शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

लगभग 3000 करोड़ की सरदार पटेल की मूर्ति ‘‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’’ का अनावरण। भारत देश गरीब या अमीर?

लगता है, भारत एक अमीर व विकसित देश हो गया है? आज का ही (31 अक्टूबर) दिन पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के कारण ‘‘बलिदान दिवस’’ व भारत की एकता व अखंडता बनाए रखने में अति विशिष्ट महत्वपूर्ण व एकमात्र योगदान देने के कारण पूर्व गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के जन्म दिवस को राष्ट्र एकता दिवस के रूप में मनाया जाता है। सरदार पटेल की 143 वीं जयंती के अवसर पर विशेष आज देश के 56 इंच का सीना (चौडा कहे जाने) वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के नर्मदा तट पर केलदिया में सरदार वल्लभ भाई पटेल की 182 मीटर ऊँची प्रतिमा का अनावरण व लोकार्पण किया है। विश्व की अभी तक की सबसे ऊँची 153 मीटर मूर्ति चीन स्थित ‘‘स्प्रिंग टेम्पल’’ बुद्ध की प्रतिमा है, से भी ऊँची मूर्ती 33 माह के रिकार्ड़ कम समय मे स्थापित करने का कीर्तिमान मोदी सरकार ने बनाया है। आश्चर्य की बात नहीं होगी आगे, यदि इसे विश्व के आठवे अजूबे का कीर्तिमान भी न मिल जाये। देश के प्रथम प्रधानमंत्री चाचा जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमडंल में पहिले उप-प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री के रूप में प्रतिष्ठत लौहपुरूष दृढ़ निश्चियी सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भारत पाकिस्तान विभाजन के समय 550 से ज्यादा देशी रियासतांे को भारत में शामिल करने का महत् कार्य करके भारत के वर्तमान मानचित्र का स्वरूप देकर (अपना लोहा मनवाकर) लौहपुरूष कहलाएँ थे। देश का प्रत्येक नागरिक ही नहीं बल्कि यह राष्ट्र इस जटिल श्रेष्ठतम् कार्य के लिये सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रति हृदय से कृतज्ञ है। निश्चित ही उनका यह कार्य इतिहास में अमर हो गया है, जिसके लिये देशवासी उन्हे (बिना स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के भी) हमेशा याद रखेगें। जैसा की अभी तक दिलो मे रखे हुये हैं।      विभाजित भारत के भारत एवं पाकिस्तान दो भागों में विभाजन के समय तत्कालीन नेत्त्व की कौन-कौन सी मजबूरियाँ रही व उस नेतृत्व में कौन-कौन से व्यक्ति किस सीमा तक उत्तरदायी रह,े यह अवश्य अभी भी शोध का विषय हो सकता है। लेकिन यह कटु सत्य है कि तत्कालीन नेतृत्व की असफलता व गलत आकलन/मूल्याकंन के कारण ही भारत का विभाजन हुआ। यद्यपि इंदिरा गांधी ने 1971 में अपनी दृढ़ आक्र्रामक नीति से पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिये और इस प्रकार आंशिक रूप से ही सही, पाकिस्तान से विभाजन का बदला ले लिया। इसीलिये पूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्री अटल बिहारी बाजपयी ने इंदिरा गंाधी को दुर्गा की संज्ञा दी थी। परन्तु आज सिर्फ सरदार वल्लभ भाई पटेल की विश्व की उच्चतम मूर्ति बनाकर उसका अनावरण’ किया गया है। लेकिन क्या भाजपा या मोदी ने अपनी व पार्टी के विचारो को पटेल के विचारो की उच्चतम सीमा तक पहंुचाने की कभी कल्पना भी की है, सबसे बड़ा प्रश्न यही है? इसीलिये