गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

नेता ‘‘निर्लज बयानवीर’’ या ‘‘जनता बेशर्म’’?

राजीव खंडेलवाल:

देश की सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस के हरियाणा के नेता श्री धरमवीर गोयत का आया यह बयान कि ‘‘अधिकतर रेप आपसी सहमति से होते हैं’’ उनका मानना है कि‘‘ रेप के 90 फीसदी मामले आपसी सहमति से किए जाने वाले सेक्स के चलते सामने आते हैं, और यह कहने में मुझे कोई झिझक नहीं है। 90 फीसदी लड़कियां मर्जी से सेक्स करना चाहती हैं। वास्तव में यह बयान सम्पूर्ण महिला समाज के साथ एक क्रूर मजाक है।

इसके पूर्व इसी पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्षा व यूपीए प्रमुख श्रीमती सोनिया गांधी का हरियाणा में पीड़ित परिवार के घर के दौरे के दौरान बलात्कार पर चिंता व्यक्त करते हुये यह गैर जिम्मेदाराना बयान कि ‘‘ ये सच है कि बलात्कार की घटनाएं बढ़ी हैं लेकिन ऐसा सिर्फ हरियाणा में नहीं देश के सभी राज्यों में हैं‘‘ कहकर हरियाणा की घटना को कम आंककर अपनी कांग्रेसी सरकार को बचाने का प्रयास किया। अपनी असफलताओ पर परदा डालने के लिए इस तरह के ‘‘शूरवीर’’ बयान क्या निर्लज्जता लिए हुए और बेशरमी भरे हुए नहीं है? क्या एक सभ्य समाज में इस तरह के बयानों से अपनी कार्यक्षमता और प्रतिष्ठा पर आयी हुई ऑच को ढका जा सकता है? ढका जाना चाहिए? ढकना संभव है? यह प्रश्न इसलिए उत्पन्न हो रहा है कि विगत कुछ समय से यदि हम इस तरह के बयानों पर नजर डाले तो ज्यादातर कांग्रेसी नेताओं के इस तरह के बयानों की बाढ़ सी आ गई है जो लज्जा की हर सीमा को पारकर, मर्यादित आचरण की सीमा उल्लंघन कर बेशरमी की उस हद तक पहुंच गई जिसकी कल्पना एक आम बौद्धिक नागरिक ने शायद ही कभी की हो। लेकिन इससे भी बड़ा दुखद तथ्य यह है कि ऐसे बेशरम बयानों पर जनता की उस तरह की प्रतिक्रिया न होकर ‘‘चुप्पी’’ भी ‘‘बेशरमी’’ की सीमा को पार करती हुई दिखती है जो वास्तव में चिंता का विषय है। यदि वास्तव में जनता इतनी जाग्रत होती या उसकी प्रतिक्रिया ऐसे बयानों पर तीव्र होती या तीव्र होने की कल्पना ‘शूरवीर’ राजनीतिज्ञांे के दिमाग मन में होती तो उसके डर और दबाव के कारण ऐसे बयान इस संख्या तक इस सीमा तक शायद नहीं आते।

आईये इस तरह के नेताओं के कुछ और ‘शूरवीर’ बयानो की बानगी देखिएः-

केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा के बयानः-योगऋषि रामदेव एवं अन्ना हजारे के बारे में 9 अगस्त, 2012 को दिया बयान कि ‘‘अन्ना हजारे का शनिचर उतर गया है और अब वो बाबा रामदेव पर चढ़ गया है। ये बेकार के लोग हैं, इन्हें बस कुछ काम चाहिए।’’

28 फरवरी, 2012 गांधी परिवार के लोग सीएम बनने के लिए नहीं, बल्कि पीएम बनने के लिए पैदा होते हैं।

21 अगस्त 2012 महंगाई बढ़ने से मैं खुश हूं।

25 दिसंबर, 2011 वह (अन्ना हजारे) सन् 1965 के भारत-पाक युद्ध का भगोड़ा सिपाही है। इसके गांव रालेगण सिद्धि में सरपंच इसके खिलाफ जीता है। महाराष्ट्र में वह शरद पवार का विरोध कर रहा था, इसके बावजूद उनकी पार्टी नगरपालिका चुनाव में जीती है।

