मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

क्या न्यायालय के निर्णयों में भी ‘‘न्याय’’ के साथ ‘‘संतुलन’’ का ‘‘भाव’’ दिखता है?

वास्तविक ‘‘न्याय’’ क्या है?

संविधान की तीन स्तंभों में सबसे महत्वपूर्ण न्यायपालिका की ‘‘माननीय न्यायालय’’ का काम ‘‘सिर्फ और सिर्फ’’ ‘‘न्याय’’ देने का ही होता है। ‘‘न्याय’’ देते समय न्यायालय को सिर्फ न्याय देने पर ही ध्यान केन्द्रित करना होता है। न्यायालय के आस-पास विद्यमान ‘‘परिसर’’ से लेकर, बाहर क्या परिस्थितियां, घटनाक्रम चल रहा है, उससे प्रभावित हुए बिना सिर्फ न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत रिकॉर्ड (केस डायरी) पर उपलब्ध तथ्यों की न्यायिक समीक्षा कर माननीय न्यायाधीश ‘‘न्यायिक निर्णय’’ देते हैैं। न्याय की यह आदर्श स्थिति हैं। न्यायालय का निर्णय किस पक्षकार के पक्ष में है, हार-जीत में है, और निर्णय का समाज या देश के अन्य तंत्रों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, उससे उन्मुक्त होकर ही, ड़रे बिना ही निष्पक्ष व निरपेक्ष होकर माननीय न्यायाधीश निर्णय देते है। यही वास्तविक न्याय है। यथा ‘‘न्याय न क्यारी ऊपजे, पंच न हाटे बिकायः’’। 

इंसाफ का तराजू?                                                                                           

‘‘न्याय’’ के संबंध में यह कहा जाता है कि न्यायालय में इंसाफ की देवी की मूर्ति लगी होती है, जिनकी दोनों आंखों पर काली पट्टी बंधी होती है और हाथ में तराजू होती है। ग्रीक पौराणिक कथा में न्याय देवता का जिक्र किया गया हैं। ये एक काल्पनिक पात्र हैं। ‘‘न्याय देवता का नाम थेमिस हैं। इनका वर्णन इस प्रकार किया गया हैं-हर परिस्थिति में भावना को दूर रखकर न्याय करने वाली ‘‘दोनों पक्षकारों को समान भाव से देखने वाली’’ किसी के भी रूप, पैसा, अधिकार, धर्म से प्रभावित न होने वाली। आँखों पर की पट्टी - सभी को एक ही भाव से देखने वाली का प्रतीक हैं। हाथ में रहा तराजू, ‘‘निष्पक्ष न्याय का प्रतीक’’ हैं। तराजू में कुछ भी तौल के देखे-वह ‘‘वजन के हिसाब से ही दूसरे को तौलता है, चाहे वो कुछ भी हो’’।

‘‘संतुलन का परसेप्शन’’

माननीय उच्चतम न्यायालय के पिछले कुछ न्यायिक निर्णयों से ऐसा आभास सा हो रहा है कि उन निर्णयों में कहीं न कहीं न्यायालय का ‘‘प्रयास’’ (स्वाभाविक अथवा अतिरिक्त?) ‘न्याय’ के साथ दोनों पक्षों के बीच एक संतुलन बनाने का प्रयास होता हुआ दिखता है। तथापि निर्णय ‘न्यायिक’ ही होते हैं। इस हेतु जरूरत पड़ने पर न्यायालय अनुच्छेद 142 के अंतर्गत प्राप्त असीमित विशेषाधिकार/विवेकाधिकार का भी सहारा लेती है। सामान्यतः न्यायालय के सामने दो ही पक्ष होते है, जो अपना-अपना पक्ष रखते हैं, जिनके बीच ही निर्णय का तराजू का कांटा धूमता है। तीसरा पक्ष वह होता है, जो न्यायिक निर्णय के परिणाम के आकलन, मूल्यांकन का पक्षपात पूर्ण हुए बिना निष्पक्ष होकर करता हैं। इससे न्यायालय को न तो कोई लेना-देना होता है और न ही इससे उसके ‘‘स्वास्थ्य’’ पर कोई प्रभाव पड़ता है। पिछले कुछ समय से कुछ न्यायिक निर्णयों से बनते उक्त परसेप्शन ‘‘संतुलन’’ बनाने को बल सा मिल रहा है।

संजय सिंह का जमानत आदेश!

इसी संदर्भ में अभी ताजा उदाहरण आप पार्टी के सांसद संजय सिंह के विरुद्ध प्रवर्तन निदेशालय द्वारा की गई ‘‘पीएमएलए’’ कानून के अंतर्गत शराब घोटाले से जुड़े मनी लॉन्ड़िग में की गई कार्रवाई के तहत की गई गिरफ्तारी पर उच्चतम न्यायालय द्वारा संजय सिंह को दी गई जमानत के निर्णय है। चंूकि आरोपी को जमानत मिली, इसीलिए उसके साथ न्याय हुआ, आरोपी की यह सोच स्वभाविक ही है। कहते है ना कि ‘‘अघाए को ही मल्हार सूझता है’’।  दूसरी ओर अभियोजन पक्ष जिसने आरोपी के विरूद्ध गिरफ्तारी की कार्रवाई की बावजूद जमानत का विरोध ऑन रिकॉर्ड नहीं किया, तब भी यह कहा जा सकता है, अभियोजन पक्ष की भी जीत हुई है। क्योंकि उसने जमानत का विरोध नहीं किया, जो सामान्य रूप से अन्य प्रकरणों में ई.डी. अभी तक करता चला आ रहा है। प्रवर्तन निदेशालय द्वारा उक्त अधिनियम के अंतर्गत मोदी सरकार के कार्यकाल में अभी तक दर्ज 121 मामलों में (जिनके मात्र 6 सत्ता पक्ष के नेताओं के विरूद्ध ही) से अधिकतरों में आरोपी को जमानत ई.डी. के विरोध के कारण नहीं मिली है। भले ही प्रकरणों में चालान प्रस्तुत न हुए हो अथवा गवाही की कार्रवाई चालू न हुई हो। विपरीत इसके पूर्व की यूपीए सरकार के 10 वर्ष के कार्यकाल में मात्र 26 नेताओं के विरूद्ध कार्रवाई की गई, जिनमें से 14 (54 प्रतिशतं) विपक्ष के थे। इस प्रकार सिक्के के दूसरे पहलू का एक अर्थ यह भी निकलता है कि कांग्रेस (स्वतंत्रता के बाद की) भाजपा की तुलना में ज्यादा भ्रष्ट पार्टी है। इसलिए केन्द्रीय एजंेसीसज् को सरकार होने के बावजूद उन्हे सत्ताधारी पार्टी के नेताओं के विरूद्ध कार्रवाई करनी पड़ी थी।  

ई.डी. द्वारा संजय सिंह का जमानत का विरोध नहीं!

सबसे महत्वपूर्ण गौर करने वाली बात यह है कि प्रस्तुत प्रकरण में न्यायालय ने संतुलन बनाने का प्रयास किया है, ऐसा इसलिए लगता है कि न्यायालय के समक्ष अभियुक्त ने पीएमएलए की धारा 45 के अंतर्गत यह कहकर जमानत की मांग की थी कि, प्रथम दृष्टया यह प्रावधान आरोपी पर लागू नहीं होता है, क्योंकि इसके समस्त आवश्यक तत्वों का पूर्णतः अभाव हैै। सुनवाई के समय न्यायालय इस बात से शायद संतुष्ट भी था। इसलिए माननीय न्यायालय ने ई.डी. से यह कहा कि आरोपी 6 महीनें से जेल में बंद है, उसके पास से कोई रूपये की जप्ती अभी तक नहीं हुई है। आपके पास आरोपी को निरोध में आगे रखने के लिए और कोई तथ्य, साक्ष्य हो, तो रिकार्ड पर लाईये। कृपया यह ध्यान में रखिये कि यदि हमने खामियां पाई तो धारा 45 के अंतर्गत हम यह रिकॉर्ड करेंगे कि अपराध नहीं किया है, जो आपके लिए नुकसानदेह होकर उसका असर ट्रायल की सुनवाई पर होगा। इस प्रकार एक तरह से उच्चतम न्यायालय ने एक विकल्प देकर ई.डी. को अप्रत्यक्ष रूप से मजबूर किया कि वह जमानत का विरोध न करे। अन्यथा उनके खिलाफ आदेश पारित कर जमानत दे दी जायेगी।

संजय सिंह की जमानत का निर्णय ‘‘मिसाल’’ नहीं।

अंततः ईडी के वकील ने बहुत ही समझदारी से काम लेते हुए संजय सिंह को जमानत देने का विरोध न करते हुए अपनी सहमति दे दी। इस प्रकार संजय सिंह को जमानत देने के साथ ही न्यायालय ने इस निर्णय को एक ‘‘उदाहरण’’ रूल ऑफ लॉ अथवा ‘‘मिसाल’’ अन्य मामलों के लिए नहीं माना जा सकता है, यह भी स्पष्ट कर दिया। इसे न्याय के साथ-साथ संतुलन बनाने की नीति के अलावा क्या कहा जा सकता है? ‘‘अपनी पीठ खुद को नहीं दिखती’’ इस बात को एक अच्छा कानूनविद् ही बेहतर अच्छे तरीके से ज्यादा बतला सकता है। जब न्यायालय इस तार्किक परिणति पर पहुंच चुका था कि संजय सिंह के विरूद्ध प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है, तब उच्च न्यायालय को गुण-दोष के आधार पर ही आदेश पारित करना चाहिए था। इससे वह सबके लिए (ई.डी. सहित) यह एक मिसाल बनकर भविष्य में ई.डी. को इस तरह की आधारहीन कार्रवाई करने से हतोत्साहित करता। 

चंडीगढ़ मेयर का चुनाव!

इसी तरह का चंड़ीगढ मेयर के चुनाव के वोट का डाका सरे आम हुआ। मामला उच्चतम न्यायालय तक पहंुचा। उच्च न्यायालय के अंतरिम सहायता देने के इंकार के अंतरिम आदेश के विरूद्ध अपील दायर की गई थी। तब उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि उच्च न्यायालय के सामने प्रस्तुत रिकॉर्डिंग वीडियो से स्पष्ट रूप से धांधली होते हुए दिख रही थी, तब क्यों नहीं अंतरिम आदेश पारित किये गये? परंतु दुर्भाग्यवश उच्चतम न्यायालय ने भी स्वयं तुरंत उच्च न्यायालय के आदेश को स्थगित नहीं किया, बल्कि सरकार को नोटिस देते हुए 15 दिन बाद की सुनवाई निश्चित की गई। तत्पश्चात सिर्फ स्थगन आवेदन पर आदेश पारित करने की बजाए पूरे मामले को गुण-दोष के आधार पर न केवल चुनाव अवैध घोषित कर दिया, बल्कि हारे हुए उम्मीदवार को जीता हुआ भी घोषित कर दिया, जो याचिकाकर्ता की मांग ही नहीं थी। इससे न्याय के साथ-साथ यदि संतुलन बनाये रखने का परसेप्शन बना, ऐसा कहने वाले को गलत नहीं कहा जा सकता है। 

‘‘श्री राम जन्म भूमि निर्णय’’।

इसी प्रकार रामजन्म भूमि विवाद का निर्णय में भी दोनों पक्षों के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करते हुए, उच्चतम न्यायालय ने आदेश पारित किया। जो मुद्दे, विचाराधीन नहीं थे उन्हें भी सेटल किया गया। विवादित भूमि पर मुस्लिम पक्ष के दावे को अस्वीकार करते हुए पूरी तरह से ‘‘रामलला’’ का हक माना गया। बावजूद इसके सुन्नी वक्क बोर्ड को अयोध्या में ही किसी उचित जगह मस्जिद निर्माण हेतु भूमि देने तथा मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट बनाने का दिया गया आदेश भी एक प्रकार से ‘‘संतुलन के न्याय’’ का ही आदेश था।

अनुच्छेद 370 का मामला।

उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने वाले राष्ट्रपति के आदेशों को सद्भावना पूर्व होते हुए वैद्य माना गया। तथापि अनुच्छेद 367 में संशोधन करने वाले आदेशों को असवैधानिक मानने के बावजूद जम्मू-कश्मीर के पुर्नगठन की वैद्यता को निर्णित करने के बजाए सालिटर जनरल के आश्वासन के कथन को स्वीकार कर लिया, जो एक संतुलन बनाने की ओर बढ़ने का आदेश ही कहलायेगा। 

महाराष्ट्र की राजनीति का सुभाष देसाई बनाम प्रधान सचिव प्रकरण!

उच्चतम न्यायालय ने राज्यपाल के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को तथाकथित शिवसेना में विभाजन के बाद बहुमत साबित करने के निर्णय को अवैध घोषित करने के बावजूद उस अवैध निर्णय से उत्पन्न अवैध सरकार को भंग करने की इच्छा के संकेत देने के बावजूद भंग कर यथा स्थिति बहाल करने का न्यायिक आदेश न देकर, इसे संतुलन बनाने का प्रयास के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है? 


मंगलवार, 9 अप्रैल 2024

कांग्रेस ‘‘मुक्त’’ भारत तो नहीं। कांग्रेस ‘‘युक्त’’ भाजपा अवश्य।

 भ्रष्टाचार ‘‘विमुक्त’’ कांग्रेस! क्या संभव है?

कांग्रेस ‘‘मुक्त’’ भारत का नारा 2013ः-

देश की जन मानस को अच्छी तरह से याद है, लोकप्रिय प्रधानमंत्री का वह बहुचर्चित प्रचारित नारा-ः ‘‘कांग्रेस मुक्त भारत’’! वर्ष 2013 में नरेन्द्र मोदी जिन्हें वर्ष 2014 में होने वाले लोकसभा के आम चुनाव के लिये, भाजपा नेतृत्व ने चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया गया था, ने तब यह कहा था कि मेरा सपना कांग्रेस मुक्त भारत निर्माण का पूरा होना चाहिए। वर्ष 2018 में उन्होंने इस आगे स्पष्ट करते हुए कहा कि कांग्रेस मुक्त भारत के नारे से मतलब कांग्रेस को राजनीतिक रूप से समाप्त करने से नहीं है, बल्कि देश को कांग्रेस संस्कृति से मुक्त कराने के साथ ही स्वयं कांग्रेस को भी अपनी संस्कृति से मुक्त होने से है, जो देश हित में स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी हैं। आखिरकार कांग्रेस की संस्कृति हैं क्या? जवाब यही मिलेगा! ‘‘भ्रष्टाचार के कंठ में गले तक डूबी हुई संस्कृति नहीं कृति’’। 

महात्मा गांधी का सपना ‘‘कांग्रेस को भंग’’ कर देना चाहिए

वर्ष 1948 में पंडित नेहरू के कार्यकाल के ‘‘जीप खरीद घोटाला’’ जिसमें केन्द्रीय मंत्री के. कृष्ण मेनन  को इस्तीफा तक देना पड़ा था, से लेकर 2013 तक यूपीए सरकार में कई कांडों, धोटालों की भरमार रही, जिसके कारण ही अन्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी हुआ। वर्ष 2019 में संसद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह कहा था कि ‘‘कांग्रेस मुक्त’’ का नारा मेरा नहीं बल्कि ‘‘महात्मा गांधी का एक सपना था’’ और उनके प्रति श्रद्धांजलि के बतौर यह कार्य ‘‘पूरा करना’’ ही करना है। आगे उन्होंने यह भी कहा कि अंबेडकर ने भी यह कहा था कि कांग्रेस में शामिल होना, आत्महत्या करने के समान है। परन्तु 10 साल के भाजपा शासन काल के बावजूद अभी तक यह संभव नहीं हो पाया है और न ही भविष्य में होने की संभावनाएं दूर-दूर तक दिखती प्रतीत होती हैं।

कांग्रेस ‘‘युक्त’’ भाजपा 2024ः-

भाजपा ने शायद इसीलिए वर्ष 2013 की अपनी कांग्रेस मुक्त भारत की नीति में परिवर्तन किया, और 2024 के आते-आते कांग्रेस मुक्त भारत की जगह ‘‘कांग्रेस युक्त भाजपा’’ की ओर तेजी से कदम बढ़ाने की कार्य योजना बनाई गई हैं, जो तेजी से सफलता के कदम भी चूम रहीं हैं। बगैर किसी तकल्लुफ के क्योंकि ‘‘तकल्लुफ में है तकलीफ सरासर’’। इसके लिए ‘‘बीच भंवर में तिनके का सहारा ढूंढ़ते’’ कांग्रेसियों को भाजपा में लाने के लिए न केवल (स्पेशल सेल) र्ज्वाइनिग कमेटी कई राज्यों से बनाई गई हैं, बल्कि 45वंे स्थापना दिवस के दिन मध्य प्रदेश में ही एक लाख कांग्रेसियों को भाजपा में लाने का लक्ष्य भी रखा गया था। दल-बदल विरोधी कानून होने के बावजूद ‘‘एडीआर’’ की एक रिर्पोट के अनुसार वर्ष 2014 से 2021 तक विधायक-सांसद स्तर के 426 नेताओं ने बीजेपी का दामन थामा है, जिनमें कांग्रेस के 10 पूर्व मुख्यमंत्री (】अभी तक) शामिल है। वैसे सोशल मीडिया में इस संबंध में इस कदम पर एक चुटकी अवश्य ली जा रही है कि इन ‘‘फूल छाप कांग्रेसियों’’ को भाजपा में लाने की आवश्यकता ही क्या है? जब पहले से ही 50-60 प्रतिशत ऐसे कांग्रेसी भाजपा के लिए कार्य कर रहे थे। क्योंकि पार्टी में लाने के बाद तो उनमें से कुछ एक को तो पदों पर नवाजना भी पड़ेगा और इस कारण से भाजपा के ‘‘हकदार’’ कार्यकर्ताओं का ‘वैद्य’ हक समाप्त होगा। जैसा कि वर्तमान में 7 राज्यों की भाजपा की कमान दल-बदलुओं के पास है।