उनसे बड़ा व्यक्तित्व  नहीं तो उनके समतुल्य व्यक्तित्व इंदिरा गांधी की मूर्ति बनाने का किंचित विचार भी सरदार पटेल की मूर्ति बनाते समय वर्तमान शासको के मन में क्यों नहीं आया? क्या वे सिर्फ ‘‘गांधी’’ (इंदिरा नहीं) होती तो ‘‘गांधी’’ (महात्मा) वर्तमान शासको द्वारा दिये जा रहे असहज सम्मान के समान मूर्ति/प्रतिमा नहीं बन गई होती? क्या इसका मतलब सरदार पटेल की मूर्ति का निर्माण सिर्फ राजनीतिक मंशा से किया गया यह नहीं है? मूलतः कांग्रसी होने के बावजूद दोनो नेता राजनीति से परे राष्ट्र-पिता व लौह-पुरुष कहलाये। लेकिन लौह महिला (आयरन लेडी) कहलाने के बावजूद इंदिरा गांधी कांग्रेसी छाप से शायद बाहर नहीं निकल पाई। हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि पंजाब को बचाने के लिये इंदिरा गांधी द्वारा चलाये गये ऑपरेशन ब्लू स्टार के कारण अमृतसर स्थित पवित्र सिख मंदिर ‘‘स्वणर््ा मंदिर’’ में सेना प्रवेश के कारणे सिखों में उत्पन्न हुई नाराजगी के चलते उनकी विश्वासघाती हत्या की गई। इस प्रकार देश की  सेवा करते हुये हमारी प्रधानमंत्री को अपना जीवन खोना पड़ा था व उनके पु़त्र राजीव गांधी को भी (प्रधानमंत्री पद पर रहते हुये) लिट्टे की समस्या के कारण अपना जीवन खोना पडा था। यह शायद विश्व में एक मात्र घटना है जहाँ एक लोकतांत्रिक देश में एक ही परिवार की प्रधानमंत्री एवं उनके पुत्र की भी प्रधानमंत्री रहते हुये हत्या हुई है।
फिर हमारे देश की सामाजिक व आर्थिक स्थिति को देखते हुये 3000 करोड़ खर्च करना क्या बुद्धिमत्ता पूर्ण है सही है, या जनोपयोगी है? जबकि किसी अन्य पार्टी द्वारा (मायावती द्वारा) काशीराम की मूर्ति व पार्को पर करोड़ो रूपये खर्च कर बनाये गये स्मारक पर घोर आपत्ति जताई गई थी। मीडिया तत्समय के उनके भाषणों को चला कर जनता को रूबरू करा सकती है। क्या हमारे देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति लगभग 3000 करोड़ मात्र मूर्ति व स्मारक के निर-अनुपयोगी  निर्माण पर खर्च करने व वहन करने की स्थिति में हैं? इसी पैसे से कितने ही किसान की भूमि की सिचाई; शिक्षा व चिकित्सा, भोजन इत्यादि पर खर्च करके जनता जनार्दन की ज्वलंत समस्याओं में किंचित कमी की जा सकती थी। यह तर्क दिया जा सकता है कि भविष्य में आठवाँ यह अजूबा कहलायेगा, जिस प्रकार ताजमहल। जो विश्व में प्रसिद्ध है उसीके समान ही विश्व भर से लोग स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के दर्शन व पर्यटक स्थल धूमने के लिये आयेगें। इससे देशी व विदेशी मुद्रा में वृद्धि होगी। अब तो खैर 3000 करोड़ जो खर्च हो चुके वे वापिस नहीं लाये जा सकते। अब भविष्य मे केवल यही विकल्प बचा रह गया है कि पर्यटन उद्योग के माध्यम से उक्त रूपये की वसूली की जायेे। वैसे प्रश्न यह भी है कि जब कभी भी भविष्य मे यदि ं कांग्रेस सत्ता में आती हैं  तो उनके नेतागणो को (प्रतिस्पर्धा के कारण) 4000 करोड़ खर्च कर इंदिरा गांधी की मूर्ति बनाने के संकल्प से रोक पाने का नैतिक साहस भाजपा कैसे जुटा पायेगी? 
अंत में इस मूर्ति का निर्माण करने वाले पद्म भूषण श्री राम वी. सुतार को शायद अगले गणतंत्र दिवस पर पद्म विभूषण तो मिल ही जायेगा। 

क्या माननीय उच्चतम न्यायालय त्यौहारों के मुहूर्त भी निकालेगी?

