शुक्रवार, 26 जुलाई 2024

58 साल बाद केंद्रीय कर्मचारियों के ‘‘संघ’’ की ‘‘शाखा’’ में जाने पर प्रतिबंध हटा।

‘‘कार्यालय ज्ञापन’’ दिनांकित 9 जुलाई क्या कहता है। 

09 जुलाई को कार्मिक, लोक शिकायत व पेंशन मंत्रालय ने एक कार्यालय ज्ञापन (आफिस मेमोरेंडम, ओ.एम.) जारी कर सरकारी कर्मचारियों के संदर्भ में उक्त कार्यालय के ही ज्ञापन दिनांकित 30 नवंबर 1966, 25 जुलाई 1970 एवं 28 अक्टूबर 1980 में विवादित लाइन ‘‘आरएसएस का उल्लेख हटा दिया जाए’’ को हटाकर तदनुसार संशोधन किया। अर्थात् अब कोई भी केंद्रीय शासकीय कर्मचारी ‘‘वंदेमातरम्’’ के समान ‘‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’’ का गायन करने के लिए स्वतंत्र है। यद्यपि राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने पर प्रतिबंध वर्ष 1966 के पूर्व से ही ‘‘सरकारी सेवक आचरण नियमावली 1949’’ के तहत था। इस ओ.एम. (आदेश) को भाजपा के ‘‘आईटी सेल’’ प्रमुख अमित मालवीय ने शेयर करते हुए प्रतिक्रिया दी कि 58 साल पहले जारी एक असंवैधानिक निर्देश को वापस ले लिया है। इसका व्यवहारिक अर्थ तो यही हुआ कि संघ शाखा में जाने पर प्रतिबंध जो पूर्व में लगाया गया था को उपरोक्त उल्लेखित ओ.एम. द्वारा बिना किसी ‘‘मांग’’ के 58 साल बाद हटा दिया गया। 

‘‘शताब्दी वर्ष पर सरकार का संघ को तोहफा।’’

आश्चर्य की बात तो यह है कि 9 तारीख के सरकारी ज्ञापन का संज्ञान कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता एवं सांसद जयराम रमेश दिनांक 22 जुलाई को सोशल मीडिया ‘‘एक्स’’ पर लिखते हुए लेते है, वही संघ और भाजपा का कोई नेता इस आदेश का संज्ञान जयराम रमेश के टिप्पणी के पूर्व तक न लेकर स्वागत तक नहीं करते हैं? इससे क्या इस बात की पुष्टि नहीं होती है कि उक्त प्रतिबंध के आदेश सिर्फ ‘‘कागजात’’ तक ही सीमित थे, ‘‘व्यवहार’’ में नहीं? इसलिए यह कोई मुद्दा ही नहीं रह गया था। अन्यथा उक्त असंवैधानिक निर्देश (अमित मालवीय के शब्दों मेें) को न्यायालय में चुनौती क्यों नहीं दी गई थी? क्या यह ‘‘मरे हुए बाघ की मूंछें उखाड़ने जैसा’’ तो नहीं? अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने निर्णय को ‘‘समुचित’’ ठहराते हुए रचनात्मक, सकारात्मक कार्य-गतिविधियों में भाग लेने वाला संघ की शाखा पर जाने का प्रतिबंध हटाना ‘‘लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुष्ट करने वाला है’’। केंद्रीय सरकार इस बात के लिए साधुवाद की पात्र नहीं है कि उसने उक्त प्रतिबंध हटाया, बल्कि उससे भी ज्यादा इस बात के लिए कि, अपने राष्ट्रवादी संगठन ‘‘संघ’’ को अराष्ट्रवादी, आतंकवादी, साम्प्रदायिक संगठन ‘‘जमात-ए-इस्लामी’’ जैसों के साथ एक ही तराजू (श्रेणी) में रखकर प्रतिबंध लगाया था, जिसे (संघ को) सरकार ने अंततः उन राष्ट्र विरोधी संगठनों की जमात से दूर कर दिया। यह कुछ-कुछ वैसा ही कार्य था, जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल में राजनैतिक विरोधियों व असामाजिक तत्वों को एक साथ जेल में रखा था। तभी आप उस भावना की पीड़ा को समझ पायेगें। कोई भी राष्ट्रवादी सोच का व्यक्ति चाहे वह संघ का कितना ही बड़ा आलोचक क्यों न रहा हो, उस कट्टरवादी संगठन के साथ संघ को रखने की हिमाकत को सही नहीं ठहरा सकता है। 

58 साल बाद क्यों? 

हर सिक्के के दो पहलुओं के समान इस कार्यालय ज्ञापन (आदेश) के भी दो पहलू स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। यदि? इस ज्ञापन में उल्लेखित ज्ञापनों के द्वारा लगाए गए प्रतिबंध गलत थे, तब इन प्रतिबंधों को अटल बिहारी वाजपेयी की लगभग 6 साल रही सरकार एवं 10 साल की लगातार मोदी सरकार में भी क्यों नहीं हटाया था? साथ ही इन प्रतिबंधों को जब भाजपा विपक्ष मे थी, तब उक्त प्रतिबंध हटाये जाने की मांग को लेकर लगातार जोर-शोर से आंदोलन भाजपा एवं संघ द्वारा क्यों नहीं किया गया? इससे एक अर्थ यह भी निकलता है कि 58 साल से जो आदेश था, वह ‘‘कस्टमरी लॉ’’ बनकर ‘‘स्वीकार्य योग्य’’ हो गया? अथवा विपरीत इसके उक्त आदेश मात्र "कागजी होकर धरातल पर वास्तविक रूप में लागू ही नहीं हुआ? तब ज्ञापन के संशोधित करने की जरूरत ही नहीं थी। तभी तो बिना किसी ‘‘मांग या संदर्भ’’ के अचानक सरकार के ध्यान में आयी यह बात। क्यों?

सिर्फ आलोचना के लिए आलोचना ठीक नहीं। 

इसका दूसरा पक्ष कांग्रेस एवं विपक्ष द्वारा  की जा रही आलोचना भी गलत है। सर्वप्रथम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक सांस्कृतिक, सामाजिक, रचनात्मक संगठन है, न कि ‘‘परसेप्शन (अवधारणा) द्वारा गढ़ा हुआ राजनैतिक संगठन’’। जरूर इसे आप एक ‘‘तकनीकि वास्तविकता’’ कह सकते है, परन्तु वर्तमान राजनीति परसेप्पशन पर ही कार्यरत है। तथापि यदि संघ राजनीतिक पार्टी है, तब फिर भाजपा क्या है? क्या एक विधान चुनाव चिन्ह और झंडे तले दो राजनीतिक पार्टी कार्य कर रही हैं? संघ और भाजपा के संबंध ‘‘मां-बेटे’’ समान है, जहां भाजपा ने वर्ष 1980 में खांटी समाजवादी राजनारायण द्वारा उठाए गए ‘‘दोहरी सदस्यता’’ के मुद्दे पर जनता पार्टी के रूप में अपनी ही सरकार की बलि देने में परहेज नहीं किया। इस देश का संविधान/कानून मात्र ‘‘परसेप्शन’’ के आधार पर कोई कार्रवाई करने की अनुमति नहीं देता है, बल्कि ‘‘एक्शन’’ (करने) के आधार पर कार्यवाही होती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ‘‘संघ’’ पर तीन बार प्रतिबंध लगे व तीनों बार न्यायालय के आदेशों से नहीं, बल्कि सरकार ने ही हटाये। इससे भी यह सिद्ध होता है कि संघ पर जो प्रतिबंध लगे थे, वे बार-बार राजनीतिक कारणों से लगे और राजनीतिक दबाव व कारणों से हटे भी। जयराम रमेश जब उक्त ओ.एम. की आलोचना करते है, तब वे आलोचना करते-करते तथ्यों से ‘‘परे’’ यह कह जाते है कि अब तो नौकरशाही भी ‘‘निक्कर’’ में आ सकती हैं। परन्तु जैसा कि कहा जाता है, ‘‘प्रथम ग्रास मक्षिका पातः’’। शायद उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है या जानबूझकर अनजान बन गए हैं कि संघ ने अपना ड्रेस कोड (वेशभूषा) ‘निक्कर’ से बदलकर ‘‘ब्राउन पेंट’’ कर दिया है। 

प्रधानमंत्री एवं कई मुख्यमंत्री स्वयं’स्वयंसेवक/प्रचारक रहे। 

नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पिछले 10 सालो में देश के विभिन्न राज्यों के कम से कम 5 मुख्यमंत्री ऐसे हुए हैं, जो आरएसएस के स्वयंसेवक या प्रचारक रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी स्वयं स्वयंसेवक एवं प्रचारक रहे हैं। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री एवं केन्द्रीय मंत्री मनोहर लाल खट्टर, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव, राजस्थान के भजन लाल शर्मा, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास, उत्तराखंड के त्रिवेन्द्र सिंह रावत, आदि ऐसे अनेक नाम इस सूची में हैं। आखिर शासन का मुखिया कौन होता है? प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री ही तो होते हैं। जब प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री मुखिया स्वयंसेवक हो सकते हैं, जिनकी संवैधानिकता, वैधानिकता को इस आधार पर कभी न्यायालय में चुनौती नहीं दी गई, तब उनके अधीनस्थ काम करने वाले कर्मचारियों पर संघ शाखा में जानें पर प्रतिबंध कितना उचित था? जब शाखा से निकले स्वयंसेवक आज कानूनी व संवैधानिक रूप से उपकुलपति, प्रोफेसर, अर्द्धशासकीय संस्थाओं में पदों पर पदस्थ हैं तब वह ‘स्कूल’ (शाखा) जहां से ऐसे लोग ‘गढ़कर’ निकले वे अछूत अथवा असंवैधानिक कैसे हो सकते हैं? देश के उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ तक संसद में कहते हैं कि 25 साल पहले से वे सदस्य न होने के बावजूद संघ के ‘‘एकलव्य’’ बन गये थे। महाभारत की एक उक्ति के अनुसार ‘‘महाजनो येन गतः स पन्थाः’’। इस बात को जयराम रमेश आलोचना के स्वर के चलते शायद समझ नहीं पाए। 

उक्त ‘‘कार्यालय ज्ञापन’’ क्या न्यायाधीशों पर भी लागू होगा?

यदि सरकारी कर्मचारियों को छोड़ दे तो हमारे देश में अर्द्धशासकीय संस्थाएं, सार्वजनिक उपक्रम जैसे कोल इंडिया हैं, जिनके कर्मचारियों पर किसी भी राजनीतिक दलों के पदाधिकारी होने पर कोई प्रतिबंध नहीं है, चुनाव में भी वे भाग ले सकते हैं। जैसे भारतीय मजदूर संघ, इंटक, एटक संगठन से जुड़े कर्मचारी। अतः क्या उक्त ओ.एम. न्यायाधीशों पर भी लागू होगा? क्योंकि अभी हाल में ही कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस चितरंजन दास ने सेवानविृत्त होने के तुरंत बाद यह दावा किया था कि वे बचपन से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े रहे हैं। अतः अब यदि न्यायाधीश भी शाखा में जाए तो वह भी नियमों का उल्लंघन नहीं होगा? क्योंकि यह तो ‘‘पानी पी कर जात पूछने जैसा’’ होगा।

भाजपा व कांग्रेस में बुनियादी अंतर। 

भाजपा व कांग्रेस में मूलरूप से बुनियादी अंतर यह है कि 27 सितंबर 1925 दशहरे के दिन डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के साथ मात्र सात लोगों के साथ स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, एक सांस्कृतिक संगठन होते हुए कालांतर में खासकर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संघ ने इस बात को समझा कि देश की यदि राजनीतिक दशा व दिशा को बदलना है, तो संघ के उद्देश्यों को लेकर सिर्फ ‘‘शाखा’’ जो संघ की मूल रीढ़ और आधार है, से संभव नहीं हो पायेगा। बल्कि लोकतांत्रिक चुनावी प्रणाली में भाग लेना ही होगा। क्योंकि ‘‘बरगद का भार उसकी जटायें ही झेलती हैं, शाखायें नहीं। इसलिए संघ ने अपनी विचारधारा को राजनीतिक क्षेत्र में उतारने के लिए अपनी राजनीतिक शाखा के रूप में एक राजनीतिक पार्टी ‘‘जनसंघ’’ की स्थापना कर जनसंघ से भाजपा तक के राजनीतिक सफर द्वारा अपने विचारों को संघ ने उतार दिया। क्योंकि संघ यह जानता था कि भविष्य की राजनीति नीति-विहीन राजनीति होगी। अतः संघ राजनीति के ‘‘दल-दल’’ में सीधे उतरना नहीं चाहता था। अतः कानूनी रूप से संघ को एक राजनीतिक संगठन बनाकर उस पर उंगली नहीं उठाई जा सकती है।

स्वतंत्रता संग्राम के तप से निकली कांग्रेस।

कांग्रेस स्वतंत्रता संग्राम से निकली हुई पार्टी है। स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद उसका मूल उद्देश्य प्राप्त हो जाने से शनैः शनैः वह अपने अस्तित्व के खतरे की सीमा तक इसलिए पहुंच गई की स्वतंत्रता पाने के बाद वह अपने लक्ष्य व कार्यां द्वारा स्वतंत्र भारत को सोने की चिड़िया बनाने की कल्पना न करके सिर्फ स्वतंत्रता प्राप्ति से अर्जित पूंजी को बैठे-बैठे खाने का ही कार्य किया। आप अच्छे से जानते हैं कि यदि व्यक्ति कमायेगा नहीं तो एक दिन जमा पूंजी वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो, समाप्त हो जायेगी। शायद इस स्थिति को राहुल गांधी ने समझा और तब अपनी भारत जोड़ो यात्रा द्वारा काग्रेस की पूंजी बढ़ाने को निकले, लेकिन शायद वे नहीं जानते कि न तो ‘‘फूंकने से पहाड़ उड़ते हैं’’, न ‘‘पंखा झलने से कोहरा  छंटता है’’।

‘‘कांग्रेस के घोषणा पत्र की कापी पेस्ट’’। राहुल गांधी! फिर बजट की ‘‘आलोचना’’ क्यों?

 बजट पर त्वरित टिप्पणी।

आलोचना या प्रशंसा?

हमारे देश में पक्ष व विपक्ष के बीच खाई, अविश्वास असहमति इतनी गहरी हो गई है कि परस्पर एक दूसरे की आलोचना करते समय प्रायः वे तथ्यों से ‘‘परे’’ हो जाते हैं। कई बार तो आलोचना करने में वे इतने मशगूल हो जाते हैं कि जाने-अनजाने में आलोचना न होकर समालोचना या प्रशंसा हो जाती है। उलट इसके यदि अनजाने में कहीं सहमति बन भी जाए तो जानने पर उसे ‘‘असहमति’’ बनाने पर तुल जाते हैं। ‘‘सेल्फ गोल में माहिर’’ राहुल गांधी की बजट पर प्रतिक्रिया व उसके बाद कांग्रेस की मुख्य राष्ट्रीय प्रवक्ता सुप्रिया सुनेत का कथन तत्पश्चात भाजपा का इस पर आयी प्रतिक्रया इसी श्रेणी में आती है। ‘‘लंका में सब बावन गज के’’। राहुल गांधी ने अपनी बजट प्रक्रिया में तीन मुख्य बातें कही हैं। पहला यह ‘‘कुर्सी बचाओ बजट है’’, जो बिल्कुल सही है। लेकिन क्या वे यह बतलाने का कष्ट करेंगे कि 77 साल की स्वाधीनता की अवधि में किस वर्ष का, किस सरकार का बजट ‘‘कुर्सी बचाओ’’ बजट के बजाय ‘‘कुर्सी गिराओ’’ या ‘‘कुर्सी खोने’’ वाला बजट रहा है? दूसरा कथन सहयोगियों को खुश करने की कोशिश में सहयोगियों से सरकार ने अन्य राज्यों की कीमत पर ‘‘खोखले वादे’’ किए हैं। यह तथ्यों के बिल्कुल विपरीत हैं। क्योंकि सरकार ने बिहार व आंध्र प्रदेश के लिए विशेष पैकेज क्रमशः रु 26000 करोड़ एवं 15000 करोड़ रु. का प्रावधान कर बहार ला दी, जिससे दोनों राज्य सरकारें ‘‘सकाल पदारथ जग माहीं’’ समान पाकर अति संतुष्ट हैं। अतः यह खोखला वादा कैसे हो सकता है? तीसरा सबसे महत्वपूर्ण कथन इस बजट को कांग्रेस पार्टी के घोषणा पत्र और पिछले बजट का ‘‘कॉपी पेस्ट’’ बताते हुए ‘‘नकल’’ करार दिया है। प्रतिक्रिया के आखिरी के उक्त दो कथन राहुल गांधी की बुद्धि पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाते हैं। 

मोदी का कथन सही? राहुल गांधी की मंदबुद्धि?

