शनिवार, 24 मई 2014

क्यो वास्तव में अरविन्द अपने को अराजक सिद्ध करने में तुले हुए है ?

        क्यो वास्तव में अरविन्द अपने को अराजक सिद्ध करने में तुले हुए है ?
                                                                     

        नितिन गडकरी द्वारा दायर किये गये मानहानि के मुकदमे मे बेल बॉन्ड न भरने के कारण अरविन्द केजरीवाल को न्यायालय द्वारा कानूनन रूप से मजबूरी में जेल भेजना पडा। इस पर जिस तरह की प्रतिक्रिया एवं कथन 'आप' के नेताओ द्वारा टीवी चैनलो पर दी गई और 'आप' के कार्यकर्ताओ द्वारा प्रदर्शन किया गया उसके कारण उपरोक्त प्रश्न गंभीर रूप से जनता के बीच उत्पन्न हो गया है जो कथन केजरीवाल ने स्वयं मुख्यमंत्री रहते हुए कहा था।
        केजरीवाल "अराजकता" पर  तुले हुए है। यह आरोप इसलिए लग रहा है क्योकि न्यायालय द्वारा तिहाड जेल भेजने के बाद उनके समर्थको द्वारा विरोध प्रदर्शन, हंगामा के कारण हुआ चक्का जाम के पीछे क्या उददेश्य  था। यह किसके खिलाफ था,यह 'आप' के पत्रकार नेता आशुतोष स्पष्ट नही कर सके। उक्त पूरा प्रकरण न्यायालीन अपराधिक प्रक्रिया से संबंधित था जिसका निराकरण न्यायायिक प्रक्रिया  में उपलब्ध अपील के अधिकार द्वारा किया जा सकता है। धरना प्रदर्शन से नही। फिर भी प्रारंभ  से लेकर अंत तक जो स्थिति  निर्मित हुई वह स्वयं केजरीवाल ने की है। अन्य किसी ने नही। गडकरी पर आरोप लगाने से लेकर न्यायालय मे तीन बार अनुपस्थिति सहित बेल बाण्ड देने से इंकार करने के कारण जो उक्त स्थिति निर्मित हुई जिसे उन्हे शांतिपूर्वक अंगीकृत कर लेना चाहिए बजाय इसके  उनके समर्थको द्वारा उक्त अराजकता दिखाकर।
        वास्तव मे उपरोक्त पूरी प्रक्रिया एक कानूनी प्रक्रिया है जिसका स्वेच्छा से पालन न किये जाने के कारण अरविन्द केजरीवाल को जेल जाना पडा। जेल जाने का विकल्प स्वयं अरविन्द केजरीवाल ने चुना जैसा कि उनके प्रवक्ता आशुतोष ने स्वयं मीडिया बहस मे कहा। लेकिन इसके आगे जिस तरह की प्रतिक्रियाए उनके व अन्य 'आप' के नेताअेा द्वारा दी गई वह वास्तव में  लोकतंत्र के लिए घातक व चिंता जनक है। आशुतोष का यह कहना कि पूर्व में अन्य न्यायालयो ने चार अन्य मामलो में बिना व्यक्तिगत बॉन्ड भरे मात्र अंडरटेकिग के आधार पर अरविन्द केजरीवाल की न्यायालय में उपस्थित को सुनिश्चत मानकर उक्त अंडरटेकिग को स्वीकार कर छोड दिया था जेल नही भेजा गया था। उसी प्रकार इस प्रकरण मे भी पूर्ववर्ती (च्तमबमकमदज)के आधार पर यहां भी अंडरटेकिग स्वीकार की जानी चाहिए थी जो न्यायालय ने नही की। इसलिए उन्हे जेल जाना पडा। यहां यह उल्लेखनीय है कि अरविंद केजरीवाल को तीन बार नोटिस भेजने के बावजूद वे कोर्ट में उपस्थित नही हुये थे। बात केवल इसी सीमा (हद)तक रहती तो कोई ऐतराज नही था क्येाकि निम्न न्यायालय के आदेश को उपरी न्यायालयो मे चुनौती देने का अधिकार केजरीवाल को है। इसका वे उपयोग कर सकते है और शायद करेेंगे भी। लेकिन 'आप' पार्टी का यह कथन कि एक ईमानदार आदमी अरविन्द केजरीवाल जेल मे है, और भ्रष्टाचारी कानूनी प्रकिया के सहारे बाहर घूम रहा है,ड्राइंग रूप में बैठा है नितान्त रूप से भद्दी, अवास्तविक असंर्दभि अमर्यादित व कानून व तथ्यो के विपरीत टिप्पणी है।
