मंगलवार, 28 जनवरी 2014

सोमनाथ भारती के इस्तीफे की मांग! कितनी उचित !

                                                                                                       राजीव खण्डेलवाल:
             पिछले कुछ दिनो से मीडिया में इस समय के सर्वाधिक चर्चित व्यक्ति है तो वे है दिल्ली सरकार के कानून मंत्री सोमनाथ भारती। मीडिया में हर समय छाये रहने वाले अरविंद केजरीवाल और नरेन्द्र मोदी से भी ज्यादा वे छप व दिख रहे है। क्या वास्तव में उन्होने बहुत कुछ किया है ? सोमनाथ भारती की हो रही घोर आलोचना की विवेचना करने पर तो इसके देा पहलू सामने आते है। एक पहलू यह कि एक वकील की हैसियत से उन पर गवाही पर छेडछाड करने का आरोप। अगस्त 2013 में सीबीआई की पटियाला की  विशेष अदालत ने वकील सोमनाथ भारती के आचरण को अत्यंत अनैतिक करार देकर उसे सबूत से छेडछाड माना था। इस आधार पर न केवल उनके मुवक्किल की जमानत रदद कर दी गई थी। बल्कि उक्त आरोप को उच्च न्यायालय से लेकर उच्चतम न्यायालय तक ने उसे सही माना। यह कृत्य भारती के  आप पार्टी  मेे शामिल होकर चुनाव लडने के पूर्व का था जिसकी जानकारी हाल मे ही मीडिया द्वारा सामने लाई गयी थी। इस आधार पर नैतिकता के चलते या तो उन्हे खुद इस्तीफा दे देना चाहिये था या मुख्यमंत्री को उन्हे इस्तीफा देने के लिये कहना था। इस्तीफा देने से इंकार करने की स्थिति में उन्हे बर्खास्त करने की सिफारिश उपराज्यपाल को करना था। नैतिकता के उच्च मापदंड के आधार पर ही आम पार्टी का न केवल गठन हुआ बल्कि तेजी से उसका विकास भी हुआ। केजरीवाल द्वारा पूर्व में निम्न न्यायालयो द्वारा दोषी पाये जाने पर जहां अपील उच्च व उच्चतम न्यायालय में लंबित है,नैतिक    आधार पर मंत्रियो से इस्तीफा मांगा गया था। कुछ मंत्रियो को नैतिकता के इसी आधार पर मजबूरी में इस्तीफा भी देना पडा था। लेकिन खुद उनके मंत्री सोमनाथ भारती जो स्वयं एक कानून मंत्री है को इस देश की स्थापित न्याय व्यवस्था के द्वारा अंतिम रूप से दोषमुक्त न किये जाने के बावजूद केजरीवाल का न्यायालीन निर्णय मे तथाकथित खोट निकालकर अपने कानून मंत्री का बचाव करना न तो नैतिक रूप से सही है न राजनैतिक रूप से सही है और न ही कानूनी रूप से सही है। बावजूद इसके समस्त मीडिया व राजनैतिक दल सोमनाथ भारती से उक्त आधार पर इस्तीफा नही मांग रहे है। बल्कि उनके द्वारा स्वयं खिड़की एक्सटेंशन क्षेत्र मे वेश्यावृत्ति के विरूध छापा मार कार्यवाही  किये जाने के कारण  इस्तीफा मांगा जा रहा है। वास्तव में यह मामले का दूसरा पहलू है जिस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।  
         आखिर सोमनाथ भारती ने गत बुधवार की रात ऐसा क्या किया था जो वह गैरकानूनी हो गया और उनके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने का संकट भी सामने आ गया। पिछले बुधवार की रात्रि  सोमनाथ भारती  दक्षिण दिल्ली के खिड़की एक्सटेंशन क्षेत्र मे मादक पदार्थ व वेश्यावृत्ति की सूचना प्राप्त होने पर वे घटना स्थल पर वे स्वयं पहुचे व वहां उपस्थिति पुलिस अधिकारियो से दबाव पूर्वक यह आदेशात्मक अनुरोध किया कि वे तुरंत कथित अपराधियो केा गिरफ्तार करे और उनका मेडिकल टेस्ट करवाये। सर्च वारंट न होने का कारण बताते  हुए पुलिस अधिकारियो ने तुरंत जहां अपराधियो के गिरफतार करने में असमर्थता व्यक्त की, वहां आप के कुछ कार्यकर्ता ने युगांडा की कुछ महिलायो को मूत्र का नमूना भी देने को कहा। किरण बेदी का इलेक्टानिक मीडिया मे यह विचार कि सोमनाथ भारती को पुलिस के आफिसर को निर्देश देने का कोई अधिकार नही है और यदि मै आई.जी होती तो उन्हे तुरंत गिरफ्तार करने को कहती। क्या वास्तव में सोमनाथ भारती की पूरी कार्यवाही अवैधानिक थी ? प्रश्न यह है। 