‘‘कांग्रेस के घोषणा पत्र की ‘‘कॉपी पेस्ट’’ है’’, यह बात समझ से परे है। राहुल गांधी का यह कथन आलोचना है अथवा प्रशंसा? आखिर राहुल गांधी कहना क्या चाहते है? जब वे आलोचना करते हुए कहते है कि एनडीए सरकार का यह बजट कांग्रेस के घोषणापत्र की ‘‘कॉपी पेस्ट’’ है, तो उसका अर्थ यही निकलता है कि कांग्रेस का वह घोषणा पत्र जिसे हाल में हुई संपन्न लोकसभा चुनाव में जोर-शोर से प्रचारित प्रसारित किया गया था, को रूबरू भाजपा ने अपने बजट में अपना लिया है। क्या राहुल गांधी यह कहना चाहते हैं कि कांग्रेस की ‘‘सोने की कटारी को सरकार ने अपने पेट में मार लिया’’ है? तब तो इस बात के लिए राहुल गांधी को भाजपा की प्रशंसा करनी चाहिए। यदि यह वास्तव में आलोचना है तो, उसका मतलब तो यह निकलता है कि भाजपा ने कांग्रेस का घोषणा पत्र जिस पर जनता ने लोकसभा चुनाव में विश्वास कर कांग्रेस को बहुमत नहीं दिया था, को अपना लिया है। शायद इसीलिए राहुल गांधी ने आलोचना की है। 

सिक्के के दो पहलू

हर सिक्के के दो पहलू के समान बजट के भी दो पहलू हैं। कुछ विशेषताएं तो कुछ कमियां! बजट का आर्थिक व राजनीतिक दोनों दृष्टि से आकलन किया जाना आवश्यक है। कहावत है कि ‘‘राज सफल तब जानिये, प्रजा सुखी जब होय’’। इस दृष्टि से यद्यपि 140 करोड़ की जनसंख्या वाले देश के समस्त लोगों की हर ख्वाहिशों की पूर्ति कोई एक बजट नहीं कर सकता है। हाँ उस दिशा में जरूर आगे बढा जा सकता है। यदि हम आर्थिक दृष्टि से बजट की आकलन करे तो, इसका सबसे बडा बैरोमीटर (पैरामीटर) बजट के तुरंत बाद आई शेयर मार्केट की प्रतिक्रिया है, जो बजट पेश करने के पूर्व तक 1340 अंक से भी ज्यादा बढ़ा हुआ होकर बजट समाप्त होने तक 1300 अंक से ज्यादा सूचकांक गिर गया। तथापि कार्य समय समाप्त होते-होते काफी सुधार होकर अंततः मात्र 69 अंक से लुड़का। मतलब आर्थिक दृष्टि से बजट ठीक नहीं रहा। शायद इसका एक कारण दीर्घकालीन पूंजीगत लाभ पर कर की दर 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 12.50 व अल्पकालीन पूंजीगत लाभ (एसटीसीटी) पर 15 से 20 प्रतिशत कर देना भी हो सकता है। पूंजीगत लाभ की गणना के लिए इंडेक्शन से लाभ के प्रावधान को समाप्त कर दिया है जिससे पूंजीगत आय पर कर देयता बढ़ जाएगी। तथापि पंूजीगत लाभ की दर की सीमा 1 लाख से बढ़ाकर 1.25 लाख कर दी गई है। ‘‘एसटीटी’’ की दर बढ़ाकर दुगनी (0.0125 प्रतिशत) कर दी गई है। देश के अन्नदाता किसानों की लंबे चले से चली आ रही एमएसपी पर कानून की मांग जिसमें 700 से अधिक किसान स्वर्गवासी हो गए, पर इस बजट में वित्त मंत्री मौन रही।

बैसाखी देने वाले राजनैतिक साथियों को साधा गया।

राजनीतिक दृष्टि से एनडीए के दोनों महत्वपूर्ण घटक जेडीयू एवं तेलगुदेशम को साधने में सरकार सफल रही है, जिनकी बैसाखी पर सरकार खड़ी है। इस आधार पर कांग्रेस की आलोचना नितांत गलत है। क्योंकि कांग्रेस ने भी तो यूपीए के समय अपने साथियों की इच्छाओं की पूर्ति की थी। ‘‘भला सियासत बिना रियासत कहां’’।

विशेषताएं। 

निश्चित रूप से हर बार के बजट के समान इस बार के बजट की भी अपनी कुछ विशेषताएं व अच्छाईयां हैं, ‘‘जिसे कहते हैं लेखे कानाम चोखा’’, जिनका स्वागत किया जाना चाहिये। ‘‘मुद्रा स्फीति’’ की दर 3.1 प्रतिशत तक सीमित रखी गई हैं। 9 क्षेत्रों तथा चार जातियां गरीब, महिलाएं युवा और अन्नदाता पर फोकस की बात वित्त मंत्री ने कही है! रोजगार के मुद्दे पर पिछला चुनाव लड़ा गया था, जिस पर ज्यादा ध्यान केन्द्रीत कर शिक्षा व रोजगार पर 1.48 लाख करोड़ का प्रावधान किया गया। ‘‘मुद्रा ऋण’’ की सीमा 10 लाख से बढाकर 20 लाख करना, नये युवा रोजगार के लिए 7.5 लाख की नई स्कीम तथा 3 प्रतिशत की दर से छात्रों को ऋण देना। ये सब रोजगार को संबोधित करने वाले प्रावधान हैं। 80 करोड़ लोगों को दी जाने वाली मुफ्त प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना को अगले पांच वर्ष के लिए और बढ़ा दिया गया है। 

आयकर संबंधी छूट

चूंकि में आयकर वकील हूं, इसलिए इस दृष्टि से यदि मैं इस बजट को एक लाइन में कहूं कि ‘‘यह डिफॉल्टर का सहयोगी व डिपॉजिटर्स का असहयोगी है,’’ जैसे कि ‘‘जंगल में सीधे पेड़ ही काटे जाते हैं, टेढ़े पेड़ खड़े रहते हैं’’ तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। क्योंकि धारा 80 सी (चेप्टर 6) के अंतर्गत निवेश की सीमा रू. 1.5 लाख से नहीं बढाई गई, जो सालो पूर्व से बनी हुई है। क्या सरकार बचत को प्रोत्साहन नहीं देना चाहती है? टीडीएस की त्रुटि के लिए धारा 276 बी के अभियोजन के प्रावधान को समाप्त किया जाकर डिफॉल्टर्स को सहयोग किया गया है। ‘‘वक्र चंद्रमहिं ग्रसे न राहू’’। नौकरी पेशा व्यक्तियों के लिए मानक कटौती की सीमा रु 50000 से बढ़कर 75000 करके कुछ राहत जरूर प्रदान की गई है। दूसरा कराधान की दो टैक्स स्कीम है। पहली स्कीम में कोई बदलाव नहीं किया गया है। जब सरकार खुद यह कहती है कि नई टैक्स रिजीम को दो-तिहायीं से ज्यादा लोगों ने अपनाया है, तब सरकार पुरानी टैक्स स्कीम को समाप्त क्यों नहीं कर देती हैै? विभिन्न आय वर्गो के स्लैब में जो छूट आयकर की दरों में दी गई, वह स्वागत योग्य है। एक और महत्वपूर्ण संशोधन किया गया जो अपवंचित आय के लिए समय सीमा 10 साल की थी, को घटाकर 6 वर्ष कर दिया गया व कर अपवंचित आय की राशि न्यूनतम सीमा भी 50 लाख रू. कर दी है। ‘‘विवाद से विश्वास स्कीम योजना’’ 2024 फिर से लाई जा रही है। स्टार्टअप के लिए एंजेल टैक्स खत्म कर दिया गया है। मिडिल क्लास की दृष्टि में जीएसटी (देश के 652 लोग देते है) एवं व्यक्तिगत आयकर का कुल संग्रह निगमित कर  (कॉरपोरेट टैक्स) से सवा गुना होकर 5 गुना हो है। जबकि 2014 के पूर्व आयकर कारपोरेट टैक्स से आधा ही। मतलब कॉरपोरेट को ज्यादा फायदा मिल रहा है। संक्षिप्त में जिस प्रकार भोजन के स्वाद में नमक-मिर्च, खट्टा-मीठा होने से जायका अच्छा होता है, वैसे ही इस बजट का टेस्ट भी है। अतः संपूर्णतः समग्र दृष्टि से इस बजट का स्वागत किया जाना चाहिए।  

वैसे बजट पर एक वरिष्ठ नागरिक की शोर-शराबे के दौर में खामोश प्रतिक्रिया... ‘‘न कुछ आशा थी न कुछ मिला’’सब कुछ बयां कर देती है।


सोमवार, 22 जुलाई 2024

‘‘अंबानी की शादी में राहुल गांधी का न जाना’’। ‘‘कितना उचित-अनुचित’’?

 

’ऐतिहासिक वैवाहिक कार्यक्रम’

 देश के सबसे बड़े उद्योगपति और विश्व के कभी नंबर एक रहे व वर्तमान में ग्यारवें नंबर के उद्योगपति मुकेश अंबानी के तीसरे नंबर के सुपुत्र अनंत अंबानी की ‘‘न भूतो न भविष्यति’’ लगभग 6 महीने तक चली ‘‘प्री वेडिंग’’ व ‘‘पोस्ट वेडिंग’’ ऐतिहासिक ‘‘मेगा’’ वैवाहिक कार्यक्रम में देश के समस्त क्षेत्रों की महत्वपूर्ण से अति महत्वपूर्ण हस्तियां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित शामिल हुई, सिर्फ महत्वपूर्ण राहुल गांधी तथा कुछ नामी गिरामी हस्तियों को छोड़कर। यहां पर सिर्फ राहुल गांधी की अनुपस्थिति की ही चर्चा करेंगें। इंडिया गठबंधन के अनेक नेताओं के साथ कांग्रेस पार्टी के भी बहुत से नेता शामिल हुए, लेकिन ‘‘साउथ कांग्रेस’’ अर्थात कांग्रेस के दक्षिण भारत के प्रमुख नेता गण और प्रमुख वामपंथी नेता गण भी शामिल नहीं हुए। शाही शादी के खर्चो के अनुमानों के अनुमान पर ‘‘अटकल पच्चू डेढ़ सौ’’ नाम से एक थीसिस अवश्य लिखी जा सकती है। 

निज कार्यक्रम न रहकर सार्वजनिक बना कार्यक्रम। 

वैसे तो इस शादी के बाबत इतना सब कुछ लिखा-दिखाया जा चुका है कि शादी के वैभव के बाबत और कुछ लिखना किसी और कलम में संभव नहीं है। परंतु यहां मैं सिर्फ उपरोक्त शीर्षक तक ही कलम को सीमित कर रहा हूं। सर्वप्रथम तो वैवाहिक कार्यक्रम एक निजी कार्यक्रम होता है, जिस पर सामान्यतया कमेंटस, ट्वीट्स, डिबेट्स नहीं की जाती है और न ही की जानी चाहिए। परंतु जब मामला देश के सबसे अमीर व्यक्ति का हो, जो तथाकथित रूप से मोदी सरकार को चलाने वाले दो उद्योगपति चेहरों में से एक चेहरा अंबानी हो और कार्यक्रम भी उसी हैसियत (स्टेटस) के अनुरूप हो, जिससे आम सार्वजनिक जीवन प्रभावित होता है, उच्च स्तर की कानून व्यवस्था प्रभावित होती है, विशेष सरकारी सुविधा उपलब्ध कराई जाती हों, तब वह कार्यक्रम व्यक्तिगत न होकर सार्वजनिक होकर चर्चा के लिए वह ‘‘स्वयं एक प्लेटफॉर्म’’ बन जाता है। प्रसिद्ध फिल्मी कलाकार ‘‘तापसी पन्नू’’ का कार्यक्रम में शामिल न होने पर जवाब में कहना कि ‘‘नहीं यार, मैं उन्हे व्यक्तिगत रूप से नहीं जानती। मुझे लगता है की शादी एक बहुत ही निजी कार्यक्रम है। मैं वहां जाना पसंद करती हंूं जहां परिवार और मेहमानों में कुछ कम्युनिकेशन हो,’’ इस शादी को सार्वजनिक कार्यक्रम सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है।

अनुपस्थिति! क्या खोया- पाया? 

भारतीय सुसंस्कृति बड़ी दयालु व उदारता लिए हुए माफ करने वाली प्रवृत्ति की ही है। प्राय: हर इंसान की जिंदगी में हमारी संस्कृति ऐसे दो अवसर अवश्य देती हैं; मौत व विवाह, जिसमें व्यक्ति शामिल होकर कुछ समय के लिए उन परस्पर व्यक्तिगत मतभेदों को चाहे वे कितने ही गहरे क्यों न हो, चीन की दीवार की तरह ही क्यों न हो, lo 0तत्मय के लिए भुला देता है। मौत के दुखद व शोक के अवसर पर किसी भी तरह के निमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती है, मात्र खबर ज्ञात होने पर ही पहुंच जाते हैं। परंतु तनावपूर्ण संबंधों की "फूटी आंख न सुहाने" की स्थिति में वैवाहिक कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए निश्चित रूप से व्यक्तिगत स्तर पर सम्मान पूर्वक निमंत्रण मिलना अति आवश्यक होता है। तब उस निमंत्रण का सम्मान करके परस्पर वैमनस्य का भाव पालने वाले व्यक्ति भी दुश्मन के घर पहुंच जाते हैं। इस दृष्टि से राहुल गांधी ने चूक की है, और कहा जाता है कि ‘‘डाल का चूका बंदर और अवसर के चूके आदमी को दूसरा मौका नहीं मिलता’’। ‘‘गतः कालो न आयाति’’। मुकेश भाई अंबानी स्वयं सोनिया गांधी के 10 जनपथ स्थित सरकारी आवास पर व्यक्तिगत रूप से निमंत्रण देने गए थे और उन्होंने पूरे परिवार को वैवाहिक कार्यक्रम में आने का न्योता दिया। तथापि इस मुलाकात के समय राहुल गांधी मुकेश अंबानी के आने कुछ समय पूर्व ही घर से कुछ ही दूरी के लिए निकल कर एक दूसरे कार्यक्रम में चले गए, जो इस बात को प्रदर्शित करता है कि राहुल गांधी नहीं चाहते थे उनके तत्समय मिलना। शायद इसी कारण वे शादी में सम्मिलित भी नहीं हुए। यदि राहुल गांधी को या गांधी परिवार को अंबानी से इतनी ही एलर्जी थी, तब तो उन्हें निमंत्रण पत्र लेकर 5 मिनट में ही मुकेश अंबानी की रवानगी कर देनी चाहिए थी? क्योंकि सोशल मीडिया के अनुसार अंबानी लगभग 1 घंटे उनके यहां पर रहे। वैमनस्य के बावजूद निश्चित रूप से गांधी परिवार ने भारतीय संस्कृति की अतिथि देवों भवः की भावना के अनुरूप उनकी आवभगत भी की ही होगी। तब इस भावना को अंतिम अंजाम तक आगे और क्यों नहीं बढ़ाया गया?

अनुपस्थिति का दूसरा पक्ष। 

अब इसके दूसरे पहलू की भी चर्चा कर लेते हैं। राहुल गांधी की राजनीति पिछले काफी समय से अंबानी-अडानी को  केंद्रित कर मोदी को लगातार चुनौती देने की रही है। दूसरे शब्दों में ‘‘टट्टी की ओट से शिकार करने की रही है’’। जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूं, यह वैवाहिक कार्यक्रम व्यक्तिगत न रहकर एक सार्वजनिक कार्यक्रम हो गया था। इसलिए एक सार्वजनिक राजनीतिक नेता के सार्वजनिक कार्यक्रम में जाने से संदेश भी निकलते व निकाले जाते हैं खासकर आज की राजनीति में। वर्तमान राजनीति अवधारणा (परसेप्शन) पर ज्यादा आधारित है, बजाय एक्शन पर, जैसा कि मैं हमेशा से कहते आया हूं। इसलिए राहुल गांधी के शादी में सम्मिलित होने से जो परसेप्शन उन्होंने बड़ी मेहनत से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ अंबानी को लेकर बनाया था, वह एक क्षण में टूट जाता और उससे उन्हें निश्चित रूप से तात्कालिक नुकसान जरूर होता। शायद ‘‘संस्कृति के ऊपर राजनीति’’ व "नीति के ऊपर राजनीति" हावी हो गई या ‘‘अक़ल के ऊपर हेकड़ी हावी हो गयी’’, जो भी हो बहरहाल राहुल गांधी ने दूसरा विकल्प चुना। शायद इसीलिए कई बार राहुल गांधी के खिलाफ यह आरोप गंभीर रूप से लगाया जाता रहा है कि वे भारतीय संस्कृति में पूर्ण रूप से रचे हुए व्यक्ति नहीं है, क्योंकि भारतीय संस्कृति में तो ‘‘तिनका उतारे का भी एहसान होता है’’। इस बहिष्कार से राहुल गांधी पर लगे उक्त आरोप और पुख्ता होते हैं।

तीसरा विकल्प।

मेरी नजर में गांधी परिवार के पास एक बेहतर तीसरा विकल्प था, जिससे वे उक्त दोनों स्थिति से पार पा सकते थे। राहुल गांधी स्वयं न जाकर यदि सोनिया गांधी या प्रियंका शादी के कार्यक्रम में चली जाती तो निश्चित रूप से उस व्यक्तिगत निमंत्रण का सम्मान भी होता, जो स्वयं मुकेश अंबानी उनके घर चल कर देकर आए थे। सोनिया गांधी को इस बात का जरूर ध्यान रखना चाहिए था कि मुकेश अंबानी और उनके दूल्हे राजा पुत्र अनंत गिनती के लोगों को ही व्यक्तिगत रूप से निमंत्रित करने गए थे। जैसे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे, उप मुख्यमंत्री एवं पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस, उद्धव ठाकरे परिवार, फिल्मी कलाकार सलमान खान, अक्षय कुमार, अजय देवगन-काजोल आदि। सोनिया-प्रियंका नहीं, ‘‘राहुल गांधी ही’’  भविष्य की राजनीति में गांधी परिवार के प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं, इसलिए सोनिया गांधी के जाने से राहुल गांधी की बहुत मेहनत से बनाई उक्त अवधारणा (परसेप्शन) पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। इस प्रकार ‘‘सांप भी मर जाता और लाठी भी न टूटती’। परंतु सोनिया गांधी इस बेहतर विकल्प का उपयोग करने में चूक गई। मैं स्वयं भी इस तरह की राजनीतिक-पारिवारिक द्वेष की स्थिति से गुजर चुका हूं, इसलिए मैं इस स्थिति को ज्यादा अच्छे से समझ व समझा सकता हूं।

अंबानी को धन्यवाद। 

क्या मुकेश भाई अंबानी को  इस बात के लिए धन्यवाद नहीं दिया जाना चाहिए कि उन्होंने एक ऐसे एलिट वर्ग को चिन्हित  किया है, जो देश के नवयुवकों के लिए अपने जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरक होगा?  किस तरह से? अंबानी ने देश के विभिन्न क्षेत्रों में  काम करने वाले बने आईकॉनों को इस वैवाहिक कार्यक्रम में बुलाया था, फिर चाहे वे राजनीतिक, आध्यात्मिक, औद्योगिक उद्यमी, व्यापार, फिल्मी, कला, खेल, शिक्षा, प्रोफेशनल (डॉक्टर, वकील इंजीनियर) नौकरशाह आदि विभिन्न क्षेत्रों से थे। यदि अंबानी सूचीबद्ध बुलाए गए मेहमानों की सूची सार्वजनिक कर दें तो वे लोग जो इस निमंत्रण को  पा नहीं पाए हैं वे निश्चित रूप से सूचीबद्ध लोगों को देखकर अपने जीवन को उस ऊंचाई तक पहुंचाने का प्रयास अवश्य करेंगे ताकि वे भी अगले किसी अवसर पर अंबानी का निमंत्रण पा सके?