23 दिसंबर, 2011 अन्ना हैं क्या आखिर। यूपी में आकर वह कुछ नहीं कर पाएंगे। चार दिन दिल्ली में धोती कुर्ता पहन कर रहने से कोई नेता नहीं बन जाता है। अन्ना साढ़े चार फीट के हैं और मैं 6 फीट का हूं।

ताजा मामले में दिनांक 16.10.2012 को एनजीओ के कथित फर्जीवाड़े से जुड़े मामले में कानून मंत्री सलमान खुर्शीद का बचाव करते हुए वर्मा ने कहा, खुर्शीद पर 71 लाख रुपये के गबन का आरोप है, जो बहुत छोटी रकम है। अगर यह रकम 71 करोड़ होती तो शायद वे सोचते। मतलब उनकी नजर में 71 लाख से कम का गबन भारतीय दंड संहिता या भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के अंतर्गत अपराध नहीं है।

शहरी विकास मंत्री कमलनाथ का अनाज के कम पड़ने के विषय पर यह बयान कि ‘‘गरीब ज्यादा खाने लगे है, इसलिए अनाज कम पड़ रहा है।’’

देश में हुए लाखों करोड़ो रूपये के घोटालो पर कांग्रेसी नेताओं ने जो बयान दिये है वे भी कम शर्मनाक नहीं है। महंगाई के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मनमोहनसिह के साथ ही अन्य मंत्रियों के यह बयान कि देश की जनता की क्रय क्षमता बढ़ी है, इसलिए महंगाई भी बढ़ी है, निर्धनों के साथ क्रूर मजाक है। यह जले पर नमक छिड़कने समान है।
प्रधानमंत्री का एक और कथन ‘‘विकास के साथ भ्रष्ट्राचार भी बढ़ता है’’ क्या विकास का मतलब फण्ड लाते जाओं खाते जाओं होता है?

म.प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का आतंकवाद पर बयानः- अमेरिका के ओसामा बिन लादेन को मारने के कदम को गलत ठहराते हुए दिग्विजय सिंह द्वारा अपने बयान में ओसामा बिन लादेन को ‘‘ओसामा जी‘‘ कहना भी आतंकवाद पीडितों और आम जनता को बहुत खटका।

केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल का महिलाओं को अपमान करता बयान ‘‘नई-नई जीत और नई-नई शादी. इसका अपना महत्व होता है, जैसे-जैसे समय बीतेगा. जीत पुरानी होती जाएगी. जैसे-जैसे समय बीतता है पत्नी पुरानी होती चली जाती है. वो मजा नहीं रहता है’’

राहुल गांधी जो कांग्रेस के महासचिव एवं युवराज माने जाते है का पंजाब के युवाओं के बारे में दिया गया बयान कि ‘‘यहां 10 में 7 युवक मादक द्रव्य की समस्या से दो चार हैं।’’ युवको पर सत्य से परे कटाक्ष है।

कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता मनीष तिवारी ने 14 अगस्त को न्यायमूर्ति पी. बी. सावंत आयोग की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा था कि सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे पर आरोप लगाया कि वे ‘‘सिर से पावं तक भ्रष्टाचार में डूबे हैं।’’ उनके इस बयान की कांग्रेस में भी आलोचना हुई थी। जिस कारण से उन्हे माफी भी मांगनी पड़ी थी।

दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के एवं अन्य समस्याओं के लिए बाहर से आये लोगो को जिम्मेदार ठहराना बेतुका ही है।

शीला दीक्षित का महंगाई के बचाव में एक और बयान कि ‘‘जब तनख्वाह बढ़ेगी तो दाम भी बढ़ेंगे। शीला ने कहा कि सरकार ने कीमतें बढ़ाने का फैसला मजबूरी में लिया है। शीला ने कहा कि कीमतें बढ़ी हैं तो वेतन-भत्ते भी बढ़े हैं।’’