          सोमनाथ भारती  कानून मंत्री होने के पहले एक नागरिक है और एक नागरिक को यह एक    संवैधानिक अधिकार है कि यदि उसके सामने किसी कानून का उल्लंघन हो रहा है, अपराध घटित हो रहा है तो अपराध करने वाले व्यक्ति को कानून के गिरफ्त मंे लाये जिसके लिये बनी जांच ऐजेंसी पुलिस के पास उस आपराधिक व्यक्ति को आवश्यक विवेचना करने के लिये सौप दे। या फिर क्या उसे यह विश्वास करना होगा कि कथित अपराधी पुलिस के आने तक वही रहेगा तो वह पुलिस को मात्र सूचना देकर अपने कर्तव्य का इति श्री मान ले ? सोमनाथ भारती कानून मंत्री है जिन पर मूल रूप से अपराध के रोकथाम के साथ कानून बनाये रखने की ही जिम्मेदारी है। यद्यपि उनके लिए आवश्यक तंत्र, पुलिस विभाग, उनके अधीन नही है। जब एक कानून मंत्री को इस तरह के गहन अपराध की सूचना स्थानीय निवासियो से विभिन्न माध्यमो से बार बार मिलती रही हो तब उसने क्या करना चाहिए ? आप और हम सभी जानते है कहते है, व मानते है कि इस देश की पुलिस सामान्यतया भ्रष्ट है।पुलिस जिसकी जिम्मेदारी       अपराध पर अंकुश लगाने की है उसकी ही छ़त्र छाया मे ही अपराध चलते,निखरते व फैलते है। खासकर वैश्यावृत्ति से संबंधित अपराध सैक्स रैकेट।यदि कानून मंत्री ने अपराध की घटना की सूचना टेलीफोन पर उस क्षेत्र के थानेदार को न देकर जिसकी पूरी संभावना रहती है कि सामान्यतया बिना थानेदार की जानकारी के उस तरह के अपराध घटित नही हो सकते है, स्वयं घटना स्थल पर जाकर वहां पर उपस्थित पुलिस अधिकारियो को कार्यवाही करने के आदेशात्मक अनुरोध किया तो यह कौन सा आपराधिक कृत्य हो गया, यह समझ से परे है। बात देशी या विदेशी नागरिक होने की नही है। इसलिए जब वहां के लोगो ने लिखित मे शिकायत की और अपने कानून मंत्री से ऐसे होने वाले इस तरह के अपराधो को रोकने की अपेक्षा की तो उस अपेक्षा के पालनार्थ कानून मंत्री ने कडा रूख अपनाया तो वह पुलिस के कार्यक्षेत्र मे हस्तक्षेप कैसे हो गया ? कानून मंत्री ने स्वयं शारीरिक रूप से किसी अपराधी को पकडा नही बल्कि घटना स्थल पर खडे रहकर उपस्थित पुलिस अधिकारीयो को अपराधियो को पकडने की हिदायत दी थी। जब सरकारी कर्मचारी अपने कार्य के प्रति जिम्मेदारी नही बरतते है तेा एक नागरिक को यह संवैधानिक     अधिकार है कि वह जमूरियत के उस जिम्मेदार जमूरे को, उसके कर्तव्य के प्रति जगाये और उसे अपना कर्तव्य करने के लिये प्रेरित करे, यह सरकारी कार्य मे हस्तक्षेप नही कहलाया जा सकता। अभी तक युगांडा महिला की धारा 164 बयान के आधार पर सोमनाथ भारती पर पुलिस द्वारा आपराधिक प्रकरण दर्ज नही किया गया है। लेकिन फिर भी पूरा देश सोमनाथ भारती को एक अपराधी को रात मे पकडाने के लिये  उसे अधिकारविहिन मानकर दोषी मानना जब तक नाजायज होगा तब तक कानूनन मंत्री के खिलाफ कोई आपरधिक प्रकरण  उक्त घटना को लेकर दर्ज नही हो जाता है। यद्यपि उक्त घटना को लेकर वहां उपस्थित आप पार्टी के कार्यकर्ताओ द्वारा किये गये दुर्वव्यवहार के आधार पर भी सोमनाथ भारती  के खिलाफ कोई अपराध कायम नही होता है जब तक यह बात प्रथम दृष्ट्या साबित नही होती कि सोमनाथ भारती ने अपने कार्यकर्ता को ऐसा करने के लिये उत्तेजित किया जिसका उनने नेतृत्व किया । 
          मतलब बिल्कुल साफ है कि एक नागरिक को न केवल एक संवैधानिक अधिकार प्राप्त है बल्कि उसका यह नागरिक दायित्व भी है कि उसके सामने हो रही कोई अपराधिक घटना या उसको किसी हो रही अपराधिक धटना की सूचना मिलती है तो वह उस अपराध को रोकने के लिए संविधान द्वारा प्रदत्त पुलिस प्रशासन से  इस तरीके से गुहार लगाये कि वे अपना कर्तव्य करने के लिये मजबूर हो जाये जहां उसे यह आशंका हो कि पुलिस की मिलीभगत से ही कोई अपराध घटित हो रहा है। वही दायित्व सेामनाथ भारती ने निभाया जिसके लिये वे साधूवाद के पात्र होना चाहिए बजाय इसके उन्हे कटघरे मे खडा किया जाये। लेकिन इस पूरे मामले में राजनीति हो रही है और राजनीतिक लाभ हानी के चलते उक्त मुददे पर उनसे जो इस्तीफा मांगा जा रहा है वह गलत है। उनसे जुडे अन्य मामलांे पर जहां वे नैतिक रूप से कमजोर पाये गये है उनसे जरूर इस्तीफा मांगा जा सकता है। मीडिया पर उनके बयान जिसके लिये बाद मे उन्हे माफी भी मांगनी पड़ी थी, पर केजरीवाल सरकार की हुई किरकिरी से लेकर अन्य मुद्दे पर उनकी विवादित कार्यशैली व बयानो को लेकर भी सरकार की हो रही फजीहत से सरकार के स्वास्थ्य के लिए उन्हे पदमुक्त कर देना ही ज्यादा उचित होगा।

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

क्या केजरीवाल ''आप'' से ''मै'' तो नही बनते जा रहे है?


