शनिवार, 29 जून 2024

विकसित भारत का सफलतम ‘‘बैरोमीटर’’! पेपर लीक?

 ‘‘पेपर’’ के ‘‘कायदे ही कायदे’’! ‘‘वायदे ही वायदे’’।  ‘‘लीक’’ के ‘‘फायदे ही फायदे’’?

लोकतांत्रिक भारत।’

निसंदेह भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। परतंत्रता से मुक्त होकर ‘‘अविकसित’’ राष्ट्र से विकास की ओर कदम बढ़ाते हुए ‘‘विकासशील’’ देश होकर वर्ष 2047 तक ‘‘विकसित’’ राष्ट्र बनाने का लक्ष्य प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने रखा हुआ है। 26 जनवरी 1950 को हमारी स्वनिर्मित भारतीय संविधान द्वारा स्थापित लोकतंत्र की सफलता का ही यह एक अद्भुत क्षण है, जब 18 वें लोकसभा के पहले सत्र का ‘‘आगाज’’ 24 जून को हुआ। ‘‘अंजाम’’ क्या होगा, यह भविष्य के गर्भ में है। परंतु 24 जून का आगाज उस 25 जून की काली तारीख के पूर्व हुआ है, जब इसी लोकतंत्र की आपातकाल लगाकर हत्या करने का प्रयास किया गया था। परंतु तब भी लोकतंत्र पूरी तरह मरा नहीं था। हां मरणासन्न स्थिति में जरूर चला गया था। चूंकि 26 जनवरी 1950 को लागू संविधान के द्वारा इस लोकतंत्र की जड़े इतनी मजबूत थी कि 25 जून 1975 को मरणासन स्थिति में पहुंचने के बाद वही लोकतंत्र स्वस्थ होकर मजबूत होकर पुनः खड़ा हो गया और आज आरोपों व प्रत्यारोपों के बीच सफलतापूर्वक चुनाव संपन्न करवा कर चमक-दमक के साथ चहक-दहक रहा है। स्वतंत्र भारत और लोकतंत्र का ‘‘गर्भनाल का संबंध’’ है, भला ‘‘उंगलियों से नाखून अलग हुए हैं कभी’’। इसीलिए राष्ट्रपति के अभिभाषण में आज यह कहा गया कि संविधान हमेशा ‘खरा’ उतरा है।

मजबूत होता लोकतंत्र?’

देश के लोकतंत्र को मजबूत करने में कई ‘‘खट्टे-मीठे’’ अनुभव एक नागरिक से लेकर चुने हुए जन-प्रतिनिधियों और संविधान द्वारा निर्मित समस्त ‘‘तंत्रों’’ को निश्चित रूप से हुए होंगें।  इसलिए कभी ‘‘नकारात्मकता’’ में भी ‘‘सकारात्मकता’’ का भाव देखने का प्रयास अवश्य करना चाहिये? क्योंकि हर नकारात्मक कदम में भी कभी कुछ सकारात्मक भाव होने से इंकार नहीं किया जा सकता है। जैसा कि बाबा राम रहीम के मामले में उन्हें 19 से अधिक मिले गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड एवं लिम्का रिकॉर्ड के सकारात्मक पहलू पर मैंने एक लेख लिखा था। देश का लोकतंत्र सिर्फ सकारात्मक कार्य, भाव से ही मजबूत नहीं होता है, बल्कि ऐसे नकारात्मक भाव जहां पर पक्ष विपक्ष दोनों की सहमति से लेकर कार्यशैली एक सी ही होती है, उससे भी लोकतंत्र मजबूत होता है? इसका सबसे बड़ा उदाहरण नीट पेपर लीक जो ‘‘कांड’’ नहीं एक ‘‘कदम’’ है, की चर्चा सिर्फ देश में ही नहीं, बल्कि विश्व व्यापी हो रही है, क्योंकि मामला लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए उठाए गए कदमों से है? अरे ‘‘इधर का सूरज उधर से उग जाये’’, तो इसमें हर्ज ही क्या है? यही तो लोकतंत्र की खूबसूरती है।

सर्वानुमति?

वैसे भारतीय लोकतंत्र में सहमति के मुद्दे कम ही होते हैं, अवसर भी कम ही आते हैं। सर्वानुमति का एक महत्वपूर्ण मुद्दा लोकसभा स्पीकर का निर्विरोध चुनाव का होना रहा है। परन्तु दुर्भाग्यवश वह बड़ी व जरूरी सर्वानुमति भी टूट गई और वर्ष 1976 के बाद 47 साल बाद 18वीं लोकसभा के स्पीकर का चुनाव मत विभाजन द्वारा हुआ है। यद्यपि स्वतंत्र भारत के संसदीय इतिहास में यह चौथा मौका है, जब स्पीकर का चुनाव हुआ है। तथापि 1952 के प्रथम लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव में दिलचस्प बात यह थी कि विपक्षी उम्मीदवार ने सत्तापक्ष के उम्मीदवार जी.वी. मावलंकर को अपना मत दिया था व वैसे ही (पारस्परिक) उम्मीद उनसे की गई थी। दूसरी बार वर्ष 1967 में संजीव नीलम रेड्डी का चुनाव हुआ। तीसरी बार वर्ष 1976 में आपातकाल में हुए चुनाव में विपक्षी उम्मीदवार जगन्नाथ राव जोशी जेल में थे। पेपर लीक का मामला एक ऐसा कार्य मुद्दा है, जिस पर पक्ष हो या विपक्ष, सत्ता हो या विरोधी, सब की गजब की ‘‘सर्वानुमति’’ इस मामले को लेकर रही है। क्योंकि ‘‘इस पेपर लीक की देवी ने बहुत से भक्त तारे हैं’’। वस्तुतः इस मामले में समस्त दल ‘‘एक ही थैली के चट्टे-बट्टे है’’। इसीलिए लोकतंत्र मजबूती से आज आपके सामने खड़ा है? बात जब ‘‘नीट’’ व ‘‘नेट’’ परीक्षा की आती है, तो आप इसकी आलोचना क्यों करते हैं? ‘‘नीट’’ (परीक्षा) का अर्थ ही होता है ‘‘स्वच्छ’’ व ‘‘नेट’’ (राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा) का अर्थ ‘‘शुद्ध’’। तो फिर उसकी बुराई करना या ‘‘उसे गंदा, अशुद्ध कार्य ठहरना’’ किसी भी रूप से उचित नहीं कहलाएगा? इसलिए ‘‘नीट को क्लीन चिट’’ देकर राजनीति को ‘‘क्लीन’’ कर दीजिए?

‘‘फायदा ही फायदा’’?

लोकतंत्र में पक्ष-विपक्ष दो पक्षों के समान ही पेपर लीक के मामलों में भी विद्यार्थियों के दो पक्ष है, जहां एक मत के अनुसार पेपर लीक उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। यदि आप पेपर लीक के फायदे को जान लेंगे, तब फिर आप यह भी समझ जाएंगे कि इससे लोकतंत्र कैसे मजबूत हो रहा है? आईये इन फायदों? को समझने का प्रयास करते हैं।

प्रथम, पेपर लीक सरकार के ‘‘सबका साथ सबका विकास सिद्धांत को मजबूत करता है’’। वह ऐसे कि कमजोर कम बुद्धि वाले छात्र और बुद्धिमान छात्र दोनों का बराबर विकास इसके माध्यम से हो जाता है? दूसरा फायदा, बच्चों को सिलेबस अच्छे से रट जाता है, क्योंकि लीक पेपर को उन्हें बार-बार रटना पड़ता है। तीसरा फायदा देश के विद्यार्थियों को केंद्रीय शिक्षा मंत्री की जानकारी हो जाती है, क्योंकि देश के विद्यार्थियों से सीधा संवाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘‘परीक्षा पे चर्चा’’ के माध्यम से तो जरूर करते हैं। परन्तु शिक्षा मंत्री सामने नहीं आते हैं। अगला फायदा सरकार के खर्चों की बचत का होना है। क्योंकि पेपर लीक होने के बाद पूरी प्रक्रिया को फिर से पूरा करने में काफी समय गुजर जाता है और उतने समय तक सरकार वैधानिक रूप से बेरोजगारों को नौकरी देने से वंचित करने में सक्षम हो जाती है।

पेपर लीक से अगला फायदा ‘‘स्वरोजगार’’ को बढ़ावा मिलना भी है। जैसे ‘‘पकोड़ा बेचना’’ जिसका उदाहरण वर्ष 2018 में प्रधानमंत्री ने एक टीवी इंटरव्यू में दिया था। छोटे-छोटे कुटीर उद्योगों को भी फायदा मिलता है। पेपर लीक होने के कारण तुरंत नौकरी नहीं मिल पाने से जीवन यापन के लिए वैकल्पिक दूसरे रास्ते व्यापार उद्योग को चुनने की मजबूरी हो जाती है। मतलब यह कि ‘‘नौकरी छोकरी की छोड़ आस, धर खुरपा गढ़ घास’’। इस प्रकार देश का बेरोजगार युवा मजबूरी में ही सही, देश के व्यावसायिक प्रगति (ग्रोथ) में अपना योगदान देता है। ‘‘अंधे पीसे कुत्ते खाय’’ रूपी पेपर लीक ‘‘फिनॉमिनन’’ का एक योगदान प्रिंटिंग प्रेस उद्योग को भी होता है, क्योंकि पेपर बार-बार छापना पड़ता है। साथ ही पेपर के आवागमन के आउटसोर्स साधनों को भी आर्थिक मदद मिल जाती है। होटल उद्योग, समस्त प्रकार के परिवहन उद्योग की तो ‘‘चांदी’’ हो जाती है, क्योंकि पेपर लीक होने पर बार-बार छात्रों को ही नहीं उनके अभिभावकों को भी दूरस्थ पेपर सेंटरों में पेपर देने जाना होता है। यानी कि पेपर लीक अब ‘‘अकल आसरे कमाई की बजाय नकल आसरे कमाई’’ का माध्यम बन गया है। मानसिक श्रम और तनाव के कारण चिकित्सा उद्योग को भी फायदा पेपर लीक से होता है।

इस पेपर लीक से सबसे बड़ा फायदा 4 फरवरी 2024 में संसद द्वारा पारित ‘‘एंटी पेपर लीक’’ कानून जो राष्ट्रपति के द्वारा स्वीकृति प्रदान करने के बावजूद अभी तक लागू नहीं किया गया था, को 22 जून को अधिसूचना जारी कर लागू कर दिया गया। इसका एक और गैरकानूनी फायदा लगभग 900 करोड़ (अभी तक) का काला धन एक तरफ खप गया तो दूसरी तरफ 900 करोड़ की काली (ब्लैक की) कमाई बेरोजगार छात्रों, नागरिकों के हो गई? इसका एक फायदा भविष्य में केंद्र और राज्य सरकारों को भी हो सकता है, यदि वे बेरोजगारी भत्ते देने वाले अपने नियमों में यह परिवर्तन कर दें कि जिन बेरोजगारों को पेपर लीकेज की काली कमाई हुई है, उन्हें भत्ता नहीं मिलेगा?

