सोमवार, 20 दिसंबर 2021
‘‘कानून’’ अपना काम कर रहा है? परन्तु ‘‘सरकार’’ अपना काम कब करेगीं?
रविवार, 19 दिसंबर 2021
‘‘राष्ट्र निर्माण में प्रत्यक्ष करों का योगदान‘‘।
केन्द्रीय वित्त मंत्रालय, आयकर विभाग द्वारा पूरे देश में 13 सितंबर 2021 से 17 दिसम्बर 2021 के बीच ‘‘आजादी का अमृत महोत्सव’’ कार्यक्रम के अंतर्गत उपरोक्त विषय पर सेमीनार का आयोजन किया गया। आयकर अधिकारी, बैतूल द्वारा आयोजित इस सेमीनार में भाग लेते हुये मेरे द्वारा कहे गये उद्बोधन के प्रमुख अंश प्रस्तुत है।
किसी भी राष्ट्र का विकास निसंदेह उसकी आर्थिक मजबूत स्थिति पर ही निर्भर होता है। देश की दृढ़ व मजबूत आर्थिक स्थिति के लिए नागरिकों को कर के रूप में अपना अंशदान देना होता है। कर अर्थात टैक्स लैटिन भाषा "टैक्सो" से लिया गया शब्द है। वैसे "कर" कराधान से निकला शब्द है, जिसका तात्पर्य आकलन से होता है। कर देश के नागरिकों द्वारा स्थानीय शासन, राज्य शासन या केंद्रीय शासन को दिए जाने वाला अनिवार्य वित्तीय भुगतान है, जो आर्थिक असमानता को दूर करता है। आधुनिक लोकतंत्र में किसी भी सरकार के लिए यह आय का मुख्य स्त्रोत हो गया है। कर के रूप में यह अंशदान भारत में दो तरह से हैं। एक प्रत्यक्ष कर व दूसरा अप्रत्यक्ष कर। आपको पहले यह समझना होगा कि प्रत्यक्ष कर किसे कहते हैं। वह कर जो सामान्यतया आय पर और उसका भुगतान व्यक्ति सीधे करता है, सामान्यतया प्रत्यक्ष कर कहलाता है। इसे हम मुख्य रूप से आयकर के रूप में जानते हैं। यह भी दो मुख्य प्रकार का होता है। व्यक्तिगत आयकर एवं दूसरा निगमित (कम्पनी) कर। आयकर पर सरचार्ज व सेस भी लगता है। तथापि दान कर और राज्यों द्वारा आरोपित वृत्ति कर भी प्रत्यक्ष कर ही है। पूर्व में प्रत्यक्ष कर के रूप में एस्टेट ड्यूटी (संपत्ति शुल्क) व वेल्थ टैक्स ( धन कर) भी लगता था, जिसे समय-समय पर आवश्यकता के अनुरूप समाप्त कर दिया गया था। फ्रिज बेनिफिट टैक्स नियोक्ता द्वारा अपने कर्मचारियों को दिये जाने वाले बेनिफिट पर राज्य सरकार को दिया जाता है। सर्वप्रथम देश में आयकर वर्ष 1860 में लगाया गया। वैसे मनुस्मृति और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कर का संदर्भ मिलता है। वर्ष 1922 में पहला आयकर कानून आया। जबकि 1961 में वर्ष 1922 के अधिनियम को समाप्त कर नया आयकर अधिनियम लाया गया। वर्तमान में भी आयकर अधिनियम 1961 को समाप्त कर नये आयकर अधिनियम की आवश्यकता महसूस की जा रही है। इस कारण से एक नया आयकर कोड भी कुछ वर्ष पूर्व बनाया गया था जो विचार विमर्श के लिए सार्वजनिक रूप से लम्बित है।
दूसरा अप्रत्यक्ष कर जो माल के विक्रय या सर्विस के रूप में एक उपभोक्ता को सामान्यतया खर्चे के रूप में देना होता है। इसमें पहले विक्रय कर, कमर्शियल टैक्स, वेट, प्रवेश कर, सर्विस टैक्स, सीमा शुल्क, उत्पाद कर, स्वच्छ भारत सेस (15.11.2015 से लागू), कृषि कल्याण सेस, इंफ्रास्ट्रक्चर सेस इत्यादि अप्रत्यक्ष कर होते थे। इन सब अधिकांश करों को मिलाकर अब जीएसटी के नाम से एक अप्रत्यक्ष कर 1-7-2017 से लागू किया गया है। वस्तुओं पर अभी भी वेटकर लागू है, जैसे पेट्रोलियम उत्पाद। स्टॉक एक्सचेंज में सिक्योरिटीज पर भी वर्ष 2004 में सिक्योरिटी ट्रांजैक्शन टैक्स लगाया गया है। कम्पनी को अपने लाभ निवेशकों को दिये गये लाभाश पर डिविडेंड डिस्ट्रीब्यूशन टैक्स देना होता है। इसके अतिरिक्त राज्य शासन भी अनेक प्रकार के प्रत्यक्ष कर जैसे प्रॉपर्टी टैक्स, स्टैंप ड्यूटी, पंजीकरण शुल्क, लग्जरी टैक्स, टोल टैक्स व अप्रत्यक्ष कर मनोरंजन शुल्क, मंडी टैक्स इत्यादि लगाते रहें हैं, जो राज्यों की आय के स्त्रोत के अतिरिक्त साधन है।
हमारे देश की आय में प्रत्यक्ष करों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। चालू वित्तीय वर्ष में प्रथम तिमाही में कुल राजस्व रुपए 2,46,519.80 करोड़ प्राप्त हुआ जबकि इसी अवधि में पिछले वर्ष रुपए 1,17,783.87 करोड़ मिले थे। इस प्रकार लगभग 109% की वृद्धि हुई। सितंबर 2021 को समाप्त हुई तिमाही तक कुल प्रत्यक्ष कर के रूप में भारत सरकार को 570568 लाख करोड़ रुपए की शुद्ध राजस्व (रिफंड राशि घटाने के बाद) की प्राप्ति हुई है, जो पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में लगभग 56% अधिक है। जबकि इसी अवधि में अप्रत्यक्ष करों से कुल राजस्व 675742 करोड़ हुई जो मासिक औसत 1.15 लाख करोड़ हुई है। माह नवंबर तक राजस्व संग्रहण 93795 लाख करोड़ रू. का हुआ है । नवंबर माह में 131526 करोड़ रुपए की प्राप्ति हुई ,जो जीएसटी लागू होने के बाद का अभी तक का दितीय द्वितीय उच्चतम राजस्व है। अप्रैल 2021 में रुपए 141354 करोड़ राजस्व प्राप्त हुआ था जो अभी तक का जीएसटी का उच्चतम रिकॉर्ड है। इस प्रकार जीएसटी का संग्रहण (कलेक्शन) भी अनुमानित बजट की आय से कहीं ज्यादा हुआ है।
भारत में आयकर की अधिकतम दर 42.74% (सरचार्ज सहित) है। विश्व में सबसे अधिकतम आयकर की दर स्वीडन में 57.19% है । विश्व के 14 देश ऐसे हैं जहां पर किसी प्रकार का व्यक्तिगत या निगमित आयकर नहीं है। इनमें अधिकतर तेल उत्पादक देश शामिल है । जहां तक देश में कुल (डायरेक्ट टैक्सपेयर्स) प्रत्यक्ष करदाता की संख्या का प्रश्न है, उनकी कुल संख्या अभी लगभग 82.7 मिलियंस है, जो देश की कुल जनसंख्या का मात्र 6.25% है। जबकि अमेरिका में 40% से अधिक लोग आयकर दाता हैं। अतः स्पष्ट है हमारे देश मे टैक्स देने वालो की संख्या तुलनात्मक रूप से बहुत कम है। इसलिए सरकार को देश के विकास में और अधिक नागरिकों को भागीदार बनाने के लिए उन्हे प्रत्यक्ष कर की सीमा में लाने की नीति व प्रयास करने चाहिए। बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं, जैसे कृषि क्षेत्र जहां बड़े कृषक हैं, फार्म हाउस खेती करते हैं, उनको आयकर की परिधि में लाने पर सरकार को गंभीरता से विचार करना चाहिए। ताकि वे भी देश के विकास में अपना अंश देकर अपने को गौरवान्वित महसूस कर सकें। एक अध्ययन के मुताबिक 4% अमीर किसानों को आयकर के दायरे में लाकर लगभग 25 हजार करोड रू. से अधिक का राजस्व जुटाया जा सकता है और साथ ही इस तरीके से काले धन को सफेद का जो माध्यम बन गया है उस पर भी रूकावट भी आ जायेगी, जिससे सरकार को राजस्व का नुकसान हो रहा है।
परंतु सरकार का डायरेक्ट प्रत्यक्ष कर करदाता के प्रति उतना संवेदनशील रुख नहीं रहा है जितना (इनडायरेक्ट टैक्सपेयर्स) अप्रत्यक्ष करदाता के प्रति। आपको याद होगा कि जब डीजल और पेट्रोल की कीमतें लगातार दिन प्रतिदिन बढ़ रही थी, तब पेट्रोलियम मंत्री से लेकर पूरी सरकार का यही रुख रहा कि नागरिकों को देश के विकास में अपना अंश देने के लिए इस मूल्य वृद्धि में कर के रूप में अपना सहयोग देकर आगे आना चाहिए और यह उनका देश के प्रति कर्तव्य व दायित्व भी है। परंतु यही भावना सरकार ने डायरेक्ट टैक्स करदाता के प्रति व्यक्त नहीं की, जो खेद जनक है।
वैसे प्रत्यक्ष कर की वसुली हेतु हो रहे खर्चे तथा अप्रत्यक्ष कर के समान लगभग अधिकाश नागरिकों को देश के राजस्व में कर के रूप में अपना अंश देने के लिये कुछ क्षेत्रों से यह सुझाव कॉफी समय पूर्व से आया है कि आयकर की बजाय बैंकिंग कैश ट्रान्जेक्सन टैक्स (बीसीटीटी)(बैंक से लेन-देने पर कर) (0.25%/0.50%/1.00%) लगा देना चाहिये। इससे न केवल अधिकतम नागरिक कर देने वालों की संख्या में शामिल होकर कर दाताओं का दायरा बढ़ जायेगा बल्कि राजस्व में भी वृद्धि होगी। क्योंकि जन-धन योजना के अंतर्गत आज देश में अधिकाश नागरिकों के न केवल बैंक खाते खुले है, बल्कि बैंक ट्रान्जेक्संस् भी बढ़े है। साथ ही कर वसूली के लिए इतने बड़े आयकर के अमले की आवश्यकता न होने पर कर वसूली के खर्चे में जो अभी लगभग 1% कुल राजस्व का है, मैं भी काफी कमी हो जाएगी।वैसे वर्ष 2005 में आयकर के अतिरिक्त कुछ मामलों में यह टैक्स लगाया गया था, जो वर्ष 2009 में वापस ले लिया गया। इसके अतिरिक्त राजस्व बढ़ाने के लिए व्यय कर के भी सुझाव कुछ क्षेत्रों से आये है जिस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिये।
गुरुवार, 16 दिसंबर 2021
किसान आंदोलन! किसने! ‘‘क्या खोया’’ ‘‘क्या पाया’’! लेखा-जोखा!
वास्तव में यह किसान आंदोलन किसके लिए? और किन मांगों? को लेकर शुरू हुआ था, इस को जानना अत्यंत जरूरी है। तभी आप वस्तु स्थिति का सही आकलन कर पाएंगे। निश्चित रूप से किसानों का सबसे संगठन, अखिल भारतीय किसान संघ (बी.के.यू) के साथ देश की अन्य छोटी-बड़ी लगभग 500 से ज्यादा संघो से मिलकर संयुक्त किसान मोर्चा बना। इसके बैनर तले देश की जनसंख्या का लगभग 50 प्रतिशत से अधिक किसान जिन्हें जनता से लेकर सत्ता व विपक्ष अन्नदाता कहते थकते नहीं हैं, की विभिन्न लम्बित समस्याओं को लेकर यह आंदोलन प्रारंभ किया गया था। संयुक्त किसान मोर्चे ने किसानों की खुशहाली के लिए 6 प्रमुख मांगे रखी। आंदोलन प्रारंभ करने के पूर्व तीनों कृषि कानूनों की वापसी, एमएसपी पर खरीदी की गारंटी के लिए कानून, विद्युत अधिनियम संशोधन विधेयक 2020-21 को रोका जाना और नए प्रदूषण कानून (वायु गुण्वत्ता प्रबंधन के लिये आयोग अधिनियम) से धारा 15 को हटाने की मांग थी। बाद में इस आंदोलन से उत्पन्न मांग अर्थात आंदोलन के दौरान किसानों पर दर्ज मुकदमे की वापसी, और शहीद हुए किसानों के परिवारों को मुआवजा व पुर्नवास, तथा शहीद स्मारक निर्माण की मांग जोड़ी गई। अतिरिक्त मांग के रूप में लखीमपुर खीरी हत्याकांड में धारा 120बी के अंतर्गत आरोपी केन्द्रीय गृहराज्य मंत्री की बर्खास्तगी व गिरफ्तारी की भी थी।
इनमें से दो सबसे महत्वपूर्ण मांगे जिस पर किसान नेता सबसे ज्यादा जोर देकर शोर कर रहे थे, वे एक तरफ तीनों कृषि कानून की वापसी तो, दूसरी तरफ एमएसपी के लिए कानून निर्माण की बात। परंतु जब प्रधानमंत्री जी ने मीडिया के माध्यम से तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा की, तब संयुक्त किसान मोर्चा ने यह कहकर आंदोलन वापस लेने से इंकार कर दिया था कि, हमारी मुख्य मांग कानून वापसी के साथ एमएसपी को कानूनी दर्जा देने की भी है। तीनों कानूनों की वापसी की मांग इसलिए की गई थी, क्योंकि उसके रहते एमएसपी मिलना संभव नहीं था।
सरकार अपनी पीठ जरूर थपथपा सकती है कि उसे एमएसपी पर कानून बनाने की लिखित गारंटी आंदोलन समाप्ति के लिए नहीं देनी पड़ी। (अर्थात साँप भी मर गया व लाठी भी नहीं टूटी) जिसे किसान नेताओं ने अपनी ‘‘नाक की बाल’’ (प्रतिष्ठा का प्रश्न) बना लिया था। इस प्रकार यदि किसान नेताओं ने तीनों कानून की सरकार से वापसी करा कर उनकी नाक नीची करवाई तो, एमएसपी पर कानून बनाए बिगर माने सरकार ने आंदोलन की वापसी करा कर संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं की भी नाक नीची ही हुई। केवल यहां तक ही नहीं, बल्कि सरकार ने एमएसपी के लिये प्रस्तावित कमेटी में एसकेएम की किसानों के प्रतिनिधि के रूप में उन किसान नेताओं को जिन्होंने कृषि कानून का समर्थन किया था को शामिल न करने की मांग की थी, पर भी कोई आश्वासन नहीं दिया। साथ ही सरकार ने सरकार की ओर से किसान प्रतिनिधित्व के रूप में शामिल किये जाने वाले व्यक्तियांे के समिति में नामों की घोषणा नहीं की, जैसा कि एसकेएम ने मांग की थी। किसान नेताओं खासकर राकेश टिकैत की यह महत्वपूर्ण इच्छा कि टेबिल पर बातचीत के दौरान सहमति की घोषणा हो, को सरकार ने विफल कर अपनी खोई हुयी प्रतिष्ठा की कुछ भरपाई अवश्य की है। तो क्या हिसाब बराबर? बिल्कुल नहीं!
