शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024

‘‘एक देश एक चुनाव’’!

 ‘‘बुनियादी ढांचे में परिवर्तन’’ या  ‘‘पुर्नस्थापना’’? ‘‘संघीय ढांचे पर अतिक्रमण’’ कैसे?

प्रधानमंत्री मोदी की पहल

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहली बार 73वें स्वाधीनता दिवस (वर्ष 2019) के अवसर पर ‘‘लाल किले’’ से संबोधित करते हुए देश को ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ ‘‘एक देश एक चुनाव’’ का एक ‘‘वैचारिक उपक्रम’’ दिया। इस संबंध में वर्ष 1983 से ही भिन्न-भिन्न समयों में चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग एवं संविधान समीक्षा आयोग विचार कर चुके हैं। पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की अध्यक्षता में एक वर्ष पूर्व (सितम्बर 2023 में) गठित कमेटी की रिपोर्ट की सिफारिशों को कैबिनेट ने रूबरू स्वीकार भी कर लिया है। इस पर देश का ‘‘अभिमत’’ लगभग सीधा-सीधा पक्ष-विपक्ष में विभाजित है। कई लेख, आलेख, चर्चा-बहस, बयान, तर्क-कुतर्क पक्ष-विपक्ष में आ चुके हैं। लगा था कि इस विषय पर लिखने के लिए ‘‘अलग’’ से रह क्या गया है? परन् जब मैं  इस विषय पर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी, स्वराज इंडिया पार्टी के अध्यक्ष  योगें द्र यादव व प्रसिद्ध यूट्यूबर, ध्रुव राठी के विचारों को पढ़-सुन रहा था, तब मुझे लगा कि इस विषय पर जो एक महत्वपूर्ण बिंदु है, ‘‘क्या इससे संविधान के मूलभूत (बुनियादी) ढांचा (उच्चतम न्यायालय द्वारा केशवानंद भारती में प्रतिपादित) में परिवर्तन होगा अथवा यह संघीय ढांचे पर अतिक्रमण है’’? वस्तुतः इसकी व्याख्या व आलोचना गलत रूप से की जा रही है। इस संबंध में गले से गले मिलाते हुए राहुल गांधी का ट्वीट है ‘‘भारत राज्यों का एक संघ है’’। ‘‘एक देश-एक चुनाव’’ संघ और इसके सभी राज्य पर हमला है’’। ऐसी स्थिति में इस बिंदु पर वर्ष 1950 से लागू संघीय संवैधानिक व्यवस्थाओं वह उसके अंतर्गत हो रहे चुनावों को ध्यान में रखकर प्रकाश डालना जरूरी हो गया है। 

‘एक देश-एक चुनाव’ की जरूरत क्यों?

बेशक यह मुद्दा आज बहस के केंद्र में है। परन्तु स्वाधीन भारत के प्रारंभिक चरणों में वर्ष 1952 से 1967 तक हुए चार आम चुनावों में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ ही करवाए गए थे (एक अपवाद को छोड़कर जब वर्ष 1960 में केरल विधानसभा के मध्यावधि चुनाव कराने से यह क्रम पहली बार टूटा)। एक साथ चुनाव कराने का लगातार क्रम तब टूटा, जब वर्ष 1968-69 में व उसके बाद समय-समय पर विभिन्न राज्यों की विधानसभाएँ भिन्न-भिन्न कारणों से समय से पूर्व भंग कर दी गईं। बड़े पैमाने पर वर्ष 1969 में कांग्रेस पार्टी में विभाजन होने से देश में वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी द्वारा गरीब हटाओ  का नारा देकर पहली बार लोकसभा चुनाव भी समय से पहले कराये गए थे। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब चार बार एक साथ चुनाव पहले भी करवाए जा चुके हैं, तो अब पुनः उक्त स्थिति को पुनर्स्थापित करने में समस्या क्या है?