पेपर लीकः राजनीति चमकाना!

पेपर लीक का एक फायदा ‘‘नीति के कफन’’ पर ‘‘राजनीति चमकाने’’ का भी है। पेपर लीक होने से समस्त राजनैतिक दलों को चाहे सत्तापक्ष के हो या विपक्ष के ‘‘राजनीति चमकाने’’ का अवसर मिल ही जाता है। सत्ता पक्ष, विपक्ष पर यह प्रत्यारोप लगा कर राजनीति चमकाता है कि विपक्ष की सरकारों के कार्यकाल में इससे भी ज्यादा पेपर लीक व छात्र प्रभावित हुए हैं। बावजूद इसके जब विपक्ष यह सिद्ध कर देता है कि सत्तारूढ़ पार्टी के कार्यकालों में ही पेपर लीक के ज्यादा प्रकरण हुए है, तब सत्ता पक्ष दम ठोकर यह कह कर विपक्ष को चुप करा देता है कि देश की प्रगति में ‘‘हर मोर्चे पर’’ आप से आगे हम दिखते रहेंगे, निकलते रहेंगे? आखिरय ‘‘सत्ता और विपक्ष की चकाचौंध से दृष्टि बाधित युवक किसकी ओर उंगली उठाये’’।

पेपर लीक के बाद सरकार की अक्रमण्यता अथवा कार्रवाई से लगभग सम्पूर्ण छात्र वर्ग खुश हो जाता है। पेपर लीक के बाद जब सरकार छोटी-मोटी त्रुटि कहकर पेपर निरस्त नहीं करती है, तब ‘लीकेज’ से लाभार्थी छात्रगण खुश हो जाते हैं। विपरीत इसके जब सरकार पेपर रद्द करके फिर से परीक्षा की घोषणा करती है, तब अधिकांश छात्रों का समूह ‘‘कभी खुशी कभी गम’’ की स्थिति में रहता है। खुशी इस बात की कि कमजोर छात्रों द्वारा पेपर लीक करके श्रेणी न पाये छात्रों का श्रेणी प्राप्त करने वाले मेधावी छात्रों का हक वापिस मिलने का अवसर मिलता है। तो वहीं दूसरी ओर उन्हें पुनः आवश्यक रूप से दूसरी बार परीक्षा की कड़ी मेहनत करने की स्थिति से गुजरना होता है, जो लादे हुए अतिरिक्त श्रम के कारण उनकी गम की स्थिति हो जाती है।

’एनटीए जिंदाबाद।  

मेरा भारत महान।’

विश्व ‘‘सिकल सेल’’ दिवसः 19 जून 2024।

शासन द्वारा महत्व!

मध्य प्रदेश के डिंडौरी में इस अंतराष्ट्रीय दिवस पर आयोजित राज्य स्तरीय कार्यक्रम में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने राज्यपाल मंगू भाई पटेल, मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव एवं अन्य मंत्रियों की उपस्थिति में कहा है कि ‘‘भारतीय प्रजातंत्र में जनजाति का स्थान रीढ़ की हड्डी के बराबर है। जनजाति ही भारतीय संस्कृति और प्रजातंत्र को बल देता है’’। ‘‘2047 में विकसित भारत की पहचान होगा, सिकल सेल का पूर्ण उन्मूलन’’। ‘‘हवन शुरू हो गया है, पूर्ण आहूति 2047 में हो जायेगी’’। महामहिम उपराष्ट्रपति के उक्त कार्यक्रम में भागीदारी से यह बात स्पष्ट रूप से रेखांकित होती है कि सरकार इस रोग के उन्मूलन के प्रति कितनी गंभीर है। आइये! पहले यह जान लेते है कि यह भयावक बीमारी वास्तव में है क्या? 

सिकल सेल बीमारी है क्या?

‘‘सिकल सेल’’ एक जेनेटिक बीमारी है, जो माता-पिता से बच्चों में आती है। इस बीमारी में रेड ब्लड सेल्स में ऑक्सीजन की कमी हो जाने से ‘‘सेल’’ का आकार गोल न बनकर आधे चांद या फिर हंसिए की तरह नजर आता है। इसलिए इसे ‘‘सिकल (हंसिया) सेल’’ कहते हैं। इसके चलते बच्चे की ग्रोथ पर असर पड़ता है। साथ ही दूसरे बच्चों की तुलना में इम्युनिटी भी कमजोर होती है। अतः सिकल सेल रोग एक घातक आनुवंशिक रक्त विकार हैं। इससे शरीर का खून सूख जाता है। हल्की पीलिया होने से बच्चे का शरीर पीला दिखाई देना, तिल्ली का बढ़ जाना, पेट एवं छाती में दर्द होना, सांस लेने में तकलीफ, हड्डियों एवं जोड़ों में विकृतियां होना, पैरों में अल्सर घाव होना, हड्डियों और जोड़ों में सूजन के साथ अत्यधिक दर्द, मौसम बदलने पर बीमार पढ़ना, अधिक थकान होना यह लक्षण बताए गए हैं। इससे दर्द, एनीमिया, संक्रमण आदि समस्याएं हो सकती हैं। इसके प्रकार है; सिकल हीमोग्लोबिन, सिकल बी प्लस थैलेसीमिया और सिकल बीटा-शून्य थैलेसीमिया। समय पर इस बीमारी का इलाज न कराया जाए, तो यह जानलेवा भी हो सकती है। इन्हीं सबके बारे में लोगों को जागरूक करने के मकसद से ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह दिन मनाया जाता है।

कब प्रारंभ हुई?

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 19 जून को विश्व सिकल सेल दिवस के रूप में मनाने के लिए दिसंबर 2008 में एक प्रस्ताव पारित किया था। इस दिवस पर प्रत्येक वर्ष अलग-अलग एक खास थीम रखी जाती है। वर्ष 2024 के लिए विश्व सिकल सेल दिवस का विषय है:प्रगति के माध्यम से आशाः विश्व स्तर पर सिकल सेल देखभाल को आगे बढ़ाना।

कार्य योजना की प्रगति। 

भारत में यह बीमारी खासतौर से छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पूर्वी गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिमी ओडिशा और उत्तरी तमिलनाडु में देखने को ज्यादा मिलती है। सिकलसेल एनीमिया आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में एक अहम स्वास्थ्य समस्या है। अतः इस बीमारी के प्रसार को रोकने के लिए समुदाय स्तर पर स्क्रीनिंग द्वारा रोगी की पहचान कर जेनेटिक काउंसलिंग एवं प्रबंधन करना अत्यंत आवश्यक है। मध्य प्रदेश में सिकलसेल एनीमिया की रोकथाम एवं उपचार के लिये 15 नवम्बर 2021 जनजातीय गौरव दिवस को ‘‘राज्य हिमोग्लोबिनोपैथी मिशन’’ का शुभारंभ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा इसी श्रृखंला में ‘‘विश्व सिकल सेल एनीमिया उन्मूलन’’ वर्ष 2023 में प्रधानमंत्री ने प्रारंभ किया था। इस मिशन में अलीराजपुर एवं झाबुआ जिलें में पायलट प्रोजेक्ट के तहत कुल 9 लाख 17 हजार जनसंख्या की स्क्रीनिंग की गयी। मध्य प्रदेश के 22 जिले इस रोग से प्रभावित है जहां अब तक 22 लाख 96 हजार जेनेटिक कार्ड वितरित किये जा चुके हैं। डिंडौरी जिले में सबसे ज्यादा 1970 मरीज है। 

कारण लक्षण एवं दुष्परिणाम। 

सामान्य रूप से यह कहा जाता है कि इस रोग के मूल में खान-पान, पानी, स्वच्छता की कमी होना है, जिसका सीधा संबंध गरीबी से है। शायद इसीलिए यह बीमारी जनजातीय (आदिवासियों) में ज्यादा पाई जाती है। परन्तु यदि गरीबी ही एकमात्र कारण होता, तो पिछड़े व सामान्य वर्गो के गरीब भी इस बीमारी से ग्रसित होते। परन्तु ऐसा है नहीं। अतः आवश्यकता है इस बात की है कि इस बीमारी के मूल में जाए, तभी प्रभावी इसकी रोक थाम की जा सकती है। साथ ही इस बीमारी से पीड़ित, ग्रसित वर्ग के साथ-साथ ‘वृहत’ समाज के बीच जागरूकता फैलाने के लिए कोई ‘हस्ती’ फिल्मी, खेल यह अन्य क्षेत्रों से जुड़े गणमान्य प्रसिद्ध व्यक्ति को ब्रांड एम्बेसडर बनाया जाना चाहिए। तब कम समय, शक्ति व खर्च में अधिकतम परिणाम निकाले जा सकते हैं। 

लाईलाज?

इस बीमारी का पता लगाने के लिए एवं खास तरह का ब्लड टेस्ट किया जाता है, जिसे इलैक्ट्रोफोरेसिस कहते है। सामान्यतया सिकल सेल रोग का कोई इलाज नहीं है। सिकल सेल रोग का एक उपचार अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण है, जो बहुत जटिल है।

2047 तक एससीडी के उन्मूलन के लिए सरकारी मिशन।

भारत सरकार ने 2047 तक सिकल सेल रोग (एससीडी) को खत्म करने का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 1 जुलाई 2023 को मध्य प्रदेश के शहडोल में राष्ट्रीय सिकल सेल एनीमिया उन्मूलन मिशन शुरू किया। राष्ट्रीय सिकल सेल एनीमिया उन्मूलन मिशन, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन का हिस्सा है। आयुष्मान भारत योजना में संशोधन करके सिकल सेल को भी इसमें शामिल कर दिया गया है।

राष्ट्रीय सिकल सेल एनीमिया उन्मूलन मिशन का फोकस क्षेत्र।

राष्ट्रीय सिकल सेल एनीमिया उन्मूलन मिशन 17 राज्यों के आदिवासी बहुल जिलों पर केंद्रित है, जहां इस बीमारी का प्रसार सबसे अधिक है। मिशन का लक्ष्य प्रभावित आदिवासी क्षेत्रों में 0-40 वर्ष के आयु वर्ग के 7 करोड़ लोगों में जागरूकता पैदा करना और सार्वभौमिक जांच करना है। सिकल सेल रोग झारखंड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिमी ओडिशा, पूर्वी गुजरात और उत्तरी तमिलनाडु और केरल में नीलगिरि पहाड़ियों के इलाकों में अधिक प्रचलित है।

