स्वयमेव अपने को विधाता मानकर कुञ्छ भी मनमानी करने के अधिकार को स्वतः प्राप्तकर विधाता होने की खुशी महसूस करते है तभी इस तरह के विधेयक पास होते है।यह प्रथम अवसर नहीं है जबम।प्र. की विधानसभा एकमत हुई हो। वास्तव में विधायकों की वेतन, भो एवं पेंशन के मुद्दे पर पूरे देश में समस्तविधानसभाओं , लोकसभा और राज्यसभा में लगभग एकमतता है जो निश्चय ही भारत देश की अर्थव्यवस्था कोमजबूती प्रदान करती हैयोकि मामला ''अर्थ'' का है और आप ''अर्थ'' से कोई ''अनर्थ'' निकालेयोंकि इस देशके संविधान ने जिन लोगो को शासन चलाने की ''जिमेदारी'' दी है वे सब इस ''अर्थ'' के मामले में एकमत है। जनताबेबस है। उसका इस ''एकमत'' के आगे नतमस्तक होना स्वाभाविक है। जो वह अपने मौन स्वीकृञ्ति द्वारा देती है।कुञ्छ पढ़े लिखे तथाकथित बुद्धिजीवी इस पर अपना विरोध प्रकट कर देते है, लेख लिखते है, विचार व्यक्तञ् करदेते है इससे उन ''उत्तरदायी'' व्यक्तिञ्यों पर क्या फर्क पड़ता है क्योकि वे जानते है ये मुट्रठी भर लोग तो देश कीदिशा को बदल सकते है और ही मत को बदल सकते है। फिर जिस जनता ने हमें चुनकर विधानसभा, लोकसभामें भेजा है विभिन्न विचारों के होते हुए विभिन्न प्रदेशो, संस्कृतियों, भाषाओं, विचारों एवं वातावरण से आते हुएजब हम सब एकमत है। क्योकि हमें मतो ने ही एकमत बनाया है? और जनता ने भी जिसने हमें चुना है उसने मौनस्वीकृञ्ति देकर हमें अपना मत दिया है? तब हमें गर्व से यह कहने से कौन रोक सकता है कि हमने जनता के मतोंके पालनार्थ सर्वसमति से एकजूट होकर उक्तञ् प्रस्ताव पारित कर उक्तञ् जनता के प्रति अपना गहरी आस्थाव्यक्तञ् कर उनके प्रति आभार व्यक्तञ् किया है। जय हो 'जनता' ''जन-जन-नेता''?

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