शनिवार, 22 मार्च 2014

रामलीला ग्राउन्ड पर हुई सभा की विफलता अन्ना अथवा ममता की ?

बच्चे जब हिन्दी स्कूल में पढते है तब 'अ' आ' 'इ' 'ई' 'उ' 'ऊ' का पाठ पढाया जाता है। 'अ' के साथ 'आ' ही होता है। 'अ' और 'म' नही होता है। 'अन्ना' और 'ममता' की रैली की उस असफलता का राज इसी में छुपा है। 'अ' और 'म' का कोई मेल ही नही था। बेमेल  कार्य करने का प्रयास किया गया और इसलिए उसकी असफलता तो निश्चित ही थी। यदि 'अ' का 'आ' से गठबंधन किया होता तो उसमे सफलता निहित थी, क्यांेकि वही सही उच्चारण था।'अ' का 'आ' से गठबंधन का अर्थ 'अन्ना' का 'अरविंद' के साथ सहयोग होकर यदि रामलीला मैदान पर सभा हुई होती तो दृश्य निश्चित ही दूसरा होता। तीन वर्ष पूर्व अन्ना जब रामलीला मैदान पर  अनशन पर बैठे थे, तब केजरीवाल उनसे जुडे थे, और केजरीवाल ने अपने मीडिया मेनेजमंेट के द्वारा उक्त ऐतिहासिक आंदोलन को सफलता दिलाई थी। लेकिन आज परिस्थितियां बदली हुई है। यदि आज अन्ना 'ममता' के बदले अरविंद के साथ होते तो निश्चित रूप से यदि उक्त सभा केा पहले जैसी सफलता नही भी मिली होती तो भी इस तरह की असफलता भी नही मिलती । अतः इस बात से यह सिद्ध होता है कि अन्ना और अरविंद केजरीवाल की जोड़ी जो एक प्राकृतिक जोड़ी थी कही ज्यादा सफल रहती।
        बात अन्ना-ममता की है। यह अन्ना की ममता के प्रति ममता थी या ममता का अन्ना के प्रति सम्मान। हमारी संस्कृति में बुजर्ग को ''अन्ना'' कहा जाता है जिस कारण बुजुर्ग के प्रति सम्मान व्यक्त किया जाता है। दोनो ने संयुक्त रूप से साझेदारी करने का प्रयास किया लेकिन वह असफल रही। दोनो ने एक दूसरे पर आरोप लगाया। अन्ना ने कहा वह सभा ममता ने बुलाई  थी। वही ममता ने पलटवार कर यह कहा उक्त सभा अन्ना ने बुलाई थी। मै तो सब काम छोडकर बंगाल से सभा मे अपने वादे को निभाने आई थी। तथ्यो के परिशीलन से यह स्पष्ट है कि इस सभा का आयेाजन ममता द्वारा किया गया था। आवश्यक प्रशासनिक अनुमति ममता की पार्टी द्वारा ली गई थी क्योकि वे बंगाल से बाहर जाकर राष्ट्रव्यापी फैलाव  के खातिर अन्ना के प्रभाव का उपयोग करना चाहती थी। लेकिन सभा की पूरी तरह से असफलता ने दोनेा सत्यवादी नेताओ को असत्य कहने के लिए मजबूर कर दिया जैसा कि सभा मे नही आने पर अन्ना ने तीन तरह की बाते कही। मीटिंग मैने नही बुलाई, मेरे पत्रकार साथी संतोष भारतीय ने झूटा कहा, मै बीमार होने के कारण मीटिंग मे नही गया। वैसे यह सत्य भी है दो ($) तो ($) ही होते ही है लेकिन दो (-) (-) भी प्लस ($) होते है लेकिन यहां पर यहां एकदम विपरीत हो गई यहां देा ($) ($) माईनस (-) मे बदल गये। वाह री राजनीति, कहां क्या सिद्धांत लग जावे,कौन सा फार्मूला लागू हो जाय कही बीज गणित तो कही फिजिक्स। एक दम विपरीत परिस्थिति। अन्ना व ममता दोनो का अपने  अस्तित्व पर भाग्य की विडबंना ($) ($) पास आकर भी अलगाव हो गया व चुम्बक के देा समान धु्रव दूर भाग गये वैसे ही जैसे विद्युत के दो समान धु्रवो के पास आते ही अंधकार हो जाता है, प्यूज उड़ जाने के कारण।
        उपरोक्त परिस्थिति से यह बात स्पष्ट है कि आज भी अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल का गठजोड हो जाये और उसके साथ ममता जुड जाये (ए$ए$एच  (हजारे) ़$ के (केजरीवाल) $ एम (ममता) ) वैसे भी ।।ड (आम) में तीनो शब्द जुड़े हुये है तो शायद यह श्रंखला जेड तक पूरी होकर देश की दशा को बदल सकती है, आगे ला सकती है।