मंगलवार, 11 जून 2024

‘‘माता’’ के दास ‘‘दुर्गा दास’’।

सिर्फ इतिहास ‘‘दोहराया’’ ही नहीं, बल्कि ‘‘बनाया’’ भी है।

बैतूल-हरदा-हरसूद लोकसभा क्षेत्र से पहले से अधिक मतों से विजयी सांसद दुर्गा दास उईके को सिर्फ एक मतदाता व नागरिक की हैसियत से ही नहीं, बल्कि गायत्री शक्तिपीठ, बैतूल के ट्रस्टी की दृष्टि से भी हृदय की गहराइयों से खूब आत्मिक बधाइयां व जनता का हार्दिक आभार! ‘‘जब मन में सफलता का संकल्प होता है, तब ईमानदारी से परिश्रम ही विकल्प होता है’’।  माता गायत्री के अनन्य भक्त, सेवक और गायत्री परिवार की टोली के महत्वपूर्ण सदस्य दुर्गादास उईके को परम पूज्य गुरुदेव और वंदनीय माताजी के आशीर्वाद के साथ जनता के आशीर्वाद से इस संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने का फिर से अवसर प्राप्त हुआ है। मुझे नामांकन भरने के पूर्व और मतगणना प्रारंभ होने के पूर्व के वे क्षण याद आते हैं, जब मेरी उनसे बात हुई थी। तब मैंने यही कहा था कि ईश्वर ने आपके लिए बहुत अच्छा मौका लाया है। कमजोर विपक्ष होने से पिछले मतों से ज्यादा जीतने पर आपको केंद्र मे मंत्री पद मिल सकता है और आप इतिहास रच सकते हैं। वे कथन आज अक्षरशः सत्य सिद्ध हुए हैं।

कुछ व्यक्ति इतिहास रचते हैं, तो कुछ इतिहास दोहराते हैं। लेकिन बहुत कम अवसर ऐसे आते हैं, जब एक ही व्यक्ति एक साथ इतिहास दोहराता भी है और रचता भी है। शिक्षक से सांसद बने दुर्गादास उईके बैतूल की माटी के ऐसे ही शख्स है, जिन्होंने न केवल इतिहास दोहराया, बल्कि नया इतिहास भी रचा दिया। वर्ष 1994 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के मंत्रिमंडल में बैतूल-हरदा संसदीय क्षेत्र के सांसद कांग्रेस के असलम शेर खान के बाद दुर्गादास उईके बैतूल लोकसभा के दूसरे सांसद हैं, जिन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में 30 वर्ष बाद प्रतिनिधित्व मिला। असलम शेर खान भी राज्य मंत्री ही बनाए गए थे, जो प्रधानमंत्री कार्यालय में पदस्थ किए गए थे। इस प्रकार वर्तमान में उक्त इतिहास दोहराया गया है। दुर्गादास उईके स्वतंत्रता के बाद जनसंघ, जनता पार्टी और भाजपा के वे बैतूल लोकसभा क्षेत्र के पहले सांसद हैं, जिन्हें केंद्र में मंत्री बनाया गया है। इस दृष्टि से उईके भाजपा के बैतूल के पहले सांसद हैं, जिन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिली है। इसलिए उन्होंने एक नया इतिहास भी रचा है। 

इसी तरह का नया इतिहास मेरे पिताजी स्वर्गीय गोवर्धन दास जी खंडेलवाल ने भी रचा था, जब वर्ष 1967 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह के मंत्रिमंडल में जनसंघ पार्टी जिसका वर्तमान स्वरूप वर्तमान भाजपा है, के कोटे से उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था। इस प्रकार तत्समय प्रथम बार बैतूल जिले को (बैतूल विधानसभा) मध्य प्रदेश के मंत्रिमंडल में स्थान मिला था, तब एक नया इतिहास रचा गया था, जो अभी भी भाजपा की दृष्टि से अटूट है। आज वे इस दुनिया में नहीं लेकिन किसी शायर के चंद अशआर उन्हें समर्पित हैंः- ‘‘जहां रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा, किसी चिराग का अपना मकां नहीं होता है’’। यद्यपि घोड़ाडोगरी क्षेत्र के विधायक रामजीलाल उईके पटवा सरकार में संसदीय सचिव जरूर बनाए गए थे। कांग्रेस के तो कई विधायक रामजी महाजन, अशोक साबले, प्रताप सिंह उईके मंत्री बनाये गये। इसी के साथ स्वर्गीय जी.डी. खंडेलवाल जी ने एक इतिहास यह भी रचा था कि वे पहले और अभी तक के शायद एक मात्र ऐसे गैर आदिवासी विधायक थे, जिन्हें आदिवासी विभाग का कैबिनेट मंत्री बनाया गया था। यह भी संयोग ही है कि दुर्गादास उईके को भी वहीं आदिवासी विभाग जिसे अब जनजातीय विभाग कहा जाता है, का राज्य मंत्री बनाया गया है। 

वैसे दुर्गादास उईके कुशल वक्ता, मृदुभाषी, सहज, सरल व्यक्ति के धनी है, जो सक्रिय सांसद जरूर रहे हैं। परन्तु संसदीय क्षेत्र की जनता की जो तीव्र अपेक्षाएं उनसे रही हैं, शायद उनकी उतनी पूर्ति अभी तक नहीं हो पाई है। वस्तुतः जन आकांक्षाओं पर खरा उतरना ‘‘तलवार की धार पर चलने के समान होता है’’। अब उन्हें यह एक बड़ा अवसर मिला है कि वे जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप पूर्णतः खरा उतरे। ‘‘चुनौती खु़द को साबित करने का मौका़ देती है’’। इसलिए वे इस अवसर को जनहित में भुनाएं और इस जिले की जनता की इस तकिया कलाम पर हमेशा के लिए ताला लगा दें की जब भी  इस जिले के विकास की बात की जाती है, तो यहां की जनता छिंदवाड़ा में कमलनाथ द्वारा किए गए विकास का उदाहरण देने लग जाती है।  इस परसेप्शन और नरेशन को बदलने का एक सुनहरा अवसर दुर्गा दास उइके को मिला है। ‘‘आज की सफलता कल की उपलब्धियों की शुरुआत हो’’। विलक्षण प्रतिभा के धनी-ज्ञानी, विद्वान और अपनी बातों को अच्छी तरह से प्रस्तुत करने की कला का वह सरकार पर दबाव बनाकर अपने संसदीय क्षेत्र की जनता के हित में उपयोग करें, मेरी उनको जनहित में यही सलाह है, अपेक्षा भी यही है।

मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव 14 तारीख को ‘‘मूलतापी’’ पहुंच रहे हैं। मुझे लगता है कि माननीय राज्यमंत्री को इस पहले अवसर पर ही मूलतापी के विधायक चंद्रशेखर देशमुख के विशेष सहयोग से एक नई सौगात दिलाने का अवसर प्राप्त होगा। मूलतापी उद्गम नदी ताप्ती के विकास हेतु ताप्ती विकास प्राधिकरण, परिक्रमा स्थल के विकास की पड़ी लम्बित मांग अविलम्बित पूरी हो सकेगी। साथ ही मूलतापी को जिला बनाने की जनता की मांग पर गहनता से विचार विमर्श होकर अंतिम निर्णय पर पहुंचने का भी प्रयास होगा।

पुनः शत-शत बधाइयां।

शनिवार, 8 जून 2024

विलक्षण मैंडेट! (शासनादेश) जनादेश।

 कहीं खुशी कहीं गम! कभी खुशी कभी गम!

नरेन्द्र मोदी ऐतिहासिक प्रधानमंत्री होने जा रहे हैं।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में वर्ष 1951-52 में जब सबसे लम्बे चुनावी प्रक्रिया 4 महीने चली थी, के बाद अभी तक के दूसरे सबसे लंबे समय तक चले लोकसभा चुनाव के अंतिम परिणाम आ गए हैं। परिणाम में स्पष्ट रूप से अकेले भाजपा को तो नहीं, परन्तु भाजपा के नेतृत्व में बनी एनडीए को स्पष्ट पूर्ण बहुमत प्राप्त हो गया है। वहीं कांग्रेस के नेतृत्व में बनी इंडिया प्रमुख व सशक्त विपक्षी गठबंधन के रूप में उभरा है। यदि हम पिछले 25 वर्षों के चुनावी परिणाम का अवलोकन करें तो, यह चुनावी परिणाम इस मायने में सबसे अलग होकर विलक्षण है कि जहां दोनों पक्ष सत्ता और विपक्ष, एनडीए और इंडिया एक ही परिणाम में एक साथ अपनी-अपनी जीत के लिए जनता को बधाई दे रहे हैं। पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद नरेन्द्र मोदी ऐसे दूसरे व्यक्ति हैं, जो लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने जा रहे है। यद्यपि चुने हुए वे लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने वाले पहले व्यक्ति होगें। यदि वे पिछले वर्ष 2019 के चुनाव में प्राप्त 303 सीटों से ज्यादा सीटें प्राप्त कर लेते तो वे जवाहरलाल नेहरू से भी ज्यादा सफल प्रधानमंत्री कहलाते, क्योंकि नेहरू की जीत प्रत्येक अगले आम चुनाव में क्रमवार कम होती गई थी। 

एग्जिट पोल असफल!

इस चुनाव की सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी रही कि समस्त 12 सर्वे एजेंसियों द्वारा दिए गए एग्जिट परिणाम बिल्कुल ही गलत सिद्ध हुए। तथापि दैनिक भास्कर का जो एग्जिट पोल नहीं था, बल्कि सर्व मात्र ऐसा था, जिसने 281-350 की लम्बी रेंज के आकड़े के प्रारंभ आकड़े 281 से वर्तमान आयी संख्या 292 मिलते हैं। यद्यपि जी न्यूज के एआई एग्जिट पोल ने एनडीए को 305-315 सीटे दी है, जो 12 एग्जिट पोल की तुलना में परिणाम के ज्यादा निकट है। 

जीत-हार नहीं! जीत तो जीत या हार तो हार?

