शनिवार, 13 नवंबर 2021

‘‘.....’’ ‘‘ब्राडिंग’’ ने ‘‘महंगाई डायन’’ न होकर आज के जीवन की ‘‘आवश्यक बुराई’’ के रूप में ‘‘स्वीकार्यता’’ हो गई है।

‘‘पीपली लाईव’’ (वर्ष 2010) फिल्म का पेट्रोल-डीजल सहित महंगाई पर यह गाना ‘‘सखी सईया तो खूब ही कमात है महंगाई डायन खाये जात है’’, यूपीए सरकार के समय भाजपा ने बहुत गाया था। यद्यपि काफी समय पूर्व वर्ष 1974 में मनोज कुमार की फिल्म ‘‘रोटी कपड़ा और मकान’’ का महंगाई पर यह गाना भी बहुत प्रसिद्ध हुआ था ‘‘एक हमें आपकी लड़ाई मार गई, दूसरी ये यार की जुदाई मार गई, तीसरी हमेशा की तन्हाई मार गई, चौथी ये खुदा की खुदाई मार गई, शक्कर में ये आटे की मिलाई मार गई, पाउडर वाले दूध दी मलाई मार गई, राशन वाले लैन की लम्बाई मार गई, जनता जो चीखी, चिल्लाई मार गई, बाकी कुछ बचा, तो महँगाई मार गई’’ कहने का मतलब यही है। इस देश में महंगाई चुनावी राजनीति में हमेशा बड़ा मुद्दा रही है। पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि के विरोध में अटलजी, स्मृति ईरानी सहित विरोध के प्रतीक बैलगाड़ी, साइकल, सिलैन्ड़र, पद यात्रा आदि एक ही समान रहे, सिर्फ झंडे़-डंडे अलग रहे। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में महंगाई के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस सरकार को बुरी तरह से घेरा और सत्ता प्राप्त करने में यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा भी रहा। सुषमा स्वराज्य के नेतृत्व वाली भाजपा की दिल्ली सरकार महंगाई पर महंगे प्याज के निकले आंसूओं से पलट गई। परन्तु आज वास्तव में महंगाई राजनीति में कोई मुद्दा रह गया है क्या? बड़ा प्रश्न है? ऐसा लगता है, जिस प्रकार भ्रष्टाचार राजनीति में बकलोल (बकवास करने) के अलावा कोई मुद्दा नहीं रह गया है, ठीक उसी प्रकार महंगाई की भी आज यही स्थिति हो गई है। सिवाए पान ठेले चौराहों पर आपसी बातचीत व गपशप कर चर्चा तक ही सीमित हो गयी है।

उक्त उत्पन्न सोचनीय स्थिति का सबसे बड़ा कारण आज की राजनीति में जो ब्राडिंग की राजनीति जिसकी शुरूवात वर्ष 2014 से प्रारंभ हुई, का हावी होना हैं। इस कारण से आम नागरिकों की अनचाहे ही महंगाई की अप्रिय स्थिति को आवश्यक बुराई के रूप में मजबूरी में स्वीकार करने की सी मनः स्थिति हो गई है। क्योंकि दिन प्रतिदिन बढ़ती महंगाई के विरोध में वैसा उग्र विरोध, प्रर्दशन का कोई भी प्रयास विपक्षी राजनैतिक पाटियों का अथवा जनता के स्तर पर उस तरह का देखने को नहीं मिलता है, जो यूपीए सरकार के समय बढ़ती महंगाई को लेकर भाजपा बढ़-चढ़ कर करती रही थी। उसका एक बड़ा कारण भाजपा जब विपक्ष में थी, तो उसे विरोध कर सजग विपक्ष की भूमिका अदा करने का खेल बखूबी आता था। जिस कारण वह सत्ता के शिखर पर भी पहुंची। परन्तु कांग्रेस के सालोें साल तक सत्ता पर रहने के कारण उत्पन्न ‘‘अलाली व दलाली’’ ने और पूर्व में विरोध का अनुभव न होने कारण कांग्रेस सक्षम विरेाधी पक्ष की भूमिका का निर्वाह करने में लगभग असफल ही रही है। यह स्थिति तब है, जब आज जनता के बीच जाने के लिए मुद्दों की कोई कमी नहीं है। यद्यपि भाजपा आंकड़ों के सहारे यह दावा जरूर कर रही है कि महंगाई की दर जो यूपीए सरकार में थी, तुलनात्मक रूप से वह अभी कम ही है। वर्ष 2014 में जब मोदी सरकार सत्ता में आयी तब उपभोक्ता महंगाई दर (सीपीआई) (कन्जूमर प्राइस इंडेक्स) 9.4 थी जो लगभग प्रत्येक वर्ष घटकर 2015 (5.9), 2016 (4.9) 2017(4.5), 2018 (3.6), 2019 (3.5) तक कम हुई, तथापि कोरोना काल 2020 (7.27) व 2021 में (5.3) अवश्य हो गई है। भाजपा महंगाई कम करने के दावे को इस आधार पर भी ताकत से कह रही है कि जनता का विरोध प्रत्यक्षतः सामने लगभग नगण्य ही है, जो सत्य भी है। बावजूद, महंगाई का यह मुद्दा इस समय ज्यादा परेशान करने वाला इसलिए है कि खाद्य तेल, सब्जियों व पेट्रोलियम उत्पाद के भाव काफी बढ़े हुये है, जब आम जनता कोविड काल में हुई परेशानियों से आर्थिक रूप से परेशान होकर भुगत रही है। 