(आंदोलन से अराजकता तक!!)

             इस समय सभी जगह ''आप'' ही ''आप'' की चर्चा है। 'आप' सर्वाधिक मीडिया में छाये हुये है क्योकि 'आप' अरविंद केजरीवाल है। वैसे भी हमारे सम्य समाज में शिष्टाचार में  पहले ''आप'' ही कहा जाता है। ''पहले आप'' ''पहले आप'' के चक्कर में आदमी स्वयं भी कई बार चाह कर भी कुछ नही कर पाता है। लेकिन इस समय केजरीवाल ''आ(प)(पे)'' से बाहर होकर 'मै'' की ओर चल पडे है। ''आम'' आदमी पार्टी का गठन होने के बाद से ''आप'' अब एक आम आदमी का सूचक बन गया है। सामान्य शिष्टाचार मे ''आप'' एक मृदु भाषी, औपचारिक शब्द माना जाता है। लेकिन शायद केजरीवाल अपने कडक स्वभाव के चलते व औपचारिकता पर विश्वास न करने के कारण ''आप'' की जगह 'मै' की ओर जा रहे है।  उनके दो दिनो से लगातार आ रहे सम्बोधन बयानो में जिस तरह से शब्दो के बाण छोडे जा रहे है उससे तो यही प्रतीत होता है कि वे अब बिल्कुल भी औपचारिक नही रह गये है। यद्यपि आज भी वे अपने को ''आप'' का सबसे बडा स्तम्भ मानते है। लेकिन प्रतिदिन ही नही, बल्कि क्षण क्षण में  तेजी से पल पल उनके बदलते हुए कदम और स्टेंड सिर्फ एक बात की ओर ही इंगित करते है वह यह कि वे ''मै'' की ओर जा रहे है। आज कल उनके कथन में ''मै'' का वह पूर्ण घमंड दिख रहा है जहां वे सिर्फ और सिर्फ अपने कथन और कृत्य को ही सही ही नही, बल्कि सर्वश्रेष्ठ मान रहे है। दूसरे अन्य समस्त व्यक्ति,संस्था,राजनैतिक पार्टी को उन्ही मुद्दो पर पूर्णतः दंभपूर्वक खारिज कर रहे है। उनकी सिर्फ मैं (स्वयं) की स्वीकारिता को मानने के हठ से मुझे इस समय कांग्रेस के तत्कालीन कोषाध्यक्ष सीताराम केसरी के संबंध मे कहा गया यह कथन बार बार याद आ रहा है कि ''न खाता न बही केसरी जो कहे वही सही ''। यह सब इसलिए होते जा रहा है कि वे ''मै'' बनते जा रहेे है। इसीलिए शायद ''मै'' हंू आम आदमी की टोपी की जगह आज केजरीवाल के लिये 'मै' हू एक मात्र सही आदमी  के खिताब की टोपी लगाया जाना ज्यादा उचित होगा।
             बात इस समय पुलिस महकमे की कार्यप्रणाली और भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर है जिस पर यह पूरा बखेडा उठा हुआ है। पुलिस महकमा केवल दिल्ली मे ही नही बल्कि पूरे देश में अन्य किसी महकमे की तुलना मे ज्यादा भ्रष्टाचारी है। यह बात कहने की आवश्यकता न तो केजरीवाल को है और न ही किसी को सिद्ध करने की जरूरत है। जे.पी. आंदोलन, वीपी सिह के आंदोलन, असम का 'आस'ू आंदोलन इत्यादि  भ्रष्टाचार और व्यवस्था विरोधी आंदोलन की सफलता के बावजूद पुलिस प्रशासन मे कोई मूलभूत सुधार आया हो, न तो ऐसा कोई आभास होता है, और न कोई दावा करता है। फिर दिल्ली सरकार के अधीन पुलिस विभाग के आ जाने से क्या वह भ्रष्टाचार विहीन हो जायेगी ? यह सोचना मूर्खो का काम होगा। गणतंत्र भारत के गणतंत्र दिवस की पूर्व सप्ताह पर चार पुलिस कर्मचारियो के खिलाफ केजरीवाल की कार्यवाही करने की केंद्र सरकार से मांग जिसके लिये वे 10 दिन के लिये रेल भवन के पास धरने पर बैठे है क्या राजनैतिक रूप से उचित व संवैधानिक रूप से नैतिक है ? केन्द्र सरकार द्वारा कार्यवाही करने या पुलिसियो को संस्पेड करने पर क्या पुलिस प्रशासन भ्रष्टाचार मुक्त हो जायेगा? आज सबसे बडा प्रश्न यही है? केजरीवाल ने उन चारो पुलिस कर्मियो के खिलाफ गृह मंत्री द्वारा कार्यवाही न करने के मुद्दे को इन तमाम आरोपो से जोड दिया है। यही पर केजरीवाल ''आम और ''आप'' से हटकर ''मै'' और  आम राजनैतिक हो गये है। जिस तरह चार पुलिस कर्मचारियो के खिलाफ कार्यवाही की बात पर केजरीवाल मुद्दे ही मुददे जोडते जा रहे है चाहे फिर संविधान द्वारा प्रदत जीने के अधिकार की बात हो ,सत्याग्रह धरने की बात हो, पुलिस प्रशासन के भ्रष्टाचार की बात हो,जांच के बाद कार्यवाही करने पर घटना की जांच से क्या होगा की बात हो, र्इ्रमानदार पुलिस अफसरो को छुटटी लेकर आंदोलन में शामिल होने का