माननीय उच्चतम न्यायालय के  आए निर्णय ने एक बार फिर उच्चतम न्यायालय के निर्णयों पर प्रश्नवाचक चिन्ह उठा दिया है। उच्चतम न्यायालय ने अपने इस निर्णय द्वारा विभिन्न धार्मिक आयोजनों के अवसरों पर पटाखे जलाने की समयावधि, गुणवक्ता की डेसीबल व मात्रा तय की है। आखिर उच्चतम न्यायालय को आज कल हो क्या गया है? मूल रूप से कानून की व्याख्या करने के बजाए, वह किसी भी कानून में किसी प्रकार की कमी या कोई गलत प्रावधान होने की स्थिति में उसमें सीधे पूर्ति करते हुये दिख रहा है, जो दायित्व संवैधानिक रूप से वास्तव में विधायिका का हैं। न्यायपालिकाओं को तो सिर्फ उन कमियों पर सरकार का ध्यान आकर्षित करना चाहिये ताकि ‘‘कार्यपालिका’’ ‘‘विधायिका’’ के माध्यम से कानून में आवश्यक संशोधन कर उक्त कमियों को दूर कर सके। उच्चतम न्यायालय संविधान के विरूद्ध होने पर कानून या उसके किसी प्रावधान को अवश्य अवैध घोषित कर सकता है। वास्तव में वर्तमान में ऐसा कोई कानून नहीं है, जो पटाखे फोड़ने की समय सीमा को नियमित (रेगुलेट) या सीमित करता हो इस विषय पर उच्चतम न्यायालय यदि विचार कर रहा होता, तो बात दूसरी होती। 
उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि दीपावली पर निश्चित परिमाण में विशिष्ठ गुणवत्ता, सीमित डेसीबल व कम प्रदूषण फैलाने वाले पटाखे ही रात्रि मात्र 8 से 10 बजे के बीच ही फोड़े जा सकेगंे। 11.55 बजे से 12.30 बजे तक क्रिसमस व नये वर्ष की रात्रि पर यहाँ समयावधि सीमित करने का अर्थ क्या 11.55 बजे मुहूर्त निकालने जैसा कार्य नहीं लगता है? क्या दीपावली में पूजा के विभिन्न अलग-अलग समय वाले मुहूर्त नहीं होते हैं? क्या उनमें मुहूर्त के बाद ही पटाखे फोड़ने की परम्परा नहीं है? क्या इसका साफ मतलब यह नहीं है कि समस्त ज्योतिषचार्यों को अब दीपावली के मुहूर्त नहीं निकालने पड़ेगें व नागरिकों को रात्रि 8 से 10 बजे का मुहूर्त हमेशा के लिये मान लेना चाहिए। अथवा मुहूर्त अनुसार पूजा के बाद पटाखे फोड़ने की परम्परा को समाप्त प्रायः मान लेना चाहिए। भारत वह देश है, जहाँ तिथि व गृहो के अनुसार अधिकाँश त्योहारों के दो-दो दिनो के मुहूर्त सामने आते हैै।
क्या बड़े लोग; क्या बच्चे, सभी अब घड़ी को सामने रखकर उस पर एकटक टकटकी लगाकर और घड़ी के काँटे पर नजर रखकर (ठीक उसी प्रकार जैसे चुनाव के समय नेतागण भाषण देते समय बार-बार अपनी घड़ी को देखते रहते है कि कहीं समय समाप्त तो नहीं हो गया हो) पटाखे फोडेंगे? दीपावली के त्यौहार में बडों से ज्यादा बच्चे ही पटाखों का ज्यादा आंनद उठाते है। इस प्रकार समय की पावंदी के कारण क्या उनका ध्यान पूर्ण सुरक्षित तरीके से पटाखे फोड़ने पर केन्द्रित रह पायेगा? जिस प्रकार महाराष्ट्र में (बेचने के अतिरिक्त) सार्वजनिक स्थल पर शराब पीने के लिये उपभोक्ता को लाईसेंस लेना होता है, ठीक उसी प्रकार भविष्य में क्या पटाखें जलाने के लिए भी उपभोक्ताओं को लाईसेंस तो नहीं लेना पडेगा? पटाखों से पर्यावरण पर घातक प्रभाव पड़ता है, जब यह बात निर्विवादित है, तब समय सीमा पर प्रतिबंध लगाने के बजाय न्यायालय को कम से कम क्या यह आदेश नहीं करना चाहिये था कि वे पटाखें जिनसे पर्यावरण में वीभत्स रूप से भीषण नुकसान होता है, (अधिक आवाज व प्रदूषण वाले) उन्हे सूचीबद्ध करके उनका उत्पादन से लेकर उपभोग तक एकदम बंद कर दिया जाय, बजाए समय सीमा का प्रतिबंध लगाने का! 
