शनिवार, 8 जून 2024

‘‘महां एग्जिट पोल’’! कितने एग्जैक्ट? कितने विश्वसनीय? कितने ‘‘निष्पक्ष’’ अथवा ‘‘प्रायोजित’’?

 कहीं ‘‘संकेत’’ से ज्यादा ‘‘शोर’’ तो नहीं? परिणाम ‘‘अनुकूल न होने’’ पर ही प्रश्न वाचक चिन्ह क्यों?

देश में ‘‘एग्जिट पोल’’ का प्रारंभ कब?

भारत में वर्ष 1957 के दूसरे आम चुनाव में कमोबेश एग्जिट पोल की शुरुआत का श्रेय इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक ओपिनियन के मुखिया एरिक दी कोस्टा को दिया जाता है। हालांकि पहली बार औपचारिक रूप से वर्ष 1996 में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) द्वारा किए गए वास्तविक वैज्ञानिक रूप से किए गए एग्जिट पोल के नतीजों को दूरदर्शन पर दिखाया गया था। यद्यपि एग्जिट पोल की पहली शुरुआत वर्ष 1980 में चार्टर्ड अकाउंटेंट से पत्रकार बने ‘‘प्रणव राय’’ ने की थी। ‘‘ओपिनियन पोल’’ (जनमत सर्वेक्षण) ‘‘एग्जिट पोल’’ से बिल्कुल अलग है, जो मतदान के पहले मतदाताओं का मत (ओपिनियन) किसी दिशा में बनाने में सहायक हो सकता है, जिसकी तो आलोचना ‘मैनेज’ करने के आधार जरूर की जा सकती है। परंतु ‘‘एग्जिट पोल’’ किसी भी रूप में अथवा तकनीकी रूप से अंतिम परिणाम को प्रभावित करने में सहायक नहीं हो सकता है। इसलिए मात्र आपके अनुकूल परिणाम न बतलाने के कारण इसकी आलोचना करना परिणाम की दृष्टि से बिल्कुल गलत है, जब तक की अंतिम परिणाम इसके विपरीत आ नहीं जाते हैं। 

विपक्ष हतोत्साहित। 

अभी देश में सर्वत्र सिर्फ एग्जिट पोल की ही चर्चा है, जो लगभग पूर्वानुमान अनुसार ही आए हैं। आश्चर्य की बात यह नहीं है कि एग्जिट पोल के एक दिन पूर्व ही विपक्षी पार्टियों ने इस तरह के परिणाम आने को ‘‘भांप’’ लिया था। शायद इसीलिए पहले तो कांग्रेस ने एग्जिट पोल पर टीवी डिबेट में भाग लेने से ही इनकार कर दिया था। परंतु इस कारण आलोचनाओं से घिरने से इंडिया गठबंधन की बैठक होने के बाद कांग्रेस ने अपना निर्णय अंततः बदला। ‘‘स्व घोषित मोदी अंध विरोधी सोशल मीडिया’’ में भी एक दिन पूर्व ही ‘‘आरोपित अघोषित अंध भक्त मोदी मेन स्ट्रीम मीडिया’’ के इस तरह के आने वाले एग्जिट पोल के पूर्वानुमान बताए जा कर चर्चा की जा रही थी। प्रश्न उत्पन्न यह होता है की क्या वास्तव में धरातल पर जाकर सही वैज्ञानिक तरीके से एग्जिट पोल किये गये? अथवा जो एक नरेशन व परसेप्शन शुरू से लगातार  बनाया जा रहा था, उसी की अगली कड़ी के रूप में यह परिणाम तो आना ही था। 

वर्ष 2019 की पुनरावृत्ति? 