पिछले चुनाव (303 सीटों)की तुलना में बीजेपी की 63 सीटें अर्थात लगभग 20% कम होने के बावजूद यदि वह खुशियां मना रही है, तो इसलिए कि उनके नेता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की तीसरी बार सरकार बनने जा रही है। लेकिन साथ ही बीजेपी के लिए यह चिंता व मनन का भी विषय है कि 370 का नारा तो दूर पिछले चुनाव में प्राप्त 352 सीटें भी वह बचा नहीं पाई, जिसका आत्म-विश्लेषण, आत्मालोचन पार्टी निश्चित रूप से करेगी। इस प्रकार भाजपा के लिए यह चुनाव परिणाम जीत और हार दोनों लिए हुए है और इसीलिए कभी खुशी-कभी गम (अमिताभ बच्चन की फिल्म) और कहीं खुशी- कहीं गम की स्थिति है। इसी प्रकार इंडिया गठबंधन ने परिणाम के दौरान ही तुरंत पत्रकार वार्ता कर कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने जनता को बधाई दी। यद्यपि दावे के अनुसार सरकार बनाने लायक बहुमत न मिलने पर उन्होंने यह नहीं कहा कि यह हमारी हार है और हम जनता के निर्णय को शिरोर्धाय करते है, जैसा कि हर हार के बाद कहा जाता रहा है। कारण स्पष्ट है कि कांग्रेस की 2019 के चुनाव की 52 सीटें बढ़कर लगभग 100 के पास 99 तक पहुंच गई हैं और ‘‘इंडिया’’ लोकसभा में पिछले पिछले 25 सालों में आज सबसे मजबूत विपक्षी गठबंधन बना। परंतु इंडिया को उनके दावे 295 सीटों के विपरीत मात्र 233 सीटे ही मिल पाई और वे बहुमत से काफी दूर रह गई।

परिपक्व संतुलित निर्णय।

भारतीय लोकतंत्र की दृष्टि से देखें तो यह चुनाव परिणाम जनता के एक परिपक्व निर्णय को दर्शाता है। वह ऐसे कि एक तरफ पूर्ण बहुमत (292) की स्थाई सरकार दी गई तो, दूसरी तरफ मजबूत विपक्ष (234) को चुना गया। 400 के नारे से बने तानाशाही के नरेशन व परसेप्सन की प्रवृत्ति की तथाकथित आशंका को भी जनता ने दूर किया तो दूसरी ओर संख्या में कमी के कारण लंच-पुंज विपक्ष के रहते सरकार पर कोई मजबूत नियंत्रण न रख पाने की असमर्थता को पर्याप्त संख्या देकर सत्ता पर एक प्रभावी अंकुश रखने के लिए समर्थ विपक्ष भी बनाया। जनता को प्रायः अधिकाशतः अनपढ़, बेवकूफ, अंगूठा छाप तक कहा जाता रहा है, उसी जनता ने इस चुनावी परिणाम से यह सिद्ध कर दिया कि परिस्थितियों के अनुसार देश हित में संतुलित निर्णय लेने की उसमें पर्याप्त क्षमता है, जो वह लेती है। इसलिए वर्तमान परिणाम को स्वीकार कर किसी भी पक्ष को हार या जीत से परे रहना होगा। देश हित में सत्ता की गाड़ी के दोनों पहिया बनकर रचनात्मक विपक्ष बनकर देश को आगे चलाने का महान दायित्व जनता ने राजनैतिक दलों को दिया है। अब यह देखना होगा कि इन बुनियादी दायित्वों को दोनों पक्ष संकीर्ण राजनीतिक हितों से परे रहकर देशहित में किस प्रकार कार्य करते हैं? यह अभी भविष्य के गर्भ में है। निश्चित रूप से जनता की निगाहें उन पर पैनी नजर रखेंगी। इस बात को दोनों पक्षों ने भूलना नहीं चाहिए। अन्यथा इसके दुष्परिणाम दोनों पक्षों को भुगतने पड़ सकते हैं।

शेयर बाजार पर दोहरा विपरीत प्रभाव।

इस चुनाव परिणाम के सबसे दुखद पहलू को भी जानिए; जिस पर अंकुश लगाये जाने की नितांत आवश्यकता भी है। एग्जिट पोल ने 1 तारीख को चुनावी परिणाम के जो अनुमान दिये थे, वे किसी भी तरह से जमीनी स्तर पर व्यवहारिक नहीं लग रहे थे। इस कारण शेयर बाजार में 2621 अंको का उछाल आया। परन्तु चुनाव परिणाम के दिन जैसे-जैसे परिणाम आते गये शेयर सूचकांक में तेजी से गिरावट होकर 6200 से ज्यादा अंको से संेसेक्स लुुढ़क गया। एक अनुमान के अनुसार एक झटके में लगभग 36 लाख करोड़ रूपये का नुकसान निवेशकों को हुआ। भाजपा को बहुमत से 32 सीटे कम आने का मतलब प्रत्येक सीट ने 1 लाख करोड़ का नुकसान कराया। पिछले सवा दो साल में शेयर बाजार में आई यह सबसे बड़ी गिरावट है। क्या इसकी जिम्मेदारी कोई लेगा? 

तुरूप के इक्के! नीतीश कुमार-चंद्रबाबू नायडू।

इस चुनाव ने राजनीति में साइड लाइन किये जाने वाले नीतीश कुमार तथा साइडलाइन हो चुके चंद्रबाबू नायडू दोनों ही ‘‘तुरूप का इक्का’’ सिद्ध होने जा रहे हैं। दोनों ही तेज चालाक व सौदेबाजी में पारंगत मुख्यमंत्री नेता है। उनकी सौदेबाजी क्या 8 तारीख को नरेन्द्र मोदी को आसानी से प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने देगी यह भी देखने की बात होगी। वैसे इस चुनाव परिणाम के इंडिया अलायंस के आये परिणाम के शिल्पकार राहुल गांधी हीरो होकर भी इस परिणाम ने उन्हें विलेन बना दिया है। वह इसलिए जब उन्होंने इंडिया की बैठक में नीतीश कुमार के संयोजक बनने की राह में ममता का नाम लेकर रोक लगा दी थी। आज यदि नीतीश इंडिया के साथ होते तो शायद स्थिति दूसरी हो सकती थी। 

परिणाम की दृष्टि से अंत में एक बात और! ''आत्मनिर्भर भारत'' का नारा देने वाली भाजपा स्वयं ''आत्मनिर्भर'' नहीं रह गई और सत्ता के लिए उसे अब दूसरे सहयोगीयों के उपर ''निर्भर'' रहना पड़ रहा है। यह इस परिणाम की एक दुखद स्थिति रही है।

‘‘महां एग्जिट पोल’’! कितने एग्जैक्ट? कितने विश्वसनीय? कितने ‘‘निष्पक्ष’’ अथवा ‘‘प्रायोजित’’?

 कहीं ‘‘संकेत’’ से ज्यादा ‘‘शोर’’ तो नहीं? परिणाम ‘‘अनुकूल न होने’’ पर ही प्रश्न वाचक चिन्ह क्यों?

देश में ‘‘एग्जिट पोल’’ का प्रारंभ कब?

भारत में वर्ष 1957 के दूसरे आम चुनाव में कमोबेश एग्जिट पोल की शुरुआत का श्रेय इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक ओपिनियन के मुखिया एरिक दी कोस्टा को दिया जाता है। हालांकि पहली बार औपचारिक रूप से वर्ष 1996 में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) द्वारा किए गए वास्तविक वैज्ञानिक रूप से किए गए एग्जिट पोल के नतीजों को दूरदर्शन पर दिखाया गया था। यद्यपि एग्जिट पोल की पहली शुरुआत वर्ष 1980 में चार्टर्ड अकाउंटेंट से पत्रकार बने ‘‘प्रणव राय’’ ने की थी। ‘‘ओपिनियन पोल’’ (जनमत सर्वेक्षण) ‘‘एग्जिट पोल’’ से बिल्कुल अलग है, जो मतदान के पहले मतदाताओं का मत (ओपिनियन) किसी दिशा में बनाने में सहायक हो सकता है, जिसकी तो आलोचना ‘मैनेज’ करने के आधार जरूर की जा सकती है। परंतु ‘‘एग्जिट पोल’’ किसी भी रूप में अथवा तकनीकी रूप से अंतिम परिणाम को प्रभावित करने में सहायक नहीं हो सकता है। इसलिए मात्र आपके अनुकूल परिणाम न बतलाने के कारण इसकी आलोचना करना परिणाम की दृष्टि से बिल्कुल गलत है, जब तक की अंतिम परिणाम इसके विपरीत आ नहीं जाते हैं। 

विपक्ष हतोत्साहित। 

अभी देश में सर्वत्र सिर्फ एग्जिट पोल की ही चर्चा है, जो लगभग पूर्वानुमान अनुसार ही आए हैं। आश्चर्य की बात यह नहीं है कि एग्जिट पोल के एक दिन पूर्व ही विपक्षी पार्टियों ने इस तरह के परिणाम आने को ‘‘भांप’’ लिया था। शायद इसीलिए पहले तो कांग्रेस ने एग्जिट पोल पर टीवी डिबेट में भाग लेने से ही इनकार कर दिया था। परंतु इस कारण आलोचनाओं से घिरने से इंडिया गठबंधन की बैठक होने के बाद कांग्रेस ने अपना निर्णय अंततः बदला। ‘‘स्व घोषित मोदी अंध विरोधी सोशल मीडिया’’ में भी एक दिन पूर्व ही ‘‘आरोपित अघोषित अंध भक्त मोदी मेन स्ट्रीम मीडिया’’ के इस तरह के आने वाले एग्जिट पोल के पूर्वानुमान बताए जा कर चर्चा की जा रही थी। प्रश्न उत्पन्न यह होता है की क्या वास्तव में धरातल पर जाकर सही वैज्ञानिक तरीके से एग्जिट पोल किये गये? अथवा जो एक नरेशन व परसेप्शन शुरू से लगातार  बनाया जा रहा था, उसी की अगली कड़ी के रूप में यह परिणाम तो आना ही था। 

वर्ष 2019 की पुनरावृत्ति? 