‘चुनाव’’ ही लोकतंत्र का सबसे बड़ा ‘‘उत्सव’’ है

अगर हम देश में होने वाले चुनावों पर वर्तमान में नजर डालें, तो पाते हैं कि  हर वर्ष किन्हीं राज्यों में चुनाव होते ही रहते हैं। परंतु यह कथन भी पूरी तरह से सही नहीं है कि इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं, बल्कि देश के खजाने पर भी भारी बोझ पड़ता है। सेंट्रल फार मीडिया स्टडीज के एक अध्ययन के अनुसार हाल ही में हुए 18 वीं लोकसभा के चुनाव में एक लाख करोड़ रुपए से अधिक का खर्च आया और लगभग तीन महीने तक देश चुनावी मोड में रहा। एक हनुमान के अनुसार भारत की कुल 4120 विधानसभाओं के एक साथ चुनाव लोकसभा के साथ कराने पर लगभग 3 लाख करोड रुपए से अधिक का खर्चा आएगा l वैसे ओपी रावत पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त के अनुसार भारत का चुनाव विश्व भर में सबसे सस्ता चुनाव है। 1 अमेरिकी डॉलर प्रति वोटर के हिसाब से खर्च होता है। तब फिर राजनीतिक पार्टियों द्वारा किए गए खर्चों की सीमा क्यों नहीं बांधी जाती है? जो उम्मीदवारों द्वारा किए गए खर्चों से कई गुना ज्यादा होती है जो जो उपरोक्त उल्लेखित खर्चे में शामिल नहीं है। आचार संहिता लागू होने पर सिर्फ "नई नीति" की घोषणा नहीं की जा सकती है।  वह भी जरूर यदि जनहित में अति आवश्यक हो तो चुनाव आयोग की अनुमति से की जा सकती है। आचार संहिता में में भी आवश्यक संशोधन करके सरकार के दैनिक कार्यों में लगे अनावश्यक अंकुश को कम किया जा सकता है। इसलिए इस आधार पर एक साथ चुनाव की वकालत तथ्यात्मक नहीं है। विशेष कर इस बात को देखते हुए कि  ‘‘चुनाव’’ का ‘ड़र’ ही तो जनप्रतिनिधियों को जनता-जर्नादन के साथ जीवंत सर्म्पक व उनके निकट लाता है। 

भाजपा की वैचारिक पहचान

‘‘जनसंघ’’ से लेकर भाजपा और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का एक सपना रहा है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक, ‘‘विविधता में अनेकता लिये हुए’’ भारत देश की अखंडता को एक सूत्र में बांधने के लिए ‘‘एक देश-एक प्रधान", "एक विधान’’ ‘‘एक निशान’’, ‘‘एक मोबिलिटी कार्ड, (एनसीएमसी)’’ एक पहचान (आधार कार्ड) ‘‘एक राशन कार्ड’’, ‘‘एक कर’’, ‘‘एक शिक्षा नीति’’, एवं एक देश-एक ग्रिड’’ का होना आवश्यक है। इसी कड़ी में एक देश-एक चुनाव की नीति पर मोदी सरकार लगातार काम कर रही है। इसके पटल (काउंटर) में विपक्षी नेताओं ने वन नेशन-वन इनकम, वन एजुकेशन, वन इलाज का शिगूफा छोड़ दिया है। 

मूल महत्वपूर्ण मुद्दा।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की वर्ष 1952 से 67 तक हुए एक साथ चुनाव की स्थिति आज विभिन्न कारणों से अलग-अलग हो गई हैं। ध्यान देने योग्य बात यहां यह है कि यह स्थिति कोई संविधान में संशोधन होने के कारण नहीं हुई है? परंतु एक साथ चुनाव में वापस आने के लिए जरूर संविधान संशोधन करना आवश्यक है। प्रश्न यह है की पूर्व स्थिति की "पुनर्स्थापना" के लिए  प्रस्तावित संविधान संशोधन, क्या संविधान की मूल भावना को या संघीय ढांचे को चोट पहुंचाते हैं ? मूल विषय सिर्फ  इतना सा ही है, जिसकी विवेचना आगे की जा रही है। 