एग्जिट पोल के ‘‘पोल ऑफ पोल’’ (12 सर्वे एजेंसियों का औसत) ने एनडीए को 370- 390 सीटें दी है, जबकि वर्ष 2019 में एनडीए के पास 352 सीटें थी। उस हिसाब से मात्र 18 सीटों की वृद्धि (न्यूनतम 370 से) अर्थात 5.11% वृद्धि का अनुमान बतलाया गया है, जिसे पिछले दशक की दो आम चुनावों (2014 एवं 2019) की तुलना में एक तरफा जीत नहीं कहीं जा सकती है, जैसा कि प्रचार/दुष्प्रचार (प्रोपेगेंडा) किया जा रहा है। हां निश्चित रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए जवाहरलाल नेहरू के बाद यह पहली ’हैट्रिक’ जीत होगी। यदि वर्ष 2014 की बात करें, तब एनडीए के पास कुल 336 सीटें थी। इस प्रकार वर्ष 2014 की तुलना में 2019 में 16 सीटों की बढ़ोतरी होकर कुल 352 सीटें हो गई, जो 4.76% होकर वर्ष 2024 की एग्जिट पोट के परिणाम की तुलना में मात्र 0.34% कम है। स्पष्ट है! यह तथाकथित विहंगम जीत (जिससे मुझे भी प्रारंभ में संतोष हुआ) जीत.न होकर वर्ष 2019 के परिणाम की लगभग पुनरावृति ही है, यदि इसमें से तेलुगु देशम जो 2019 के चुनाव में ‘‘एनडीए’’ की भागीदार नहीं थी, की अनुमानित 16 सीटें हटा दी जाए तो। शिरोमणि अकाली दल जो 2019 में एनडीए के साथ था की तत्समय दो सीटें थी, को इस एग्जिट पोल में 0 से 2 सीटें दी जा रही है। यद्यपि इस चुनाव में एनडीए के साथ में नहीं है इसमें चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर के ‘‘प्रायोजित’’ आकलन को भी शामिल कर लिया जाय जो पिछले आकडे़ 303 या उसमें कुछ बढ़ौतरी बतला रहे हैं। यदि 13 वीं सर्वे एजेंसी दैनिक भास्कर के सर्वे को भी जोड़ दिया जाए, तो एनडीए की सीटों का औसत 365 का आता है। विपरीत इसके ‘‘इंडिया’’ 295 सीटों का दावा कर रहा है। अब आप यह आकलन आसानी से कर सकते हैं कि वास्तव में एनडीए की जीत 2019 की तुलना में है भी कि नहीं? आकलन करते समय इस बात को भी ध्यान में रखिए कि वर्ष 2019 की तुलना में ‘‘एनडीए’’ में शामिल दलों की संख्या 21 से बढ़कर 38 हो गई है, जिसमें राष्ट्रीय पार्टी भाजपा के साथ नेशनल पीपुल्स पार्टी (पी ए संगमा की) मात्र एक राष्ट्रीय पार्टी शामिल है, जबकि ‘‘यूपीए’’ की जगह नवगठित विपक्षी गठबंधन ‘‘इंडिया’’ में 26 पार्टियां हैं, जिसमें तीन राष्ट्रीय पार्टियां कांग्रेस, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट और आप सहित 3-6 (एकदम विपरीत) विचार धारा वाले लोग भी शामिल हैं। वोटिंग परसेंटेज में एनडीए को 45% और इंडिया को 40% मत मिलने का अनुमान अभी बतलाया गया है। वर्ष 2019 की चुनाव में भी एनडीए को 45.43% वोट मिले थे।

निष्पक्ष चुनाव! परसेप्शन बिल्कुल टूटा हुआ?

एग्जिट पोल निष्पक्ष है, चुनाव परिणाम भी निष्पक्ष ही होंगे, यदि चुनाव निष्पक्ष हुए हैं तो? परंतु चुनाव की निष्पक्षता पर इफ, बट, लेकिन, परंतु, किंतु लगाना जब तक की कोई पूर्ण प्रूफ तत्व, तथ्य प्रमाण अथवा साक्ष्य सामने न हो, प्रश्न वाचक चिन्ह लगाना उचित नहीं होगा। परंतु एक बड़ा प्रश्न यहां जरूर उठता है कि जिस प्रकार ‘‘न्याय’’ के बाबत यह सिद्धांत सर्वमान्य रूप से स्वीकार है कि न्याय न केवल मिलना चाहिए बल्कि न्याय मिलता हुआ दिखना भी चाहिए। जस्टिस शुड नॉट बी डिलीवर्ड बट सीम्स टू बी डिलीवर्ड। ठीक यही सिद्धांत चुनावी प्रक्रिया पर भी लागू होता है। न केवल निष्पक्ष चुनाव होने चाहिए, जो होते हैं, बल्कि निष्पक्ष चुनाव होते हुए दिखना भी चाहिए। यहीं पर पेंच है। तथापि जब तक कोई विरोधी साक्ष्य न हो, तब तक निसंदेह यही माना जाना चाहिए कि चुनाव निष्पक्ष रूप से हुए हैं। परंतु क्या यही सिद्धांत चुनाव निष्पक्ष रूप से होते हुए दिखना चाहिए, पर भी वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए पूर्ण रूप से लागू किया जा सकता है, कहना बमुश्किल है। बल्कि निर्विवाद रूप से पूर्ण रूप से ऐसा नहीं कहा जा सकता है। कारण! इसको आगे समझने का प्रयास करते हैं।

चुनाव आयोग के सदस्यों के चुनाव पर प्रश्नवाचक चिन्ह?