केंद्रीय ग्रामींण विकास मंत्री जयराम रमेश ने वर्धा में निर्मल भारत यात्रा को हरी झंडी दिखाते हुए कहा था, हमारे देश में टॉयलेट से ज्यादा मंदिरों की संख्या हैं, लेकिन भारत में मंदिर से ज्यादा टॉयलेट महत्वपूर्ण हैं। जिस बयान पर वे अपनी माताजी के विरोध के बावजूद कायम है। क्या स्वच्छता के लिये धर्मस्थल के बजाय दूसरा उदाहरण नहीं दिया जा सकता था।

अरविंद केजरीवाल द्वारा सलमान खुर्शीद के ट्रस्ट पर लगाये गये आरोपों पर उनका दिनांक 17.10.2012 का कथन कि ‘‘वे (अरविंद के लिए) आज कहकर गये है कि हम फरूखाबाद जायेंगे, जाये फरूखाबाद, और आये फरूखाबाद, लेकिन, लौटकर भी आये फरूखाबाद से’’? और ‘‘बहुत दिनों से मेरे हाथ में कलम है, मुझे वकीलों का मंत्री बनाया गया और कहा गया कि मैं कलम से काम करूं लेकिन अब लहू (खून) से भी काम करूंगा।’’ ऐसे धमकीयुक्त बयान भारत जैसे कानूनप्रिय और शांतिप्रिय देश में एक कानून के रखवाले केंद्रीय कानून मंत्री द्वारा ही सम्भव है? वास्तव में यह देश के न्यायिक इतिहास में एक अमिट कलंक है। इसके बावजूद प्रधानमंत्री या यूपीए अध्यक्ष का इस घटना का कोई संज्ञान न लेना बेशर्मी और निर्लज्जता का निरंतर चलने वाला एक और उदाहरण है।

सलमान खुर्शीद के उपरोक्त बयान पर दिनांक 17.10.2012 को कुमार विश्वास का उनके प्रतिउत्तर में यह कथन कि ‘‘फरूखाबाद की जनता उक्त ‘‘गुंडे मवाली’’ को देख लेगी’’ को भी गरिमापूर्ण नहीं कहा जा सकता है। इसी प्रकार भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी पर केजरीवाल द्वारा लगाये गये आरोपो के प्रश्न पर यह कथन कि ‘‘मैं चिल्लर बातों का जवाब देना उचित नहीं समझता’’ ऐसा प्रतीउत्तर एक विपक्ष के नेता के लिये उचित नहीं है।

हमारा देश स्वतंत्र है। स्वतंत्रता से प्राप्त अधिकार के रूप में हमें जो मौलिक अधिकार प्राप्त हुए है। उनमें से एक अपने विचारो को स्वतंत्र तरीके से रखने की स्वतंत्रता भी है। लेकिन यह अधिकार पूर्णतः निर्बाध नहीं है। महत्वपूर्ण पदों पर बैठे सत्तासीन नेताओं की बेलगाम बयानबाजी आम जनता के आत्म सम्मान को दिन प्रतिदिन ठेस पहुंचाती आ रही है। उनके बयानों के अर्थ अधिकांशतः अनर्थ बनकर मुसीबत बन जाते हैं। नेता समाज का आईना होता है उनसे समझदारी भरी बातो की उम्मीद की जाती है, ऐसे बेतुके बयान उनके मुह से शोभा नहीं देते है। ऐसे में वक्त की जरूरत है कि न सिर्फ ऐसी बयानबाजी पर रोक लगाई जाए बल्कि उनके मुंह पर भी ताला लगाया जाए जो कभी चुप नहीं रहते, हर मुद्दे पर अनावश्यक रूप से मुह खोल देते है।

राजनेताओं के बेशर्मी के उपरोक्त बयान आज तक भी नहीं रूके है जो सलमान खुर्शीद द्वारा आज दिये गये उपरोक्त बयान से स्पष्ट है। प्रश्न यही है क्या भविष्य इसी तरह के उलूल-जूलूल बयानों से भरता जायेगा या देश की जनता कभी जाग्रत होकर ऐसे बयानवीरों पर ऐसा ‘‘ताला’’ लगायेगी जिसके रहते वे बयान देने लायक ही नहीं रहे जायेंगे। ‘‘न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।’’

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

क्या अरविंद केजरीवाल ‘‘आम’’ आदमी है?