कमल छाप साबुन के साथ भाजपा की वाशिंग मशीन-  

भाजपा ने अभी कांग्रेसियों को भाजपा में लाने की जो नीति बनाई है, उसकी सफलता और नैतिकता पर कोई प्रश्नचिन्ह न लगे, इसके लिए यह आवश्यक हो गया था कि पार्टी में आने वाले कांग्रेसी जो भ्रष्टाचार की जन्मदाता व पर्यायवाची कांग्रेस के होने से अधिकांशतः भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, को भ्रष्टाचार के ऊपरी आवरण से मुक्त कर दिया जाए, तब भाजपा को इन्हें लेने में कोई परेशानी नहीं होगी। इसीलिए ‘‘कमल छाप साबुन के साथ भाजपा की वाशिंग मशीन’’ में इन भ्रष्ट कांग्रेसियों को धोकर स्वच्छ कर शामिल किया जा रहा है। इस वाशिंग मशीन का ‘‘डेमो’’ प्रदर्शन प्रेस वार्ता के माध्यम से टीवी चैनलों पर न केवल कांग्रेस दिखा रहीं है, बल्कि पूरा विपक्ष एक आवाज में इस मुद्दे को उठा भी रहा है। परन्तु अनजाने में बच के इस कथन का एक मतलब तो यही निकलता है कि विपक्ष स्वयं यह मानता है कि भाजपा वह संस्कृति वाली पार्टी है, जहां भ्रष्टाचार का नहीं बल्कि ईमानदारी का बोलबाला है, जो भ्रष्ट आदमी को सुधार कर ईमानदार बना देती है, भले ही उनका ‘‘तन मोर सा, लेकिन मन चोर सा हो’’।

मोदी की भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध कार्रवाई की "गारंटी"-

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बार-बार यह कहते थकते नहीं हैं कि न खाऊंगा न खाने दूंगा। इस पर वे पूर्णतः अमल भी कर रहे हैं। ‘‘भ्रष्टाचारियों से मोदी ड़रने वाला नहीं हैं’’। एक-एक भ्रष्टाचारी को जेल की सलाखों के पीछे भिजवाने का कथन भी न केवल वे बार-बार कह रहे हैं, बल्कि भिजवा भी रहे हैं। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का वह कथन आज भी सबके सामने है कि हम दिल्ली से 100 पैसे भेजते हैं, पर उसमें से 15 पैसे ही जनता तक पहुंच पाते हैं, अर्थात 85 प्रतिशत का भ्रष्टाचार कांग्रेस शासन काल का प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने स्वयं स्वीकारा था।

कानून अपना काम कर रहा हैः-

इसमें कोई शक नहीं है कि भाजपा की वाशिंग मशीन में इन भ्रष्ट कांग्रेसियों को डाला अवश्य गया है, परंतु मशीन से निकलने के बाद अर्थात भाजपा में शामिल होने के बाद देश के किसी भी भाजपाई नेता ने न तो यह दावा किया है और न ही यह प्रमाण पत्र दिया है कि जिन भ्रष्ट कांग्रेसियों को पार्टी में शामिल किया है, वे सब ईमानदार हो गए हैं या उन पर  भाजपाईयों द्वारा भ्रष्टाचार के जो आरोप पहले लगाए थे, वे सब झूठे या गलत थे। बल्कि भाजपा का इन भ्रष्ट कांग्रेसियों को पार्टी में शामिल करने के संबंध में स्टैंड यही रहा है कि यदि वे भ्रष्टाचारी हैं, उनके खिलाफ आरोप है, मुकदमा चल रहा है, तो वह चलेगा। ‘‘कानून अपना काम करेगा’’। हमने कानून की प्रक्रिया में कोई अड़ंगा नहीं डाले हैं। जांच प्रक्रिया को आगे बढ़ना जांच एजेंसियों का काम है, सजा देना न्यायालय का काम है, हमारा नहीं। यदि किसी को भी यह लगता है कि भाजपा में शामिल हुए इन नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो रही है, तो वह न्याय पाने के लिए न्यायालय में जाने के लिए स्वतंत्र है। 

एक तरफा "विपक्षी नेताओं" पर ईडी की कार्रवाईः-

कहते है कि ना ‘‘ताड़ने वाले भी कयामत की नजर रखते हैं’’। अतः खोजी पत्रकारिता के लिए जाने वाला अंग्रेजी समाचार पत्र इंडियन एक्सप्रेस की यह रिपोर्ट सबको जरूर पढ़नी चाहिए, जहां उसने ईडी के छापे के संबंध में एक अध्ययन कर यह विवेचना की है कि पिछले 10 वर्षों में जो 25 विपक्षी नेता ईडी का छापा पड़ने के बाद भाजपा में शामिल हो गए थे, उनमें से 20 मामलों में कारवाई शिथिल हो गई है, ठंडे बस्ते में चली गई हैं, अथवा नहीं हो रही है। तीन मामलों में खात्मा रिपोर्ट प्रस्तुत कर प्रकरण बंद कर दिये गये। ‘‘दाई से पेट नहीं छिपता’’, मात्र दो प्रकरणों में ही कार्रवाई आगे बड़ी है। ई.डी. (प्रवर्तन निदेशालय) ने पिछले 9 वर्षो में 21 दलों के 122 राजनैतिक नेताओं पर आपराधिक प्रकरण दर्ज किये गये है, जिनमें से 95 प्रतिशत से अधिक प्रकरण सिर्फ विपक्षी नेताओं पर है। इससे भाजपा का यह दावा तथ्यात्मक रूप से धरातल पर गलत सिद्ध होता है कि जांच एजेंसीज अपना काम ‘‘स्वतंत्र रूप से’’ कर रही हैं। तकनीकी रूप से यह सही हो सकता है, परंतु व्यवहार में यह आईने सामान स्पष्ट है कि ‘‘पिंजरे में बंद तोते की मानिंद’’ केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग किस तरह से हो रहा है। 

‘‘लेवल प्लेइिंग फील्ड’’ की नीति का पालन नहीं

भाजपाईयों पर भ्रष्टाचार की कार्रवाई न होने से विपक्षी नेताओं के विरूद्ध की जा रही भ्रष्टाचार विरोधी कार्रवाई इन भ्रष्ट विपक्षी नेताओं को स्वयमेव ईमानदार नहीं बना देती है। ईडी के छापों के दौरान आपत्तिजनक दस्तावेज, चल व अचल संपत्ति अधिकांश मामलों में मिली है, जिस कारण से अधिकांशत: आरोपियों को जमानत भी नहीं मिली है । कानून का यह सिद्धांत है कि हत्या के एक आरोपी के खिलाफ कार्रवाई न होने पर या न्यायालय द्वारा दोष मुक्त कर दिये जाने पर दूसरी हत्या के आरोपी को  उक्त उदाहरण के हवाले मात्र से स्वयमेव मुक्ति नहीं मिल जाती है।   बल्कि उसे कानूनी प्रक्रिया के तहत स्वयं को निर्दोष सिद्ध करना ही होता है। हां एक बात जरूर है कि इस चुनावी समर में चुनाव आयोग के समान अवसर (लेवल प्लेइंग फील्ड) के सिद्धांत व नीति का घोर उल्लंघन होता हुआ स्पष्ट रूप से दिखता है। जब सिर्फ विपक्ष के खिलाफ ही चुनाव के दौरान छापे मारे जाते है, गिरफ्तारियों की जाती है, एक भी भाजपा नेता पर नहीं!

भ्रष्टाचार पर कांग्रेस की ‘‘प्रभावशाली’’ कार्रवाई नहीं।

कांग्रेस को तो भाजपा नेतृत्व को इस बात के लिए अवश्य धन्यवाद देना ही चाहिए कि भाजपा ने उसके भ्रष्ट नेताओं को पार्टी में लेकर कांग्रेस को भ्रष्ट नेताओं से मुक्त कर महात्मा गांधी की उस ईमानदार कांग्रेेस पार्टी की और मोड़ दिया है, जो सत्ता वापसी के लिए लालाहित है। कांग्रेस भ्रष्ट कांग्रेसियों से मुक्ति का कार्य न तो स्वयं कर पा रही थी और न ही करने में सक्षम हैं। विपरीत इसके वह उन्हें भ्रष्ट मानने में भी परहेज करती थी, जब तक वे कांग्रेस में थे। कांग्रेस ने कभी भी भ्रष्टाचार के आधार पर आज तक किसी नेता को पार्टी से निष्कासित नहीं किया है। हां आम आदमी पार्टी ने पंजाब में जरूर भ्रष्टाचार के मामले में मंत्री को बर्खास्त किया। ‘‘दांत टूटा सांप ज्यादा फूं फूं करता है ना’’। कांग्रेस ने इन नेताओं को भ्रष्ट तभी माना, जब वे लोग भाजपा में गए।

भाजपा की कार्यशाला में ‘‘व्यक्तित्व’’ का निर्माण-

‘‘पार्टी विद द डिफरेंस’’ का नारा देने वाली भाजपा को यह गुरूर जरूर है कि व्यक्तित्व का निर्माण करने वाली ‘संघ’ की कार्यशाला में शामिल होने के बाद व्यक्ति कितना ही भ्रष्ट-बुरा क्यों न हो, वह एक अच्छा इंसान जरूर बन जाएगा। शायद भाजपा इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए बाहर की बुराइयों को अपनी संगत में लाकर उन्हें सच्चाई में बदलने का प्रयास कर रही है। शायद वह अपने को ‘पारस’’ मान बैठी है। लेकिन वह यहां एक बड़ी भारी भूल कर रही है कि पारस पत्थर का गया जमाना ‘सतयुग’ का था और आज का युग ‘‘कलयुग’’ का है, जहां पीतल ‘‘पारस’’ के स्पर्श से खुद सोना बनने के बजाय पारस पत्थर को ही पीतल बना देगा। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक ईमानदार आदमी को भी सत्ता की कुर्सी पर बैठालने पर सत्ता उसे बेईमान बना देती है। इसका केजरीवाल से अच्छा उदाहरण आपके सामने कोई और  हो ही नहीं सकता हैं, जिसका राजनीतिक जन्म ही ‘‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’’ के बैनर तले जन लोकपाल कानून बनाने व भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से हुआ है। यद्यपि मूल रूप से वे एक सफल नौकरशाही (आई.आर.एस.) थे।

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

मुख्तार अंसारी-बाबा राम रहीम! दो धारा होते भी लगभग एक समान प्लेटफार्म!

 आपको उक्त शीर्षक पढ़कर शायद आश्चर्य लग रहा होगा। मुख्तार अंसारी का नाम बाबा रहीम के साथ कैसे? मुख्तार अंसारी की न्यायिक हिरासत में जेल में तथाकथित रूप से दिल की धड़कन बंद होने से ‘‘संदिग्ध अवस्था’’ में निधन हो गया। ‘‘खराब स्वास्थ्य’’ के चलते न्यायिक हिरासत में मौत हुई या धीमा जहर देकर हत्या की गई, यह तो जांच का विषय है, जिसकी न्यायिक जांच की घोषणा की जा चुकी है। इस मौत ने खूंखार अपराधी, बाहुबली, दुर्दांत माफिया, डॉन, गैंगस्टर मृत मुख्तार अंसारी और हत्या तथा बलात्कार के अपराध में सजायाफ्ता जेल में बंद डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत बाबा राम रहीम की जीवन गाथा को ईश्वर की दी हुई हमारी दोनों आंखों से दोनों व्यक्तियों के लिए एक-एक आंख का प्रयोग एक साथ कर समझना होगा। तभी देश की राजनीति की एक विचित्र स्थिति आपके सामने स्पष्ट रूप से सामने आ पाएगी कि देश में किस तरह की धारा-विचारधारा को बल मिल रहा है, व देश किस दिशा की गर्त में जा रहा है।

बात सबसे पहले बाबा राम रहीम की ही कर लें। ‘‘रहीम’’ के साथ ‘‘राम’’ नाम जुड़ा है। इससे स्पष्ट है कि भगवान राम ने ‘‘बाबा रहीम’’ के समस्त दुष्कर्मों की सजा अवश्य दे दी है। परंतु कहते हैं ना कि ‘‘राम कहो आराम मिलेगा’’, सो भगवान राम के सच्चे सेवकों ने बाबा रहीम को दी गई सजा को देश के अभी तक के सजायफ्ता अपराधियों के इतिहास में सजा की सबसे बड़ी पैरोल की अवधि में बदल दिया है। सिर्फ वर्ष 2013 में ही उसे 91 दिन की कुल पैरोल तीन बार में दी गई। ‘‘या तो पगली सासरे जावे ना, और जावे तो लौट आवे’’। राजनीति की यह एक धारा है तो, दूसरी तरफ खूंखार अपराधी मुख्तार अंसारी जिस पर भारतीय दंड संहिता और यूपी गैंगस्टर अधिनियम, गुंडा, आर्म्स तथा सीएलए एक्ट के अंतर्गत 65 से अधिक गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें से 21 मामलों में मुकदमे चल रहे हैं, तथा आठ मामलों में सजा भी हो चुकी है। 19 साल से जेल में बंद अफजल को उसकी इच्छा के अनुरूप जेल के बाहर आने की पैरोल नहीं, बल्कि राज्य के बाहर की जेल में रहने की इजाजत समस्त राजनीतिक और कानूनी गुहार के बाद भी नहीं मिलती है, ‘‘ये पुर पट्टन ये गली बहुरि न देखे आई’’। जबकि वह जनता का एक नहीं पांच बार लगातार चुना हुआ विधानसभा का सदस्य वर्ष 1996 से 2022 तक उत्तर प्रदेश की महू विधानसभा से रहा है। उसके परिवार के अन्य सदस्य भाई अफजाल अंसारी सांसद और पुत्र अब्बास अंसारी विधायक हैं। विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि अब्बास अंसारी ओपी राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी से विधायक है, जो एनडीए में शामिल है।

बाबा रहीम पर बलात्कार और हत्या के दो मामलों में आजीवन सजा हो चुकी है, जबकि मुख्तार अंसारी पर हत्या व अन्य आठ मामलों में अभी तक सजा हो चुकी है। हां परंतु उसके चरित्र को लेकर कभी भी कोई प्रश्नवाचक चिन्ह नहीं लगा है। इतने अधिक गंभीर आपराधिक मुकदमे दर्ज होने के बावजूद यौन अपराध का भी एक छोटे सा आरोप भी कभी नहीं लगा। मुख्तार अंसारी का यह चारित्रिक पक्ष जितना उजला है, उतना ही धुंधला पक्ष बाबा रहीम का है, बल्कि वह ज्यादा खतरनाक है। वह इसलिए कि उसे समाज में उस संत की उपाधि, दर्जा व मान्यता प्राप्त थी, जिस संत से नैतिकता, चारित्रिक निर्माण के संदेशों व प्रेरणा की उम्मीद समाज करता है।

यदि दोनों की पारिवारिक पृष्ठभूमि देखी जाए तो निश्चित रूप से मुख्तार अंसारी का वर्तमान उनके परिवार के अतीत से किसी भी रूप में मेल नहीं खाता है, बल्कि वह आश्चर्य में डालने वाला वर्तमान है। उसके पिता का पूर्वांचल में इतना सम्मान था कि नगर पालिका के चुनाव में उनके विरुद्ध कोई भी व्यक्ति चुनाव लड़ता नहीं था। आम जन ‘‘फाटक’’ नाम से मशहूर उनके घर पर अपनी समस्याओं के निदान के लिए उनके पास जाते थे। उनके दादा मुख्तार अहमद अंसारी एक डॉक्टर थे, जो आजादी से पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। नाना महावीर चक्र विजेता उस्मान मुख्तर अंसारी सेना के ब्रिगेडियर रहे जो वर्ष 1948 के भारत पाकिस्तान युद्ध में लड़ते हुए शहीद हो गए। बंटवारे के बाद पाकिस्तान की सरकार ने उन्हें जनरल बनाने का प्रस्ताव प्रस्ताव दिया था, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया था। चाचा हामिद अंसारी देश के उपराष्ट्रपति रहे। हालांकि वे अपने बयानों के कारण विवादित भी रहे। इस प्रकार उनका परिवार उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल का एक बहुत ही प्रतिष्ठित, देशभक्त, स्वतंत्रता संग्रामी रसूख वाला होने के साथ गरीबों का मसीहा रहनुमा परिवार कहलाता था। मुख्तार अंसारी को आप वर्तमान की फिल्मी क्षेत्र का रॉबिनहुड कह सकते हैं, जो अपराधी होकर भी फिल्मी हीरो था। परंतु अमीरों के अत्याचार से लड़कर गरीबों के हक के लिए एक सहायक होता था। चूंकि ‘‘शेर भैंसे का शिकार करता है, गिलहरी का नहीं’’ इसलिए फिल्म में जिस प्रकार रोबिन हुड की फाइटिंग पर ताली बजती है और मृत्यु पर शोक, वैसे ही ताली के रूप में जनता का प्रसाद वोट के रूप में मुख्तार अंसारी को बाहुबली और खूंखार अपराधी होने के बावजूद मिलता रहा। लेकिन ‘‘राख से आग छुप नहीं सकती’’। दुर्भाग्यवश यह हमारे देश की राजनीति और जनता की सोच व विचार का वह अप्रिय कटु सत्य है, जिसे 22 कैरेट के स्वस्थ सार्वजनिक राजनीतिक जीवन में कदापि स्वीकारा नहीं जा सकता है। इसके लिए योगदत्त लापरवाही कंट्रीब्यूटरी (नेगलिजेंस) के लिए जनता व राजनीतिक पार्टियां दोनों बराबर के जिम्मेदार है।