आहवान की बात हो जनता को धरना स्थल पर आहवान करने की बात हो, 26जनवरी गणतंत्र दिवस परेड नहीे हो पायेगी, आदि अनेक वे तथ्य,जो केजरीवाल अपने भाषण में पुलिस प्रशासन के खिलाफ उठा रहे है। ये समस्त मुद्दे जो स्वतंत्र रूप मे संवैधानिक, राजनैतिक व नैतिक मुद्दे है, को पुलिस के विरूद्ध कार्यवाही के मुद्दे के साथ घालमेल कर केजरीवाल वास्तव में राजनीति को एक घातक दिशा की ओर ले जा रहे है। उन्हे उस सिद्धांत को समझना होगा जहां से उनका जन्म हुआ था जब अन्ना आंदोलन के दौरान उनका यह कथन था एक बार चुनकर आ जाने से जनप्रतिनिधी सर्वश्रेष्ठ नही हो जाते है बल्कि हमेशा वे जनता के प्रति उत्तरदायी रहते है। वे जनता के नौकर होते है। अन्ततः जनता ही श्रेष्ठ होती है। लोहिया के इस नारे के साथ कि जिंदा कौमंे पांच साल चुप नही बैठ सकती, उसे पांच साल चुप बैठने के लिए कहा नही जा सकता है। क्या यह सिद्धांत केजरीवाल स्वयं पर लागू नही करेगें?                     मै अभी भी केजरीवाल को वर्तमान मे उपलब्ध विकल्पो में सर्वश्रेष्ठ मानता हंू। लेकिन  यदि विकल्प ''मैं'' की भावना, से ग्रसित होकर गल्तियों पर गल्तियां कर असफल होने लगेगा तो हमे परिवर्तन के लिए और किसी और 'वाल' की आवश्यकता पडेगी लेकिन हमारे पास आज तुरंत एक मजबूत दीवाल ( वाल-केजरी वाल) उपलब्ध नही है। केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को इस बात को गंभीरता से सोचना होगा कि वे हर मुद्दो को राजनैतिक संवैधानिक या कानूनी विवाद का रूप न दे जैसा कि उनका यह कथन कि गृह मंत्री दिल्ली के चुने हुए मंत्री नही है और वे शिंदे के क्षेत्र मेे अव्यवस्था फैलाने आये है से परिलक्षित होता है। जिस संविधान का हवाला वे बार-बार देते है उसी संविधान के तहत सुशीलकुमार शिंदे भारतीय संसद के एक निर्वाचित सांसद चुने गये है। इस आधार पर ही केंन्द्रीय मंत्री मंडल मे उन्हे गृहमंत्री बनाया गया है जिसके तहत दिल्ली सहित वे पूरे देश के गृह मंत्री है। खासकर  दिल्ली प्रदेश की सीधे कमान उनके हाथ में है क्योकि दिल्ली में कानून व सुरक्षा व्यवस्था का भार दिल्ली सरकार के पास न होकर उपराज्यपाल के माध्यम से केन्द्रीय सरकार के पास है जिसके अधिकार की मांग के लिये उनके द्वारा आंदोलन नही किया है। जो उक्त मांगो के लिये उठाये गये कदम के पूर्व किया जाना आवश्यक था। केजरीवाल का यह कथन कि धरना स्थल का चुनाव दिल्ली के मुख्यमंत्री तय करेंगे यह क्या शिंदे बतायेगा? शिंदे कहा बैठेगा वह मै बतलाउंगा ? लोकतंत्र के लिए बहुत ही खतरनाक अराजक सोच है। क्या कपिल सिब्बल व श्रीमति कृष्णा तीरथ जो दिल्ली से चुने हुये केन्द्रीय मंत्री है को छोडकर बाकी सब केन्द्रीय मंत्रियों का शासन दिल्ली पर चलाने के लिये उन्हे क्या दिल्ली से चुनाव लड़ना पड़ेगा ? क्या यही सिद्धांत (तकिया कलाम) दिल्ली की नगरपालिका के महापौरो द्वारा किसी जनहित के मुद्दे पर अरविंद केजरीवाल के लिये कहेगे तो क्या होगा ?केजरीवाल संवैधानिक व्यवस्था भंग न करे। जब एक चुनी हुई सरकार दिल्ली मे धरने पर बैठती है तो उससे निश्चित रूप से वह संवैधानिक संकट पैदा होता है जिसकी कल्पना हमारा संविधान नही करता है। स्वतंत्र भारत के गणतंत्र (लोकतंत्र) में सरकारे सुशासन चलाने के लिए चुनी जाती है आंदोलन या धरने पर बैठने के लिए नहीं। इससे बचने के लिये केजरीवाल जब बातचीत के समस्त हथियारो केा अपनाने के बाद असफल हो गये थे, तो उनके पास एक विकल्प यह भी था कि वे पूरी सरकार को धरने पर बैठालने के बजाय आम आदमी पार्टी के कार्यकार्ताओं के बैठालते तो ज्यादा उचित व स्वाभाविक होता। वैसे ही जिस कांग्रेस ने इस सरकार को बनाने की       आधारशिला दी उसी कांग्रेस ने विधानसभा सत्र के दूसरे दिन से ही सरकार का विभिन्न मुददो पर      विरोध कर राजनीति शुरू कर दी थी। 
