शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

राजद्रोह कानू़न (भा.द.स. की धारा 124ए) की ‘‘आवश्यकता‘‘ ‘‘आज’’ भी है व ‘‘आगे‘‘ भी रहेगी!


अभी हाल में ही माननीय उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने सरकार के हरिद्वार जिले में बूचड़खानों पर प्रतिबंध लगाने के फैसले की संवैधानिकता पर प्रश्न उठाते हुये टिप्पणी की ‘‘क्या ‘‘नागरिकों को अपने भोजन चुनने का अधिकार है या राज्य ही फैसला करेगां‘‘? न्यायालय ने एक तरह से राज्य सरकार के जनहितकारी निर्णय लेने के ‘‘अधिकार’’ पर ही प्रश्न चिन्ह उठा दिया। इसके एक कदम और आगे जाकर नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कांत तो यहां तक  कहते हैं कि पर्यटक क्या खाना पीना चाहते हैं? यह उनका ‘‘निजी‘‘ मामला है, राज्य यह तय नही कर सकते हैं। जब माननीय न्यायालय, कार्यपालिका/शासन से उक्त प्रश्न कर सकती है, तब एक साथ (साइमलटेनियसली) यह प्रश्न भी उत्पन्न होता है कि सरकार के जनहित के किसी मुद्दे पर तथाकथित रूप से असफल होने या बताने पर चुनी हुई सरकार का कोई निर्णय जनहितकारी है अथवा नहीं, यह तय करने का अधिकार वास्तव में उन्हे चुनने वाले लोगो अर्थात मतदाताओं पर ही छोड़ देना उचित होगा ? उच्च/उच्चतम न्यायालय को सिर्फ कार्यपालिका के आदेश व विधायिका द्वारा पारित कानून की संवैधानिकता, वैधानिकता व न्यायिक समीक्षा ही करनी चाहिए। अंतर्निहित असाधारण शक्तियों का प्रयोग असाधारण स्थितियों में ही करना चाहिए। हमारे संविधान में कार्यपालिका, न्यायपालिका व विधायिका तीनों के कार्यक्षेत्र का यह विभाजन स्पष्ट रूप से दर्शित होता है। अन्यथा क्या यह संदेश नहीं जायेगा कि न्यायपालिका शासन मौके-बेमोके चलायेगी? 

यह विषय इसलिये उत्पन्न होता है कि स्वतंत्र भारत की न्यायपालिका के इतिहास में हमने अनेकों/सैकडों बार यह देखा है कि माननीय न्यायालयों द्वारा राज्यों व केन्द्रीय शासन के विरूद्ध लगातार ऐसी टिप्पणियां या आदेशध्निर्देश पारित किये जाते रहें है, जो कि न्यायिक क्षेत्राधिकार से जुड़ी कम वरण कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में अनावश्यक हस्तक्षेप लिये हुई ज्यादा दिखती हैं, ऐसा परसेप्शन विगत कुछ समय से ज्यादा बन रहा हैं। जैसे कावड यात्रा पर रोक, बकरीद पर छूट, किसान आंदोलन के चलते स्वप्रेरणा से चार सदस्यीय समिति का गठन, कोविड़-19 की पहले दौर में अप्रवासीय श्रमिकों को वापसी का आदेश, दीपावली पर सीमित डेसीबल व कम प्रदूषण फैलाने वाले पटाखों की रात्रि मात्र 8 से 10 बजे के बीच फोड़े जाने की समय सीमा बाधंना, सार्वजनिक स्थानों में रात्रि 10ः00 बजे के बाद ‘डीजे‘ बजाने पर प्रतिबंध, 10 किलो हट्ज से ज्यादा के साउंड सिस्टम पर प्रतिबंध, डीजल/पेट्रोल के बदले सी.एन.जी. का उपयोग आदि अनेकोंनेक ऐसे विषय हैं, जिनका संबंध नागरिकों की खुशहाली, समृद्धि, स्वस्थ जीवन, तथा अच्छे व उज्जवल भविष्य से है। इन पर जनोंमुखी निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ चुनी हुई सरकार को ही है। 

इन शासनादेशों की गुणवत्ता पर न्यायिक हस्तक्षेप या कोई आदेश न होने पर सरकार को आदेश/निर्देश देना उचित नही कहा जा सकता हैं। वैधानिक न्यायिक समीक्षा का यह विषय नही हैं। शासन के जन विरोधी, गलत, अलोकप्रिय निर्णय या ‘‘अनिर्णय‘‘ की स्थिति में जनता अगले चुनाव में ‘‘सबक‘‘ सिखा देगीं। तब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि आखिर कार्यपालिका के अधिकारों की रक्षा के लिये माननीय न्यायालयों से ‘‘कौंन‘‘, ‘‘कैसे‘‘ व ‘‘किस प्रकार‘‘ प्रश्न कर सकेगा? जिस प्रकार न्यायपालिका अधिकार पूर्वक अबाध व निर्बाध रूप से आसानी से अन्य तंत्रों से प्रश्न पूछ लेती है? 

विगत समय सेवानिवृत्त मेजर जनरल एस.जी. बोम्बतकरे की याचिका पर विचार करते माननीय उच्चतम न्यायालय ने राजद्रोह के अपराध व संबंधित धारा 124ए पर कुछ बिन्दु उठाते हुये गंभीर टिप्पणियां की।बिंदुवार इसकी विस्तृत विवेचना  आगे की जा रही है। ब्रिटिश जमाने से वर्ष 1860 से चली आ रही भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए (राजद्रोह) पर माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह कहकर कि अब इसकी जरूरत ही क्या है? उसके अस्तित्व पर ही एक ‘‘प्रश्न चिन्ह‘‘ लगा दिया? माननीय उच्चतम न्यायालय को निश्चित रूप से उसकी संवैधानिक वैधता पर पुर्नविचार (‘‘विचार‘‘ तो न्यायालय पूर्व में ही केदारनाथ सिंह मामले में कर, वैध ठहरा चुकी है) करने का अधिकार तो है। परन्तु जहां तक राजद्रोह की धारा 124ए की आवश्यकता व उपयोगिता का प्रश्न है, यह बात, (मुद्दा-कार्य विषय) जनता द्वारा चुने गये व्यक्तियों अर्थात विधायिका ही तय करेगी, न्यायपालिका नहीं ? 

अभी तक कमोवेश लोकतंत्र के तीनों स्तम्भ का प्रत्येक खम्बा क्षेत्राधिकार को लेकर परस्पर एक दूसरे का सम्मान करता चला आता रहा है। यही देश के लोकतंत्र व संविधान की ‘‘खूबी व खूबसुरती‘‘ भी है। उच्चतम न्यायालय ने सरकार से यह पूछा कि अंग्रेजों ने स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन को दबाने के लिए इस औपनिवेशिक राजद्रोह कानून का प्रथम (दुरू)उपयोग वर्ष 1870 में बाल गंगाधर तिलक व तत्पश्चात महात्मा गांधी इत्यादि जैसे अन्य कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों, नेताओं के खिलाफ किया था। आजादी के लगभग 75 साल बाद भी इस कानून की क्या जरूरत है? अनेक गैरजरूरी कानूनों को खत्म करते हुये सरकार की नजर इस कानून के खातमें पर क्यों नहीं गई? ऐसे कानूनों को जारी रखना दुर्भाग्यपूर्ण है।

उच्चतम न्यायालय का खत्म किये गये अन्य अनुपयोगी कानूनों की समाप्ति की बात का यहां पर उल्लेख करना महत्वपूर्ण होकर स्वयं न्यायालय को ही संवैधानिक सीमा में बांधता है। वह ऐसे कि, जहाँ केन्द्र द्वारा पूर्व में जो भी कानून अनुपयोगी मानकर समाप्त किये गयेे थे, वे न्यायालीन निर्देशों/आदेशों के तहत नहीं, बल्कि इस संबंध में आयी रिपोर्ट के बाद अनुपयोगी व व्यर्थ होने के कारण ही समाप्त किये गये थे। मोदी सरकार के पूर्व लगभग 1300 पुराने व व्यर्थ कानून को समाप्त किया गया तो मोदी सरकार ने इन 6 सालों में लगभग 1500 निरर्थक कानूनों को खत्म किया। माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह उल्लेख कर वस्तुतः धारा 124ए की वर्तमान में औचित्य, आवश्यकता व उपयोगिता पर ही प्रश्न चिन्ह लगाकर उसे समाप्त करने की ओर साफ इंगित किया है। यह ठीक उसी प्रकार से है या इसे उस तरह से समझिये कि जब वर्ष 1971 में लागू ‘‘मुन्नी से भी ज्यादा बदनाम‘‘, कुख्यात,‘‘मीसा’’ कानून (आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियिम) को आपातकाल के हटने के बाद वर्ष 1978 में उस मीसा कानून के दुरूपयोग से भुगतती जनमानस व उनके चुने गये नुमाइंदों (जिन्हे बाद में लोकतंत्र के प्रहरी मानकर पेशन देना भी चालू किया गया) की जनता सरकार ने समाप्त कर दिया था। उसे जारी रखना जरूरी नहीं समझा गया। परन्तु वास्तव में यह प्रश्न तो राजनैतिक प्लेटफार्म पर होना चाहिए था। दुर्भाग्यवश न्यायालय ने इस पर ‘‘लीड़‘‘ ले लिया। यद्यपि देश के गृहमंत्री भी पूर्व में ब्रिटिश जमाने के दुर्भाग्यपूर्ण कानूनों को समाप्त करने की बात कह चुके है। तथापि विश्व के कई देशों में आज भी राजद्रोह का कानून लागू है। यद्यपि ब्रिटेन में जहां यह कानून बना था, वर्ष 2009 में समाप्त कर दिया गया।