गुरमीत राम रहीम सिंह वर्ष 1987 में स्थापित हरियाणा के सिरसा स्थिति संस्था ‘‘डेरा सच्चा सौदा’’ का प्रमुख है। गुरमीत द्वारा कई सकारात्मक कार्य किये गये हैं, जिस कारण से उन्हें कई ग्रिनीज बुक अॉफ रिकार्ड भी मिले है, जो रक्तदान, वृक्षारोपण व सबसे अधिक लोगों का हाथ साफ करने से संबंधित है। गुरमीत को सजा मिलने के बावजूद हजारों लोग न केवल उसके समर्थन में खड़े हुए बल्कि मरने-मारने के लिए आमदा होकर हिंसात्मक होकर दंगा होने से 38 लोगों की जाने भी चली गई।

निश्चित रूप से मुख्तार अंसारी की मौत पर वे समस्त भुक्त-भोगी परिवार चाहे वह कृष्ण चंद्र राय अथवा अजय राय का हो या अन्य वे सब परिवार, जिन्होंने अपने परिजनो को इस बाहुबली के हाथों खोया है, उन सब को आत्म संतुष्टि महसूस करने के साथ-साथ खुशी मनाने का भी व्यक्तिगत अधिकार बिना किसी प्रश्नवाचक चिंह के है। क्योंकि जो व्यक्ति अपनो को असमय अप्राकृतिक रूप से हमेशा के लिए खोता है, उसका दर्द वहीं समझ सकता है। परंतु जिस तरह से ‘‘लाठी पकड़ी जा सकती है जीभ नहीं’’, उसी प्रकार सोशल मीडिया में अफजाल अंसारी की मौत पर जिस तरह की टिप्पणियां की जा रही है, क्या वे एक सभ्य समाज की प्रतिक्रिया कही जा सकती हैं? खासकर भारतीय, विशेष कर हमारी हिंदू संस्कृति को देखते हुए जो एक बड़ा उदार दिल लिए हुए वह संस्कृति है, जहां पर व्यक्ति की मृत्यु पर हम सिर्फ उसकी अच्छाइयों को ही याद करते हैं, बुराइयों को भुला देते हैं। इस कारण से कि इस सृष्टि में दुनिया में कोई भी व्यक्ति, अपराधी या संत ऐसा नहीं है, जिसमें कुछ न कुछ अच्छाइयां न हो और कुछ न कुछ बुराईयां न हो। ‘‘विधि प्रपंच गुन अवगुन साना’’।


मंगलवार, 26 मार्च 2024

अपराध रहित व भ्रष्टाचार विहीन विधायिका का आह्वान करने वाले अरविंद केजरीवाल खुद ही भ्रष्टाचार के आरोप में अंततः गिरफ्त में आ गए।

 ‘‘ईमानदार राजनीति’’ के ‘‘परसेप्शन’’ पर ‘‘भ्रष्टाचार का तड़का’’।


याद कीजिए! अप्रैल 2011 में दिल्ली के जंतर मंतर पर ‘‘जन लोकपाल विधेयक’’ के लिए महाराष्ट्र के रालेगांव सिद्धि निवासी, समाजसेवी गांधीवादी बाबूराव हजारे जो अन्ना हजारे के नाम से जाने जाते हैं, का ‘‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन ग्रुप’’ के बैनर तले भ्रष्टाचार के विरुद्ध, गैर राजनैतिक, अहिंसा वादी आंदोलन लगभग चार महीने सफलतापूर्वक चला। इस आंदोलन को एक तरफ परदे के पीछे संघ प्रचारक एवं भारतीय जनता पार्टी के पूर्व महासचिव रहे चिंतक गोविंदाचार्य चला रहे थे, तो दूसरी ओर पर्दे पर ‘‘मैग्सेसे पुरस्कार’’ विजेता, भारतीय राजस्व सेवा से इस्तीफा देकर आए नौकरशाह संयुक्त आयकर आयुक्त रहे अरविंद केजरीवाल चला रहे थे। आंदोलन के दौरान दिन प्रतिदिन अरविंद केजरीवाल मंच से दहाड़ मार कर बोलते थकते नहीं थे कि यह जो संसद है, वह दागी है, क्योंकि उसमें 150 से ज्यादा सांसद दागी हैं, जिन पर भ्रष्टाचार और अपराधों के गंभीर आरोप है। ‘‘असली संसद’’ तो सामने खड़े लोग (जनता) हैं। अरविंद केजरीवाल की यह मांग रही थी कि जिन भी सांसदों पर अपराधिक अपराध और भ्रष्टाचार के प्रकरण चल रहे हैं, वे सब पहले संसद से इस्तीफा देकर न्यायालय में मुकदमा लड़ कर बाईज्जत बरी होकर आयें। फिर जनता के बीच जाकर चुनाव लड़कर चुनकर संसद में जाएं। यही सही स्वच्छ संसदीय लोकतंत्र होगा।

याद कीजिए! जब अन्ना आंदोलन के प्रमुख कर्ता-धर्ता अरविंद केजरीवाल ने संसदीय लोकतंत्र को अपराध व भ्रष्टाचार से मुक्त करने के उक्त मुद्दे को लेकर भ्रष्टाचार मुक्त और अपराधी/आरोपी विहीन संसद और विधानसभा की कल्पना को लेकर एक नई राजनीतिक पार्टी बनाने की बात कही, तब केजरीवाल के आंदोलनकारी गुरु भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के मुख्य चेहरा अन्ना हजारे ने ऐसी ‘‘घर का देव और घर का पुजारी’’ वाली राजनीतिक पार्टी बनाने से साफ इनकार कर दिया था। शायद अन्ना ने जयप्रकाश नारायण के भ्रष्टाचार विरोधी संपूर्ण क्रांति के आंदोलन से सीख ली, जहां जेपी ने नई राजनीतिक पार्टी जनता पार्टी बनाई तो जरूर, परंतु स्वयं उन्होंने सत्ता में भागीदारी नहीं की। ‘‘घर का कुआ है तो डूब थोड़े ही मरेगें’’। 

अन्ना शायद इस बात को अच्छी तरह से समझ चुके थे कि जयप्रकाश नारायण की बनाई नई राजनीतिक पार्टी जनता पार्टी का कुछ ही समय में सत्ता के लिए लड़ाई के चलते क्या ह्रास हुआ? अतः अन्ना ने जेपी की सत्ता में भागीदारी की अनिच्छा के एक कदम और आगे बढ़ते हुए जेपी के समान नई राजनीतिक पार्टी बनाने से साफ इनकार कर दिया। शायद इसलिए कि यदि उक्त मुद्दों को लेकर नई राजनीतिक पार्टी बनाई जाएगी तो सत्ता की अंतर्निहित इच्छा लिए नई राजनीतिक पार्टी को फेवीकॉल समान मजबूत सत्ता तत्व से युक्त इस बुरी तरह से जकड़ कर वह उसे अपने वर्तमान स्वरूप के ढांचे (भ्रष्टाचारी) में ही समाहित कर नई पार्टी को भी अपने अनुरूप ढाल लेगा। यानि कि ‘‘फिर बेताल कंधे पर’’। तब फिर तंत्र को बदलने के लिए नई राजनीतिक पार्टी बनाने वाला नेतागण भी अंततः स्वयं उनके गिरफ्त में आ ही जाएंगे, जिसका परिणाम आज ‘‘खुल्ला खेल फरक्काबादी’’ का नारा लगाने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल की भ्रष्टाचार के आरोप में हुई गिरफ्तारी के रूप में देखने को मिल रहा है। लबो लुआब यह कि ‘‘कडवी बेल की तूमड़ी उससे भी कड़वी होय’’।

पुनः याद कीजिए! इस देश में जब-जब भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध देशव्यापी आंदोलन हुए वे सफल होकर तत्कालीन सत्ता को बदलने में तो सफल जरूर हुए, परंतु सत्ता के तंत्र को बदल नहीं पाए, सिर्फ ‘‘मुखौटा’’ ही बदला गया। विपरीत इसके भ्रष्टाचार का मजबूत तंत्र जिसे हम ‘‘लोकतंत्र’’ का नाम देते हैं, स्वयं पारस पत्थर बनकर अधिकांश आंदोलनकारी नेताओं को अंततः भ्रष्टाचारी बना दिया जो भ्रष्टाचार समाप्त करने नये राष्ट्र के निर्माण में निकले थे। गुजरात के युवाओं का भ्रष्टाचार के विरुद्ध नव-निर्माण आंदोलन से प्रारंभ हुआ आंदोलन बिहार में पहुंचकर जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के आंदोलन में परिवर्तित हो गया। इस कारण ही आपातकाल लगा और अंततः आपातकाल हटने के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी। परंतु सत्ता के भ्रष्ट तंत्र को जयप्रकाश नारायण के सिपहसालार परिवर्तित नहीं कर पाए और कहते हैं ना कि ‘‘कचरे से कचरा बढ़े’’ तो, संपूर्ण क्रांति के आंदोलन की पैदाइश लालू यादव से लेकर देवीलाल जैसे अनेक खांटी नेता भ्रष्टाचार में गले की कंठ तक डूब गए। इसी प्रकार विश्वनाथ प्रताप सिंह का भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन सफल होकर वे स्वयं प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जरूर आरूढ़ होकर सत्तारूढ़ हो गये। परंतु वह भी सिर्फ सरकार के चेहरा बदलने तक ही सीमित रहा, तंत्र बदलने में वे भी पूर्णतः असफल रहे।

अरविंद केजरीवाल के समर्थक आम पार्टी के कार्यकर्ता गण जरूर यह कह सकते हैं कि ‘‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’’ का नारा देने वाले निश्चित रूप से स्वयं तो नहीं खा रहे हैं, परन्तु आगे का कथन न खाने दूंगा को धरातल पर जरूर अनर्थ अथवा अर्थहीन कर दिया है। क्योंकि समस्त दागी, भ्रष्टाचारी नेताओं जिन पर उक्त नारा देने वालो ने स्वयं भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप समय-समय पर लगाए बावजूद फिर उन्हें गले भी लगा लिया। वे सब ‘‘झंडू बाम हो गये’’। ऐसा शायद इसलिए भी जरूरी हो गया ंकि एक दूसरा नारा भी दिया गया था, ‘‘सबका साथ, सबका विकास सबका प्रयास’’। सबके साथ में भ्रष्टाचारी भी तो शामिल है, जिनकी भागीदारी इस कारण से शायद आवश्यक हो गई। ‘‘जब गंगोत्री ही मैली है, तो गंगा मैली क्यों न होगी’’। सरकार पर यह आरोप भी लगता है कि ईडी की यह कार्रवाई का समय निश्चित रूप से ‘‘राजनीति’’ से प्रेरित होकर पक्षपात पूर्ण है। क्योंकि ईडी, इनकम टैक्स, सीबीआई की कार्रवाई सिर्फ विपक्षी नेताओं पर (लगभग 95 प्रतिशत से ऊपर) हो रही है। वह भी विशुद्ध कानूनन् न होकर राजनीतिक गठजोड़ फायदा नुकसान के हिसाब से सत्तारूढ़ पार्टी के इशारां पर हो रही है, यह स्पष्ट रूप से परिलक्षित दिखता भी है। अब तो इस ‘टूल’ में ‘‘भारतीय स्टैट बैंक’’ को भी शामिल कर लिया गया है जो इलेक्ट्राल बॉड के मामले में उच्चतम न्यायालय में सीबीआई के रूख से बिलकुल सिद्ध होता है।       

केजरीवाल का सार्वजनिक/राजनीतिक जीवन प्रांरभ से ही दोहरा चरित्र व झूठ का आवरण ओढ़े हुए गुजरते समय के साथ विवादित भी रहा है। ‘‘राजनीति में नहीं आऊंगा’’। ‘‘कांग्रेस से कोई समझौता नहीं करूगा’’ आदि-आदि। ‘‘चंचल नार की चाल छिपे नहीं’’। तथापि शासकीय सेवाकार्य उत्कृष्ट, उज्जवल रहा है। मात्र ‘आरोपी’ हो जाने के आधार पर दागी सांसदों से इस्तीफा मांग कर सार्वजनिक जीवन की शुरुआत करने वाले केजरीवाल की स्वयं की पार्टी के अधिकांश विधायक व मंत्रियों पर कई आपराधिक मुकदमे दर्ज हो चुके हैं (62 में से 35 विधायकों पर)। बल्कि कुछ तो जेल के अंदर काफी समय से हैं। बावजूद इसके किसी भी दागी/आरोपी विधायक द्वारा न तो स्वयं इस्तीफा दिया गया और न ही मंत्रियों के बर्खास्त करने का काम केजरीवाल ने किया। काफी समय तक जेल में रहने के बाद मंत्रियों से इस्तीफा लिया गया। केजरीवाल स्वयं देश के ऐसे पहले मुख्यमंत्री बन गये, जिन्हें मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए गिरफ्तार किया गया है। इसके पूर्व तीन अन्य मुख्यमंत्रियों लालू प्रसाद यादव, जयललिता एवं हेमंत सोरेन जिन्होंने गिरफ्तार होने के पूर्व इस्तीफा दे दिया था, के विपरीत केजरीवाल ने जेल से ही सरकार चलाने की घोषणा की है। 

केजरीवाल को अपनी गलती सुधारते हुए ‘‘नैतिकता का सम्मान’’ करते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर ‘‘एक नदी के भांति अपनी राह खुद बनाने वाले’’ अपनी गिरती छवि को सुधारने के अवसर को जाने नहीं देना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि केजरीवाल एक पढ़े लिखे राजनीति की नई ईबारत लिखने वाले एक ऐसे सफल राजनेता बन गये कि इतने कम समय में उन्होंने जो राजनैतिक उंचाईयां व सफलता प्राप्त की है ऐसी कोई मिसाल विगत कुछ दशकों में देखने को नहीं मिली है। दबंग व्यक्तित्व के धनी दृढ़ता से अपने से उंचे हिमालय पर बैठे नेताओं को तर्क से जवाब देकर सामना करने की हिम्मत आज कल कम ही नेताओं में दिखती है। इसीलिए आज उन्हें इस बात पर जरूर अंतर्मन से विचार करना चाहिए कि ‘‘इंडिया अग्रेस्ट करप्शन’’ मंच के उनके पुराने साथी जिन्होंने अन्ना आंदोलन में केजरीवाल के साथ भाग लिया क्योंकि वे बाबा रामदेव, किरण बेदी, कुमार विश्वास, प्रशांत भूषण, राजेन्द्र सिंह, पीवी राजगोपाल, आशुतोष, योगेन्द्र यादव, स्वामी अग्निवेश आदि एक-एक करके छोड़कर चले गये। इंडिया अगेंस्ट करप्शन का झंडा उठाकर उक्त आंदोलन से उपजी ‘‘आम आदमी पार्टी’’ के शीर्ष चार नेताओं की भ्रष्टाचार के आरोपों में गिरफ्तार होकर जेल में अभी तक रहने से व विधायकि से इस्तीफा न देने के कारण इसे गिरती राजनीति की नैतिकता का निम्नतम स्तर ही माना जायेगा।

इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि यदि राजनीति से भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करना है, तो आपको राजनीति से दूर रहकर ही तंत्र को बदलना होगा और यह तभी बदल पाएगा जब तंत्र का जनतंत्र का एक-एक जन इस दिशा में देश को नई दिशा देने के लिए बिना किसी राजनीतिक प्लेटफार्म के कुछ करने के लिए तत्पर होकर कार्य करने के लिए खड़ा हो जाएगा। इस बात को समझने के लिए अन्ना आंदोलन के समय केजरीवाल के भाषण की इन लाइनों को पढ़ लीजिए! ‘‘इस कुर्सी के अंदर कुछ न कुछ समस्या है, जो भी इस कुर्सी पर बैठता है, वह गडबड़ हो जाता है। तो कहीं न ऐसा तो नहीं कि जब इस आंदोलन से कोई विकल्प निकल गए और वे लोग जब कुर्सी पर जाकर बैठेंगे, तब वो भी कहीं भ्रष्ट न हो जाए ये, भारी चिंता है हम लोगों के मन में’’।

केजरीवाल की तत्समय की मन की चिंता आज स्वयं उन पर ही फलीभूत होते हुए दिख रही है।

रविवार, 10 मार्च 2024

लोकतंत्र की हत्या रोकने के लिए संविधान का अतिक्रमण?

लोकतंत्र पर लगे ‘‘अभूतपूर्व काले दाग’’ को मिटाने के लिए ऐतिहासिक न्यायिक निर्णय!

‘‘निर्णय की तथ्यात्मक गलतियां’’ 

उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रथम प्रधानमंत्री स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरू की परिकल्पना के अनुरूप विश्व प्रसिद्ध फ्रांसीसी वास्तुकार ‘‘ली कार्बजियर’’ द्वारा डिजाइन की गई 20वीं सदी का देश का नया बना शहर चंडीगढ़ के मेयर चुनाव को लेकर उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की गई थी। 5 फरवरी को पहली बार हुई सुनवाई के दौरान माननीय मुख्य न्यायाधीश ने कहा ‘‘क्या इस तरह से चुनाव कराए जाते हैं’’? यह लोकतंत्र का मजाक है, हत्या है। क्या चुनाव अधिकारी का ऐसा बर्ताव हो सकता है’’। ’हम हैरान हैं! इस ‘‘शख्स पर केस चलना चाहिए’’। यह सब आश्चर्य मिश्रित ‘‘कठोर कथन’’ कहकर उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय को इस बात के लिए भी हड़काया कि ऐसे मामले में अंतरिम आदेश पारित क्यों नहीं किये गये? 