उपसंहार। 

क्या गांधी परिवार की ओर से कोई उपहार अथवा बधाई संदेश वर-वधु के लिए भेजा गया? और क्या अंबानी की ओर से 'रिटर्न गिफ्ट' भेजा गया? जैसा की उन्होंने शादी में सम्मिलित हुए अन्य मेहमानों को दिया। वैसे यह जानकारी मिलना भी दिलचस्प होगा कि मुकेश अंबानी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शादी में सम्मिलित होने पर 100 खास मेहमानों के लिए खास डिनर का आयोजन किया था, क्या उस सूची में ‘‘राहुल गांधी’’ का नाम था? यदि नहीं तो क्या राहुल गांधी के लिए पृथक से 100 मेहमानों के लिए भोज आयोजित किया  था? नहीं। तब राहुल गांधी स्वयं ही "काल सर्प दोष" से मुक्त हो जाते हैं।

बुधवार, 17 जुलाई 2024

संविधान हत्या दिवस! औचित्य?


 
आपातकाल का अर्थ। संवैधानिक प्रावधान।  

आपातकाल एक अत्यावश्यक, अप्रत्याशित और आम तौर पर खतरनाक स्थिति है, जो तत्काल जोखिम और मर्यादाहीन अवस्था पैदा करती है। संस्कृत में एक उक्ति है ‘‘आपात्काले मर्यादा नास्ति’’। यह प्रावधान संविधान, लोकतंत्र और विधि तीनों की मर्यादा का हनन करता है। और इससे निपटने के लिए इसके लिए तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता होती है। शायद इस शाब्दिक अर्थ का फायदा लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जेपी आंदोलन को कुचलने के लिए व इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के इंदिरा गांधी के रायबरेली लोकसभा के चुनाव को अवैध घोषित करने के निर्णय से इंदिरा गांधी की कुर्सी पर गंभीर खतरा उत्पन्न होने के कारण संजय गांधी की सलाह पर प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा न देकर, देश की तत्समय की स्थिति को भयानक, अराजक, आपातकालीन बताकर एवं यह कहकर कि ‘‘नेसेसिटी हैज नो लॉज’’ (Necessity has no laws) तथाकथित रूप से देश की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए  ‘‘राष्ट्रीय आपातकाल’’ लागू किया था।

भारतीय संविधान के भाग XVIII में अनुच्छेद 352 से 360 तक आपातकालीन उपबंध दिए गए हैं। देश में अभी तक अनुच्छेद 352 के अंतर्गत तीन बार आपातकाल लगाया जा चुका है। वर्ष 1962 व 71 में क्रमशः चीन व पाकिस्तान से युद्ध होने से भारत की सुरक्षा को बाहरी आक्रमण से खतरा होने के कारण और वर्ष 1975 में राजनीतिक कारणों से इंदिरा गांधी की कुर्सी को गंभीर खतरा होने से लागू किया गया था, जिसे आज ‘‘संविधान हत्या दिवस’’ के रूप में चर्चित करने का प्रयास किया जा रहा है। अनुच्छेद 360 में वित्तीय आपातकाल का प्रावधान है। 

स्वतंत्र भारत का याद न करने वाला काला दिन-अध्याय? 

हालांकि वक्त बड़े से बड़े घाव को भर देता है लेकिन ‘‘आपातकाल’’ शब्द का मैं जैसे ही उच्चारण करता हूं, सुनता हूं या सुनाता हूं, शरीर में एक झुनझुनी व सिहरन सी आ जाती है। क्योंकि मैं उस परिवार का सदस्य हूं, जिसने आपातकाल को भुगता है। ‘‘मेरे स्व. पिताजी श्री जी डी खंडेलवाल मीसा में 18 महीने जेल में बंद रहे थे, जेल में जो थे, वे जेल की ‘‘चार दीवारियों के साथ’’ अपनी जिंदगी को शनैः शनैः बसा चुके थे। जेल के बाहर रहकर भी मैंने आपातकाल को भुगता है। जेल के बाहर मीसाबंदी परिवारों के सदस्यों की स्थिति तो यह हो गई थी कि डर व खौफ के वातावरण के कारण उनका सामाजिक मेल मिलाप दुष्कर होकर बहिष्कृत सा हो गया था। ऐसे आपातकाल के बुरे दिनों को कोई क्यों याद करना या रखना चाहेगा? फिर ‘‘हत्या दिवस’’ के रूप में? ‘‘देर आयद दुरुस्त आयद’’ का सहारा लेते हुए यदि सरकार आपातकाल रूपी काले कालखंड को वर्तमान युवा पीढ़ी को काले सपने के रूप में किस स्वरूप में याद दिलाना चाहती है? जिसके औचित्य पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगना लाजिमी ही है। सरकार अच्छे अध्याय रचकर ‘‘काले अध्याय को क्यों नहीं प्रतिस्थापित’’ करना चाहती है? क्योंकि भविष्य में ‘‘जब भी शाह ख़ानम की आंखें दुखेंगी, शहर के चिराग गुल कर दिये जाएंगे’’। वर्तमान में जब भी मीडिया की निष्पक्षता और साहस की चर्चा की जाती है, तब आपातकाल के समय की मीडिया की दुर्दशा और साहस से तुलना होती ही है और तब वर्तमान मीडिया बगलें झाँकने लग जाती है। वर्तमान सरकार मूलतः अपने मूल रूप में (जनता पार्टी) आपातकाल की ही तो पैदाइश है? जैसे ‘मीसा भारती’’।

अधिसूचना में उल्लेखित ‘‘श्रद्धांजलि’’ शब्द कितना उचित ? 

मीसा बंदी जिन्हें वर्ष 2014 में केंद्रीय सरकार ने लोकतंत्र सेनानी का दर्जा दिया तथा साहसी, संघर्षशील जनता व निडर मीडिया (जैसे इंडियन एक्सप्रेस) जिन्होंने अपने संपादकीय पेज को ‘‘खाली’’ छोड़कर आपातकाल का दृढ़ विरोध प्रदर्शित किया था, ऐसे समस्त संघर्षशील व्यक्तियों को 49 साल बाद ‘‘श्रद्धांजलि’’ देने हेतु केन्द्रीय सरकार ने दिनांक 12 जुलाई 2024 को जारी एक गजट अधिसूचना द्वारा 25 जून को संविधान हत्या दिवस घोषित किया है। केंद्रीय सरकार का उक्त रूप में निर्णय एक पहेली सी लगती है? क्योंकि इस संबंध में जारी अधिसूचना में दी गई प्रस्तावना, नामकरण की शब्दावली न केवल समझ से परे हैं, बल्कि सिर से ऊपर ‘सिरे’ से निकल जाने वाली है? 50वें साल में की गई यह घोषणा कुछ आश्चर्यचकित भी करती है। अभी 25 जून को ही आपातकाल का 49 वां वर्ष गुजरा है। जब किसी दिवस को महत्वपूर्ण बनाना होता है, तब उसे उस दिन या उसके पूर्व अधिसूचित किया जाता है, न कि 15 दिन बाद। अधिसूचना में ‘‘श्रद्धांजलि’’ शब्द का उपयोग बेहद आपत्तिजनक और गैर जिम्मेदारा है। क्योंकि अधिसूचना में ‘‘ताकि आपातकाल के दौरान सत्ता के घोर दुरूपयोग के खिलाफ लड़ने वाले सभी लोगों को श्रद्धांजलि दी जा सके’’। कथन में जीवित एवं स्वर्गवासी सभी को श्रद्धांजलि दी गई। वैसे अधिसूचना में उल्लेखित वाक्य संविधान की हत्या दिवस भी सकारात्मक शब्द नहीं है। सरकार सकारात्मक होती है, तो विपक्ष नकारात्मक होता है। इसकी जगह संविधान रक्षा दिवस, संविधान बलिदान दिवस, संविधान शोक दिवस, संविधान हनन दिवस, संविधान बचाओ दिवस, संविधान संकल्प दिवस, इत्यादि भी हो सकता था। क्योंकि किसी नकारात्मकता को सकारात्मकता के द्वारा ही नकारा जा सकता है। अभी भी देश में हजारों लोकतंत्र सेनानियों में से सैकड़ो लोकतंत्र सेनानी जीवित है। मेरे बैतूल में भी 6 जीवित है। क्या उन्हें भी संविधान हत्या दिवस के दिन याद कर श्रद्धांजलि दी जाएगी? जीवित व्यक्ति की आपातकाल से लड़ने की जीवटता का कार्य क्या ‘‘क्षिति जल पावक गगन समीरा से बनी काया’’ के समान मृत हो गया है? इसलिए श्रद्धांजलि दी जानी चाहिए? क्या सरकार जिंदा व्यक्तियों के साहसिक कार्यों को अ-मृत मानकर श्रद्धांजलि देने की नई रेखा खींचने तो नहीं जा रही है? वैसे हमारी संस्कृति में जिंदा व्यक्ति जिनका कोई नहीं होता है, के द्वारा जीवन के दौर में ही स्वयं की श्राद्ध करने की प्रथा है, जैसे साधु-संत। आखिर सरकार में किस तरह की सोच लिए हुए लोग बैठे है, जो मानते हैं कि ‘‘अपना सर सलामत तो पगड़ी हजार’’, चाहे भले ही वो अपनी करतूतों से बार-बार सरकार का सिर (मुकुट) जनता के सामने नीचा कर देते हैं? 

अनुच्छेद 352 में और प्रभावी संशोधन किया जाना आवश्यक है। 

यदि वास्तव में सरकार लोकतंत्र सेनानियों को श्रद्धांजलि देना ही चाहती है तो उसे अनुच्छेद 352 में ऐसा संशोधन अवश्य करना चाहिए, कि किसी भी स्थिति में राजनीतिक द्वेष के चलते देश में आपातकाल फिर कभी लगाया जाना संभव न हो सके। क्योंकि ‘‘पिंजरा तो सोने का भी बुरा होता है’’। अभी भी वर्ष 1978 में संशोधित अनुच्छेद 352 में जो राज्य के किसी भाग की सुरक्षा के लिए शब्दों का उल्लेख है, का दुरुपयोग आपातकाल लगाने में पुनः संभव है। संविधान के किसी भी अनुच्छेद जैसे 352 के दुरुपयोगों का यह पहला उदाहरण नहीं है। हमारा लोकतांत्रिक गणराज्य देश संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों और संविधान के अधीन बनाए गए विभिन्न कानूनों के दुरुपयोगों से भरा पड़ा है। राज्य की आपात व्यवस्था अनुच्छेद 356 की स्थिति को ही देख लीजिए? किस शासन ने इसका दुरुपयोग कब, कहां, नहीं किया है? ‘‘हमाम की लुंगी जिसने चाही बांध ली क्योंकि हमाम में तो सब नंगे हैं’’। 

संविधान की हत्या या हत्या का प्रयास? अथवा लोकतंत्र की हत्या। 

मध्य प्रदेश सरकार ने 26 जून 2024 को आपातकाल में लागू किये गये आंतरिक सुरक्षा अधिनियम एवं भारतीय सुरक्षा अधिनियम (डीआरआई) के अंतर्गत निरोधक, निवारक हिरासत (गिरफ्तार) किये गये समस्त लोकतंत्र सेनानी एवं उनके परिवारों का अभिनंदन किया है। एक तरफ ‘‘अभिनंदन’’ वहीं दूसरी ओर ‘‘हत्या’’ कुछ कुछ अजीब सा नहीं लगता है? सर्वप्रथम हत्या व हत्या के प्रयास के अंतर को समझ ले। भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (पुराना कानून) (नया कानून भारतीय न्याय संहिता की धारा 103) के अंतर्गत किसी व्यक्ति की जान ले लेना हत्या है, जबकि हत्या का प्रयास करना धारा 307 (नई धारा 109) के अंतर्गत अपराध है। यदि हत्या शब्द को उचित मान भी लिया जाए तब भी क्या 25 जून 1975 को देश की संविधान की हत्या की गई थी? वास्तव में उस दिन संविधान की तो नहीं हाँ, ‘‘लोकतंत्र की हत्या’’ जरूर की गई थी। लोकतंत्र के चार स्तंभों में से एक प्रमुख मीडिया को सेंसर कर अनुच्छेद 19 में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कैंची चला दी गई, वहीं दूसरी ओर एक नागरिक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को तब छीना गया, जब अनुच्छेद 20 एवं 21 के मौलिक अधिकार को किसी भी स्थिति में निलंबित नहीं किया जा सकता है। 44 वें संविधान संशोधन द्वारा इस स्थिति को और भी पुख्ता किया गया। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा है कि स्वतंत्रता का अधिकार ‘‘मानव अधिकार’’, है ‘‘संविधान का उपहार नहीं’’। किसी भी स्थिति में जीवन (अनुच्छेद 20) व व्यक्तिगत स्वतंत्रता (अनुच्छेद 21) के अधिकार को छीना नहीं जा सकता है। तथापि उक्त दोनों असंवैधानिक कार्य भी संविधान में प्रावधित प्रावधान अनुच्छेद 352 जिसमें आंतरिक अशांति शब्द का उल्लेख था, का दुरुपयोग करके ही किये गये थे। इसलिए वर्ष 1978 में जनता पार्टी सरकार ने 44वें संविधान संशोधन द्वारा ‘‘आंतरिक अशांति’’ को ‘‘सशक्त विद्रोह’’ शब्द से प्रतिस्थापित कर दिया था। दूसरे, यदि वस्तुतः संविधान की हत्या हो गई थी, तब 1975 से लेकर आज तक हम किस संविधान के अंतर्गत संचालित है? इस प्रश्न का उत्तर हमें कहां मिलेगा? यह जारी अधिसूचना में स्पष्ट नहीं है। हत्या द्वारा मृत्यु हो जाने के बाद जिस प्रकार व्यक्ति की आत्मा इस सृष्टि में घूमती है, वैसे ही क्या संविधान की आत्मा घूम रही है? जिसमें हम संचालित है?

‘‘सुनहरे भविष्य’’ के लिए ‘‘आपातकाल जैसे प्रतिगामी, आत्मघाती’’ कदम को भूलकर आगे बढ़ना होगा? 

140 करोड़ की जनसंख्या वाले इस देश में एक भी वयस्क जिसे आपातकाल के बाबत जानकारी दी गई हो, ऐसा नहीं होगा जो उसके समर्थन की कल्पना भी कर सकता हो। जिन लोगों ने सत्ता बचाने के लिये आपातकाल लगा कर लोकतंत्र को कुचला था, उन समस्त लोगों ने बारी बारी से इस दुष्कृत पर समय-समय पर माफी मांग ली। देश की जनता ने भी मात्र 3 वर्ष से कम समय में ही वर्ष 1980 के आम चुनाव में आपातकाल की दोषी उस कांग्रेस को माफ कर पुनः सत्तासीन कर दिया। हमें मानना होगा कि जनता उसको गलत नहीं मानती है, क्योंकि लोकतंत्र में चुनाव की जीत ही समस्त मुद्दों की जीत व हार तय करती है। इसलिए आपातकाल को यदि हम राजनीति का टूल बनायेगें तो यह द्विआधारी तलवार सिद्ध हो सकती है। ‘‘हड्डी खाना आसान लेकिन पचाना मुश्किल’’ है। सिख दंगों के बाद दंगों के लिए भी जिम्मेदार कांग्रेस की पंजाब में सरकार वापस आयी। इसका यह मतलब कदापि नहीं निकाला जाना चाहिए कि सिखों के दिल में पहुंची ठेस खत्म हो गई? उसी प्रकार वर्ष 1980 में कांग्रेस की जीत को आपातकाल के विरुद्ध निर्णय ठहरा कर तथा सरकार द्वारा दिया गया सम्मान और सम्मान निधि, लोकतंत्र सेनानियों एवं उनके परिवारों के दिलों से आपातकाल की टींस व दर्द को समाप्त नहीं कर सकती हैं। अतः आपातकाल को एक राजनीतिक टूल न बनाया जाकर देश के लोकतांत्रिक इतिहास का वह काला अध्याय माना जाए, जिसे बार बार याद करने की बजाए एक दुःस्वप्न की भांति भूलने का प्रयास करना चाहिए, जो उतना आसान नहीं होगा, खासकर उन लोगों के लिए जिन्होंने मीसा को भुगता है। वैसे कोई व्यक्ति अपने जीवन के काले अध्याय को कभी भी याद नहीं करना चाहेगा, तब सरकार क्यों इतिहास हो चुके काले अध्याय की याद दिलाना चाहती है?

अंत में, कुछ लोग सोशल मीडिया में यह समाचार  कि तत्कालीन सरसंचालक जी ने उस समय इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर आपातकाल का समर्थन किया था, और बहुत से मीसा बंदियों ने माफी मांग कर आपातकाल का समर्थन किया था,तेजी से फैला कर गलत अवधारणा पैदा करने का प्रयास रहे हैं।  वस्तुत: यह उनकी समझ का फेर है। वास्तव में आपातकालीन युद्ध से लड़ने की यह आपातकालीन योजना मात्र थी। इससे ज्यादा कुछ नहीं।

क्या भारत देश में ‘‘खोजी पत्रकारिता’’ समाप्त हो गई है?

आखिर देश की बहुसंख्यक जनता व्यक्तिगत जीवन में बाबाओं के पीछे इतनी अंधी, अंधभक्त एवं पिछलग्गू क्यों होते जा रही है?
  

सूरजपालः बहुरूपिया बाबा?