                वास्तव में ''जनहित'' के मुद्दो पर क्या यदि दिल्ली सरकार की बात केन्द्रीय (सुपर) सरकार नहीं सुन रही है तो नैतिक रूप से संवैधानिक सरकार का दायित्व यही बनता है कि वह सरकार के दायरे से बाहर आकर अर्थात इस्तीफा देकर जनता का सरोकार बनकर जन आंदोलन, धरना करें तभी देश में वास्तविक क्रांति का आगाज होगा जिसकी अपेक्षा 'आम' लोगो के मन में उत्पन्न हो रही है।यहां यह उल्लेखनीय है कि पूर्व में भी कई बार केन्द्रीय व राज्य शासन के मंत्रियों ने मंत्रीमंडल से इस्तीफा देकर अपने मुद्दो को जनता के सामने रखा जो वह सरकार में रहकर नैतिक रूप से नहीं कर पा रहे थे। केन्द्रीय शासन के खिलाफ पूर्व मे भी राजकीय सरकारो ने विभिन्न मुद्दो पर भेदभाव करने के कारण  हडताल,धरना प्रर्दशन किया था।(बिहार व मध्यप्रदेश की सरकार) लेकिन वे मात्र सांकेतिक थे। जैसे      मध्यप्रदेश के  मुख्यमंत्री एक दिन के सांकेतिक भूख हडताल पर बैठे थे।                    
                अंत मे मुझे सलमान खान की प्रसिद्ध फिल्म का नाम याद आ रहा है '' हम आप के है कौन'' शायद यह उद्हरण वर्तमान परिस्थिति में समयोचित होगा।

क्या ’’आम’’ और ‘‘खास‘‘ के बीच अंतर कम हो रहा है ?


आम आदमी पार्टी ‘‘(आप)’‘ जबसे अरविंद केजरीवाल ने अन्ना आंदोलन के सहयोगियो के साथ मिलकर बनाई है तब से ‘‘आम‘‘ और ‘‘खास‘‘ की चर्चा देश के राजनैतिक और सार्वजनिक गलियारों मंे चल पडी है। देश में इस समय एक बडी बहस का मुद्दा यही है कि क्या ‘‘आम’’ आदमी ‘‘खास‘‘ बनने की ओर अग्रसर हो रहा है या ‘‘खास’’ को ‘‘आम‘‘ बनाये जाने का प्रयास किया जा रहा है। वैसे बहस का यह मुद्दा व्यर्थ है। जिस ‘‘आम‘‘ आदमी को लेकर अरविंद केजरीवाल के सहयोगियो, ने ‘‘आम‘‘ पार्टी का गठन किया था और अरविंद केजरीवाल उसके संयोजक बने तो किसी भी रूप में वे भारत देश के ‘‘आम‘‘ के प्रतीक नही थे जिसके लिये पार्टी का गठन किया गया था। एक स्वेच्छा से सेवानिवृत आईएएएस, इंजीनियर, आयकर कमिशनर यदि इस देश का ‘‘आम‘‘ आदमी का प्रतीक है तो निश्चित रूप से यह अरविंद केजरीवाल के उस उच्चतम नैतिक स्तर को दिखाता है उसकी कल्पना वे ‘‘आम‘‘ आदमी की भविष्य मे करते है। वास्तव मे वैसे भी उन्होने ‘‘आम‘‘ का गठन ‘‘आम‘‘ आदमी की मूलभूत समस्या स्वच्छ पानी, पर्याप्त भोजन, रहने के लिए एक मकान, अच्छी शिक्षा, सम न्याय इत्यादि जीवन स्तर को ऊंचा उठाने वाली आवश्यकताओ की पूर्ति के साथ लगभग पूर्णतः भष्ट्राचार मुक्त समाज (जिसके कारण ही ‘‘आम‘‘ आदमी का जीवन स्तर ऊंचा नही उठ रहा है) बनाने का संकल्प लिया है। 
लेकिन पिछले कुछ समय से ‘‘आप‘‘ पर जिस तरह का आक्रमण देश की दोनो बड़ी राजनैतिक पार्टिया सत्ता एवं विपक्ष के साथ प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया द्वारा हो रहा है, वह क्या हमारी इस प्रवृति को प्रकट नही करता है कि न तो हम खुद कुछ करेगे और न ही दूसरो को कुछ अच्छा करते देखना चाहंेगे। पंद्रह साल के शासन और विपक्ष पर बैठे हुए कांग्रेस और भाजपा से उब कर जब जनता ने ‘‘आप‘‘ के रूप मे एक तीसरा रास्ता अपनाने का प्रयास किया और अनिच्छापूर्वक, अरविंद केजरीवाल ने बिना किसी राजनैतिक साम-दंड-भेद अपनाये एक अल्पमत सरकार का अठठारह मुद्दो पर गठन कर उक्त मुद्दो के क्रियान्वयन के लिए तुरंत कार्यवाही करना भी प्रारंभ कर दिया। इसके बावजूद भाजपा और कांग्रेस द्वारा पंद्रह वर्ष से राजनीति मे अपने उत्तरदायित्व के प्रति जवाबदेही न निभा कर पंद्रह महिने तो छोड मात्र पंद्रह दिनो मे ही ‘‘आप‘‘ से उनके अठठारह सूत्री मुद्दो के क्रियान्वयन पर प्रश्न करना और प्रश्न उठाना न केवल घोर रूप से अनैतिक है बल्कि वास्तविकता के विपरीत भी है। 