राजनैतिक कारणों से बडे पैमाने पर इस धारा के दुरूपयोग के और सरकार की जवाबदेही तक तय नहीं है, तथा इसके अनुपयोगी होने के कारण उच्चतम न्यायालय की धारा 124ए के भारतीय दंड संहिता 1860 में बने रहने के अस्तित्व पर विचार करने की धारणा ही, संविधान द्वारा कार्यपालिका, न्यायपालिक व विधायिका के बीच खींची गई लक्ष्मण रेखा की सीमा का उल्लघंन व संविधान की भावना के प्रतिकूल प्रतीत होती दिखती है। 

एक बात स्पष्ट है! जब भी कोई कानून किसी विशेष उद्देश्य या अपराधों को रोकने के लिये बनाया जाता है या बना हुआ है, तो न केवल उस कानून के दुरूपयोग की आशंका सिर्फ उसके निर्माण के समय ही नहीं, बल्कि हमेशा बनी रहती है और कमोवेश थोड़ा बहुत दुरूपयोग होता भी रहता है। जैसा कि कहा जाता है-‘‘देयर इज नो रोज विदाउट ए थ्रोन‘‘। परन्तु उसके दुरूपयोग को रोकने व चाबूक लगाने का कार्य कार्यपालिका के साथ-साथ न्यायपालिका का भी होता है, जो वह अवश्य करती चली आ रही है। जस्टिस डी वाई चन्द्रचूड़ व एम.आर.शकर की खण्ड़ पीठ ने एक प्रकरण में कानून की प्रक्रिया का दुरूपयोग कर दर्ज की गई एफ.आई.आर. रद्द कर दी। परन्तु संबंधित कानून जिनके तहत उक्त दुरूपयोग हुआ था को रद्द नहीं किया। सोलिस्टर जनरल तुषार मेहता ने भी स्वयं सरकार द्वारा इस धारा के दुरूपयोग को रोकने की बात कही है। 

ऐसा कभी भी नहीं हुआ है कि सिर्फ दुरूपयोग के आधार पर कानून ही न बनाया जाये और न ही ऐसा संभव है। ‘‘जूं के ड़र से गुदड़ी नहीं फेंकी जाती‘‘। बने हुये कानून के औचित्य पर दुरूपयोग के आधार पर प्रश्नवाचक चिन्ह नहीं लगाया जा सकता है। माननीय मुख्य न्यायाधीश का उक्त धारा की संवैधानिकता परखने के पूर्व ही, इस तरह की विस्तृत असहमति वाली टिप्पणियों से अंतिम रूप से आने वाले निर्णय की निष्पक्षता पर आंशका के बादल स्वयंमेव उभर जाते है, ऐसा ‘‘संशयात्मा विनश्यति‘‘ रूपी परसेप्शन बनना ठीक नहीं है। जिस प्रकार माननीय न्यायालय कानून के दुरूपयोग पर चिंता व्यक्त कर रहा है, उसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों के दुरूपयोग को भी लेकर क्या चिंता उत्पन्न नहीं होती या नहीं होना चाहिए?

उक्त कानून के औचित्य पर उच्चतम न्यायालय ने एक और आधार पर प्रश्न उठाया है कि इस कानून (वास्तव में धारा 124ए) के इतिहास में जाने पर तथ्यात्मक रूप से न्यूनतम मामलों में ही सजा हुई है। मतलब तो फिर इस आधार पर आज के कई अपराधिक कानून व उनकी विभिन्न धाराएं कहीं नहीं ठहरती है, जैसा बलात्कार के मामलों में सजा का प्रतिशत मात्र 30 प्रतिशत के आसपास है। ‘‘एनसीआरबी’’ के अनुसार हमारे देश में अपराध की सजा की दर आधे  से भी कम है। तब क्या उन सबका भी ‘‘विलोपन’’ हो (समाप्ति) जाना चाहिये? फिर ‘‘मुंहबंद कुत्ता क्या शिकार करेगा‘‘? सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 66ए के दुरूपयोग का उदाहरण देते समय माननीय उच्चतम न्यायालय शायद यह भूल गयी कि उक्त अधिनियम की धारा 66ए को स्वयं न्यायालय ने श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ के मामले में असंवैधानिक घोषित किया था। जब कि इसके विपरीत स्वयं उच्चतम न्यायालय धारा 124ए को संवैधानिक रूप से वैध घोषित कर चुका है। 

उच्चतम न्यायालय ने पूर्व में सरकार से भिन्नता रखने व असहमति के विचार को राजद्रोह नहीं है, यह स्पष्ट रूप से निर्धारित कर, निर्णित कर उसके दुरूपयोग की आशंका को स्वयंमेव दूर (निर्मूल) कर दिया था। तब उसे समाप्त करने की सोच ही क्यों उत्पन्न होनी चाहिये? जैसे कि तुर्की की एक कहावत है कि ‘‘कड़े गोश्त के लिये पैने दांत होना जरूरी है‘‘, अतः क्या देश की एकता, अखंडता, सुरक्षा, संप्रभुता व समरसता के लिये आज भी द्रेशद्रोह की धारा 124ए की आवश्यकता नहीं है? खासकर आज भी हमारे ‘‘तंत्र‘‘ में जासूसी से लेकर दुश्मन देशों के प्रति प्रेम लिए देशद्रोह की भावना फलफूल कर दीमक की तरह तंत्र को ख़ोखला करने का प्रयास करते रहते है, तब उन्हे रोकने के लिये देशद्रोह कानून की मौजूदगी जरूरी है। (एक फारसी कहावत के अनुसार ‘‘तुख्मे मुर्ग दुज्द, शुतुर दुज्द मीशे‘‘ अर्थात यदि मुर्गी का अंडा चुराने के लिये कानून नहीं है तो उसे चुराने वाला अंततः एक दिन ऊंट की चोरी जरूर करेगा)। हाँ ब्रिटिश जमाने की देशद्रोह की धारा में स्वाधीन भारत के सम्मान को चोट पहुुचाने वाली यदि कोई बात है, तो उसे अवश्य हटा देना चाहिये। 

देश से बड़ा कोई नहीं और देशद्रोह (राजद्रोह) से बड़ा कोई अपराध नहीं। क्या देश आंतकवाद से मुक्त हो गया है? क्या आंतकवादी का देशद्रोही से कुछ भी संबंध नहीं? आंतकवादी को आश्रय देना, आर्थिक सहायता देना देशद्रोह नहीं है? तब क्या सबसे बड़े अपराध के अपराधी को कानून समाप्त कर निरपराधी बना दिया जाए? वह भी उस स्थिति में जब विद्यमान अन्य किसी कानून में देशद्रोह को अपराध मानने की कोई व्यवस्था/धारा नहीं है। 

माननीय उच्चतम न्यायालय ने स्वयं 1962 में केदारनाथ सिंह विरूद्ध बिहार राज्य के मामलें में धारा 124ए को वैध ठहराया था। अर्थात स्वतंत्रता के पूर्व की दमनकारी धारा (जिसे न्यायालय अभी ठहरा रही हैं) को स्वतंत्रता के पश्चात भी उच्चतम न्यायालय ने न केवल वैध ठहराया, बल्कि उसकी अनुपयोगिता पर तत्समय भी कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया गया। यद्यपि असाधारण अवस्था में ही ‘‘विषस्य विषमौषधर्म‘‘ के समान उसके सीमित उपयोग के बाबत जरूर कहा गया। तब आज उच्चतम न्यायालय की राजद्रोह की धारा की समाप्ति पर उक्त टिप्पणी समयानुकूल नहीं है।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने राजद्रोह को औपनिवेशिक बतलाते हुये उसके अस्तित्व के औचित्य पर टिप्पणी करते समय इस महत्वपूर्ण तथ्य की अनदेखी कर दी की दंड प्रक्रिया संहिता जिसे वर्ष 1861 में पारित और 1862 में लागू किया गया था के बिना भारतीय दंड संहिता (जिसके अंतर्गत ही राजद्रोह की धारा 124ए शामिल है) को कार्यरूप में परिणित नहीं किया जा सकता है, तो भारतीय गणराज्य की संसद ने 1973 में समाप्त कर दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (स्वाधीन देश की आवश्यकता के अनुरूप) पारित कर नया कानून बनाया। लेकिन इसी (1861) के आसपास वर्ष 1860 में पारित भारतीय दंड संहिता को सरकार ने नया दंडात्मक कानून लाने की आवश्यकता महसूस नहीं की। भारतीय दंड संहिता 1860 विश्व की सबसे बड़ी दंडात्मक कानून है, यह जानकर शायद आपको भी आश्चर्य होगा।