‘‘बाबा प्रधान देश’’ भारत के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश के ‘‘हाथरस’’ (जो पूर्व में भी, सितम्बर 2020 में गैंगरेप-हत्या के कारण विश्व प्रसिद्ध हो चुका है?), में मानव मंगल मिलन (सत्संग, धार्मिक समागम) के दौरान भगदड़ मचने से 130 व्यक्ति अकाल मृत्यु ‘‘काल के गाल’’ में समा गये। जिस ‘काल’ को नियत्रिंत करने का दावा संत के वेश में सूरजपाल जाटव ऊर्फ विश्व हरि उर्फ नारायण हरि ‘‘बाबा’’ करता रहा। इस प्रकार ‘‘सत्संग’’य ‘कष्टसंग’ व ‘कु्त्संग’ में परिवर्तित हो गया। घटना के बाद से ही संपूर्ण मीडिया चाहे प्रिंट, इलेक्ट्रानिक या सोशल मीडिया हो, बढ़-चढ़कर इस बहुरूपिये बाबा की कुंडली को खोलकर चिल्ला-चिल्ला कर हम जनता को बता रहे हैं, पढ़ा रहे हैं। धूर्त बाबा का इतिहास क्या था? जो एक छेड़खानी के आरोप में बर्खास्त सजायाफ्ता हवलदार नारायण साकार हरि उर्फ भोले बाबा था। यद्यपि अदालत के आदेश से वह पुनः नौकरी में बहाल भी हो गया था। जेल से छूटने के बाद उसने वीआरएस लेकर ‘‘भोले बाबा’’ बनकर लोगों को ठगने, पाखंड और तथाकथित यौन शोषण के कार्यक्रम में ‘सत्संग’ के साथ लग गया। साधु संत तो वह होता है जो ‘‘करे तो डरे, न करे तो भी ख़ुदा के कहर से डरे’’। लेकिन ये बाबा तो कर के भी नहीं डरते। कोई दान, दक्षिणा,  चढ़ावा इत्यादि न लेने का दावा करने वाले बाबा के देश में अनेकों बड़े-बड़े आश्रम है, तथापि राजस्व रिकॉर्ड पर उनके स्वामित्व के बाबत सुनिश्चित जानकारी नहीं है। यद्यपि बाबा इंटरनेट पर लोकप्रिय नहीं है, तथापि जमीनी स्तर पर उनके भक्तों की संख्या निसंदेह लाखों में है।

अंध भक्त जनता। आस्था व अंधविश्वास के बीच झूलता हमारा देश !

धूर्त, प्रपंच गिरी व तथाकथित यौन शोषण का आदी सूरजपाल एक दिन में ही आर्थिक साम्राज्य खड़ा कर देने वाला, अपराधी, व्यभाभिचारी, जादू-टोटका, भूत भगाने वाले, ढोंगी बाबा नहीं बन गया? परन्तु धन्य है हमारी देश की मीडिया, जिसे उक्त घटना घटित होने तक पता ही नहीं चला कि संन्यासी के वेश में बाबा एक अपराधी है, जिसके विरुद्ध पांच अपराधिक प्रकरण दर्ज हैं। ऐसे ही तथाकथित बाबाओं के कारण हिन्दू समाज बदनाम होता रहा है। बाबाओं की यह कड़ी व करतूतें न तो पहली है और न ही अंतिम। ‘‘आसाराम’’ से लेकर राम रहीम......आदि तक गिनतियाँ ही गिनतियाँ है, गिनते चले जाइये, आपकी उंगली जरूर थक जाएंगी । जहां साधु के वेश में ऐसे ‘‘गाते गाते कीर्तिनिया बने’’ इन दोहरे रूप धारण करने वाले व्यक्ति इस तरह के अपराधों में पकड़े गये, स्टिंग ऑपरेशन हुये, सजाएं भी हुई। परन्तु इन सब के बावजूद धन्य है हमारा हिन्दू समाज जो हर ‘‘कमली वाले को फकीर’’ समझ लेता है और जहां ऐसे सजायाफ्ता साधू-संतो के अंधभक्तों की संख्या में और उनके साम्राज्य में कोई खास कमी हुई हो, ऐसा जान नहीं पड़ता है।

बाबाओं व नेताओं के बीच ”गहरा नेक्सेस ”(जटिल संबंध)। 

आखिर ऐसे बाबाओं को प्रोत्साहन संरक्षण कैसे मिलता है? किससे मिलता है? जिस कारण से बाबागिरी या सत्संग एक बड़ा ‘‘उद्योग’’ हो गया है। इसका एक बड़ा कारण राजनेताओं और बाबाओं के बीच बड़ा अटूट अतरंग संबंध चला आ रहा है। हर ऐसे बाबाओं के साथ देश के प्रमुख राजनीतिज्ञों के चाहे किसी झंडे-डंडे के तले हो, अंतर-मुखी परिचय की फोटों, सिर नवाये, आशीर्वाद देते हुए मिल जायेगी। इसका एक मात्र कारण यह है कि नेताओं के प्रभाव, आकर्षण व बड़ी संख्या में अनुयायियों के होने से बाबाओं को भी अपना साम्राज्य गरीब अनपढ़ जनता के बीच बढ़ाने का अवसर मिल जाता है। वहीं दूसरी ओर बाबाओं के अंधभक्तों की लम्बी चौड़ी फौज के कारण उनके वोट मिलने की उम्मीद में नेताओं की लाईन दर्शन, आशीर्वाद के लिए लगी रहती है। इस प्रकार नेता और बाबा दोनों परस्पर सहजीविता (सिम्बिऑसिस) के सिद्धांत के माध्यम से अपनी अपनी दुकाने चलाते रहते हैं।इसका सबसे बड़ा उदाहरण गुरमीत सिंह उर्फ राम रहीम का है, जहां राज्य सरकार से भारतीय दंड संहिता के सबसे कठोरतम अपराध में सजा भुगत रहे बाबा को बार-बार चुनाव के समय पैरोल, ‘फरलो’ मिल जाती है। बाबा व नेता एक दूसरे के लिए कितने ”पूरक” होते है, यह हाथरस की हाथरस की व्यथित कर देने वाली इस घटना से भी सिघ्द होता हैं, जहॉ किसी भी पार्टी के किसी भी राष्ट्रीय और महत्वपूर्ण नेता ने जनता के बीच सामने आकर बाबा की गिरफतारी की मांग स्पष्ट रूप से अभी तक नहीं की हैं, सिर्फ मायावती को छोड़कर। इसका भी कारण स्पष्ट है। दलित वोट बैंक में बाबा की घुसपैठ होने के कारण मायावती नहीं चाहती है कि उनके दलित बैंक में  किसी भी अन्य नेता या धार्मिक बाबा की सहभागिता व दखलंदाजी  हो। किसान नेता राकेश टिकैत ने तो बाबा की टीम को क्लीन चिट देते हुए घटना को मात्र ”हादसा” बता दिया। एसआईटी को यह नहीं दिखा कि बाबा के चरणों की "धूल" लोगों के जीवन की "राख" में परिवर्तित हो गई। हादसा का प्रारंभ तभी हुआ जब लोग बाबा के चरणों की धूल पाने "आव्हान" पर दौड़ पड़े। 

घटनाओं के बाद बयानवीरों के कथनों के सार। 

दुर्भाग्य वश इस तरह की हर हृदय विदारक घटनाएं/दुर्घटनाएं चाहे वह देश के किसी भी कोने में हो, चाहे शासन-प्रशासन कोई भी हो, घटनाओं के बाद की सामना करने की स्थितियां लगभग एक सी ही होती है। एक स्टीरियो टाइप, रटा रटाया बयान, कथन मुख्यमंत्री के पीड़ितों, भुक्तभोगियों व जनसामान्य के लिए ‘‘रामबाण दवा’’ समान सामने आ जाते हैं। जिनका सार आगे लिखा जा रहा है। आरोपी चाहे कितना ही बड़ा क्यों नहीं हो, उसे छोड़ा नहीं जायेगा। ढूंढ कर कटघरे में खड़ा किया जाएगा?,‘‘कड़ी से कड़ी’’ कार्रवाई कर अधिकतम सजा दिलाई जायेगी। घटना की उच्चस्तरीय जांच, मजिस्टेेट जांच, एसआईटी जांच, न्यायिक जांच करने की घोषणा कर दी जाती है। घटना के पीछे जो भी षड्यंत्रकारी है, उन्हें हर हालत में सामने लाया जाएगा। जवाबदेही तय की जावेगी। जांच प्रक्रिया चालू है। कानून अपना काम कर रहा है। मामला बेहद संवेदनशील है। राजनीति मत करो! यह समय राजनीति का नहीं है, बल्कि पीड़िता, भुक्तभोगियों के साथ खड़े होने का है। इस घटना के पीछे विपक्ष के ‘‘हाथ’’ की षडयंत्र की ‘बू’ आती है। समाज, देश को तोड़ने वाली शक्तियां घटना के पीछे है। संबंधित अफसर को निलंबित कर दिया गया है या लाईन अटैच कर दिया गया है, अथवा स्थानांतरण कर दिया गया है। मंत्री इस्तीफा नहीं देंगे। ऐसी प्रभावी नीति बनायी जाएगी कि घटना की पुनरावृत्ति नहीं हो। ‘मरहम’ के रूप में ‘‘मुआवजा’’ की भी घोषणा की जाती है, जो भुक्तभोगियों की आर्थिक परिस्थितियों को देखते हुए नहीं बल्कि राजनीतिक नफा-नुकसान की दृष्टि से की जाती है? नौकरी देने की घोषणा कर दी जाती है। इन सब कथनों के अलावा यदि आपको और कुछ पढ़ने, सुनने को मिलता है, तो मुझे जरूर बतलाइये, ताकि मैं अपनी ज्ञान वृद्धि जरुर कर सकूं। यह किसी एक घटना का प्रारूप नहीं है। बल्कि यह कश्मीर से से कन्याकुमारी तक और पूर्व से पश्चिम तक प्रत्येक राज्य में होने वाली घटनाओं का यह रूप व प्रारूप हमारे देश में व संविधान में पालनार्थ अलिखित लिखा जा चुका है। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने घटना के बाद के प्रबंधनों की कमजोरी की पोल खोल दी हैं। जैसे अस्पताल, ट्रॉमा सेंटर में व्यापक पूर्ण व्यवस्था का न होना, एम्बुलेंस की अत्यधिक कमी इत्यादि।

सूरजपाल आरोपी नहीं!क्यों? भोले व भले बाबा?

प्रस्तुत प्रकरण में ही दूसरों को राजनीति न करने की सलाह देने वाले स्वयं क्या राजनीति नही कर रहे हैं? मुख्य सेवादार व आयोजक देव प्रकाश मधुकर को मुख्य अभियुक्त बिना जांच के ‘प्राथमिकी’ में बना दिया जाता है। परंतु उसी आधार पर जिस ‘‘गुरु’’ का आरोपी सेवादार सेवक है, वो प्रमुख बाबा को प्रमुख अभियुक्त इसलिए अभी तक नहीं बनाया गया कि "कबूतर रूपी बाबा हमेशा राजनीति के कुएं को बसेरा बनाते हैं’’। बस ‘‘जांच चल रही है’’। जांच में तथ्य पाये जाने पर तदनुसार कार्रवाई की जाएगी? बाबा अपराधी नहीं है, तो वह घटनाओं के तुरंत बाद ‘‘गायब’’ क्यों हो गया है। चार दिन बाद अचानक मीडिया व वकील के माध्यम से जनता को संदेश देते हुए सामने आता है। तब भी वह  मृतकों के परिवारों को सांत्वना देने व उसके घायल अनुयायियों को देखने अस्पताल नहीं पहुंचा? क्यों? छः अपराधी 4 पुरुष व दो महिला सेवादार अभी तक गिरफ्तार की गई हैं। एसआईटी की जांच रिपोर्ट के बाद एक एसडीएम सहित 6 सरकारी मुलाजिम निलंबित जरूरकिए गए हैं। हास्यास्पद बात तो यह है कि घटना के जिम्मेदार ‘‘भोले बाबा’’ वास्तव मे उतने भोले नहीं है, जितना मीडिया को छोड़कर समस्त तंत्र राजनैतिक और पुलिस तंत्र सहित उसे "भोले व भले" बाबा बनाने व बतलाने का भरकम सफल प्रयास कर रहे हैं। उसका वकील उक्त घटना को सोची समझी "साजिश" बता रहे हैं। तारीफ की बात तो यह है कि बिना कोई साक्ष्य तथा तथ्य पाए, एसआईटी भी अपनी रिपोर्ट में इस संभावनाओं को नकार नहीं रही है। आरोपी बनाना तो दूर अभी तक सूरजपाल से किसी भी जांच एजेंसी ने पूछताछ करना तो दूर बातचीत करना भी मुनासिब नहीं समझा है? कारण स्पष्ट है! दलित जाटव जाति से बाबा का होना राजनीतिक दलों के लिए एक वोट बैंक है! एक तथ्य यह भी है कि वर्तमान में बाबा के खिलाफ 5 आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं। परंतु कारवाई शायद टन-टन गोपाल ?

 आम सामान्य प्रचलित धारणा (परसेप्शन) के विपरीत कारवाई? 

देश की वर्तमान  विद्यमान राजनीति एक्शन के बजाय परसेप्शन पर ज्यादा निर्भर हो कर चलती है। परंतु हाथरस घटना को लेकर बाबा के मामले में तो पुलिस प्रशासन उल्ट ही कार्रवाई कर रहा है। परसेप्शन के विपरीत तथाकथित एक्शन बल्कि इन-एक्शन को तकनीकी रूप से तरहीज दे रहा है। सेवादारों को "आयोजको की श्रेणी" में डालकर उन्हें  बाबा से पृथक कर उनके द्वारा बाबा को धार्मिक समागम के मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया जाकर भोले बाबा को निर्दोष तय करने की पूरी स्थिति न केवल निर्मित कर दी है, बल्कि  बाबा की निर्दोषता को फुल प्रूफ सिद्ध करने के लिए शायद आगे आरोपी सेवादारों के विरुद्ध बाबा को ही एक गवाह भी बना दिया जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए और आश्चर्य इस बात के लिए भी नहीं होना चाहिए की एक ओर जब  दिल्ली शराब कांड में देश के इतिहास में पहली बार किसी राजनीतिक पार्टी को लीगल एंटिटी के रूप में  प्रवर्तन  निदेशालय अभियुक्त बना रही हो, वहीं दूसरी तरफ भोले  बाबा जिसके नाम से,  मुखेटे से, जिसके द्वारा सब कुछ संपूर्ण समागम कार्यक्रम संपन्न होता हैl जहां पत्ता भी बाबा के बिगर न हिलता हो, उस बाबा के अलौकिक प्रभा मंडल से प्रभावित होकर एसआईटी भी एक लीगल एंटिटी के समान बाबा का भक्त अंध नहीं? बनकर  बाबा को निर्दोष  बता कर अपनी भक्ति को  सिद्ध कर रही है, यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा?

स्थानीय जांच एजेंसीज का असफल होना।  

80 हजार लोगों की अनुमति के साथ 2.5 लाख से अधिक धार्मिक जनता के सत्संग में आने की कोई पूर्व सूचना (इनपुट) आई.बी., एल.आई.यू (स्थानीय अधिसूचना इकाई) व अन्य जांच एजेंसीज को न होना, क्या पुलिस प्रशासन का बुरी तरह से असफल होना नहीं है? ऐसी असफलता इस तरह की घटनाओं के साथ हमेशा अंतनिर्हित पायी जाती रही है, जो एक मूल कारण भी रही हैं। न मीडिया को पता, न जांच एजेंसियों को, लगता है, ‘‘कुंए में ही भांग पड़ी है’’। देश की ‘‘कूपमंडूकता’’ का यह घटना एक वीभत्स उदाहरण है।  इतनी बड़ी ‘‘वारदात’’, जिसे पुलिस प्रशासन ने "हादसा" करार कर दिया है, होने के बावजूद आज भी बाबा के निवास के घर की चौखट पर अंधविश्वासी अंधभक्त लोग "मत्था टेकने" जा रहे हैं, क्यों? भगवद गीता को पढ़िए, मनन चिंतन  कीजिए और जीवन में  उतारने का प्रयास कीजिए आध्यात्म और कर्मकांड दोनों से आप युक्त होंगे और पाखंड से मुक्त होंगे।

गुरुवार, 11 जुलाई 2024

‘मध्य प्रदेश! अजब-गजब प्रदेश का अजीबोगरीब शपथ ग्रहण!’


‘‘लोकतांत्रिक अजूबा।’’

वर्ष 1990 से विजयपुर विधानसभा से छह बार कांग्रेस पार्टी से बने विधायक और दो बार लोकसभा तथा दो बार विधानसभा का चुनाव लड़कर हार चुके ग्वालियर-चंबल संभाग के कांग्रेस के कद्दावर नेता राम निवास रावत मध्य प्रदेश के ही नहीं, बल्कि देश की लोकतांत्रिक राजनीति के ‘‘ऐतिहासिक महापुरुष’’ बन गये हैं।  आज के युग में हर व्यक्ति के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में कुछ भी अजूबा होने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है। शायद इसीलिए ‘‘अजूबा’’ होने के बाद भी ‘‘आश्चर्य’’ नहीं कहलाता है, क्योंकि हमारा मन, बुद्धि उस अजूबे के प्रति कुछ न कुछ तैयार अवश्य रहता है, इस सोच के साथ कि ‘‘अजब तेरी कुदरत अजब तेरे खेल’’ यानी अपवाद इस सृष्टि का एक अभिन्न अंग है। लोकतंत्र में भी अपवाद होते हैं, परन्तु ये अपवाद भी संवैधानिक मान्यताओं व प्रथा, परिपाटियों व रिवाजों के अधीन ही होते हैं। लेकिन रामनिवास रावत को मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव की भाजपा सरकार में मंत्री पद की शपथ दिला कर मंत्रिमंडल में शामिल कर निश्चित रूप से एक ऐसा अजूबा हुआ है, जो ‘‘न तो भूतो न भविष्यति है’’ और न ही ऐसी कल्पना भी दूर-दूर तक की जा सकती है।

दोबारा शपथ: अभूतपूर्व। एकमात्र उदाहरण।

दूसरी पार्टीयों से विधायक तोड़कर इस्तीफा दिलाकर अपनी पार्टी में शामिल कराना और फिर शपथ दिला कर मंत्रिमंडल में शामिल करना एक असमान्य व नैतिक रूप से अलोकतांत्रिक होते भी हमारे देश की यह एक ’‘सामान्य प्रक्रिया’’ बनते जा रही है। फिर चाहे मंत्रिमंडल ‘‘शिवजी की बारात’’ ही क्यों न बन जाये, परन्तु राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त पार्टी मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस का सदस्य होते हुए पार्टी और विधायकि से इस्तीफा दिये बिना शपथ दिलाना निश्चित रूप से अभूतपूर्व होकर अकल्पनीय है और इस अभूतपूर्व पर ‘‘सोने पे सुहागा’’ तब और हो गया जब ’‘माननीय’’ को मात्र 15 मिनट के पश्चात फिर दूसरी बार शपथ लेनी पडी। सुबह 09.03 मिनट पर रामनिवास रावत ने त्रुटि वश हुई मानवीय भूल के कारण ‘‘राज्यमंत्री’’ की शपथ ली और तत्पश्चात भूल सुधारते हुए 9.18 बजे ‘‘केबिनेट मंत्री’’ की शपथ ली। इस प्रकार रामनिवास रावत का कांग्रेस विधायक के रूप में भाजपा सरकार में शपथ वह भी दो बार, स्वतंत्र भारत की पहली अजूबी घटना होकर मध्य प्रदेश को ‘‘अजब-गजब’’ की श्रेणी में रखने का एक पुख्ता कदम है?