राजीव खण्डेलवाल:
‘‘मैं आम आदमी हूं’’ के जयघोष एवं ‘टोपी’ के साथ अरविंद केजरीवाल ने नई पार्टी बनाने की घोषणा बिना ‘‘विश्वास’’ (कुमार) के कर दी। जब घोषणा के समय ही विश्वसनीय साथी रहे का विश्वास अरविंद अर्जित नहीं कर पाये जो शायद ‘‘आम’’ आदमी अरविंद केजरीवाल की नजर में नहीं थे इसलिए उन्होने ‘आम‘ आदमी के समर्थन की अपील की। आखिरकार इस देश में राजनीति तो वास्तव में ‘आम’ आदमी ही कर रहा है या ‘आम’ आदमी के नाम पर ही हो रही है? क्या अब भी यह एक प्रश्नवाचक चिन्ह है? हर राजनैतिक नेता के मुख से हमेशा ‘आम’ आदमी की बात ही निकलती है। अरविंद केजरीवाल ने भी इसी का अनुसरण किया है, इससे इतर वे कुछ नयापन नहीं दिखा पाये जिसकी उम्मीद उनसे की जा रही थी। अन्ना आंदोलन की सुरूवात ‘‘मैं हूं अन्ना’’ टोपी के साथ शुरू हुई थी। नये समीकरणों के साथ ही केजरीवाल द्वारा उस टोपी को ‘‘मैं आम आदमी हूं’’ टोपी में परिवर्तित कर दिया। क्या अब अन्ना ‘‘आम’’ आदमी नहीं रहे? इसका जवाब भी केजरीवाल को देना होगा! यदि वास्तव में केजरीवाल ‘आम’ आदमी है, ‘खास’ नही तो वास्तविक ‘‘आम’’, ‘‘खास’’ कब होगा यह गहन शोध का विषय हो सकता है। 

केजरीवाल एवं सहयोगियों द्वारा ‘राजनीति’ वास्तव में ‘आम’ आदमी को ‘खास’ बनाने के लिए की जा रही है, या ‘खास’ आदमी को ’आम’ बनाने के लिए की जा रही है, यह भी शोध का विषय हो सकता है। वैसे भी देश में ‘आम’ काफी प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय है क्योंकि वह अपनी ‘मिठास’ और स्वादिष्ट ‘स्वाद’ के लिए जाना जाता है। हमारे देश में ‘आम’ को श्रेष्ठ फल माना गया है। यह ‘आम’ ‘आम’ होकर भी ‘खास’ बनकर खास व्यक्तियों के बीच का ‘आहार’ बनकर रह गया है। मुम्बई का हाफुज ‘आम’ विश्व प्रसिद्ध है लेकिन उसकी पहुंच कुछ ‘खास’ लोगो तक ही सीमित है। केजरीवाल शायद इस ‘आम’ और ‘खास’ के अंतर को समझ लेते दिशा को समझ लेते तो वह यह प्रारंभिक भूल पार्टी बनाते समय नहीं करते जो उन्होने कर ली है।