एग्जिट पोल के ‘‘पोल ऑफ पोल’’ (12 सर्वे एजेंसियों का औसत) ने एनडीए को 370- 390 सीटें दी है, जबकि वर्ष 2019 में एनडीए के पास 352 सीटें थी। उस हिसाब से मात्र 18 सीटों की वृद्धि (न्यूनतम 370 से) अर्थात 5.11% वृद्धि का अनुमान बतलाया गया है, जिसे पिछले दशक की दो आम चुनावों (2014 एवं 2019) की तुलना में एक तरफा जीत नहीं कहीं जा सकती है, जैसा कि प्रचार/दुष्प्रचार (प्रोपेगेंडा) किया जा रहा है। हां निश्चित रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए जवाहरलाल नेहरू के बाद यह पहली ’हैट्रिक’ जीत होगी। यदि वर्ष 2014 की बात करें, तब एनडीए के पास कुल 336 सीटें थी। इस प्रकार वर्ष 2014 की तुलना में 2019 में 16 सीटों की बढ़ोतरी होकर कुल 352 सीटें हो गई, जो 4.76% होकर वर्ष 2024 की एग्जिट पोट के परिणाम की तुलना में मात्र 0.34% कम है। स्पष्ट है! यह तथाकथित विहंगम जीत (जिससे मुझे भी प्रारंभ में संतोष हुआ) जीत.न होकर वर्ष 2019 के परिणाम की लगभग पुनरावृति ही है, यदि इसमें से तेलुगु देशम जो 2019 के चुनाव में ‘‘एनडीए’’ की भागीदार नहीं थी, की अनुमानित 16 सीटें हटा दी जाए तो। शिरोमणि अकाली दल जो 2019 में एनडीए के साथ था की तत्समय दो सीटें थी, को इस एग्जिट पोल में 0 से 2 सीटें दी जा रही है। यद्यपि इस चुनाव में एनडीए के साथ में नहीं है इसमें चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर के ‘‘प्रायोजित’’ आकलन को भी शामिल कर लिया जाय जो पिछले आकडे़ 303 या उसमें कुछ बढ़ौतरी बतला रहे हैं। यदि 13 वीं सर्वे एजेंसी दैनिक भास्कर के सर्वे को भी जोड़ दिया जाए, तो एनडीए की सीटों का औसत 365 का आता है। विपरीत इसके ‘‘इंडिया’’ 295 सीटों का दावा कर रहा है। अब आप यह आकलन आसानी से कर सकते हैं कि वास्तव में एनडीए की जीत 2019 की तुलना में है भी कि नहीं? आकलन करते समय इस बात को भी ध्यान में रखिए कि वर्ष 2019 की तुलना में ‘‘एनडीए’’ में शामिल दलों की संख्या 21 से बढ़कर 38 हो गई है, जिसमें राष्ट्रीय पार्टी भाजपा के साथ नेशनल पीपुल्स पार्टी (पी ए संगमा की) मात्र एक राष्ट्रीय पार्टी शामिल है, जबकि ‘‘यूपीए’’ की जगह नवगठित विपक्षी गठबंधन ‘‘इंडिया’’ में 26 पार्टियां हैं, जिसमें तीन राष्ट्रीय पार्टियां कांग्रेस, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट और आप सहित 3-6 (एकदम विपरीत) विचार धारा वाले लोग भी शामिल हैं। वोटिंग परसेंटेज में एनडीए को 45% और इंडिया को 40% मत मिलने का अनुमान अभी बतलाया गया है। वर्ष 2019 की चुनाव में भी एनडीए को 45.43% वोट मिले थे।

निष्पक्ष चुनाव! परसेप्शन बिल्कुल टूटा हुआ?

एग्जिट पोल निष्पक्ष है, चुनाव परिणाम भी निष्पक्ष ही होंगे, यदि चुनाव निष्पक्ष हुए हैं तो? परंतु चुनाव की निष्पक्षता पर इफ, बट, लेकिन, परंतु, किंतु लगाना जब तक की कोई पूर्ण प्रूफ तत्व, तथ्य प्रमाण अथवा साक्ष्य सामने न हो, प्रश्न वाचक चिन्ह लगाना उचित नहीं होगा। परंतु एक बड़ा प्रश्न यहां जरूर उठता है कि जिस प्रकार ‘‘न्याय’’ के बाबत यह सिद्धांत सर्वमान्य रूप से स्वीकार है कि न्याय न केवल मिलना चाहिए बल्कि न्याय मिलता हुआ दिखना भी चाहिए। जस्टिस शुड नॉट बी डिलीवर्ड बट सीम्स टू बी डिलीवर्ड। ठीक यही सिद्धांत चुनावी प्रक्रिया पर भी लागू होता है। न केवल निष्पक्ष चुनाव होने चाहिए, जो होते हैं, बल्कि निष्पक्ष चुनाव होते हुए दिखना भी चाहिए। यहीं पर पेंच है। तथापि जब तक कोई विरोधी साक्ष्य न हो, तब तक निसंदेह यही माना जाना चाहिए कि चुनाव निष्पक्ष रूप से हुए हैं। परंतु क्या यही सिद्धांत चुनाव निष्पक्ष रूप से होते हुए दिखना चाहिए, पर भी वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए पूर्ण रूप से लागू किया जा सकता है, कहना बमुश्किल है। बल्कि निर्विवाद रूप से पूर्ण रूप से ऐसा नहीं कहा जा सकता है। कारण! इसको आगे समझने का प्रयास करते हैं।

चुनाव आयोग के सदस्यों के चुनाव पर प्रश्नवाचक चिन्ह?

चुनावी प्रक्रिया से लेकर एग्जिट पोल और अंततः 4 जून को आने वाले चुनाव परिणाम को लेकर बनाए गए नरेटिव, परसेप्शन के कारण एक युक्ति युक्त आशंका आम जनों के दिमाग में बैठती जा रही है। याद कीजिए! लगभग सवा वर्ष पूर्व मार्च 2023 में जब उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यों की संवैधानिक पीठ ने सर्वसम्मति से ऐतिहासिक कदम उठाते हुए चुनाव आयोग की कार्य प्रणाली की निष्पक्षता व स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए विधायिका की ‘‘निष्क्रियता’’ और उससे उत्पन्न ‘‘शून्यता’’ को देखते हुए हस्तक्षेप करते हुए यह आदेश पारित किया था कि मुख्य चुनाव आयुक्त व चुनाव आयुक्तों के चयन के लिए तीन सदस्यों की समिति में एक सदस्य उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश हो व दूसरा लोकसभा में विपक्ष का नेता हो। इस प्रकार वर्तमान व्यवस्था जहां उनकी नियुक्तियां राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह पर करते हैं, स्थानापन्न किया गया। यह अंतरिम व्यवस्था तुरंत लागू कर तब तक के लिए की गई, जब तक संसद इस संबंध में कानून पारित करके कार्रवाई करने का फैसला नहीं करती।

उच्चतम न्यायालय के निर्णय को अप्रभावित करके चुनाव आयोग की निष्पक्षता प्रभावित हुई। 

निष्पक्ष चुनाव के परसेप्शन पर गड़बड़ी उच्चतम न्यायालय के चुनाव आयोग के सदस्य के चयन के संबंध में अंतिम निर्णय के बाद से ही प्रारंभ होती है। केंद्रीय सरकार उच्चतम न्यायालय के इस निर्देश के पालन में लोकसभा में बिल लेकर भी आई। परंतु उच्चतम न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्देश एक सदस्य मुख्य न्यायाधीश होना चाहिए को ‘‘धत्ता’’ बता कर, अंगूठा दिखाकर मुख्य न्यायाधीश की जगह प्रधानमंत्री द्वारा नामित केंद्रीय मंत्री को रख दिया गया। इस प्रकार तीन सदस्यीय आयोग में सरकार का ‘‘दो-एक’’ का बहुमत होने के कारण उच्चतम न्यायालय ने जिस निष्पक्षता को स्थापित करने के लिए कदम उठाया था व जिसकी कल्पना आम नागरिक भी कर रहे थे, वह इस एक कदम से ‘‘ध्वंस’’ हो गई। केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए उक्त कानून को उच्चतम न्यायालय में चुनौती भी दी गई, लेकिन दुर्भाग्य-वश उच्चतम न्यायालय ने विधायिका की जिस निष्क्रियता और उससे उत्पन्न शून्यता के आधार पर उक्त शून्य को भरने के लिए अपना निर्णय दिया था, उसी आधार को तुरंत सुनवाई के लिए न अपना कर उसी निष्क्रियता का कहीं परिचय तो उच्चतम न्यायालय नहीं दे रही है? जिस कारण से चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर जो तलवार सरकार के विधेयक लाने से लटकी थी, वह अभी भी लटकी हुई है। इसलिए लोकसभा के अंदर उठाया गया यह कदम चुनाव आयोग की स्वतंत्रता व निष्पक्षता पर गंभीर प्रश्न उत्पन्न करने का अवसर न केवल विपक्ष को, बल्कि आम नागरिकों को भी देता है।

अब आगे चलते हैं। जिस तरह से चुनाव आयोग के एक सदस्य ने इस्तीफा दिया था और उसके बाद दो सदस्यों की नियुक्ति जिस जल्दबाजी में विपक्ष के नेता की अनुपस्थिति में की गई उसने भी कहीं ना कहीं आशंका के बादल फैलाएं। चुनाव आयोग की स्वतंत्रता, निष्पक्षता व उसकी कार्यप्रणाली व चुनावी प्रक्रिया के संबंध में यहां मैं जो भी चर्चा कर रहा हूं, वह कानूनी रूप से कागजातों पर सही होने के बावजूद मैं उस ‘‘परसेप्शन’’ की बात कर रहा हूं कि चुनाव सिर्फ निष्पक्ष होने ही नहीं चाहिए बल्कि निष्पक्ष होते हुए दिखना भी चाहिए। इसलिए मेरे विचारों, भावों को इस नजर से देखेंगे, तो आपको ज्यादा सहूलियत होगी।

400 पार का नारा! कहीं पर तीर कहीं पर निशाना तो नहीं? 

याद कीजिए! प्रधानमंत्री ने लोकसभा चुनाव की घोषणा की पूर्व ही संसद के पटल पर अबकी बार 400 पार का नारा दे दिया था। उसके बाद से सातवें चरण के अंतिम मतदान के दिन तक इस नारे-नरेटिव के परसेप्शन को नरेंद्र मोदी ने पूरे जोश खरोश के साथ बनाए रखा। सिवाय बीच की कुछ अवधि में जब इस नारे से विपक्ष यह नरेटिव बनाने में सफल रहा था कि 400 पार की बात कहीं संविधान  बदलने के लिए तो नहीं की जा रही है? उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह आदि विपक्ष की नजर में 400 को नरेटिव इसलिए बनाया जा रहा है कि जब माल-मैनिपुलेशन (हेरफेर, गड़बड़ियां) ईवीएम में होने के कारण 4 तारीख को परिणाम एग्जिट पोल को सही ठहराएंगे, तब आम नागरिक उसको सहजता से स्वीकार कर सकेंगे और उन्हें कोई आश्चर्य नहीं होगा, क्योंकि उक्त नरेटिव से लंबे समय से माहोल, वातावरण बनाकर उनके दिमाग में यह बात बैठा दी जा चुकी है (माइंड गेम)। 