चुनावी प्रक्रिया से लेकर एग्जिट पोल और अंततः 4 जून को आने वाले चुनाव परिणाम को लेकर बनाए गए नरेटिव, परसेप्शन के कारण एक युक्ति युक्त आशंका आम जनों के दिमाग में बैठती जा रही है। याद कीजिए! लगभग सवा वर्ष पूर्व मार्च 2023 में जब उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यों की संवैधानिक पीठ ने सर्वसम्मति से ऐतिहासिक कदम उठाते हुए चुनाव आयोग की कार्य प्रणाली की निष्पक्षता व स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए विधायिका की ‘‘निष्क्रियता’’ और उससे उत्पन्न ‘‘शून्यता’’ को देखते हुए हस्तक्षेप करते हुए यह आदेश पारित किया था कि मुख्य चुनाव आयुक्त व चुनाव आयुक्तों के चयन के लिए तीन सदस्यों की समिति में एक सदस्य उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश हो व दूसरा लोकसभा में विपक्ष का नेता हो। इस प्रकार वर्तमान व्यवस्था जहां उनकी नियुक्तियां राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह पर करते हैं, स्थानापन्न किया गया। यह अंतरिम व्यवस्था तुरंत लागू कर तब तक के लिए की गई, जब तक संसद इस संबंध में कानून पारित करके कार्रवाई करने का फैसला नहीं करती।

उच्चतम न्यायालय के निर्णय को अप्रभावित करके चुनाव आयोग की निष्पक्षता प्रभावित हुई। 

निष्पक्ष चुनाव के परसेप्शन पर गड़बड़ी उच्चतम न्यायालय के चुनाव आयोग के सदस्य के चयन के संबंध में अंतिम निर्णय के बाद से ही प्रारंभ होती है। केंद्रीय सरकार उच्चतम न्यायालय के इस निर्देश के पालन में लोकसभा में बिल लेकर भी आई। परंतु उच्चतम न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्देश एक सदस्य मुख्य न्यायाधीश होना चाहिए को ‘‘धत्ता’’ बता कर, अंगूठा दिखाकर मुख्य न्यायाधीश की जगह प्रधानमंत्री द्वारा नामित केंद्रीय मंत्री को रख दिया गया। इस प्रकार तीन सदस्यीय आयोग में सरकार का ‘‘दो-एक’’ का बहुमत होने के कारण उच्चतम न्यायालय ने जिस निष्पक्षता को स्थापित करने के लिए कदम उठाया था व जिसकी कल्पना आम नागरिक भी कर रहे थे, वह इस एक कदम से ‘‘ध्वंस’’ हो गई। केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए उक्त कानून को उच्चतम न्यायालय में चुनौती भी दी गई, लेकिन दुर्भाग्य-वश उच्चतम न्यायालय ने विधायिका की जिस निष्क्रियता और उससे उत्पन्न शून्यता के आधार पर उक्त शून्य को भरने के लिए अपना निर्णय दिया था, उसी आधार को तुरंत सुनवाई के लिए न अपना कर उसी निष्क्रियता का कहीं परिचय तो उच्चतम न्यायालय नहीं दे रही है? जिस कारण से चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर जो तलवार सरकार के विधेयक लाने से लटकी थी, वह अभी भी लटकी हुई है। इसलिए लोकसभा के अंदर उठाया गया यह कदम चुनाव आयोग की स्वतंत्रता व निष्पक्षता पर गंभीर प्रश्न उत्पन्न करने का अवसर न केवल विपक्ष को, बल्कि आम नागरिकों को भी देता है।

अब आगे चलते हैं। जिस तरह से चुनाव आयोग के एक सदस्य ने इस्तीफा दिया था और उसके बाद दो सदस्यों की नियुक्ति जिस जल्दबाजी में विपक्ष के नेता की अनुपस्थिति में की गई उसने भी कहीं ना कहीं आशंका के बादल फैलाएं। चुनाव आयोग की स्वतंत्रता, निष्पक्षता व उसकी कार्यप्रणाली व चुनावी प्रक्रिया के संबंध में यहां मैं जो भी चर्चा कर रहा हूं, वह कानूनी रूप से कागजातों पर सही होने के बावजूद मैं उस ‘‘परसेप्शन’’ की बात कर रहा हूं कि चुनाव सिर्फ निष्पक्ष होने ही नहीं चाहिए बल्कि निष्पक्ष होते हुए दिखना भी चाहिए। इसलिए मेरे विचारों, भावों को इस नजर से देखेंगे, तो आपको ज्यादा सहूलियत होगी।

400 पार का नारा! कहीं पर तीर कहीं पर निशाना तो नहीं? 