राजनैतिक पार्टीयॉ ‘लोकतंत्र’ की ‘जड़’ है, ‘आत्मा’ है, ‘केंद्र बिन्दू’ है, इससे कोई भी व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता है। यद्यपि अन्ना संसदीय लोकतांत्रिक देश के नागरिक होने के बावजूद इससे इनकार कर रहे है। उन्होने कहा है कि राजनीति बहुत गंदी हो गई है व वे राजनीति में नहीं आना चाहते है, यद्यपि प्रारंभ में राजनैतिक विकल्प का उन्होने समर्थन किया था। वास्तव में आवश्यकता नई राजनैतिक पार्टी बनाने की नहीं है। बल्कि राजनीति में नैतिक मूल्यों में आयी गिरावट को रोकने की है जो वर्तमान परिस्थितियों को बदले बिना सम्भव नहीं है। यदि कीचड़ से सने तालाब को साफ किये बिना चाहे उसमें कितनी ही स्वच्छ एवं सुन्दर चीजे फेंकी जाये वे गंदी ही होकर निकलेगी। फिर अरविंद केजरीवाल ऐसा कौन सा नया ‘आम’ लेकर आये है? यह भी विचारणीय है। आवश्यकता है ऐसे अस्वच्छ तालाब को साफ करने की, राजनीति के समूचे परिवेश को बदलने की! स्वस्थ परिवेश लाने की है! एक ऐसा स्वच्छ एवं सुन्दर राजनैतिक ‘तालाब’ (प्लेटफार्म) बनाने की जिसमें यदि कोई भी गंदी चीज फेंकी भी जाए तो वह कुंदन बन जाए। जिससे कोई भी आम नागरिक जब राजनैतिक धरातल पर कदम रखने के बारे में सोचे तो उसकी अंतर्रात्मा में देश सेवा की भावना हो न कि पद और प्रतिष्ठा का लालच। यदि इस बात को केजरीवाल और उनके सहयोगियों, पढ़े लिखे बुद्धिजीवियों ने समझी होती तो वह गलती नहीं करते जिससे अन्ना ने अपने आप को दूर रखकर अपने आपको बचा लिया।

देश के स्वर्णीम अतीत में जाकर देखे तो स्वतंत्रता आंदोलन से उत्पन्न कांग्रेस उसके बाद लोकनारायण जयप्रकाश आंदोलन के परिणाम से उत्पन्न जनता पार्टी सहित न जाने कितने ही जनआंदोलनो ने राजनैतिक मोड़ लेकर कई पार्टियां बनी, अरविंद जैसे कई नायक निकले पर क्या वे देश की दशा-दिशा को मोड़ पाये? देश में स्वतंत्रता प्राप्ति से अब तक 6 राष्ट्रीय 23 क्षेत्रीय मान्यता प्राप्त सहित 1308 गैर मान्यताप्राप्त राजनैतिक पंजीयत पार्टिया ‘आम’ लोगो के हितार्थ बनाई गई। जिनके मूल उद्देश्य या उनके संविधान को उठाकर देखा जाए तो कोई भी पार्टी ऐसी नहीं मिलेगी जो ‘खास’ लोगो के हितो को ध्यान मे रखकर बनायी गई हो, सभी ‘आम’ लोगो के हितार्थ ही कार्य करने हेतु वचनबद्ध है। 

जहां तक एजेंडे की बात है केजरीवाल द्वारा जारी किये गये एजेंडे में जो सबसे महत्वपूर्ण एजेंडा जो किसी अन्य पार्टी में शामिल नहीं था और उन्हे शामिल करना चाहिए था वह यह हैं कि मैंने जो भी दस-बीस सुत्रीय एजेंडा जारी किया है वह इतना वास्तविक है कि उसको सौ प्रतिशत लागू किया जा सकता है। उसको सौ प्रतिशत लागू करने के लिए मैं और मेरी टीम के प्रत्येक सदस्य अपनी सौ प्रतिशत क्षमता से कार्य करेंगे। यदि यही वचनबद्धता भी जनता के सामने आ जाती (जिसके वचनपालन का आकलन भविष्य में अवष्य होगा) तो वास्तव में केजरीवाल की पहचान एक अलग ‘आम’ के रूप में होती। लेकिन शायद ‘आम’ के चक्कर में केजरीवाल जो देश में आम ढर्राशाही, लाल फीताशाही चल रही है उसी ‘आम’ को अपनाने जा रहे है। क्योंकि वर्तमान लोकतंत्र ‘मुंडियो’ की संख्या गिनने पर टिका हुआ है। यदि हमें ‘मुंडिया’ गिनवानी है तो वर्तमान ‘आम’ को अपनाना ही पड़ेगा। अन्ना को साधुवाद दूंगा कि उन्होने इस ‘आम’ के पीछे की असफलता को पढ़ लिया और अपने आप को इस राजनीति से न केवल अलग कर लिया बल्कि अपना एक अलग रास्ता पर चलने का फैसला किया जिस पर वे पूर्व से ही चलते आ रहे है। शायद देश के ‘आम’ नागरिक के पास सिर्फ वक्त का ही इंतजार करने के अलावा कोई चारा भी नहीं बचा है। ।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

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