अंत में फिल्म ‘‘जब प्यार किसी से होता है’’ में मोहम्मद रफ़ी-लता मंगेशकर का गाया लोकप्रिय गीत ‘‘सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा‘‘ लेख की विषय वस्तु पर बिल्कुल सटीक बैठता है।

गुरुवार, 29 जुलाई 2021

*असंसदीय शब्दों के प्रयोग पर प्रतिबंध। ‘‘माननीयों’’ को पढ़ाया जायेगा ‘‘सभ्यता का पाठ’’।


मध्यप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष गिरीश गौतम ने ‘‘माननीय’’ विधायकों की “बोली संतुलित रहे“, इसके लिये विधानसभा में माननीयों द्वारा अमाननीय, “असंसदीय“ शब्दों के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है। जैसे पप्पू, फेंकू, चोर, झूठा, मूर्ख, नालायक़, बेवक़ूफ़, मामू, मंदबुद्धि, बंटाधार इत्यादि शब्द जैसी कि मीडिया की रिपोर्टिंग है, प्रतिबंधित किये जा रहे हैं। जिस प्रकार देश की सर्वोच्च नियामक संस्था ‘‘लोकसभा’’ में अमर्यादित शब्दों के इस्तेमाल पर पूर्ण रोक लगाई गयी है, उसी तर्ज़ पर मध्यप्रदेश विधानसभा में भी असंसदीय शब्दों के इस्तेमाल पर रोक लगायी जा रही है। विधानसभा सचिवालय द्वारा इन असंसदीय शब्दों को सूचीबद्ध कर एक ‘‘मार्गदर्शिका’’ बनायी जाकर “माननीयों“ को मुहैया करायी जायेगी। यह भी कहा जा रहा है कि 300 शब्दों की डिक्शनरी 3 महीनों के भीतर बनाई जायेगी। साथ ही “माननीयों“ का इस संबंध में प्रशिक्षण वर्ग भी होगा। पर सबसे बड़ा प्रश्न! स्वयं को मार्गदर्शक मानने वाले ‘‘माननीय’’ उनके लिये बनायी गयी मार्गदर्शिका का पालन करेगें? 

सूची में आने वाले शब्दों को “असंसदीय“ कहने की व्याख्या करने के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि क्या इन शब्दों को “असंसदीय“ कह कर विधायिका के बाहर इन अशिष्ट शब्दों को “संरक्षण“ तो नहीं दिया जा रहा है? वह इसलिये क्योंकि इन्हें संसद या विधानसभा के भीतर “असंसदीय“ वर्गीकृत कर संसद या विधानसभा के बाहर ‘‘गुड़ खाकर गुलगुलों से परहेज़’’ करते हुए इन शब्दों के इस्तेमाल करने की खुली छूट रहेगी? सूचीबद्ध होने वाले शब्द जब “अमर्यादित“ हैं और आपको “तमीज़“ सिखाना ही है, तो अमर्यादा, बदतमीज़ी पर प्रतिबंध की अधिकारिक सीमा सिर्फ विधानसभा के अंदर (वेल) तक ही क्यों? इसके उत्तर में ही आपकी (भाजपा की) इन निंदनीय शब्दों पर प्रतिबंध लगाने की वास्तविक ‘नियत’ की ‘नियति’ के दर्शन हो पायेगें?

आश्चर्यजनक बात यह भी है कि इन असंसदीय, अशोभनीय, अपशब्द, अशिष्ट, अमर्यादित, असंवेदनशील, असहनशील, आपत्तिजनक ज़ुमलेबाज़ी जैसे शब्दों का उपयोग ‘‘माननीयों’’ द्वारा न हो सके, वास्तविक रूप से पूर्णतः इन शब्दों को बोलने से रोका जा सके, इसकी कोई प्रभावी, प्रणाली, तंत्र या उपाय, जिसके द्वारा इसे हक़ीक़त में ज़मीनी धरातल पर यथार्थत: उतारा जा सके, की कोई संरचना, प्रारूप, दृष्टि, विज़न स्पीकर ने उक्त कथन के साथ प्रस्तुत नहीं की है। इससे एक अच्छे उद्देश्य का ‘‘दूरस्थाः पर्वताः रम्याः’’ के समान सिर्फ काग़ज़ात पर ही रह जाने का अंदेशा बढ़ जाता है। और यह स्थिति ही अपने आप में एक “ज़ुमलेबाज़ी“ सिध्द हो सकती है, जैसा कि प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ज़ुमलेबाजी के ‘‘मास्टर’’ माने जाते हैं। जिनका मानना है कि ‘‘माल चाहे जैसा भी हो, हांक हमेशा ऊंची लगानी चाहिये’’। वास्तव में इसके लिए कौन से क़ानून व नियम हैं अथवा बनाये जायेगें, जिनका कड़ाई से पालन कर माननीयों को इन शब्दों के प्रयोग से रोका जा सकेगा? स्पीकर द्वारा यह स्पष्ट करना निहायत ज़रूरी है। अन्यथा इन सारी ‘‘उठा-पटक के बाद वही ‘‘बह्वारंभे लघुक्रिया’’ अर्थात ‘‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’’ जैसा अंजाम होगा।

अभी तक की जो परंपरा रही है, उसमें अध्यक्ष को यह विशिष्ट (एक्सक्लूसिव) विवेकाधिकार/विशेषाधिकार होता है कि उनकी नज़र में जो शब्द असंसदीय हैं, उन्हें वह विधानसभा कार्यवाही से निकाल दे। इस प्रकार कार्यवाही में शामिल होकर भी वे शब्द "तकनीकी" रूप से कार्यवाही के भाग नहीं होते है । लेकिन बात वहीं पर आकर सिमट जाती है कि जिस प्रकार एक चमचमाती, सफ़ेद शर्ट में दाग़ लग जाये तब धुलने के बाद दाग़ निकलने के बाद भी हल्के से चिन्ह रह जाते हैं, जो दाग़ लगने की याद हमेशा दिलाते हैं। ठीक उसी प्रकार विधानसभा की कार्यवाहियों में से असंसदीय शब्दों के विलोपन के बावज़ूद उन शब्दों की गूंज बनी रहती है। जिस प्रकार दाग़ के चिन्ह को पूर्णतः समाप्त करने के लिये एक शक्तिशाली डिटर्जेन्ट की ज़रूरत होती है, उसी प्रकार "माननीयों" पर उक्त व्यवस्था प्रभावी रूप से लागू करने के लिए एक स्ट्रांग कड़क व भारी दंड विधान लिये हुए क़ानून की आवश्यकता होगी। साथ ही यदि माननीयों की दी जाने वाली विभिन्न सुविधाएं, अनुलाभ पर अस्थाई रोक लगाकर आर्थिक चोट  पहुंचाने से भी उक्त व्यवस्था प्रभावी रूप से लागू हो सकती है।

प्रश्न यह नहीं है कि "माननीय" कौन से शब्द सदन में बोल पायेंगे अथवा नहीं? बड़ा प्रश्न यह है कि कौन से शब्द "अपशब्द" होकर "असंसदीय" माने जायेगें? और उससे भी बड़ा प्रश्न यह कि ‘‘थूक कर चाटने" जैसी स्थिति के बजाय, अर्थात शब्दबाणों के द्वारा किसी की "पगड़ी उछालकर" और फिर सदन की कार्यवाही के रिकाॅर्ड  से हटाने के बजाय, उनके बोलने पर कड़ी दंडात्मक कार्यवाही अर्थात सदस्यता निलंबन या सदस्यता समाप्ति जैसी कड़ी कार्यवाही का प्रावधान होना चाहिये। तभी क़ानून के डर के माध्यम से प्रभावी रूप से असंसदीय शब्दों को बोलने से रोकने में स्पीकर सफल हो पायेगें। क़ानून बनाते समय सज़ा की व्यवस्था करते हुए उसके पीछे मूल भावना भी यही होती है कि दंड ऐसा हो कि सिर्फ उसके डर से व्यक्ति क़ानून का उल्लघंन करने से डरे और बचे। 