        क्या नितिन गडकरी भ्रष्टाचारी है इसका कोई भी कानूनी प्रमाण अरविन्द केजरीवाल के पास है ? क्या उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के कारण किसी भी न्यायालय मे कोई कार्यवाही  चल रही है ? यदि हां तो  अभी तक उन्होने उसे प्रर्दर्शित क्यो नही किया ? क्या न्यायालय ने उन्हे भ्रष्टाचारी, अपराधी घोषित  कर दिया है? यदि हो तो क्या अरविन्द केजरीवाल ''न्यायालय'' बन गये है ? जिनके द्वारा गडकरी के विरूद्ध लगाये गये आरोप को 'निर्णय' मान लिया जाये। हाल मे ही एक आरटीआई के जवाब में यह तथ्य सामने आया है कि गडकरी  के विरूद्ध कोई भी कार्यवाही आयकर विभाग मे लंबित नही है। क्या प्रथम सूचना प्रत्र दर्ज न होने के कारण  केजरीवाल द्वारा सक्षम न्यायालय में गडकरी के विरूद्ध आपराधिक केस को दर्ज कराया जैसा कि गडकरी ने केजरीवाल के खिलाफ किया है। न्यायालय के निर्णय के बाद तिहाड जेल के सामने 'आप' के समर्थको ने जिस तरह का विरोध कर हंगामा किया गया वह क्या कानून का पालन है ? क्या राजनीतिक कारणो के कारण केजरीवाल जेल गये ? या न्यायिक आपराधिक प्रकरण के कारण ? क्या गडकरी के द्वारा दायर मानहानि का मामला कानूनी है अथवा यह राजनैतिक मामला है ?और यदि मामला राजनैतिक है तो इसकी शुरूआत किसने की ? क्या अरविन्द केजरीवाल द्वारा गडकरी पर आरोप लगाना कानूनी मामला है या राजनैतिक? इन सब यक्ष प्रश्नो का उत्तर कानून से मिलेगा या राजनीति से यह देखना अभी बाकी है।
      बाद जहां तक पूरे मीडिया हाउस द्वारा अरविन्द केजरीवाल की इस हरकत को नौटंकी करार दिये जाने का और मीडिया स्पेस प्राप्त करने का नाटक करना बताया गया है। इसके लिए भी जिम्मेदार कौन है ? क्या यह हास्यपद बात नही है जो लोग इस तरह का आरोप लगा रहे है वे ही मूल रूप से जिम्मेदार नही है ? अरविन्द केजरीवाल के खास सिपल सलाहकार आशुतोष ने बडी मासूमियत से यह कहा  कि हमारे पास देा विकल्प थे बॉन्ड भरना या जेल जाना ।हमने सिद्धांत के खातिर व प्रिसेडेन्ट के रहते बॉन्ड नही भरा और जेल जाना पसंद किया।  इसमे राजनीति कहां है ? शायद तकनीकि रूप से सही होने के बावजूद यदि वे इस घटना के मामले मे नौटंकीकार पूरे देश मे सिद्ध हो रहे है तो यहां केजरीवाल का   पूर्व मे अपनी स्वयं की स्वभावगत त्रूटि का द्योतक होता है जिसे मीडिया ने स्वयं साक्ष्य  बनकर आरोप गढ कर उन्हे आरोपी ठहराकर जनता के बीच खलनायक बना दिया। लेकिन उपरोक्त समस्त तथ्यो के बावजूद आज की इस स्थिति के लिये स्वयं अरविन्द केजरीवाल को वर्तमान मे देाषी नही ठहराया जा सकता है। लेकिन यह भारत है, लोकतंत्र ह,ै मीडिया का तंत्र ह,ै भडास का तंत्र ह,ै नौटंकी का तंत्र है, आखिर तंत्र नही है तो सिर्फ स्वच्छ मन व हृदय का।
                           जय हिन्द!
       
