शनिवार, 17 मार्च 2018

लाल निशान! शांतिपूर्ण मार्च?

‘‘ऑल इण्ड़िया किसान सभा’’ के बैनर तले लगभग 45 से 50 हजार निर्धन किसानो, खेतिहर मजदूरो व आदिवासी भूमिहीन श्रमिको का लगभग 200 किलो मीटर तक का पैदल मार्च 7 मार्च को ‘नासिक’ से लगातार पांच दिन रात चलकर सोमवार दिनंाक 12 मार्च को देश की आर्थिक राजधानी, व महाराष्ट्र की राजधानी मुम्बई के ‘‘आजाद मैदान’’ में पूर्णतः शांतिपूर्व तरीके से पहँुचा। आज के राजनैतिक नैतिकता व व्यवस्था के लगातार गिरते स्तर की मौजूदगी में इतने बड़े हुजूम के एक अहिंसात्मक शांतिपूर्ण आंदोलन का इतना अनुशासित अकल्पनीय मार्च वह भी पैदल चलते हुये शायद ही कभी देखा या सुना गया हो। मानो अनुशासन को ऊंचाई की पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया गया हो। सामान्य रूप से मुम्बई शहर में ऑफिस के समय पर टैªफिक जाम हो जाता है। 12 मार्च सोमवार को छात्र छात्राओं की परीक्षा थी। उन्हे परीक्षा केन्द्रो में पहंुचने तक किसी तरह की समस्या न हो इस स्थिति को दृष्टिगत रखते हुये व सम्पूर्ण मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए खुद को कष्ट में डालकर भी, रात्रि भर पैदल चलकर, समस्त आंदोलनकारी मुम्बई पहुंचे, व शासन द्वारा गाड़ियो से पहँुचानेे हेतु की गई पेशकश को भी उन्होने नकार दिया। मुम्बई के नागरिकों की अतिथी देवो भाव की भी प्रंशसा की जानी चाहिए जिन्होने आंदोलनकारियों के लिये सुविधा पूर्ण व्यवस्था बनाई। 
‘‘लाल निशान’’ कम्युनिस्ट पार्टी का निशान है। इसकी सामान्य पहचान एक हल्की उग्र सी व अहिंसा से कुछ दूर भावना के सम्यक मानी जाती है। लेकिन इस पूरे पैदल मार्च में ऐसी पहचान से हटकर जो कभी भी गांधी जी को नहीं मानते थे, उन्होने इस आंदोलन में किसान व खेतिहर मजदूरो के साथ ताल में ताल मिलाकर तथा रास्ते भर परम्परागत संगीतमय नाच के साथ पैदल चलकर गांधी जी के मूल सिद्धांत अहिसा परमो धर्म को पूर्णतः अपनाया। इस सबके लिए वे निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं। ‘यद्यपि अन्ना आंदोलन में भी लाखो लोग शामिल हुये थे। लेकिन वह आंदोलन एक ही जगह दिल्ली में रामलीला मैदान तक ही सीमित रहा था।’’ 
किसी ‘‘नामचीन’’ व्यक्तित्व के नेतृत्व के बिना किसान मजदूरों और श्रमिको का उपरोक्त सफल मार्च इस बात को सिद्ध करता है कि आंदोलनकारी मूल रूप से अहिंसक होते है। ज्यादातर केस में आंदोलनो का नेतृत्व करने वाले प्रसिद्ध नामचीन नेतागण अपनी नेतागिरी को चमकाने के चक्रव्यूह में अहिंसक आंदोलन को अपने फायदे के लिये हिंसा की ओर मोड़़ देते है। आश्चर्य की बात तो यह है कि लाल निशान अभी अभी हाल में ही त्रिपुरा में बुरी तरह हारा है। लेकिन महाराष्ट्र जहाँ लगभग लाल निशान का नामो निशान भी नहीं है, वहाँ पर किसान सभा के बैनर तले लाल निशान की यह सफलता एक अध्ययन् का विषय अवश्य है।