अनेकोनेक त्रुटियों के कारण विश्वसनीयता में कमी। 

इन समस्त एग्जिट पोल की शुद्धता और यर्थाथ पर आशंका का परसेप्शन फिर इसलिए उत्पन्न होता है कि लगभग समस्त पोल एनडीए को 350 से ऊपर बतला रहे है, व आंकड़ों में काफी कुछ समानताएं हैं। विपरीत इसके; जनता के बीच यह वास्तविक स्थिति भी हो सकती है, इसलिए आंकडों की समानता है। चूंकि अधिकांश सर्वे करने वाली एजेंसीज ने अपना वह आधार नहीं बताया जिनके आधार पर उन्होंने वैज्ञानिक गुणा भाग कर उक्त निष्कर्ष निकाले हैं इसमें भी आशंका उत्पन्न होती है। तथापि आज तक का इंडिया टुडे एक्सेस माय इंडिया की सर्वे एजेंसी जरूर या दावा करती है कि उसके सैंपलिंग की साइज से लेकर समस्त तथ्य व कार्य प्रणाली पारदर्शी है, जो उसकी वेबसाइट पर उपलब्ध है। किसी भी एजेंसी ने 5 लाख वोटरों से अधिक से संपर्क करने का दावा नहीं किया है, जो 60 करोड़ वोटरों के व्यू को प्रतिबिंब कर सकते हैं, यह बात भी गले से नीचे उतरती नहीं है। इसके अतिरिक्त विभिन्न एजेंटीयों के सर्वे में हुई कुछ बेहद महत्वपूर्ण चुके हैं चुके भी उन्हें उनकी निष्पक्षता और एक्यूरेसी पर संदेह पैदा करती हैl जैसे रिपब्लिक इंडिया का इंडिया गठबंधन को इंडी गठबंधन कहना बहुत कुछ कह देता है l इसी प्रकार झारखंड में झारखंड में सीपीएम को दो सीट देना जो वहां चुनाव ही नहीं लड़ रही है, तमिलनाडु में कांग्रेस को 15 सीटें देना जो मार्च 9 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, उत्तराखंड में कल 5 सिम हैं जबकि भाजपा को 6 सीटें दी जा रही है, हिमाचल प्रदेश में हिमाचल प्रदेश में कुल चार सीटें हैं जबकि 6-8 सीटों का आकलन दिखाया जा रहा है, राजस्थान में कल 25 सिम हैं जबकि 33 सीटों के नतीजे बताई जा रहे हैं और इसी प्रकार बिहार में लोजपा कल 5 सिम लड़ रही है जबकि उसे 6 सीटें दी जा रही है। इसी प्रकार तमिलनाडु वी कुछ राज्यों में जो कुल मतदान कुल मतों का प्रतिशत भाजपा को बताया जा रहा है वह वह भी अचंभित करने वाला है l इन सब कर्मियों से भी एग्जिट पोल की  विश्वसनीयता घटी है।

क्या लोकसभा चुनाव में जीत की गारंटी ‘‘एम’’ 'M' अक्षर हो गया है?

 ‘‘एम’’ किसका ‘‘मंगल-अमंगल’’ करेगा?








वर्ष 2024 के हो रहे लोकसभा चुनाव के अभी तक छह चरणों के मतदान हो चुके हैं। अब एक आखिरी सातवां चरण रह गया है, जहां 1 जून को मतदान होना है। 16 मार्च को केंद्रीय चुनाव आयोग द्वारा लोकसभा चुनाव की तिथियां की घोषणा करने के बाद लगभग  साढे़ तीन महीनों से चले आ रहे इस चुनाव प्रचार की सबसे महत्वपूर्ण खासियत यह रही कि न केवल नरेटिव के विषय बदलते रहे, बल्कि नरेटिव एवं परसेप्शन बनाने वाली पार्टियां भाजपा-कांग्रेस भी नरेटिव फिक्स करने में एक दूसरे को शह-मात देती रही। सातवें चरण के समय चुनाव प्रचार का पहुंचा ‘‘निम्न स्तर’’ क्या ‘‘सातवें आसमान’’ पर पहुंचेगा, यह देखना भी बड़ा दिलचस्प होगा। 

पहले चार चरणों में कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र के आधार पर नरेटिव फिक्स किया और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उस नरेटिव को खारिज करने में थकते हुए इस तरह उलझ गए कि कई बार वे कांग्रेस के समान ‘‘आत्मघाती गोल’’ मारते हुए दिखे। बाद के चरणों में जरूर कांग्रेस नरेटिव फिक्स करने में पिछड़ सी गई। बावजूद इसके इस बार पहले चरण के चुनाव प्रचार से लेकर छठवें चरण के चुनाव प्रचार तक यदि मुद्दों व परसेप्शनस् को देखें तो वे लगातार बदलते रहे हैं। परंतु इन बदलते मुद्दों के बावजूद इनमें एक चीज बहुत ही कामन रही, वह ‘‘एम’’ 'M' वर्ण (अक्षर) से प्रारंभ होने वाले शब्दों का ‘‘प्रयोग’’। कुछ शब्द निम्नानुसार है, जिनका उपयोग बहुतायत से बेधड़क बार-बार किया जाता रहा है।

‘‘महिला, मंगलसूत्र, मायावती, ममता, मालीवाल (स्वाति), महामहिम (राज्यपाल एवं न्यायाधीश), एमपी, एमएलए, महिमा-मंडन, मंडल- क-मंडल, मत, मत-मतांतर, मंदिर-मस्जिद, मदरसे, मुस्लिम, मुगल, मुगलिया, मुस्लिम लीग, माफिया, मटन, मछली, मुजरा, मथुरा, महाराष्ट्र, मणिपुर, मुद्दे, महंगाई, महाशक्ति, मानसिक संतुलन, मनी पावर, मसल पावर, माब पावर, मीडिया पावर, ‘‘मोदी’’?’’ 

महत्वपूर्ण प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि इनमें से कौन से ‘‘एम’’ एनडीए के लिए ‘‘जीत का आधार’’ हो सकते हैं और कौन से ‘‘एम’’ इंडिया के लिए ‘‘उत्प्रेरक’’ हो सकते हैं। आईये! इसका थोड़ा विश्लेषण करने का प्रयास करते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मंगलसूत्र, मुस्लिम, मुगल, मुगलिया, मुस्लिम लीग, मटन, मछली और मुजरा शब्दों का प्रयोग करके एक विशिष्ट वर्ग को लेकर कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति पर लगातार जोरदार हमला बोला है। अब इसका कितना फायदा ‘‘एनडीए’’ अथवा ‘‘इंडिया’’ को मिलेगा, यह तो 4 तारीख को ही पता चल पाएगा। परंतु निश्चित रूप से इन शब्दों के उपयोग से सांप्रदायिक धुव्रीकरण को बढ़ावा अवश्य मिला है, ऐसा प्रतीत होता है। साथ ही यह बात भी समझ से परे है कि भाजपा ने पिछले 5 सालों में जो महत्वपूर्ण कार्य किए, निर्णय लिए, संविधान संशोधन विधेयक पारित किये, उन सब उपलब्धियों के आधार पर नरेन्द्र मोदी ने प्रायः वोट क्यों नहीं मांगे? नोटबंदी, अग्निवीर योजना, धारा 370, ट्रिपल तलाक जैसी उपलब्धियों की चुनावी प्रचार में लगातार चर्चा न करना समझ से परे है। इसका एक दूसरा अर्थ यही निकलता है कि शायद ये मुद्दे जनता की नजर में उपलब्धियां नहीं है, बल्कि जनता शायद इनसे परेशान रही है। इसलिए इन मुद्दों का कहीं विपरीत प्रभाव चुनावी परिणाम पर न भुगतना पड़े, शायद इसलिए इन मुद्दों को ज्यादा उछाला न जाए की नीति भाजपा ने अपनाई।

जहां मोदी विपक्ष पर तंज कसने को लेकर प्रायः एम अक्षर को प्रमुखता देते रहे, वहीं विपक्ष ने तो लगभग सारे वर्णो (52) का उपयोग कर मोदी को अपशब्द बोलने में कोई परहेज नहीं किया, यहां तक कि कब्र खोदने की बात तक कह ड़ाली। 

अंत में एक ‘एम’ को चुनावी राजनीति का मुद्दा न बनाया जाना भी थोड़ा अचभिंत व आश्चर्यचकित करने वाला है। यह ‘एम’ मरकज निजामुद्दीन तबलीगी जमात के मौलवी मोहम्मद साद जो कोरोना के महासंकटकाल में 2 हजार लोगों का जलसा कर ऐसी गलती कर गये, जिससे कोरोना देश के विभिन्न जगहों पर इतना फैल गया कि केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय तक को देश के इतिहास में तबलीगी जमात के कारण पीड़ित कोरोना मरीजों की संख्या को समय-समय पर जारी अपने स्वास्थ्य बुलेटिन में पृथक से देनी पड़ी थी। बीमारी के संबंध में इस तरह के वर्ग के आधार पर विभाजित आकड़े इसके पूर्व अभी देखने को नहीं मिले। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि मामले की गंभीरता का देखते हुए मोहम्मद साद के खिलाफ प्राथमिकी तक दर्ज की गई, जिसका बाद में आज तक कोई अता-पता नहीं जनता की तो छोड़िये; सरकारों की विभिन्न जांच एजेंसियों तक को नहीं मालूम है। देश के ‘तंत्र’, जन-तंत्र के भूलने का इससे बड़ा उदाहरण शायद ही कोई होगा। 50 साल पुराने गड़े मुर्दे उखाड़ कर मुद्दे उठाए जा सकते हैं, परंतु यह  मुद्दा चुनावी किसी भी पक्ष के लिए नहीं है, यह भी एक दुखद पहलू है।

अरविंद को ‘‘न्याय’’! हेमंत को कब?

न्याय में देरी! न्याय से वंचित। प्रस्तुत प्रकरण पुनः एक उदाहरण।


अरविंद केजरीवाल व हेमंत सोरेन प्रकरण का तुलनात्मक अध्ययन! 