   
   

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देश मंे ”राजनीति“ पर कब ”वास्तविक“ ”स्वाभाविक“ ”स्वीकारिताकारक“ ”प्रतिक्रिया“ होगी ?

         देश मंे "राजनीति" पर कब "वास्तविक" "स्वाभाविक" "स्वीकारिताकारक"  "प्रतिक्रिया" होगी ?
                                      
        हाल ही में देश में दो बडी राजनैतिक लोकतांत्रिक घटनाऐं घटी है जिसकी सत्यता से इस देश का कोई भी नागरिक इंकार नही कर सकता है। पहली नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक गैर कांग्रेसी पार्टी की 2014 के लोकसभा के चुनाव में ऐतिहासिक विजय एवं दूसरा नीतीश कुमार का नरेन्द्र मोदी की उक्त विजय की आंधी में हुई निर्णायक हार के कारण, नैतिकता के आधार पर दिया गया इस्तीफा। उपरोक्त दोनो घटनाओं पर देश में विपक्षी पक्षो ने जो प्रतिक्रियाये व्यक्त की, उससे निश्चित रूप से  एक आम नागरिक को निराशा ही हुई है, जो स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नही हैं।
        नरेन्द्र मोदी की जीत निसंदेह समस्त खिलाफत के बावजूद एक निर्णायात्मक जनादेश है जिसको  समस्त भागीदार पक्षो ने हृदय की गहराईयो से स्वीकार कर, स्वागत कर विपक्षी पक्ष केा अगले पांच सालो के लिए जनता के बीच जाकर अपनी खोई हुई विश्वनीयता को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, बजाय इसके कि उपरोक्त जनादेश में नुक्ताचीनी करे, खामियां निकाले व जनादेश को स्वीकार न करे।
        इसी प्रकार नीतीश कुमार ने जिस दिन नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दिया तो उनके विरोधियो ने यह प्रतिक्रिया दी थी की नीतीश कुमार नौंटंकी कर रहे है। विधायको को भावनात्मक रूप से ब्लेकमेल मेल कर रहे है और  अगले दिन होने वाली विधायक दल की बैठक में वे पुनः नेता चुने जायेगे और फिर से मुख्यंमंत्री बन जायेगे। दूसरे दिन जब विधायक दल ने सर्वसम्मिति से नीतीश कुमार को नेता माना व उनका इस्तीफा अस्वीकार कर दिया गया तब भारी मान मनौवल के बावजूद नीतीश कुमार ने इस्तीफा वापस लेने से स्पष्ट इंकार कर दिया और  एक दिन विचार के लिये समय मांगा व नये मुख्यमंत्री चुनने के संकेत दिये तब भी उनकी आलोचना की गई।  जब अगले दिन नीतीश कुमार ने नये मुख्यमंत्री के रूप में महादलित नेता जीतनराम मांझी  की घोषणा मुख्यमंत्री के रूप में की गई तब फिर उन्हीे विरोधियो ने उन पर यह आरोप लगाया कि दलित कार्ड खेलकर रिमोट कंटोल द्वारा नीतीश कुमार अगले वर्ष होने वाले चुनाव के लिए चुनावी कार्ड का खेल खेल रहे है। आखिरकार राजनीति में यदि एक व्यक्ति सही कदम उठाना चाहता है, करना चाहता है और यदि वह वास्तव में ऐसा करता है तो उसे विरोधी पक्ष द्वारा खुले हृदय से प्रोत्साहित क्यो नही किया जाता है ? आज की राजनीति का यही एक महत्वपूर्ण प्रश्न है?
         यदि नीतीश कुमार विधायको के अनुरोध के दबाव के आगे अपना इस्तीफा वापस ले लेते तब उन्हे उनके विरोधी नौटंकी करार सिद्ध करते और जब इस्तीफा वापस नही लिया तब भी उन्हे नौटंकीकार करार सिद्ध कर रहे है। चुनाव में हार के बाद यदि इस्तीफा नही देते तब यही कहा जाता कि जनादेश की भावना के विपरीत मुख्यमंत्री कुर्सी से चिपके रहे। आखिर नीतीश केा क्या करना चाहिए था जिसकी एक स्वाभाविक सकारात्मक प्रतिक्रिया राजनैतिक क्षेत्र में होती ? शायद हमारे देश में अभी तक उक्त स्तर की स्वस्थ राजनीति नही आई है। इसलिए ''राजनीति'' के इस गलियारे मे चलने वाले हर ''राजनीति के रंग से गढे'' कदम की ''प्रतिक्रिया'' ''राजनीति''के तरीके से ही होते रहेगी। देश राज्य और समाज के हितो का ध्यान बिल्कुल नही रहेगा, ऐसा वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था के देखने से लगता है।