सबसे ‘‘आश्चर्यजनक बात’’ यह भी रही कि बिना किसी शक-शुबहा के लोकतंत्र की हत्या होते देखने के तथ्य से सहमति दर्शाने के बावजूद उच्चतम न्यायालय ने स्वयं भी ऐसा कोई ‘‘अपेक्षित आदेश’’ न्याय के लिये पारित नहीं किया। इस प्रकार कहीं न कहीं तथ्यों पर स्वयं के पर्यवेक्षण (ऑब्जरवेशन) एवं निष्कर्षानुसार कार्रवाई न करके प्रथम दृष्ट्वा उच्चतम न्यायालय की गलती प्रतीत होती है। उच्चतम न्यायालय द्वारा संपूर्ण न्याय देने की प्रक्रिया में संविधान के अनुच्छेद 142 में निहित व्यापक विवेकाधिकार का उपयोग करते हुए और विधान को परे रखकर कौन-कौन सी गलतियां उच्चतम न्यायालय ने की हैं, जैसा कि एक उदाहरण ऊपर दिया गया है। इसकी विवेचना की जानी आवश्यक है। ख़ास तौर से इस सिद्धांत को देखते हुए कि कोई भी संस्था या व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो ग़लती न करता हो। ‘‘चांद को भी ग्रहण लगता है’’। 

पहले यह समझना आवश्यक है कि संविधान के अनुच्छेद 142 का उपयोग सामान्यतः विशिष्ट कानून के अभाव में अथवा कानून में अपूर्णता या कमी होने के कारण उपचार के लिए न्याय हित में अत्यंत आवश्यक और अपरिहार्य होने पर ही किया जाता है। यहां पर उच्च न्यायालय द्वारा स्थगन आदेश न दिए जाने के कारण एक ‘‘एसएलपी’’ (विशेष अनुमति याचिका) उच्चतम न्यायालय में दायर की गई थी! प्रथम गलती उच्चतम न्यायालय की तब हुई, जब उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय को फटकारने के बाबजूद अंतरिम आदेश न देकर याचिकाकर्ता को त्वरित सहायता प्रदान न करते हुए 15 दिन बाद प्रदान की! इस कारण से 30 जनवरी को अवैध रूप से चुना गया महापौर 18 फरवरी तक कार्यरत रहा, जब तक उसने पद से (वह भी परिस्थितियों वश) इस्तीफा नहीं दिया, क्योंकि चुनाव अधिकारी ने परिणाम घोषित होते ही उसे तुरंत चार्ज दिलवा दिया था। क्योंकि ‘‘तकल्लुफ में है तक़लीफ़ सरासर’’। 

उच्च न्यायालय के आदेशानुसार की गई चुनावी प्रक्रिया की पूरी वीडियो रिकॉर्डिंग का अवलोकन करने पर पता चला कि पीठासीन चुनाव अधिकारी अनिल मसीह वैधानिक एवं लोकतांत्रिक रूप से स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के अपने कर्तव्य के निर्वहन में न केवल असफल दिख रहे थे, बल्कि कहीं न कहीं ‘‘कूट रचित’’ (फोर्जरी) करते हुए भी दिखाई दे रहे थे। उच्चतम न्यायालय ने उक्त कथित अपराध कदाचार एवं न्यायालय के समक्ष गलत बयानी के लिए न्याय चुनाव अधिकारी के विरुद्ध रजिस्टर को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 340 के अंतर्गत तीन हफ्ते का कारण बताओ सूचना पत्र देने के आदेश भी दिए। याचिकाकर्ता द्वारा स्वयं चुनाव अधिकारी के विरुद्ध कोई आपराधिक प्रकरण दर्ज न करवाना और फिर दायर एसएलपी (विशेष अनुमति याचिका) में इस तरह की सीधी कोई मांग न करने के बावजूद उच्चतम न्यायालय का उक्त निर्देश कितना ‘‘न्यायोचित’’ है?, यह दूसरा प्रश्न है। तीसरा देश की सर्वोच्च न्यायालय की इस तरह की टिप्पणियों के बाद अधीनस्थ न्यायालय में चुनाव अधिकारी के खिलाफ आगे की जाने वाली कार्यवाही क्या प्रभावित नहीं होगी? 

सबसे बड़ा प्रश्न यहां यह उत्पन्न होता है कि चंडीगढ़ मामले में उच्चतम न्यायालय ने संवैधानिक व कानूनी नजरिये से चंडीगढ़ के निर्वाचित महापौर का चुनाव अवैघ घोषित कर हारे हुए उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित कर, जिसकी स्पष्ट मांग याचिका में नहीं थी, क्या कानून व नियम का पूर्ण रूप से पालन किया है? देश के न्यायिक इतिहास में ऐसा शायद पहली बार हुआ है। इस प्रश्न का संवैधानिक व कानून की दृष्टि से सूक्ष्म विवेचन किया जाना आवश्यक है। बावजूद इस तथ्य के उच्चतम न्यायालय ने अंततः पीड़ित पक्ष को राहत प्रदान की और लोकतंत्र की जो हत्या निर्वाचन अधिकारी ने तथ्यों के विपरीत परिणाम घोषित कर की थी, उसका इलाज कर लोकतंत्र की सुचिता को बनाये रखकर सुरक्षित किया।

उच्चतम न्यायालय का उक्त आदेश निम्न कारणों से संविधान@कानून का पालन करते हुए दिखाई नहीं देता है। तथापि अंतिम निर्णय निश्चित रूप से तथ्यों के आधार पर सही है। अन्यथा ‘‘चंदन धोई मछली पर छूटी ना गंध’’ की उक्ति चरितार्थ होना लाजमी है। आप जानते है, हमारे देश में कोई भी ‘‘चुनाव’’ गलत प्रक्रिया अपनाये जाने पर अथवा चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का उपयोग किये जाने पर उक्त निर्वाचन को चुनौती देने के लिए चुनाव याचिका का प्रावधान है। क्योंकि सामान्यतया एक बार चुनावी प्रक्रिया प्रारंभ हो जाने पर गलत रूप से नामांकन को स्वीकार या अस्वीकार कर दिया जाये, तब भी चुनावी प्रक्रिया रोकी नहीं जाती है, बल्कि ‘‘चुनाव परिणाम’’ को ही चुनाव याचिका के माध्यम से चुनौती दी जा सकती है। ऐसा कानूनी प्रावधान है। 

चंडीगढ़ चुनावी प्रक्रिया को समय समय पर विभिन्न कारणों से उच्च न्यायालय मे चुनौती दी गई थी, जिनमें एक कारण समय पर चुनाव न कराना, चुनाव तिथी एक बार तय हो जाने बाद लम्बी अवधि के लिए स्थगित कर देना, एक पार्षद को अवैध रूप से हिरासत में रखने से मुक्ति के लिए, राजनीतिक पार्टी से संबंधित व्यक्ति की चुनाव अधिकारी के रूप में नियुक्ति आदि! उच्च न्यायलय द्वारा दिए गये अंतरिम स्थगन आदेश को अस्वीकार करने के विरूद्ध दायर चुनाव याचिका में उच्चतम न्यायलय ने केन्द्र व चंडीगढ़ प्रशासन एवं अन्य पक्षों को नोटिस देने के साथ निर्वाचन के समस्त रिकार्ड अपने समक्ष प्रस्तुत किये जाने के निर्देश देते हुए दो सप्ताह बाद की तिथि निश्चित की। उच्चतम न्यायालय ने भी तुरंत अंतरिम स्थगन आदेश पारित नहीं किया। मतलब उच्च न्यायालय द्वारा चुनाव याचिका का निपटारा नहीं हुआ था, मात्र अंतरिम स्थगन आवेदन का निराकण हुआ था, जिसके विरूद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की गई थी। यह तो वही बात हुई है कि ‘‘जल की मछलियां जल में ही प्यासी’’। यहां एक उल्लेखनीय व महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि उच्च न्यायालय में दायर याचिका में याचिकाकर्ता ने पुनः चुनाव किये जाने की प्रार्थना की थी, खुद को विजयी घोषित करने की नहीं। 

मतलब उच्चतम न्यायालय के सामने स्थगन आदेश आवेदन पर आदेश पारित करने का मामला था। चूंकि यहां पर उच्चतम न्यायालय की नजर में चुनावी धांधली आईने के समान स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रही थी और हारे हुए आदमी को जीता हुआ दिखा दिया, यह स्पष्ट है। तब उच्चतम न्यायालय ने बजाय स्थगन आदेश देने के, तथा उच्च न्यायालय को याचिका के गुण-दोष के आधार पर आदेश पारित करने के निर्देश देने की बजाए, स्वयंस्फूर्त रूप से अपील को अंतिम रूप से ही निर्णित कर दिया, जो याचिकाकर्ता की मांग ही नहीं थी। इस प्रकार स्पष्ट रूप से उच्चतम न्यायालय द्वारा एक कानूनी@तथ्यात्मक गलती की और एक गलत परिपाटी डाली गई! 

यद्यपि यह जरूर कहा जा सकता है कि न्याय देने के लिए गलत परिपाटी डाली गई! उच्चतम न्यायालय की दूसरी महत्वपूर्ण गलती दिख रही है, पुलिस जांच अधिकारी के समान न्यायालय भी तथाकथित आरोपी जो जब तक प्रतिवादी था, से प्रश्नोंत्तर करने लगी और जब उसके बाद एक प्रतिवादी के रूप मे प्रस्तुत किये गये व्यक्ति को उच्चतम न्यायालय प्रथम दृष्टिया आरोपी ठहरा देता है, तब सुनवाई के समय अधीनस्थ न्यायालय स्वतंत्र निर्णय दे पायेगा, उसके लिये ‘‘तत्ता कौर न निगलने का न उगलने का’’ वाली स्थिति तो उत्पन्न नहीं हो जायेगी? बड़ा यक्ष प्रश्न यह है? यह उच्चतम न्यायालय का ही बनाया हुआ नियम व सिद्धांत है कि ‘‘न्याय न केवल मिलना चाहिए, बल्कि मिलते हुए दिखना भी चाहिए’’। कहते हैं कि ‘‘जंह पांच पंच तंह परमेश्वर’’, यहां पर उच्चतम स्तर पर किये गये आदेशानुसार बनाये जाने वाले आरोपी के साथ न्याय हो पायेगा? अधीनस्थ न्यायालय स्वतंत्र रूप क्या निर्णय ले पायेगी? सबसे महत्वपूर्ण गलती यह रही कि बहस के दौरान उच्चतम न्यायालय का यह कथन कि हम हॉर्स ट्रेंडिंग नहीं होने देंगे। यह कहीं से कहीं तक चुनाव याचिका का भाग नहीं था, लेकिन चुनाव याचिका के दायर होने के बाद और सुनवाई के एक दिन पूर्व महापौर के इस्तीफा देने व 3 पार्षदों के द्वारा दल-बदल करने के कारण उक्त स्थिति का भी संज्ञान लिया गया लगता है, जो याचिका की विषय वस्तु नहीं थी। तब मसीह के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने के साथ मसीह के ‘‘मसीहा’’ का पता लगाने की जांच के आदेश भी दिए जा सकते थे? 

ऐसी स्थिति में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को उसके पास उपलब्ध असीमित अधिकार को अनुच्छेद 142 के अधीन सही ठहराने के बजाय चुनाव याचिका के लिए बने कानून में आमूलचूल परिवर्तन लाने की आवश्यकता है, क्योंकि ‘‘कड़े गोश्त के लिए पैने दांतों की ज़रूरत होती है’’। ताकि इस तरह की स्थिति पैदा होने पर ऐसे प्रत्येक मामले में त्वरित व तुरंत निर्णय लेने में निम्न न्यायालय सक्षम हो सकंे। यह निर्णय कानून की सीमाओं से ऊपर उठकर न्याय की कुर्सी पर बैठे न्यायाधीपति के साहस व उनके विवेक पर ज्यादा निर्भर करता है। इसलिए यदि ‘‘न्याय तंत्र’’ की मूल कमियों को भविष्य में दूर नहीं किया गया तो, उस पर बैठा हुआ न्यायाधीश आज के मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ जैसा साहसी नहीं हुआ तब ऐसे निर्णय नहीं आ पायेगें, और फिर न्याय न तो ‘न्यायिक’ और न ‘अन्यायिक’ तरीेके से आ पायेगा?

शुक्रवार, 1 मार्च 2024

अनेकता में एकता नहीं!

‘‘अनैतिकता’’ में एकता

विश्व में भारत देश की पहचान के रूप में एक कथन अभी तक कहा जाता रहा है ‘‘कश्मीर से कन्याकुमारी तक अनेकता में एकता भारत की पहचान है’। यह बात या नारा भिन्न भिन्न संस्कृति, धर्म, जाति, भाषा, बोली, वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान, रंग-रूप आदि को लेकर कही जाती रही है। परंतु अब समय आ गया है कि लगता है कि उक्त कथन में हल्का सा संशोधन कर ‘‘अनेकता’’ की जगह ‘‘अनैतिकता में एकता’’ कर दिया जाना चाहिये। दुर्भाग्य वश, देश की सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र व पार्टियों में ही नहीं बल्कि जीवन के समस्त क्षेत्रों में यह एक नई पहचान बन गई है। नैतिकता की तो ऐसी गत हो गई है कि ‘‘करो तो सबाब नहीं, न करो तो अजाब नहीं’’। शायद इसीलिए अनीतिकता से भरिपूर्ण इसी राजनीति के लिए यह कहना पड़ जाता है कि राजनीति के ‘‘इस हमाम में हम सब नंगे हैं’’। इसीलिए तो कहा जाता है कि स्वयं कांच के घर में रहने वालों को दूसरे के घर पर पत्थर नहीं फेकना चाहिए। 

देश की राजनीति में ‘‘नैतिकता के पतन’’ का सबसे बड़ा और नंगा नाच (उदाहरण) वर्ष 1970-80 के दशक में कांग्रेस के युग में हुआ था, जब विपक्ष की पूरी की पूरी सरकार ही भजनलाल के नेतृत्व में गैरकांग्रेसी से ‘‘कांग्रेसी’’ हो गई। ठीक उसी प्रकार बल्कि उससे भी अभी तक का सबसे विकृत रूप  हाल में ही हुए चंडीगढ़ मेयर के चुनाव में अनैतिकता का अकल्पनीय अप्रीतम उदाहरण देखने को मिला, जहां ‘‘रक्षक ही भक्षक’’ होकर लोकतंत्र को इतना तार-तार कर दिया गया कि उच्चतम न्यायालय तक को कहना पड़ गया कि यह तो ‘‘लोकतंत्र की हत्या’’ है। वह जमाना था, लोहिया के ‘‘गैर कांग्रेसवाद’’ का, जिसका विस्तार संविद (संयुक्त विधायक दल) शासन के रूप में हो रहा था। परन्तु तब कांग्रेस ने भी अपने पूरे सत्ता काल में अनुच्छेद 356 का बार-बार दुरुपयोग करते हुए चुनी गई सरकारों को हटाकर 77 बार राष्ट्रपति शासन लागू करके कौन सी नैतिकता का परिचय दिया था? तत्समय नैतिकता की दुहाई देने वाली जनसंघ पार्टी अपना राजनीतिक सफर प्रारंभ कर जनता पार्टी से होकर आज वह विश्व की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी ‘‘भारतीय जनता पार्टी’’ के रूप में स्थापित हो गई है। ‘‘पार्टी विद द डिफरेंस’’, ‘‘सबको परखा-हमको परखो’’ का नारा देकर सत्ता में आते ही उसने भी वही ‘‘अनैतिकता की कैंची’’ की धार को ‘‘तेज’’ कर सरकारों को पलटाया है, जिसकी पहले वह नैतिकता का पाठ पढ़ाकर, झंडा उठाकर आलोचना करती रही है। 10 साल के एनडीए के शासनकाल में 8 से अधिक सरकार (गोवा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, महाराष्ट्र आदि) जिन्हें ‘‘जनादेश’’ नहीं मिला था, उसी अनैतिकता के धारदार औजार का उपयोग कर जनादेश के विपरीत अपनी सरकार बनाई व विपक्षी सरकार गिराई। इन 10 सालों में विभिन्न पार्टियों में 740 से अधिक विधायक व सांसद भाजपा में शामिल कराये गये। 

ऐसा नहीं है कि भाजपा ने नैतिकता के मापदंड को उच्चतम स्तर पर कभी नहीं रखा हो। परंतु वह जमाना ‘‘अटल-आडवाणी की भाजपा’’ का था। जब अटल बिहारी वाजपेई ने नैतिकता के मापदंड के उच्चतम स्तर को बनाए रखने के लिए मात्र एक वोट के खातिर अपनी सरकार की बलि देने में हिचक नहीं की थी। अटल बिहारी वाजपेई का लोकसभा में दिया गया भाषण का वह कथन आज भी भी दिलों दिमाग में गूंजता है, ‘‘सत्ता का खेल तो चलेगा। सरकारें आएंगी जाएंगी। लेकिन देश का लोकतंत्र बने रहना चाहिए’’। जबकि उसके पूर्व झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों की खुल्लम-खुल्ला खरीद फरोक कर कांग्रेस ने पी वी नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार बचाई थी। अटल बिहारी वाजपेई के चाणक्य कहे जा सकने वाले प्रमोद महाजन भी ऐसा ही अनैतिक कार्य करके सरकार को बचा सकते थे। परंतु अटल बिहारी वाजपेई ने ऐसा होने नहीं दिया। जबकि पार्टी के विस्तार के लिए सत्ता में बने रहने के लिए मजबूरी में आवश्यक बुराई के रूप में उक्त हल्का सा अनैतिक कदम उठाया जा सकता था, जिसकी पार्टी की आज की वर्तमान मजबूत स्थिति में बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है। यह था नैतिकता का उच्चतम मापदंड। आज की राजनीति में नैतिकता की अपेक्षा करना अंधों की दुनिया में आईना बेचने के समान हो गया है।

ताजा मामला हिमाचल प्रदेश की राजनीतिक घटनाक्रम का है। राजनीति के शतरंज के शह-मात के खेल में अनैतिकता के ‘‘शह’’ को ‘‘मात’’ अनैतिकता ने ही दे दी। हंसी तब आती है, जब पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर विधानसभा में तथाकथित रूप से बजट पारित होने के बाद ‘‘लोकतंत्र व नैतिकता की दुहाई’’ की बात करते हैं। निश्चित रूप से देश की राजनीति का यह शायद पहला उदाहरण है, जहां दोनों ही पक्षों ने अनैतिकता को साध्य ही नहीं बल्कि साधन भी बना लिया। ‘‘मानों अंधेरे घर में सांप ही सांप’’। परंतु प्रश्न यह है कि यहां पर अनैतिकता का खेल प्रारंभ किसने किया? विपक्षी दल भाजपा ने विधानसभा में कोई अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाया था, बल्कि राज्यसभा चुनाव की वोटिंग के समय कांग्रेस के 6 विधायकों को अनैतिक रूप से तोडा जाकर, उन्हें केंद्रीय अर्धसैनिक बल की सुरक्षा में हरियाणा में पंचकूला के सेक्टर एक पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस में रखा गया। क्या यह नैतिक कदम था? 