विधायिकी से शपथ पूर्व इस्तीफा क्यों नहीं?

प्रश्न व जिज्ञासा की बात यह है कि इसी बीच क्या रामनिवास रावत ने राज्य मंत्री पद से इस्तीफा दिया था? इसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं है। राज्यपाल ने त्रुटि संज्ञान में आने के बाद उक्त क्या शपथ को अवैध घोषित किया? या शून्य मान ली गई? यदि ऐसा नहीं, तो फिर 9.03 बजे शपथ दिलाने के बाद क्या माननीय मुख्यमंत्री ने महामहिम राज्यपाल से यह लिखित अनुरोध किया कि रामनिवास रावत को कैबिनेट मंत्री बनाया गया है, इसलिए उन्हें उक्त पद की शपथ दिलाई जाये? उक्त बिंदु फिलहाल भविष्य के गर्भ में ही है, जब तक इसका स्पष्टीकरण ‘‘राजभवन’’ या मुख्यमंत्री से नहीं आ जाता है। मंत्री पद की शपथ लेने के बाद रामनिवास रावत ने विधायक पद से इस्तीफा दे दिया है। बल्कि कुछ क्षेत्रों से तो यह खबर भी चलवाई जा रही है कि रामनिवास रावत ने इस्तीफा शपथ ग्रहण करने के पूर्व ही दे दिया था? इसका भी खुलासा माननीय स्पीकर की कार्रवाई से ही स्पष्ट होगा।  तथापि भाजपा ज्वाइन करते समय  प्रेस से चर्चा करते हुए एक पत्रकार द्वारा यह प्रश्न पूछे जाने पर वे विधायक पद से कब इस्तीफा देंगे, के जवाब में रामनिवास रावत ने कहा था कि जब भी मैं  विधायक पद से इस्तीफा दूंगा आपको बुलाकर बतलाऊंगा? लेकिन ऐसा अभी तक उनकी तरफ से नहीं हुआ है।

अनुभव का फायदा।

राजनीति में अनुभव का बहुत महत्व होता है, जो कई बार वक्त पर काम आता है। रामनिवास रावत के छह बार विधायक चुने जाने की तुलना में तीन बार के चुने गए छिंदवाड़ा जिले की अमरवाड़ा विधानसभा क्षेत्र के कांग्रेस के विधायक कमलेश शाह के लोकसभा चुनाव के समय कांग्रेस और विधानसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल होना रामनिवास रावत की तुलना में उनकी अनुभवहीनता को ही दिखलाता है। इसीलिए अभी हो रहे उपचुनाव में वे भाजपा के उम्मीदवार बनकर चुनाव लड़ रहे हैं, बावजूद इसके शायद आचार संहिता के चलते उन्हें मंत्री नहीं बनाया जा सका। जबकि कमलेश शाह को भी रामनिवास रावत के साथ मंत्री बनाए जाने की अपुष्ट खबरें थी। यह उनकी अनुभवहीनता ही थी कि उन्होने  कांग्रेस से इस्तीफा देते रामनिवास रावत के समान इस तरह का पक्का सौदा भाजपा से नहीं किया? इस प्रकार ‘अनुभव’ का फायदा उठाते 68 दिन पूर्व भाजपा जॉइन करते समय इस्तीफा न देकर राम निवास रावत ’कांग्रेसी’ होकर भी मंत्री पद पा गए। यदि कमलेश शाह; रामनिवास रावत समान विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने की जल्दबाजी नहीं करते, तो शायद वे भी मंत्री पद पा लेते?

1967 की ‘‘संयुक्त विधायक दल’’ (एस.वी.डी.) सरकार की पुनरावृति?

हालांकि ‘‘खलक का हलक’’ बंद नहीं किया जा सकता, लेकिन आश्चर्य इस बात का होता है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी ने इस शपथ का तीखा विरोध क्यों किया? जब वे स्वयं यह कह रहे हों कि ‘‘कांग्रेस विधायक’’’ को मंत्री पद की शपथ दिला दी। तो वे यह क्यों नहीं मान लेते है कि भाजपा की सरकार 1967 की संयुक्त विधायक दल की सरकार के समान परिवर्तित हो गई है। तब अंतर सिर्फ इतना ही था कि ‘‘कांग्रेस’’ की जगह वहां ‘‘दल बदलू कांग्रेसी’’ ‘‘जनसंघ’’ के साथ सरकार में शामिल थे। अब सरकार में भाजपा व कांग्रेस (तकनीकी रूप से शपथ ग्रहण करने के समय तक रामनिवास रावत कांग्रेस के विधायक ही थे) दोनों शामिल है, जिसे जीतू पटवारी देश में राष्ट्रीय आम सहमति बनाने के लिए एक उठाया गया अनोखा कदम क्यों नहीं ठहरा देते हैं? इसलिए जीतू पटवारी को इस बात पर मुख्यमंत्री को धन्यवाद देना व बधाई देनी चाहिए कि बिना उनके अनुरोध व अनुनय-विनय के कांग्रेसी रावत को मंत्रिमंडल में शामिल किया। जबकि केंद्र में कांग्रेस की लोकसभा उपाध्यक्ष पद की मांग लगातार आवाज उठाने के बावजूद मानी नहीं गई। क्या जीतू पटवारी की नाराजगी और ‘‘अंगारों पर लोटने’’ का कारण यह तो नहीं है कि उनको मंत्री नहीं बनाया गया? 

पटवारी के विधानसभा अध्यक्ष पर आरोप गलत?

पटवारी का यह कथन गलत है कि विधानसभा अध्यक्ष व राज्यपाल ने ‘‘कर्तव्य पालन’’ और ‘‘लोकतंत्र की परंपराओं’’ का पालन नहीं किया है। जीतू पटवारी कृपया यह बतलाने का कष्ट करें कि 30 अप्रैल को रामनिवास रावत के कांग्रेस का ’हाथ’ छोड़कर भाजपा के ’राम’ होने के बाद उनकी सदन की सदस्यता समाप्त करने के लिए विधानसभा अध्यक्ष के समक्ष याचिका कब दायर की गई? पटवारी जी, अयोग्यता की कार्रवाई करने में दूसरे पक्ष को भी सुनना अनिवार्य है, जिसके लिए नोटिस जारी किया जाता है। यह कोई ‘‘आधी रोटी में दाल झेलना नहीं है’’। इस संपूर्ण पूरी कार्रवाई में कुछ समय अवश्य लगता है। महाराष्ट्र का उदाहरण आपके सामने है, जहां 1 साल से भी ज्यादा समय स्पीकर को सुनवाई में लगा। इसलिए अध्यक्ष पर लगाया गया आरोप समय पूर्व (प्रीमेच्योर) है।

व्हिप का उल्लंघन नहीं? 

एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि विधानसभा के इस मानसून सत्र में रामनिवास रावत ने भाग नहीं लिया, जिससे यह पता लग जाता कि सदन में उनके बैठने की व्यवस्था अध्यक्ष ने कहां निर्धारित की है? इसके अतिरिक्त जब तक व्हिप का उल्लंघन न हो, विधायक की सदस्यता समाप्त नहीं होती है और प्रस्तुत प्रकरण में रामनिवास रावत द्वारा कोई भी व्हिप का उल्लंघन का नहीं किया गया है, क्योंकि वास्तव में कोई व्हिप अभी तक जारी ही नहीं किया गया है। स्वयं कांग्रेस के विधायक और विपक्ष के उपनेता हेमंत कटारे ने यह कथन किया है की विधानसभा अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर ने अभी तक नियमों के विपरीत जाकर कोई काम नहीं किया है और इसलिए स्पीकर की कुर्सी पर आरोप लगाना अच्छी परंपरा नहीं है आज की इस गंदी अस्वीकारिता की राजनीति में ऐसी साफ़गोई के लिए भी हेमंत कटारे का धन्यवाद जरूर किया जाना चाहिए।

मंगलवार, 9 जुलाई 2024

राष्ट्रपति’’ का नरेन्द्र मोदी को सरकार बनाने के लिए निमंत्रण क्या ‘‘तकनीकि त्रुटि’’ है?


एनडीए को स्पष्ट बहुमत।

लोकसभा के चुनाव परिणाम आए हुए 1 महीने हो चुके हैं। 4 जून 2024 को लोकसभा के आम चुनाव के परिणाम आने के बाद स्थिति पूरी तरह से स्पष्ट हो चुकी थी कि, चुनाव पूर्व बने दो महत्वपूर्ण गठबंधनों में से एक ‘‘एनडीए’’ को 293 सांसदों का स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ। वहीं दूसरे गठबंधन ‘‘इंडिया’’ को 233 सीटें हीं मिली एवं बहुमत से वह कुछ दूर रहा। कहते हैं न कि ‘‘कर्ता से करतार हारे’’, परन्तु देश को एक मजबूत विपक्ष जरूर मिला। एक-दो दिन की राजनैतिक कयासों व अटकलों के बीच यह स्पष्ट हो गया था कि चुनाव पूर्व बने गठबंधन मजबूत है और गठबंधन दलों से कोई भी पार्टी बाहर आकर दूसरे गठबंधन के पक्ष में नहीं जा रही है। इसलिए जहां तक एनडीए के बहुमत का सवाल है, इस पर कोई प्रश्नवाचक चिन्ह न तो तथ्यात्मक रूप से कभी था और न ही मजबूत विपक्ष ने ऐसा कोई आरोप लगाया। जो इस तथ्य से भी सिद्ध होता है कि ‘इंडिया’ ने सरकार बनाने का दावा पेश ही नहीं किया था। यद्यपि ‘‘कस्तूरी की गंध सुगंध की मोहताज नहीं होती है’’, इसलिए एनडीए के चुने गये नेता के रूप में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाना प्रथम दृष्ट्यिा पूर्णतः संवैधानिक, वैधानिक व तथ्यात्मक दिखता है। परंतु पिछले कुछ दिनों से राष्ट्रपति के नरेन्द्र मोदी को सरकार बनाने को लेकर कुछ प्रश्नवाचक चिन्ह सोशल मीडिया में एस.एन. साहू पूर्व विशेष सचिव पूर्व राष्ट्रपति के.आर. नारायण का वायरल होता लेख द्वारा उठाये जा रहे हैं। उनमें से एक बहुत बड़ा कारण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भारतीय जनता पार्टी के 240 सदस्यीय संसदीय दल का अधिकृत रूप से नेता न चुना जाना और राष्ट्रपति द्वारा सरकार गठन का निमंत्रण देते समय उन्हें तय समय सीमा में बहुमत सिद्ध करने के लिए न कहना। आइये! आगे इसकी संवैधानिक व्याख्या करते हैं। 

त्रुटि ! तकनीकि अथवा संवैधानिक?

निश्चित रूप से हमारी संसदीय परम्पराएं, नियम व जो संवैधानिक व्यवस्था है, इसके अंतर्गत चुनाव परिणाम आने के बाद समस्त राजनीतिक पार्टियां अपने नवनिर्वाचित सांसदों की बैठक बुलाकर संसदीय दल के नेता का चुनाव करती हैं। तत्पश्चात ही सबसे बडी पार्टी जिसका चुना हुआ नेता गठबंधन के अन्य दलों के समर्थन से समर्थन पत्र के माध्यम से या गठबंधन दल की संयुक्त बैठक में नेता चुना जाकर सरकार बनाने का दावा प्रस्तुत करता है। परन्तु वर्तमान में संसदीय दल का नेता चुने जाने के लिए भाजपा की नव निर्वाचित सांसदों की बैठक ही नहीं हुई। यह सरकार के गठन से जुड़ी एक स्पष्ट अनिवार्यता है। शायद इसीलिए  नरेन्द्र मोदी क्या अधिकृत रूप से नेता भाजपा संसदीय दल के चुने गये? यह प्रश्न सोशल मीडिया में उठाया जा रहा है, जो निश्चित रूप से एक त्रुटि प्रथम दृष्टया दिखती है, कि ‘‘कथा बिना कैसा व्रत’’, । परन्तु प्रश्न यह है कि यह त्रुटि कितनी गंभीर है? संवैधानिक है? या वर्तमान राजनैतिक परिणाम, परिस्थितियों व परिवेश को देखते हुए जानबूझकर की गई है? अथवा अनजाने में हुई है? इस पर गहनता से विचार करना होगा।

संसदीय परम्पराएं एवं पूर्व नजीरे।

इस संबंध में पूर्व राष्ट्रपति के. आर. नारायण व रामास्वामी वेंकटरमन का उदाहरण दिया जा रहा है, जिसका उल्लेख ‘‘कयामत की नजर रखने वाले’’ पूर्व राष्ट्रपति के आर. नारायण के पूर्व विशेष सचिव एस. एन. साहू ने अपने एक लेख में किया है, जो सोशल मीडिया में वायरल हो रहा है। आइये! हम देखते है तत्समय उन दोनों महामहिमों ने क्या किया था। इस संबंध में हमारी पूर्व नजीरें, मिसालें, रिवाज क्या रहे? क्योंकि ‘‘हाथ की नस को हाथ से ही टटोला जाता है’’। पूर्व राष्ट्रपति रामस्वामी वेंकटरमन ने वर्ष 1989 के आम चुनाव में कांग्रेस को सबसे बड़ी पार्टी 194 सदस्य होने के बावजूद सरकार बनाने के लिए निमत्रंण इसलिए नहीं दिया था कि उन्होंने सरकार बनाने का दावा ही पेश नहीं किया था। तब राष्ट्रपति द्वारा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी/ग्रुप के नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह को सरकार बनाने का निमत्रंण देते हुए 30 दिवस में बहुमत साबित करने के निर्देश दिये थे।

वर्ष 1996 के चुनाव में भाजपा के सबसे बड़ी पार्टी 161 सदस्यों के कारण व 146 सदस्यीय कांग्रेस के द्वारा दावा न करने से तत्कालीन राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा ने भाजपा संसदीय दल के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का निमत्रंण दिया था, जो सरकार 13 दिन में बहुमत सिद्ध न कर पाने के कारण गिर गई। 

वर्ष 1998 में पूर्व राष्ट्रपति के. आर. नारायणन  ने सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने के लिए निमत्रिंत किया था, बावजूद इस तथ्य के कि चुनाव पूर्व ग्रुप या गठबंधन (एनडीए) को बहुमत नहीं मिला था (मात्र 182 सीट मिली थी)। तथापि निश्चित समय सीमा में बहुमत सिद्ध करने का निर्देश जरूर दिया गया था। अर्थात् उपरोक्त उल्लेखित दोनों परिस्थितियों में सरकार बनाने का निमत्रंण देने के साथ ही तय समय सीमा में बहुमत सिद्ध करने के निर्देश जरूर दिये गये थे, जिनका पालन भी हुआ था। परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में बहुमत सिद्ध करने का निर्देश न देने का सबसे बड़ा आधार यह कि चुनाव पूर्व गठबंधन एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिला है, जहां राष्ट्रपति उस बहुमत के प्रति पूर्णत: संतुष्ट थे जिसे पक्ष-विपक्ष सहित किसी ने भी चुनौती नहीं दी थी। अतः बहुमत सिद्ध करने के उक्त निर्देश देने की स्थिति किसी भी रूप में उत्पन्न नहीं होती है। यहां यह उल्लेखनीय है कि अटल बिहारी वाजपेयी को बहुमत सिद्ध करने का निर्देश तब दिया गया था, जब चुनाव में उन्हें स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। इसलिए सबसे बड़ी पार्टी के रूप में निमत्रिंत करते हुए बहुमत सिद्ध करने के निर्देश दिये थे, जो संवैधानिक व उचित थे। राष्ट्रपति द्वारा निर्णय के पीछे के तर्कों को पूर्व परिपाटी अनुसार सार्वजनिक न करना?

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि दोनों ही स्थितियों में पूर्व राष्ट्रपतियों ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर अपने निर्णय के पीछे तर्कों व कारणों से देश के नागरिकों को अवगत कराया था। परन्तु वर्तमान में महामहिम ने ऐसा नहीं किया, क्यों? क्या इसलिए तो नहीं कि ‘‘तकल्लुफ में है तकलीफ सरासर’’?

राज्यसभा सदस्य या किसी भी सदन का सदस्य न होने पर संवैधानिक स्थिति। 

एक स्थिति ऐसी भी हो सकती है बल्कि पूर्व में हुई भी है, जब राज्यसभा के सदस्य डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई थी। तब मनमोहन सिंह राज्यसभा के सदस्य होने के कारण नव निर्वाचित लोकसभा के संसदीय दल का नेता  कदापि नहीं हो सकते थे। तथापि नव निर्वाचित सांसदों की बैठक बुलाकर नेता का चुनाव इसलिए किया जाता है ताकि वह नेता पक्ष (लोकसभा) होगा, जिस प्रकार नेता विपक्ष होता है। अतः राज्यसभा सदस्य को प्रधानमंत्री के रूप में दावा पेश करने के लिए सिर्फ बहुमत का लिखित में समर्थन का दावा प्रस्तुत करना ही काफी है। एक स्थिति और भी हो सकती है, जब वह किसी भी सदन का सदस्य न हो, तब भी वह प्रधानमंत्री पद के लिए दावा पेश कर सकता है, यदि उसके पास आवश्यक बहुमत है। तथापि छः महीने के अंदर उसका किसी भी सदन का सदस्य चुना जाना आवश्यक होगा। संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति की सहायता व सलाह के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक मंत्रिपरिषद होगी। अनुच्छेद 75 के अनुसार प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी तथा अन्य मंत्रियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जायेगी। मतलब प्रधानमंत्री का ‘‘चुनाव’’ नहीं ‘‘नियुक्ति’’ होती है। दूसरे शब्दों में ‘‘मोल कमर का होता है, तलवार का नहीं’’। अनुच्छेद 75 (2) के अनुसार मंत्रिपरिषद जिसका मुखिया प्रधानमंत्री होता हैं, लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होगी। अर्थात प्रधानमंत्री को संसद में बहुमत सिद्ध करना होगा। चूंकि वर्तमान में ऐसा निर्देश नहीं दिया गया है, इसलिए यह चूक कहीं महत्वपूर्ण तो नहीं है? यह देखना होगा।

शनिवार, 29 जून 2024

विकसित भारत का सफलतम ‘‘बैरोमीटर’’! पेपर लीक?