फिर एक और प्रश्न! विधानसभा जो "लोकतंत्र का मंदिर" कहलाता है, वहां तो इन शब्दों के प्रयोग पर रोक लगायी जाती है। परन्तु इन माननीय सदस्यों द्वारा किसी भी अन्य प्लेटफाॅर्म्स, सार्वजनिक स्थलों, टीवी डिबेट्स इत्यादि जगहों पर इनके इस्तेमाल को उचित और सही कैसे ठहराया जा सकता है? सभी जगह पर प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगाया जाना चाहिये? जैसा कि एक फ़ारसी कहावत है ‘‘हर सुख़न मौक़ा व हर नुक़्ता मुक़ामे दारद’’ अर्थात हर वह बात जो किसी एक मौक़े पर ग़लत है, हर मौक़ा व मुक़ाम पर ग़लत होगी। जिस प्रकार कोई अपराध घर में किया जाये, सार्वजनिक या धार्मिक स्थल पर किया जाये, वह प्रत्येक दशा में अपराध ही होता है। साथ ही एक महत्वपूर्ण बात- ग़लत, असंसदीय व अपमानजनक शब्दों के प्रयोग पर यह प्रतिबंध सिर्फ ‘माननीयों‘ के लिए ही क्यों? बल्कि समस्त नागरिकों (जो इन माननीयों को चुनते हैं), के लिये भी क्यों नहीं होना चाहिये? जब वे शब्द ‘‘गाली’’ समान ही हैं।

एक बात और- चोर, मूर्ख नालायक़, बेवक़ूफ़, फेंकू, ये शब्द असंसदीय कैसे हो जाते हैं या हो सकते हैं? वस्तुतः ये समस्त शब्द तो किसी व्यक्ति के गुण-अवगुण या चरित्र को "मापने" का एक "बैरोमीटर" हैं। हाँ, यदि सामने वाले व्यक्ति को यह लगता है कि उसके प्रति तथ्यात्मक रूप से इन ग़लत शब्दों का ग़लत प्रयोग किया गया है, जिससे उसकी मानहानि हो रही हैं, तब वह उस व्यक्ति के विरूद्ध मानहानि के लिये सक्षम न्यायालय में जा सकता है। और हाँ; बंटाधार शब्द असंसदीय कैसे? आपको याद होगा वर्ष 2003 में म.प्र. विधानसभा के चुनाव में सुश्री उमाश्री भारती जी ने प्रथम बार बंटाधार शब्द का उपयोग किया था और वह जनता के बीच इतना चला व लोकप्रिय हुआ कि जनता ने उस एक शब्द के अर्थ को समझकर दिग्विजय सिंह की सरकार का बंटाधार कर उसे चलता कर दिया। और जब शब्द अनर्थ नहीं हुआ, तो असंसदीय कैसे? इस शब्द की उत्पत्ति ‘‘जावली‘‘ (74 बंगले स्थित कार्यालय) में स्व. ‘‘अनिल दवे’’ के नेतृत्व में बनी चुनाव प्रचार की नीति के तहत ही गढ़ी गई थी, ऐसा  कहा और माना जाता था।

         ‘फेंकू’ शब्द को भी इसी प्रकार असंसदीय सीमा में लाना उचित नहीं होगा। क्योंकि जो उंची फेंकता है, अर्थात वास्तविक धरातल के विपरीत हवाई बात करता है, उसी को तो फेंकू कहा जाता है। यह एक  वास्तविकता हैं। नालायक़, बेवक़ूफ़, भी रोज़मर्रा के इस्तेमाल में आने वाले सामान्य प्रचलित शब्द हैं। परन्तु ‘‘पप्पू’’ निश्चित रूप से व्यक्ति विशेष के लिए चिन्हित मीडिया द्वारा गढ़ा हुआ शब्द है। ऐसा परसेप्शन बना दिया है। अन्यथा ‘‘पप्पू’’ शब्द अंससदीय शब्द कैसे हो सकता है। "पप्पू" मंदबुद्धि वाले व्यक्ति के लिये तीन शब्दों को एक शब्द में समाहित कर बनाया हुआ शब्द है। चोर शब्द के लिए जरूर साक्ष्य की आवश्यकता है। लेकिन वह भी असंसदीय शब्द नहीं है। बल्कि वह ग़लत-बयानी हो सकती है और ग़लत-बयानी असंसदीय नहीं कही जा सकती है। इसके लिये दूसरी, आपराधिक कार्यवाही विद्यमान क़ानूनों के तहत की जा सकती है। 

इस मुद्दे पर एक महत्वपूर्ण बात जो छूट गयी है, और जिस पर किसी का ध्यान आकर्षित नहीं हुआ है, वह यह कि माननीयों पर तो असंसदीय शब्द के प्रयोग पर रोक लगा दी गयी है, परन्तु माननीय स्पीकर ही यदि इन शब्दों का प्रयोग करने लगें तब उन पर रोक कौन लगायेगा? इसका सीधा उत्तर फिलहाल यहां पर नहीं है। लोकतंत्र के मन्दिर "विधानसभा" के समस्त सदस्यों (विधायकों) के अधिकार समान  होते है। स्पीकर भी एक विधायक ही होता है। अतः उसके अधिकार, दायित्व व कर्त्तव्य भी एक समान ही हैं। परन्तु स्पीकर को यह विशेषाधिकर अवश्य होता है कि वह सदन की कार्यवाही को किस तरह से चलाये। अतः लोकतन्त्र में यह कल्पना करना कि स्पीकर की आसंदी पर बैठने वाला विधायक अध्यक्ष के रूप में ऐसी ग़लती नहीं करेगा या नहीं कर सकता है, न्यायोचित नहीं होगा। ‘‘किंग्स मेक्स नो मिस्टेक‘‘ अर्थात राजा कोई ग़लती नहीं करता है के  सिंद्धान्त को लोकतंत्र में स्पीकर पर लागू करना एक ख़तरनाक स्थिति होगी। अतः इस उल्लघंन को रोकने की प्रक्रिया भी स्वयं स्पीकर को ही तय करनी चाहिये, जिसे माननीयों की ली जाने वाली क्लास में बताया जाना चाहिये। 

अंत में यह बहुत ही दुर्भाग्य ही नहीं वरन अत्यंत एक शोचनीय स्थित है कि देश के संसदीय/विधायिकी इतिहास के लगभग 75 साल पूर्ण होने वाले हैं, और जिसका ध्येय वाक्य आचार: परमो धर्मः होना चाहिये, बावज़ूद इसके, “माननीयों“ को क्या संसदीय है, और क्या असंसदीय है, यह सिखाने की आवश्यकता अभी भी पड़ रही है। अर्थात “तमीज़“ सिखाने की आवश्यकता पड़ रही है। मतलब बदतमीज़ को तमीज़ सिखाना असंसदीय नहीं कहलायेगा? देश का यह कैसा “परिपक्व“ होता लोकतंत्र है, जो कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाता हैै? वैसे असंसदीय शब्दों के उपयोग पर रोक ‘‘भारतीय संस्कृति’’ की रक्षा में उठाया गया यह क़दम ही माना जायेगा, जिसके संरक्षण एवं संवृद्धि का दावा भाजपा करती आयी है। इस दृष्टि से ‘‘व्यवहारिक’’ रूप में भाजपा को साधुवाद! क्योंकि तकनीकी रूप से तो यह क़दम यद्यपि स्पीकर (जो कि निष्पक्ष एवं दल विहीन होता है) ने उठाया है। परन्तु एक झंडा, एक राष्ट्रभाषा, कर की एक दर इत्यादि का झंडाबरदार होने के कारण भाजपा को भाषा, संस्कृति की सुरक्षा में  उठाये जाने वाले क़दम को विधानसभा के ‘वेल’ से बढ़ाकर कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश में लागू करने का प्रयास करना होगा। क्योंकि संसद व अधिकतर विधानसभाओं में भाजपा का शासन होने के कारण वास्तविकता में पार्टी द्वारा चयनित व्यक्ति ही स्पीकर होते हैं।

यह “लेख“ डीएनएन चैनल पर हुई डिबेट के विषय को लेकर विस्तारित किया गया है, जिसमें मैं भी शामिल हुआ था।

क्या ‘‘वरूण’’ भारतीय राजनीति में (विलुप्त होते) ‘‘गांधीज़’’ (नाम) की परंपरा के खेवनहार ‘‘सिद्ध’’ हो पायेगें।

 