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को जिन परिस्थितियों के अंतर्गत कार्यवाही के कारण उच्चतम न्यायालय ने अंतरिम जमानत दी हैं, उसकी विस्तृत चर्चा मैंने पिछले लेख में की हैं। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता हैं कि हेमंत सारेन को अंतरिम जमानत अभी तक नहीं मिली क्यों ? इसके लिए आवश्यक है कि अरविंद केजरीवाल के जमानत प्रकरण की झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जो केजरीवाल की गिरफ्तातारी के पूर्व की जाकर अभी भी जेल में बंद है, की जमानत मामले के साथ तुलनात्मक अध्ययन कर ले! स्पष्टतः उच्चतम न्यायालय के दो अलग-अलग रूख़ सामने आते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। हेमंत सोरेन ने प्रारंभ में ‘‘गुण दोष’’ के आधार पर जमानत आवेदन दिया था, जो जमानत आवेदन पहले निम्न न्यायालय द्वारा एवं बाद में उच्च न्यायालय द्वारा आदेश तब  पारित किया गया जब हेमंत सारेन ने उच्चतम न्यायालय में उच्च न्यायालय द्वारा लंबित आदेश की कार्यवाही के विरूध्द याचिका प्रस्तुत की। वस्तुतः हेमंत सोरेन ने उच्च न्यायालय के निर्णय आने पर विलम्ब होने के कारण उच्च न्यायालय के जमानत आवेदन पर लंबित निर्णय के आने तक केजरीवाल समान ही उच्चतम न्यायालय से अंतरिम जमानत मांगी थी, जो उच्चतम न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय का निर्णय आ जाने के कारण ‘‘अप्रासंगिक’’ बतलाते हुए अस्वीकार कर दी गई, जो तथ्यात्मक रूप से बिल्कुल सही है। उल्लेखनीय है कि दोनों प्रकरणों केजरीवाल व सोरेन की सुनवाई भी वही एक ही (सेम) बेंच द्वारा की गई थी।

न्याय की प्रतिक्षा रत कब तक? हेमंत सोरेन।

याद कीजिए! हेमंत सोरेन ने शुरू में जब गिरफ्तारी के बाद जमानत याचिका को सीधे उच्चतम न्यायालय में दायर किया था, तो अगले दिन सुनवाई की तिथि निश्चित किये जाने के बावजूद बेंच ने सुनवाई करने से इंकार कर निचली अदालत उच्च न्यायालय में में जाने को कहा था। जबकि जमानतों के इसी तरह के अनेक मामलों की सीधी सुनवाई उच्चतम न्यायालय ने पूर्व में की है। केजरीवाल के अंतरिम जमानत के मामले को ही ले लीजिए, जहां उच्चतम न्यायालय ने अंतरिम जमानत के आवेदन को सीधे स्वीकार किया। इससे उच्चतम न्यायालय के रूख का अंतर स्पष्ट सा दिखता है। कहीं यह ‘‘चेहरा देखकर तिलक निकलना तो नहीं है’’? झारखंड उच्च न्यायालय द्वारा हेमंत सोरेन को अपने चाचा की अंतिम संस्कार में भाग लेने की तो अनुमति नहीं मिली, लेकिन श्राद्ध में शामिल होने की अनुमति भी पुलिस कस्टडी में रहते हुए दी गई। जबकि हेट स्पीच देने या आदर्श चुनाव संहिता के उल्लंघन करने पर जमानत निरस्त करने जैसी शर्त केजरीवाल के जमानत आदेश में नहीं लगी। परिणाम स्वरूप ऐसी स्थिति के उत्पन्न होने पर उक्त शर्त के न होने से केजरीवाल के विरूद्ध मात्र कानून के उल्लंघन पर कानूनी कार्रवाई ही की जा सकती है, अंतरिम जमानत निरस्त नहीं की जा सकती है। 

क्या मुख्यमंत्री एवं पूर्व मुख्यमंत्री की स्थिति में अंतर का प्रभाव? जमानत पर।

एक अंतर अरविंद केजरीवाल का मुख्यमंत्री पद पर विराजमान रहना भी है, जबकि हेमंत सोरेन ने नैतिकता का साहस दिखाते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। अरविंद केजरीवाल को अंतरिम जमानत मिलने से निश्चित रूप से हेमंत सोरेन के मन में यह सवाल उठना लाजमी है कि यदि वे भीं पद से इस्तीफा नहीं देते, तो शायद उन्हें भी अंतरिम जमानत केजरीवाल के समान मुख्यमंत्री होने के कारण मिल जाती? यह बात और पुख्ता तब होती है, जब महाराष्ट्र के प्रकरण में उद्धव ठाकरे की सरकार ने विधानसभा के तल (फ्लोर ऑफ हाउस) पर बहुमत का सामना किये बिना इस्तीफा दे दिया था। उच्चतम न्यायालय ने शिवसेना के विभाजन पर विचार करते समय मई 2023 को यह महत्वपूर्ण निर्णय दिया था कि यदि उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा नहीं देते और विश्वासमत प्राप्त करते हुए हार जाते तो, न्यायालय उन्हें मुख्यमंत्री पद पर पुनरर्थापित कर सकता था। उच्चतम न्यायालय की इस ”भावना” को केजरीवाल ने स्वीकार कर गिरफतार हो कर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा नहीं दिया।

अनुच्छेद 142 का उपयोग क्यों नहीं?

एक और महत्वपूर्ण प्रश्न उत्पन्न होता है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा केजरीवाल को अंतरिम जमानत देने की परिस्थितिया और कारण देश के लोकसभा चुनाव के संदर्भ में ली गई है। क्या  उक्त सिद्धांत राज्यों के विधानसभा चुनावों या पंचायत राज के अधीन होने वाले पंचायत चुनावों पर भी उस क्षेत्र की जनता के लिए ‘‘एक सरपंच’’ पर भी समान रूप से लागू होगा? इसका उत्तर न तो माननीय न्यायालय देना चाहेगा, और न ही मिलेगा। उच्चतम न्यायालय के अंतरिम जमानत देने के निर्णय पर एक बड़ा प्रश्न अरविंद केजरीवाल की मीडिया में उपस्थिति भी हो सकती है, उस प्रकार की मीडिया में उपस्थिति एक आदिवासी मुख्यमंत्री हेमंत सोरेने की नहीं हो सकी। इस सवाल का उत्तर आज के नहीं; भविष्य के, इतिहासकार जरूर खोजेंगंे। क्या उच्चतम न्यायालय के पास अनुच्छेद 142 के अंतर्गत प्राप्त असाधारण विशेषाधिकार का उपयोग करते हुए पर प्रकरण के गुण दोष के आधार पर सुनकर जमानत पर विचार कर आदेश पारित करने का अवसर नहीं था, जिससे इस तरह की उत्पन्न हुई एकदम नई परिस्थिती से बचा जा सकता था? और यदि मेरिटस (गुण-दोष के आधार) पर उच्चतम न्यायालय की नजर में केजरीवाल जमानत पाने के अधिकारी नहीं हो पाते, तो फिर वे किसी भी स्थिति में लोकतंत्र में भाग लेने के आधार पर अंतरिम जमानत पाने के अधिकारी नहीं हो पाते। 

अंतरिम जमानत के आधार पर ही क्या नियमित जमानत नहीं दी जा सकती थी? यह भी एक बड़ा कानूनी व तथ्यात्मक प्रश्न है। यह कहा जा सकता है कि केजरीवाल ने नियमित जमानत के लिए आवेदन ही नहीं दिया है, बल्कि गिरफ्तारी को कानूनी रूप से अवैध बताकर चुनौती दी है। फिर भी उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद 142 का उपयोग ठीक उसी प्रकार कर सकता था, जिस प्रकार चड़ीगढ़ मेयर चुनाव के मामले में अपीलकर्ता हारे हुए उम्मीदवार ने मेयर का चुनाव अवैध घोषित कर पुर्न चुनाव की मांग की थी, जबकि उच्चतम न्यायालय ने उसे विजेता ही घोषित कर मेयर घोषित कर दिया, जिसकी मांग ही याचिका में नहीं थी। मुझे लगता है, माननीय उच्चतम न्यायालय को केजरीवाल के प्रकरण में हुई उक्त चूक पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।

परन्तु यह एक गंभीर प्रश्न जरूर उत्पन्न होता है कि उच्चतम न्यायालय का उक्त सिद्धांत हेमंत सोरेन के लिए जरूरी क्यों नहीं माना जा रहा है? तब ये मुद्दे हेमंत सोरेन को उसी उच्चतम न्यायालय द्वारा अंतरिम जमानत देने में अभी तक क्यों सहायक नहीं हो पा रहे है? 

केजरीवाल को अंतरिम जमानत! ‘‘न्याय’’(?) के लिए ‘‘नैतिकता’’ ‘‘सुचिता’’ की बली चढ़ी?

*गांधीवादी सिद्धांत! ‘‘साध्य’’ के साथ ‘‘साधन’’ भी पवित्र होना चाहिए।                                                     क्या ‘‘न्याय प्रणाली’’में ये ‘‘अप्रासंगिक’’ हो गए हैं? 

 

क्या सिर्फ न्यायिक क्षेत्र में ही ‘‘नैतिकता अंर्तनिहित’’ है?   

क्या ‘‘नैतिकता’’ एवं‘‘ सुचिता’’ की बात सिर्फ राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में ही की जानी चाहिए? ‘‘न्याय’’ क्षेत्र में नहीं? यदि न्याय क्षेत्र में उक्त तत्व ‘‘अंतर्निहित’’ (इन-बिल्ट) है, तो यह बात तो अन्य क्षेत्रों पर भी लागू होती है। उच्चतम न्यायालय द्वारा व्यवहारिक रूप से अर्द्ध-राज्य (पूर्ण राज्य नहीं) ‘दिल्ली प्रदेश’ की तिहाड़ जेल में ‘‘धन शोधन निवारण अधिनियम’’ के अंतर्गत बंद, ऐतिहासिक बने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को वर्ष 2024 में हो रहे लोकसभा के ‘‘आम चुनाव के प्रचार’’ की शेष अवधि (10 मई से 01 जून तक) के लिये दी गई अंतरिम जमानत के मामले ने उक्त मुद्दे को एक नया आयाम व ‘‘तूल’’ दे दिया है। दूरगामी प्रभाव पड़ने वाले उक्त अंतरिम आदेश की चीर-फाड़ किया जाकर गंभीरता से विस्तृत रूप से विचार किया जाना आवश्यक है। बावजूद इस तथ्य के कि उक्त अंतरिम आदेश को ईडी द्वारा भविष्य में न्याय दृष्टांत (नजीर) माने जाने की बात कहने पर उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि अंतरिम जमानत देना प्रत्येक मामले के ‘‘व्यक्तिगत तथ्यों’’ पर आधारित होता है। हालांकि नजीर तभी मानी/लागू की जाती है, जब ‘‘तथ्य समान हो’’। अतः ‘‘नजीर’’ के मामले में न्यायालय की यहां एक ‘‘चुप्पी’’ सी दिखती है, जो भविष्य में खतरनाक भी सिद्ध हो सकती है 

एक बिल्कुल ही‘‘अलहदा’’ मामला?   