सबरीमला मंदिर में प्रवेश के मुद्दे पर आये उच्चतम न्यायालय के निर्णय के प्रभावशील होने में आ रही रूकावटोें को देखते हुये, क्या आज उच्चतम न्यायालय को इस बात पर भी गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिये थी, कि उनके बंधनकारी प्रभाव रखने वाले निर्णयों व निर्देशों का भारतीय परिवेश में कितना पालन होता है? व मानवीय रूप से सामान्यतया कितना पालन संभव है? ऐसा लगता है, ऐसे निर्णयों के द्वारा स्वतः की अवमानना हेतु आवश्यक सामग्री उच्चतम न्यायालय अनजाने में ही सही स्वयं ही उपलब्ध करे दे रहा हैं। विचारणीय है, रात 8 से 10 बजे तक पटाखे फोड़ने की समय सीमा का पालन कैसे हो सकेगा? इस निर्देश में ही उच्चतम न्यायालय की अवमानना स्वतः अन्तर्नीहित है। देश की कार्यपालिका व नागरिकों के चरित्र को देखते हुये पटाखों की मात्रा व गुणवक्ता कैसे नियत्रित होगी? क्या इनको मापने के यंत्र हर दुकानदार को रखना होगा? या प्रत्येक परिवार में बुखार मापने के थर्मामीटर के समान डेसीबल नापने के यंत्र को भी रखना होगा? प्रश्न यह है कि 130 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले देश में 100 करोड़ से अधिक पटाखे फोड़ने वाले व्यक्तियों को (एक) थानेदार अपनी उपलब्ध नगण्य पुलिस टीम के साथ उसकेे थाने के विस्तृत क्षेत्र में हजारों की संख्या में फैले नागरिको पर किस प्रकार नियंत्रण रख् सकेंगे, ताकि उच्चतम न्यायालय के निर्णय का अक्षरशः पालन हो सके। जब नियंत्रण की ऐसी कोई प्रभावशाली प्रणाली नहीं है, न बनाई जा सकती है, तो क्यो न हम यह समझे कि उच्चतम न्यायालय ने भी अन्य सरकारी कार्यालयों के समान आदेश पारित कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली, और उसके निर्णय/आदेश/निर्देश का अक्षरशः पालन कैसे होगा; इस संबंध में कतई गहराई से चिंतन नहीं किया। उच्चतम न्यायालय ने जहाँ एक और लाइंसेस धारी व्यापारियों द्वारा ही पटाखों की बिक्री सुनिश्चत करने के लिए निर्देश दिये है, वही वह शायद इस बात को तो भूल गया कि वर्तमान कानून के तहत व्यापारियों को जारी किये जाने वाले लाईसेंस में कोई समय सीमा उल्लेखित नहीं है। तब क्या यह प्रतिबंध कानून के बाहर से थोपा गया नहीं माना जायेगा। सबरीमला मंदिर के बाद उच्चतम न्यायालय का ऐसा निर्णय सामान्य जनता के मन में यह आंशका भी उत्पन्न कर सकता है कि उच्चतम न्यायालय धार्मिक स्वतंत्रता के मामले में अनावश्यक हस्तक्षेप कर रहा है। इन आंशकाआंे के रहते हुये उच्चतम न्यायालय को आवश्यक सतर्कता बरतने की जरूरत है।  
अन्ततः इस देश के लोकतंत्र में (आंशिक कमियों के बावजूद) जो चार स्तभों पर टिका हुआ है, उस में केवल एक ही तंत्र है, उच्चतम न्यायालय (न्यायपालिका) जो अन्य तीन तंत्रों पर भारी पड़ते हुये अपने अस्तित्व को उपयोगी सिद्ध कर देश को अक्षुण्ण बनाए/रखे हुये है। अंत में उच्चतम न्यायालय को उक्त निर्णय के साथ वास्तव में यह दिशा निर्देश भी जारी करना चाहिए था कि, पटाखे के उपयोग से पर्यावरण को अपूरर्णीय नुकसान होता है, देश के धन व जानमाल की बरबादी होती है, अतः इसके लिए नैतिक शिक्षा की मुहिम को सरकार स्वयं एवं एनजीओं के माध्यम से चलायें (जिस प्रकार न्यायालय ने सामुदायिक आतिशबाजी को बढ़ावा देने का स्वागत योग्य कथन किया) ताकि जनता स्वयं जाग्रत व परिपक्व होते जाये तथा इसके दुष्परिणामों को जान समझकर स्वतः प्रेरणा से पटाखों का अल्य उपयोग करे व अच्छे नागरिक होने का प्रमाण दे सके।

Popular Posts