आगे अभी सिर्फ बात पेट्रोलियम उत्पाद की दरों में हुई बढ़ोत्री को लेकर ही करते हैं। वर्ष 2021 में जून से अभी तक 48 बार मूल्यों में वृद्धि होकर लगभग 12 रू. से ज्यादा की वृद्धि पेट्रोल में हुई है। केंद्रीय सरकार ने पिछले वर्ष 2014 से पिछले सात वर्षो में केंद्रीय उत्पाद शुल्क क्रमशः 9.48 व 3.50 प्रतिलिटर से बढ़कर 32.90 रू. 31.80 रू. (12 से अधिक बाद बढ़ाकर) हो गया है। अब पेट्रोल-डीजल पर क्रमशः 15 रू. व 10 रू. की एक्साइज डूयटी में कमी कर देश भर में पेट्रोल में 5.72 रू. से 6.35 रू. व डीजल में 11.16 से 12.88 रू. तक की राहत देकर दीपावली उपहार कहकर न केवल जनता से पीठ थपथपाने के लिए कह रही है, बल्कि विपक्षी दलों की सरकारों को भी उसी रास्ते पर चलने के लिये भी कह रही है। क्योंकि केन्द्र के निर्णय के पश्चात भाजपा एवं सहयोगी दलों द्वारा शासित 12 राज्य सरकारों और गैरभाजपाई-गैरकांग्रेसी उडीसा सरकार ने पेट्रोल व डीजल में वैट की दरें घटाकर क्रमशः लगभग 10 व 5 रू. की मूल्यों में कमी कर कांग्रेस शासित सरकारों पर नैतिक रूप से वैट कम करने के लिए दबाव ड़ाला है। परिणामस्वरूप और पंजाब विधानसभा के आगामी होने वाले आम चुनाव के मद्देनजर पंजाब की कांग्रेस सरकार ने शायद इसीलिए पेट्रोल व डीजल कीमत कम की है। अभी राजस्थान सरकार ने भी दबाव झेलते हुए वैट कम कर दिया है।

भाजपा व केन्द्र सरकार पेट्रोल-डीजल की कीमत कम करने के बाद ताल ठोककर कह रही है कि जब केन्द्र सरकार व उसकी सहयोगी दलों की राज्य सरकारों ने महंगाई को देखते हुये एक्साइज ड्यूटी कम कर जनता को राहत दी है, तो जो लोग महंगाई के लिए ट्वीटस् व जबानी चिल्ला-चौट कर रहे थे, वे अपने कांग्रेस शासित राज्यों में वेट की दर कम कर पेट्रोल-डीजल की महंगाई कम क्यों नहीं कर रहे है? यह उनका दोहरापन ही दिखाता है? आखिर क्या यह न्यायपूर्ण होगा कि एक तरफ केन्द्रीय सरकार उत्पाद कर बढ़ाकर तेल को महंगा कर और दूसरी ओर राज्य सरकारों से वैट की दर कम कर तेल सस्ता करने के लिए कहे। ऐसा कहते समय केन्द्र सरकार शायद यह भूल गई है कि केन्द्र के समान ही राज्य सरकारों की आय का मुख्य स्त्रोत भी पेट्रोलियम उत्पाद पर वैट (कर) ही है, अर्थात् ‘‘मीठा मीठी गप गप कड़वा कड़वा थू थू’’।

लगातार मूल्य वृद्धि के दौरान भाजपा पार्टी के प्रवक्ता, मंत्री और सरकार का अभी तक का दावा यही रहा है कि यह पैसा देश के विकास के लिए विभिन्न जनकल्याणकारी योजना में लग रहा है। देश के नागरिकों को अपना कुछ न कुछ सहयोग देश के विकास के लिए इस माध्यम से देना चाहिए। अचानक मूल्यों की यह बढ़ोत्री को रोककर उसमें कमी कर सरकार क्या यह संदेश देना चाहती है कि अब जनता के उतने योगदान की आवश्यकता नहीं है? या विकासशील योजनाओं का बजट तदनुसार कम हो जायेगा? आगे आकर भाजपा व सरकार को जवाब देना चाहिये।