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीश ने आंदोलनकारियों के डेलीगेशन के साथ, आमने सामने बैठकर तीन धंटे से ज्यादा बात चीत करके और उनकी लगभग 80 प्रतिशत से अधिक मांगो को स्वीकार करके लिखित में आश्वासन देकर आंदोलन का सफलतापूर्वक समापन कराया। इसके लिए मुख्यमंत्री भी उतने ही प्रशंसा व बधाई के पात्र है, जितने आंदोलनकारी शांतिपूर्ण आंदोलन के लिये! आंदोलनकारियो की आंदोलन समाप्ति के पश्चात घर वापसी भी वैसे ही शानदार ढ़ग से उतनी ही शांतिपूर्ण रही। सरकार ने भी विभिन्न स्थानो से आये आंदालनकारियों को परिवहन सुविधा वाहन, स्पेशल ट्रेन इत्यादि उपलब्ध कराकर उनके गंत्वय स्थान तक पहंुचाने में सहयोग प्रदान किया। यह शायद पहला आंदोलन है जहाँ तंत्र की भीड़ के गरीब मजदूर किसान, बेरोजगार शामिल हुये तथा जिसमें आंदोलनकारियो की मांगो पर तुरंत कोई लाभ न मिलने के बावजूद जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के लिखित आश्वासन पर भरोसा करके आंदोलनकारियो ने शांतिपूर्ण आंदोलन शांतिपूर्ण सोहाद्र पूर्ण वातावरण में समाप्त किया। नेता गिरी नहीं हुई। इसके लिये आंदोलन से सम्बन्धित समस्त आंदोलनकारी, शासन, प्रशासन तथा मुम्बई निवासी बधाई के पात्र है। यद्यपि यह आंदोलन कम्युनिस्ट पार्टी के झंडे तले प्रांरभ हुआ था फिर भी इस आंदोलन में शामिल भीड़ को देखते हुये वोट बैंक की खातिर समस्त प्रमुख राजनैतिक पाटियो ने अपनी अपनी उपस्थिति दर्ज कराना आवश्यक समझा। लेकिन आंदोलनकारियो ने समस्त पार्टियो के किसी भी नामी गिरामी नेतृत्व को प्रश्रय नहीं दिया। 
एक बात जरूर गंभीर है, जिस पर यहँा विचार किया जाना अत्यावश्यक है। जब मुख्यमंत्री को यह ज्ञात था कि किसानो का मार्च नासिक से 180 किलोमीटर पैदल चल कर मुम्बई आने वाला है तब उन्होने तत्काल ‘‘आपकी सरकार आपके द्वार’’ की नीति को अपनाते हुए अपने डेलीगेशन के साथ जाकर नासिक में ही किसानो के डेलीगेशन से मार्च प्रारंभ होने के पूर्व बातचीत क्यो नहीं की? यह प्रश्न अत्यन्त महत्वपूर्ण है, परन्तु अन्तिम परिणाम सुखद आने से गाैंण हो गया है। महत्वपूर्ण इसलिए क्योंकि वैसा करने की स्थिति में निर्धन किसानो व भूमिहीनों को 200 किलोमीटर पैदल चलने में जो कष्ट उठाने पड़े, पैरो में छाले आये, धूप में कई बार भूखे प्यासे रहना पड़ा, इन सब तकलीफो से उनको बचाया जा सकता था। 
इस आंदोलन में आंदोलनकारियो की मांगें यद्यपि भारी अर्थ व्यवस्था का बड़ा प्रश्न लिये हुये थी। तथापि आंदोलन की शांतिपूर्ण परिणिति ये यह सिद्ध हो गया कि आंदोलन चाहे कितना ही बड़ा हो, यदि आंदोलन शांतिपूर्ण अहिंसक तरीके से समझौता वादी रूख लिये हो व साथ-साथ सरकार का रूख भी टकराहट के बजाए सकारात्मक हो तो आंदोलन में नेता लोग कितना ही प्रयास कर ले आंदोलनकारियो को शांति के रास्ते से नहीं डिगा पायंेगे। इस आंदोलन की सफलता का यही मूल संदेश है। ऐसे आंदोलनकारियो को शत्-शत् नमन् व प्रणाम। महाराष्ट्र सरकार को धन्यवाद इस आशा के साथ कि बातचीत के मध्य दिये गये आश्वासनों को निश्चित रूप से तय की गई समयावधि में सफलतापूर्वक धरातल पर लाकर समझौते की भावनाओं के अनुरूप लागू करे, ताकि इस तरह के औचित्य पूर्ण आंदोलन के स्वरूप पर जनता का विश्वास बढ़ सके।