तीनों कृषि कानूनों के जो फायदे छोटे किसानों को मिलने थे, उन कानूनों के समाप्त हो जाने के बाद उन फायदों के लिए कोई लड़ाई न तो एसकेएम ने की और न ही सरकार ने, जो लगातार कानून वापिस लेने की घोषणा करते समय भी उन कानूनों के फायदे का बखान कर रही थी। परोपकारी जनोपयोगी सरकार के रूप में सरकार का यह दायित्व था कि, किसानों को उक्त विलुप्त कानूनों में प्रावधित किए गए फायदे छोटे किसानों को पहुंचें। वे अब कैसे पहुंचेंगे, इस बाबत कोई भी योजना, आश्वासन या कथन नहीं किया गया। यहां पर सरकार और किसान नेता दोनों असफल रहे।
इस आंदोलन का लेखा-जोखा, खाता-बही पूरा करने में एक और जहां आपको किसान के खाते में यह उपलब्धि जोड़नी होगी कि इतना लंबा चला आंदोलन को तोड़ने के लिये समय-समय पर की गई समस्त चाले, प्रयास, कोशिशें अंततः असफल होकर संयुक्त किसान मोर्चा एक मजबूत संगठन के रूप में पहचान बनाकर मजबूत होकर उभर कर निकला है, जो भविष्य में किसानों के हित के लिए लड़ता रहेगा और सरकार पर हमेशा तलवार लटकती रहेगी। इसी प्रकार सरकार के खाते में इस बात को जोड़ना होगा कि किसानों के आगे झुकती दिखती हुई सरकार ने अंततः आखिरी समय में किसानों की ‘‘एमएसपी’’ पर कानून बनाने की बात का कोई लिखित आश्वासन न देकर, और समस्त मुद्दों पर सहमति की घोषणा टेबिल पर बातचीत के बजाए पत्र के द्वारा कर उन्हें हिट विकेट आउट कर अपनी गिरती साख को कुछ हद तक बचाने में सफल अवश्य रही है।
केन्द्रीय कृषि सचिव का केन्द्रीय शासन की ओर से लिखा गया उक्त पत्र एक नई बहस को भी जन्म दे सकता है। क्योंकि उन्होंने पत्र में सिर्फ भाजपा शासित राज्यों के मुकदमे वापस लेने का उल्लेख किया है। इस संबंध में पंजाब सरकार की सार्वजनिक घोषणा का भी उल्लेख किया गया। लेकिन अन्य राज्यों के संबंध में केन्द्र द्वारा अपील करने की बात कही है। जब भाजपा शासित राज्य उत्तर-प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा से सहमति लेने का उल्लेख पत्र में है तब अन्य विपक्षी शासित प्रदेश तमिलनाडू, आंध्रप्रदेश, राजस्थान इत्यादि से पत्र लिखने के पूर्व क्यों नहीं सहमति ली गई? अथवा उनसे अनुरोध करने के बावजूद उन्होंने सहमति देने से इंकार कर दिया? स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए।
इस आंदोलन के अंतिम दौर के परिणाम ने कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर की विश्वसनीयता को भी जरूर कुछ कम किया है। 22 जनवरी को 11वीं दौर की बातचीत के बाद लम्बे समय एसकेएम व कृषि मंत्री की बीच कोई संवाद स्थापित न होने के कारण गृहमंत्री अमित शाह के हस्तक्षेप के बाद एसकेएम के दो नेताओं युद्धवीर सिंह और बलवीर राजेवाल को किये गये फोन के बाद ही पत्रों का संवाद प्रारंभ होकर अंततः सहमति का निर्णय हुआ। इससे लगता है कि समझौंते के अंतिम दौर में नरेन्द्र सिंह तोमर को अलग-थलग रखा गया। वैसे भी नरेन्द्र (स्वामी विवेकानंद) के देश में एक ‘‘नरेन्द्र’’ के रहते दूसरे नरेन्द्र की आवश्यकता महसूस करने का दुःसाहस कौंन कर सकता है?
सोमवार, 13 दिसंबर 2021
किसान आंदोलन!क्या मांगा और क्या मिला? किसानों के साथ ‘‘देश ने छल किया’’?
26 नवंबर 2020 से प्रारंभ होकर 9 दिसंबर 2021 को समाप्त (या स्थगित? कुछ क्षेत्रों में स्थगित होना बतलाया गया है) हुए किसान आंदोलन का प्रारंभ-समाप्ति, उपलब्धि-अनुपलब्धि, संवाद-संघर्ष, हिंसा-अहिंसा, समयावधि आदि समस्त समग्र दृष्टि से आंकलन का परिणाम बहुत कुछ अप्रत्याशित, अनपेक्षित व अनूठा हो सकता है। कुछ लोग इसे सरकार की जीत, या किसानों की जीत, तो कुछ खट्टे-मीठे उपलब्धि की बात कह सकते हैं। परन्तु वास्तव में क्या हुआ और आम साधारण सीमांत किसान जिसके नाम पर और जिसके लिये यह आंदोलन वास्तव में शुरू किया गया और सरकार द्वारा अंततः प्रायः मांगे मानकर समाप्त करवाया गया, ऐसा परसेप्शन बनाया गया। परन्तु आखिर इससे किसको क्या हासिल हुआ? यह गंभीर, विचारणीय एवं चिंतनीय प्रश्न नहीं, विषय है।
मतलब! सरकार व किसान नेताओं की विश्वसनीयता? (सरकार ने भी एमएसपी को कानूनी दर्जा के लिये समिति बनाने की मांग कही थी, जो नहीं की गई) 378 बहुमूूल्य दिनों (समय) की बर्बादी? ठंड-धूप-बरसात को सहता हुआ निरीह किसान का मजबूत शरीर? जन-धन की छति। (700 से ज्यादा किसानों की मृत्यु)। कोरोना काल में देश की आर्थिक तंगी की स्थिति में भी पैसों का अनावश्यक अपव्यय? (आंदोलन का शाही खर्चा) संसद की सर्वोच्चता पर सिद्धांतः नहीं बल्कि कार्यरूप से प्रश्नवाचक चिन्ह? (संसद में पारित कानून की वापसी) लोकतंत्र में बहुमत की बजाय अल्पमत की विजय! (अल्पमत को स्वीकार कर कानून रद्द किए गए) दृढ़, मजबूत, अटल छवि (प्रधानमंत्री की) में चुनावी राजनैतिक मजबूरी के कारण दरार? शब्दावली, वाक्यों व कथनों का गिरता निम्न से निम्नतर स्तर और न जाने क्या क्या क्या? आपको मेरे इन कथनों पर आश्चर्य अवश्य हो सकता है। लेकिन यदि आप इसका विश्लेषण आगे देखेंगे तो, आप भी अपने को ठगा सा ही महसूस पाएंगे।
सबसे बड़ा प्रश्न आज यह उत्पन्न होता है कि किसान आंदोलन की समाप्ति के बाद ‘‘एसकेएम’’ की मुख्य मांग एमएसपी को कानूनी दर्जा मिलने की क्या पूरी हो गई? आज जो सहमति बनी, घोषणा हुई और केन्द्रीय सरकार की ओर से जो लिखित पत्र केन्द्रीय कृषि सचिव संजय अग्रवाल ने भेजा, उसमें एमएसपी प्रभावी बनाने के लिये समिति गठित करने का निर्णय की बात कही गई। उक्त प्रस्तावित समिति में केन्द्र व राज्य सरकार कृषि वैज्ञानिक एवं किसान प्रतिनिधि के साथ ‘‘एसकेएम’’ के प्रतिनिधी भी शामिल होंगे। यानी ‘‘गयी भैंस पानी में’’। क्योंकि उक्त पत्र में एमएसपी को कानूनी जामा पहनाने संबंध कोई सहमति या उल्लेख कहीं नहीं है, जो मांग काफी पुरानी थी और मूल रूप से जिस की ही लड़ाई ‘‘एसकेएम’’ लड़ रहा था। प्रधानमंत्री ने जब तीनों कानून वापसी की घोषणा की थी, तब भी उन्होंने उक्त घोषणा के साथ एमएसपी को अधिक कारगार, प्रभावी बनाने के लिए एक कमेटी बनाई जाने की बात स्पष्ट रूप से कही थी। जब एमएसपी पर यही स्थिति व इसी बात को मानना था, तब आंदोलन को प्रधानमंत्री की कानून वापसी की घोषणा के दिन ही क्यों नहीं समाप्त कर दिया गया? इसका जवाब देने में किसान नेता हकला जाएंगे। परन्तु वे अपनी असफलता को छुपाने के लिये बेशर्मी से खुशियों का इज़हार कर रहे हैं।
इस पूरे आंदोलन और सरकार के रुख से छन कर निष्कर्ष रूप में यह ध्वनि निकलती है कि, इस आंदोलन के समस्त पक्ष अर्थात संयुक्त किसान मोर्चा, केंद्र व राज्य की सरकारें, राजनैतिक दल, मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग, सबने मिलकर इस आंदोलन के माध्यम से देश के आम व ‘‘आंदोलनजीवी’’ किसानों को मूर्ख बनाकर सिर्फ ठगा ही है। वह कैसे! इस बात को आप को समझना होगा। वास्तव में किसानों का मुद्दा या समस्या एमएसपी पाने की नहीं है। 1952 से एमएसपी चली आ रही है। एमएसपी का मतलब होता है, विभिन्न सरकारी एजेंसी अर्थात भारतीय खाद्य निगम, नागरिक आपूर्ति निगम, नाबार्ड, स्टेट ट्रेडिंग कारपोरेशन, राज्य विपणन संस्थाएं आदि केंद्रीय व राज्य स्तर पर तथा व्यापारियों द्वारा कृषि मंडी में कृषि उत्पादों की खरीदी सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम मूल्य पर न हो। मुझे कोई भी किसान नेता यह सरकार या बतला सकती है क्या कि मंडियों में जहां पर अधिकांश खरीदी किसानों की कृषि उत्पाद की, आती है, वहाँ पर क्या सरकार द्वारा घोषित मूल्य से कम पर कृषि उत्पाद की खरीदी होती है? यह होना संभव नहीं है। एक भी उदाहरण रिकॉर्ड पर मिलना संभव नहीं है। परन्तु खरीदी न होने का मतलब कदापि एमएसपी न मिलना नहीं है।
अतः समस्या एमएसपी से कम पर खरीदी की नहीं है, बल्कि कृषि उत्पाद की जाने की है। वास्तविक समस्या ’कृषि उत्पाद की न्यूनतम मात्रा की खरीदी की है। यदि सरकार या उसकी एजेंसीज् कृषि उत्पाद नहीं खरीदते हैं, तो एमएसपी की गारंटी का कानूनी आधार बन जाने के बावजूद भी वे कानून के उल्लंघन के दोषी नहीं पाए जाएंगे। क्योंकि खरीदी न करना कानूनन् तब भी एक संज्ञेय अपराध नहीं होगा, जब तक की न्यूनतम मात्रा की खरीदी न करने पर सजा होने का कानून न बने। इसके बनाने की मांग कोई भी नहीं कर रहा है। क्या यह किसानों की आंखों में धूल झोकना नहीं हैं? एमएसपी न मिलने का मूल कारण उचित मात्रा में कृषि उत्पादों की खरीदी न होना मात्र है। यद्यपि आखिरी में आंदोलन के अंतिम चरण में कहीं-कहीं दबी जबान में यह बात जरूर कही गई। परंतु वह भी अंदर खाने में ‘‘हाथों के तोते उड़ जाना’’ समान ही सिद्ध हुई।
अतः यदि ऐसी न्यूनतम मात्रा की खरीदी का कानून बनाया जाता है तो, उसमें यह व्यवस्था भी की जानी आवश्यक है कि 5 एकड़ से कम खाते वाला छोटा सीमांत किसान (जो कृषको की कुल संख्या का लगभग 80 प्रतिशत है) की मंडी में आयी उपज की पूरी खरीदी हो, 5 से 10 एकड़ की 50 प्रतिशत और इससे अधिक वालों की 10 प्रतिशत खरीदी की गारंटी हो। कुछ इस तरह की या इससे मिलती-जुलती व्यवस्था कानूनी रूप से किए जाने पर ही आम जरूरतमंद किसानों की जरूरतें कुछ हद तक पूरी हो पाएगी व बड़े प्रभावशाली किसानों का वर्चस्व कम होकर वे सीमांत कृषकों का हक छीन नहीं पायेगें। चंूकि आंदोलन चलाने वाले मंच पर बैठे नेता एमएसपी पाने वाले बड़े किसान नेता है। अतः छोटे किसानों के हित की बात कौंन करेगां? वह तो मंच के सामने ठंड में ठिढुरकर, गर्मी में तपकर व बरसात में भीग कर नीचे बैठा रहा। उसे तो ‘‘न माया मिली न राम’’ सिर्फ ‘‘ठन-ठन गोपाल’’!
एक अनुमान के अनुसार सरकार अभी तक कुल कृषि उत्पाद का सालाना लगभग मात्र 8 प्रतिशत ही वह भी कुछ उत्पादों (फिलहाल 23 फसलों) की ही एमएसपी पर खरीदी कर रही है। यह मात्रा व कृषि उत्पादों की संख्या बढ़ाई जाकर खरीदी की न्यूनतम मात्रा की सीमा निश्चित किया जाना अति आवश्यक है। तभी आम किसानों को वास्तविक फायदा मिल सकता है। अतः किसानों की मांग एमएसपी के साथ न्यूनतम मात्रा की खरीदी के लिए कानून बनने की मांग होनी चाहिए थी, जो वास्तव में नहीं रही। इसीलिए आज आम किसान समस्त पक्षों द्वारा ठगा हुआ है। सही है, ‘‘मरे को मारे शाह मदार’। बावजूद इसके वह अपने ठगे जाने को महसूस व समझ भी नहीं पा रहा है। आंदोलन की समाप्ति के बाद किसान जिस तरह से खुशियों इजहार करते हुये घर वापिस जा रहे हैं, इससे किसानों के ठगे जाने का उन्हे एहसास न होने की तथ्य की पुष्टि होती है। शायद इस देश के आम किसान की नियति भी ही यही है। देश की लोकततांत्रिक राजनीति का इससे बड़ा दुर्भाग्य और कुछ नहीं हो सकता है। ‘‘इस हमाम में सब नंगे हैं’’। इस अटल सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता है।
अन्नदाता आंदोलन स्थल से क्या लेकर घर खेत, खलियान वापस जा रहे हैं? इस दृष्टि से यदि आंकलन किया जाए तो किसानों के खाते में आयी सबसे बड़ी उपलब्धि संसद द्वारा पारित तीनों कृषि कानूनों की वापसी ही है, जो आज तक के इतिहास में पूर्व में शायद ऐसा कभी नहीं हुआ। परंतु ‘‘ओस चाटने में प्यास नहीं बुझती’’। यदि यही सबसे बड़ी उपलब्धि किसानों की दृष्टि में होती तो, निश्चित रूप से आंदोलन प्रधानमंत्री की घोषणा के दिन ही समाप्त हो जाता, जो नहीं हुआ। मतलब ‘‘एमएसपी’’ को कानूनी दर्जा देने की उनकी मांग कानून वापसी की मांग से ऊपर रही, जो अंततः पूरी नहीं हुयी। यह तब हुआ, जब सरकार का बार-बार इस पर यह स्पष्ट कथन व संदेश रहा कि एमएसपी थी, है, और रहेगी। बावजूद इसके सरकार ने एमएसपी की गारंटी के लिए कोई कानून बनाने का लिखित आश्वासन या यहाँ तक कि इसका उल्लेख भी सरकार की ओर से केन्द्रीय कृषि सचिव द्वारा दिए गए पत्र में नहीं है। अतः निष्कर्ष रूप में आंदोलन वापसी के लिये हुई यह सहमति आम किसानों की पीठ पर छुरा घोपनें समान है।
अंतिम समय तक ‘‘टिककर’’ टिकैत ने नाम को ‘‘सार्थक’’कर ‘‘गोल’’ प्राप्त किया।