याद कीजिए! प्रधानमंत्री ने लोकसभा चुनाव की घोषणा की पूर्व ही संसद के पटल पर अबकी बार 400 पार का नारा दे दिया था। उसके बाद से सातवें चरण के अंतिम मतदान के दिन तक इस नारे-नरेटिव के परसेप्शन को नरेंद्र मोदी ने पूरे जोश खरोश के साथ बनाए रखा। सिवाय बीच की कुछ अवधि में जब इस नारे से विपक्ष यह नरेटिव बनाने में सफल रहा था कि 400 पार की बात कहीं संविधान  बदलने के लिए तो नहीं की जा रही है? उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह आदि विपक्ष की नजर में 400 को नरेटिव इसलिए बनाया जा रहा है कि जब माल-मैनिपुलेशन (हेरफेर, गड़बड़ियां) ईवीएम में होने के कारण 4 तारीख को परिणाम एग्जिट पोल को सही ठहराएंगे, तब आम नागरिक उसको सहजता से स्वीकार कर सकेंगे और उन्हें कोई आश्चर्य नहीं होगा, क्योंकि उक्त नरेटिव से लंबे समय से माहोल, वातावरण बनाकर उनके दिमाग में यह बात बैठा दी जा चुकी है (माइंड गेम)। 

अनेकोनेक त्रुटियों के कारण विश्वसनीयता में कमी। 

इन समस्त एग्जिट पोल की शुद्धता और यर्थाथ पर आशंका का परसेप्शन फिर इसलिए उत्पन्न होता है कि लगभग समस्त पोल एनडीए को 350 से ऊपर बतला रहे है, व आंकड़ों में काफी कुछ समानताएं हैं। विपरीत इसके; जनता के बीच यह वास्तविक स्थिति भी हो सकती है, इसलिए आंकडों की समानता है। चूंकि अधिकांश सर्वे करने वाली एजेंसीज ने अपना वह आधार नहीं बताया जिनके आधार पर उन्होंने वैज्ञानिक गुणा भाग कर उक्त निष्कर्ष निकाले हैं इसमें भी आशंका उत्पन्न होती है। तथापि आज तक का इंडिया टुडे एक्सेस माय इंडिया की सर्वे एजेंसी जरूर या दावा करती है कि उसके सैंपलिंग की साइज से लेकर समस्त तथ्य व कार्य प्रणाली पारदर्शी है, जो उसकी वेबसाइट पर उपलब्ध है। किसी भी एजेंसी ने 5 लाख वोटरों से अधिक से संपर्क करने का दावा नहीं किया है, जो 60 करोड़ वोटरों के व्यू को प्रतिबिंब कर सकते हैं, यह बात भी गले से नीचे उतरती नहीं है। इसके अतिरिक्त विभिन्न एजेंटीयों के सर्वे में हुई कुछ बेहद महत्वपूर्ण चुके हैं चुके भी उन्हें उनकी निष्पक्षता और एक्यूरेसी पर संदेह पैदा करती हैl जैसे रिपब्लिक इंडिया का इंडिया गठबंधन को इंडी गठबंधन कहना बहुत कुछ कह देता है l इसी प्रकार झारखंड में झारखंड में सीपीएम को दो सीट देना जो वहां चुनाव ही नहीं लड़ रही है, तमिलनाडु में कांग्रेस को 15 सीटें देना जो मार्च 9 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, उत्तराखंड में कल 5 सिम हैं जबकि भाजपा को 6 सीटें दी जा रही है, हिमाचल प्रदेश में हिमाचल प्रदेश में कुल चार सीटें हैं जबकि 6-8 सीटों का आकलन दिखाया जा रहा है, राजस्थान में कल 25 सिम हैं जबकि 33 सीटों के नतीजे बताई जा रहे हैं और इसी प्रकार बिहार में लोजपा कल 5 सिम लड़ रही है जबकि उसे 6 सीटें दी जा रही है। इसी प्रकार तमिलनाडु वी कुछ राज्यों में जो कुल मतदान कुल मतों का प्रतिशत भाजपा को बताया जा रहा है वह वह भी अचंभित करने वाला है l इन सब कर्मियों से भी एग्जिट पोल की  विश्वसनीयता घटी है।

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