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

केजरीवाल ‘आम’ क्यो नही बन पा रहे है ?

                                                                                                                                          
                                                                                  राजीव खण्डेलवाल
 'अन्ना' के जनलोकपाल के मुददे पर हुए आंदोलन से उत्पन्न अरविंद केजरीवाल ने जब 'आप'के रूप में आम आदमी की बात करते हुए आम आदमी पार्टी 'आप' का गठन किया गया तो पूरे देश मे एक नये उत्साह व जोश के साथ एक अच्छी राजनैतिक संभावनाओ का वातावरण आम आदमी के मन मे पैदा हुआ। लेकिन इसके बाद से नई दिल्ली विधानसभा चुनाव लडने व मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के तत्पश्चात वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में लगे अरविंद केजरीवाल पर आये दिन मीडिया द्वारा लगातार आरोप लगाये जा रहे है। इस कारण जनता के बीच उनका आकषर््ाण कम होता जा रहा है। विकल्प की कल्पना अपने मन मे सजाये हुए अधिकांश नागरिक के मन में इस कारण एक गहरा झटका सा लग रहा है। लेकिन क्या वास्तव मे केजरीवाल ने वे सब कृत्य उस तीव्रता के साथ किये है जिस तीव्रता से मीडिया उन पर तीखे आरोप गढ रहा है, मुख्य यक्ष प्रश्न यही है।
        यदि हम पूरी राजनैतिक परिस्थतियो का सिहांवलोकन करे व केजरीवाल के डेढ साल के राजनैतिक जीवन की गतिविधियो का परीशीलन करे, तो एक बात बडी स्पष्ट होती है कि केजरीवाल के विरूध मीडिया द्वारा उनकी प्रत्येक सामान्य आम गलतियों पर  बारीकी से नजर रख उसे हाइलाइट कर बढ़ा चढाकर दिखाकर उन्हे जो बदनाम करने का प्रयास किया जा रहा है, इसके लिए केजरीवाल स्वयं जिम्मेदार हैं। केजरीवाल की सबसे बडी गल्ती तो यहीं थी कि  उन्होने जब राजनैतिक पार्टी बना कर राजनीति मे आने की घोषणा की, तब स्वयं को 22 कैरेट का न मानकर 24 कैरेट का एक मात्र सत्यवादी हरीशचंद्र के रूप मे जनता के बीच पेश किया। वे यह भूल गये कि आज के कलयुग में सत्यवादी 24 कैरेट कोई नही है और न ही यह संभव है। वास्तव मे 24 कैरेट मात्र शो पीस होता है  जिसका उपयोग नही हो सकता है। जब हम आभूषण बनाते है तो 22 कैरेट का ही उपयोग करते है। उसी प्रकार यदि केजरीवाल जनता के बीच अपने को यह कहकर पेश करते कि वे दूसरो से ज्यादा 22 कैरेट के समान अधिकतम ईमानदारी बरतेगे तो, शायद आज मीडिया को उन कृत्यो के कारण उन पर कीचड उछालने का मौका नही मिलता।