यह कहा जा सकता है कि चुने गए प्रतिनिधियों के बाजार की मंडी में जब कोई बिकने के लिए आया है, तो उसमें बोली लगाने अथवा खरीदने वाली की गलती क्या है? परंतु प्रश्न यह है कि मंडी में स्वेच्छा से स्वतः आया अथवा लाया गया? यदि वे स्वेच्छा से आए तो फिर उन्हें उन्मुक्त कर स्वतंत्र क्यों नहीं रहने दिया गया? अर्धसैनिक बल की सुरक्षा में दूसरे राज्य क्यों ले जाया गया? इसलिए जयराम ठाकुर को सरकार गिराने में असफल होने की खींच निकालने के लिए नैतिकता की दुहाई व लोकतंत्र की हत्या करने का कोई नैतिक अधिकार बनता नहीं है, बचता नहीं है। ‘‘कमली ओढ़ लेने से कोई फकीर नहीं हो जाता’’। जिस अनैतिकता से सरकार गिराने का प्रयास हिमाचल प्रदेश में किया गया, कमोबेश उसी अनैतिकता का उपयोग कर सरकार बचाने का प्रयास  सफल भी हुआ। इसी को कहते है ‘‘जैसे को तैसा’’ (टिट फॉर टेट)। विधानसभा अध्यक्ष ने जिस तरह से विपक्षी भाजपा के 15 विधायकों को निलंबित कर बजट पारित करवाया, निश्चित रूप से वह संसदीय मर्यादाओं का घोर उल्लंघन और अनैतिक है। परंतु संसदीय कार्यप्रणाली में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। हां अनैतिकता ही अनैतिकता पर भारी पड़ गई, ऐसा पहली बार हुआ है। लगता है कुएं में ही भांग पड़ी हुई है। क्योंकि इसके पूर्व अधिकांश मामलों में एक पक्ष को ही अनैतिकता के हथियार का उपयोग करने का अवसर मिलता था, दोनों पक्षों को नहीं। झारखंड में ‘‘ऑपरेशन लोटस’’ असफल होने के बाद भाजपा के लिए यह दूसरा झटका है। यद्यपि वहां पर इस तरह की अनैतिकता का टेस्ट नहीं हो पाया था, क्योंकि ऐसा करने का अवसर ही उत्पन्न नहीं हो पाया था।

कहा भी गया है ‘‘लोहा लोहे को काटता है’’, ‘‘डायमंड कटस डायमंड’’। इसीलिए राजनीति में निश्चित सफलता के लिए आज अनैतिकता की काट नैतिकता नहीं, बल्कि उससे भी बड़ी अनैतिकता हो गई है। गांधी जी का यह सिद्धांत आज की राजनीति में पूरी तरह से खोखला हो गया है कि ‘‘साध्य ही नहीं साधन भी पवित्र होना चाहिए’’।

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2024

तेजस्वी का ‘‘तेज’’क्या राष्ट्रीय राजनीति में युवा ‘‘चेतना को चैतन्य’’ कर नेतृत्व करेगा?

‘‘तेजस्वी का तहलका’’

‘तेजस्वी‘‘ कहीं भारतीय राजनीति में सशक्त युवाओं के पदार्पण के ‘‘पर्यायवाची’’ तो नहीं होते जा रहे हैं? ‘‘युवा मोर्चा‘‘ भाजपा का युवा संगठन है, जिसके अध्यक्ष नवम्बर 2020 से कर्नाटक के ‘‘तेजस्वी’’ सूर्या एल. एस. है, जो ‘‘सूर्य‘’ के समान चमक रहे हैं और तेजस्वी नाम को जिसका अर्थ चमकदार, उर्जावान, प्रतिभाशाली है, अपने कार्य से सफल सिद्ध कर रहे है। वे मात्र वर्ष 2019 में 28 वर्ष की उम्र में ही बंगलौर दक्षिण से संसद के लिए चुने गए। इसी प्रकार ‘‘लालू के लाल’’ तेजस्वी प्रसाद यादव, क्रिकेटर से राजनेता बने, वर्ष 2015 में मात्र 26 वर्ष की उम्र में विधायक के लिए चुनकर उप-मुख्यमंत्री बने। ‘‘चारा कांड’’ के सजायाफ्ता उनके पिताजी बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व केंद्रीय रेल मंत्री, लालू प्रसाद यादव की ‘‘छत्र छाया’’ नहीं, बल्कि "गहन काली छाया" के साथ मात्र नौंवी पास की पढ़ाई की ‘‘डिग्री’’ लिए तेजस्वी यादव है। उनकी माताजी पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी सहित तेजस्वी पर भी कई मुकदमे दर्ज हैं। ‘‘यानी कि पूरा का पूरा थान ही डैमेज है।’’ उक्त काली पृष्ठभूमि से होने के बावजूद और विधानसभा में सत्ता पक्ष की विश्वास मत पर स्पष्ट दिख रही जीत की स्थिति को अर्थात स्वयं की हार की स्थिति को मतदान के पूर्व ही भाषण के समय ही स्वीकार कर लिया था जैसा कि बाद में मतदान में भाग न लेकर सदन से वॉकआउट कर दिया था। ऐसी विपरीत स्थिति में भी तेजस्वी का  लगभग 40 मिनट का जिस तरह का जोरदार भाषण विधानसभा में विश्वास मत पर चर्चा के दौरान हुआ, उससे वे इस समय देश की समस्त मीडिया से लेकर आम जनों, बुद्धिजीवियों में चर्चित होकर राजनीति में बेहद प्रभावी होकर चमक लेकर एक प्रखर वक्ता के रूप में उभरे हैं। तेजस्वी का यह भाषण अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन की सरकार गिरने पर संसद में दिये गये भाषण की याद दिलाते हुए उनके व्यक्तित्व को एक नया अवतार प्रदान करता है व राष्ट्रीय राजनीति में उनके पिताजी से भी ज्यादा महत्वपूर्ण स्थान दिला सकता है, ऐसा कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। तेजस्वी के अपने समकालीन कई युवा नेताओं (राहुल...?) के बारे में यह कहा जा सकता है कि ‘‘जो उगता हुआ नहीं तपा तो डूबता हुआ क्या तपेगा’’?

सामने प्रत्यक्ष दिख रही निश्चित हार की मानसिकता से उबर कर, उपर उठकर और पिताजी की दाग नुमा छवि के वटवृक्ष के नीचे चलने के बावजूद उक्त घेरे (चक्रव्यूह) से निष्कलंक बाहर निकल कर आ जाना, एक नई युवा राष्ट्रीय राजनीति को इंगित करता है कि तेजस्वी ‘‘उथले पानी की मछली नहीं है’’। फिर ‘‘सुशासन बाबू’’ की छवि लिए राष्ट्रीय राजनीति के स्थापित क्षितिज राजनीतिक अनुभव में अपने से कई गुना बड़े, उम्र दराज, पांच बार की जीत, परन्तु कभी भी पूर्ण बहुमत प्राप्त न करने के बावजूद 17 साल में नौंवी बार बने ऐसे बिहार के ऐसे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सत्ता को चुनौती देते हुए, विधानसभा में अपने ‘तेज’ से तेजस्वी ने सबको ‘चमका’ दिया। जिस तत्परता, कौशल व शालीनता के साथ ‘‘अपशब्दों’’ (जो आज की राजनीति का अंलकारित महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है), का प्रयोग किए बिना विधानसभा में अपनी बात रख कर ‘‘राजा दशरथ’’, ‘‘माता कैकयी’’ का उल्लेख कर सामने वाले की बोलती बंद कर उन्हें भौंचक्का कर देना, तेजस्वी यादव का यह एक नया ‘‘एंग्री मैन’’ का रूप है। जो देश की राजनीति में आगे अग्रेषित होता हुआ स्पष्ट दिख रहा है। नाम (तेजस्वी) के विपरीत ‘‘तेजी’’ से न चलने की नीति, विपरीत परिस्थितियों में ठंडे दिमाग से तेजस्वी यादव ने जिस तरह नीतीश कुमार जो कि ‘‘ऐसे ऊंट के समान हैं जो अपनी पूंछ से मक्खी तक नहीं उड़ा सकते’’ को विधानसभा में सफलतापूर्वक ‘‘गुस्साये’’ नहीं, बल्कि ‘‘मुस्कराते’’ हुए घेरा, उसने नीतीश की अंततः हुई जीत की सफलता में भी तेजस्वी की हार की असफलता को ढक दिया। नीतीश कुमार को निरूत्तर कर सिर्फ पूर्व के लालू-राबड़ी के ‘‘जंगलराज’’ की याद दिलाने के अलावा नीतीश के पास कुछ बचा नहीं था। इस जंगलराज को भी जेडीयू की विधायक बीमा भारती ने जिसने विश्वास मत के पक्ष में मतदान किया, ने रोते हुए जिस प्रकार नीतीश की सरकार को जंगलराज कहा उससे नीतीश कुमार का जंगलराज का आरोप भी बोथल हो गया। नीतीश यह बतलाने में पूरी तरह से असफल रहे कि उन्होंने एनडीए को क्यों पकड़ा व महागठबंधन का साथ क्यों छोड़ा? ‘‘औसर चूकी डोमनी गावे ताल बेताल’’।

तेजस्वी बार-बार अपने बयानों और किए गए कार्यों से यह अहसास दिलाते रहे कि जिन उद्देश्य को लेकर नीतीश कुमार ने ‘‘एनडीए’’ को छोड़कर ‘‘महागंठबंधन’’ के साथ सरकार बनायी थी, उसी गठबंधन की सरकार ने 17 महीनों में ऐसे अनेकोनेक कार्य किए जो पूर्व में 2005 से लेकर 2024 तक 17 साल की नीतीश कुमार की सरकार में नहीं हुए और इन 17 महीनों की सरकार चलाने में तेजस्वी ने कोई रुकावट नहीं डाली। न ही अपने प्रत्युत्तर में ऐसा कोई असहयोग का स्पष्ट आरोप नीतीश कुमार ने तेजस्वी पर लगाया। हां यह आरोप जरूर लगाया कि उनकी बातों को राजद कोटे के मंत्री गंभीरता से नहीं ले रहे थे। नीतीश कुमार का एनडीए में आने का तर्क बेहद ही लचर, अविवेकपूर्ण, तर्कहीन व बिल्कुल दमदार नहीं, बल्कि एक तरह से हास्यास्पद था। जेडीयू को कमजोर करने के आरोप लगाने के साथ जिस एनडीए को कमजोर करने के लिए और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ आगामी लोकसभा चुनाव में पहले 200 व बाद में मात्र 100 सीटों पर ही समेटने की बात की हुंकार भरने वाले नीतीश कुमार जब यह कहते है कि ‘‘इंडिया’’ गठबंधन ने उनकी बात नहीं सुनी, इसलिए वे जहां थे, वापस वहीं आ गए। लालू, कांग्रेस से मिले हुए थे, यह आरोप भी लगाया। तब क्या नीतीश कुमार का यह कर्तव्य नहीं होता था कि ‘‘गठबंधन’’ छोड़कर ‘‘एनडीए’’ में जाने की बजाए अपनी बची-कुची ताकत के आधार पर उक्त घोषित उद्देश्य की पूर्ति करने के लिए जुट जाते? परन्तु विपरीत इसके वे अपनी मान-सम्मान का ख्याल किए बिना, उस एनडीए को कमजोर करने की बजाय, उसी एनडीए को मजबूत करने में शामिल हो गए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नीतीश कुमार का उद्देश्य एनडीए को कमजोर करना नहीं था, जब एनडीए छोड़कर ‘महागठबंधन’ में शामिल हुए थे।

सामान्यतया ऐसा कभी नहीं होता है और न ही ऐसा मानवीय स्वभाव होता है कि एक व्यक्ति जो अपने दुश्मन को निपटाने के लिए पहले ‘‘दुश्मन के दुश्मन से’’ हाथ मिलाता हो, असफल होने पर अथवा बीच में ही लड़ाई छोड़ने पर, वह प्रथम दुश्मन से लड़ने की बजाए उसके साथ ही शामिल होकर समर्पण कर दें। यह तभी होता है, जब वास्तव में वह दुश्मन ‘‘जानी दुश्मन’’ न होकर दिखाने के लिए दुश्मन होता है, और ऐसा परसेप्शन बनाया जाता है। यदि राजनीतिक रूप से अपने दुश्मन से लड़ने में सक्षम नहीं है, इस लड़ाई में दूसरों का वांछित सहयोग नहीं मिल रहा है, तो उचित तो यही होता कि कुछ समय का इंतजार करते या परिस्थितियों का सामना कर विद्यमान परिस्थिति, के आधार पर ही लड़ने का प्रयास करते, न कि उसी दुश्मन से मिलकर उसी को मजबूत करने का कार्य करें। इसी को कहते हैं कि ‘‘ओछे की प्रीत बालू की भीत’’। नीतीश कुमार के पूरे कार्य का निचोड़ यही ‘‘गैर जिम्मेदारी’’ है, जिसकी ‘‘जिम्मेदारी’’ से वे भाग नहीं सकते हैं।

तेजस्वी ने भाषण में कई बातें सकारात्मक कहीं, तो कुछ के द्वारा सामने वाले को आइना दिखाने का सफल प्रयास किया। एक और महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन तीन विधायक के अचानक उनके प्रति पाला पलटकर विश्वास मत के दौरान विश्वासघात करने के बावजूद तेजस्वी ने उनके प्रति राजनीतिक ‘‘उदारता’’ दिखाई। वर्तमान में हममें से शायद किसी ने भी किसी नेता में इस तरह की बहुआयामी प्रतिभा नहीं देखी होगी। तेजस्वी का यह रवैया उनके व्यक्तित्व को बहुत बड़ा कर देता है। 

नीतीश कुमार का युवाओं को नौकरी देने के संबंध में तेजस्वी पर श्रेय लेने का आरोप लगाने पर तेजस्वी ने जिस प्रकार जवाब दिया, वह वाकई में काबिले तारीफ व सटीक था। उन्होंने स्पष्ट रूप से सत्ता पक्ष को चुनौती दी, जो काम करेगा वह ‘‘श्रेय’’ लेगा। चूंकि मैंने वह काम किया जो नीतीश कुमार ने विधानसभा चुनाव के समय कहा था कि "अपने बाप से पैसा लायेगा’’? ‘‘जेल से पैसे लेगा’’? साथ ही उन्होंने सत्तापक्ष को यह चुनौती भी दी कि आप भी जब कोई काम करेंगे तो क्या श्रेय नहीं लेंगे? आप ओल्ड पेंशन लागू कीजिए और श्रेय लीजिए। हम भी इसे स्वीकार करेगें।

राजद के दो विधायक आनंद मोहन के बेटे चेतन आनंद, बाहुबली अनंत सिंह की पत्नी नीलम देवी के अध्यक्ष की अनुमति के बिना सत्ता पक्ष के साथ बैठकर पाला पलटने पर तेजस्वी का यह कथन महत्वपूर्ण है कि आपको जब भी हमारी जरूरत हो, हम आपके साथ है। पूर्व में भी हमने आपको खराब स्थिति से उबारा है। यह कथन भविष्य की संभावनाओं का खुला रखने का द्वार ही कहा जायेगा। 17 महीनों के शासन में कहीं यह याद नहीं आता है कि तेजस्वी यादव ने नीतीश कुमार से अपनी असहमति या नाराजगी जाहिर की हो। इसके बावजूद नीतीश कुमार ने कई बार लालू प्रसाद यादव के जंगल राज का उद्हरण किया। सचमुच में इस 40 मिनट के भाषण ने नीतीश कुमार की लगभग 40 साल से अधिक की जो राजनीतिक पूंजी कमाई थी, जिस कारण वे सुशासन बाबू भी कहलाये, जो पूंजी इस बार पाला बदलते ही समाप्त हो गई। ऐसी रातों के ऐसे ही सवेरे होते हैं’’। और उस पर तेजस्वी के भाषण ने ऐसा तडका लगा दिया की जो जली हुई पूंजी की अग्नि पर राख पड़ी थी, वह उस राख को तेजस्वी के भाषण ने ठंडा (शीतल) कर दिया, जिससे वह भविष्य में चिंगारी के रूप में भी न जल सके। ‘‘ईंट की लेनी और पत्थर की देनी’’इसी को कहते हैं।

युवा नेतृत्व की देश की राजनीति में महत्वपूर्ण भागीदारी को रेखांकित करता यह लेख अपूर्ण ही कहा जायेगा, यदि इसमें  उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का उल्लेख न किया जाए। उत्तर प्रदेश विधानसभा में अखिलेश यादव ने जो बजट भाषण दिया, निश्चित रूप से अखिलेश भी ‘‘तेजस्वी’’ की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। दोनों ‘‘एक तवे की रोटी, क्या पतली क्या मोटी’’। वे पहली बार वर्ष 2012 में विधानसभा का चुनाव लड़े व मात्र 38 वर्ष की उम्र में उत्तर प्रदेश जैसे सबसे बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए थे। अखिलेश के भाषण में युवा उत्साह के साथ राजनीतिक अनुभव की परिपक्वता भी पूरी तरह से परिलक्षित हो रही थी। इन तीनों युवा नेताओं के मर्यादित विधायकि उद्बोधन और देश की राजनीतिक क्षितिज पर तेजी से उभरते व्यक्तित्व के कारण भविष्य में और भविष्य के गर्भ में छुपी अन्य संभावनाओं के मद्दे नजर अब शायद किसी नागरिक को यह कहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी कि इंदिरा के बाद कौन? मोदी के बाद कौन? सर्व-धर्म, सम-भाव, सर्वसमाज की भावना लेकर बढ़े तेजस्वी जैसे लोग आगे बढ़कर देश के नेतृत्व करे, इन्ही शुभकामनाओं के साथ।

इंडिया ‘‘गठबंधन‘‘ का पहला ‘‘शक्ति परिक्षण‘‘ चंडीगढ़ मेयर चुनाव!