प्रधानमंत्री (2.0) का प्रथम बहुप्रतिक्षित मंत्रिमंडल में जम्बों परिवर्तन व विस्तार काफी इंतजार के बाद अंततः हो गया। समस्त योग्य व राजनैतिक रूप से जरूरी व्यक्तियों का किसी भी मंत्रिमंडलीय फेरबदल में पूर्ण रूप से समावेशीकरण; संवैधानिक सीमाएं और राजनैतिक बाध्यताओं के चलते नहीं हो पाता है, यह एक राजनैतिक व व्यवहारिक कटु सत्य है। यह ‘निष्कर्ष’ सिर्फ वर्तमान में हुये मंत्रिमंडलीय फेरबदल से ही नहीं निकलता है, बल्कि इसका इतिहास काफी पुराने समय से चला आ रहा है। परन्तु इस फेरबदल में एक महत्वपूर्ण लोप (ओमिसन) ‘‘गांधी’’ नाम का जरूर हुआ है। वैसे तो ‘‘गांधीज़’’ नाम का स्वतंत्रता के पूर्व से ही कांग्रेस के पर्यावाची शब्द के रूप मंे हमेशा से जाना व जोड़ा जाता रहा है। वर्तमान में गांधीज़ की पुरानी पीढ़ियों में से कुछ नयी पीढ़ियों की गांधीज़ पंजा छोड़कर कमल का फूल लेकर पंजे से ही दो-दो हाथ करने में लग गये है। इनमें महत्वपूर्ण नाम स्व. संजय गांधी की पत्नि व पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी की छोटी बहु श्रीमति मेनका गांधी व उनके सुपुत्र वरूण गांधी का नाम उल्लेखनीय है। वैसे तो पूर्व में गांध़ी परिवार से रिश्तेदारी की वजह से जुड़े स्व. विजया लक्ष्मी पंडित पूर्व राज्यपाल, (इंदिरा गांधी की बुआ) पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्व. अरूण नेहरू, (इंदिरा गांधी के भतीजे) व कुछ एक अन्य भी कांग्रेस छोड़ जनता पार्टी व भाजपा के साथ जुड़ चुकें थे। महात्मा गांधी की तीसरी-चौथी पीढ़ी का कांग्रेस से मोह भंग होने की प्रक्रिया भी चालू है। किस किस को सम्हालियेगा? जैसे कि ईरान की एक कहावत है, ’’तन हम दाग, दाग सूद, पंबा कुजा नेहाम’’। अर्थात् सब में दाग ही दाग, है कहाँ कहाँ फाया रखूं। 

‘‘गांधीज़’’ नाम की पृष्ठभूमि का विवरण देने के पीछे उद्देश्य मात्र यह कि ‘‘आयरन कट्स आयरन व डायमंड कट्स डायमंड’’ (लोहा-लोहे को, हीरा-हीरे को काटता है) के सिद्धान्त पर ही शायद भाजपा ने मेनका गांधी को भाजपा में शामिल कर केंद्रीय मंत्रिमंडल में  केबीनेट मंत्री बनाया था। लेकिन मोदी 2.0 के मंत्रिमंडल में मेनका गांधी को शामिल नहीं किया गया था। अब जम्बों मंत्रिमंडल की 78 मंत्रियों की सूची भी एक चर्चित गांधी नाम वरूण गांधी का नाम पढ़ने को नहीं मिला। शेष 4 रिक्त स्थान में यदि उनका नाम है तो, उसकी जानकारी फिलहाल जनता को तो है नहीं? मेनका गांधी के द्वारा प्रेस से चर्चा करते समय इस लगातार उपेक्षा पर उनकी झुझलाहट स्पष्ट रूप से झलकती है, जो स्वभाविक व सही भी दिखती है। उनने कथन किया ‘‘हम 600-650 के करीब सांसद है। ऐसे में प्रधानमंत्री कितनों को जगह देगें?’’ यह बयान देते समय वे शायद यह भूल गई कि मोदी 1.0 मंत्रीमंडल में उन्हे स्वयं को इन 600-650 सांसदों में एक मंत्री के रूप में शामिल किया गया था।  

प्रश्न यह कि क्या आज देश में गांध़ी नाम की उपयोगिता व आर्कषण समाप्त हो गया है? राजनैतिक हल्कों में कांग्रेस के रसातल में जाने का एक बड़ा कारण वर्तमान में राहुल गांधी के नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराया जाता है। आज भाजपा में भी गांधी नाम की महत्ता शायद शून्य या समाप्त सी होती जा रही है। एक समय वरूण गंाध़ी भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री हुआ करते थे व उनके उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाने की जोरदार मांग भी उठी थी। आखि़र इस बदलाव (व बदवहास) की स्थिति के पीछे के कारणांे को समझना ज्यादा मुश्किल नहीं होगा। ऐसा लगता है, भाजपा में आने के बावजूद मेनका व वरूण गांधी भाजपा की मेंटर (रीढ़) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जीवत संपर्क नहीं कर पाये, रख पाये। ’’यत्नम विना रत्नम् न लम्यतें’’। भाजपा की राजनीति में धूमकेतू समान बने रहने के लिये आवश्यक इस कटु सत्य को स्वीकार किया जाना चाहिए। 

ताजा उदाहरण आपके सामने अभी नये-नये भाजपा में आये, कभी पुराने जनसंघी रहे स्व. माधवराव सिंधिया (पहला चुनाव ‘जनसंघ’ टिकिट पर ही लड़ा था) के पुत्र एवं जनसंघ को मजबूत आर्थिक आधार देकर जनसंघ को खड़ा व विस्तार करने वाली स्तम्भ राजमाता स्व. विजयाराजे सिंधिया के पौत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया ने शायद अपनी उक्त पृष्ठभूमि के चलते संघ में भाजपा के ’’लाभकारी’’ प्रभाव को अतिशीघ्र समझ लिया। और उसी भाजपा प्रवेश के बाद से ही ‘‘समिधा’’ ‘‘झंडेवालान’’ (केशव कंुज) और ‘‘डां हेडगेवार भवन’’ संघ कार्यालय क्रमशः भोपाल, दिल्ली एवं मुख्यालय के अर्थ व महत्व को समझकर ‘‘दर्शन’’ व दार्शनिक लाभ प्राप्त करना प्रारंभ कर दिया। इसका सुखद परिणाम यह हुआ कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के जहां न केवल उनके समर्थकोें की लम्बी फौज को पार्टी ने सरकार व संगठन मेें विभिन्न पदों से न केवल नवाजा, बल्कि स्वयं उन्हे भी राज्यसभा में भेजकर सरकार में केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री भी बनाया गया। साथ ही महत्वपूर्ण मंत्रिमंडलीय समिमि का सदस्य भी बनाया गया। तात्पर्य यह है कि ’’जिसे पिया चाहे वही सुहगान’’। वैसे मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब ‘‘दीदी’’ (सुश्री उमाश्री भारती) ने ‘‘भाजश’’ बनायी थी व मैं उनकी पार्टी का प्रदेश कोषाध्यक्ष बनाया गया था, तब दीदी बातचीत के दौरान कई बार मुझसे कहती थी ‘‘राजू संघ कार्यालय जाना मत छोड़ना। उन लोगों से विचार विर्मश करते रहना’’।

बात चूंकि ‘‘गांधीज़’’ नाम के भारतीय राजनीति में अस्तित्व को लेकर हो रही थी, वह अभी तो गर्दिश की स्थिति में ही है। वैसे तो हर व्यक्ति की राजनीति में एक निश्चित समयावधि होती है। लोकतंत्र में ‘वंशवाद’ की राजनीति के घोतक एवं पोषक यदि स्वयं या उनके उत्तराधिकारी बदलते समय व परिस्थितियों के अनुसार अपने को नहीं बदल पाते है, तो उनके अस्तित्वहीन का होना खतरा भी लगभग तय सरीका ही है। एक अमेरिकी कहावत के अनुसार ’’हमारी पहचान हमेंशा हमारे द्वारा छोडी गई उपलब्धियों से होती हैै। इसका मतलब यह नही कि ‘‘मेरा पिता ने घी खाया था तो मेरे हाथ सूंधो’’। गांधीज़ नाम के साथ शायद ऐसा ही हो रहा है। क्या यह संभव है कि कांग्रेस में भाजपाई गांधी वापसी होकर कांग्रेस हाईकमान ‘गांध़ी’ का परस्पर नेतृत्व बदला दे? अर्थात ‘वरूण’ गांधी को नेतृत्व सौंप दिया जाए। ’’एक तवे की रोटी, क्या पतली क्या मोटी’’। यद्यपि यह एक बहुत दूर की कौडी है। लेकिन राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता है, ऐसा माना जाता है। 

वरूण गांधी की भाजपा में उपेक्षा के कारण घर वापसी की बात तो मीडिया में व राजनैतिक हलको में चर्चा में है। जब भाजपा में  पंजा छाप भाजपाईयों को मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री, राज्यपाल व महत्वपूर्ण पदों से नवाजा जा सकता है तो, कांग्रेस नेतृत्व इस दिशा में अपनी आंख क्यों नहीं खोलता है? खोलना चाहता है? ताकि वह भी अपने पुराने पंजाइयों को भी नेतृत्व दे सके, प्रतिष्ठित कर सके। वैसे कमल छाप कांग्रेसीयों की स्थिति कांग्रेस में बहुत कम है। राजनीति में कहा भी जाता है ‘‘द बेस्ट डिफेंस इज़ ए गुड़ आफेंस’’। इसी को फारसी में कहा जाता हैं कि ‘‘अवसर पर दुश्मन को न लगाया जाए थप्पड़ अपने ही मुँह पर लगता हैं’’। लेकिन कांग्रेस इस मामले में भी फिसड़ी ही साबित हुई है। अतंतः जब तक इस देश के राष्ट्रीय पटल पर कोई विपक्ष की भूमिका निभाने के लिये वात्तविक रूप में राष्ट्रीय पार्टी उभर कर सामने नहीं आती है, तब तक तो विपक्ष के नाम पर कांग्रेस को ही ढ़ोना मजबूरी होगी। 