        हाल में ही घटित तीन घटनाओ को ले। मीडिया ने दिन भर ब्रेकिग न्यूज के रूप में कानून तोडने वाले एक अपराधी के रूप में केजरीवाल को पेश कर आलोचना की। पहली घटना 'आज तक' के साक्षात्कार में पुन्य प्रसून बाजपेयी व केजरीवाल के बीच जो चर्चा हुई उसको लेकर जो आलोचना की गई, क्या वह ठीक थी ? सामान्य रूप से राजनीति में जब भी कोई नेता प्रेस को अपना साक्षात्कार देता है तो वह यही चाहता है कि उसे ज्यादा से ज्याद हाईलाईट किया जाये। उसके मुख्य मुददो को प्राथमिकता देकर ज्यादा से ज्यादा प्रसारित किया जाये। प्रसून और केजरीवाल के बीच साक्षात्कार मे जो कहा गया है वे राजनीति की सामान्य बाते है। चूकि केजरीवाल ने राजनीति मे आते समय 22 कैरेट की नही बल्कि 24 कैरेट के होने की बात कही थी और सिस्टम में सुधार करने के बजाय बदलाव की बात करके व्यवस्था को ही चेलेन्ज कर दिया था। इसलिए उनकी हर सांस पर मीडिया के हर कैमरे की नजर रहती है। इसलिए हर वह कार्य जो सामान्य रूप से आम आदमी के लिये स्वीकृत माना जाता है लेकिन केजरीवाल का नाम आने पर उनके प्रत्येक कार्य को बारीकी से बेरोमीटर से नापा जाता है और तब वे आलोचनाओ के घेरे में आ जाते है। 
        बात टोल टेक्स की करे तो जिस तरह से केजरीवाल टोल टेक्स से गुजरे है सामान्य रूप से बडे से लेकर बडे छुटभइये नेता तक ऐसे ही गुजर जाते है, लेकिन उफ्फ तक नही होती। केजरीवाल के आगे लाल बत्ती की गाडी थी। भूतपूर्व मुख्यमंत्री होने के नाते शायद उन्हे छूट भी प्राप्त हो। मान्यता प्राप्त पत्रकार के उनके साथ होने पर भीे उनको छूट प्राप्त हो सकती थी। हमने पाया है जब भी पार्टी की रैली       भोपाल में होती है तब पूरा रैला का रैला बिना टोल टैक्स दिये ( क्योकि टोल नाके के गेट तब खुले ही रहते है ) गेट से निकल जाते है। एैसा ही एक अनुभव मुझे भी हुआ था। लेकिन तब यह 'न्यूज' नही बनती है जबकि ऐस टोल नाके से एक नही कई नेता निकल जाते है। बात चूकि केजरीवाल की है जिन्होने पूरे सिस्टम को सुधारने के बजाय बदलने का चेलेन्ज किया है। इसलिए उनकी सामान्य बात को भी ब्रेकिंग न्यूज बनाना इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए जरूरी हो जाता है।
        तीसरी बात मुंबई  में आटो में जाकर पांच व्यक्तियो के बैठने के कारण कानून तोडने की है। इस सबसे हट कर यदि हम इस बात पर विचार करे कि जब राजनेता आंदोलन करते है तब वह वेे घोषित रूप में कानून तोडने की घोषणा कर उसकी बार बार अवज्ञा करके  आंदोलन करते है। फिर चाहे धारा 144 के उल्लंघन का मामला हो, रैली निकालने का मामला हो, जूलूस निकालने का मामला हो, आदि आदि। तुरंत का उदाहरण मुंबई का है, जहां उन पर मुंबई पुलिस ने यह आरोप लगाया है कि मुंबई पहुचने पर उन्होने एयरपोर्ट पर गैरकानूनी रूप से भीड जुटाई और पांच से ज्यादा व्यक्ति इकटठे हुए जिस कारण उनके विरूध एफआईआर भी दर्ज की है। अतः यह स्पष्ट है जब अन्य पार्टी नेता उपरोक्त कार्य कर गुजरते है तोे वह ''आंदोलन'' कहलाता है लेकिन वही जब केजरीवाल करते है तो 'अपराध' हो जाता है। अतः यह साफ है कि केजरीवाल आम आदमी की बात करते करते खास हो गये है। क्या यह उनके व्यक्तिव व विचारो का विरोधाभास तो नही है ? यदि उन्हे सफल होना है, तो उन्हे इस विरोधभास को तोडना आवश्यक होगा।
       