सिर्फ पुरानी व्यवस्था की पुनर्स्थापना ही ! कोई नई नीति नहीं

संविधान निर्माताओं ने जब 5 साल के अंतराल में एक साथ लोकसभा व विधानसभा के चुनाव कराने की बात कही थी, तब उन्होंने यह कल्पना नहीं की थी कि देश में दल बदल के कारण ‘‘आयाराम-गयाराम’’ की राजनीति के गिरते स्तर, लालच, धन, बल के चलते  शैनः शैनः एक स्थिति ऐसी बन जायेगी, जब संवैधानिक चुनाव अवधि ( 5 वर्ष) का पालन करने के कारण प्रायः अधिकतर राज्यों की विधानसभाओं व केंद्र के लोकसभा चुनाव अलग-अलग होने लगेगें। अतः वर्ष 1967 तक चुनाव एक साथ होते रहे हैं, जब वे संघीय ढ़ाचे पर अतिक्रमण नहीं थे, तब आज कैसे? जबकि किसी भी सरकार ने संविधान संशोधन कर चुनावी व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया है। संविधान निर्माताओं ने प्रारंभ में आरक्षण के लिए मात्र 10 वर्ष का प्रावधान किया था, और उक्त उद्देश्य की प्राप्ति न होने के कारण इसे हर आगे 10 साल के लिए बढ़ाने का प्रावधान किया गया, जिसकी कल्पना तो उन्होंने कर ली थी। परन्तु यहां संविधान निर्माताओं ने शायद राजनेताओं के गिरते नैतिकता व गलत आचरण की कल्पना नहीं की थी, जो दुर्भाग्यवश आज व्यवस्था का अभिन्न अंग बन गई है। जिस कारण ही एक साथ चुनाव कराने का चक्र पांच साल की अवधि का (क्रम) टूटा है। तो उसको सुधारने के लिए वही पुरानी व्यवस्था लागू करने के लिए यदि आवश्यक संविधान संशोधन किया जाता है, तो वह संविधान की संघीय ढांचे के साथ छेड़-छाड़ या चोट कैसे! यह समझ से परे है। 

योगेन्द्र यादव, कुरैशी व ध्रुव राठी का विरोध! कानून व तथ्यों से परे। 

योगेन्द्र यादव व एस वाई कुरैशी ने कमेटी की रिपोर्ट की कुछ कमियों को जो इंगित किया है, वह बिल्कुल सही है। परन्तु योगेन्द्र यादव का यह कहना कि यह ‘‘शासक की लोकतंत्र को कमजोर करने की डिजाइन’’ है। यह संसदीय शासन प्रणाली में निहित विधायिका के प्रति कार्यपालिका की जवाब देही के मूल सिंद्धात को बिगाड़ देगा। साथ ही यह संविधान की बुनियादी संरचना का उल्लंघन करता प्रतीत होता है। ये तीनों ही बातें तथ्यात्मक व संवैधानिक दृष्टि से गलत हैं। इसका सीधा जवाब है कि प्रारंभिक 20 वर्षों तक देश में एक साथ चुनाव हो रहे थे, जब क्या देश में लोकतंत्र व संविधान के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन हो रहा था? तब देश के किसी भी शख्स ने एक साथ चुनाव के विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा? पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त कुरैशी ने जरूर कुछ मुद्दों का व्यवहारिक हल निकालने का आग्रह किया है। 