मजबूत व सफल लोकतंत्र में एक पार्टी के अधिनायकवाद से मजबूत व सक्षम विपक्ष ही निपट सकता है। परन्तु वर्तमान में विपक्ष के नाम पर देश में लगभग शून्य की स्थिति है। यह देश के लोकतंत्र के लिये यह एक खतरे की घंटी है। शायद इसीलिए भाजपा खासकर संघ को इस बात पर सोचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है कि वह ही अप्रत्यक्ष रूप से विपक्ष का रोल भी प्रभावी व बखूबी अदा करें। सरकार के स्तर पर, पार्टी के स्तर पर भाजपा द्वारा जो भी जन विरोधी नीति, कार्यक्रम व गलतियां हो रही है, चुनावी वादे धरातल पर पूरे नहीं उतर पा रहे है या नीति’ असफल सिद्ध हो रही है अथवा आम जनता सरकार की कार्यप्रणाली से संतुष्ट नहीं है। इन सब कारणों से उत्पन्न नाराजगी व असंतोष से विपक्ष के मजबूत न होने के कारण अंततः स्वयं जनता द्वारा उक्त नाराजगी को झेलने की आशंका के कारण उत्पन्न स्थिति भाजपा व संघ के नियत्रंण से बाहर हो सकती है। आखिर ’’खलक का हलक कौन बंद कर सकता हैं?’’

इसलिए ‘‘संघ’’ ने विभिन्न अनुषांगिक क्षेत्रों में कार्य करने के लिये अनेक संगठन खड़े किये है। किसानों के बीच काम करने वाला ‘‘भारतीय किसान संघ’’, मजदूरों के बीच ‘‘भारतीय मजदूर संघ’’, शिक्षकों के बीच ‘‘शिक्षकों संघ’’ ‘‘स्वदेशी जागरण मंच’’, ‘‘विहिप’’ आदि ऐसे अनेक अनुषांगिक संगठन है, जो जनता के विरोध व मूड़ को भाँपकर विरोध का नेतृत्व अपने हाथों में लेकर ’’सेफ्टी वाल्व’’ के समान स्थिति को अपने नियत्रंण में करते है, कर रहे है व करने का प्रयास करते है। अन्यथा मजबूत विपक्ष के अभाव में व अन्य कोई नेतृत्व न होने की स्थिति में जनक्रांति जैसा जेपी आंदोलन के समय जिस प्रकार की जन क्रांति व जन आंदोलन उत्पन्न हुआ था, वैसा उत्पन्न होने का खतरा भाजपा के सामने हमेशा बना रहेगा। इस पर भी नागरिकों व पाटियों को गहराई से सोचने की आवश्यकता है। और आज जब गांधीज़ समाप्ति की ओर है, तब 1947 के पहले के गांधी की पुनरावतारित करने की कल्पना करना आसान नहीं, बल्कि बेमानी होगी?

शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

मंत्रिमंडल का विस्तार! ‘‘एक तीर’’ ‘‘कई निशाने’’

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वितीय कार्यकाल के लगभग 2 साल का समय व्यतीत हो जाने के पश्चात बहुप्रतिक्षित मंत्रिमंडल का जम्बों विस्तार व ऐतिहासिक बदलाव व परिवर्तन आखिरकार हो ही गया। यद्यपि “परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है“ किन्तु विभिन्न राज्यों के चुनावों व ख़ासकर कोविड-19 के पहले व दूसरे दौर की स्थिति के चलते न केवल मंत्रिमंडल विस्तार में देरी हुई, बल्कि इन्हीं पस्थितियों ने मंत्रिमंडल विस्तार को अन्तिम रूप से कार्यरूप में परिणित करने में भी मजबूर किया। अर्थात साध्य (उद्देश्य) व साधन (कारण) एक ही हो गये। मंत्रिमंडल के विस्तार व समय से यह साफ झलकता है कि “काले खलु समारब्धाः फलम् बध्नन्ति नीतयः“। आइए एक तीर से कई निशाने कैसे साधे गये, इसका अध्ययन कर लिया जाएः-

1. स्वाधीन भारत के इतिहास में शायद अभी तक का यह सबसे बड़ा एवं अभूतपूर्व मंत्रिमंडल-विस्तार व परिवर्तन है। जहाँ कुल 43 मंत्रियों ने शपथ ली, व 12 मंत्रियों से इस्तीफे लिये गये, 36 नए मंत्री बनाए गए, 7 राज्यमंत्री को पदोन्न्त कर केबीनेट मंत्री बनाया गया। इस प्रकार अब मंत्रिमंडल की कुल सदस्य संख्या 78 हो गयी है, जिसमें 28 राज्यमंत्री हैं। 4 मंत्री संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार अभी भी और बनाये जा सकते है। 

2. मंत्रिमंडल की लगभग पूरी काया कल्प बदलकर सिर्फ तात्कालिक लाभ के लिये नहीं, बल्कि दीर्घकालीन योजना के तहत अर्थात वर्ष 2022, 23 व 24 में होने वाले राज्यों के चुनावों व देश के आम चुनाव में उतरने की नीति को अभी से ही इस मंत्रिमंडल के विस्तार में ध्यान में रखा गया है। “टुमारो नेवर कम्स“ की नीति का पालन करते हुए तीन साल का इंतज़ार करने की बजाय आज ही सरकार का स्वरूप काफी हद तक जरूरत के अनुरूप बदल दिया गया है। 

3. इस मंत्रिमंडल विस्तार में 24 प्रदेशों को प्रतिनिधित्व दिया गया हैं। इससे ज्यादा प्रतिनिधित्व 26 प्रदेशों का वर्ष 1991 में पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव के मंत्रिमंडल में हुआ था। 

4. इस मंत्रिमंडल विस्तार के द्वारा आगामी 5 प्रदेशों में खासकर उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनावों को साधने की मंशा भी पहली नज़र में स्पष्ट रूप से झलकती हैं।

5. 24 प्रदेश को ही नहीं, बल्कि विभिन्न प्रदेशों के विभिन्न अंचलों को भी राजनैतिक दृष्टि से प्रतिनिधित्व देने का अधिकतम पूर्ण प्रयास किया गया। अर्थात् अवध, पूर्वांचल, बृज, बुन्देलखण्ड, चम्बल आदि। 

6. एनडीए के नाराज साथियों (पार्टियों) जैसे “अपना दल“ को भी “साधा गया“ जो मोदी (प्रथम) 1.0 मंत्रिमंडल में शामिल था। दूसरे कार्यकाल (2.0) के मंत्रिमंडल में जेडीयू के मंत्रिमंडल में प्रवेश से इंकार (सिर्फ एक मंत्री को बनाने के कारण) का कड़ा जवाब सिर्फ एक मंत्री को ही शामिल कर दिया गया।

7. “अटका बनिया देय उधार“ की तर्ज़ पर पहली बार 5 अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व दिया गया, जिसमें एक मुस्लिम, एक क्रिश्चन, दो बौद्व व एक सिक्ख शामिल हैं। 

8. सिर्फ विभिन्न प्रदेशों, क्षेत्रों को ही नहीं साधा गया, बल्कि विभिन्न जातियों को भी सफलता पूर्वक साधने का प्रयास किया गया। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछडा वर्ग, पिछड़ी जातियों में भी अति पिछड़ी विभिन्न जातियों को विस्तारित प्रतिनिधित्व दिया गया। जो इसके पूर्व इस सीमा तक कभी नहीं हुआ। इस प्रकार “हाथी के पांव में सबके पांव के लिये जगह“ रखी गयी है।

9. “तेजसाम् हि न वयः समीक्ष्यते“ अर्थात योग्य की उम्र नहीं देखी जाती, इस उक्ति को चरितार्थ करते हुए उम्र की दृष्टि से भी यह अभी तक सबसे युवा मंत्रिमंडल है, जिसकी औसत आयु 60 वर्ष से घटाकर 58 वर्ष हो गई हैं।

10. कुल 11 महिलाओं (9 राज्य मंत्रियों सहित) को भी प्रतिनिधित्व दिया गया, जो पहले किसी भी कांग्रेसी मंत्रिमंडल में नहीं दिया गया था। (यद्यपि अटल बिहारी बाजपेई की सरकार में 11 महिलाएं अवश्य शामिल थी।)