                  (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)







गुरुवार, 13 मार्च 2014

अरविंद केजरीवाल की पांच प्रमुख गल्तियां

                                                                
                                        
                                                                            राजीव खण्डेलवाल
'1.जनलोकपाल बिल' के मुददे पर 'आप' पार्टी गठन से लेकर 'सरकार 'तक बलिदान करने वाले केजरीवाल ने उक्त बिल को दिल्ली विधानसभा मे चर्चा के लिये प्रथम स्थान न देकर पांचवा स्थान दिया, क्यों ?
2.   (अ) दिल्ली प्रदेश बनने के साथ कानूनन उपराज्यपाल को जनलोकपाल बिल भेजने की बाध्यता है जिस पर आपत्ति क्यो ?  उनका यह तर्क है कि संविधान में यह कहा लिखा है? संविधान के पन्नो की किताब  मीडिया पर दिखाते समय उपरोक्त तर्क करते समय वे शायद यह भूल गये कि दिल्ली राज्य गठन के समय संविधान के अंतर्गत ही बनाये गये कानून व नियमो के तहत ही बिल को उपराज्यपाल को भेजा जाना आवश्यक था। इसका पालन करने से उनका कद बढता या घटता ? संविधान मे कही यह नही लिखा है कि हत्या करने पर धारा 302 के अंतर्गत फांसी की सजा दी जा सकती है। बल्कि संविधान के अर्न्तगत बने भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अंतर्गत वह एक दंडनीय अपराध है। हर बात सीधे संविधान मे नही लिखी जा सकती है। बल्कि उनके अंतर्गत बनाये कानून नियमो के अर्न्तनिहत ही होती है। अभी हाल ही में मनीष सिसोदिया ने कहा कि नरेन्द्र मोदी से मिलने के लिए पहिले से अपाइंटमेन्ट लेना चाहिए था। यह संविधान में कहां लिखा है ?
(ंब) 'आप' की नजर में ''गैर संवैधानिक'' होने के बावजूद यदि 'आप' समस्त दलो की मांग अनुसार यदि 'आप' उपराज्यपाल को जन लोकपाल बिल भेज देते तो क्या काननून 'आप' एक अपराधी हो जाते ? 'आप' को तो हर हालत में उक्त बिल पास करवाना था जिसके लिये अन्य दूसरे राजनैतिक दलो के समर्थन की आवश्यकता थी। जो वे 'आप' केा संवैधानिक औपचारिकताओ की पूर्ति करने के शर्त पर देने को तैयार थे।
(स) इस तथ्यात्मक सत्य के मददेनजर कि उपराज्यपाल अपनी सहमति नही देंगे, यदि जनलोकपाल बिल आप उपराज्यपाल को भेज देते तथा उपराज्यपाल द्वारा अस्वीकार करने या लम्बित पड़ा रखने की स्थिति मे भी  केजरीवाल विधानसभा में अपने उपरोक्त तर्क के आधार पर उक्त बिल प्रस्तुत कर सकते थे। जिससे उनकी प्रतिबंद्धता जनलोकपाल बिल के प्रति ज्यादा दिखाई देती !
3.    'आप' का यह कथन कि शीला दीक्षित के जमाने में 6 बिल उपराज्यपाल की अनुमति के बिना  विधानसभा में प्रस्तुत किये गये थे। गलत कृत्य का उदाहरण देकर क्या आप अपने गलत कृत्य को सही सिद्ध कर सकते है ? एक अपराधी यदि किसी मामले मे साक्ष्य के अभाव में छूट जाता है तो क्या दूसरा  अपराधी दूसरे प्रकरण में उसी आधार पर उसी तरहे के अपराध के लिए उक्त तर्क के आधार पर छूट की मांग कर सकता है?
4.    माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा कानून मंत्री सोमनाथ भारती के खिलाफ टिप्पणी करने की जानकारी आने के बाद बावजूद उसे अपने मंत्रिमंडल में बनाये रखना क्या नैतिक था ? जिसकी दुहाई वे प्रारंभ से लेकर अभी तक देते आ रहे है।
5.    बिना 'जनमत' लिए प्रथम बीस उम्मीदवारो की घोषणा। क्या यह आम नागरिक की भागीदारी के सिद्धांतो के खिलाफ नही है ?
    यह सिलसिला दुर्भाग्यवश आगे भी चलते जा रहा है जो देश की आशा पर एक कुठाराघात है।
                  (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)