राजनीति में किस बेशर्मी से आकडों को किस तरह घुमाकर स्वयं को सही सिद्ध किया जा सकता है, उक्त दावों से यह बात बिलकुल सिद्ध होती है। भाजपा व केन्द्र सरकार से क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिये कि पिछले समय में जो पेट्रोल-डीजल के मूल्यों में वृद्धि हुई है, वह केंद्र सरकार द्वारा उत्पाद कर बढ़ाये जाने और सरकार द्वारा पेट्रोल-डीजल की ‘‘डायनामिक प्राइसिंग’’ (दिन प्रतिदिन की मूल्य निधारण) नीति के कारण ही हुई है? अथवा राज्य सरकारों के द्वारा वेट की दर बढ़ाने के कारण हुई? जब इस अवधि में राज्य सरकारों ने वेट की दर नहीं बढ़ाई, तब इस पूरी की पूरी पेट्रोल-डीजल के मूल्यों में वृद्धि केंद्र सरकार की नीति के कारण ही तो हुई है। इसीलिए यदि केंद्र सरकार ने पिछले 1 वर्ष के भीतर लगभग 30 रू से अधिक मूल्य बढ़ाकर 10 कम कर दिया तो वास्तव में यह क्या मूल्यों में कमी या छूट कहलायेगी? इस आधार पर राज्य सरकारों को आप नैतिक रूप से कैसे गलत ठहरा कर वेट की राशी कम करने का नैतिक दबाव ड़ाल सकते है। भाजपा शासित राज्यों ने भी हाईकमान का अनुसरण करते हुये ही वैट की राशी कम की, जिसमें जनता को राहत देने के उद्देश्य गौंण रहा है। क्योंकि यदि जनता को वास्तव में राहत देने की प्राथमिकता होती तो केन्द्र सरकार की पहल के पहले ही इन राज्य सरकारों ने अपने-अपने राज्यों में वैट की दर कम क्यों नहीं की, जो अभी की? मतलब साफ है तेल नीति में मूल्य नीति के साथ राजनीति भी की जा रही है। नीति अथवा जनहित की राजनीति नहीं?  

जब तक केंद्र सरकार अंतिम बार जब राज्य सरकारों द्वारा पेट्रोल-डीजल पर बढ़ाये गये वैट के दिन के स्तर पर पेट्रोल-डीजल की कीमत नहीं ले आती है, तब तक केन्द्र को राज्यों को वैट कम करने का बोलने का नैतिक अधिकार नहीं है। कहा भी गया है, ‘‘तेल देखो, तेल की धार देखो’’। यहां तो तेल (गाडियों के) इंजनों में जल कर खर्च होकर जनता का तेल निकल रहा है। उसकी महंगाई की आंच से उसका पेट जल रहा है, और कंठ सूख रहा है। कांग्रेस शासित राज्य कह रहे है कि केंद्र अपनी एक्साइज ड्यूटी को पुरानी दर पर लाये तभी वे उस पर सोचेगें। तो, क्या लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई राज्य सरकारों का अपने राज्य के नागरिकों के प्रति यह दायित्व नहीं है कि व पेेट्रोल-डीजल के बढ़ते मूल्य को अपने अधिकार क्षेत्र में लागू वैट की दर कम कर राहत प्रदान करे? क्या जीएसटी लागू होने के पूर्व राज्य सरकारें विभिन्न मालों पर जब छूट देती थी, तब क्या वह सेंट्रल एक्साइज डूयटी कम होने पर ही देती थी? कांग्रेसी राज्य सरकारों को इसका जवाब देना चाहिए? जब ऐसा नहीं था, तब अपने दायित्व को निभाने व असफल होने पर केंद सरकार पर आरोप मढ़ने का प्रयास क्यों?  

अंत में वर्ष 2010 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने प्रथम बार पेट्रोल की कीमतों को अपने नियत्रंण से मुक्त करते हुये उनकी कीमतों का निर्धारण तेल कंपनियों के पाले में ड़ालकर बाजार के हवाले करते हुये यह कहा था कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल (क्रुड़ ऑयल) के दाम बढ़ने पर उपभोक्ताओं पर भार ड़ाला जायेगा और सस्ता होने पर होने पर उपभोक्ता को इसका लाभ मिलेगा। इसे डायनमिक प्राइसिंग कहा गया। अक्टूबर 2014 में मोदी सरकार ने डीजल की कीमत को भी नियत्रंण मुक्त कर दिया। परन्तु वास्तव में दाम कम होने पर उपभोक्ता को प्रायः कभी भी लाभ नहीं मिला (तथापि मार्च 2021 में तीन बार कटौती अवश्य हुई) और बाजार मूल्य बढ़ने पर दाम बढ़ने की नीति भी हमेशा लागू नहीं रही। अर्थात् यह आधिकारिक सैद्धांतिक स्थिति मात्र है। धरातल पर वास्तविक रूप से पूर्णतः उतरी हुई नहीं है। दिन-प्रतिदिन, हफ्ता-पखवाड़ा, इजाफा, पेट्रोल-डीजल के मूल्यों में होने वाली वृद्धि चुनावी समय में अवकाश लेकर अचानक रूक जाती है, यह हम सबने देखा है। फिर चाहे वह बिहार (सितंबर-अक्टूबर 2020) अथवा बंगाल चुनाव (मार्च-अप्रैल 2021) का समय हो। इसलिए यह समझना बहुत मुश्किल है कि पेट्रोल-डीजल का मूल्य निर्धारण वास्तव में कौंन कर रहा है?

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