 क्या उच्चतम न्यायालय भी ‘‘एक्शन’’ (कार्रवाई) कम ‘‘परसेप्शन’’ बनाने में ज्यादा लग गया है?

‘‘खूबसूरत शहर पर लोकतंत्र कमजोर करने का बदनुमा दाग’’!

वर्तमान राजनीति निसंदेह ‘‘क्रिया’’ (कार्रवाई एक्शन) की बजाए ‘‘धारणा‘‘ (परसेप्शन) और ‘‘नरेटिव‘‘ से परिपूर्ण है। और इस मामले में तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कोई मुकाबला ही नहीं है। इसी ‘‘परसेप्श्न व नरेटिव’’ के सहारे प्रधानमंत्री ‘‘अबकी बार 400 के पार’’ का आत्मविश्वास से भरा कथन संसद में कर रहे थे। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए इस दावे से एकदम से इंकार भी तो नहीं किया जा सकता है? ‘‘कर्ता से करतार हारे’’।

कहते है न, जिस वातावरण में हम रहते हंै, प्रभाव उसका अवश्य पड़ता है। ऐसा ही कुछ राजनीति की ‘‘क्रिया व बनी धारणा’’ का प्रभाव न्यायपालिका पर भी पड़ता हुआ दिख रहा है। पिछले कुछ समय से उच्चतम न्यायालय में जिस तरह की न्यायालीन कार्रवाई हुई है, जो कुछ तीक्ष्ण टिप्पणियां न्यायालय द्वारा कुछ एक मामलों में की गई, परन्तु बाद में उन्हीं मामलों में जो फैसले आये उनका उन कहीं गई टिप्पणियों से वैसा सरोकार न होने/रखने के कारण, न्यायालय में भी ‘‘धारणा‘‘ की (परसेप्शन) स्थिति बनती हुई प्रतीत होती दिखती है।

चंडीगढ़ जिसका नाम देवी दुर्गा के एक रूप ‘‘चण्डी’’ के कारण पड़ा, वर्ष 1952 में बना देश का एक बहुत ही सुंदर शहर है। इसके वास्तुकार विश्व प्रसिद्ध फ्रांसीसी ली कार्बजियर थे। इसीलिए इसे ‘‘सिटी ब्यूटीफुल’’ भी कहा जाता है। इस शहर की सुंदरता को मैंने भी देखा है। विश्व में यह शायद एकमात्र ऐसा शहर है, जिसे तीन राजधानी (ट्रिपल क्राउन) होने का गौरव प्राप्त है। प्रथम एक व दो पंजाब तथा हरियाणा राज्य की राजधानी व तीसरा है, ‘‘केन्द्र शासित प्रदेश’’ (संघ राज्य क्षेत्र) है। इसका एक प्रशासक होता है, जो सीधे केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अधीन कार्य करता है। चंडीगढ़ महापौर का कार्यकाल उत्तर भारत पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश की तुलना में मात्र 1 वर्ष का होता हैं। 

अभी चंडीगढ़ मेयर का जो चुनाव हुआ है, जिसका कार्यकाल 16 जनवरी को समाप्त हो चुका है, ‘‘उस चंडीगढ़’’ का था, जिसकी कमान केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है। अर्थात् केन्द्रीय प्रतिनिधी होने कारण सीधे रूप से राज्यपाल के पास है। मतलब चंडीगढ़ प्रशासन की कोई भी गलती अथवा उपलब्धि के लिए केन्द्रीय गृह मंत्रालय व राज्यपाल ही उत्तरदायी अथवा अधिकरी माने जायेगें। ‘‘कमर का मोल होता है तलवार का नहीं’’। महामहिम राज्यपाल बनवारीलाल जो मध्य भारत के अग्रणी अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र ‘‘द हितवाद’’ के मालिक रहें हैं, के इस्तीफा को चंडीगढ़ चुनाव परिणाम, के उक्त परिदृश्य के परिपेक्ष में भी देखा जा सकता है। ‘‘कहु रहीम कैसे निभे बेर केर को संग’’।

लोकतंत्र को तार-तार कर देने वाली चंडीगढ़ मेयर के चुनावी प्रक्रिया का मामला पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय से आवश्यक सहायता न मिलने पर उच्चतम न्यायालय पहुंचा। सुनवाई के दौरान प्रथमदृष्ट्यिा ‘‘वीडियो’’ क्लिक देखने के बाद माननीय मुख्य न्यायाधीश की यह बेहद तल्ख टिप्पणीयाॅ थी कि ‘‘यह जनतंत्र की हत्या है’’। ‘‘लोकतंत्र मजाक है’’। ‘‘पूरे मामले से हम हैरान है। ‘‘चुनाव अधिकारी क्या कर रहे है? ‘‘चुनाव अधिकारी पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए’’। उक्त टिप्पणियों ने तो देश के लोकतंत्र की जड़ों को ही हिला दिया। एक बार तो ऐसा लगा कि ‘‘देश में लोकतंत्र तख़्त पर नहीं तख़्ते पर है’’। उच्च न्यायालय की इस बात के लिए भी आलोचना की गई कि ऐसे मामले में ‘‘अंतरिम आदेश’’ क्यों नहीं दिया गया? उक्त तल्ख टिप्पणी के बावजूद आश्चर्य की बात यह रही कि स्वयं उच्चतम न्यायालय ने याचिकाकर्ता कुलदीप कुमार टीटा जिसे मेयर चुनाव में तथाकथित गड़बड़ी कर हराया गया था, के पक्ष में कोई अंतरिम आदेश नहीं दिया गया। न तो प्रथम दृष्ट्या दिखते ‘‘शून्य’’ चुनाव परिणाम पर रोक लगाई, जिससे की अवैध रूप से निर्वाचित अध्यक्ष को कार्य करने से रोका जा सकता था और न ही लोकतंत्र का गला घोटने वाले अधिकारी के विरूद्ध प्राथमिकी दर्ज करने के अथवा तत्काल जांच के आदेश दिये। मतदान को एक साजिश के तहत विकृत किया गया हैं, यह अभी अनुत्तरित हैै।

हाईकोर्ट ने जहां तीन हफ्ते बाद सुनवाई के लिए प्रकरण रखा, वहीं उच्चतम न्यायालय ने दो हफ्ते बाद 19 फरवरी सुनवाई निश्चित की। तत्काल कोई राहत उच्चतम न्यायालय से याचिकाकर्ता को नहीं मिली, सिवाए चुनाव प्रक्रिया के पूरे रिकॉर्ड को संरक्षित करने के साथ निर्वाचन अधिकारी को व्यक्तिगत उपस्थिति के निर्देश दिये गये। इससे इस बात को पूरा बल मिलता है कि, उच्चतम न्यायालय ने यह (परसेप्शन) तो पूरा बनाया कि वह लोकतंत्र का प्रहरी है और संविधान में प्रद्रत्त, वर्णित निष्पक्ष व न्यायप्रिय चुनाव आयोग के अपने कर्तव्य के पालन में असफल होने पर वह सबसे बड़ा अभिरक्षक (कस्टोडियन) है। परन्तु क्या वास्तव में ऐसा ‘‘परिणाम’’ फलितार्थ हुआ? ऐसे कुछ अन्य ऐसे मामले को आगे उद्धरित किया गया है।

महाराष्ट्र के मामलों को देख लीजिए! जहां उच्चतम न्यायालय ने शिवसेना की टूट पर विधानसभा अध्यक्ष एवं चुनाव आयोग द्वारा की गई कार्रवाई पर यह कहा था, उद्धव ठाकरे इस्तीफा न देकर यदि विश्वास मत हासिल करते हुए हार जाते, तब उच्चतम न्यायालय उनको मुख्यमंत्री पद पर पुनर्स्थापित कर सकता था। यह न्यायालय का न्याय के प्रति क्या मात्र परसेप्शन था? क्योकि अंत में जो निर्णय आया वास्तव में उसमें क्या हुआ? ‘‘काजी के प्यादे घोड़ों पर सवार हो गये’’। स्पीकर के निर्णय ने यह स्थिति ला दी कि समस्त विधायक शिंदे ग्रुप के ही हो गये और अब विधानसभा में शिंदे ग्रुप के व्हिप का विरोध करना सदस्यता खोने के खतरे से खाली नहीं होगा। इसी प्रकार इलेक्ट्रोल बाॅड के विषय में उच्चतम न्यायालय का निर्णय महीनों से आदेशार्थ बंद है। आगामी होने वाले लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया प्रारंभ होने अथवा चुनाव होने के बाद निर्णय आयेगा, तब क्या याचिका का उद्देश्य ही व्यर्थ नहीं हो जाएगा?

उच्चतम न्यायालय की चंडीगढ़ महापौर के मामले में दो प्रमुख गलती स्पष्ट रूप से प्रतीत होती दिखती है। प्रथम वीडियो के आधार पर उपरोक्त रिमार्क किये गये, जिस वीडियो की पुष्टि कोई ‘‘फोंरेसिक जांच’’ किये बिना उस पर विश्वास कर तथा उसका साक्ष्यात्मक मूल्य कितना होगा, उस पर विचार किये बिना ‘मत’ बना लेना, कितना न्यायोचित है? दूसरा उच्चतम न्यायालय ने तल्ख व तीखे तेवर दिखाकर वही स्टैंड लिया जो उच्च न्यायालय ने शांतिपूर्वक रहकर यह कहकर लिखा कि यह जांच का विषय है, इसलिए दूसरे पक्ष का जवाब आने पर ही इस पर कोई आदेश पारित किया जा सकता है। इससे उच्च न्यायालय की तुलनात्मक रूप से गरिमा ज्यादा दिखती प्रतीत है, भले ही कानूनी रूप से उनका स्टैंड सही नहीं कहा जा सकता है। परन्तु उन्हे भी ‘‘सही’’ करने का काम तो उच्चतम न्यायालय ने नहीं किया। ऐसा लगता है, उच्चतम न्यायालय के मन-मस्तिष्क में वह ‘‘सर्वोच्च’’ के साथ श्रेष्ठतम है, ‘‘भाव’’ के साथ परिस्थितियों, तथ्यों पर कई बार गहराई पर जाये बिना ऐसी त्वरित टिप्पणियां व आदेश पारित कर दी जाती है, जो सामान्यतः कानूनविदों के गले उतरती नहीं है।  

शुरू से ही देखे, मेयर के चुनाव में प्रशासन ने रुकावटें डाली व गंभीर अनैतिकता का प्रदर्शन किया। सामान्यतः 1 जनवरी को मेयर पद ग्रहण कर लेता है। यहां पर संख्या की दृष्टि से भाजपा व अकाली दल के 16 पार्षद (14+1+1) सांसद प्रतिनिधि सहित थे। जबकि आप व कांग्रेस पार्टी में गठबंधन हो जाने के कारण कुल 20 पार्षद हो गये थे। पहली बार जब 10 जनवरी को मेयर चुनाव की तारीख 18 जनवरी घोषित हुई थी, तब तक आप व कांग्रेस का गठबंधन नहीं हुआ था। बल्कि कांग्रेस के उम्मीदवार ने भी पर्चा भरा था। बाद में जब कांग्रेस उम्मीदवार को फार्म वापिस लेने के लिए वह कार्यालय न पहुंच सके उसके लिए घर में ही उसे नजरबंद कर दिया गया था। उच्च न्यायालय के समक्ष बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर होने पर उनकी मुक्ति हुई। परन्तु 18 जनवरी की चुनावी तिथि के पूर्व ही 16 तारीख को  गठबंधन हो गया। पीठासीन अधिकारी (चुनाव अधिकारी) चुनावी तिथि के दिन तथाकथित रूप से बीमार हो गये। तद्नुसार सहायक आयुक्त (डीसी) ने चुनाव की नई तारीख 06 फरवरी निश्चित की। ‘‘कमली ओढ़ लेने से कोई फ़कीर नहीं बन जाता’’, चुनाव अधिकारी भी उस व्यक्ति मनोनीत पार्षद अनिल मसीह को बनाया गया जो भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चा का पदाधिकारी रहा है, यह भी बेहद हैरत की बात हैं। 06 फरवरी को निश्चित की गई चुनावी तारीख को गठबंधन के उम्मीदवार कुलदीप कुमार टीटा ने हाईकोर्टं में चुनौती दी। तब पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने 23 तारीख को अंतरिम आदेश पारित करते हुए 30 जनवरी को चुनाव कराने के आदेश इस निर्देश के साथ दिये कि ‘‘पूरी चुनावी प्रक्रिया की वीडियोग्राफी की जावे। तदनुसार हुए चुनाव में चुनाव अधिकारी द्वारा 8 वोट अवैध घोषित किये गये, जिसके लिए जरूरी कानूनी प्रक्रिया नहीं अपनाई गई। विपरित इसके उन वैध मतों को तथाकथित रूप से अवैध करने की प्रक्रिया करते स्वयं चुनाव अधिकारी ‘‘कैमरे‘‘ में पकड़े गये, जो वीडियो उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत की गई। चुनाव परिणाम घोषित करते ही पीठासीन अधिकारी द्वारा तथाकथित जीते गए उम्मीदवार मनोज कुमार सोनकर को तुरंत बुलाकर महामहिम की कुर्सी पर बैठा दिया। 

एक तरफ देश में ‘‘ईवीएम’’ के बदले ‘‘बैलेट पेपर’’ पर चुनाव होने की मांग लगातार उठ रही है। इस पर प्रबुद्ध वर्ग का असंतोष व जन आंदोलन बढ़ते जा रहा है। इन जन आंदोलनकारियों को यह सोचना होगा कि इस तरह दिनदहाड़े बैलेट पेपर पर किस बेशर्मी के साथ डाका डाला जा सकता है, जिससे बैलेट से चुनाव कराना कितना खतरनाक है, और हो सकता है? कभी बैलेट चुनाव के समय इतनी भयावह स्थिति होती थी कि मत पेटियां ही गायब कर दी जाती थी। इसीलिए तो ईवीएम को लाया गया था। हां उसमें कमियां जरूर व अनेक है, उनमें सुधारों का सुझाव जरूर कुछ लोगो ने दिया है। महत्वपूर्ण सुझाव ‘‘वीवीपैड’’ की गिनती की जाने की हैं। तब न तो बैलेट पेपर में गड़बड़ी होने की संभावनाएं रहेगी और साथ ही ईवीएम में ‘चिप’ के द्वारा गड़बड़ी की जाने की तथाकथित आशंका को वीवीपैड की गिनती करके दूर किया जा सकेगा। मेयर चुनाव परिणाम आने के तत्काल बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा द्वारा ट्वीट पर बधाई देते हुए उन्होंने कहा मेयर चुनाव जीतने के लिए भाजपा चंडीगढ़ इकाई को बधाई। भाजपा के ट्विटर हैंडल पर कहा गया ‘‘यह तो अभी झांकी है’’। क्या ये प्रतिक्रियाएँ जल्दबाजी में हुई गलती तो नहीं है?