सोमवार, 5 मार्च 2018

‘विदेशों में मोदी का डंका’’!‘‘देश में अमित शाह का डंका’’!

‘पूर्वोत्तर’’ में आये चुनाव परिणाम निश्चित रूप से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कांग्रेस मुक्त देश की सोच के अनुरूप ही हैं, जिन्होने सफलतापूर्वक विदेशों में विश्व के शक्तिशाली देश अमेरिका, रूस, चीन के रहते हुये उन्हे पछाड़कर या उनके समकक्ष विश्व नेता बनकर भारत देश का डंका बजाया है। विश्व के राष्ट्राध्यक्षों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से दोस्ती व व्यक्तिगत संबंध बनाने की ओढ़ सी हो रही है। अमित शाह के नेतृत्व में पूर्वोत्तर प्रदेशांे के चुनावो में चार प्रदेशांे में से तीन प्रदेशों में भारी जीत दर्ज कर भाजपा सरकार बनाने की ओर अग्रसर हो रही है। त्रिपुरा जहाँ भाजपा को पिछले चुनाव में मात्र 2 प्रतिशत से भी कम वोट प्राप्त हुये थे, वहाँ खाता भी नहीं खुला था। पिछले पाँच सालों में अमित शाह की रणनीति व लगातार कड़ी मेहनत नरेन्द्र मोदी के साथ मिलकर रंग लाई और त्रिपुरा में भाजपा दो तिहाई बहुमत से अधिक के साथ सरकार बनाने जा रही है, जो एक स्वतंत्र भारत का ऐतहासिक रिकार्ड़ हैं। त्रिपुरा की यह जीत इसलिये भी ज्यादा महत्वपूर्ण है, जहाँ मुख्यमंत्री श्री माणिक सरकार हैं, जो देश के बेहद ही ईमानदार मुख्यमंत्री है। स्वच्छ छवि, ईमानदारी व साद़गी को लेकर शायद ही अन्य कोई राजनैतिक/सार्वजनिक व्यक्ति माणिक सरकार के सामने ठहरता हो। उन पर व्यक्तिगत या उनके नेतृत्व पर किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे। फिर भी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का 25 सालो से मजबूत अंतिम किला भी त्रिपुरा में ढह गया है। वे देश के सबसे ‘‘गरीब’’ मुख्यमंत्री रहे हैं जिसकी कल्पना वर्त्तमान राजनैतिक परिस्थितियां में नहीं की जा सकती हैं। वे बेहद ही संजीदगी सादगी पंसद सामान्य व्यक्ति हैं। इसके बावजूद उनके नेतृत्व की बुरी हार इस बात को भी रेखांकित करती है कि ईमानदार छवि भी लोकतंत्र में काम नहीं आती और जन अपेक्षाओं के अनुरूप सरकार द्वारा कार्य न कर पाने के कारण ही वह जनता का विश्वास पुनः जीतने में असफल रही, यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगा। 
इस जीत के लिए उत्त्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के योगदान को कदापि कम करके नहीं आँका जा सकता है। आज वे भाजपा के हिन्दु कार्ड का प्रमुख चेहरा हैं, जिसे ईसाईयों व आदिवासियों के बीच रखने व परखने में राष्ट्रीय अध्यक्ष ने कोई हिचक नहीं दिखाई और पार्टी ने अपनी राष्ट्रीय पहचान जो अभी तक देश के पूर्वोत्तर प्रदेशो से दूर थी, वहाँ पर भी सफलतापूर्वक पहचान का झंडा गाड़ा। राष्ट्रीय महासचिव राम माधव ने ‘‘पन्ना प्रमुख’’ को धरातल पर लाकर माइक्रो मेनेजमेंट सफलतापूर्वक लागू करके जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई, जिसके लिये वे भी उतने ही बधाई के पात्र है। राजनैतिक विश्लेषक कह सकते है कि त्रिपुरा में सत्ता विरोधी लहर (एन्टी इनकम्बेंसी) फैक्टर था, जहाँ मार्क्सवादी पिछले 25 सालांे से सरकार में थी। सत्ता विरोधी लहर फैक्टर से लड़ना दूसरे दलो को भाजपा से सीखना चाहिए। क्योकि हाल में ही गुजरात में 22 सालो की सत्ता विरोधी लहर (एन्टी इनकम्बेंसी) फैक्टर पर विजय प्राप्त कर भाजपा ने पुनः सरकार बनाई।
माणिक सरकार के नेतृत्व में हार ने माथे पर चिंता की एक नई लकीर खीच दी हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि स्वच्छ छवि, सादगी व ईमानदारी की तुलना में जनता जन कल्याणकारी सरकार जो उनके हितो के लिए कार्य करे, उसको चुनना पंसद करती है। यदि कोई सरकार अपने चुनावी वादो को पूरा नहीं कर पाती है तो जनता बिना किसी स्केम, घोटाला, भ्रष्ट्राचार (न होने) के बावजूद उसे हटाने में भी हिचक नहीं करती है। लोकतंत्र के वर्त्तमान स्वरूप में स्वच्छ छवि ईमानदारी, सादगी सिद्धान्त आधारित कार्यकर्ता का हुजूम जो किसी भी लोकतंात्रिक प्रणाली में रीढ़ की हड्डी होती हैं मात्र, लोकतंात्रिक विजय का पैमाना सुनिश्चित नहीं करती हैं। जनता के अपेक्षाओं के अनुरूप जनहित व जनता के व्यक्तिगत हितो के लिये कार्य करना ही जीत की गाँरटी का एक मजबूत आधार हो गया हैं, भले ही उसमे नैतिकता, ईमानदारी व सादगी की कमी हो। 
अमित शाह नरेन्द्र मोदी की जोड़ी ने यह जीत प्राप्त कर यह सिद्ध कर दिया है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की उनके रूप में की गई पसंद व चयन एकदम सही थी जो समय-समय पर खरी उतरी। राष्ट्र को नेतृत्व व पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व के लिये अपने चयन को इन दोनो नेताओं ने भी परिणाम से सही सिद्ध किया। जिस समय इन दोनो व्यक्ति का चयन किया गया था, तब इन दोनो व्यक्तियों की राजनैतिक उँचाई शायद तत्समय उक्त उच्चतम् पदो के समकक्ष नहीं थी। वे तत्समय स्थापित नेतृत्व से काफी कनिष्ठ व कम अनुभव वाले थे और उनकी सहमति के बिना ही तथा उन्हे हटाकर ही संघ ने उनका चयन किया था। अन्तोगतवा 1984 में 2 सीटो से प्रारंभ हुआ भाजपा का यह राजनैतिक सफर को इस ऐतहासिक विजय ने भाजपा को एक तथ्यपरक वास्तविक रूप से सही अर्थो में राष्ट्रीय पार्टी बना दिया हैं, जिसके लिये पूर्वोत्तर की जनता को साधूवाद!