शनिवार, 8 मार्च 2014

‘न आचार’ ’न विचार’ ’न सहिंता’ फिर काहे की आचार सहिंता

          चुनाव आयोग ने अंततः बहु प्रतिक्षित आगामी लोकसभा चुनाव की घोषणा कर दी  है। उक्त घोषणा के साथ ही तत्काल प्रभाव से "आर्दश आचार सहिंता" भी लागू हो गई है, ऐसा मुख्य चुुनाव आयुक्त ने  ''निर्वाचन  सदन'' मे नही बल्कि ''विज्ञान भवन'' में हुई प्रेस कांफ्रेस मे कहा। आचार संहिता लागू होते ही 'बीजेपी और 'आप' के कार्यकर्ताओ व नेताओ के बीच दिल्ली से लेकर गुजरात के विभिन्न क्षेत्रों और देश के कई बडे नगरो मे झड़प हुई। आचार संहिता के प्रावधान क्या है, शायद यह देश के पुलिस प्रशासन को भी मालूम नही है। गुजरात पुलिस के द्वारा पहिले यह कहा गया कि आचार सहिंता का उल्लंघन हुआ है। लेकिन बाद में अपना रूख बदलते हुए यह कहा गया कि ट्रेफिक मे रूकावट होने के कारण उन्हे रोका गया था। कल फिर रूख पलटते हुये आचार सहिंता का उल्लंघन मानते हुये केजरीवाल के विरूद्ध 'प्रथम सूचना पत्र' दर्ज की गई है। इसलिए गुजरात के पाटन मे राधवपुर में रोके जाने पर पूरे देश में इसकी जो प्रतिक्रिया हुई, वह वास्तव मे अप्रत्याशित थी।
        उपरोक्त घटना से यह बात सिद्ध होती है कि चुनाव आयोग द्वारा लागू आचार सहिंता क्या है, किन लोगो पर लागू है, किस तरह लागू होगी, और क्या वह व्यवहारिक है, क्या उसे पूर्ण रूप से लागू किया जा सकता है, क्या आचार सहिंता लागू होने से स्वच्छ और ईमानदार तरीके से चुनाव संपंन्न हो पायेगे। ये सब प्रश्न स्वाभाविक रूप से दिमाग में उत्पन्न होते है।
        सरकार से लेकर चुनाव आयेाग तक ने पूर्व मंे करोडो रूपये अपनी योजनाओं व उदेश्यों के प्रचार प्रसार पर खर्च किये होगे, किये जाते है। अभी हाल मे ही विधानसभा चुनाव में चुनाव आयेाग ने नागरिको को वोट डालने के लिये प्रेरित करने के लिए काफी बडे स्तर पर अभियान चलाया था जो काफी खर्चीला था। ठीक उसी प्रकार चुनाव आयोग ने जनता के बीच आचार सहिंता को लागू करने के पूर्व उसके मुख्य प्रावधानो का प्रचार प्रसार क्यों नही किया, यक्ष प्रश्न यही है। उक्त आचार सहिंता क्या सिर्फ राजनैतिक पार्टियो पर ही लागू है, या आम नागरिको  पर भी लागू है। इसकी जानकारी होने पर जनता भी उसे प्रभावशाली रूप से लागू कराने मे सहयोग कर सकती है? प्रश्न यह भी पैदा होता