संयुक्त किसान मोर्चा (एस.के.एम) का सबसे प्रमुख चेहरा और अखिल भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत इस पूरे 1 साल से अधिक समय (378 दिन) 26 नवंबर 2020) से चले आ रहे किसान आंदोलन में एक नये लुक व व्यक्तित्व के रूप में उभरकर सामने आये हैं। जो आजकल प्रायः सामान्यतः आंदोलनकारियों नेताओं या राजनेताओं में "दुर्लभ में से दुर्लभतम" में भी देखने को नहीं मिलता है। पूर्णतः ग्रामीण परिवेश से भरपूर, सिर्फ पहनावे में ही नहीं, बल्कि बातचीत का लहजा और शब्दों व वाक्यों का चुनाव और प्रश्नों के उत्तर में सामने वाले को अचभिंत करने वाले प्रति प्रश्नों से भरपूर राकेश टिकैत जैसा व्यक्तित्व अभी तक के किसी भी आंदोलन में शायद ही देखने को मिला हो। राकेश टिकैत का यह व्यक्तित्व उनके पिता स्व. श्री महेन्द्र सिंह टिकैत से भी थोड़ा हट कर है। महेन्द्र सिंह टिकैत निर्विवादित खाँटी ग्रामीण किसान नेता रहे। लेकिन जैसा कि कहते हैं न कि "आदमी से बड़ी उसकी परछाईं होती है", राकेश टिकैत ने पिताजी के व्यक्तित्व के साथ एक राजनेता के भी गुण भी अपने में विकसित किये। इसी कारण वे पिताजी की प्रवृत्ति व प्रकृति के विपरीत चुनाव भी लड़ चुके है। इसलिये वे नरेन्द्र मोदी और अमित शाह जैसे धुरंधर, मजबूत, चाण्क्य कहे जाने वाले नेताओं को शांतिपूर्वक, बिना बड़बोलापन दिखाये, अपनी उंगली पर नाच नचाते दिखते हुये दिख रहे है और आभास करवा रहे है। उनके व्यक्तित्व की एक छोटी सी बानगी को आगे उद्हरण से आप अच्छी तरह से समझ सकते है।
पत्रों के द्वारा संवाद और टेबिल पर बैठकर संवाद के बीच के बारीक व महत्वपूर्ण अंतर को जितना बढ़िया रेखांकित राकेश टिकैत ने किया है, वह उनकी एक आंदोलनकारियों नेताओं के रूप में ही नहीं, बल्कि उनकी छवि एक मजे हुये राजनेताओं के रूप में उनके व्यक्तित्व को प्रर्दशित करती है, जो यह दिखाती है कि "लाल गुदड़ियों में नहीं छुपते"। 11 वें दौर की आखरी बातचीत 22 जनवरी के बाद, लम्बा समय व्यतीत होने के बाद,‘‘एस.के.एम'. द्वारा दिये गये 6 सूत्रीय मांगों के पत्र के जवाब में सरकार से जवाबी पत्र प्राप्त होने के बाद उस पर संयुक्त किसान मोर्चा की बैठक में चर्चा उपरांत किसान आंदोलन के समाप्ति के शुभ संकेत दिखने लगे। बावजूद मामला अगले दिन 24 घंटे के लिये टल गया। यानी "हाथी निकल गया लेकिन पूंछ अभी नहीं छोड़ी" है। पत्रकारों द्वारा राकेश टिकैत से यह पूछने पर कि क्या आंदोलन अगले दिन बैठक होने के बाद समाप्त हो जायेगा? तब राकेश टिकैत का यह नपा-तुला जवाब उसके व्यक्तित्व को निखारता है कि सरकार टेबिल पर अभी हमारी पांच सदस्ययी कमेटी को बुलाकर बैठाल ले, बातचीत के दौरान जो कुछ शंका है या होगी, वह दूर हो जायेगी, आंदोलन समाप्त हो जायेगा। सरकार सिर्फ पत्राचार के द्वारा ही संवाद क्यों करना चाहती है? सरकार यदि तुरंत आंदोलन समाप्त करना चाहती तो, विचार करने के लिए पांच सदस्यीय कमेटी को अभी ही बुला लेती? बार-बार पत्रों का आदान-प्रदान कर समय जाया नहीं करती। परन्तु अभी भी सरकार ने एस.के.एम. द्वारा मांगे गये स्पष्टीकरण का मात्र जवाब भेजा है, लेकिन बुलावा अभी भी नहीं भेजा है। यही सबसे बड़ी चूक भाजपा, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री व कृषि मंत्री के स्तर पर परिलक्षित हो रही है। कारण स्पष्ट दिखता है! सरकार टेबिल पर बैठकर पूरी तरह सरेंड़र होते हुए न दिखने (मोड) के कारण तथा पूरा श्रेय संयुक्त किसान मोर्चा को न मिल जाए, उस कारण से इस मामले में एक ओर जहां लगातार 11 दौर की टेबिल पर हुयी बातचीत के पश्चात आश्चर्यजनक रूप से विपरीत आचरण कर सरकार ने "अंगारे सिर पर धरे होने के" बावजूद भी सीधे बैठकर संवाद करने से अभी तक परहेज रखा, शायद उसका ही यह दुष्परिणाम सरकार के खाते में आ रहा है। सब कुछ देकर, लूटकर भी हम बेगाने हो गये। "न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम"।
सबसे बड़ा अनपेक्षित महत्वपूर्ण कदम तीनों कृषि कानून की वापसी उठाये जाने के बावजूद, चूंकि वह कदम एकतरफा आकाशवाणी के माध्यम से घोषित किया गया था, उसका वह सकारात्मक परिणाम व फायदा सरकार को नहीं मिला, जो टेबिल पर बातचीत के दौरान मांगों के संबंध में लेन-देन कर संयुक्त घोषणा किये जाने कि स्थिति में निश्चित रूप से मिलता। उक्त गलतियां होने के बाजवूद अभी भी सरकार संवाद का पत्राचार का माध्यम चुनने की वही गलती बार-बार दोहरा रही है। यह सरकार का ही तो कमिटमेंट (प्रतिबद्धता) था कि वह एक फोन दूर पर संवाद के लिए तैयार बैठी है। लेकिन दुर्भाग्यवश राकेश टिकैत के पास शायद वह फोन नम्बर नहीं था या अन्यथा कहीं न कही विश्वास की कमी जरूर रही, जो सरकार की तरफ से आयी चिट्टी पर टिकैत का यह दुर्भाग्यपूर्ण कथन कि उसका ग्यारंटर कौंन? प्रश्न पूछने से उभर कर सामने आती है। मुद्दे की बात यह है कि राकेश टिकैत ने सरकार को हर बार टेबिल पर चर्चा हेतु बुलाने के लिए न्योता देने को कहा, लेकिन सरकार ने इससे दूरी बनाये रखी, यह समझ से परे है।
इस किसान आंदोलन ने कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों, मूल्यों को स्थापित किया। सर्वप्रथम यह शायद देश का ही नहीं बल्कि विश्व का सबसे लम्बा सफल किसान आंदोलन रहा। सामान्यतः किसी भी आंदोलन से निपटने का मूल मंत्र "दीर्घ सूत्री विनश्यति" अर्थात आंदोलन को लम्बा खिचाने की प्रकिया/परिस्थितियां पैदा करो। समय की मार से आंदोलन स्वतः मर जायेगा। याद कीजिये यहां पर राकेश टिकैत ने आंदोलन के प्रारंभिक दौर में ही कुछ समय बाद ही उन्होंने यह कहना प्रारंभ कर दिया था कि हम अपनी मांग पूरी लेकर मनवाकर ही जायेंगे, चाहे आंदोलन एक साल क्यों न चले। यहां उनकी दूरदर्शिता, "अंगद के पांव की तरह" की दृढ़ता व भविष्य के खाके (योजना) का आभास होता है। इस आंदोलन की दूसरी विशेषता यह रही कि इतना लम्बा और 700 से ज्यादा लोगो को अकाल मृत्यु के काल में जाने के बावजूद आंदोलन में 26 जनवरी को हुई तथाकथित हिंसा व अन्य कुछ छुट-पुट घटनाओं को छोड़कर (समस्त हिंसक घटनाओं से एस.के.एम.ने अपनी जिम्मेदारी से हाथ खडे़ कर दिये थें) 700 लोगों की मृत्यु से आंदोलन में कही भी उत्तेजना फैली नहीं, यह एक बड़ी गंभीर व दिल को शांति देने वाली बात रही। जबकि कहा यह जाता है कि "क्राउड नोज़ नो लाॅ"। किसान नेताओं को इसका श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिये। साथ ही सरकार को भी इस शांति बनाये रखने का श्रेय जरूर दिया जाना चाहिए, क्योंकि सरकार भी बिना उत्तेजित अत्याधिक धैर्य धारण करते हुये आंदोलनकारियों के विरूद्ध कोई हिंसा या बल प्रयोग नहीं किया। (लखमीपुर की घटना मूलतः व्यक्तिगत थीं।)
तीसरी महत्वपूर्ण बात आंदोलन प्रारंभिक चढ़ाव के बाद खासकर 26 जनवरी की हिंसक घटना के बाद जब उतार पर रहा अर्थात दिल्ली की तीनों बॉडर तक ही सीमित रहा जैसा कि सरकार व कई अनेक क्षेत्रों मेें बताया जाने लगा। इसे राष्ट्रीय आंदोलन मानने से इंकार तक कर दिया गया। तब भी उतार के अंतिम दौर में भी "संघे शक्ति: कलौयुगे" की उक्ति को चरितार्थ करते हुए किसान अंततः अपनी बात मनवा कर ही रहे। मतलब या तो सरकार का आंदोलन के बावत आंकलन गलत था या संख्या भले ही आंदोलनकारियों की कम रही हो, लेकिन एक ऐसा परसेप्शन देशव्यापी, जरूर उत्पन्न हो रहा था जिसकी गरमी भले ही सरकार ने देर से महसूस की (शायद आगामी चुनाव आने के कारण) जिस कारण, से सरकार को आंदोलन के उतरते दौर में भी "अटका बनिया देय उधार" की तर्ज़ पर मांगे लगभग संपूर्ण माननी पड़ी। इस प्रकार सरकार की पूरे आंदोलन के दौरान विफलता का मुख्य कारक राकेश टिकैत की बे-लगाम लेकिन अर्थ पूर्ण और सरकार के दिल में ड़र-कम्पन्न पैदा करने वाले कथन रहे। जिसके कारण ही सरकार ने "सौ कोड़े भी खाये और सौ प्याज़ भी", और राकेश टिकैत आंदेालन को अपने अंतिम उद्देश्यों की पूर्ण पूर्ति की ओर ले जाने में सफल रहे। इसलिये समस्त आंदोलनकारियों नेताओं में यदि किसी एक व्यक्ति को इस आंदोलन की सफलता का श्रेय दिया जा सकता है, तो वह आंदोलन के दौरान रोता हुआ आंखो से आंसुओं से टपकता हुआ भीगा राकेश टिकैत का चेहरा ही था। इस आंदोलन की एक विशेषता यह भी रही कि कमोवेश विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के द्वारा उसे हथियाने, हथियार बनाने व अपना ही राजनैतिक हित साधने के लिए अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराने के प्रयास को आंदोलनकाररियों नेताओं ने प्रायः असफल कर दिया।
इस आंदोलन का एक और महत्वपूर्ण व मजबूत उल्लेखनीय बात यह भी रही है कि वे अकेले राकेश टिकैत ही थे, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अचानक आकाशवाणी से तीनों कृषि कानून की वापसी की घोषणा किए जाने पर अनेक किसान नेताओं सहित अनेक क्षेत्रों में आंदोलन समाप्ति की अटकले तेजी से लगनी शुरू हो गई थी, तब भी राकेश अड़िग रहे, अटल रहे और आंदोलन समाप्ति पर उनका अपने चिर-परिचित शैली में यही जवाब रहा, जब हमारी शेष मांगों का संतुष्टि पूर्ण समाधान हो जाएगा, तभी घर वापसी होगी। और अंततः यह भी हो भी गया। देर आये दुरूस्त आये की तर्ज पर अंत में समस्त पक्षों को समझदारी दिखाने के लिए बधाई। "अंत भला तो सब भला"।
सोमवार, 6 दिसंबर 2021
क्या ‘‘कांग्रेस’’ ‘‘भाजपा’’ से ‘‘बड़ी’’ नहीं हो गई है?
निसंदेह विश्व की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ही है। फिर चाहे सदस्य संख्या की दृष्टि से हो, अथवा विश्व का सबसे बड़ा लोकंतात्रिक देश भारत पर शासन करने की दृष्टि से। देश में केन्द्र व राज्यों में कुल 16 (9़+7) राज्यों में वह स्वयं अथवा अपने सहयोगी दलों के साथ सत्ता पर काबिज है। लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि "सबसे ऊंची जाने वाली पतंग से ही सबसे ज़्यादा पेंच लड़ाये जाते हैं", अब कांग्रेस भाजपा को एक क्षेत्र में जरूर पछाड़ रही है। देश में आये नये कोरोना वैरिएंट "ओमीक्रॉन" को लेकर देश में अभी तक 23 ओमीक्रॉन कोरोना वैरीअंट से संक्रमितो की संख्या चिंहित हो चुकी है। कुछ के टेस्ट जारी है व उनकी रिपोर्ट आने की है। अभी तक विश्व के लगभग 50 देशों में ओमीक्रॅान फैल चुका है। भारत में पाये गये अभी तक कुल 23 संक्रमितों में से 19 महाराष्ट्र व राजस्थान प्रदेश में है। अर्थात 85% के लगभग संक्रमित कांग्रेस व सहयोगी शासित प्रदेशों में हैं। शेष 4 संक्रमित अन्य राज्यों में हैं। मतलब साफ है! कांग्रेस का ग्राफ इस क्षेत्र में बढ़ रहा है। इस "कीर्तिमान" के लिए कांग्रेसी सरकारों को आप बधाई क्यों नहीं देना चाहते है? वे राहुल गांधी ही तो थे जिन्होंने सबसे पहले प्रथम कोविड-19 के दौर में यह कहकर नरेन्द्र मोदी की आलोचना की थी कि अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट व उड़ानों को मोदी ने तुरंत क्यों नहीं बंद किया। किन्तु, "कालस्य कुटिला गति:"। अफ्रीका से यहां से आकर फैला ओमीक्रॉन को रोकने के लिए महाराष्ट्र व राजस्थान की सरकारों ने अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट पर उतरने वाले यात्रियों को 14 दिन के अनिवार्य क्वारेंन्टाईन में और कड़े नियंत्रण में सरकारी व्यवस्था में क्यों नहीं रखा? जब यह ओमीक्रॉन नामक नया कोविड वेरिएंट दक्षिण अफ्रीका में पाया जाने की जानकारी सबको हो चुकी थी। उसके तुरंत बाद ही अफ्रीका से सीधे उड़ाने अथवा विश्व के अनेक देशों से होकर गुजरने वाली उड़ानों से उतरने वाले हवाई यात्रियों पर इन दोनों प्रदेशों की सरकारों ने प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया? किन्तु "कांग्रेस को नहिं दोष गुसाईं"। जो लोग सबसे आगे सबसे पहले आकर यह कहकर चिल्लाते रहे कि मोदी ने कोई रोक नहीं लगाई है, वे अब चिल्लाने में क्यों पिछड़ कर "चुप्पी साधने वालों की" संख्या में आगे रह रहे हैं? क्या कांग्रेस को "रचनात्मक और सकारात्मक" रूप से कार्य करने में सबसे आगे आने का प्रयास करना ही नहीं आता है? सिर्फ और सिर्फ नकारात्मक दृष्टिकोण व नीति? इसीलिये मैं यह कहता हूं कि दिल को "दरिया के समान" बड़ा कर कांग्रेस को इस उपलब्धि के लिये बधाई दीजिये। इससे अंततः ‘‘आपका’’ ही फायदा होना हैं?
मंगलवार, 30 नवंबर 2021
कहीं तीनों कृषि कानून की वापसी का "मास्टर स्ट्रोक" आत्मघाती गोल न सिद्ध हो जाए?