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सोमवार, 19 मई 2014

”नमों“ ने ”जीत“ का इतिहास बनाया तो नीतीश ने ”नैतिकता का इतिहास“ बनाया


       1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से उत्त्पन्न  सहानुभूति की लहर में हुये चुनाव के बाद और स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार कंाग्रेस को छोडकर किसी  अन्य एक राजनैतिक दल को (गठबंधन को नही)2014 के आम चुनाव में  पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ है। 282 सीट पाकर भाजपा को ऐतिहासिक विजय प्राप्त हुई है। इसके लिए यदि किसी एक व्यक्ति  को पूर्ण श्रेय दिया जा सकता तो है तो वे नरेन्द्र मोदी ही है जिस कारण वे इतिहास पुरूष बन गये है। जो आत्मविश्वास उन्होने पार्टी के चुनाव प्रचार का मुखिया के रूप में कमान सभालने के पहले दिन से दिखाया व चुनाव परिणाम आने तक जो कथन पर कथन,व ,आकलन चुनाव परिणाम के संबंध में उन्होने किया वह अक्षरशः सही सिद्ध हुआ।
        नीतीश कुमार जिन्होने नरेन्द्र मोदी के मुददे पर ही भाजपा से अपना 8 साल पुराना गठबंधन तोडा था, ने इस आम चुनाव में उन्हे मिली भारी असफलता के कारण आने वाले राजनैतिक संकट को भाप कर व्यवहारिक रूप से व्यवहारिक होकर (शायद)मजूबरी मे बेबाकी से अपनी हार को स्वीकार कर अपनी सरकार का इस्तीफा गर्वनर को भेजकर नैतिकता का इतिहास रच दिया। इतिहास इसलिए नही कि नैतिकता को लेकर इस्तीफे इससे पहले नही हुए। लालबहादुर शास्त्री जी का उदाहरण  हमारे सामने है  तब नैतिकता का मापदंड हमारे राजनैतिक व सामाजिक जीवन में जीवंत था। लेकिन आज के घोर अवसरवादी वातावरण मे ंनैतिकता का कदम उठाना तो दूर नैतिकता की बात करना भी एक आश्चर्यजनक बात मानी जाती है। नीतीश ने "नैतिकता" का जो  पाठ व दिशा दिखाई वह वर्तमान परिपेक्ष में न केवल अतूलनीय है बल्कि वह नैतिकता के इतिहास में यदि भविष्य में नैतिकता का स्तर हमारे जीवन में नही सुधरता है तो, यह कदम एक मील का पत्थर ही माना जायेगा।
    बाद नैतिकता की है तो अरिवंद केजरीवाल का नाम भी स्वभाविक रूप से हमारे सामने आ जा जाता है ।अरविंद केजरीवाल ने जब अपनी सरकार का इस्तीफा दिया था तब उन्होने भी नैतिकता की दुहायी देते हुए अपने इस्तीफे को सही सिद्ध ठहराने का प्रयास किया था। लेकिन केजरीवाल की नैतिकता और नीतीश कुमार की नैतिकता में भारी अंतर है। केजरीवाल विधानसभा में जनलोकपाल बिल के पारित न हो सकने  के कारण विधानसभा में सरकारी बिल के असफल हो जाने से बहुमत खो देने के कारण उन्होने नैतिकता के नाम पर इस्तीफा दिया। लेकिन उसी नैतिकता को ताक पर रखकर हार के बावजूद विधानसभा भंग करने की सिफारिश की जिसका नैतिक अधिकार उनकेा नही था। जबकि नीतीश कुमार को इस्तीफा देतेे समय पूर्ण बहुमत प्राप्त था, यद्यपि संकट के बादल के बुलबुले जरूर उठ रहे थे। लेकिन उन्होने राजनेतिक कौशल एवं चातुर्य दिखाते हुए अपनी छवि के अनुरूप जनादेश को अपने विरूद्ध मानते हुए स्वीकार कर नैतिकता के आधार पर न केवल सरकार का इस्तीफा प्रेषित किया बल्कि उसे और उंची नैतिकता देते हुए विधानसभा भंग करने की सिफारिश नही की ( जैसा कि केजरीवाल ने किया  था) या जैसा अन्य कोई राजनैतिक करता जिसे उसे करने का नैतिक व कानूनी रूप से अधिकार प्राप्त था क्योकि उस समय तक वे  बहुमत प्राप्त सरकार के नेता थे। राजनैतिक चातुर्य दिखाकर राजनीति के शतरंज में नैतिकता का मोहरा चलकर उन्होने भाजपा और नरेन्द्र मोदी के सामने भी नैतिकता का एक बहुत बडा प्रश्न राजनीति में खडा कर दिया है। भविष्य ही यह बता पायेगा कि एक "अर्धसत्य नैतिकता" का पाठ केजरीवाल ने जो चलाया, अर्द्धसत्य नैतिकता इसलिए कहता हंू कि यदि वे  उस  समय  पद से इस्तीफा नही देते तो ब्रेकिग न्यूज चालू हो जाती कि हारने के बावजूद केजरीवाल ने इस्तीफा न देकर कुर्सी से चिपके रहे। केजरीवाल की इस अर्द्धसत्य नैतिकता को उंचा उठाकर असली नैतिकता का रूप नीतीश कुमार ने विधानसभा भंग की सिफारिश किये बिना इस्तीफा देकर दिया। क्या भाजपा इस  नैतिकता की चली मुहिम को और आगे बढाती है या नही यह देखना राजनेतिक विशेलेषको के लिए भी एक दिलचस्प घटना होगी।

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