 ‘‘पेपर’’ के ‘‘कायदे ही कायदे’’! ‘‘वायदे ही वायदे’’।  ‘‘लीक’’ के ‘‘फायदे ही फायदे’’?

लोकतांत्रिक भारत।’

निसंदेह भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। परतंत्रता से मुक्त होकर ‘‘अविकसित’’ राष्ट्र से विकास की ओर कदम बढ़ाते हुए ‘‘विकासशील’’ देश होकर वर्ष 2047 तक ‘‘विकसित’’ राष्ट्र बनाने का लक्ष्य प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने रखा हुआ है। 26 जनवरी 1950 को हमारी स्वनिर्मित भारतीय संविधान द्वारा स्थापित लोकतंत्र की सफलता का ही यह एक अद्भुत क्षण है, जब 18 वें लोकसभा के पहले सत्र का ‘‘आगाज’’ 24 जून को हुआ। ‘‘अंजाम’’ क्या होगा, यह भविष्य के गर्भ में है। परंतु 24 जून का आगाज उस 25 जून की काली तारीख के पूर्व हुआ है, जब इसी लोकतंत्र की आपातकाल लगाकर हत्या करने का प्रयास किया गया था। परंतु तब भी लोकतंत्र पूरी तरह मरा नहीं था। हां मरणासन्न स्थिति में जरूर चला गया था। चूंकि 26 जनवरी 1950 को लागू संविधान के द्वारा इस लोकतंत्र की जड़े इतनी मजबूत थी कि 25 जून 1975 को मरणासन स्थिति में पहुंचने के बाद वही लोकतंत्र स्वस्थ होकर मजबूत होकर पुनः खड़ा हो गया और आज आरोपों व प्रत्यारोपों के बीच सफलतापूर्वक चुनाव संपन्न करवा कर चमक-दमक के साथ चहक-दहक रहा है। स्वतंत्र भारत और लोकतंत्र का ‘‘गर्भनाल का संबंध’’ है, भला ‘‘उंगलियों से नाखून अलग हुए हैं कभी’’। इसीलिए राष्ट्रपति के अभिभाषण में आज यह कहा गया कि संविधान हमेशा ‘खरा’ उतरा है।

मजबूत होता लोकतंत्र?’

देश के लोकतंत्र को मजबूत करने में कई ‘‘खट्टे-मीठे’’ अनुभव एक नागरिक से लेकर चुने हुए जन-प्रतिनिधियों और संविधान द्वारा निर्मित समस्त ‘‘तंत्रों’’ को निश्चित रूप से हुए होंगें।  इसलिए कभी ‘‘नकारात्मकता’’ में भी ‘‘सकारात्मकता’’ का भाव देखने का प्रयास अवश्य करना चाहिये? क्योंकि हर नकारात्मक कदम में भी कभी कुछ सकारात्मक भाव होने से इंकार नहीं किया जा सकता है। जैसा कि बाबा राम रहीम के मामले में उन्हें 19 से अधिक मिले गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड एवं लिम्का रिकॉर्ड के सकारात्मक पहलू पर मैंने एक लेख लिखा था। देश का लोकतंत्र सिर्फ सकारात्मक कार्य, भाव से ही मजबूत नहीं होता है, बल्कि ऐसे नकारात्मक भाव जहां पर पक्ष विपक्ष दोनों की सहमति से लेकर कार्यशैली एक सी ही होती है, उससे भी लोकतंत्र मजबूत होता है? इसका सबसे बड़ा उदाहरण नीट पेपर लीक जो ‘‘कांड’’ नहीं एक ‘‘कदम’’ है, की चर्चा सिर्फ देश में ही नहीं, बल्कि विश्व व्यापी हो रही है, क्योंकि मामला लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए उठाए गए कदमों से है? अरे ‘‘इधर का सूरज उधर से उग जाये’’, तो इसमें हर्ज ही क्या है? यही तो लोकतंत्र की खूबसूरती है।

सर्वानुमति?

वैसे भारतीय लोकतंत्र में सहमति के मुद्दे कम ही होते हैं, अवसर भी कम ही आते हैं। सर्वानुमति का एक महत्वपूर्ण मुद्दा लोकसभा स्पीकर का निर्विरोध चुनाव का होना रहा है। परन्तु दुर्भाग्यवश वह बड़ी व जरूरी सर्वानुमति भी टूट गई और वर्ष 1976 के बाद 47 साल बाद 18वीं लोकसभा के स्पीकर का चुनाव मत विभाजन द्वारा हुआ है। यद्यपि स्वतंत्र भारत के संसदीय इतिहास में यह चौथा मौका है, जब स्पीकर का चुनाव हुआ है। तथापि 1952 के प्रथम लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव में दिलचस्प बात यह थी कि विपक्षी उम्मीदवार ने सत्तापक्ष के उम्मीदवार जी.वी. मावलंकर को अपना मत दिया था व वैसे ही (पारस्परिक) उम्मीद उनसे की गई थी। दूसरी बार वर्ष 1967 में संजीव नीलम रेड्डी का चुनाव हुआ। तीसरी बार वर्ष 1976 में आपातकाल में हुए चुनाव में विपक्षी उम्मीदवार जगन्नाथ राव जोशी जेल में थे। पेपर लीक का मामला एक ऐसा कार्य मुद्दा है, जिस पर पक्ष हो या विपक्ष, सत्ता हो या विरोधी, सब की गजब की ‘‘सर्वानुमति’’ इस मामले को लेकर रही है। क्योंकि ‘‘इस पेपर लीक की देवी ने बहुत से भक्त तारे हैं’’। वस्तुतः इस मामले में समस्त दल ‘‘एक ही थैली के चट्टे-बट्टे है’’। इसीलिए लोकतंत्र मजबूती से आज आपके सामने खड़ा है? बात जब ‘‘नीट’’ व ‘‘नेट’’ परीक्षा की आती है, तो आप इसकी आलोचना क्यों करते हैं? ‘‘नीट’’ (परीक्षा) का अर्थ ही होता है ‘‘स्वच्छ’’ व ‘‘नेट’’ (राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा) का अर्थ ‘‘शुद्ध’’। तो फिर उसकी बुराई करना या ‘‘उसे गंदा, अशुद्ध कार्य ठहरना’’ किसी भी रूप से उचित नहीं कहलाएगा? इसलिए ‘‘नीट को क्लीन चिट’’ देकर राजनीति को ‘‘क्लीन’’ कर दीजिए?

‘‘फायदा ही फायदा’’?

लोकतंत्र में पक्ष-विपक्ष दो पक्षों के समान ही पेपर लीक के मामलों में भी विद्यार्थियों के दो पक्ष है, जहां एक मत के अनुसार पेपर लीक उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। यदि आप पेपर लीक के फायदे को जान लेंगे, तब फिर आप यह भी समझ जाएंगे कि इससे लोकतंत्र कैसे मजबूत हो रहा है? आईये इन फायदों? को समझने का प्रयास करते हैं।

प्रथम, पेपर लीक सरकार के ‘‘सबका साथ सबका विकास सिद्धांत को मजबूत करता है’’। वह ऐसे कि कमजोर कम बुद्धि वाले छात्र और बुद्धिमान छात्र दोनों का बराबर विकास इसके माध्यम से हो जाता है? दूसरा फायदा, बच्चों को सिलेबस अच्छे से रट जाता है, क्योंकि लीक पेपर को उन्हें बार-बार रटना पड़ता है। तीसरा फायदा देश के विद्यार्थियों को केंद्रीय शिक्षा मंत्री की जानकारी हो जाती है, क्योंकि देश के विद्यार्थियों से सीधा संवाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘‘परीक्षा पे चर्चा’’ के माध्यम से तो जरूर करते हैं। परन्तु शिक्षा मंत्री सामने नहीं आते हैं। अगला फायदा सरकार के खर्चों की बचत का होना है। क्योंकि पेपर लीक होने के बाद पूरी प्रक्रिया को फिर से पूरा करने में काफी समय गुजर जाता है और उतने समय तक सरकार वैधानिक रूप से बेरोजगारों को नौकरी देने से वंचित करने में सक्षम हो जाती है।

पेपर लीक से अगला फायदा ‘‘स्वरोजगार’’ को बढ़ावा मिलना भी है। जैसे ‘‘पकोड़ा बेचना’’ जिसका उदाहरण वर्ष 2018 में प्रधानमंत्री ने एक टीवी इंटरव्यू में दिया था। छोटे-छोटे कुटीर उद्योगों को भी फायदा मिलता है। पेपर लीक होने के कारण तुरंत नौकरी नहीं मिल पाने से जीवन यापन के लिए वैकल्पिक दूसरे रास्ते व्यापार उद्योग को चुनने की मजबूरी हो जाती है। मतलब यह कि ‘‘नौकरी छोकरी की छोड़ आस, धर खुरपा गढ़ घास’’। इस प्रकार देश का बेरोजगार युवा मजबूरी में ही सही, देश के व्यावसायिक प्रगति (ग्रोथ) में अपना योगदान देता है। ‘‘अंधे पीसे कुत्ते खाय’’ रूपी पेपर लीक ‘‘फिनॉमिनन’’ का एक योगदान प्रिंटिंग प्रेस उद्योग को भी होता है, क्योंकि पेपर बार-बार छापना पड़ता है। साथ ही पेपर के आवागमन के आउटसोर्स साधनों को भी आर्थिक मदद मिल जाती है। होटल उद्योग, समस्त प्रकार के परिवहन उद्योग की तो ‘‘चांदी’’ हो जाती है, क्योंकि पेपर लीक होने पर बार-बार छात्रों को ही नहीं उनके अभिभावकों को भी दूरस्थ पेपर सेंटरों में पेपर देने जाना होता है। यानी कि पेपर लीक अब ‘‘अकल आसरे कमाई की बजाय नकल आसरे कमाई’’ का माध्यम बन गया है। मानसिक श्रम और तनाव के कारण चिकित्सा उद्योग को भी फायदा पेपर लीक से होता है।

इस पेपर लीक से सबसे बड़ा फायदा 4 फरवरी 2024 में संसद द्वारा पारित ‘‘एंटी पेपर लीक’’ कानून जो राष्ट्रपति के द्वारा स्वीकृति प्रदान करने के बावजूद अभी तक लागू नहीं किया गया था, को 22 जून को अधिसूचना जारी कर लागू कर दिया गया। इसका एक और गैरकानूनी फायदा लगभग 900 करोड़ (अभी तक) का काला धन एक तरफ खप गया तो दूसरी तरफ 900 करोड़ की काली (ब्लैक की) कमाई बेरोजगार छात्रों, नागरिकों के हो गई? इसका एक फायदा भविष्य में केंद्र और राज्य सरकारों को भी हो सकता है, यदि वे बेरोजगारी भत्ते देने वाले अपने नियमों में यह परिवर्तन कर दें कि जिन बेरोजगारों को पेपर लीकेज की काली कमाई हुई है, उन्हें भत्ता नहीं मिलेगा?

पेपर लीकः राजनीति चमकाना!

पेपर लीक का एक फायदा ‘‘नीति के कफन’’ पर ‘‘राजनीति चमकाने’’ का भी है। पेपर लीक होने से समस्त राजनैतिक दलों को चाहे सत्तापक्ष के हो या विपक्ष के ‘‘राजनीति चमकाने’’ का अवसर मिल ही जाता है। सत्ता पक्ष, विपक्ष पर यह प्रत्यारोप लगा कर राजनीति चमकाता है कि विपक्ष की सरकारों के कार्यकाल में इससे भी ज्यादा पेपर लीक व छात्र प्रभावित हुए हैं। बावजूद इसके जब विपक्ष यह सिद्ध कर देता है कि सत्तारूढ़ पार्टी के कार्यकालों में ही पेपर लीक के ज्यादा प्रकरण हुए है, तब सत्ता पक्ष दम ठोकर यह कह कर विपक्ष को चुप करा देता है कि देश की प्रगति में ‘‘हर मोर्चे पर’’ आप से आगे हम दिखते रहेंगे, निकलते रहेंगे? आखिरय ‘‘सत्ता और विपक्ष की चकाचौंध से दृष्टि बाधित युवक किसकी ओर उंगली उठाये’’।

पेपर लीक के बाद सरकार की अक्रमण्यता अथवा कार्रवाई से लगभग सम्पूर्ण छात्र वर्ग खुश हो जाता है। पेपर लीक के बाद जब सरकार छोटी-मोटी त्रुटि कहकर पेपर निरस्त नहीं करती है, तब ‘लीकेज’ से लाभार्थी छात्रगण खुश हो जाते हैं। विपरीत इसके जब सरकार पेपर रद्द करके फिर से परीक्षा की घोषणा करती है, तब अधिकांश छात्रों का समूह ‘‘कभी खुशी कभी गम’’ की स्थिति में रहता है। खुशी इस बात की कि कमजोर छात्रों द्वारा पेपर लीक करके श्रेणी न पाये छात्रों का श्रेणी प्राप्त करने वाले मेधावी छात्रों का हक वापिस मिलने का अवसर मिलता है। तो वहीं दूसरी ओर उन्हें पुनः आवश्यक रूप से दूसरी बार परीक्षा की कड़ी मेहनत करने की स्थिति से गुजरना होता है, जो लादे हुए अतिरिक्त श्रम के कारण उनकी गम की स्थिति हो जाती है।

’एनटीए जिंदाबाद।  

मेरा भारत महान।’

विश्व ‘‘सिकल सेल’’ दिवसः 19 जून 2024।

शासन द्वारा महत्व!

मध्य प्रदेश के डिंडौरी में इस अंतराष्ट्रीय दिवस पर आयोजित राज्य स्तरीय कार्यक्रम में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने राज्यपाल मंगू भाई पटेल, मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव एवं अन्य मंत्रियों की उपस्थिति में कहा है कि ‘‘भारतीय प्रजातंत्र में जनजाति का स्थान रीढ़ की हड्डी के बराबर है। जनजाति ही भारतीय संस्कृति और प्रजातंत्र को बल देता है’’। ‘‘2047 में विकसित भारत की पहचान होगा, सिकल सेल का पूर्ण उन्मूलन’’। ‘‘हवन शुरू हो गया है, पूर्ण आहूति 2047 में हो जायेगी’’। महामहिम उपराष्ट्रपति के उक्त कार्यक्रम में भागीदारी से यह बात स्पष्ट रूप से रेखांकित होती है कि सरकार इस रोग के उन्मूलन के प्रति कितनी गंभीर है। आइये! पहले यह जान लेते है कि यह भयावक बीमारी वास्तव में है क्या? 

सिकल सेल बीमारी है क्या?

‘‘सिकल सेल’’ एक जेनेटिक बीमारी है, जो माता-पिता से बच्चों में आती है। इस बीमारी में रेड ब्लड सेल्स में ऑक्सीजन की कमी हो जाने से ‘‘सेल’’ का आकार गोल न बनकर आधे चांद या फिर हंसिए की तरह नजर आता है। इसलिए इसे ‘‘सिकल (हंसिया) सेल’’ कहते हैं। इसके चलते बच्चे की ग्रोथ पर असर पड़ता है। साथ ही दूसरे बच्चों की तुलना में इम्युनिटी भी कमजोर होती है। अतः सिकल सेल रोग एक घातक आनुवंशिक रक्त विकार हैं। इससे शरीर का खून सूख जाता है। हल्की पीलिया होने से बच्चे का शरीर पीला दिखाई देना, तिल्ली का बढ़ जाना, पेट एवं छाती में दर्द होना, सांस लेने में तकलीफ, हड्डियों एवं जोड़ों में विकृतियां होना, पैरों में अल्सर घाव होना, हड्डियों और जोड़ों में सूजन के साथ अत्यधिक दर्द, मौसम बदलने पर बीमार पढ़ना, अधिक थकान होना यह लक्षण बताए गए हैं। इससे दर्द, एनीमिया, संक्रमण आदि समस्याएं हो सकती हैं। इसके प्रकार है; सिकल हीमोग्लोबिन, सिकल बी प्लस थैलेसीमिया और सिकल बीटा-शून्य थैलेसीमिया। समय पर इस बीमारी का इलाज न कराया जाए, तो यह जानलेवा भी हो सकती है। इन्हीं सबके बारे में लोगों को जागरूक करने के मकसद से ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह दिन मनाया जाता है।

कब प्रारंभ हुई?

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 19 जून को विश्व सिकल सेल दिवस के रूप में मनाने के लिए दिसंबर 2008 में एक प्रस्ताव पारित किया था। इस दिवस पर प्रत्येक वर्ष अलग-अलग एक खास थीम रखी जाती है। वर्ष 2024 के लिए विश्व सिकल सेल दिवस का विषय है:प्रगति के माध्यम से आशाः विश्व स्तर पर सिकल सेल देखभाल को आगे बढ़ाना।

कार्य योजना की प्रगति। 

भारत में यह बीमारी खासतौर से छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पूर्वी गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिमी ओडिशा और उत्तरी तमिलनाडु में देखने को ज्यादा मिलती है। सिकलसेल एनीमिया आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में एक अहम स्वास्थ्य समस्या है। अतः इस बीमारी के प्रसार को रोकने के लिए समुदाय स्तर पर स्क्रीनिंग द्वारा रोगी की पहचान कर जेनेटिक काउंसलिंग एवं प्रबंधन करना अत्यंत आवश्यक है। मध्य प्रदेश में सिकलसेल एनीमिया की रोकथाम एवं उपचार के लिये 15 नवम्बर 2021 जनजातीय गौरव दिवस को ‘‘राज्य हिमोग्लोबिनोपैथी मिशन’’ का शुभारंभ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा इसी श्रृखंला में ‘‘विश्व सिकल सेल एनीमिया उन्मूलन’’ वर्ष 2023 में प्रधानमंत्री ने प्रारंभ किया था। इस मिशन में अलीराजपुर एवं झाबुआ जिलें में पायलट प्रोजेक्ट के तहत कुल 9 लाख 17 हजार जनसंख्या की स्क्रीनिंग की गयी। मध्य प्रदेश के 22 जिले इस रोग से प्रभावित है जहां अब तक 22 लाख 96 हजार जेनेटिक कार्ड वितरित किये जा चुके हैं। डिंडौरी जिले में सबसे ज्यादा 1970 मरीज है। 

कारण लक्षण एवं दुष्परिणाम। 

सामान्य रूप से यह कहा जाता है कि इस रोग के मूल में खान-पान, पानी, स्वच्छता की कमी होना है, जिसका सीधा संबंध गरीबी से है। शायद इसीलिए यह बीमारी जनजातीय (आदिवासियों) में ज्यादा पाई जाती है। परन्तु यदि गरीबी ही एकमात्र कारण होता, तो पिछड़े व सामान्य वर्गो के गरीब भी इस बीमारी से ग्रसित होते। परन्तु ऐसा है नहीं। अतः आवश्यकता है इस बात की है कि इस बीमारी के मूल में जाए, तभी प्रभावी इसकी रोक थाम की जा सकती है। साथ ही इस बीमारी से पीड़ित, ग्रसित वर्ग के साथ-साथ ‘वृहत’ समाज के बीच जागरूकता फैलाने के लिए कोई ‘हस्ती’ फिल्मी, खेल यह अन्य क्षेत्रों से जुड़े गणमान्य प्रसिद्ध व्यक्ति को ब्रांड एम्बेसडर बनाया जाना चाहिए। तब कम समय, शक्ति व खर्च में अधिकतम परिणाम निकाले जा सकते हैं। 

लाईलाज?