है जो आचार सहिंता चुनाव आयोग ने  बनायी है वह कितनी व्यवहारिक है। क्या चुनावी कार्यक्रम की घोषणा हो जाने से देश के शासन व  प्रशासन की विकास कार्य करने की योजना की धडकन चुनाव आयेाग के आचार सहिंता के डंडे के डर से रूक जाये, क्या यह उचित है ? हमने यह देखा है कि आचार सहिंता लागू होते ही सामान्य विकास के समस्त कार्य रूक जाते है। कही पानी की समस्या है तो टयूबबेल- नल कनेक्शन की अनुमति देने के लिये प्रशासन, चुनाव आयोग की ओर टकटकी लगी नजर से देखता रहता है। सामान्य शासन और प्रशासन के विकास के कार्य आर्दश आचार सहिंता के नाम पर रोका न जावे, चुनाव आयेाग को इस बात पर गंभीरता से विचार करना  होगा।
        राजस्थान की गहलोत सरकार का अभी हाल मे हुए विधानसभा चुनाव मे हश्र आपके सामने है।  जहां अंतिम समय में गहलोत सरकार द्वारा की गई कई लुभावनी घोषणाए जनता को आकर्षित नही कर पाई व सरकार के पक्ष में मत मे परिवर्तन नही हो सका। अतः यदि कोई भी लोकप्रिय चुनावी  घोषणा भी है, जो चुनी हुई सरकार है, कोे यह संवैधानिक रूप से अधिकार जनता द्वारा दिया गया नैतिक बल व कानूनी अधिकार प्राप्त है  कि वह ''जनहित'' मे अपने चुने हुए अवधि के अंतिम समय की शेष अवधि में घोषणा कर सकती है। ऐसी घोषणा वादों पर आचार सहिंता के द्वारा रोक लगाना क्या उचित है, लोकतांत्रिक है। क्या यह उन मतदाताओ केे विवेक का अपमान नही है ? हम यह बात अपने मतदाता के विवेक पर क्यो नही छोड देते कि जिस शासन ने 60 महिने की अवधि मे अपने 56- 57 महिने की समाप्ति तक जनता के लिए अपने चुनावी घोषणा पत्र के आधार पर कार्य नही किये लोकलुभावन घोषणाए अमल नही की, अब वे अंतिम समय मे करने जा रही है, तो उसके औचित्य पर निर्णय करने का अधिकार मतदाताओ के विवेक पर ही छोडना श्रेष्ठ व उचित होगा, जो जनता चुनाव परिणाम के माध्यम से व्यक्त करेगी, यही लोकतंत्र है। यदि जनता के विवेक पर कोई प्रश्न चिन्ह है, तो चुनाव आयोग को नागरिको के बीच परिपक्वता अभियान चलाना चाहिए, जिस प्रकार वह वोट देने के लिए चला रहा है, ताकि जनता परिपक्व होकर अपने वोट देने के संवैधानिक व नागरिक अधिकार को बिना भय,लोभ व स्वार्थ के विवेक पूर्ण उपयोग कर चुनाव आयोग के अवांछित अधिकारहीन दखल को रोक सके।

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