रविवार, 4 मार्च 2018

क्या ‘‘मीडिया हाऊस’’ को राष्ट्रीय शोक घोषित करने का अधिकार नहीं दे देना चाहिए?

फिल्मी कलाकार, एक्टेªस, ‘‘डबल रोल की रानी’’ ‘‘प्रथम महिला सुपरस्टार, ‘‘पद्मश्री’’ श्रीदेवी’’ की मौत अचानक परिस्थिजन्य शंकास्पद स्थिति में दुबई में हो गई। तत्पश्चात् दुबई पुलिस द्वारा गहन जांच के बाद समस्त शंकाओ का निराकरण करते हुये श्रीदेवी की मौत डुबने की दुर्घटना से मौत का मृत्यु प्रमाण पत्र दिया गया। निश्चित रूप से आज तक की वर्त्तमान स्थिति में श्रीदेवी का 50 वर्षो का फिल्मी जीवन एक सफल और प्रथम महिला सुपरस्टार के रूप में रहा जहाँ उनके द्वारा विभिन्न चरित्रों को परदे पर सफलतापूर्वक निभाया गया। उत्तर से लेकर दक्षिण तक और हिन्दी, मलयालम, कन्नंड, तेलगु, तमिल आदि विभिन्न दक्षिणी भाषाओं में फिल्मो में कार्य करने वाली वह एक मात्र सफल अभिनेत्री रही। उनके असामयिक निधन के कुछ समय पूर्व तक वे अपने रिश्तेदार (भांजे मरवाह) की शादी में डान्स करती रही। फिर अचानक निधन की खबर मिलने से लाखो करोडो प्रशंसको को एक गहरा सदमा लगा जिसकी भावनात्मक प्रतिक्र्रिया होना स्वाभाविक ही है। क्योकि चाँद के रहने के बावजूद उनकी ‘‘चांदनी’’ हमेशा के लिये चली गई थी। इस स्वाभाविक प्रतिक्र्रिया पर मीडिया द्वारा पिछले 72 घंटो से अधिक समय तक लगा तार केवल उन्ही के बारे में प्रसारण किया जाता रहा। ऐसा करके क्या उन्होने उनके प्रशंसको, आम जनता, समाज व देश के साथ-साथ देश के चौथे स्तम्भ सहित समस्त जनमानस के साथ न्याय किया? यही एक यक्ष प्रश्न है। उपरोक्त तथ्यों के बावजूद क्या श्रीदेवी कोई राष्ट्रीय व्यक्तित्व थी या देश के प्रति उनका इतना महत्वपूर्ण योगदान था कि तीन दिनो से लगातार मीडिया में सिर्फ और सिर्फ श्रीदेवी ही छायी हुई रही। टीआरपी की होड़ में वे चेनल भी इस दौड़ में शामिल होकर 72 घंटो से ज्यादा समय से अपने चेनलो में श्रीदेवी को ही लगातार दिखाते रहे जो सामान्यतः अपने निर्धारित कार्यक्रम में कोई कटौती/परिर्वतन नहीं करते है। जैसे एन.डी.टीवी जो कई बार प्रधानमंत्री के सीधा प्रसारण को निर्धारित कार्यक्रम में परिर्वतन किये बिना ही दिखाता रहा यदि वाास्तव में मीडिया वालों की नजर में श्रीदेवी एक राष्ट्रीय नेत्री रही और इस तरह का लगातार प्रसारण पाये जाने की अधिकारी थी तो इस तरह के अनेकानेक अन्यान्य व्यक्तित्व जो पूर्व में हमारे बीच से चले गये तत्समय उनके लिए भी मीडिया इसी तरह से सक्रिय क्यो नहीं हुआ। यदि मीडिया का यह मानना हैं कि वही ऐसी एकमात्र गैरसरकारी व्यक्तित्व थी जो ऐसे टीआरपी पाने की हकदार थी तब मुझे कुछ भी नहीं कहना हैं। 