प्रधानमंत्री के इस आश्चर्यचकित व किसानों के माथे पर 1 साल से उमरी चिंता की लहरों को समाप्त करने वाली वाले का एक दूसरा पहलू भी है, (जैसा कि सिक्के के दो पहलु होते है) जिस पर राजनीतिक दल टिप्पणी कर सकते हैं। आंदोलन के लम्बे समय तक चलने के कारण उत्पन्न थकान, हताशा व निराशा की अवस्था में मुख्य मांग के अप्रत्याशित अचानक स्वीकार हो जाने पर उसका स्वागत न करने का मतलब क्या निकलता है? मांग मानो तो मुश्किल और न मानो तो भी मुश्किल? बिलकुल "भई गति सांप छछूंदति केरी" वाली स्थिति है। मतलब क्या आंदोलन अंतहीन चलता जाए? यदि किसानों की नजर में 700 से ज्यादा किसान मरे (शहीद?) हैं, तो क्या आंदोलन के अंतहीन चलते देने की स्थिति में उनकी संख्या 7000 हो जाए और विपक्ष को दिन प्रतिदिन प्रधानमंत्री पर आरोप लगाने के लिए टीवी चैनलों में बहस में आने का मौका मिले सके? आपको यह अधिकार है, प्रधानमंत्री से पूछिए जिस किसान आंदोलन को अपने आंदोलनजीवी परजीवी किसान कहा था। जिन्हें टिकड़े टुकड़े गैंग, माओवादी, नक्सलियों, खालिस्तानियों और आतंकवादियों तक करार कर दिया गया था, जिसे देशव्यापी आंदोलन न मानकर मात्र बॉर्डर तक सीमित बताया गया। जिनको किसान न मानकर छद्म किसान बतलाया गया और न जाने क्या-क्या? राजनीति में इस तरह के आरोप-प्रत्यारोप चलते रहते हैं। परंतु सत्ताधारी पार्टी के नेताओं द्वारा उपरोक्त सब अलंकारों से आंदोलन को अंलकिृत-विभूषित करने के बावजूद प्रधानमंत्री ने किसानों की मूल प्रमुख मांग को स्वीकार कर किसानों व देश के हित में दरियादिली का ही परिचय दिया है। तब किसान व देश हित में निर्णय होने के कारण विपक्ष को अपना आलोचना कर अधिकार सुरक्षित रखते हुये उसका कम से कम औपचारिक रूप से तो स्वागत करना था? जो नहीं हुआ। सही है, "पेट के रोगी को घी नहीं पचता"। चूंकि प्रधानमंत्री ने उक्त *अलंकारों को वापस लिए बिना, तथाकथित पाकिस्तानी चीनी प्रेरित किसान आंदोलन की मांग स्वीकार कर ली हो, तब इसक क्या अर्थ निकाला जाए? हमेशा के समान आलोचक गण अपना पूर्ण दायित्व निभाने में कहां चूक करते हैं ? अतः निर्णय की आलोचनाएं भी बहुत हुयी। ‘‘बहुत देरी से लिया गया निर्णय है’’। कहावत भी तो इसीलिए है ‘‘देर आयद दुरुस्त आयद’’। ‘‘न्याय में देरी न्याय को अस्वीकार करने के समान है’’ न्याय के इस सिद्धांत को यहां इस राजनैतिक निर्णय पर लागू नहीं किया जा सकता है।
विपक्षी दल यह प्रश्न अवश्य उठा सकते हैं कि यह निर्णय राजनीति से प्रेरित होकर लाभ-हानि को देखते हुए लिया गया है। और यदि ऐसा है भी तो इसमें नई बात कौंन सी है? हर राजनीतिक पार्टी अपने लाभ-हानि को देखते हुए ही तो कदापि देशहित के नाम पर निर्णय लेती है, नहीं लेती है अथवा अनिर्णय की स्थिति होती है। चाहे वह सत्ता में हो या विपक्ष में। एक बात पत्थर की लकीर के समान हमेशा से लिखी हुयी है कि कोई भी आंदोलन की पूरी 100 प्रतिशत मांगे न तो स्वीकार होती है न और ही स्वीकार योग्य होती है। आंदोलन खत्म करने में दोनों पक्ष को एक कदम आगे व दो कदम पीछे उठाने ही होते है।
प्रधानमंत्री के इस निर्णय को राजनैतिक चर्चाओं में एक तरफ पाच राज्यों में होने वाले आगामी आम चुनावों खासकर उत्तर प्रदेश और पंजाब की विधानसभाओं के चुनाव को दृष्टिगत करते हुए राजनैतिक दूरदर्शिता लिए हुए होना बतलाया जा रहा है। इस कारण किसान आंदोलन से भाजपा को जो संभावित नुकसान पहुचने की आंशका का अनुमान किया गया हैं, उसकी क्षतिपूर्ति हो सके। इस निर्णय से प्रधानमंत्री की मजबूत छवि वाली नेता की स्थिति में देश में ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय पटल पर कहीं न कही आंच पहुंची हैं। इसके अतिरिक्त कहीं न कहीं किसान आंदोलन के संबंध में केन्द्रीय सरकार से निर्णय लेने हुई देरी की चूक अवश्य हुई है। यदि 11 दौर की हुई बातचीत के दौरान ही सिर्फ एमएसपी जिसे स्वयं सरकार लंबे समय से मान रही है, पर कानून का आवरण चढ़ाने की मांग को यदि स्वीकार कर लिया जाता जिससे सरकार को कुछ भी नुकसान नहीं था। क्योंकि निश्चित मात्रा की एमएसपी पर खरीदी की मांग तो किसी भी पक्ष द्वारा नहीं की गई थी जिस से आर्थिक भार बढ़ सकता था । अतः आंदोलन निश्चित रूप से तभी समाप्त हो जाता। और आज संसद द्वारा पारित तीन कानूनों को वापिस लेने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती जो सीमांत किसानों के हित में है। और इतनी बड़ी हुई जनहानि से भी बचा जा सकता था। इससे सरकार की किरकिरी भी हुई हैं।
कानूनों को वापिस लेते समय पार्टी व सरकार ने यह दावा किया है कि यह कानून किसानों के हित मे है और अधिकांश किसान लोग इस कानून से सहमत है। मात्र किसानों के एक वर्ग को सरकार संतुष्ट नहीं कर पायी। यदि एक वर्ग को संतुष्ट करने के लिए बहुसंख्यक की उपेक्षा की जाकर कानून को समाप्त किया जाता है तो न केवल यह देश में नई परिपाटी को जन्म देगी बल्कि भविष्य में यह देश के लिए खतरनाक परिपाटी भी सिध्द हो सकती हैं। संसद जब कानून बनाती है, तो देश का कोई भी कानून ऐसा नहीं कि उसके दुरूपयोग की संभावना विद्यमान न हो या सब जनो को संतुष्ट किया जा सकें। परंतु कोई भी कानून दुरूपयोग की आंशका के चलते या संतुष्टि के आधार पर न तो रद्द किया जाता है, न ही उसे बनाने से रोका जाता है।
प्रमुख मांग के मान लेने के बाद इस आंदोलन में किसकी जीत हुई है और किसकी हार हुई है, इसे कोई भी पक्ष स्वीकार करने को तैयार नहीं है। सिवाएं अन्नदाता सामान्य किसान आंदोलनकारी जिन्होंने मिठाई खाकर और फटाखे फोड़कर अपनी खुशी का खुलकर इजहार किया है। लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि "देयर इज़ नो रोज़ विदाउट ए थ्रोन" अर्थात जहां फूल होते हैं वहां कांटे भी होते हैं। शीर्षस्थ किसान नेताओं ने इस तरह की कोई खुशी जाहिर नहीं की और न ही भाजपा नेताओं, प्रवक्ताओं ने प्रधानमंत्री के इस निर्णय का मिठाई खाकर, खि़लाकर व पटाखे फोड़कर स्वागत किया है, जैसा कि वे अन्यथा हमेशा करते आए हैं। मतलब साफ है, जैसा कि हमेशा से चला आ रहा है, हर महत्वपूर्ण निर्णय के पीछे नीति कम, राजनीति, स्वार्थनीति और पार्टी के हित आगे व सर्वोपरि होते है। तीनों कृषि कानूनों बिल को वापिस लेने के निर्णय पर आयी प्रतिक्रियाओं और निर्णयो से यह स्पष्ट हो जाता हैं।
प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद किसान संघर्ष समिति की दो बार हुई बैठक में लिये गये निर्णय से यह आंशका बलवती होती जा रही है कि प्रधानमंत्री का उक्त कहे जाने वाला मास्टर स्ट्रोक कहीं आत्मधाती गोल में न बदल जाए अथवा "वाटरलू न सिद्ध हो जाए" ? जिस उम्मीद को लेकर प्रधानमंत्री ने ऐतिहासिक और न्यायोंचित निर्णय की घोषणा इस आशा पर की थी कि किसान व संयुक्त किसान मोर्चा उक्त निर्णय से आत्मविभोर व हर्षित होकर प्रधानमंत्री की घर वापसी की अपील को मानकर आंदोलन का तंबू उखाड़ लेंगे। परन्तु ऐसा लगता है कि "चूल्हे से निकले और भाड़ में गिरे"। एक गवैया (गांव वाला) कहे जाने वाला किसान नेता टिकैत ने ऐसी लगड़ी मारी कि केंद्र सरकार को उफ तक करने का मौका नहीं मिल पा रहा है। प्रारंभिक रूप से प्रधानमंत्री के निर्णय का स्वागत करते किसम ने हुये आंदोलन वापिस लेने से इंकार कर दिया, जब तक कि टेबिल पर बैठकर एमएसपी पर कानून व अन्य मुद्दों पर कोई बातचीत नहीं होगी तब तक आंदोलन पूर्णतः चलता रहेगा। संयुक्त किसान मोर्चा के इस निर्णय से भाजपा "आगे कुआं पीछे खाई" की स्थिति में आ गयी और उसकी मानो "पैरों तले जमीन खिसक गई"।
जिस हाबड़ तोड़ तरीके से प्रधानमंत्री ने निर्णय की घोषणा की उसमें उनकी कुछ त्रुटियों साफ-साफ दृष्टिगोचर होती है, जिससे अपेक्षित परिणाम मिलने पर आशंका के बादल छा गए। पहली सीधे श्रेय लेने व देने के चक्कर में संयुक्त किसान मोर्चा के साथ सरकार की चर्चा कराये बिना ही टीवी के माध्यम से एक तरफा घोषणा कर किसम को श्रेय न दे देने के चक्कर में किसानों को सीधे श्रेय देने का असफल प्रयास किया। यदि टेबल पर बातचीत में उक्त निर्णय लिया जाता तो समस्त मुद्दों पर सहमति बन कर संयुक्त विज्ञप्ति द्वारा निर्णय की घोषणा की जाती तो सकिम को इधर-उधर बगले झांकने का मौका नहीं मिल पाता । दूसरा उनके द्वारा इस आंदोलन में मारे गये किसान व उनके परिवारों के प्रति श्रंद्धाजलि व सहानुभूति के दो शब्द भी न कहना सबसे बड़ी भूल सिद्ध हो गई। तीसरा आंदोलित किसानों की इस आंदोलन से हुई आर्थिक बरबादी के लिए व शहीद हुये किसानों को न तो अभी तक कोई मुआवजा मिला और न ही कोई घोषणा कृषि कानून वापसी के निर्णय के साथ हुई। प्रधानमंत्री एक और गलती यह भी रही कि इन तीनों कानून से जो छोटे कृषको को फायदे होने की बाद जो वे लगातार कह रहे है व अभी भी कानून समाप्ति की घोषणा के समय पर भी कर रहे है, अब उन कानूनों की समाप्ति के बाद उन फायदे की पूर्ति किस तरह से होगी, इसका कोई वैकल्पिक सुझाव या उल्लेख प्रधानमंत्री ने अपने 18 मिनट के भाषण में कहीं नहीं किया । अंतिम गलती एक साल से धूप, ठंड बरसात मैं रोड पर बैठे किसानों के परिवार खासकर महिलाओं के जज्बे के प्रति एक शब्द भी न बोलना। ये सब अल्प छोटे लेकिन महत्वपूर्ण कारण संयुक्त रूप से प्रधानमंत्री की उक्त घोषणा के उपर ज्यादा प्रभावी हो गए लगते हैं। जिससे आम किसान घोषणा से सहमत होता हुआ खुशी का इज़हार करने के बावजूद किसान नेताओं के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाया। इसलिए ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री अपने उद्देश्यों को पाने में पिछड़ रहे है, जो एसकेएम के लिए गए निर्णयो से झलकता भी है।
इस एक निर्णय का एक बहुत ही खतरनाक मैसेज प्रधानमंत्री पर अल्पसंख्यको के तुष्टीकरण के आरोप प्रधानमंत्री लगने के रूप में हो सकता है, जो आरोप भाजपा अन्य दलों पर हमेशा से लगाती चली आ रही है। कहते हैं, "कालस्य कुटिला गति:", प्रधानमंत्री जब स्वयं कहते है कि अधिकांश किसान कृषि बिल से सहमत है, मात्र एक वर्ग को हम संतुष्ट नहीं कर पाये। उनकी संतुष्टि के लिए पूरा कानून वापिस लिया जा रहा है। मतलब साफ है अल्पसंख्यको का तुष्टिकरण ही तो हुआ । अल्पसंख्यक का मतलब जाति विशेष से नहीं बल्कि बल्कि संख्या बल से होता है । यही सिंद्धान्त यहां पर लागू होता है।
प्रियंका गांधी का "विषकुम्भम् पयोमुखम्" के अनुरूप प्रधानमंत्री पर तंज कसते हुए कहना कि एक साल से अधिक दिनों तक जब किसान संघर्ष कर रहे थे, और 700 से अधिक किसानों की शहादत हो गई तब अब माफी किस बात की ? तब मोदी को कोई परवाह नहीं थी। उनका यह कथन दोहरी राजनीति से प्रेरित ही नहीं बल्कि शिकार है। शायद वे यह भूल गई है कि इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुये उनकी हत्या पर पूरे देश में हुये सिख दंगों में हजारों की संख्या में लोगों को मौत के घाट उतारा गया था। तब कई सालों बाद पूरे गांधी परिवार व कांग्रेस पार्टी ने देश से मांफी मागी थी।
जब राकेश टिकैट यह कहते कि सरकार हमें बातचीत के लिए बुलाये तभी बातचीत कर घर वापसी पर विचार होगा निरर्थक हो जाता है जब स्वयं प्रधानमंत्री ने पूर्व में हुई सर्व दलीय बैठक में कहा था कि कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर किसान से केवल एक फोन दूर है। वह एक फोन दूर ही रह गया। न तो किसान ने और न ही प्रधानमंत्री ने निर्णय लेने के पूर्व उक्त एक फोन करने की आवश्यकता समझी।
अंत में एक दिलचस्प बात उभर कर आती है। जब तीनों कृषि कानून पारित किए गए तब यही कहा गया कि यह किसानों के व्यापक हित में है। जब इन कानूनों को वापस लेने का निर्णय की घोषणा की गई, तब भी यही कहा गया यह किसानों के हित में लिया गया निर्णय है। इससे भी ज्यादा मजेदार बात यह रही कि कानून को वापस लेते समय भी कानूनों को गलत न बतलाते हुए उनके गुणों का उल्लेख करते हुए किसानों के हितो में बताया गया । ताली दोनों हाथों से बजती है लेकिन यहां पर एक हाथ से ताली बजा कर उपरोक्त तीन तीन अर्थ निकल कर मोदी है तो मुमकिन है कथन को सिद्ध ही किया है। प्रधानमंत्री द्वारा बिना एहसान लादे यही कर्तव्य का निर्वाह गली तेरी करते हुए किसानों को मिठाई खाने खिलाने व पटाखे फोड़ने का अवसर देने के बावजूद सकम द्वारा आगे के तयशुदा आंदोलन को स्थगित कर प्रधानमंत्री के निर्णय की सकारात्मक प्रतिक्रिया दे सकते थे परंतु एक कदम भी टस से मस हुए बिना खुशी बनाना किस चरित्र का द्योतक है ? एहसान फरामोसी नहीं तो क्या ? यही भारतीय राजनीति की विशेषता व चरम उत्कर्ष है। वैसे इस वापसी निर्णय और उस पर हुई प्रतिक्रिया ने इस मुहावरे को गलत सिद्ध कर दिया है कि मुंह (गाल) फुलाना और मुस्कुराना एक साथ नहीं होता है ।
मंगलवार, 23 नवंबर 2021
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘‘मास्टर स्ट्रोक’’? तीनों कृषि कानून की वापसी!