बिजली-पानी के मुददे पर केजरीवाल द्वारा बिना समय बेकार किये कुछ कदम उठाकर क्या कुछ समय ‘आप‘ को उन मुददो के पूर्ण क्रियांवन के लिये दिया जाना उचित नही होगा ?खासकर वे पार्टीयॉ जिन्होने पिछले 15 सालो तक उन मुद्दो को सुलझाने के लिए कुछ नही किया हो ?उन्हे तो कम से कम उक्त आलोचना करने का अधिकार नही है ? शीला दीक्षित के भष्ट्राचार के मुद्दे पर भी परिणाम जनक प्रभावी कार्यवाही करने के लिये भी क्या सरकार को रोडमेप बनाने के लिये कुछ समय की आवश्यकता नही होगी ? पन्द्रह वर्ष से तहस नहस हो चुका सरकारी तंत्र मात्र केजरीवाल के शपथ ग्रहण करने से स्वयं से तो ठीक नही हो जायेगा ? निश्चित रूप से इस ‘तंत्र’ को मुद्दो के क्रियान्वयन के लिये प्रभावी व क्रियाशील होने के लियेे पांच वर्षो के लिये चुनी गई सरकार को कम से कम पॉच महीने तो दीजिये? पॉच महीने मे कुछ न कर पाने की स्थिति में जनता स्वयं लोकसभा चुनाव में उन्हे आईना दिखा देगी। लेकिन, प्लीज, भविष्य में एक स्थायी बेहतर परिवर्तन के लिये हमे अभी कुछ समय तक शांत रहकर स्थितियो का मात्र आकलन करना होगा। यदि सहयोग नही तो विरोध भी नही का रास्ता अपनाना होगा।
एक बात और बिना मांग,े दिये गये समर्थन के बावजूद, कांग्रेस की नजर में यदि अभी तक सब कुछ गलत हो रहा है तो वह विरोध का आडम्बर दिखाने के बजाय जनहित में सरकार से समर्थन वापसी की चिट्ठी उपराज्यपाल को क्यो नही लिख देती? कांग्रेस का यह दोहरा राजनैतिक चरित्र न तो अप्रत्याशित है और न ही अस्वाभाविक। इसलिये केजरीवाल ने हमेशा यही कहा कि हमने किसी से समर्थन नही मांगा है। दिल्ली की जनता के हितो के लिये मुद्दो पर आधारित इस सरकार का गठन परिस्थितीजन वश हुआ है जिसे समर्थन तब तक समस्त पक्षो द्वारा दिया जाना चाहिये जब तक वह मुद्दो पर डटी हुई है।
अंत मे नैतिक आधार पर केजरीवाल की आलोचना इस बात के लिये जरूर की जानी चाहिए कि कानून मंत्री सोमनाथ भारती का नैतिक आधार पर इस्तीफा मांगने के बजाय उनके द्वारा न्यायालय के आदेश में कमी बतलाकर भारती का समर्थन किया। यह तथ्य जनता के बीच मीडिया के द्वारा लाया गया कि दिल्ली की पटियाला कोर्ट ने सोमनाथ भारती को एक वकील की हैसियत से गवाह सेे बातचीत को सबूत में छेड छाड करने का नैतिक रूप से दोषी पाया था जिस मुददे पर सोमनाथ भारती द्वारा उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय मे दायर की गई अपील भी अस्वीकार हो गई थी। अर्थात अंतिम रूप से न्यायालय द्वारा उन्हे नैतिक आचरण का दोषी पाये जाने के बाद साहसिक केजरीवाल ने सोमनाथ भारती से इस्तीफा ना मांग कर वह साहस व नैतिक बल का परिचय नही दिया जो उनकी एक बड़ी पहचान थी।मात्र आरोपो के आधार पर इस देश में इस्तीफो के मांग की बाढ़ आ जाती है। लेकिन केजरीवाल ने यह एक भारी नैतिक चूक की है जिसे समय रहते उन्हे उसमें तुरंत सुधार कर लेना चाहिए जैसा की उन्होने ‘बंगले‘ के मामले में एक कदम पीछे हटाकर किया था। 

बुधवार, 8 जनवरी 2014

‘‘आम‘‘ की ऐतिहासिक जीत! भाजपा की ऐतिहासिक हार! ‘मन‘ का ऐतिहासिक ‘गुड बाय’

राजीव खण्डेलवाल:
 लगभग तीन वर्ष पूर्व ‘रालेगण’ के ‘‘अन्ना’’ का जन लोकपाल कानून लाने के लिए ‘‘जंतर मंतर’’ पर चला आंदोलन जो पूर्णतः इतना गैर राजनैतिक था कि ‘‘जंतर मंतर’’ पर अन्ना को समर्थन देने आयी साध्वी उमा भारती को भी मंच पर जाने नही दिया गया था।उक्त आंदोलन को दूसरा स्वतंत्रता आंदोलन का नाम देकर ऐतिहसिक आंदोलन बतलाया गया था। ऐसे ऐतिहासिक गैर राजनैतिक आंदोलन से उत्पन्न राजनैतिक पार्टी ’’आप’’ का गठन होना स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक ऐतिहासिक घटना है। ऐतिहासिक इसलिए क्योकि इसके पूर्व जब भी नई पार्टी का गठन हुआ तो या तो वह पार्टी का विभाजन करते हुए या  राजनैतिक आंदोलन से निकली है जैसे जनता पार्टी,असम गण परिषद,बोडो पार्टी इत्यादि।सार्वजनिक जीवन में लगभग पूर्ण ‘‘सुचिता’’ के सिद्धांत को अंगीकृत करने की बात को स्वीकार करते हुए तेरह महिने पूर्व आप पार्टी का गठन अराजनैतिक स्वेच्छा से सेवानिवृत,नौकरशाह अरविंद केजरीवाल द्वारा अन्ना आंदोलन के अन्य सहयोगीयो के साथ किया गया। 2013 के नई दिल्ली विधानसभा चुनाव मे आप का समस्त आकलन संभावनाओ व चुनावी सर्वेक्षणो को नकारते हुए 28 सीटो पर विजय प्राप्त करना राजनैतिक क्षेत्रो में ऐतिहासिक सफलता  माना गया। 