इस बीमारी का पता लगाने के लिए एवं खास तरह का ब्लड टेस्ट किया जाता है, जिसे इलैक्ट्रोफोरेसिस कहते है। सामान्यतया सिकल सेल रोग का कोई इलाज नहीं है। सिकल सेल रोग का एक उपचार अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण है, जो बहुत जटिल है।

2047 तक एससीडी के उन्मूलन के लिए सरकारी मिशन।

भारत सरकार ने 2047 तक सिकल सेल रोग (एससीडी) को खत्म करने का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 1 जुलाई 2023 को मध्य प्रदेश के शहडोल में राष्ट्रीय सिकल सेल एनीमिया उन्मूलन मिशन शुरू किया। राष्ट्रीय सिकल सेल एनीमिया उन्मूलन मिशन, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन का हिस्सा है। आयुष्मान भारत योजना में संशोधन करके सिकल सेल को भी इसमें शामिल कर दिया गया है।

राष्ट्रीय सिकल सेल एनीमिया उन्मूलन मिशन का फोकस क्षेत्र।

राष्ट्रीय सिकल सेल एनीमिया उन्मूलन मिशन 17 राज्यों के आदिवासी बहुल जिलों पर केंद्रित है, जहां इस बीमारी का प्रसार सबसे अधिक है। मिशन का लक्ष्य प्रभावित आदिवासी क्षेत्रों में 0-40 वर्ष के आयु वर्ग के 7 करोड़ लोगों में जागरूकता पैदा करना और सार्वभौमिक जांच करना है। सिकल सेल रोग झारखंड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिमी ओडिशा, पूर्वी गुजरात और उत्तरी तमिलनाडु और केरल में नीलगिरि पहाड़ियों के इलाकों में अधिक प्रचलित है।

मंगलवार, 11 जून 2024

‘‘माता’’ के दास ‘‘दुर्गा दास’’।

सिर्फ इतिहास ‘‘दोहराया’’ ही नहीं, बल्कि ‘‘बनाया’’ भी है।

बैतूल-हरदा-हरसूद लोकसभा क्षेत्र से पहले से अधिक मतों से विजयी सांसद दुर्गा दास उईके को सिर्फ एक मतदाता व नागरिक की हैसियत से ही नहीं, बल्कि गायत्री शक्तिपीठ, बैतूल के ट्रस्टी की दृष्टि से भी हृदय की गहराइयों से खूब आत्मिक बधाइयां व जनता का हार्दिक आभार! ‘‘जब मन में सफलता का संकल्प होता है, तब ईमानदारी से परिश्रम ही विकल्प होता है’’।  माता गायत्री के अनन्य भक्त, सेवक और गायत्री परिवार की टोली के महत्वपूर्ण सदस्य दुर्गादास उईके को परम पूज्य गुरुदेव और वंदनीय माताजी के आशीर्वाद के साथ जनता के आशीर्वाद से इस संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने का फिर से अवसर प्राप्त हुआ है। मुझे नामांकन भरने के पूर्व और मतगणना प्रारंभ होने के पूर्व के वे क्षण याद आते हैं, जब मेरी उनसे बात हुई थी। तब मैंने यही कहा था कि ईश्वर ने आपके लिए बहुत अच्छा मौका लाया है। कमजोर विपक्ष होने से पिछले मतों से ज्यादा जीतने पर आपको केंद्र मे मंत्री पद मिल सकता है और आप इतिहास रच सकते हैं। वे कथन आज अक्षरशः सत्य सिद्ध हुए हैं।

कुछ व्यक्ति इतिहास रचते हैं, तो कुछ इतिहास दोहराते हैं। लेकिन बहुत कम अवसर ऐसे आते हैं, जब एक ही व्यक्ति एक साथ इतिहास दोहराता भी है और रचता भी है। शिक्षक से सांसद बने दुर्गादास उईके बैतूल की माटी के ऐसे ही शख्स है, जिन्होंने न केवल इतिहास दोहराया, बल्कि नया इतिहास भी रचा दिया। वर्ष 1994 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के मंत्रिमंडल में बैतूल-हरदा संसदीय क्षेत्र के सांसद कांग्रेस के असलम शेर खान के बाद दुर्गादास उईके बैतूल लोकसभा के दूसरे सांसद हैं, जिन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में 30 वर्ष बाद प्रतिनिधित्व मिला। असलम शेर खान भी राज्य मंत्री ही बनाए गए थे, जो प्रधानमंत्री कार्यालय में पदस्थ किए गए थे। इस प्रकार वर्तमान में उक्त इतिहास दोहराया गया है। दुर्गादास उईके स्वतंत्रता के बाद जनसंघ, जनता पार्टी और भाजपा के वे बैतूल लोकसभा क्षेत्र के पहले सांसद हैं, जिन्हें केंद्र में मंत्री बनाया गया है। इस दृष्टि से उईके भाजपा के बैतूल के पहले सांसद हैं, जिन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिली है। इसलिए उन्होंने एक नया इतिहास भी रचा है। 

इसी तरह का नया इतिहास मेरे पिताजी स्वर्गीय गोवर्धन दास जी खंडेलवाल ने भी रचा था, जब वर्ष 1967 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह के मंत्रिमंडल में जनसंघ पार्टी जिसका वर्तमान स्वरूप वर्तमान भाजपा है, के कोटे से उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था। इस प्रकार तत्समय प्रथम बार बैतूल जिले को (बैतूल विधानसभा) मध्य प्रदेश के मंत्रिमंडल में स्थान मिला था, तब एक नया इतिहास रचा गया था, जो अभी भी भाजपा की दृष्टि से अटूट है। आज वे इस दुनिया में नहीं लेकिन किसी शायर के चंद अशआर उन्हें समर्पित हैंः- ‘‘जहां रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा, किसी चिराग का अपना मकां नहीं होता है’’। यद्यपि घोड़ाडोगरी क्षेत्र के विधायक रामजीलाल उईके पटवा सरकार में संसदीय सचिव जरूर बनाए गए थे। कांग्रेस के तो कई विधायक रामजी महाजन, अशोक साबले, प्रताप सिंह उईके मंत्री बनाये गये। इसी के साथ स्वर्गीय जी.डी. खंडेलवाल जी ने एक इतिहास यह भी रचा था कि वे पहले और अभी तक के शायद एक मात्र ऐसे गैर आदिवासी विधायक थे, जिन्हें आदिवासी विभाग का कैबिनेट मंत्री बनाया गया था। यह भी संयोग ही है कि दुर्गादास उईके को भी वहीं आदिवासी विभाग जिसे अब जनजातीय विभाग कहा जाता है, का राज्य मंत्री बनाया गया है। 

वैसे दुर्गादास उईके कुशल वक्ता, मृदुभाषी, सहज, सरल व्यक्ति के धनी है, जो सक्रिय सांसद जरूर रहे हैं। परन्तु संसदीय क्षेत्र की जनता की जो तीव्र अपेक्षाएं उनसे रही हैं, शायद उनकी उतनी पूर्ति अभी तक नहीं हो पाई है। वस्तुतः जन आकांक्षाओं पर खरा उतरना ‘‘तलवार की धार पर चलने के समान होता है’’। अब उन्हें यह एक बड़ा अवसर मिला है कि वे जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप पूर्णतः खरा उतरे। ‘‘चुनौती खु़द को साबित करने का मौका़ देती है’’। इसलिए वे इस अवसर को जनहित में भुनाएं और इस जिले की जनता की इस तकिया कलाम पर हमेशा के लिए ताला लगा दें की जब भी  इस जिले के विकास की बात की जाती है, तो यहां की जनता छिंदवाड़ा में कमलनाथ द्वारा किए गए विकास का उदाहरण देने लग जाती है।  इस परसेप्शन और नरेशन को बदलने का एक सुनहरा अवसर दुर्गा दास उइके को मिला है। ‘‘आज की सफलता कल की उपलब्धियों की शुरुआत हो’’। विलक्षण प्रतिभा के धनी-ज्ञानी, विद्वान और अपनी बातों को अच्छी तरह से प्रस्तुत करने की कला का वह सरकार पर दबाव बनाकर अपने संसदीय क्षेत्र की जनता के हित में उपयोग करें, मेरी उनको जनहित में यही सलाह है, अपेक्षा भी यही है।

मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव 14 तारीख को ‘‘मूलतापी’’ पहुंच रहे हैं। मुझे लगता है कि माननीय राज्यमंत्री को इस पहले अवसर पर ही मूलतापी के विधायक चंद्रशेखर देशमुख के विशेष सहयोग से एक नई सौगात दिलाने का अवसर प्राप्त होगा। मूलतापी उद्गम नदी ताप्ती के विकास हेतु ताप्ती विकास प्राधिकरण, परिक्रमा स्थल के विकास की पड़ी लम्बित मांग अविलम्बित पूरी हो सकेगी। साथ ही मूलतापी को जिला बनाने की जनता की मांग पर गहनता से विचार विमर्श होकर अंतिम निर्णय पर पहुंचने का भी प्रयास होगा।

पुनः शत-शत बधाइयां।

शनिवार, 8 जून 2024

विलक्षण मैंडेट! (शासनादेश) जनादेश।

 कहीं खुशी कहीं गम! कभी खुशी कभी गम!

नरेन्द्र मोदी ऐतिहासिक प्रधानमंत्री होने जा रहे हैं।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में वर्ष 1951-52 में जब सबसे लम्बे चुनावी प्रक्रिया 4 महीने चली थी, के बाद अभी तक के दूसरे सबसे लंबे समय तक चले लोकसभा चुनाव के अंतिम परिणाम आ गए हैं। परिणाम में स्पष्ट रूप से अकेले भाजपा को तो नहीं, परन्तु भाजपा के नेतृत्व में बनी एनडीए को स्पष्ट पूर्ण बहुमत प्राप्त हो गया है। वहीं कांग्रेस के नेतृत्व में बनी इंडिया प्रमुख व सशक्त विपक्षी गठबंधन के रूप में उभरा है। यदि हम पिछले 25 वर्षों के चुनावी परिणाम का अवलोकन करें तो, यह चुनावी परिणाम इस मायने में सबसे अलग होकर विलक्षण है कि जहां दोनों पक्ष सत्ता और विपक्ष, एनडीए और इंडिया एक ही परिणाम में एक साथ अपनी-अपनी जीत के लिए जनता को बधाई दे रहे हैं। पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद नरेन्द्र मोदी ऐसे दूसरे व्यक्ति हैं, जो लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने जा रहे है। यद्यपि चुने हुए वे लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने वाले पहले व्यक्ति होगें। यदि वे पिछले वर्ष 2019 के चुनाव में प्राप्त 303 सीटों से ज्यादा सीटें प्राप्त कर लेते तो वे जवाहरलाल नेहरू से भी ज्यादा सफल प्रधानमंत्री कहलाते, क्योंकि नेहरू की जीत प्रत्येक अगले आम चुनाव में क्रमवार कम होती गई थी। 

एग्जिट पोल असफल!

इस चुनाव की सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी रही कि समस्त 12 सर्वे एजेंसियों द्वारा दिए गए एग्जिट परिणाम बिल्कुल ही गलत सिद्ध हुए। तथापि दैनिक भास्कर का जो एग्जिट पोल नहीं था, बल्कि सर्व मात्र ऐसा था, जिसने 281-350 की लम्बी रेंज के आकड़े के प्रारंभ आकड़े 281 से वर्तमान आयी संख्या 292 मिलते हैं। यद्यपि जी न्यूज के एआई एग्जिट पोल ने एनडीए को 305-315 सीटे दी है, जो 12 एग्जिट पोल की तुलना में परिणाम के ज्यादा निकट है। 

जीत-हार नहीं! जीत तो जीत या हार तो हार?

पिछले चुनाव (303 सीटों)की तुलना में बीजेपी की 63 सीटें अर्थात लगभग 20% कम होने के बावजूद यदि वह खुशियां मना रही है, तो इसलिए कि उनके नेता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की तीसरी बार सरकार बनने जा रही है। लेकिन साथ ही बीजेपी के लिए यह चिंता व मनन का भी विषय है कि 370 का नारा तो दूर पिछले चुनाव में प्राप्त 352 सीटें भी वह बचा नहीं पाई, जिसका आत्म-विश्लेषण, आत्मालोचन पार्टी निश्चित रूप से करेगी। इस प्रकार भाजपा के लिए यह चुनाव परिणाम जीत और हार दोनों लिए हुए है और इसीलिए कभी खुशी-कभी गम (अमिताभ बच्चन की फिल्म) और कहीं खुशी- कहीं गम की स्थिति है। इसी प्रकार इंडिया गठबंधन ने परिणाम के दौरान ही तुरंत पत्रकार वार्ता कर कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने जनता को बधाई दी। यद्यपि दावे के अनुसार सरकार बनाने लायक बहुमत न मिलने पर उन्होंने यह नहीं कहा कि यह हमारी हार है और हम जनता के निर्णय को शिरोर्धाय करते है, जैसा कि हर हार के बाद कहा जाता रहा है। कारण स्पष्ट है कि कांग्रेस की 2019 के चुनाव की 52 सीटें बढ़कर लगभग 100 के पास 99 तक पहुंच गई हैं और ‘‘इंडिया’’ लोकसभा में पिछले पिछले 25 सालों में आज सबसे मजबूत विपक्षी गठबंधन बना। परंतु इंडिया को उनके दावे 295 सीटों के विपरीत मात्र 233 सीटे ही मिल पाई और वे बहुमत से काफी दूर रह गई।

परिपक्व संतुलित निर्णय।

भारतीय लोकतंत्र की दृष्टि से देखें तो यह चुनाव परिणाम जनता के एक परिपक्व निर्णय को दर्शाता है। वह ऐसे कि एक तरफ पूर्ण बहुमत (292) की स्थाई सरकार दी गई तो, दूसरी तरफ मजबूत विपक्ष (234) को चुना गया। 400 के नारे से बने तानाशाही के नरेशन व परसेप्सन की प्रवृत्ति की तथाकथित आशंका को भी जनता ने दूर किया तो दूसरी ओर संख्या में कमी के कारण लंच-पुंज विपक्ष के रहते सरकार पर कोई मजबूत नियंत्रण न रख पाने की असमर्थता को पर्याप्त संख्या देकर सत्ता पर एक प्रभावी अंकुश रखने के लिए समर्थ विपक्ष भी बनाया। जनता को प्रायः अधिकाशतः अनपढ़, बेवकूफ, अंगूठा छाप तक कहा जाता रहा है, उसी जनता ने इस चुनावी परिणाम से यह सिद्ध कर दिया कि परिस्थितियों के अनुसार देश हित में संतुलित निर्णय लेने की उसमें पर्याप्त क्षमता है, जो वह लेती है। इसलिए वर्तमान परिणाम को स्वीकार कर किसी भी पक्ष को हार या जीत से परे रहना होगा। देश हित में सत्ता की गाड़ी के दोनों पहिया बनकर रचनात्मक विपक्ष बनकर देश को आगे चलाने का महान दायित्व जनता ने राजनैतिक दलों को दिया है। अब यह देखना होगा कि इन बुनियादी दायित्वों को दोनों पक्ष संकीर्ण राजनीतिक हितों से परे रहकर देशहित में किस प्रकार कार्य करते हैं? यह अभी भविष्य के गर्भ में है। निश्चित रूप से जनता की निगाहें उन पर पैनी नजर रखेंगी। इस बात को दोनों पक्षों ने भूलना नहीं चाहिए। अन्यथा इसके दुष्परिणाम दोनों पक्षों को भुगतने पड़ सकते हैं।

शेयर बाजार पर दोहरा विपरीत प्रभाव।

इस चुनाव परिणाम के सबसे दुखद पहलू को भी जानिए; जिस पर अंकुश लगाये जाने की नितांत आवश्यकता भी है। एग्जिट पोल ने 1 तारीख को चुनावी परिणाम के जो अनुमान दिये थे, वे किसी भी तरह से जमीनी स्तर पर व्यवहारिक नहीं लग रहे थे। इस कारण शेयर बाजार में 2621 अंको का उछाल आया। परन्तु चुनाव परिणाम के दिन जैसे-जैसे परिणाम आते गये शेयर सूचकांक में तेजी से गिरावट होकर 6200 से ज्यादा अंको से संेसेक्स लुुढ़क गया। एक अनुमान के अनुसार एक झटके में लगभग 36 लाख करोड़ रूपये का नुकसान निवेशकों को हुआ। भाजपा को बहुमत से 32 सीटे कम आने का मतलब प्रत्येक सीट ने 1 लाख करोड़ का नुकसान कराया। पिछले सवा दो साल में शेयर बाजार में आई यह सबसे बड़ी गिरावट है। क्या इसकी जिम्मेदारी कोई लेगा? 