स्वतंत्र भारत के इतिहास में नरेंद्र मोदी शायद अभी तक के एकमात्र ऐसे प्रधानमंत्री हुए हैं, जो अचानक कड़क और राहत देने वाले निर्णय अपने साथियों को आभास हुये बिना आसानी और विनम्रता से दृढ़ता पूर्वक ले लेते हैं, फिर चाहे वह रात्रि (08 बजे नोटबंदी) या कोविड-19 के कारण लागू राष्ट्रीय लॉकडाउन की घोषणा (08 बजे) अथवा सुबह ( 09 बजे कृषि कानून की वापसी की घोषणा) का समय हो। नोटबंदी के बाद अब संसद द्वारा पारित हुये तीनों कानूनों को वापस लेने की घोषणा ऐतिहासिक होकर नरेंद्र मोदी का यह एक और मास्टर स्ट्रोक है। ‘‘ऐतिहासिक’’ इसलिये कि इस देश में शायद इसके पूर्व कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि संसद द्वारा पारित विधेयक के कानून बन जाने के बाद उसे इंप्लीमेंट (लागू) किए बिना रद्द करने की घोषणा प्रधानमंत्री द्वारा की गई हो। यद्यपि वर्ष 2015 में भूमि अधिग्रहण कानून जो संसद द्वारा पारित कानून न होकर अध्यादेश द्वारा लागू किया गया कानून था, संसद में पारित कराने के असफल प्रयास के बाद सरकार को चार बार जारी अध्यादेश को वापस लेना पड़ा था। मास्टर स्ट्रोक होने का यह कदापि मतलब नहीं है कि देश की संपूर्ण जनता एकमत से उसे स्वीकारें, समर्थन करें व ताली बजाए। कई बार परिस्थितियों का बराबर आकलन न कर पाने की स्थिति में अथवा निर्णय को लागू करने वाली तंत्र की विफलता के कारण, कई बार ऐसे होता है, जब जिस उद्देश्य के लिए, निर्णय लिये जाते है वे उक्त कारणों से पूर्णतः सफल नहीं हो पाते हैं। जब ‘‘मास्टर ब्लास्टर’’ मास्टर स्ट्रोक (छक्का) मारता है, तो जरा सी भी ताकत स्ट्रोक में कम लगने पर वह सीमा पर कैच होकर आउट हो जाता है। यही स्थिति राजनीति में प्रधानमंत्री द्वारा मारे गए मास्टर स्ट्रोक की भी है।
किसानों की सबसे प्रमुख मांग संसद द्वारा पारित तीनों कानूनों को वापस लेने के लिये लगभग एक साल (360 दिन) से चले विश्व का सबसे लम्बा अहिंसक व शांतिप्रिय किसान आंदोलन में अचानक ही आज एक सुखद मोड़ तब आया जब ‘‘गुरु’’ ‘‘प्रकाश’’ पवित्र पर्व गुरूनानक जयंती पर ’बिना किसी शर्त के या बातचीत के (जो 11वीं दौर की होने के बाद 12 जनवरी से बंद थी) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बिना किसी पूर्व सूचना के डी.डी.न्यूज (मीडिया) के माध्यम से देश के नागरिकों को संबोधित करने हुये क्षमा मांगते हुए, सच्चे मन व पवित्र हृदय से अपने स्वभाव व कार्यशैली के विपरीत, प्रशंसनीय लचीलापन दिखाते हुए, किसानों की उक्त प्रमुख मांग स्वीकार करने की घोषणा करते हुए यह कहा कि ‘‘शायद हमारी तपस्या में कुछ कमी रही होगी जिस कारण से हम कुछ किसान भाइयों को प्रकाश जैसा सत्य नहीं समझा पाए’’। यह कहकर प्रकाश पर्व की महत्ता को ईशारे में इंगित किया। साथ ही प्रधानमंत्री ने यद्यपि एक नई शुरुआत की उम्मीद करते हुए किसानों से अपने-अपने घर और गलियारों में लौटने की अपील की, तथापि उन्होनें इस आंदोलन में 700 से भी ज्यादा मृत व्यक्तियों व परिवारो के लिए व किसानो की एक साल के आंदोलन में झुलसे कड़क तपस्या के लिए एक शब्द भी सहानुभूति में नही कहा।
यह विनम्रता व भावुकता ली हुयी घोषणा 56 इंच का सीने लिये, एक दृढ़, कड़क प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे व्यक्ति ही कर सकता हैं। प्रधानमंत्री द्वारा आंदोलित किसानो की सबसे महत्वपूर्ण मांग के विनम्रतापूर्वक स्वीकार करने के बाद कम से कम संघर्षशील सयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं सहित समस्त राजनैतिक नेताओं को उक्त घोषणा का पहली प्रतिक्रिया में ही स्वागत करते हुये प्रधानमंत्री को धन्यवाद जरूर देना चाहिए था। धन्यवाद के साथ यदि-परन्तु-लेकिन-किंतु लगाते हुये अन्य लम्बित मांग को पूरा करने की मांग भी की जा सकती है। परन्तु देश की वर्तमान में गलाकाट व एक दूसरे को नीचा दिखाने की राजनीति के चलते, इस शिष्टाचार को निभाने में प्रायः सभी असफल रहे। वस्तुतः इस देश का राजनीतिक वातावरण अब इतना खराब हो चुका है कि परस्पर विचारों का आदान-प्रदान का होना, बिना वैमनस्य व निम्न शब्दों के (गिरते स्तर के कारण) होना, परस्पर जीवंत सम्पर्क रखना, लगभग असंभव सा हो गया है। मौजूदा राजनैतिक पस्थितियों परस्पर अविश्वास लिये व सिर्फ स्वयं के राजनैतिक हित साधक लिये हो गयी है कि यदि आपके विरोधी राजनीतिज्ञ आपको प्लेट में चांदी की एक (वर्क) परत लगाकर मिठाई प्रस्तुत करें, तब भी आप उसे खाकर धन्यवाद देने की बजाय उस चांदी की (वर्क) परत पर शक करने लग जाते हैं कि कहीं यह नकली होकर नुकसानदायक तो नहीं है? विरोधियों द्वारा किया अच्छा कार्य के लिए पीठ थपथपाने वाला बड़ा दिल अब ढूंढो नहीं मिलता हैं। देश की प्रगति में सबसे बड़ा रोड़ा ऐसी ही कुत्सित विचारों के प्रवाह का होना है।
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण प्रारंभिक टिप्पणी किसान नेता राकेश टिकैत की रही जो यद्यपि ‘‘सकिम’’ अध्यक्ष नहीं हैं, (अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढ़ूनी हैं) तथापि किसान आंदोलन का सबसे प्रमुख चेहरा बने हुए हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का औपचारिक अभिवादन कर धन्यवाद दिये गये बिना कहा कि बिना बातचीत किसान वापिस घर नहीं लौंटेंगे। वे अपने पूर्व कथन (लगातार) को भूल गए कि ‘‘कानून वापसी के बाद घर वापसी होगी‘‘ लगभग एक साल (360 दिन) से चल रहे इतने बड़े किसान आंदोलन जिसमे 700 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई हो, का नेतृत्व करने वाले नेता से कदापि यह उम्मीद नहीं की जा सकती है। राकेश टिकैत का यह भी कहना रहा कि यह प्रधानमंत्री की यह मीडिया के सामने घोषणा है, संसद में नहीं। प्रधानमंत्री का सार्वजनिक रूप से किसी निर्णय की घोषणा लगभग संसद में दिए गए घोषणा के समान ही प्रभावी होकर बंधनकारी जैसी ही होती है। ऐसा कोई उदाहरण किसान नेता या विपक्षी दल नहीं बता सकते है, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक रूप से कोई कानून को बनाने की या खत्म करके या अन्य कोई कार्य करने की घोषणा की हो, जो बाद में झूठी सिद्ध हुई हो। तथापि घोषणाओं को धरातल पर उतारने में समय अवश्य लग सकता है। राकेश टिकैत आगे प्रश्न उठाते हुये कहते है कि क्या नरेंद्र मोदी संसद से ऊपर है? उनका यह अर्थहीन प्रश्न मामले को गलत दिशा में ले जाने का प्रयास मात्र है। प्रधानमंत्री निश्चित रूप से संसद से ऊपर नहीं है, लेकिन उस संसद के एक प्रमुख भाग जरूर है जिसने किसानों के हित में तीनों कानून पारित किये थे। निश्चित रूप से किसम (किसान संघर्ष समिति) को प्रधानमंत्री की इस घोषणा का फौरी तौर पर तुरंत स्वागत करना चाहिए था। जरूर वे यह कह सकते हैं कि हम संघर्ष समिति की बैठक तुरंत बुलाकर प्रधानमंत्री की आंदोलन समाप्त कर घर-खलियान वापसी की अपील पर निर्णय लेंगे। क्योंकि इस तरह के आंदोलनों को चलाने वाली संघर्ष समितियों में संयोजक/अध्यक्ष विचार विमर्श किये बिना व सहमति के बिना किसी निर्णय की घोषणा नहीं कर सकते हैं, किसी भी आंदोलन के ये मूल तत्व होते हैं। क्योंकि एक व्यक्ति के एक गलत निर्णय से आंदोलन को हानि पहुंच सकती है।
शनिवार, 20 नवंबर 2021
कंगना जी ‘‘वचन’’ का पालन कर पद्मश्री को वापस कर दीजिये!
‘‘टाईम्स नाउ’’ न्यूज चैनल को दिये गये एक लम्बे इंटरव्यू में अपने विवादास्पद बयानों के कारण हमेशा सुर्खियों में रहने वाली फिल्मी कलाकार कंगना रनौत ने कहा कि ‘‘1947 में भीख में मिली आजादी ‘‘आजादी’’ कैसे हो सकती है। वह भीख थी, आजादी नहीं। असली आजादी 2014 में मिली’’। उक्त कथन पर देशव्यापी, सर्वव्यापक आलोचना होनी ही थी, जो सही भी है। उक्त कथन पर आयी प्रतिक्रियाओं व आलोचनाओं पर कंगना ने सोशल मीडिया इंस्टाग्राम पर बचाव में एक पोस्ट किया। इस पोस्ट में एक कदम आगे बढ़कर कंगना ने कहा कि ‘‘1947 में कौंन सा युद्ध हुआ मुझे नहीं पता! ‘‘अगर मुझे कोई बता सकता है तो अपना पद्मश्री वापस कर दूंगी और माफी भी मागूंगी। कृपया मेरी इसमें मदद करे’’।
एक (तथाकथित अबला) महिला जो मदद की गुहार कर रही हो (यद्यपि जिनको पहले से ही भारत सरकार ने ‘‘वाय प्लस’’ श्रेणी की सुरक्षा प्रदान की है), उनकी मदद करना एक भारतीय नागरिक का कर्तव्य हो जाता है। इसलिये कंगना जी, निश्चित रूप से में न केवल आपकी निशुल्क मदद करने को तैयार ही नहीं हूं, बल्कि तुरंत ही आगे मदद भी कर रहा हूं। अर्थात आपके प्रश्न का आपको संतुष्ट करने वाला और समधानकारक उत्तर दे रहा हूं। गणतंत्रीय भारत देश स्वतत्रं देश है या नहीं, यह तो प्रश्नवाचक चिन्ह लगाने वाली कंगना ही बता पायेगी? लेकिन इस देश की युगों-युगों से चली आ रही भारत देश भारतीय संस्कृति में भगवान राम, दानवीर कर्ण, राजा हरिश्रचंद्र जैसे अनेक महान विभूतियां हुई हैं, जिन्होंने ‘‘प्राण जाए पर वचन न जाये’’ को अक्षरसः मानते हुये अपने दिये गये वचनों को पूर्ण किया। उम्मीद है, आपको संतुष्ट करने वाला उत्तर अर्थात आपके निरुत्तर होनेे पर आप भी अपने वचनों का अवश्य पालन करेगी। अर्थात् देश से माफी मांग कर अपने कथनानुसार पद्मश्री अवश्य वापस कर देंगी।
आइये, सर्वप्रथम उन्होंने ‘‘टाईम्स नाउ’’ से बातचीत में क्या-क्या प्रमुख बातें कहीं तथा उनका सार व अर्थ क्या है? उन्होेंने साफ तौर पर कहा कि वर्ष 1947 में मिली आजादी भीख थी, और असली आजादी 2014 में मिली है। इस पर आयी प्रतिक्रियाओं पर इंस्टाग्राम में की गई पोस्ट में वे कहती ‘‘1947 की भौतिक आजादी हो सकती है, अर्थात् शारीरिक आजादी हमारे पास थी। एक मृत सभ्यता जीवित हुई। परन्तु 2014 में देश की चेतना व विवेक मुक्त हुई है’’। मतलब क्या अटलजी के शासन में भी विवेक व चेतना मुक्त नहीं हुई थी? इसका भी तो जवाब तो दीजिये कंगना जी? उन्हे याद दिलाना होगा कि 1977 में आपातकाल हटने के बाद तत्समय उसे दूसरी आजादी बतलाया गया था। तब भी आपातकाल में हुये अत्याचार के विरूद्ध देश का विवेक जाग्रत हुआ था। उन्होंने यह भी कहा कि आजादी की पहली सामूहिक लड़ाई 1857 में शुरू हुुई थी। उन्होंने गांधीजी पर तंज कसते हुये आलोचना करते हुए कहा कि आजाद हिंद फौज की छोटी सी लड़ाई, राष्ट्रवाद के साथ उत्पन्न ‘‘राईट विंग’’ भी लड़कर ले सकती थी और सुभाष चंद्र बोस पहले प्रधानमंत्री बन सकते थे। क्यों आजादी को कांग्रेस के कटोरे में ड़ाला गया? गांधीजी पर तंज कसते हुये उन्होेंने कहा ‘‘दूसरा गाल देने से भीख मिलती है, आजादी नहीं।’’
उनके समस्त शब्दों व कथनोें को पढ़ने-सुनने से यह बात अपने आप में बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि वे अत्यधिक भ्रमित (कन्फ्यूज्ड) होकर स्वयं को ही अपनी उलूल-झूलूल बातों में उलझा रही हैं। जब वह यह कहती हैं कि ‘‘1947 में कौंन सी लड़ाई लडी’’? तब उनको यह समझाना होगा व उन्हें समझना भी होगा कि स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई सिर्फ सैनिक युद्ध से ही नहीं जीती जाती है, वरन् उसके बिना भी हो सकती है व हुयी हैं। कालांतर में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन सैनिक युद्ध न होकर एक जन आंदोलन व राजनीतिक आंदोलन में परिवर्तित हुआ। अंततः देश ने 15 अगस्त 1947 को जो स्वाधीनता प्राप्त की वह बातचीत के टेबल पर ही प्राप्त हुई थी, दान में दी गई भीख नहीं थी।
कंगना रनौत में इस बात की समझ होनी ही चाहिए (यदि नहीं है तो इतिहास की किताबें पढ़ ले) कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन 1 दिन या 1 वर्ष अर्थात सिर्फ वर्ष 1947 का ही नहीं था, जैसा कि कंगना ने पूछा कि 1947 में कौंन सा युद्ध हुआ था? कंगना की बात को शाब्दिक रूप से सही मान भी ले कि यदि 1947 में कोई लड़ाई नहीं हुई तो आजादी कैसे? तब वे यह भी बतलायें कि वर्ष 2014 में कौन सा युद्ध हुआ? कौन सी लड़ाई लड़ी गई, जिस कारण से वे 2014 में आजादी मिलने की बात कह रही है।
कंगना जब वर्ष 1947 में आजादी नहीं मिलने की बात कह रही हैं, तब फिर उन्होंने 1947 में काैंन सी आजादी को कांग्रेस के कटोरे में ड़ालने की बात कर गंाधी जी की आलोचना की? यदि ‘‘आपकी’’ नजर में वर्ष 2014 में ही असली आजादी मिली, तो वर्ष 2014 को स्वतंत्रता वर्ष या कोई नया स्वतंत्रता दिवस घोषित करने के लिए आप आगे क्यों नहीं आई? कांग्रेस को ‘‘कटोरे में मिली आजादी’’ द्वारा बनाया गए संविधान को बदल कर नया संविधान लागू करने पर ‘‘स्वतः संज्ञान’’ ‘आपने’ क्यों नहीं लिया गया? इन प्रश्नों का जवाब कंगना को देना होगा।
दूसरा प्रश्न 1947 में मिली आजादी को कांग्रेस के कटोरे में तथाकथित रूप से ड़ालने से क्या हमारी आजादी समाप्त हो जाती? क्या उस आधार पर आजादी पर प्रश्नचिन्ह लगाया जा सकता है? ‘‘आखिर आजादी आजादी है’’। और कंगना जी यह 1947 की आजादी ही है जो 2014 के बाद भी चली आ रही है, जहां आप मुक्त भाव से निड़र होकर निरतंर निर्भीक बोल रही है। आपके उलूल-झूलूल बयानों से न केवल देश के महत्वपूर्ण समय का अपव्यय हो रहा है बल्कि मेरा भी समय आपकी बकवास का जवाब देने में जाया हो रहा है। इसीलिए आपके टीवी इंटरव्यू, इंस्टाग्राम द्वारा आए विचारों से असहमत भाजपा सहित देश की लगभग समस्त पाटियों व बुद्धिजीवियों ने आलोचना कर विरोध दर्ज कराया है। तथापि कंगना के समर्थन में सोशल मीडिया में एक मेसेज चल रहा है, जहां पर कंगना को सच (तथाकथित?) बोलने के साहस के लिए यह कहकर समर्थन किया जा रहा है कि भारत आजाद देश न होकर आज भी राष्ट्र मंडल का सदस्य है।
यदि यह मान भी लिया जाए कि तथ्यात्मक रूप से उक्त आधार सही है, तो वर्ष 2014 के बाद तथाकथित रूप से मिली आजादी (कंगना के शब्दों में) के बाद भी भारत राष्ट्रमंडल देशों के समूह का सदस्य बना हुआ है। यदि 1947 में आजादी नहीं बल्कि मात्र सत्ता का हस्तांतरण हुआ है, जैसा कि सोशल मीडिया में दुष्प्रचारित किया जा रहा है, तो वर्ष 2014 में क्या हुआ?