  कांग्रेस ने बिना मांगे बिना शर्त लिखित समर्थन की चिट्ठी जो उपराज्यपाल को भेजी थी। उसके आधार पर उपराज्यपाल द्वारा भेजे गये निमंत्रण को ‘आप’ द्वारा स्वीकार कर (आप के द्वारा सरकार गठन करने का कोई दावा पेश न करने के बावजूद,) अल्पमत सरकार का गठन करना भी एक ऐतिहासिक कदम सिद्ध हुआ। ऐतिहासिक इसलिए कि केजरीवाल द्वारा लगातार ‘‘न समर्थन देगें न समर्थन लेगें’’ की घोषणा करके सरकार बनाने की अनिच्छा व्यक्त करने के साथ सबसे बडी पार्टी न होने के कारण उसका सरकार बनाने का प्राथमिक दायित्व न होने के बावजूद भाजपा व कांग्रेस के लगातार सरकार बनाने के प्राथमिक स्तर पर आये समर्थन के कथनो के तहत, बिना बहुमत का दावा किये तथा बगैर औपचारिक दावा प्रस्तुत किए, आप की सरकार का बनना आज की पूर्णतः स्वार्थ, पैसा, लालच, लोभ की राजनीति मे एक ऐतिहासिक घटना ही मानी जायेगी। या यह ‘आप’ की उस सफलता का ही प्रभाव है कि विभिन्न पार्टीया तोडफोड व ब्लेकमेल की राजनीति से बचती रही ? 
अरविंद केजरीवाल ने विधानसभा में जिस तरह से विश्वास मत प्राप्त किया वह भी भारत के लोकतांत्रिक इतिहास की सर्वाधिक ऐतिहासिक घटना साबित हुई है।पहले भी भाजपा अल्पमत में रहते हुए सरकार बनाकर उसे बहुमत मे बदल चुकी है। अतः इस बार 32 सीटे प्राप्त कर भाजपा द्वारा सबसे बड़ी पार्टी व गठबंधन होने के बावजूद सरकार बनाने से इन्कार करना ऐतिहासिक न होकर परिस्थितिजन वश उत्पन्न राजनैतिक वास्तविकता व मजबूरी है या जिम्मेदारी से भागना है?भाजपा जिसने दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम घोषित होते ही आप को सरकार बनाने के लिए यह कहते हुए समर्थन दिया था कि वह विधान सभा में कन्सट्रेक्टिव समर्थन करेगी अर्थात मुददो पर आधारित समर्थन का लगातार कथन किया गया। बार बार सबसे बडी पार्टी होने के बावजूद खुद सरकार न बनाने का दावा कर दूसरी सबसे बडी पार्टी आप को सरकार बनाने के लिए कहा। लेकिन विश्वास मत में अपने किये वादे से पलट कर विश्वास मत के विरोध मे मतदान कर एक ऐतिहासिक भूल की है।अरंविद केजरीवाल की सरकार को गठित हुए मात्र पॉच दिन ही हुए थे और अरविंद केजरीवाल ने अठठारह मुददो पर सदन का विश्वास मत मांगा था जिन मुददेा से न तो भाजपा की असहमति थी बल्कि डां   हर्षवधर््ान द्वारा यह कहा गया कि हम इन मुददो के साथ साथ सौ और मुददो पर भी सदन के बाहर और भीतर कार्य करते आ रहे है।इसके बावजूद सिर्फ ‘विश्वास‘ के प्रस्ताव पर भाजपा जिसने ‘आप‘ के समान न समर्थन देगे न समर्थन लेगे की घोषणा नही की थी बल्कि पूर्व मंे समर्थन का वादा किया था,      विरोध करना ऐतिहासिक राजनैतिक भूल है। यद्वपि डां. हर्षवर्धन का विधानसभा मे भाषण इन परिस्थितियो में भी बहुत प्रभावशाली रहा और उन्होने अपनी गरिमा के अनुरूप भाषण दिया था। 
भाजपा का यह आरोप कि ‘आप’ ने सरकार बनाकर भ्रष्ट कांग्रेस से गठबंधन किया पूर्णतः गलत प्रचार व आरोप है। केजरीवाल का यह लगातार स्टेंड रहा है कि उन्होने न तो किसी से समर्थन मांगा  है न ही दिया है। सदन मे दिल्ली के विकास के मुददे पर समस्त विधायको से  समर्थन मांगा था। न कि पार्टी या सरकार के लिये।इसके बावजूद यदि कांग्रेस ने जनता के मूड को देखकर ‘आप’ को सरकार के बाहर से, बिना शर्त, बिना मांगे समर्थन दिया है तो वह गठंबधन की सरकार कैसे हो गई ?क्या लोकपाल बिल का संसद में समर्थन देने से भाजपा न्च्। का भाग बन गई थी ?यदि नही तो एकतरफ ‘जनादेश’ न मिलने के कारण डां. हर्षवर्धन का सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद सरकार बनाने से इन्कार करना व दूसरी ओर विश्वास मत के दौरान भाषण में इस बात का दावा कि ईमानदारी के मुददे पर दिल्ली की जनता ने सर्वाधिक मत और सीटे उन्हे दी है तो फिर इस तरह का देाहरा आचरण क्यो ?