सोमवार, 5 फ़रवरी 2024

कर्पूरी ठाकुर की सादगी का एक आंखों देखा हाल।

 //संस्मरण//   ‘‘तांगे में बैठकर बस स्टैंड गये’’

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कर्पूरी को भारत रत्न दिए जाने पर लिखे मेरे लेख पर भोपाल निवासी श्री नरेंद्र भानू खंडेलवाल ने मुझे फोन पर कर्पूरी ठाकुर की सादगी, जो उन्होंने देखी व जिसके प्रत्यक्षदर्शी मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री जी डी खंडेलवाल रहे, का रूबरू वर्णन में आगे कर रहा हूं, जैसा की श्री नरेंद्र भानू खंडेलवाल ने मुझे फोन पर बतलाया।

मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री गोवर्धन दास जी खंडेलवाल वर्ष 1967 में बनी संविद सरकार जिनकी जनक व नेत्री स्वर्गीय राजमाता विजयाराजे सिंधिया थीं, के मुख्यमंत्री ठा. गोविंद नारायण सिंह के मंत्रिमंडल में पहले समाज कल्याण विभाग के राज्य मंत्री और बाद में आदिम जाति कल्याण एवं बिजली विभाग के कैबिनेट मंत्री जनसंघ कोटे से रहे। हम लोग उस समय प्रोफेसर कॉलोनी में चार बंगले के बंगला नंबर तीन में रहते थे, जहां बाद में कभी सुश्री उमा भारती भी रहीं।

बात उस समय की है, जब डॉ राम मनोहर लोहिया के ‘‘गैर कांग्रेस वाद’’ के नारे व नीति के चलते वर्ष 1967 में देश में संविद सरकारें बनने का दौर चला था। मध्य प्रदेश में ही नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल आदि प्रदेशों में भी संयुक्त विधायक दल की (संविद) सरकारें गैर कांग्रेस वाद के आधार पर बनी थी। संपूर्ण देश में गैर कांग्रेसी वाद को मजबूत करने के लिए समस्त विपक्षी दलों को एक साथ खड़े रखने की नीति को मजबूत करने के तहत शायद पार्टी निर्देशों के तारम्तय में मेरे पिताजी जी डी खंडेलवाल जी ने उस समय की समस्त संविद सरकारों के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री को विचार विमर्श करने के लिए एक बैठक अपने निवास, चार बंगले में बुलाई थी। तब कर्पूरी ठाकुर, जो उस समय बिहार के उपमुख्यमंत्री थे, भोपाल हमारे निवास पर आए थे। उस समय पंडित दीनदयाल उपाध्याय, राजमाता विजयाराजे सिंधिया व उपमुख्यमंत्री वीरेंद्र कुमार सकलेचा भी बैठक में उपस्थित थे। पंडित दीनदयाल जी की सादगी का आलम यह था कि एक पत्रकार ने जब यह पूछा कि दीनदयाल जी भी आए हैं? तब उनको यह बतलाया गया कि आपके सामने जो अभी चप्पल पहने जा रहे हैं, यही दीनदयाल जी हैं।

मीटिंग समाप्ति के बाद कर्पूरी ठाकुर जी को इंदौर एक निजी कार्यक्रम में जाना था। वे बस से इंदौर जा रहे थे। नरेंद्र भानू खंडेलवाल, जो उस समय हमारे पारिवारिक सदस्य थे और मैं और मेरा छोटा भाई उनके द्वारा चलाई जारी शिक्षा क्लासेस में पढ़ने भी जाते थे, घर पर उपस्थित थे। कर्पूरी ठाकुर जी को बस स्टैंड छोड़ने के लिए कार में बैठने के लिए नरेंद्र जी ने कहा तो उन्होंने कहा मैं सरकारी गाड़ी का उपयोग नहीं करूंगा, क्योंकि मैं निजी यात्रा पर जा रहा हूं। तब नरेंद्र जी स्वयं ‘‘तांगे’’ पर उनको लेकर बस स्टैंड छोड़ने गए और 5 रू 50 पैसे की इंदौर की बस का टिकट कटवाया। वह पैसे भी कर्पूरी ठाकुर ने ही दिए, यह कहकर कि जब मैं कार से बस स्टैंड नहीं आया हूं, निजी यात्रा पर जा रहा हूं, आपसे पैसे कैसे ले सकता हूं? सादगी के इस रूप की कल्पना आज तो संभव ही नहीं है, ओढ़ना तो दूर की बात है। इसी सादगी में मैं अपने स्वर्गीय पिताजी की सादगी को भी जोड़ना चाहता हूं। संविद सरकार में शामिल जनसंघ घटक के समस्त मंत्रियों को जब ‘‘कच्छ आंदोलन’’ में भाग लेने के लिए मंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए कहा गया। तब मेरे पिताजी इस्तीफा पत्र लेकर घर से गवर्नर हाउस सरकारी गाड़ी से नहीं गए, बल्कि स्कूटर से गए और उस समय स्कूटर पर जाते हुए उनकी फोटो समाचार पत्रों में छपी थी। तब कोई सोशल मीडिया नहीं था। हम दोनों भाई भी स्कूल पॉलिटेक्निक बस स्टॉप से बस पकड़ कर जवाहर चैक माडल स्कूल जाते थे, जबकि अन्य मंत्रियों के बच्चों को स्कूल छोड़ने सरकारी गाड़ियां जाती थी।

कर्पूरी ठाकुर की ऐसी सादगी को नमन। मैं नरेंद्र जी का हृदय की गहराई से धन्यवाद करना चाहता हूं कि मुझे उन्होंने उक्त तथ्यों से अवगत कराया, जिसकी जानकारी मुझे अभी तक नहीं थी। 

सादगी का उक्त वर्णन जैसा कि नरेंद्र भानू खंडेलवाल जी ने बतलाया।

मंगलवार, 30 जनवरी 2024

‘जननायक’’ कर्पूरी ठाकुर के व्यक्तित्व का ‘‘आकलन’’ करने में इतने वर्ष क्यों लग गए?


मोदी का ‘‘जादू’’ हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को कब ‘‘भारत रत्न’’ दिलाएगा
?

देरी से दिया गया सम्मान

भारत देश का सर्वोच्च सम्मान ‘‘भारत रत्न’’ बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और खांटी समाजवादी और शोषितों के जननायक, महानायक, गरीबों के मसीहा स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर को दिए जाने का निर्णय भले ही अत्यंत देरी से लिया गया हो, तब भी अत्यंत स्वागत योग्य और एक ‘‘गलती’’ को सुधारने का देरी से किया गया सफल प्रयास है। आपको याद दिला दें। कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु 64 वर्ष की आयु में 17 फरवरी 1988 को हुई थी। वे पहली बार वर्ष 1952 में बिहार विधानसभा के लिए चुने गये थे। ‘‘यूं तो दुनिया मुर्दा परस्त है’’, दिवंगत लोगों की ही प्रशंसा करती है। परन्तु ‘‘भारत रत्न’’ देने का यह कोई नियम नहीं है कि ‘माननीय’ को देश के लिए किए गए सर्वोच्च उत्कृष्ट कार्यों की प्रशस्ति के लिए मृत्यु उपरांत ही ‘‘भारत रत्न’’ दिया जाकर सम्मानित व याद किया जा सकता है। बल्कि ऐसे उदाहरण है हमारे देश में, जब जीवित व्यक्ति को भी देश के प्रति उनके योगदान के लिए भारत रत्न देकर सम्मानित किया गया है, जैसे सचिन तेंदुलकर (वर्ष 2014 में) क्योंकि वे उसकी योग्यता, पात्रता रखते थे।

सम्मान अविवादित! परन्तु राजनीतिक सोउद्देश्य लिये हुए।

जहां तक कर्पूरी ठाकुर के व्यक्तित्व का सवाल है या उनको ‘‘भारत रत्न’’ दिए जाने का प्रश्न है, यह निर्विवाद है। यह इस बात से भी सिद्ध होता है कि देश की समस्त राजनीतिक पार्टियों ने केंद्र सरकार के इस निर्णय की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। परंतु महत्वपूर्ण प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या ‘‘भारत रत्न’’ वास्तव में कर्पूरी ठाकुर को सिर्फ सम्मान देने के उद्देश्य से दिया गया है, जिसके वे निसंदेह हकदार है। अथवा इस घोषणा के साथ ‘‘राजनीति’’ भी जुड़ी हुई है? देश की वर्तमान में जो राजनीतिक परिस्थितियां विद्यमान है, उनमें हर क्षेत्र में न केवल राजनीति प्रविष्टि हो जाती है, बल्कि राजनीति को घुसेड़ भी दिया जाता है, ऐसा हम देखते चले आ रहे हैं। फिर चाहे धर्म में राजनीति का ही प्रश्न क्यों न हो? शिक्षा, कला, खेल इत्यादि क्षेत्रों में के मूल क्षेत्रों के अतिरिक्त वहां भी राजनीति हमेशा हावी रहती है। इसलिए यदि स्वर्गीय कपूरी ठाकुर को मृत्युपरांत शीघ्र ही कुछ समय बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के पूर्व भारत रत्न दिया गया है, तो इसके पीछे एक बड़ा राजनीतिक उद्देश्य भी छुपा हुआ ही नहीं है, बल्कि दिखता हुआ शामिल है/शामिल दिखता हुआ है।

‘‘मोदी है तो मुमकिन है’’। 

याद कीजिए! पिछले कुछ समय से मीडिया में नीतीश कुमार के ‘एनडीए’ में शामिल होने की खबरें लगातार छप रही थी या ज्यादा उचित कहना यह होगा कि ऐसी खबरें सो/दुः उद्देश्य छपाई जा रही थी। परन्तु यह मुहिम असफल होने के बाद ही बिहार में अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करने के लिए शायद केंद्रीय शासन ने उक्त निर्णय लिया। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जातिगत जनसंख्या की गणना के निर्णय की काट के परिपेक्ष में भी इस निर्णय को देखा जा रहा है। मैं पहले भी कई बार स्पष्ट कह चुका हूं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नरेटिव फिक्स करने और परसेप्शन बनाने के ‘‘मास्टर ऑफ मास्टर’’ है, जिस कारण से वह विरोधियों को ‘हतप्रद’ कर ‘चित’ कर देते हैं। कई बार तो विरोधियों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीति और निर्णय की प्रशंसा मजबूरी में सही, करनी ही पड़ जाती है। यही देश का ‘‘मोदी नामा’’ है। ‘‘मोदी है तो मुमकिन है’’, यह जिस किसी ने भी कहा है, गलत नहीं है।

अत्यंत सादगी से परिपूर्ण जीवन

कर्पूरी ठाकुर का जन्म गांव पितौंझिया में जिसे अब ‘‘कर्पूरी ग्राम’’ कहां जाता है, बाल काटने के पेशे से जुड़े सीमांत किसान के घर में हुआ था। 1970 के दशक के राजनीतिज्ञों में कर्पूरी ठाकुर का एक महत्वपूर्ण, विशिष्ट, अति सम्मानीय, स्थान रहा है। वे देश के ऐसे मुख्यमंत्री थे, जो अत्यंत गरीबी के चलते राजनीति में आये थे। वे जीवनपर्यंत दलित, शोषित व वंचित वर्ग के उत्थान के लिए संघर्ष करते हुए कुछ-कुछ सफलता भी प्राप्त की। वे देश के ऐसे पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने ‘‘मंडल’’ व उसकी प्रतिक्रिया में आये ‘‘कमंडल’’ के काफी पहले वर्ष 1978 में ‘‘मुगेरीलाल आयोग’’ की रिपोर्ट को लागू कर सिर्फ पिछड़ा वर्ग को ही आरक्षण (12 फीसदी) व अतिपछड़े वर्ग को 8 प्रतिशत आरक्षण प्रदान नहीं किया, बल्कि गरीब सवर्ण को भी सबसे पहले 3 फीसदी आरक्षण प्रदान किया था। लम्बे समय तक विधायक रहने के साथ उपमुख्यमंत्री, मुख्यमंत्री पद पर दो बार तथा नेता प्रतिपक्ष पर विराजित होने के बावजूद उनका मानना था कि ‘‘तलवार म्यान में ही अच्छी लगती है’’। उनके सरल स्वभाव, हृदय व अत्यंत सादगी पूर्ण जीवन को महात्मा गांधी के कुछ निकट अवश्य कहा जा सकता है। 

बेहद ईमानदार व्यक्तित्व

स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर कुछ उन चुनिंदा राजनीतिज्ञों में से रहे है, जिन्होंने राजनीति को भी शुद्ध जन सेवा के रूप में लिये व जिये, जिनके लक्षण, दर्शन व कल्पना भी आज दुर्लभ है। अर्थात यह भावना आज ‘‘थोथे बांस कड़ाकड़ बाजें’’ दुर्लभ व लुप्त होती हुई व ‘‘लुप्त प्रजाति’’ में परिवर्तित हो गई है। स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर, डाॅ. राम मनोहर लोहिया के राजनैतिक चेले और लालू, नीतीश, रामविलास पासवान व सुशील मोदी के राजनीतिक गुरू रहे। मधु लिमये जैसे दिग्गजों के साथी रहे। वे अपने कर्मों व जीवन शैली से शुद्ध व कष्टदायक, ईमानदारी के पर्यायवाची हो गये थे।

ध्यानचंद को भारत रत्न कब? 

देश में अनेक ऐसी सफल और श्रेष्ठतम प्रतिभाएं हैं, जो उक्त सर्वोच्च पुरस्कार पाने की अधिकारी (एनटाइटल) होने के बावजूद ‘‘भारत रत्न’’ उन्हें तब तक नहीं मिल सकता है, जब तक राजनीति पर वोट बैंक के रूप में उनका प्रभावी प्रभाव व पकड़ न हो। तेंदुलकर ऐसे ही खिलाड़ी थे, जिनकी प्रतिभा पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता है। परंतु यदि उनका करोड़ो खेल प्रेमी जनता पर प्रभाव न होता तो उन्हें भी भारत रत्न शायद ही मिलता। ध्यानचंद को खेल रत्न दिए जाने की मांग काफी पुरानी है। अतः देश के असंख्य खेल प्रेमियों को केंद्रीय सरकार का ध्यान ध्यानचंद को भारत रत्न दिए जाने पर आकर्षित करना है तो उनको यह जज्बा पैदा कर प्रदर्शित करना होगा, परसेप्शन बनाना होगा कि यदि ध्यानचंद को ‘‘भारत रत्न’’ नहीं दिया गया तो, देश के करोड़ों खेल प्रेमी प्रेमियों का ‘‘ध्यान’’ वर्तमान से हटकर उस ओर केंद्रित करना होगा जो उन्हें आश्वासित करें। क्योंकि लोकतंत्र में तो राजनीतिक पार्टिया मुद्दों की नहीं, वोट बैंक की ही राजनीति को समझती हैं, और उसी से प्रभावित व हडकायी होती है। मतलब साफ है! ध्यानचंद पर ध्यान नहीं तो हमारा वोट पर भी ध्यान नहीं? हाँ! यदि ध्यानचंद किसी आरक्षित वर्ग (अजा.अजजा.पिछड़ा अति पिछड़ा) से होते तो शायद चुनावी वर्ष में उन्हें भी भारत रत्न मिल जाता।

‘‘बेशर्म’’ शब्द ने भी हाथ खड़े कर दिये।’’

देश की राजनीति का सबसे गंदा चरित्र का सबसे ताजा उदाहरण बिहार में विध्वस रूप में देखने को मिल रहा है। इसके लिए देश की अधिकतर पार्टी व नेतागण जिम्मेदार है। जैसा कि राजनीति के लिए कहा भी गया है ‘‘इस हमाम में हम सब नंगे है’’। एक तरफ कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देकर बिहार को गौरवान्वित किया गया है, तो दूसरी तरफ उसी भारत रत्न की उर्वरा भूमि बिहार में राजनीति का जिस तरह का नंगा नाच अभी चल रहा है, उसके लिए यही कहा जा सकता है कि ‘‘तत्ता कौर न निगलने का न उगलने का’’। ये ‘‘दावत है या अदावत है’’? वैसे बेशर्मी हमेशा नंगी ही होती है या यह कहे नंगा (साधु संतों को छोड़कर) बेशर्म ही होता है। जिस बेशर्मी का नंगा प्रदर्शन हुआ है, शायद उसके लिए अब ‘‘बेशर्म’’ शब्द भी परेशान होकर, बेशर्म होकर यह कहने लग गया कि आज की ‘‘राजनीति की बेशर्मी’’ को पूरी तरह व्यक्त करने का सामर्थ्य अब मेरे पास नहीं रहा है। कृपया अब अन्य कोई मजबूत ‘‘शब्द’’ की खोज कर ले? एक दौर था, जब हरियाणा के भजनलाल ने पूरी की पूरी सरकार का ही दलबदल करा कर इतिहास बनाया था। अब उसके ‘‘मास्टर ऑफ मास्टर’’ ‘‘सुशासन बाबू’’ नीतीश कुमार हो गये है। भ्रष्टाचार के आरोप का प्रभाव तो सिर्फ एक-दो या कुछ व्यक्तियों तक ही सीमित रहता है। परन्तु आर्थिक दृष्टिकोण से ईमानदार नीतीश कुमार की ‘‘बेईमान राजनीति’’ राजनीति को पूरी ही भ्रष्ट कर दे रही है, जो व्यक्तिगत ईमानदारी से ज्यादा घातक, खतरा समाज, देश व राजनीति के लिए है।

नीतीश कुमार ‘‘सिद्धांत’’ पर अडिग!

जो लोग नीतीश कुमार को ‘‘पलटू राम’’ कह रहे है, वे एक तरफा गलत आरोप नीतीश कुमार पर लगा रहे है। देश की पूरी राजनीति ही ‘‘पलटू राम’’ से भरी हुई है। क्या ‘‘राम’’ शब्द से परहेज रखने वाली राजनीतिक पार्टियों में भी पलटू राम के रूप में ‘‘राम’’ मौजूद नहीं है? और अगले ही दिन (30 जनवरी) को ‘‘हे राम’’ की समाधि पर श्रद्धांजलि देने जाने की भी मजबूरी होगी? नीतीश कुमार ने ‘‘सिद्धांत’’ की राजनीति की है। वह सिद्धांत एक मात्र यह रहा कि वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर साधन की पवित्रता को बाजू में रखकर एन केंन प्रकारेण बैठे रहे, जब कि गांधी जी ने साध्य के साथ साधन की सुचिता व पवित्रता पर बहुत जोर दिया था। अतः गलती नीतीश कुमार की नहीं, बल्कि उनका आकलन करने वाले राजनीतिक पंडितों की है, जोे नीतीश कुमार के मूल सिद्धांत ‘‘कुर्सी को जकड़ कर पकड़ने’’ के सिद्धांत को पकड़ नहीं पाए। शायद नीतीश कुमार बचपन व अपनी युवावस्था में ‘‘कुर्सी पकड़ दौड़’’ खेल में हमेशा प्रथम आते रहे होंगे। स्पष्ट है नीतीश कुमार अपने सिद्धांत पर अडिग रहकर 9 वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। यह उनके सिद्धांत के प्रति कट्टरता व जीवटता को दिखाता है? अतः ब्रेकिंग न्यूज नीतीश कुमार का पलटू राम होना नहीं है, बल्कि राजनीतिक पार्टियां का पलटू राम होना है। ठीक उसी प्रकार जैसे मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चैहान चुनाव के पूर्व तक मुख्यमंत्री बना रहना ब्रेकिंग न्यूज थी, हटाना ब्रेकिंग न्यूज नहीं बनती। शपथ लेना व इस्तीफा व फिर शपथ लेना, यह उनकी दिनचर्या बन गई। राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का यह कथन याद कीजिए ‘‘मैं तो कुर्सी छोड़ना चाहता हूं, पर कुर्सी मुझे छोड़ नहीं रही है’’। उक्त बात गहलोत स्वयं पर तो लागू नहीं कर पाए। परन्तु शायद उनके मन, दिमाग में नीतीश कुमार का भाव उक्त कुर्सी पकड़ ज्यादा होगा, इसलिए उक्त बात नीतीश कुमार पर पूर्णता सही लागू होती है। मुझे लगता है कि 8वीं बार मुख्यमंत्री पद पर शपथ लेने के बावजूद लोग उन्हें सुशासन बाबु के आगे से सुशासन मुख्यमंत्री के नाम से प्रचलित नहीं कर पाये। तब शायद उनको लगा होगा कि 9वीं बार शपथ ग्रहण करने पर अब तो बाबू (सुशासन) से मुख्यमंत्री (सुशासन) मान ले?