स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन और देश का बंटवारे होने में कांग्रेस और उन्हे नेताओं की भूमिका की आलोचना जरूर की जा सकती है। बहुत से मुद्दों को लेकर उनके समक्ष प्रश्नों का जंजाल खड़ा किया जा सकता है। परंतु देश को स्वतंत्रता या आजादी निश्चित रूप से 1857 के गदर युद्ध से प्रारंभ होकर आजाद हिंद फौज (जिसने आक्रमण कर अंग्रजों से कुछ प्रदेश मुक्त कराये थे) के नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे गरम दल व कांग्रेज जैसे नरम दल और मंगल पांडे, भगत सिंह, चंद्र शेखर आजाद, खुदीराम बोस, सुखदेव थापर, शिवराम राजगुरू, अशफाक उल्ला ख़ाँ बटुकेश्वर दत्त जाने माने अनेक क्रांतिकारियों के संयुक्त व सामूहिक योगदान से ही प्राप्त हुई है। और वह भी 15 अगस्त 1947 को ही। इस ऐतिहासिक तथ्य को कंगना को अपने दिल दिमाग में अच्छी तरह से फिट कर दिमाग को दुरूस्थ कर लेना चाहिये।
आज कंगना ने पुनः अपनी छपास आदत व हेड़लाइंस हंटर (जैसा कि टाइम्स नाउ के एंकर ने उपाधी भी दी) के चलते महात्मा गांधी को भी सत्ता का लोभी बता कर उनका अपमान किया है। कंगना को शायद राष्ट्रपिता और राष्ट्रपति में अंतर का ज्ञान नहीं है। महात्मा गांधी देश के राष्ट्रपिता है, राष्ट्रपति नहीं, जो सत्ता का प्रतीक होता है। यद्यपि यदि वे चाहते तो सत्ता पर जरूर आसीन हो सकते थे। बावजूद सत्ता त्याग करने वाले, सादगी पूर्ण जीवन जीने वाले महात्मा को सत्ता का भूखा कहना स्वयं को मूर्ख सिद्ध करना ही है। देश के नागरिकों को स्व-स्फूर्ति अब आगे आकर गंभीर रूप से सोचना होगा कि पिछले कुछ समय से कुछ बयानवीरों के इस तरह के आये राष्ट्र विरोधी व देश की अंखड़ता को खंडि़त करने का प्रयास करने वाले बयानों की बाढ़ को रोकने के लिए ऐसे प्रभावी कड़क कानून बनाए जाएं जिनके खौंफ व ड़र से लोग व्यक्तिगत और प्रेस की स्वतंत्रता का इस तरह दुरुपयोग कर देश की आजादी को खंडित करने का प्रयास न कर सकें। कंगना के उक्त कथन उनकी विक्षिप्त मानसिकता को ही दर्शाते है। अतः उनका मानसिक इलाज पूर्ण होने तक उनकी भारतीय नागरिकता निलंबित कर देनी चाहिये।
अंत में कंगना रनौत के प्रश्न का यही जवाब है कि उनका प्रश्न बकवास पूर्ण है, अर्थहीन अर्थात निरर्थक व तथ्यों के बिल्कुल परे होकर उनकी आदत के मुताबिक मात्र एक जुमलेबाजी ही है। यह बात उन को अच्छी तरह से इस लेख के द्वारा समझा दी गई है, यदि वे जरा सी भी समझदार हैं और समझना चाहती हैं तो?। इस तरह उनके इस प्रश्न का उत्तर इस प्रश्न को समाप्त करने में ही निहित है, जो इस लेख के माध्यम से किया गया है।
शनिवार, 13 नवंबर 2021
‘‘.....’’ ‘‘ब्राडिंग’’ ने ‘‘महंगाई डायन’’ न होकर आज के जीवन की ‘‘आवश्यक बुराई’’ के रूप में ‘‘स्वीकार्यता’’ हो गई है।
‘‘पीपली लाईव’’ (वर्ष 2010) फिल्म का पेट्रोल-डीजल सहित महंगाई पर यह गाना ‘‘सखी सईया तो खूब ही कमात है महंगाई डायन खाये जात है’’, यूपीए सरकार के समय भाजपा ने बहुत गाया था। यद्यपि काफी समय पूर्व वर्ष 1974 में मनोज कुमार की फिल्म ‘‘रोटी कपड़ा और मकान’’ का महंगाई पर यह गाना भी बहुत प्रसिद्ध हुआ था ‘‘एक हमें आपकी लड़ाई मार गई, दूसरी ये यार की जुदाई मार गई, तीसरी हमेशा की तन्हाई मार गई, चौथी ये खुदा की खुदाई मार गई, शक्कर में ये आटे की मिलाई मार गई, पाउडर वाले दूध दी मलाई मार गई, राशन वाले लैन की लम्बाई मार गई, जनता जो चीखी, चिल्लाई मार गई, बाकी कुछ बचा, तो महँगाई मार गई’’ कहने का मतलब यही है। इस देश में महंगाई चुनावी राजनीति में हमेशा बड़ा मुद्दा रही है। पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि के विरोध में अटलजी, स्मृति ईरानी सहित विरोध के प्रतीक बैलगाड़ी, साइकल, सिलैन्ड़र, पद यात्रा आदि एक ही समान रहे, सिर्फ झंडे़-डंडे अलग रहे। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में महंगाई के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस सरकार को बुरी तरह से घेरा और सत्ता प्राप्त करने में यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा भी रहा। सुषमा स्वराज्य के नेतृत्व वाली भाजपा की दिल्ली सरकार महंगाई पर महंगे प्याज के निकले आंसूओं से पलट गई। परन्तु आज वास्तव में महंगाई राजनीति में कोई मुद्दा रह गया है क्या? बड़ा प्रश्न है? ऐसा लगता है, जिस प्रकार भ्रष्टाचार राजनीति में बकलोल (बकवास करने) के अलावा कोई मुद्दा नहीं रह गया है, ठीक उसी प्रकार महंगाई की भी आज यही स्थिति हो गई है। सिवाए पान ठेले चौराहों पर आपसी बातचीत व गपशप कर चर्चा तक ही सीमित हो गयी है।
उक्त उत्पन्न सोचनीय स्थिति का सबसे बड़ा कारण आज की राजनीति में जो ब्राडिंग की राजनीति जिसकी शुरूवात वर्ष 2014 से प्रारंभ हुई, का हावी होना हैं। इस कारण से आम नागरिकों की अनचाहे ही महंगाई की अप्रिय स्थिति को आवश्यक बुराई के रूप में मजबूरी में स्वीकार करने की सी मनः स्थिति हो गई है। क्योंकि दिन प्रतिदिन बढ़ती महंगाई के विरोध में वैसा उग्र विरोध, प्रर्दशन का कोई भी प्रयास विपक्षी राजनैतिक पाटियों का अथवा जनता के स्तर पर उस तरह का देखने को नहीं मिलता है, जो यूपीए सरकार के समय बढ़ती महंगाई को लेकर भाजपा बढ़-चढ़ कर करती रही थी। उसका एक बड़ा कारण भाजपा जब विपक्ष में थी, तो उसे विरोध कर सजग विपक्ष की भूमिका अदा करने का खेल बखूबी आता था। जिस कारण वह सत्ता के शिखर पर भी पहुंची। परन्तु कांग्रेस के सालोें साल तक सत्ता पर रहने के कारण उत्पन्न ‘‘अलाली व दलाली’’ ने और पूर्व में विरोध का अनुभव न होने कारण कांग्रेस सक्षम विरेाधी पक्ष की भूमिका का निर्वाह करने में लगभग असफल ही रही है। यह स्थिति तब है, जब आज जनता के बीच जाने के लिए मुद्दों की कोई कमी नहीं है। यद्यपि भाजपा आंकड़ों के सहारे यह दावा जरूर कर रही है कि महंगाई की दर जो यूपीए सरकार में थी, तुलनात्मक रूप से वह अभी कम ही है। वर्ष 2014 में जब मोदी सरकार सत्ता में आयी तब उपभोक्ता महंगाई दर (सीपीआई) (कन्जूमर प्राइस इंडेक्स) 9.4 थी जो लगभग प्रत्येक वर्ष घटकर 2015 (5.9), 2016 (4.9) 2017(4.5), 2018 (3.6), 2019 (3.5) तक कम हुई, तथापि कोरोना काल 2020 (7.27) व 2021 में (5.3) अवश्य हो गई है। भाजपा महंगाई कम करने के दावे को इस आधार पर भी ताकत से कह रही है कि जनता का विरोध प्रत्यक्षतः सामने लगभग नगण्य ही है, जो सत्य भी है। बावजूद, महंगाई का यह मुद्दा इस समय ज्यादा परेशान करने वाला इसलिए है कि खाद्य तेल, सब्जियों व पेट्रोलियम उत्पाद के भाव काफी बढ़े हुये है, जब आम जनता कोविड काल में हुई परेशानियों से आर्थिक रूप से परेशान होकर भुगत रही है।
आगे अभी सिर्फ बात पेट्रोलियम उत्पाद की दरों में हुई बढ़ोत्री को लेकर ही करते हैं। वर्ष 2021 में जून से अभी तक 48 बार मूल्यों में वृद्धि होकर लगभग 12 रू. से ज्यादा की वृद्धि पेट्रोल में हुई है। केंद्रीय सरकार ने पिछले वर्ष 2014 से पिछले सात वर्षो में केंद्रीय उत्पाद शुल्क क्रमशः 9.48 व 3.50 प्रतिलिटर से बढ़कर 32.90 रू. 31.80 रू. (12 से अधिक बाद बढ़ाकर) हो गया है। अब पेट्रोल-डीजल पर क्रमशः 15 रू. व 10 रू. की एक्साइज डूयटी में कमी कर देश भर में पेट्रोल में 5.72 रू. से 6.35 रू. व डीजल में 11.16 से 12.88 रू. तक की राहत देकर दीपावली उपहार कहकर न केवल जनता से पीठ थपथपाने के लिए कह रही है, बल्कि विपक्षी दलों की सरकारों को भी उसी रास्ते पर चलने के लिये भी कह रही है। क्योंकि केन्द्र के निर्णय के पश्चात भाजपा एवं सहयोगी दलों द्वारा शासित 12 राज्य सरकारों और गैरभाजपाई-गैरकांग्रेसी उडीसा सरकार ने पेट्रोल व डीजल में वैट की दरें घटाकर क्रमशः लगभग 10 व 5 रू. की मूल्यों में कमी कर कांग्रेस शासित सरकारों पर नैतिक रूप से वैट कम करने के लिए दबाव ड़ाला है। परिणामस्वरूप और पंजाब विधानसभा के आगामी होने वाले आम चुनाव के मद्देनजर पंजाब की कांग्रेस सरकार ने शायद इसीलिए पेट्रोल व डीजल कीमत कम की है। अभी राजस्थान सरकार ने भी दबाव झेलते हुए वैट कम कर दिया है।
भाजपा व केन्द्र सरकार पेट्रोल-डीजल की कीमत कम करने के बाद ताल ठोककर कह रही है कि जब केन्द्र सरकार व उसकी सहयोगी दलों की राज्य सरकारों ने महंगाई को देखते हुये एक्साइज ड्यूटी कम कर जनता को राहत दी है, तो जो लोग महंगाई के लिए ट्वीटस् व जबानी चिल्ला-चौट कर रहे थे, वे अपने कांग्रेस शासित राज्यों में वेट की दर कम कर पेट्रोल-डीजल की महंगाई कम क्यों नहीं कर रहे है? यह उनका दोहरापन ही दिखाता है? आखिर क्या यह न्यायपूर्ण होगा कि एक तरफ केन्द्रीय सरकार उत्पाद कर बढ़ाकर तेल को महंगा कर और दूसरी ओर राज्य सरकारों से वैट की दर कम कर तेल सस्ता करने के लिए कहे। ऐसा कहते समय केन्द्र सरकार शायद यह भूल गई है कि केन्द्र के समान ही राज्य सरकारों की आय का मुख्य स्त्रोत भी पेट्रोलियम उत्पाद पर वैट (कर) ही है, अर्थात् ‘‘मीठा मीठी गप गप कड़वा कड़वा थू थू’’।
लगातार मूल्य वृद्धि के दौरान भाजपा पार्टी के प्रवक्ता, मंत्री और सरकार का अभी तक का दावा यही रहा है कि यह पैसा देश के विकास के लिए विभिन्न जनकल्याणकारी योजना में लग रहा है। देश के नागरिकों को अपना कुछ न कुछ सहयोग देश के विकास के लिए इस माध्यम से देना चाहिए। अचानक मूल्यों की यह बढ़ोत्री को रोककर उसमें कमी कर सरकार क्या यह संदेश देना चाहती है कि अब जनता के उतने योगदान की आवश्यकता नहीं है? या विकासशील योजनाओं का बजट तदनुसार कम हो जायेगा? आगे आकर भाजपा व सरकार को जवाब देना चाहिये।
राजनीति में किस बेशर्मी से आकडों को किस तरह घुमाकर स्वयं को सही सिद्ध किया जा सकता है, उक्त दावों से यह बात बिलकुल सिद्ध होती है। भाजपा व केन्द्र सरकार से क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिये कि पिछले समय में जो पेट्रोल-डीजल के मूल्यों में वृद्धि हुई है, वह केंद्र सरकार द्वारा उत्पाद कर बढ़ाये जाने और सरकार द्वारा पेट्रोल-डीजल की ‘‘डायनामिक प्राइसिंग’’ (दिन प्रतिदिन की मूल्य निधारण) नीति के कारण ही हुई है? अथवा राज्य सरकारों के द्वारा वेट की दर बढ़ाने के कारण हुई? जब इस अवधि में राज्य सरकारों ने वेट की दर नहीं बढ़ाई, तब इस पूरी की पूरी पेट्रोल-डीजल के मूल्यों में वृद्धि केंद्र सरकार की नीति के कारण ही तो हुई है। इसीलिए यदि केंद्र सरकार ने पिछले 1 वर्ष के भीतर लगभग 30 रू से अधिक मूल्य बढ़ाकर 10 कम कर दिया तो वास्तव में यह क्या मूल्यों में कमी या छूट कहलायेगी? इस आधार पर राज्य सरकारों को आप नैतिक रूप से कैसे गलत ठहरा कर वेट की राशी कम करने का नैतिक दबाव ड़ाल सकते है। भाजपा शासित राज्यों ने भी हाईकमान का अनुसरण करते हुये ही वैट की राशी कम की, जिसमें जनता को राहत देने के उद्देश्य गौंण रहा है। क्योंकि यदि जनता को वास्तव में राहत देने की प्राथमिकता होती तो केन्द्र सरकार की पहल के पहले ही इन राज्य सरकारों ने अपने-अपने राज्यों में वैट की दर कम क्यों नहीं की, जो अभी की? मतलब साफ है तेल नीति में मूल्य नीति के साथ राजनीति भी की जा रही है। नीति अथवा जनहित की राजनीति नहीं?
जब तक केंद्र सरकार अंतिम बार जब राज्य सरकारों द्वारा पेट्रोल-डीजल पर बढ़ाये गये वैट के दिन के स्तर पर पेट्रोल-डीजल की कीमत नहीं ले आती है, तब तक केन्द्र को राज्यों को वैट कम करने का बोलने का नैतिक अधिकार नहीं है। कहा भी गया है, ‘‘तेल देखो, तेल की धार देखो’’। यहां तो तेल (गाडियों के) इंजनों में जल कर खर्च होकर जनता का तेल निकल रहा है। उसकी महंगाई की आंच से उसका पेट जल रहा है, और कंठ सूख रहा है। कांग्रेस शासित राज्य कह रहे है कि केंद्र अपनी एक्साइज ड्यूटी को पुरानी दर पर लाये तभी वे उस पर सोचेगें। तो, क्या लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई राज्य सरकारों का अपने राज्य के नागरिकों के प्रति यह दायित्व नहीं है कि व पेेट्रोल-डीजल के बढ़ते मूल्य को अपने अधिकार क्षेत्र में लागू वैट की दर कम कर राहत प्रदान करे? क्या जीएसटी लागू होने के पूर्व राज्य सरकारें विभिन्न मालों पर जब छूट देती थी, तब क्या वह सेंट्रल एक्साइज डूयटी कम होने पर ही देती थी? कांग्रेसी राज्य सरकारों को इसका जवाब देना चाहिए? जब ऐसा नहीं था, तब अपने दायित्व को निभाने व असफल होने पर केंद सरकार पर आरोप मढ़ने का प्रयास क्यों?
अंत में वर्ष 2010 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने प्रथम बार पेट्रोल की कीमतों को अपने नियत्रंण से मुक्त करते हुये उनकी कीमतों का निर्धारण तेल कंपनियों के पाले में ड़ालकर बाजार के हवाले करते हुये यह कहा था कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल (क्रुड़ ऑयल) के दाम बढ़ने पर उपभोक्ताओं पर भार ड़ाला जायेगा और सस्ता होने पर होने पर उपभोक्ता को इसका लाभ मिलेगा। इसे डायनमिक प्राइसिंग कहा गया। अक्टूबर 2014 में मोदी सरकार ने डीजल की कीमत को भी नियत्रंण मुक्त कर दिया। परन्तु वास्तव में दाम कम होने पर उपभोक्ता को प्रायः कभी भी लाभ नहीं मिला (तथापि मार्च 2021 में तीन बार कटौती अवश्य हुई) और बाजार मूल्य बढ़ने पर दाम बढ़ने की नीति भी हमेशा लागू नहीं रही। अर्थात् यह आधिकारिक सैद्धांतिक स्थिति मात्र है। धरातल पर वास्तविक रूप से पूर्णतः उतरी हुई नहीं है। दिन-प्रतिदिन, हफ्ता-पखवाड़ा, इजाफा, पेट्रोल-डीजल के मूल्यों में होने वाली वृद्धि चुनावी समय में अवकाश लेकर अचानक रूक जाती है, यह हम सबने देखा है। फिर चाहे वह बिहार (सितंबर-अक्टूबर 2020) अथवा बंगाल चुनाव (मार्च-अप्रैल 2021) का समय हो। इसलिए यह समझना बहुत मुश्किल है कि पेट्रोल-डीजल का मूल्य निर्धारण वास्तव में कौंन कर रहा है?
बुधवार, 3 नवंबर 2021
आपराधिक न्यायिक व्यवस्था में ‘‘आमूलचूल परिवर्तन’’ का समय नहीं आ गया है?