मैने भी इससे पूर्व देश हित के लिए योगदान करने वाले ऐसे ही अन्य व्यक्तित्व या इससे भी ज्यादा विशिष्ठ व्यक्तियों के स्वर्गवासी हो जाने पर मीडिया का ऐसा जमावड़ा कभी नहीं देखा। फिल्मी कला क्षेत्र से आने के कारण यहाँ श्रीदेवी के योगदान को कम करके नहीं आका जा रहा है और न ही यह किसी राजनैतिक व्यक्तित्व का विशेषाधिकार हैं कि सिर्फ उन्हे ही इस तरह से मीडिया का सम्मान मिले। लेकिन मीडिया को शायद यह भी सोचना चाहिए कि यदि समय चलता रहेगा और समय के साथ-साथ देश भी चलता रहेगा तभी देश आगे बढ़ता रह सकेगा। परन्तु पिछले तीन दिनो से मीडिया रिपोर्ट में एक रूकी हुई धड़कन को लगातार दिखाकर देश की धड़कने को रोकने का अनचाहा प्रयास अनजाने में ही मीडिया द्वारा होता रहा। उचित होगा यदि देश के प्रत्येक नागरिक द्वारा देश व समाज के प्रति उनके (श्रीदेवी) बलिदान को इस तरह से याद किया जाय जिससे उनके व्यक्तित्व तथा उनकी फिल्मो के माध्यम से समाज को दी गई शिक्षा द्वारा देश की जनता को प्रेरणा मिल सके। भारत रत्न प्राप्त व्यक्तित्वों की तुलना में पद्मश्री प्राप्त व्यक्तित्व को मीडिया का इतना ज्यादा सम्मान मिलने के कारण उत्पन्न अंतर स्पष्ट रूप से रेखंाकित हो रहा हैं। इसीलिए यह लेख के शीर्षक अनुसार मीडिया को यह अधिकार दे दिया जाना चाहिये क्योकि किसी राष्ट्रीय व्यक्ति के निधन पर सरकार द्वारा ही राष्ट्रीय शोक घोषित किया जाता है। 
कुछ व्यक्ति मेरे इस लेख पर आलोचना कर सकते है जिसका उनका पूरा अधिकार है। मैं उनसे क्षमा मांगते हुये यही निवेदन करता हँू कि श्रीदेवी का व्यक्तित्व बडा था जो वास्तव में उनके अंतिम शवयात्रा में आये हुजूम से सिद्ध भी हो गया। वह पहली व शायद आखिरी अभिनेत्री रही जिसने इस पुरूष प्रधान युग वाले फिल्मी जगत में अमिताभ बच्चन जैसे व्यक्तित्व द्वारा स्थापित पुरूष प्रधानता की सर्वोच्चता को तोड़ने का साहसिक प्रयास करके महिला को पुरूष के बराबर सफलतापूर्वक स्थापित किया। शायद इसीलिए श्रीदेवी को लेडी अमिताभ बच्चन भी कहा गया। फिर भी देश आगे है, व्यक्ति पीछे। इस शोक की घड़ी में हजारो लाखों समर्थक नागरिकगण प्रार्थना करते है कि ईश्वर उनकी दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करे व उनके परिवार को यह दुख सहने की क्षमता प्रदान करे। 

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