तुरूप के इक्के! नीतीश कुमार-चंद्रबाबू नायडू।

इस चुनाव ने राजनीति में साइड लाइन किये जाने वाले नीतीश कुमार तथा साइडलाइन हो चुके चंद्रबाबू नायडू दोनों ही ‘‘तुरूप का इक्का’’ सिद्ध होने जा रहे हैं। दोनों ही तेज चालाक व सौदेबाजी में पारंगत मुख्यमंत्री नेता है। उनकी सौदेबाजी क्या 8 तारीख को नरेन्द्र मोदी को आसानी से प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने देगी यह भी देखने की बात होगी। वैसे इस चुनाव परिणाम के इंडिया अलायंस के आये परिणाम के शिल्पकार राहुल गांधी हीरो होकर भी इस परिणाम ने उन्हें विलेन बना दिया है। वह इसलिए जब उन्होंने इंडिया की बैठक में नीतीश कुमार के संयोजक बनने की राह में ममता का नाम लेकर रोक लगा दी थी। आज यदि नीतीश इंडिया के साथ होते तो शायद स्थिति दूसरी हो सकती थी। 

परिणाम की दृष्टि से अंत में एक बात और! ''आत्मनिर्भर भारत'' का नारा देने वाली भाजपा स्वयं ''आत्मनिर्भर'' नहीं रह गई और सत्ता के लिए उसे अब दूसरे सहयोगीयों के उपर ''निर्भर'' रहना पड़ रहा है। यह इस परिणाम की एक दुखद स्थिति रही है।

‘‘महां एग्जिट पोल’’! कितने एग्जैक्ट? कितने विश्वसनीय? कितने ‘‘निष्पक्ष’’ अथवा ‘‘प्रायोजित’’?

 कहीं ‘‘संकेत’’ से ज्यादा ‘‘शोर’’ तो नहीं? परिणाम ‘‘अनुकूल न होने’’ पर ही प्रश्न वाचक चिन्ह क्यों?

देश में ‘‘एग्जिट पोल’’ का प्रारंभ कब?

भारत में वर्ष 1957 के दूसरे आम चुनाव में कमोबेश एग्जिट पोल की शुरुआत का श्रेय इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक ओपिनियन के मुखिया एरिक दी कोस्टा को दिया जाता है। हालांकि पहली बार औपचारिक रूप से वर्ष 1996 में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) द्वारा किए गए वास्तविक वैज्ञानिक रूप से किए गए एग्जिट पोल के नतीजों को दूरदर्शन पर दिखाया गया था। यद्यपि एग्जिट पोल की पहली शुरुआत वर्ष 1980 में चार्टर्ड अकाउंटेंट से पत्रकार बने ‘‘प्रणव राय’’ ने की थी। ‘‘ओपिनियन पोल’’ (जनमत सर्वेक्षण) ‘‘एग्जिट पोल’’ से बिल्कुल अलग है, जो मतदान के पहले मतदाताओं का मत (ओपिनियन) किसी दिशा में बनाने में सहायक हो सकता है, जिसकी तो आलोचना ‘मैनेज’ करने के आधार जरूर की जा सकती है। परंतु ‘‘एग्जिट पोल’’ किसी भी रूप में अथवा तकनीकी रूप से अंतिम परिणाम को प्रभावित करने में सहायक नहीं हो सकता है। इसलिए मात्र आपके अनुकूल परिणाम न बतलाने के कारण इसकी आलोचना करना परिणाम की दृष्टि से बिल्कुल गलत है, जब तक की अंतिम परिणाम इसके विपरीत आ नहीं जाते हैं। 

विपक्ष हतोत्साहित। 

अभी देश में सर्वत्र सिर्फ एग्जिट पोल की ही चर्चा है, जो लगभग पूर्वानुमान अनुसार ही आए हैं। आश्चर्य की बात यह नहीं है कि एग्जिट पोल के एक दिन पूर्व ही विपक्षी पार्टियों ने इस तरह के परिणाम आने को ‘‘भांप’’ लिया था। शायद इसीलिए पहले तो कांग्रेस ने एग्जिट पोल पर टीवी डिबेट में भाग लेने से ही इनकार कर दिया था। परंतु इस कारण आलोचनाओं से घिरने से इंडिया गठबंधन की बैठक होने के बाद कांग्रेस ने अपना निर्णय अंततः बदला। ‘‘स्व घोषित मोदी अंध विरोधी सोशल मीडिया’’ में भी एक दिन पूर्व ही ‘‘आरोपित अघोषित अंध भक्त मोदी मेन स्ट्रीम मीडिया’’ के इस तरह के आने वाले एग्जिट पोल के पूर्वानुमान बताए जा कर चर्चा की जा रही थी। प्रश्न उत्पन्न यह होता है की क्या वास्तव में धरातल पर जाकर सही वैज्ञानिक तरीके से एग्जिट पोल किये गये? अथवा जो एक नरेशन व परसेप्शन शुरू से लगातार  बनाया जा रहा था, उसी की अगली कड़ी के रूप में यह परिणाम तो आना ही था। 

वर्ष 2019 की पुनरावृत्ति? 

एग्जिट पोल के ‘‘पोल ऑफ पोल’’ (12 सर्वे एजेंसियों का औसत) ने एनडीए को 370- 390 सीटें दी है, जबकि वर्ष 2019 में एनडीए के पास 352 सीटें थी। उस हिसाब से मात्र 18 सीटों की वृद्धि (न्यूनतम 370 से) अर्थात 5.11% वृद्धि का अनुमान बतलाया गया है, जिसे पिछले दशक की दो आम चुनावों (2014 एवं 2019) की तुलना में एक तरफा जीत नहीं कहीं जा सकती है, जैसा कि प्रचार/दुष्प्रचार (प्रोपेगेंडा) किया जा रहा है। हां निश्चित रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए जवाहरलाल नेहरू के बाद यह पहली ’हैट्रिक’ जीत होगी। यदि वर्ष 2014 की बात करें, तब एनडीए के पास कुल 336 सीटें थी। इस प्रकार वर्ष 2014 की तुलना में 2019 में 16 सीटों की बढ़ोतरी होकर कुल 352 सीटें हो गई, जो 4.76% होकर वर्ष 2024 की एग्जिट पोट के परिणाम की तुलना में मात्र 0.34% कम है। स्पष्ट है! यह तथाकथित विहंगम जीत (जिससे मुझे भी प्रारंभ में संतोष हुआ) जीत.न होकर वर्ष 2019 के परिणाम की लगभग पुनरावृति ही है, यदि इसमें से तेलुगु देशम जो 2019 के चुनाव में ‘‘एनडीए’’ की भागीदार नहीं थी, की अनुमानित 16 सीटें हटा दी जाए तो। शिरोमणि अकाली दल जो 2019 में एनडीए के साथ था की तत्समय दो सीटें थी, को इस एग्जिट पोल में 0 से 2 सीटें दी जा रही है। यद्यपि इस चुनाव में एनडीए के साथ में नहीं है इसमें चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर के ‘‘प्रायोजित’’ आकलन को भी शामिल कर लिया जाय जो पिछले आकडे़ 303 या उसमें कुछ बढ़ौतरी बतला रहे हैं। यदि 13 वीं सर्वे एजेंसी दैनिक भास्कर के सर्वे को भी जोड़ दिया जाए, तो एनडीए की सीटों का औसत 365 का आता है। विपरीत इसके ‘‘इंडिया’’ 295 सीटों का दावा कर रहा है। अब आप यह आकलन आसानी से कर सकते हैं कि वास्तव में एनडीए की जीत 2019 की तुलना में है भी कि नहीं? आकलन करते समय इस बात को भी ध्यान में रखिए कि वर्ष 2019 की तुलना में ‘‘एनडीए’’ में शामिल दलों की संख्या 21 से बढ़कर 38 हो गई है, जिसमें राष्ट्रीय पार्टी भाजपा के साथ नेशनल पीपुल्स पार्टी (पी ए संगमा की) मात्र एक राष्ट्रीय पार्टी शामिल है, जबकि ‘‘यूपीए’’ की जगह नवगठित विपक्षी गठबंधन ‘‘इंडिया’’ में 26 पार्टियां हैं, जिसमें तीन राष्ट्रीय पार्टियां कांग्रेस, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट और आप सहित 3-6 (एकदम विपरीत) विचार धारा वाले लोग भी शामिल हैं। वोटिंग परसेंटेज में एनडीए को 45% और इंडिया को 40% मत मिलने का अनुमान अभी बतलाया गया है। वर्ष 2019 की चुनाव में भी एनडीए को 45.43% वोट मिले थे।

निष्पक्ष चुनाव! परसेप्शन बिल्कुल टूटा हुआ?

एग्जिट पोल निष्पक्ष है, चुनाव परिणाम भी निष्पक्ष ही होंगे, यदि चुनाव निष्पक्ष हुए हैं तो? परंतु चुनाव की निष्पक्षता पर इफ, बट, लेकिन, परंतु, किंतु लगाना जब तक की कोई पूर्ण प्रूफ तत्व, तथ्य प्रमाण अथवा साक्ष्य सामने न हो, प्रश्न वाचक चिन्ह लगाना उचित नहीं होगा। परंतु एक बड़ा प्रश्न यहां जरूर उठता है कि जिस प्रकार ‘‘न्याय’’ के बाबत यह सिद्धांत सर्वमान्य रूप से स्वीकार है कि न्याय न केवल मिलना चाहिए बल्कि न्याय मिलता हुआ दिखना भी चाहिए। जस्टिस शुड नॉट बी डिलीवर्ड बट सीम्स टू बी डिलीवर्ड। ठीक यही सिद्धांत चुनावी प्रक्रिया पर भी लागू होता है। न केवल निष्पक्ष चुनाव होने चाहिए, जो होते हैं, बल्कि निष्पक्ष चुनाव होते हुए दिखना भी चाहिए। यहीं पर पेंच है। तथापि जब तक कोई विरोधी साक्ष्य न हो, तब तक निसंदेह यही माना जाना चाहिए कि चुनाव निष्पक्ष रूप से हुए हैं। परंतु क्या यही सिद्धांत चुनाव निष्पक्ष रूप से होते हुए दिखना चाहिए, पर भी वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए पूर्ण रूप से लागू किया जा सकता है, कहना बमुश्किल है। बल्कि निर्विवाद रूप से पूर्ण रूप से ऐसा नहीं कहा जा सकता है। कारण! इसको आगे समझने का प्रयास करते हैं।

चुनाव आयोग के सदस्यों के चुनाव पर प्रश्नवाचक चिन्ह?

चुनावी प्रक्रिया से लेकर एग्जिट पोल और अंततः 4 जून को आने वाले चुनाव परिणाम को लेकर बनाए गए नरेटिव, परसेप्शन के कारण एक युक्ति युक्त आशंका आम जनों के दिमाग में बैठती जा रही है। याद कीजिए! लगभग सवा वर्ष पूर्व मार्च 2023 में जब उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यों की संवैधानिक पीठ ने सर्वसम्मति से ऐतिहासिक कदम उठाते हुए चुनाव आयोग की कार्य प्रणाली की निष्पक्षता व स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए विधायिका की ‘‘निष्क्रियता’’ और उससे उत्पन्न ‘‘शून्यता’’ को देखते हुए हस्तक्षेप करते हुए यह आदेश पारित किया था कि मुख्य चुनाव आयुक्त व चुनाव आयुक्तों के चयन के लिए तीन सदस्यों की समिति में एक सदस्य उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश हो व दूसरा लोकसभा में विपक्ष का नेता हो। इस प्रकार वर्तमान व्यवस्था जहां उनकी नियुक्तियां राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह पर करते हैं, स्थानापन्न किया गया। यह अंतरिम व्यवस्था तुरंत लागू कर तब तक के लिए की गई, जब तक संसद इस संबंध में कानून पारित करके कार्रवाई करने का फैसला नहीं करती।

उच्चतम न्यायालय के निर्णय को अप्रभावित करके चुनाव आयोग की निष्पक्षता प्रभावित हुई। 

निष्पक्ष चुनाव के परसेप्शन पर गड़बड़ी उच्चतम न्यायालय के चुनाव आयोग के सदस्य के चयन के संबंध में अंतिम निर्णय के बाद से ही प्रारंभ होती है। केंद्रीय सरकार उच्चतम न्यायालय के इस निर्देश के पालन में लोकसभा में बिल लेकर भी आई। परंतु उच्चतम न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्देश एक सदस्य मुख्य न्यायाधीश होना चाहिए को ‘‘धत्ता’’ बता कर, अंगूठा दिखाकर मुख्य न्यायाधीश की जगह प्रधानमंत्री द्वारा नामित केंद्रीय मंत्री को रख दिया गया। इस प्रकार तीन सदस्यीय आयोग में सरकार का ‘‘दो-एक’’ का बहुमत होने के कारण उच्चतम न्यायालय ने जिस निष्पक्षता को स्थापित करने के लिए कदम उठाया था व जिसकी कल्पना आम नागरिक भी कर रहे थे, वह इस एक कदम से ‘‘ध्वंस’’ हो गई। केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए उक्त कानून को उच्चतम न्यायालय में चुनौती भी दी गई, लेकिन दुर्भाग्य-वश उच्चतम न्यायालय ने विधायिका की जिस निष्क्रियता और उससे उत्पन्न शून्यता के आधार पर उक्त शून्य को भरने के लिए अपना निर्णय दिया था, उसी आधार को तुरंत सुनवाई के लिए न अपना कर उसी निष्क्रियता का कहीं परिचय तो उच्चतम न्यायालय नहीं दे रही है? जिस कारण से चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर जो तलवार सरकार के विधेयक लाने से लटकी थी, वह अभी भी लटकी हुई है। इसलिए लोकसभा के अंदर उठाया गया यह कदम चुनाव आयोग की स्वतंत्रता व निष्पक्षता पर गंभीर प्रश्न उत्पन्न करने का अवसर न केवल विपक्ष को, बल्कि आम नागरिकों को भी देता है।

अब आगे चलते हैं। जिस तरह से चुनाव आयोग के एक सदस्य ने इस्तीफा दिया था और उसके बाद दो सदस्यों की नियुक्ति जिस जल्दबाजी में विपक्ष के नेता की अनुपस्थिति में की गई उसने भी कहीं ना कहीं आशंका के बादल फैलाएं। चुनाव आयोग की स्वतंत्रता, निष्पक्षता व उसकी कार्यप्रणाली व चुनावी प्रक्रिया के संबंध में यहां मैं जो भी चर्चा कर रहा हूं, वह कानूनी रूप से कागजातों पर सही होने के बावजूद मैं उस ‘‘परसेप्शन’’ की बात कर रहा हूं कि चुनाव सिर्फ निष्पक्ष होने ही नहीं चाहिए बल्कि निष्पक्ष होते हुए दिखना भी चाहिए। इसलिए मेरे विचारों, भावों को इस नजर से देखेंगे, तो आपको ज्यादा सहूलियत होगी।

400 पार का नारा! कहीं पर तीर कहीं पर निशाना तो नहीं? 

याद कीजिए! प्रधानमंत्री ने लोकसभा चुनाव की घोषणा की पूर्व ही संसद के पटल पर अबकी बार 400 पार का नारा दे दिया था। उसके बाद से सातवें चरण के अंतिम मतदान के दिन तक इस नारे-नरेटिव के परसेप्शन को नरेंद्र मोदी ने पूरे जोश खरोश के साथ बनाए रखा। सिवाय बीच की कुछ अवधि में जब इस नारे से विपक्ष यह नरेटिव बनाने में सफल रहा था कि 400 पार की बात कहीं संविधान  बदलने के लिए तो नहीं की जा रही है? उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह आदि विपक्ष की नजर में 400 को नरेटिव इसलिए बनाया जा रहा है कि जब माल-मैनिपुलेशन (हेरफेर, गड़बड़ियां) ईवीएम में होने के कारण 4 तारीख को परिणाम एग्जिट पोल को सही ठहराएंगे, तब आम नागरिक उसको सहजता से स्वीकार कर सकेंगे और उन्हें कोई आश्चर्य नहीं होगा, क्योंकि उक्त नरेटिव से लंबे समय से माहोल, वातावरण बनाकर उनके दिमाग में यह बात बैठा दी जा चुकी है (माइंड गेम)। 

अनेकोनेक त्रुटियों के कारण विश्वसनीयता में कमी। 

इन समस्त एग्जिट पोल की शुद्धता और यर्थाथ पर आशंका का परसेप्शन फिर इसलिए उत्पन्न होता है कि लगभग समस्त पोल एनडीए को 350 से ऊपर बतला रहे है, व आंकड़ों में काफी कुछ समानताएं हैं। विपरीत इसके; जनता के बीच यह वास्तविक स्थिति भी हो सकती है, इसलिए आंकडों की समानता है। चूंकि अधिकांश सर्वे करने वाली एजेंसीज ने अपना वह आधार नहीं बताया जिनके आधार पर उन्होंने वैज्ञानिक गुणा भाग कर उक्त निष्कर्ष निकाले हैं इसमें भी आशंका उत्पन्न होती है। तथापि आज तक का इंडिया टुडे एक्सेस माय इंडिया की सर्वे एजेंसी जरूर या दावा करती है कि उसके सैंपलिंग की साइज से लेकर समस्त तथ्य व कार्य प्रणाली पारदर्शी है, जो उसकी वेबसाइट पर उपलब्ध है। किसी भी एजेंसी ने 5 लाख वोटरों से अधिक से संपर्क करने का दावा नहीं किया है, जो 60 करोड़ वोटरों के व्यू को प्रतिबिंब कर सकते हैं, यह बात भी गले से नीचे उतरती नहीं है। इसके अतिरिक्त विभिन्न एजेंटीयों के सर्वे में हुई कुछ बेहद महत्वपूर्ण चुके हैं चुके भी उन्हें उनकी निष्पक्षता और एक्यूरेसी पर संदेह पैदा करती हैl जैसे रिपब्लिक इंडिया का इंडिया गठबंधन को इंडी गठबंधन कहना बहुत कुछ कह देता है l इसी प्रकार झारखंड में झारखंड में सीपीएम को दो सीट देना जो वहां चुनाव ही नहीं लड़ रही है, तमिलनाडु में कांग्रेस को 15 सीटें देना जो मार्च 9 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, उत्तराखंड में कल 5 सिम हैं जबकि भाजपा को 6 सीटें दी जा रही है, हिमाचल प्रदेश में हिमाचल प्रदेश में कुल चार सीटें हैं जबकि 6-8 सीटों का आकलन दिखाया जा रहा है, राजस्थान में कल 25 सिम हैं जबकि 33 सीटों के नतीजे बताई जा रहे हैं और इसी प्रकार बिहार में लोजपा कल 5 सिम लड़ रही है जबकि उसे 6 सीटें दी जा रही है। इसी प्रकार तमिलनाडु वी कुछ राज्यों में जो कुल मतदान कुल मतों का प्रतिशत भाजपा को बताया जा रहा है वह वह भी अचंभित करने वाला है l इन सब कर्मियों से भी एग्जिट पोल की  विश्वसनीयता घटी है।

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