हमारी आपराधिक दांडिक न्याय व्यवस्था मुख्य रूप से आपराधिक दंड संहिता 1973 एवं भारतीय दंड संहिता 1860 पर ही निर्भर है, जो हमारे देश में ब्रिटिश भारत के समय से चली आ रही हैं। यद्यपि दंड प्रक्रिया संहिता 1861 को वर्ष 1973 में बदलकर नई दंड प्रक्रिया संहिता 1973 लागू की गई। परन्तु भारतीय दंड संहिता 1860 की ही चली आ रही है। हमारी न्यायिक दंड प्रणाली का मूल सिद्धांत है, न्याय न केवल सहज, सरल, सुलभ व शीघ्रताशीघ्र मिलना चाहिए, बल्कि ऐसा होते हुये दिखना भी चाहिए। अर्थात वास्तविकता के साथ परसेप्शन का भी होना अत्यंत आवश्यक है। क्या वर्तमान में ऐसा हो रहा है? दोनों ही बातें हमारी वास्तविकता व परसेप्शन न्याय से काफी दूर हो गई है, खासकर आम लोगों से तो न्याय बहुत ही दूर हो गया है। और हम अब भी ‘‘लकीर के फकीर‘‘ बने हुए हैं। प्रसिद्ध फिल्मी कलाकार, सेलिब्रिटी शाहरुख खान के ‘‘लख्ते जिगर शहजादे‘‘ आर्यन खान के साथ दो अन्य अभियुक्त को आज जमानत स्वीकृत होने पर यह प्रश्न कौंधना स्वाभाविक है।
पिछले 25 दिनों से जेल में बंद आर्यन को मुम्बई उच्च न्यायालय ने आज जमानत पर छोड़ने के आदेश दिए । एक जमानतीय अपराध जैसा कि विस्तृत तर्क किया गया जिसमें जमानत देने के अधिकार कानूनी रूप से एनसीबी के जांच अधिकारियों के पास ही थे, लेकिन निचली अदालत से लेकर सत्र न्यायालय तक ने आर्यन के जमानत आवेदन को, तथ्यों को देखते हुये उसे जमानत योग्य न मानकर आवेदन अस्वीकार कर दिया था। अंततः मुम्बई उच्च न्यायालय ने देश के नामी गिरामी क्रिमिनल वकील सतीश मानशिंदे, अमित देसाई सहित वकीलों की फौज के साथ पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी के 3 दिन लगातार बहस करने के बाद, आज जमानत आवेदन न्यायालय ने सुनवाई के दौरान ही अचानक स्वीकार कर ली। अचानक इसलिए कि तीन दिनों तक चली बहस में जब लगभग सायं 4.45 बजे अभियोजन के वकील की बहस समाप्त हुई, तब प्रत्युत्तर में डिफेंस वकील के तर्क पूर्ण होने के पूर्व ही माननीय न्यायाधिपति ने प्रकरण आदेश बंद कर फिर अचानक जमानत दिये जाने का निर्णय दिया। विस्तृत आदेश दूसरे दिन देने के बात कही। प्रश्न यह है, इस देश के कितने शहजादे, कितने नागरिक ऐसे ‘‘अंगूठी के नगीने‘‘ हैं, जो ऐसे जमानतीय अपराधों में जहाँ न तो ड्रग्स का सेवन पाया गया और न ही खरीदी और न ही पजेशन पाया (तथापि कंस्ट्रक्टिव पजेशन का आरोप अभियोजन द्वारा जरूर लगाया गया) वहाँ जमानत पाने के लिए मुकुल रोहतगी जैसे महंगे वकीलों की सेवा प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं। अन्यथा सामान्य व वरिष्ठ वकील भी निचली दोनों अदालतों में जमानत पाने में असफल रहे।
महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि प्रकरण में आरोपी जमानत पाने योग्य थे, तो लम्बी चौड़ी वकीलों की फौज की बहस की आवश्यकता क्या जरूरी थी। सामान्य रूप से अभी तक की प्रचलित प्रक्रिया में माननीय न्यायाधीश का कार्य केस डायरी को देखकर, दोनों पक्षों के तर्क सुनने के बाद आदेश पारित करना होता है। परन्तु यदि प्रकरण में केस डायरी के पढ़ने के बाद न्यायाधीश यह प्राथमिक निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि प्रकरण में जमानत दी अथवा नहीं दी जानी चाहिये! तब लम्बी चौड़ी बहस के बजाए क्या न्यायाधीश का यह दायित्व नहीं होना चाहिये कि वह जमानत देने या न देने के निर्णयक प्रांरभिक निष्कर्ष पर पहंुचने पर उनके दिमाग में उत्पन्न किन्ही शंकाओं, स्पष्टीकरण व ‘‘प्रश्नों’’ पर वे संबंधित वकीलों से सीधा उत्तर मांगकर महत्वपूर्ण न्यायिक समय की बचत नहीं की जा सकती है? ‘‘कुएं में बांस डालने की‘‘ क्या जरूरत? साथ ही यह पद्धति के विकसित होने पर न्यायालयों में बड़े बड़े वकीलों की सामान्यतया आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी? इससे लोगों को सस्ता न्याय मिल सुलभ हो सकेगा।
एक जमानतीय अपराध में 25 दिन जेल में रहना अवैध रूप से अभियुक्त के स्वतंत्रता के अधिकार का हनन होना ही कहलायेगा। अवैध रूप से जेल में बंद किये गये व्यक्ति के ‘‘कांटों पर लेट कर गुजारे‘‘ दिनों को उच्चतम न्यायालय कैसे वापिस ला सकता है? ‘‘गतः कालो न आयाति‘‘ अर्थात ‘‘गया समय वापस नहीं आता‘‘। न्याय व्यवस्था पर यह प्रश्न बार-बार उठता है। क्योंकि जमानत एक अधिकार है, और रिफ्यूजल (अस्वीकार) अपवाद। यह न्याय सिद्धांत स्वयं उच्चतम न्यायालय ने कई बार प्रतिपादित किया है। यद्यपि उच्च न्यायालय में एएओं अनिल सिंह का कथन यह कि एनडीपीएस एक्ट के तहत जमानत कोई नियम नहीं है। बावजूद इसके 25 दिन की गैरकानूनी रूप से जेल में बंदी एक नागरिक के स्वतंत्रता के अधिकारों के हनन के लिए कोई व्यक्ति नहीं, हमारी न्यायिक व्यवस्था ही जिम्मेदार है। यह आपको मानना ही पड़ेगा कि ‘‘कानून जनता के लिये है, जनता कानून के लिये नहीं‘‘। इसलिए इस व्यवस्था पर आमूल-चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता आ गई है।
तुलसीदास जी ने कहा है- ‘‘कष्ट खलु पराश्रयः‘‘ अर्थात ‘‘पराधीन सपनेहुं सुख मांही‘‘ अतः उच्चतम न्यायालय एवं सरकार की ओर इस बात पर गंभीर रूप से विचार किए जाने की आवश्यकता है। जमानत की प्रक्रिया व आपराधिक जांच की प्रक्रिया व गिरफ्तारी के विषय में व्यापक परिवर्तन कर एक नई क्रांतिकारी व्यवस्था (मैकेनिज्म) डेवलप करने की न्याय के प्रति विश्वास बनाए रखने के लिए और एक नागरिक की संविधान द्वारा प्रदान की गई स्वतंत्रता अधिकार की वास्तविक सुरक्षा के लिए नितांत आवश्यक है। जमानत आदेश के बाद जेल से छूटने में 2 दिन लग जाने के कारण जेल मैन्युअल में सुधार की बात भी सामने आई है । प्रस्तावित सुधार के संबंध में एक सुझाव आगे दे रहा हूं।
-:सुझावः-
आपको याद होगा माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपने एक लैंडमार्क निर्णय में एक नागरिक की गिरफ्तारी की दशा में पुलिस ज्यादती को रोकने के लिए जांच अधिकारी को क्या-क्या कार्रवाई व सावधानी बरतनी चाहिए, उस संबंध में व्यापक दिशानिर्देश दिए थे, जिसके देशव्यापी प्रचार प्रसार के समाचार पत्रों के माध्यम से करने के निर्देश भी साथ ही जारी किए गए थे। इस प्रकार यह एक अलिखित नियम उच्चतम न्यायालय द्वारा गिरफ्तारी के संबंध में बनाए गए। अपराध घटित होने पर एफ आई आर दर्ज होने के बाद एक आरोपी को गिरफ्तार कर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश कर आगे जांच हेतु पुलिस या न्यायिक रिमांड मांगा जाता है, यह हमारी सामान्य न्यायिक प्रक्रिया है। वास्तव में मजिस्ट्रेट का यहां पर यह दायित्व होता है कि प्रस्तुत केस डायरी में उल्लेखित तथ्यों व साक्ष्यों के आधार पर अभियोगी को रिमांड पर दिया जाए अथवा नहीं। लेकिन वास्तविकता में यह एक अलिखित प्रक्रिया पद्धति सी बन चुकी है कि पुलिस द्वारा रिमांड मांगने पर मजिस्ट्रेट मेकेनिकल तरीके से प्रायः बिना माइंड को एप्लाई किये रिमांड दे देते हैं। यदि इस स्टेज पर मजिस्ट्रेट केस डायरी का गहन अध्ययन कर रिमांड आदेश पारित करें तो, मैं यह मानता हूं कि निश्चित रूप से 90प्रतिशत प्रकरणों में रिमांड की बजाए मजिस्ट्रेट को आरोपी को पुलिस कस्टडी से छोड़ने के आदेश देना पड़ेगा। बिना कस्टडी के अधिकांश मामलों में जांच की जा सकती है। और जहां आरोपी जांच में सहयोग नहीं कर रहा है, तब पुलिस उसे पुनः गिरफ्तार कर उस आधार पर मजिस्ट्रेट से रिमांड मांग सकती है।
यही रवैया (एटीट्यूड) जमानतों के मामले में भी निचली अदालतों का होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश वर्तमान में न्यायालय में ऐसा परसेप्शन पैदा हो गया है कि प्रायः निचली अदालतें जमानत देने में हिचक करती हैं और वे स्वयं कोई निर्णय का भागी न बनकर टालने की दृष्टि से जमानत आवेदन को अस्वीकार कर देती है। इस हिचक का एक कारण एक तरह का एक परसेप्शन का उत्पन्न होना भी है, जहां निचली अदातलों द्वारा जमानत देने पर उन पर अनावश्यक शंका की उंगली न्याय से जुड़े क्षेत्रों में उठ जाती है और तब उच्च न्यायालय भी संरक्षण प्रदान करने के बजाए शंका की आंतरिक जांच में लग जाता है। निचली अदालतों द्वारा अस्वीकार किये गये जमानतों के प्रकरणों में 95 प्रतिशत मामलों में उच्च न्यायालय में जमानत हो जाती है। तथापि इस प्रक्रिया में महीनों लग जाते हैं और एक नागरिक को न्यायिक प्रक्रिया के दोष के चलते स्वतंत्रता का अधिकार छीना जा कर उसे अवैध रूप से जेल में रहना होता है। जब केस डायरी में उपलब्ध तथ्यों व साक्ष्यों के आधार पर ही निर्णय होता है व उच्च न्यायालय जमानत दे सकती है, देती है, तब उन्हीं तथ्यों के आधार पर निचली अदालतें अर्थात मजिस्ट्रेट (सिवाय सुनवाई के क्षेत्राधिकार को छोड़कर) और सत्र न्यायाधीश जमानत क्यों नहीं दे सकते हैं और क्यों नहीं देते हैं, यह एक बड़ा भारी प्रश्न न्याय क्षेत्र में काम करने वाले न्यायविदो और कानून मंत्रालय के सामने होना चाहिए? क्योंकि यहां तक विद्ववता का प्रश्न है वकीलों से लेकर न्यायाधीशों तक की कमोवेश उन्नीस-बीस ही होता है। तथापि अनुभव के आधार पर उनकी विद्धवता में बढ़ोतरी अवश्य होती है।
अतः उच्च न्यायालय को जमानत देते समय इस बात को भी देखना चाहिए कि निचली अदालतों ने जमानत क्यों नहीं दी थी। और यदि मजिस्टेªट/सत्र न्यायाधीश ने अपने कर्तव्यों व दायित्वों व विवेक का सही ढ़ग से न्यायिक उपयोग नहीं किया है, तो उनके खिलाफ कड़ी टिप्पणी की जाकर उनके सर्विस रिकार्ड में वह दर्ज होनी चाहिये। उच्च न्यायालय को यह भी सुनिश्चित (एनश्योर) करना चाहिए की निचली अदालतें जमानत देने के मामले में सिर्फ और सिर्फ अपने न्यायिक विवेकाधिकार का न्यायिक प्रयोग ही करें, बाहरी परिस्थितियों या परसेप्शन से बिल्कुल भी प्रभावित न हो। निश्चित रूप से आप मानिए, तब अधिकांश जमानती प्रकरण निचली अदालतों में ही निपट जाएंगे और उच्च न्यायालय का जमानती कार्य का बोझ भी कम हो जाएगा तथा त्वरित न्याय भी मिल सकेगा।
मीडिया खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया की इस प्रकरण के प्रसारण में अपनाई गई भूमिका पर आपका ध्यान आकर्षित करना अत्यंत आवश्यक है, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि अब हमारे देश में मीडिया चौथा स्तम्भ (खम्बा) न रहकर मात्र एक शोपीस होकर व कुछ मामलों में स्वार्थ युक्त निश्चित एजेंडा लेकर चला हुआ है। आर्यन खान ने क्या खाया-पिया। किस रंग की कौन सी गाड़ी में वह जेल से घर गया। जीपीएस द्वारा उनके रास्ते भर की लोकेशन की रनिंग कमेंट्री क्रिकेट समान दी गई। आर्यन के जेल में बीते दिनों (दिवसों) को घंटों और मिनटों में परिवर्तित कर हेड लाइन बनाई गई। गनीमत है, कितने सेकंड आर्यन ने जेल में गुजारे, उसकी गणना बख्श दी गईं। और भी न जाने क्या-क्या? यह हमारे राष्ट्रीय न्यूज चैनलों (कुछ एक को छोड़कर) की राष्ट्रीय न्यूज की हैडलाइन व ब्रेकिंग न्यूज की बानगी है। इन समाचारों की दिनभर कमेंट्री चलाकर मीडिया देश की खराब होती न्यायिक प्रणाली व व्यवस्था, नशाखोरी, ड्रग्स इत्यादि महत्वपूर्ण मुद्दों पर सुधार लाने की कवायद के चलते मीडिया इस तरह का प्रसारण कर देश के प्रति अपने दायित्व का बखूबी निर्वाह कर अपने को सबसे बड़ा देश प्रेमी सिद्ध कर रहा है? आखिर मीडिया को हो क्या गया है? कम से कम प्रस्तुत मामले में ही मीडिया को आर्यन के पिताजी शाहरुख खान से ही सीख और सबक ले लेते? आर्यन की गिरफ्तारी से लेकर जेल से छूट कर उसके घर आने तक शाहरुख खान ने इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट या सोशल मीडिया तक में एक शब्द भी इस मामले में किसी भी पक्ष के लिये पक्ष-विपक्ष में नहीं कहा। यह उनकी परिपक्वता व उनकी मामले की प्रति गंभीरता को ही दर्शाता है। उक्त मामले की रिपोर्टिंग करते समय यही गंभीरता की आवश्यकता मीडिया से भी अपेक्षित थी।
चूंकि मैं स्वयं वकील हूं; अनुभव के आधार पर जो कुछ न्यायालय में घटित होते हुए मैंने देखा है, समझा है, सुना है, उनके आधारों पर ही मैंने उक्त सुझाव दिए हैं। अतः न्याय हित में वर्तमान में चली आ रही न्याय देने की प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन करने ही होंगे। और इसके लिए बार काउंसिल, ऑफ इंडिया कानून मंत्रालय के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय को स्वयं संज्ञान लेकर कुछ न कुछ कदम अवश्य उठाना ही होगा।
बुधवार, 27 अक्तूबर 2021
“खेल“-“राजनीति“-“देशप्रेम“
वर्तमान में देश की विभिन्न कार्यक्षेत्रों में स्थिति इतनी गिर चुकी है कि आज खेल-खेल में राजनीति हो रही है या राजनीति का खेल हो रहा है, यह समझना बड़ा मुश्किल सा हो गया है। देश भक्ति और देश प्रेम की भावना का तो दूर-दूर तक (दूर)दर्शन, सुगंध अनुभव और आभास मिलना इतना मुश्किल हो गया है, जैसे ‘‘रेगिस्तान में नख़लिस्तान‘‘। वास्तव में ऐसा लगता हैं कि देश भक्ति की भावना व्यक्ति के शरीर के अंदर मात्र इनबिल्ट होकर रह गई है, जिसके प्रदर्शन की कदापि आवश्यकता अब शायद नहीं रह गई हैैं। बात भारत की पाकिस्तान के विरुद्ध शर्मनाक हार अर्थात पाकिस्तान की भारत पर ऐतिहासिक विजय पर कश्मीर और दिल्ली समेत देश के कुछ स्थानों पर पटाखे फोड़ कर खुशी प्रदर्शन करने की शर्मनाक घटनाओं की है। क्या इसे देख कर ऐसा नहीं लगता कि ‘‘कुत्तों को घी हजम नहीं होता‘‘?