स्वतंत्र भारत के ही नहीं, बल्कि  पूर्व के न्यायिक इतिहास में भी शायद यह एक मात्र ऐसा अलग मामला है, जहां उच्चतम न्यायालय ने बेहद चर्चित दिल्ली शराब कांड (आबकारी नीति धनशोधन घोटाला) के तथाकथित सूत्रधार दिल्ली के मुख्यमंत्री जो ‘‘पीएमएलए’’ के अंतर्गत 51 दिन जेल में बंद रहे, को ईडी के जबरदस्त विरोध के बावजूद अंततः अंतरिम जमानत उम्मीदवार न होने के बावजूद चुनावी प्रचार के लिए  दे दी, तथापि वे ‘आप’ के स्टार प्रचारक जरूर है। ‘‘विधिक क्षेत्रों’’ से जुड़े समस्त व्यक्तियों के लिए भी यह आदेश एक नितांत ‘‘नया’’ आश्चर्य मिश्रित अनुभव हो सकता है। कुछ के लिए, ‘‘सुखद’’,तो कुछ के लिए ‘‘दुखद’’; तो वर्तमान स्थिति को देखते हुए ऐसा आदेश तो होना ही था, यह भी एक ‘सुविचार’हो सकता है। 

अंतरिम जमानतआदेश। अर्थ/परिस्थितियाँ।  

अंतरिम जमानत देते समय उच्चतम न्यायालय के निम्न कथन पर विशेष रूप से गौर किये जाने की आवश्यकता है। ‘अंतरिम जमानत शब्द को आपराधिक प्रक्रिया संहिता में परिभाषित नहीं किया गया है। लेकिन उसने अदालतों को बाध्यकारी परिस्थितियों में जेल में बंद व्यक्तियों को यह अस्थायी राहत देने से नहीं रोका है। अस्थायी रिहाई वाली‘‘अंतरिम’’ जमानत अनिवार्य परिस्थितियों और आधारों पर दी जा सकती है, तब भी जब नियमित जमानत उचित नहीं होगी। ‘‘ असहनीय दुःख और पीड़ा ’’ की स्थिति किसी जेल में बंद व्यक्ति की अस्थायी रिहाई को उचित ठहराने के कई कारणों में से एक हो सकती है, भले ही नियमित जमानत की आवश्यकता न हो’’। उच्चतम न्यायालय की उक्त ‘‘दुख और पीड़ा की भावना’’ की स्थिति मात्र मौत, बीमारी के मामले में ही हो सकती है, ‘‘चुनाव प्रचार’’ के लिए नहीं, जिस बात के लिए अंतरिम जमानत दी गई है। इस बात को माननीय न्यायालय शायद समझ नहीं पाये, यह भी ‘‘समझ से परे’’ है। 

जेल के अंदर रहने वाले ‘‘प्रथम मुख्यमंत्री’’।   

अरविंद केजरीवाल देश के ऐसे पहले मुख्यमंत्री बन गये है, जो पद पर रहते हुए जेल गये। ‘‘नैतिकता’’ का आवरण ओढ़कर ‘‘कट्टर ईमानदारी’’ की कसमें खाकर ‘‘अन्ना’ का ‘अन्न’’ खाकर, राजनीति में तेज तर्रार तरीके से तेजी से कदम बढ़ाते,‘‘नौकरशाह से राजनेता’’ बने, मात्र 11 वर्ष में ‘‘राष्ट्रीय पार्टी’’ बनी‘‘आप’’(आम आदमी पार्टी) केराष्ट्रीय संयोजक, अरविंद केजरीवाल ने अपने उन अन्य मुख्यमंत्री साथियों की तरह नैतिकता के उस उच्च स्तर को अपनाया नहीं, जिन्होंने मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए गिरफ्तारी होने के पूर्व ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर मुख्यमंत्री पद की गरिमा के क्षरण होने से बचाया था। चाहे फिर वे तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता, बिहार के लालू प्रसाद यादव,कर्नाटक के बी एस येदियुरप्पा और अभी हाल मेें ही झारखंड के मुख्यमंत्री रहे हेमंत सोरेन हो, जिन्होंने गिरफ्तारी के पूर्व ईडी टीम के साथ राज्यपाल भवन जाकर अपना इस्तीफा सौंपने के बाद गिरफ्तारी दी। आश्चर्य, दुखद व हास्य की बात तो यह है कि मात्र आरोप लग जाने के आधार पर 250 से अधिक ‘‘दागी सांसदों’’ से अन्ना आंदोलन के दौरान इस्तीफे की मांग करने वाले स्वयं इस्तीफा देना तो दूर, अंतरिम जमानत की मांग चुनाव प्रचार के लिए कर रहे हैं।                    

मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा न देने का फायदा? अंतरिम जमानत।            

मुझे लगता है अरविंद केजरीवाल ने शिवसेना के दो फाड़ होने के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय की मई 2023 में की गई उक्त टिप्पणियों/अवलोकन (ऑब्जरवेशनस्) को निश्चित रूप से ध्यान में रखा होगा। जब माननीय न्यायालय ने यह कहा था कि यदि उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा नहीं देते और विश्वास मत प्राप्त करते हुए हार जाते तो न्यायालय उन्हें मुख्यमंत्री पद पर पुर्नस्थापित कर सकता था। शायद इसीलिए केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा नहीं दिया, जिसका फायदा शायद उन्हें अंतरिम जमानत के रूप में मिला भी। इसीलिए शायद हेमंत सोरेन को जमानत नहीं मिल पायी।    

जेल में बंद आरोपी/अपराधी का चुनाव लड़ना संवैधानिक अधिकार; तो चुनाव प्रचार क्यों नहीं?    

ऐसी स्थिति में उच्चतम न्यायालय को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए की जेल में बंद व्यक्ति जब चुनाव लड़ता है, जो उसका संवैधानिक अधिकार है, को मान्य किये जाने पर उसी चुनाव के प्रचार के लिए अनुमति न मिलना क्या यह उसका संवैधानिक या वैधानिक अधिकार का उल्लंघन नहीं है? विपरीत इसके वह व्यक्ति जो चुनावी मैदान में उतरा ही नहीं है, को चुनाव में प्रचार करने के लिए अंतरिम जमानत देना भले ही वैधानिक हो परंतु ‘‘न्यायोचित’’ कैसे हो सकता है? उच्चतम न्यायालय को गहन विचार कर इस मुद्दे को अंतिम रूप से निर्णीत अवश्य कर देना चाहिए। वैसे उच्चतम न्यायालय का यह आदेश संविधान के अनुच्छेद 14 में वर्णित समानता के अधिकार के विपरीत एक आपराधिक अपराधी एवं एक राज नेता आर्थिक अपराधी के बीच ‘‘असामान्य मतभेद अंतर’’ करता है, जो गलत है। शायद इसी कारण पंजाब के खंदूर साहब लोकसभा चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़ने के लिए, अवैध हथियार रखने के आरोप में जेल में बंद ‘‘वारिस पंजाब दे’’ के प्रमुख अमृतपाल सिंह ने भी अंतरिम जमानत मांगी है। प्रसंग वश आपके ध्यान में यह बात लाना आवश्यक है कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 62(5) के अंतर्गत जेल में बंद व्यक्ति को वोट ड़ालने का अधिकार नहीं हैं, जबकि वह चुनाव लड़ सकता है। क्या उच्चतम न्यायालय को इस ‘‘खामी, कमी’’ की ओर केन्द्र शासन का ध्यान आकर्षित नहीं करना चाहिए? वैसे स्वयं उच्चतम न्यायालय ने ‘‘टाडा’’ में बंद रहे सांसद कल्पनाथ राय को संसद की कार्रवाई में भाग लेने के लिए अंतरिम जमानत देने से इंकार कर दिया था। राज्यसभा के चुनाव के बहुमत परीक्षण के मामलों में भी उच्चतम न्यायालय ने सांसद, विधायक को संसद या विधानसभा में आने की अनुमति कम ही दी है। 

प्रथम दृष्टया मामला होने के बावजूद अंतरिम जमानत गलत? आधार गलत?  

माननीय उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय भविष्य की चिंताओं को लेकर चिंतित अवश्य करता है। माननीय न्यायालय का यह कहना कि चुनाव के दौरान सभी पार्टियों को अपना एजेंडा जनता के सामने रखने का अधिकार है। क्या पार्टी का एजेंडा सिर्फ उसका राष्ट्रीय संयोजक ही रख सकता है, अन्य पदाधिकारी नहीं? 40 स्टार प्रचारकों की फिर भूमिका क्या है? क्या यह ‘‘सिद्धांत’’ सैद्धांतिक रूप से सभी राजनीतिक आरोप जिनके विरुद्ध ‘‘आपराधिक अपराध’’ के प्रकरण दर्ज है, जो चुनावी समर में है, पर लागू होते हैं, होंगे? उच्चतम न्यायालय का जमानत देते समय कहा गया निम्न कथन महत्वपूर्ण है ‘‘अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय दलों में से एक के नेता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उनके खिलाफ गंभीर आरोप लगाए गए हैं। लेकिन उन्हें दोषी नहीं ठहराया गया है। इसका कोई आपराधिक इतिहास भी नहीं है। वह समाज के लिए खतरा भी नहीं है। इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए’’। क्या उच्चतम न्यायालय द्वारा उक्त उल्लेख अपने आदेश को ‘बल’ देने के लिए तो नहीं किया गया है? अथवा उच्चतम न्यायालय ने उक्त कथन कहकर दोनों पक्षों को निरुत्तर/संतुष्ट करने का प्रयास किया है। 

केजरीवाल के लिए नरम रुख तो नहीं?  

 न्यायालय का यह कथन कि ‘‘आपराधिक इतिहास न होना’’ ईडी के लिये जवाब और ‘‘बहुत गंभीर आरोप होना’’ केजरीवाल के लिए जवाब है। यद्यपि यह कथन भी गलत है कि केजरीवाल का आपराधिक इतिहास नहीं है। उनके विरूद्ध मार्च 22 तक लगभग 30 प्रकरण विभिन्न 19 धाराओं में दर्ज हैं। केजरीवाल को आदतन अपराधी नहीं माना है, चुने हुए मुख्यमंत्री है, और राष्ट्रीय राजनीतिक दल के नेता (संयोजक) भी है, न्यायालय ने यह भी कहा है। परन्तु माननीय न्यायालय इस बात को भूल रहा है कि अधीनस्थ अदालतों द्वारा केजरीवाल की गिरफ्तारी को चुनौती देने वाली याचिका को अस्वीकार कर देने पर प्रथम प्रथम दृष्टिया केजरीवाल के विरुद्ध मामला स्थापित होता है, जैसा कि पीएमएलए अधिनियम में भी यही प्रथम दृष्टया अनुमान का प्रावधान एक आरोपी के विरुद्ध होता है, उसे निर्दोष नहीं माना जाता है, जैसा कि भा.द.स. के अंतर्गत विपरीत अनुमान (प्रिज्यूमशन) का प्रावधान है।   

अंत में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का सांसद धनंजय सिंह को जमानत देने के बावजूद सजा पर रोक लगाने से इनकार (जिसका प्रभाव यह हुआ कि वे चुनाव नहीं लड़ पाए) करते हुए यह कहना कि राजनीति में ‘‘सुचिता समय की मांग है’’, उच्चतम न्यायालय के लिए, आंख खोलने के लिए काफी है।

Popular Posts