11. शिक्षा के हिसाब से भी यह अभी तक का सबसे पढ़ा-लिखा मंत्रिमंडल है, जिसमें, 6 डॉक्टर्स, 5 इंजीनियर्स,1 सीए, 13 वकील, 7 पीएचडी, 3 एमबीए, 7 पूर्व नौकर शाह व पूर्व राजनायिक शेष 37 स्नातक शामिल हैं।  

12. यह बात भी स्पष्ट सी दिखती हैं कि इस मंत्रिमंडल में शायद एक भी आरोपी अपराधी राजनीतिज्ञ को शामिल नहीं किया गया हैं। (राजनीतिक आंदोलनों में भाग लेने के कारण अपराध पंजीयत किये जाने वाले मामलों को छोड़कर)। 

13. ‘‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’’ का आकर्षक नारा देने वाले प्रधानमंत्री ने इस विस्तार के द्वारा अपने उक्त नारे को सही ठहराया हैं। वही उनके विपक्षी प्रधानमन्त्री पर एक देश एक भाषा एक संस्कृति की बात करने वाली भाजपा पर राजनैतिक दृष्टि से उसमें जातिवाद व क्षेत्रवाद को साधने की राजनीति करने का आरोप लगा सकते हैं।

14. कहते हैं कि “आशा बड़ी मायावी होती है“ शायद इसी उक्ति को ध्यान में रखते हुए मंत्रिमंडल के 4 पद रिक्त रखकर राजनैतिक कौशल व चार्तुय दिखाते हुये ज्यादा राजनैतिक महत्वकांक्षी व्यक्तियों की राजनैतिक हुंकार को भविष्य में साधने के प्रयास करने के भी संकेत दिये गए है। 

15. इस विस्तार से देश का सबसे बड़ा व महत्वपूर्ण प्रदेश जहां अगले वर्ष चुनाव होने वाले हैं, और जहां से होकर ही केंद्र की सत्ता तक पहुंचा जा सकता है, ऐसा माना जाता है, वह उत्तर प्रदेश “उत्तम“ बन गया। वहीं बुद्ध के अष्टांगयोग के मध्यमा प्रतिपद का अनुसरण करते हुए मेरा मध्य प्रदेश “मध्य“ में ही रह गया।

16. यह विस्तार की प्रक्रिया एक दम से एक साथ न किया जाकर धीरे धीरे की गयी। अर्थात् पूरे मंत्रिमंडल के परिवर्तन की राजनैतिक क़वायद की भूमिका से लेकर धरातल में उतारने तक को बहुत अच्छे तरीके से धीरे-धीरे बूंद टपकाने के समान (एक साथ पूरा ग्लास उलट समान नहीं) किया गया। जरा दिमाग पर जोर डालिये। 12 मंत्रियों के इस्तीफे एक साथ न आकर एक-एक करके गुजरते-गुजरते समय के गुजरने के साथ-साथ आते गये।

17. इस विस्तार का एक संदेश यह भी है कि प्रभावी दल बदलूओं को भी पुरस्कृत किया गया है। (जैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया)। अर्थात् भविष्य में मजबूत “लाभदायक दल बदल’ की संभावनाएं को पद के आर्कषण के द्वारा बरकरार “जिंदा“ रखा गया है। “क्योंकि सत्ता के भूखे बाग़ी ही सत्ता परिवर्तन में क्रांतिकारी भूमिका निभाते हैं“।

18. “हनुमान“ (चिराग पासवान) की जगह “विभीषण“ (पशुपति नाथ पारस) को देकर नरेन्द्र मोदी ने ‘राम’ का नया रूप दिखाया है। क्योंकि ‘‘राम’’ ने तो हनुमान के साथ-साथ विभीषण की सहायता से रावण का वध किया था। शायद वर्तमान में उनके सामने उपस्थित रावण उतना सक्षम नहीं है, जिसके लिये हनुमान की भी आवश्यकता हो। यह भी हो सकता है कि वर्तमान हनुमान अपने को पूर्ण रूप से राम भक्त सिद्ध नहीं कर पाये हो। और पारस की “पारसमणि“ के द्वारा, बिना ‘हनुमान’ के ही उद्देश्य पूर्ण हो गया।    

19. इस राजनैतिक सर्जिकल स्ट्राइक (नरेन्द्र मोदी का सर्जिकल स्ट्राइक शब्द से बहुत प्रेम है) के द्वारा यह संदेश पूरी तरह से सफलता पूर्वक दिया गया कि “उल्लेखनीय प्रर्दशन“ (कार्य) करने वाले मंत्रियों को पुरस्कृत किया जाकर पदोन्नत किया गया और उन्हे अच्छे विभागों से “नवाजा“ भी गया। विपरीत इसके (बैंक के एनपीए के समान) अक्षम, अकर्मण्य, “हरफ़न मौला हरफ़न अधूरा“ वाले मंत्रियों को हटा दिया गया।

20. उम्रदराज़ी के कारण मंत्रिमंडल से रिटायर कर (थावरचंद गहलोत को) राज्यपाल के रूप में रिहैब्लिटेट (पुर्नवास) कर दिया, जहाँ सामान्यतः ऐसे ही वरिष्ठ राजनैतिज्ञों को “चयनित“ किया जाता है।

21.’सादगी पर अकर्मण्यता’ (आफिस न जाना) भारी पड़ी, शायद प्रताप सारंगी को इसी कारण से मंत्री पद से हटाया गया। 

22. “इस्तेमाल करो व फेंको“ की राजनीति का भी कुछ संकेत इस परिवर्तन में दिखता है। पश्चिम-बंगाल के देवश्री व बाबुल सुप्रीयों का हटाया जाना शायद इसी नीति का परिचायक है। 

23. वर्ष 2014 में पहली बार मंत्रिमंडल गठित करते समय नरेन्द्र मोदी ने जो नारा “मिनिमम गवर्नमेंट मैक्जिमम गवर्नेंस“ का दिया था, वह जरूर तकनीकी रूप से इस बड़े विस्तार से ध्वस्त होता हुआ दिखता है। मनमोहन सिंह पर तंज कसते हुए “हार्वर्ड बनाम हार्डवर्क“ कहने वाले नरेन्द्र मोदी को अपने मंत्रिमंडल में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़े दो मंत्रियों ज्योतिरादित्य सिंधिया व राजीव चंद्रशेखर को शामिल करना पड़ गया। निषाद पार्टी को भी नरेन्द्र मोदी समायोजित नहीं कर पाये। 

24. अन्त में, जितनी हाइलाईट्स, हेडलाईंस इस मंत्रिमंडल विस्तार को मिली जो पूर्व में शायद कभी नहीं मिली और यही प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के कार्य करने की विशिष्ट शैली भी हैं। “जो होम करते हाथ नहीं जलने देती“।


बुधवार, 7 जुलाई 2021

‘‘भागवत अमृत वाणी‘‘। प्रत्युत्तर। ‘‘मायावती‘‘

‘‘मुंह में राम, बगल में छुरी‘‘।‘‘कथनी-करनी में अन्तर‘‘!  

‘‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ‘‘ के प्रमुख मोहन भागवत ने गाजियाबाद में ‘‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच‘‘ के कार्यक्रम में मुस्लिम लेखक की किताब ‘‘मींटिग ऑफ मांइड ए ब्रिजिंग इनेशिएटिव’’ की लांचिंग के अवसर पर हिन्दुत्व के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण बातें कही। ‘‘हिंदू मुस्लिम अलग नहीं।‘‘ ‘‘सभी भारतीयों का ‘डीएनए‘ एक है‘‘। ‘‘जो लोग चाहते है कि ‘‘मुसलमान यहां नहीं रहे, वे सच्चे हिन्दु नहीं हैं‘‘। और ‘‘लिंचिंग‘‘ ‘हिन्दुत्व’ विरोधी है।‘‘ लेकिन जैसी कि उक्ति है,“अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः“ अर्थात अप्रिय किंतु परिणाम में हितकर बात कहने और सुनने वाले दुर्लभ ही होते हैं। इन कथनों पर एक ‘‘भूचाल‘‘ सा आ गया और विभिन्न क्षेत्रों से विभिन्न व्यक्तियों की कड़ी प्रतिक्रियाए सामने आयी हैं।