खेल, खेल होता है। “खेल“ में राजनीति का न तो कोई स्थान है और न ही होना चाहिए। इस कटु अटल सत्य से कोई व्यक्ति न तो इनकार करता हैं और न हीं कर सकता है। परन्तु जब जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री एवं पीडीपी अध्यक्षा नेत्री महबूबा मुफ्ती कहती है कि विराट कोहली ने पाकिस्तान की जीत पर उनके कप्तान को बधाई दी, तो कश्मीर घाटी में बधाई और खुशी का सिलसिला गलत कैसे? तो लगता है कि ‘‘करेले की बेल नीम पर जा चढ़ी हो‘‘। आगे समझाईश देती हुई वे कहती हैं कि विराट कोहली की तरह इसे सही भावना से लें। वाह! निश्चित रूप से एक सीजन्ड (अनुभवी) राजनीतिज्ञ की इस तुलना व सोच पर हंसी ही नहीं तरस भी आता है। वास्तव में उन्हंे विराट कोहली की सही भावना को सही परिपेक्ष में लेना आना चाहिए? वे वीरेन्द्र सहवाग व गौतम गंभीर की लताड़ को भूल गई, जब उन्होंने यह कहकर कि जश्न मनाने वाले भारतीय नहीं हो सकते है। महबूबा (यदि वे वास्तव में एक भारतीय है तो?) को बधाई व खुशी में कोई अंतर समझ नहीं आ रहा है? तो यह उनके दिमाग की दिवालियापन को ही इंगित करता है। ऐसी दिवालिये हुए दिमाग कश्मीर के राजनीति में वर्षों सत्ता में कैसे रही और भाजपा भी उनके साथ मानो ‘‘ओछे की प्रीत, बालू की भीत‘‘ के समान साझेदारी में सत्ता में रही, यह सोच कर ही दिमाग सुन्न सा हो जाता है।
निश्चित रूप से खेल का यह सिद्धांत है कि खेल को खेल की तरह ही खेल भावना से लेना चाहिए। जीत और हार खेल का अभिन्न आवश्यक अंग है। अर्थात एक टीम तभी जीतती है, जब दूसरी टीम हारती है। जैसा कि कहा जाता है कि ‘‘कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर‘‘ और आजकल तो टाई की स्थिति में भी परिणाम निकालने की अधिकांशतः व्यवस्था कर दी गई है। खेल भावना यही कहती रहती है कि जो टीम जीतती है, उन्हें हारी हुई टीम बधाई देती है और जीती टीम हारी हुई टीम को नैतिक सांत्वना देती है। यही काम विराट कोहली ने खेल के मैदान में किया, जो बिल्कुल सही व खेल भावना के अनुरूप हैं।
प्रत्येक खिलाड़ी चाहे वह फिर विश्व के किसी भी देश का क्यों न हो, उसे खेल के मैदान में ऐसा ही करना चाहिए और वह करता भी है, फिर चाहे वे परस्पर दुश्मन देश के खिलाड़ी ही क्यों न हो। तथापि जीत की बधाई देने में हारी हुई टीम के मन में कहीं न कहीं एक कसक टीस अवश्य रहती है, कि काश हम जीत जाते। और जब खेल क्रिकेट का हो और वह भी भारत व पाकिस्तान दो पैदाईशी पारंपरिक दुश्मन देशों के बीच हो, तब यह भावना उग्र हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में यह बधाई औपचारिक मात्र ठीक वैसे ही रह जाती हैं, जब हम अपने दुश्मन या नापसंद लोगो के स्वर्गवासी हो जाने पर संवेदना प्रकट करते हैं। बधाई देना मात्र एक औपचारिकता है, ‘‘फेस इज नॉट द इंडेक्स ऑफ द हार्ट‘‘ और खुशी व्यक्त करना या खुशी में शामिल होना एक वास्तविक भावना का प्रदर्शन है। इस महत्वपूर्ण अंतर को महबूबा को समझना होगी, तभी वह पूर्णतः भारतीय हो पायेगी? एक और महत्वपूर्ण बात महबूबा के संतुष्टि के लिये है। यदि पाकिस्तानी टीम भारत के अतिरिक्त विश्व के किसी भी देश की टीम को हराती है तो, भारतीय मुसलमान जश्न मना सकते है। इतना बड़ा दिल भारतीयों का तो हो सकता है, परन्तु पाकिस्तानियों का तो कदापि ही नहीं जो हिन्दुओं को भारतीय जीत पर पाकिस्तान में जश्न मनाने दे।
हमारा देश जब किसी अन्तर्राष्ट्रीय खेल में हार जाए, तो क्या देश के नागरिको को खुशी होगी या दुख होगा? सवाल पाकिस्तान का भी नहीं हैं? किसी भी खेल के अन्तर्राष्ट्रीय मैचो में हार-जीत देश की होती है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय मैचों में खिलाड़ी राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है और राष्ट्र के लिए खेलता है। इसीलिए जीत पर खुशी का इजहार देश के नागरिकों द्वारा होता है। उसी प्रकार हार पर आंसू पीना व मायूस होना पड़ता, है खुशी नही हैं? आंसू पीने का मतलब पटाखे फोड़ना नहीं होता है? महबूबा मुफ्ती से यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि भारत की हार पर कश्मीर में जिन लोगों की ‘‘बोटियां फड़कने लगीं‘‘, जिन्होंने पटाखे फोड़े, खुशियां मनाई, क्या वे ईश्वर-अल्लाह से यह प्रार्थना कर रहे थें कि भारत हार जाए और उन्हें पटाखा फोड़ने का मौका मिले? यह तो वही बात हुई कि ‘‘जिस थाली में खाना उसी में छेद करना‘‘। वे कृपया यह भी बतलाने का कष्ट करे कि, यदि वह मैच भारत जीत जाता तो तब हार में अभी पटाखें फोडने वाले लोग वैसे ही पटाखे फोडते? या आगजनी लूट मार करते? अथवा पाकिस्तान में हिन्दुओं को भी ऐसे ही पटाखे फोड़ने की स्वतंत्रता देती? संभवतः कभी भी किसी हिन्दु पाकिस्तानी नागरिक ने भारत की जीत पर पाकिस्तान में पटाखे नहीं फोडे है। चूंकि ‘‘चूहे का जाया बिल ही खोदता है‘‘, अतः ऐसी स्थिति में ऐसे लोगों को भारत देश की नागरिकता छोड़कर पाकिस्तान की नागरिकता ग्रहण कर लेना चाहिए?
इस स्थिति पर चर्चा होना ही दुर्भाग्यपूर्ण है और न ही यह कोई डिबेट (बहस) का विषय होना चाहिए। देश भक्ति देश प्रेम, हार व जीत से प्रभावित नहीं होता है। जीत में तो दुगना हो जाता है। इससे भी ज्यादा दुर्भाग्य की बात यह है कि जब देश के गृहमंत्री अमित शाह कश्मीर के 3 दिवसीय “सफल“ दौरे पर हों, तब ऐसी देश विरोधी घटनाओं का होना और उस पर तुरंत कोई कार्यवाही न होना, किस बात व स्थिति को इंगित करता है? जैसा कि सरकार अनुच्छेद 370 हटाने के बाद से कश्मीर में लगातार सामान्य होती स्थिति की बात कहती आई है। अमित शाह का इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आना और भी दुर्भाग्यपूर्ण है। हिन्दुवाहनियों द्वारा पूरे देश में इस घटना का विरोध का आव्हान न करना भी, कहीं न कहीं उनकी देशभक्ति की गहराई पर आँच लाता है व उछलेपन को दिखाता है। उक्त घटनाएं किसी भी स्थिति में स्वीकार योग्य नहीं है और ‘‘तत्र दोषं न पश्यामि, शठे शाठ्यम् समाचरेत‘‘, अतः उन सब व्यक्तियों के खिलाफ न केवल देशद्रोह की त्वरित आपराधिक कार्यवाही की जानी चाहिए, बल्कि उनकी भारतीय नागरिकता ’भी समाप्त कर उन्हें सबक सिखाना चाहिए। क्योंकि नागरिकता के अधिकार का दुरूपयोग कदापि नहीं होने देना चाहिए। यह कदापि संभव नहीं होना चाहिये कि आप नागरिकता के फायदे भी ले और राष्ट्र को दुश्मन देश के सामने व विश्व में नीचा गिराए दिखाएं।
अभी-अभी उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने उक्त राष्ट्र विरोधी घटित घटनाओं के लिए कुछ देश द्रोही व्यक्तियों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज किया है जिसके लिए न केवल सरकार बधाई की पात्र है बल्कि देश की अन्य सरकारों को भी योगी सरकार से सीख लेनी चाहिए ।
सोमवार, 25 अक्तूबर 2021
देश का इलेक्ट्रानिक मीडिया आखिर कब अपने गिरते स्तर को रोककर जिम्मेदार मीडिया का रोल निभायेगा?
मीडिया लोकतंत्र का चौथा प्रहरी (स्तम्भ) कहलाता ही नहीं बल्कि हैं भी। स्वाधीनता आंदोलन और तत्पश्चात स्वाधीन भारत में दूसरा स्वाधीनता आंदोलन जिसे ‘‘लोकतंत्र बहाली आंदोलन‘‘ कहां गया अर्थात आपातकाल में मीडिया का रोल बहुत ही सराहनीय प्रभावी और अपनी सकात्मकता उपस्थिति दर्ज कराने वाला रहा है। मीडिया हॉउस में तत्समय भी सत्ता पक्ष एवं विपक्षी विचारों के लोग रहकर थोडा बहुत प्रसारण के विषयों को प्रभावित करते रहे हैं। तथापि मीडिया हॉउस के अपने कुछ बंधनों के बावजूद वे उससे उपर उठकर जहां समाज-देश हित की बात रही हो या नागरिकों के अधिकारों की बात है, उन सबको जीवंत रख उन्हें उद्देश्यपूर्ण गतिशीलता देते रहे हैं। परन्तु पिछले कुछ समय से खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया के मामलें में यह कहने की आवश्यकता बिल्कुल भी नहीं रह गई है कि अब मीडिया की हालत ‘‘आगे नाथ न पीछे पगहा‘‘ तरह की हो गई है। अब मीडिया को गोदी मीडिया, मोदी मीडिया में वर्टिकल (सीधे) रूप से विभाजित कर दिया गया है। बावजूद इसके मीडिया के दोनों विभाजित रूप अपने मूल उद्देश्यों व दायित्वों को निभाने में आजकल प्रायः असफल ही पाये जा रहे है। ऐसा लगता है कि ‘‘हंसा थे सो उड़ गये,कागा भये दिवान‘‘। पिछले काफी समय से मीडिया के गिरते स्तर के अनेकोंनेक उदाहरण आपके सामने आये हैं। फेहरिस्त लंबी है जिन्हे यहां उद्हरण करने की आवश्यकता नहीं है। तथापि हाल में ही ऐसे एक उद्हरण कर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं जिससे आपके सामने मीडिया के वर्तमान चरित्र का स्पष्ट दृष्टिगोचर हो जाता है।
100 करोड़ लोगों के टीकाकरण का ऐतिहासिक लक्ष्य को पूर्ण कर देश जिस दिन जश्न मना रहा था और जिनके नेतृत्व में यह लक्ष्य पूर्ण हुआ, ऐसे हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उदगारों को अपने को देश का सबसे तेज व सबसे आगे और सबसे बड़ी टीआरपी कहने वाला मीडिया हॉउस इंडिया टुडे ग्रुप का न्यूज चैनल आज तक ने दिन के समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण के चलते प्रसारण को अचानक बीच में रोकते हुये ब्रेकिंग न्यूज शीर्षक देते हुये फिल्मी कलाकार शाहरूख खान के बेटे आर्यन खान जो कि नारकोटिक्स ड्रग्स के एक आरोपी है, की यह न्यूज कि उसके जमानत आवेदन पर सुनवाई मुम्बई उच्च न्यायालय में मंगलवार को होगी, के लिये प्रधानमंत्री की न्यूज को ब्रेकिंग किया। हद हो गई ‘‘ठकुर सुहाती‘‘ की। प्रधानमंत्री की महत्वपूर्ण 100 करोड़ लोगों की टीकाकरण की विश्व विख्यात उपलब्धि की न्यूज की तुलना में आरोपी आर्यन खान की जमानत आवेदन की सुनवाई की न्यूज का ब्रेकिंग न्यूज बन जाना देश के मीडिया हॉउस के सेटअप, एजेड़ा व मानसिकता को दर्शाता है।
ऐसा लगता है कि फिल्म उद्योग से जुड़े हुए कलाकारों के बच्चों को उनकी ‘कला’ का सार्वजनिक प्रर्दशन किये बिना देश का सेलिब्रिटी बनाने के लिए मीडिया हाउस अपना रोल बखूबी अदा करने को न केवल तैयार है बल्कि कर रहा है, बशर्ते आप किसी अपराध के आरोपी हो जाएं? आर्यन खान के मामले में यह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता हुआ दिख रहा है। कलाकार की प्रतिभा का प्रदर्शन हुए बिना मीडिया ने आर्यन खान को देश का ऐसा सेलिब्रिटी बना दिया है ,जो जेल में क्या खा रहा है, कैसे सो रहा है उससे कौन मिलने आ रहा है इत्यादि मीडिया की ब्रेकिंग न्यूज का बन गया भाग है।
आखिर आर्यन खान देश का कौन सा ऐसा सेलिब्रिटी और मीडिया की ‘‘नाक का बाल‘‘ है, जो देश के ही नहीं बल्कि विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से भी बड़ा होकर प्रधानमंत्री की न्यूज को ब्रेक कर उसकी न्यूज को दिखाना न्यूज मीडिया के दिमागी स्तर का खोखलापन को ही बतलाता है। नशीली दवाईयों के आरोपी बनने के पूर्व आर्यन खान का नाम मुम्बई फिल्म उद्योग के बाहर कितने लोगों ने सुना था? आखिर ‘‘कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली‘‘। निश्चित रूप से देश के कुछ ही ऐसे कलाकार है जो बहुत बड़े सेलिब्रिटी होकर प्रधानमंत्री से उनकी तुलना की जा सकती है, जैसे लता मंगेशकर, अमिताभ बच्चन आदि हो सकते है, लेकिन शाहरूख खान का बेटा ‘‘न तीन में न तेरह में‘‘ कोई सेलिब्रिटी नहीं है। स्वयं शाहरूख खान भी उतने बड़े सेलिब्रिटी नहीं है, जिनके लिए भी इस तरह की ब्रेकिंग न्यूज की जाय। यदि आज तक को आम लोगों व नागरिक की समझ का एहसास नहीं है, परख व समझ नहीं है तो, वह इस मुद्दे पर एक सर्वे क्यों नहीें करा लेते? सड़े सड़े मुद्दों पर मीडिया की सर्वे कराने की (कु)उद्देश्य आदत तो पुरानी है? ताकि उसको समझ में आ जाये और भविष्य में इस तरह ‘‘अशर्फियों को छोड़ कोयलों पर मुहर लगाने‘‘ जैसी बचकाना गलती से बचा जा सके। ‘‘अंधों में काना राजा’’ की स्थिति ‘‘आज तक’’ की हो सकती है। इसका यह मतलब कदापि नहीं है की वह सर्वेश्रेष्ठ चैनल हो गया है।
जहां तक न्यूज चैनलों के विषय वस्तु और स्तर की बात है, उनके बीच कोई खास अंतर नहीं है। मीडिया हॉउस कह सकते है कि हम तो वही परोसते है, जिसे जनता पसंद करती है या जिसे सुनना व देखना चाहती है, उसे दिखाना हमारी मजबूरी है। हमें अपने स्तर पर विषय व प्रसारण के गुणात्मक चयन करने की ज्यादा गुंजाइश नहीं है। जबकि जनता यह कह सकती है कि उसे जो दिखाया जा रहा है, वह उसे देखने के लिये मजबूर बल्कि अभिशप्त है क्योंकि समस्त मीडिया का लब्बो लुबाब ऐसा ही है जैसे कि न ‘‘तेल देखे न तेल की धार‘‘। सवाल मुर्गी पहले आयी या अंड़ा यह नहीं है? बल्कि मीडिया जिस कारण वह स्वयं को देश के लोकतंत्र को प्रहरी मानता है, वह तभी महत्वपूर्ण स्थिति को तभी साबित (औचित्य) कर सकता है, जब वह अपने इस महत्वपूर्ण दायित्व व जिम्मेदारियों को सही तरीके से निभाएं।
सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या के प्रकरण में अधिकाशतः पूरी तरह से रिपोर्टिंग गलत सिद्ध हो जाने के बावजूद मीडिया ने कोई सबक नहीं लिया हैं। जहां आत्महत्या को मीडिया ट्रायल द्वारा हत्या सिद्ध कर आरोपी तक तय कर दिये गये थे, वहाँ आज तक आत्महत्या को प्रेरित करने वाली धारा तक नहीं लगी है। अतः मीडिया को सनसनीखेज व गलत एजेंडा लेकर चलाने वाली न्यूजों से बचना होगा, यदि उन्हें अपनी बची कुची विश्वनीयता को बनाये व बढाये रखना है, तो।
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