सोमवार, 29 जनवरी 2024

ऐतिहासिक भगवान ‘‘श्री रामलला विग्रह’’ प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम!

 सिर्फ मोदी को ही ‘‘नरेटिव फिक्स’’ करना आता है।

देश के ही नहीं बल्कि विश्व के इतिहास में 22 जनवरी ऐतिहासिक रूप से अमिट रूप से लिख दिया गया है, जो भविष्य में एक नए ‘‘काल चक्र’’ के रूप में राष्ट्रीय दिवस मनाया जाएगा, इसमें किसी को भी संदेह होना नहीं चाहिए। इस अभूतपूर्व सफलता के लिए यदि किसी एक व्यक्ति को ही श्रेय दिया जाना हो तो, निसंदेह, बेशक वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही है, जिनकी कार्य योजना को पढ़ना, समझना, समयपूर्व आकलन, महसूस करना एक सामान्य व्यक्ति के लिए ही नहीं, बल्कि विशिष्ट व्यक्तियों के लिए भी एक बमुश्किल कार्य होता है। धरातल पर कार्य योजना उतरने के बाद ही लोग उन योजनाओं से रूबरू होते हैं। प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में बिना किसी संदेह के इस बात को भी प्रतिष्ठित और सिद्ध कर दिया है कि ‘‘नरेटिव एवं परसेप्शन’’ अर्थात राजनीति की ‘‘दिशा’’, ‘‘दशा’’ और ‘‘धारणा’’ ‘‘अवधारणा’’ तय करने में विपरीत परिस्थितियों में भी नरेन्द्र मोदी का कोई मुकाबला ही नहीं है। कैसे! आइये! आगे इसे देखते- समझते हैं। 

1.‘‘धर्म’ को देश के ‘विकास’ से जोड़ने का यह अब तक का सबसे बड़ा पहला सफल प्रयास है, जो देश की जीडीपी की बढ़ोतरी में महत्वपूर्ण योगदान देगा, ऐसा आकलन आर्थिक पंडितों द्वारा किया जा रहा है। यह तथ्य इस बात से भी सिद्ध होता है कि इस प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के अवसर पर लगभग सवा लाख करोड़ रू. का व्यापार हुआ। ‘‘जहां सुमति तहँ संपति नाना’’। लगभग तीस हजार (30000) करोड़ से अधिक का निवेश होने की संभावनाएं भी बतलाई जा रही हैं। प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के पश्चात भगवान श्री रामलला व भव्य व अभिभूत कर देने वाले भगवान श्री राम मंदिर के दर्शन के लिए भारी भरकम रिकार्ड तोड़ भीड़ उमड़ कर आ रही है, विशालतम स्तर पर देश में भंडारे हुए। इन सब बातों से भी उक्त बातें सिद्ध होती दिखती है।

2.अधिकतर निमंत्रित विपक्षी नेताओं के तथाकथित ‘‘कारण सहित’’ न आने पर उन्हें भगवान श्री राम का विरोधी तक सफलतापूर्वक ठहरा दिया गया, जबकि अनेक निमंत्रित केंद्रीय मंत्रियों और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के ‘‘अकारण’’ (कोई कारण बताये बिना) न आने का कोई संज्ञान मीडिया अथवा विपक्षी पार्टियों द्वारा गंभीर रूप से नहीं लिया गया। अर्थात उन्हें भगवान श्री राम विरोधी नहीं कहा गया, जो एक विपरीत नरेटिव बन सकता था। जबकि 48 घंटे के पूर्व तक अधिकतरों के आने का सुनिश्चित कार्यक्रम था। इस प्रकार इस मुद्दे पर भी मोदी अपने विपक्षों पर भारी पड़ गए और अपना नरेटिव व परसेप्शन बनाने में सफल रहे।

3.22 जनवरी को मंदिर पूर्ण निर्मित न होने के कारण, सही मुहूर्त न होने से भगवान श्री रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का गलत ठहराकर प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर महत्वपूर्ण निमंत्रित नेताओं के व्यक्तिगत रूप से उपस्थिति नहीं हुए। उनमें से अधिकतरों ने उसी दिन 22 जनवरी को देश के विभिन्न मंदिरों में जाकर पूजा अर्चना कर अपनी फोटो शेयर की व ट्वीट किया। इस प्रकार ‘‘अनजाने’’ में ही अथवा ‘‘धार्मिक वातावरण के बने दबाव’’ के चलते उन्होंने जनता को यह दिखाना उचित समझा कि उन्होंने भी इस अवसर पर ईश्वर पूजा की है व वे राम भगवान भक्त है। लेकिन ‘‘चना कूदे तो कितना कूदे, ज्यादा से ज्यादा कड़ाही से बाहर’’। नरेन्द्र मोदी की ‘‘नरेटिव फिक्स’’ व परसेप्शन बनाने की इसी कला के चलते अनजाने में ही सही, विपक्षी नेतागण अपने अधैर्य के कारण उसमें फंसते चले गये। ‘‘चबा कर खाते तो हलक़ में नहीं फंसता’’। विपक्षी नेताओं की दुविधा, अनिर्णय व असमंजस की स्थिति होने के कारण मोदी की यह कारगर नीति उक्त नरेटिव फिक्स करने में सफल रही।

4.लगभग 500 से अधिक वर्षों से जो आंदोलन चल रहा था, वह राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण का था। वर्ष 1949 में जब पहली बार मूर्तियां रखी गई अथवा प्रकट हुई, तब से वहां पूजा प्रारंभ हुई। इसके पूर्व रामलला का ‘‘विग्रह’’ स्थापित था अथवा नहीं, इसका इतिहास ज्ञात नहीं है। वर्ष 1949 के बाद जब 6 दिसम्बर 1992 को ढांचा तोड़ा गया, तब वहां स्थापित मूर्ति हट गई और तुरंत अयोध्या के राजा के घर से रामलला की मूर्ति लाकर रखी गई, ऐसा 4 गोली खाये अयोध्या निवासी कारसेवक संतोष दुबे ने दावा किया। तब से उसी रामलला की ही पूजा की जाती रही है। लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा से प्रारंभ राम जन्मभूमि निर्माण आंदोलन से लेकर भव्य मंदिर निर्माण तक किसी की भी यह मांग कभी भी नहीं रही कि ‘‘नई रामलला का विग्रह’’ स्थापित किया जाकर उसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाए। परंतु नई ‘‘रामलला की विग्रह’’ स्थापित कर उनकी प्राण प्रतिष्ठा की गई। आंदोलन जहां रामलला स्थापित थी जो भगवान श्री राम का जन्म स्थल माना जाता है, पर भव्य श्री राम मंदिर निर्माण का था, न कि नई रामलला की विग्रह की स्थापना कर उसकी प्राण प्रतिष्ठा का। इस ‘‘परसेप्शन और नरेशन’’ को जिसे मोदी ने ‘‘स्थापित’’ किया को ‘‘विस्थापित’’ करने में विपक्ष पूर्णतः असफल रहा। इसी को कहते हैं, ‘‘जबरा मारे और रोने भी न दे’’। 

5.भगवान श्री राम की ‘‘काले पत्थर’’ की विग्रह स्थापित की गई, जो कि सामान्यतः दक्षिण में ही काले पत्थर के विग्रह भगवान के रूप में स्थापित होते हैं। जबकि देश में भगवान श्री राम की अधिकतम विग्रह सफेद पत्थर के स्थापित है। स्वयं राम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास ने भगवान श्री राम की तीन मूर्तियां बनाने के आदेश दिए थे, जिसमें से दो मूर्तियां सफेद पत्थरों की संगमरमर की बनकर आयी। काले पत्थर का विग्रह चुनने का कोई कारण नहीं बतलाया गया है। इस नए नरेटिव पर तो शायद किसी का भी ध्यान ही नहीं गया।

6.‘‘विध्वंस’’ कार्य हमेशा ‘‘नकारात्मक’’ होता है। इसी कारण से वर्ष 1992 में ‘‘ढांचे’’ के विध्वंस किये जाने के पश्चात चार हिन्दी राज्यों उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश की विधानसभा को भंग कर हुए नये चुनावों में भाजपा हार गई थी (तब मोदी नहीं थे) जिसमें उत्तर प्रदेश भी शामिल था, जहां धार्मिक उन्माद सर्वोपरि होकर ढांचा तोड़ा गया था। जबकि निर्माण हमेशा ‘‘सकारात्मक’’ भाव लिये होता है। शायद इसलिए भगवान श्री राम मंदिर निर्माण से वर्ष 2024 में भाजपा का आकड़ा लोकसभा में आकड़ा 400 पार करने का अनुमान राजनीतिक पंडितों का है। 1992 में मोदी नहीं थे, 2024 में मोदी है। यही नरेटिव है। 

7.जनवरी के महीने में 26 जनवरी व 30 जनवरी के राष्ट्रीय दिवसों के साथ एक और नया राष्ट्रीय दिवस ‘‘काल चक्र’’ 22 जनवरी को भविष्य में मनाने का नरेटिव भी तैयार कर लिया गया है।

8.शिवराज सिंह चौहान और राहुल गांधी दोनों एक ही दिन अर्थात 22 जनवरी को; शिवराज सिंह ओरछा जाते हुए ट्रेन में और राहुल गांधी असम के मंदिर में प्रवेश देने से इनकार करने पर वही सामने बाहर बैठकर गीत गा रहे थे रघुपति राघव राजा राम ! मोदी का यह नरेटिव तो बिल्कुल ही नया व छप्पर फाड़ देने वाला था। ‘‘ढंग से करो तो गैंडे को भी गुदगुदी होती है’’।

9.प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बिहार की राजनीति का नरेटिव तय करने वाला नवीनतम निर्णय बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने का निर्णय है। ‘‘मास्टर ऑफ मास्टर’’ नरेन्द्र मोदी के इस मास्टर स्ट्रोक निर्णय ने एक झटके में ही नीतीश कुमार की अति पिछड़े वर्ग व जातीय जनगणना की राजनीति को आगामी 4 महीनों के भीतर होने वाले लोकसभा चुनाव में ‘‘बोथल कर धराशायी’’ कर दिया है।

अंत में ‘‘आस्था और धर्म’’ के सहारे जिस राजनीति को ‘‘साधना’’ शुरू किया गया, उसी ‘‘राजनीति’’ ने आस्था और धर्म को साधना शुरू कर दिया! मोदी है तो मुमकिन हैं, क्या अभी भी कोई शक की गुंजाइश है?

बुधवार, 17 जनवरी 2024

अंतिम छोर में खड़े़ व्यक्ति को भी नग्न आंखों से भगवान श्री राम की प्राण प्रतिष्ठा को देखने का अधिकार होना चाहिये।

 ‘‘पहले आओ पहले पाओ’’ की तर्ज पर ‘‘खुला निमंत्रण’’ होना चाहिये।

आखिर वह क्षण (पल) आ ही गया, जब भगवान श्री राम में आस्था रखने वाले, आराध्य मानने वाले इस सृष्टि के प्रत्येक इंसान (भक्त) का सपना 22 जनवरी 2024 को पूरा होने जा रहा है। देश के अब तक के सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री (इंदिरा गांधी से भी ज्यादा) नरेन्द्र मोदी के हाथों साधु-संतों की उपस्थिति में जन्म स्थल अयोध्या में ‘‘भगवान श्री राम मंदिर’’ का उद्घाटन और ‘‘प्राण प्रतिष्ठा’’ होने जा रही है। प्रधानमंत्री मोदी की कार्ययोजना की एक विशिष्ट विशेषता यह है कि जिस योजना की आधारशिला रखी जाएगी, उसका उद्घाटन भी वे ही करेंगे। जो अन्य राजनेताओं में कम ही होती है। अर्थात ‘‘समय बद्ध’’ योजना के अंतर्गत ही भगवान श्री राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा हो रही है। ‘‘श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट’’ द्वारा प्रधानमंत्री सहित लगभग 4000 से अधिक संत-महंत, संवैधानिक पदों पर बैठे माननीयों के अलावा देश के विभिन्न अंचलों में, विभिन्न कार्यक्षेत्रों में बैठे काम करने वाले चुनिंदा लोगों लगभग 2500 से अधिक व्यक्तियों, को ही निमंत्रित किया जा रहा है। स्टार, सेलिब्रिटी (हस्तियां) चाहे वे राजनीतिक क्षेत्र की हो, खेल, कला, पत्रकारिता, साहित्यिक, व्यापारिक, उद्योग जगत क्षेत्र की हो आदि या अन्य किसी भी क्षेत्र की हो, उनमें से कुछ प्रमुख लोगों को ही निमंत्रण पत्र भेजा जा रहा है। राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति को निमंत्रण भेजने की उनकी उपस्थिति के संबंध में अभी तक स्थिति अस्पष्ट है। निमंत्रण पत्र भेजने का आधार क्या है? यह भी स्पष्ट नहीं है। 

निश्चित रूप से इस ऐतिहासिक व अभिभूत करने वाले अवसर पर सबसे पहला अधिकार लगभग  500 से ज्यादा वर्षो से जो साधु-संत व्यक्ति, संगठन इस आंदोलन में लगे रहे है, वे उनकी वर्तमान पीढ़ी परिवार और विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, शिवसेना (हिंदू महासभा जो मुकदमा लड़ रही थी) से लेकर अन्य अनेक संगठन जिनके अनवरत अथक प्रयासों ने यह विराट स्वरूप दिया है, और ‘‘राम लला’’ जन्मभूमि मंदिर के सपने को हकीकत में उतारा जा रहा है, वे सब हजारों नागरिक जिन्होंने रामजन्म मंदिर निर्माण के लिए हुए विभिन्न स्तरों में हुए आंदोलन में भाग लिया, देश के विभिन्न अंचलों में ‘राम’ ईंट एकत्रित की गई और कई कार सेवकों ने अपना बलिदान दिया और कई तरीके से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इस निर्माण में योगदान दिया है, वे सब भी निमंत्रण के यथोचित पात्र है। साथ ही मंदिर निर्माण में लगे मजदूर भी निमत्रिंत होने के अधिकारी है। 

निमंत्रण भेजने के आधार के स्पष्ट न होने से एक कौतूहल अवश्य उत्पन्न होता है कि निमंत्रण पत्र को उक्त तरीके से भेजे जाने से क्या ‘‘जाने-अनजाने’’ में समाज में नया वर्ग भेद उत्पत्ति की संभावना तो नहीं हो जायेगी। भगवान तो कण-कण में व्याप्त है व सबकी आस्था के प्रतीक (सिर्फ नास्तिकों को छोड़कर) है। इस प्रकार भगवान सब की पहंुच में है। लेकिन सिर्फ हिंदू ही नहीं, सर्व धर्म-सम भाव का पालन (कुछ अपवादों को छोड़कर) करने वाला देश का प्रत्येक नागरिक, साथ ही दूसरे धर्मो में आस्था रखने वाले देश के नागरिक को भी गौराविंत करने वाले इस महत्वपूर्ण अवसर पर उपस्थित होने की इच्छा अवश्य रहेगी। परन्तु प्रश्न यह है कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों के अनुरूप अंत्योदय के अंतिम छोर में खड़े हुए व्यक्ति को अपने आराध्य भगवान श्री राम के ‘‘प्राण-प्रतिष्ठा’’ के दुर्लभ शुभ अवसर पर अपनी ‘‘नग्न आंखों’’ से दर्शन करने की पात्रता सिर्फ इसलिए नहीं होगी? क्योंकि उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। मुझे ख्याल आता है कि एक समय महाकाल मंदिर उज्जैन में भस्म आरती के दर्शन के लिए रात्रि 3 बजे से लाइन में खड़े रहकर दर्शन सुनिश्चित करने का प्रयास करते थे।

होना तो यह चाहिए था कि जिन लोगों ने इस आंदोलन में अपना सब कुछ स्वाहा कर महत्वपूर्ण योगदान दिया, उन सबको तवज्जों देकर देश के शेष समस्त नागरिकों कों खुला निमंत्रण दिया जाता और ‘‘फ़स्ट कम फस्ट सर्व’’ (पहले आओ पहले पाओे) की नीति के आधार पर वहां उन्हें प्रवेश व बैठने की व्यवस्था की जाती। ‘‘दिल में होय करार, तब सूझे त्योहार’’। तब किसी को यह कहने का अवसर उत्पन्न नहीं होता कि एक राम भक्त होने के बावजूद इस अवसर पर उसे सिर्फ इस आधार, उपस्थिति होने का अवसर नहीं मिल पाया, क्योंकि वह अंतिम छोेर पर खड़ा हुआ एक सामान्य नागरिक है। ‘‘दीन सबन को लखत है दीनहिं लखै न कोय’’। न तो वह उद्योगपति, साहित्यकार, पत्रकार, लेखक, कलाकार, खिलाड़ी, सेवाकर्ता, डॉक्टर, इंजीनियर या अन्य कोई शेष किसी क्षेत्र का यशवशी ‘‘स्टार’’ आधार (सेलिब्रिटी) नहीं है। इसलिए वह निमंत्रण पत्र का अधिकारी नहीं। ‘‘श्रीमंतों को दावत तो सर्वहारा से अदावत क्यों‘‘? मैं यह समझता हूं कि इस पर गहनता से विचार करने की आवश्यकता है और देश के प्रत्येक नागरिक का धार्मिक कर्तव्य है, संवैधानिक अधिकार है कि वे अपने ‘‘राम लला’’ को स्वयं की आंखों से साक्षात् दीदार कर साष्टांग दंडवत प्रणाम कर आशीर्वाद लेने का अधिकार हो। कितना संभव हो पायेगा यह उनके प्रयास पर छोड़ देना चाहिए। भगवान के कार्यक्रम का निमंत्रण व्यक्तिगत कैसे हो सकता है, जैसे कि आमंत्रण पत्र के नियम में उल्लेखित है, यह भी समझ से परे है।

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