 यह ‘‘विश्वास मत’’ इस बात के लिए भी ऐतिहासिक माना जायेगा जहां मुख्यमंत्री ने अपनी सरकार को बचाने के लिए विश्वास मत के लिए सदन के सदस्यो से सहयेाग नही मांगा बल्कि दिल्ली की जनता के हितो के लिए उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये अठठारह मुददे जो उनकी नजर में दिल्ली की जनता के हित मे है के लिए विश्वास मत मांगा जिसका समर्थन कर कांग्रेस ने इस मायने में ऐतिहासिक कदम उठाया क्योकि जिस व्यक्ति को उसने मुददो के आधार पर समर्थन दिया वह उसे लगातार आलोचनाओ द्वारा उत्तेजित कर अपमानित कर रहा था और न ही विश्वास मत के पहले या बाद में उसने उसे धन्यवाद तक दिया। अर्थात केजरीवाल ने असामान्य दिखने वाले कई वास्तविक सत्य (कटु) कार्य संपादित कर इतिहास रचा है।
‘ऐतिहासिक’ होने का एक कारण यह भी है कि रामलीला मैदान में हुआ शपथग्रहण समारोह (यद्धपि इस तरह का यह पहिला आयोजन  नही है)में नामांकित मुख्यमंत्री द्वारा पूर्व मुख्यमंत्री व अन्य सम्मानीयो के शपथ समारोह मंे आने का औपचारिक निमंत्रण न देना, भारी जम्मूहरित की उपस्थित के साथ शपथ ग्रहण के बाद राजनैतिक उदबोधन देने से शपथ ग्रहण समारोह कार्यक्रम भी ऐतिहासिक बन गया। 
 इसी प्रकार ‘मनमोहन सिंह’ ने अगले दिन 2014 मे होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए अपने को दावेदार न बनाकर रिटायरमेंट ‘गुड बाय’ की घोषणा की जो कि भारतीय लोकतंत्र के संसदीय राजनीति में अपूर्व ऐतिहासिक कदम माना जायेगा। क्योकि आज तक देश के किसी भी प्रधानमंत्री ने पद पर रहते हुए भविष्य मे अपने पदत्याग की घोषणा नही की है।
अंत में केजरीवाल व उनके साथियो के बंगले, सुरक्षा व कार पर इलेक्ट्रानिक मीडिया द्वारा लगातार दिन भर से जो ऊंगली उठाई जा रही थी, वहा उसी समय भाजपा में कर्नाटक में दागी पूर्व मुख्यमंत्री येदुरप्पा की वापसी व दो दागी मंत्रीयो का कांग्रेस पार्टी द्वारा सरकार में वापसी का मीडिया द्वारा ‘ट्रायल’ न करना क्या ऐतिहासिक भूल नही है? क्या लाखो करोड़ो के भष्ट्राचार में डूबी राष्ट्रीय पार्टीयो के लिये शायद केजरीवाल का चार कमरो से पांच कमरो के एक डूप्लेक्स मे आने (दूसरा डूप्लेक्स आफिस के लिये)  पर आपत्ति जताने का नैतिक अधिकार भी इन लोगो को है?लेकिन इसके बावजूद केजरीवाल के डूप्लेक्स का सफलतापूर्वक मीडिया ट्रायल हो गया मीडिया क्या अपनी इस ऐतिहासिक भूल को भविष्य मे बार-बार दोहरायेगा! प्रतिक्षा कीजियेे .................................
लेख समाप्त करते करते एक ओर ऐतिहासिक तथ्य सामने आया वह यह कि 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव में राहुल गंाधी व नरेन्द्र मोदी के नाम के साथ अचानक अरविंद केजरीवाल का नाम भी प्रधानमंत्री पद की दौड में मीडिया मंे लगातार आ रहा है। केजरीवाल जिनकी पार्टी ‘आप‘ का लोकसभा में एक भी सदस्य अभी नही है व जिनकी प्रदेश दिल्ली जो कि एक पूर्ण प्रदेश भी नही है, में एक मात्र सरकार है, के बावजूद केजरीवाल का नाम आना क्या भारतीय राजनीति के इतिहास में एक ऐतिहासिक घटना नही मानी जायेगी ?
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

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