इसी कड़ी में शामिल “बहुजन समाज पार्टी“ (बीएसपी) की अध्यक्षा ‘‘सुप्रीमों’’ सुश्री मायावती ने बाकायदा बुलाई गई एक पत्रकार वार्ता में उपरोक्त बयान जारी कर मोहन भागवत जी के उपरोक्त कथन की कड़ी आलोचना की, जो स्वाभाविक रूप से होनी ही थी। परंतु शायद अनजाने में मायावती ने कुछ सीमा तक यह सही कथन किया कि भागवत जी के “मुंह में राम और बगल में छुरी“। कैसे! सरसंघचालक की दृष्टि में भगवान ‘‘राम‘‘ का नाम मुंह से बोल देने से, व्यक्त कर देने से ही इस देश की समस्याएं धीरे-धीरे सुलझेगीं। वह इसलिए कि राम नाम जपने से आपके मन में उनके “आदर्श जीवन“ व सर्वहारा गुणों की ओर किंचित चलने का भाव अवश्य पैदा होगा। इसलिए उनके मुंह में ‘‘राम‘‘ है, जिसे मायावती ने सही पहचाना।
 जहां तक ‘‘बगल में छुरी‘‘ का प्रश्न है, वह उन लोगों के लिए है, जो राम को न तो पूर्ण रूप से जानते हैं, और न ही उन्हें मानते हैं। जैसा कि कहा भी गया है कि “बूढ़े तोते राम नाम नहीं पढ़ते“। इसलिए वे उनके नाम के “अप्रतिम“ प्रभाव से अपरिचित हैं। ऐसे लोगों को “छुरी“ (तलवार) की ड़र से ही उन्हें देश के मान, सम्मान, आत्मसम्मान, अखंडता और स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने की ओर मोड़ा जा सकता है, जो ‘राम भाव‘ में पूर्ण रूप से निहित हैं। परंतु यहा पर मायावती की स्थिति दूसरी है ! अर्थात ‘‘मुंह में छुरी‘‘ (राम नहीं) और बगल में राम वाली स्थिति है, जो कम से कम भागवत जी की नहीं है, जिसका प्रमाण पत्र स्वयं मायावती ने ही ’आरोप’ लगा कर दे दिया हैं। अर्थात “करघा छोड़ तमाशा जाय, नाहक चोट जुलाहा खाय“ वाली स्थिति मायावती ने स्वयं की कर ली है।
जहां तक ‘‘कथनी और करनी में अन्तर हैं‘‘ का प्रश्न है, जिसे दिग्विजय सिंह ने भी उठाया है। यह प्रश्न भी उसी व्यक्ति या संस्था, संगठन के लिए उठाया जा सकता है, जो कुछ करता हैं अथवा करने का प्रयास करता है। चूंकि मायावती को भारत रत्न डॉ भीमराव अम्बेडकर के नाम पर तथाकथित “देश सेवा“ के नाम पर दलितों की सिर्फ राजनीति ही करना हैं। इसलिए देश के लिए कुछ करने का जज्बा न होने के कारण कथनी और करनी के अन्तर को समझना उनके लिए थोड़ा मुश्किल है। कुछ करने वाला, कुछ करने की सोच रखने वाला व्यक्ति ही कथनी-करनी के अन्तर को समझ सकता हैं। अन्यो के बारे में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि “न तीन में न तेरह में, मृदंग बजावे डेरा में“। ये लोग सिर्फ जुमलेबाजी ही कर सकते हैं। यह सब जानते है कि सरसंघचालक जी जुमलेबाजी में विश्वास नही रखते हैं। वे जो कहते हैं वह करने का प्रयास करते हैं, और करते हैं। अनुच्छेद 370 की समाप्ति का (अप्रत्यक्ष) उदाहरण आपके सामने हैं। अतः कथनी-करनी में जो अन्तर दिखता हैं, वह वास्तव में अन्तर न होकर कार्य करने के प्रयास में लगने वाला समय है, (70 साल मेें जो नहीं हुआ वह 7 साल में हो गया; अनुच्छेद 370 की समाप्ति) जिसे कथनी-करनी का अन्तर कह दिया जाता है। सुश्री मायावती और दिग्विजय सिंह सहित हर राजनेता को कम से कम इस सिद्वान्त का पालन अवश्य करना चाहिए कि जो स्वयं “कॉॅच के घर में रहते है“, और यदि उनकी नजर में उनके विपक्षी भी ‘‘कॉच के घर‘‘ में रहते हैं, तो उन्हें विपक्षियों पर पत्थर मारने का “नैतिक या बौद्विक“ आधार नही मिल जाता हैैं।
मायावती के इन कथनों में कितनी असत्यता व विरोधाभास है, इसे आगे समझा जा सकता हैं। एक तरफ मायावती कहती है कि ‘‘आरएसएस के बिना बीजेपी का अस्तित्व बिलकुल भी नही हैं‘‘ और दूसरी तरफ कहती हैं ‘‘बसपा हमेंशा से ही ‘संघ‘ की (भाजपा की नहीं) नीतियों का विरोध करती रही हैं।‘‘ क्या वे यह भूल गई है कि उत्तरप्रदेश जो देश का सबसे बड़ा राज्य हैं, जहां से होकर ही सामान्यतः देश का शीर्षर्स्थ नेतृत्व तय होता हैं, उस उत्तरप्रदेश में भाजपा के साथ मिलकर ही उन्होनें (वर्ष 1995 में) सरकार बनाई थी।(कालस्य कुटिला गतिः!!) तब क्या तत्समय भाजपा का अस्तित्व आरएसएस के बिना था? संघ क्या वर्ष 1995 के बाद अस्तित्व में आया? यह बेहतर रूप से मायावती ही बता सकती हैं? कथनी व करनी का आरोप जो वह लगा रही है, वास्तव में यह उनका स्वयं का ही चरित्र हैं, जो उपरोक्त उदाहरण से स्वयंसिद्व हैं। मायावती का उक्त कथनी-करनी के अन्तर के चरित्र का होना यह आरोप मात्र नही हैं, बल्कि सत्ता के लिए सिद्वान्तहीन राजनीति का उनके चरित्र का सबसे बडा उदाहरण हैैं।
मोहन भागवतजी के बयान को अविश्वसनीय ठहराते समय मायावती स्वयं उक्त कथन के ‘‘भावार्थ’’ व संभावित परिणाम की सत्यता से शायद परेशान हो गई, ऐसा लगता है। संघ के प्रति उनके पूर्वागृह के कारण अविश्वसनीय लगना बतलाना उनकी मनःस्थिति को ही दर्शाता हैं परन्तु यदि उक्त बयान भविष्य में ‘‘अविश्वसनीय से विश्वसनीय’’ हो गया अर्थात विश्वास पर खरा उतर गया तब? मायावती सहित समस्त विरोधियांे की जमीन ही खिसक जायेगी। यही “भई गति सांप छछूंदति केरी“ जैसी स्थिति वाली बात ’एआईएमएएम’ के अध्यक्ष प्रमुख असदुद्दीन औवेसी, ‘‘तुष्टीकरण के महान पोषक‘‘ वरिष्ठ कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह और अन्य नेताओ द्वारा मोहन भागवत के बयान पर दी गई प्रतिक्रियाओं पर अंग्रेज़ी की एक प्रोवर्ब “बर्ड्स ऑफ द सेम फीदर फ़्लॉक टुगेदर“, सटीक लागू होती है।
मुसलमानों के प्रति संघ प्रमुख की सद्भावना के भाव से दिग्विजय सिंह और मायावती को शायद बहुत कष्ट हो गया कि उक्त भाव कों उन्होनें अपने राजनीतिक क्षेत्र में अनाधिकृत “अतिक्रमण“ मान लिया। क्योंकि महा तुष्टीकरण की नीति के साथ मुसलिम वर्ग जिस पर वे अपने एकाधिकार का भ्रम पाले हुयें हैं, के अंह पर “चोट“   और तथाकथित बनाई गई घोर मुस्लिम विरोधी संघ की छवि की संघ प्रमुख द्वारा की गई उक्त मरहम पट्टी ने उन्हें शायद सातवें आश्चर्य में डाल दिया। दिग्गी राजा को राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के नेता महाराष्ट्र के मंत्री नवाब मलिक की प्रतिक्रिया से तो कुछ सदबुद्वि अवश्य लेनी चाहिए, जहां उन्होनें कहा कि ‘‘यदि भागवत जी का ह्रदय बदल रहा तो हम उसका स्वागत करते हैं।‘‘ यही बात दिल्ली के पूर्व गवर्नर नजीब जंग ने भी कही हैं। यद्यपि यहा नवाब मलिक शायद कुछ गलत हैं, क्योंकि ‘मोहन‘ ने हिन्दुत्व की कोई नई परिभाषा नहीं गढी, वे तो पूर्व से ही यही भाव लिए हुए दूसरे शब्द विन्यासों के द्वारा यह कहते चले आ रहे है। लेकिन अब की बार प्रभावशाली आकर्षित करने वाले “शब्दो“ के भाव शायद नवाब मलिक को मनमोहित कर गए। ’मन मोहन‘‘ (सिंह) वाले (कांग्रेस की अंगूठी के नगीने) दिग्विजय सिंह “दिग्गी राजा“ के ‘मन‘ को भी शायद संघ प्रमुख का अगला कथन “भा“ जाए? ताकि वे भी भागवतजी के प्रशंसक हो जायेगें? जैसा उन्हें तंज कसते हुये कहां। “देशहित“ में इन्ही आशाओं के साथ!


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