विरोध के कारण

विरोध में एक बात और कही जाती है। जिस प्रकार जीएसटी को लागू किया, परन्तु एक देश एक कर की बात पूरी तरह से लागू नहीं हो पायी। ‘‘एक दर’’ की बजाए विभिन्न दरों के साथ पेट्रोलियम उत्पाद को भी जीएसटी के दायरे में नहीं लाया गया । इसी प्रकार एक देश-एक चुनाव पूरी तरह से आज भी सरकार लागू करने नहीं जा रही है?  क्योंकि कोविंद कमेटी की रिपोर्ट में पंचायतों के चुनाव आम चुनाव के बाद 100 दिन के अंदर कराये जाने की बात की गई है, जो समझ से परे है। एक बात और जो इस कदम के विरूद्ध में कही जा रही है, देश के एक साथ विधानसभा-लोकसभा को वोट देने पर देश में साक्षरता का स्तर कम होने के कारण लोग विवेक से सही निर्णय नहीं ले पाते हैं। इसका कुछ फायदा केन्द्र में बैठी सरकार की पार्टी को होता है। विशेषकर क्षेत्रीय दलों को नुकसान होता है। इस संबंध में अभी हाल के हुए ओडिशा विधानसभा चुनाव का उल्लेख करने वाले उड़ीसा के पिछले परिणाम को भूल जाते हैं। यदि 1952 से लेकर 1967 तक साक्षरता की दर को देखे तो आज वह लगभग दो गुनी हो गई है। जब उस समय 20 साल तक मतदाता के विवेक पर प्रश्न साक्षरता के आधार पर नहीं उठाया गया, तब इस आधार पर आज प्रश्न उठाना कितना जायज है? एक और आधार ‘‘राज्य के मुद्दों’’ पर केंद्र के मुद्दे हावी हो जाएंगे, एक साथ चुनाव कराने में? वस्तुतः यह जनता के विवेक पर ही प्रश्न-चिन्ह लगाने समान है?

सरकार परसेप्शन बनाने में असफल। 

यद्यपि आज की राजनीति में ‘‘एक्शन की बजाय पररेप्शन’’ का महत्व ज्यादा है, जिसे बनाने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी माहिर है। उनके मुकाबले सिर्फ केजरीवाल ही ठहर पाते है। इसके लिए भी कुछ करते हुए दिखना जरूर पड़ता है। परंतु इस मुद्दे को लेकर मोदी चूक गये लगते है। क्योंकि ‘‘एक देश-एक चुनाव’’ को लेकर प्रथम अवसर मिलने पर ही एक्सन कर परसेप्शन क्यों नहीं बनाया जा रहा है? पिछले एक साल में हुए लोकसभा और विधानसभा चुनाव को ही ले लें  l सात फेसों में हुए लोकसभा चुनाव की चुनावी प्रक्रिया की अवधि कम की जा सकती थी। स्वयं मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने लोकसभा चुनाव संपन्न होने के बाद इस बात को स्वीकार किया है l उड़ीसा सिक्किम विधानसभाओ के साथ ही महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, झारखंड के चुनाव लोकसभा के साथ एक साथ कराया जा सकते थे, यदि चुनाव आयोग इनकी अवधि को 6 महीने आगे-पीछे घटा-बड़ा कर लेता, जो उसके अधिकार क्षेत्र में है। वर्ष 2022 में भी गुजरात के साथ हिमाचल के भी चुनाव कराये जा सकते थे, जो पूर्व मे होते थे। तब शायद जनता के मन यह परसेप्शन जरूर चला जाता कि सरकार वास्तव में इस विषय पर गंभीर है और वह बिना संवैधानिक संशोधन किये इस दिशा में जो कदम उठा सकती है, उठा रही है। इसीलिए शायद कुछ लोग सरकार को इस विषय पर गंभीर न होकर नरेन्द्र मोदी का "शिगूफा" मात्र भी कहते हैं, क्योंकि इसके लिए दोनों सदनों में आवश्यक संख्या बल से एनडीए "कोसों" दूर है। कोविंद कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में बीच में विधानसभा भंग होने पर उसका चुनाव 5 साल के लिए न किये जाकर शेष अवधि के प्रावधित किया है। जरूर यह प्रस्तावित संशोधन शायद  संविधान की मूल अवधारणा को चोट पहुंचा सकता है। इस संबंध में उच्चतम न्यायालय की राय भी ली जा सकती है।

उपसंहार।

वास्तव में यदि राजनीतिक दल व जनता यह चाहती है कि संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार चुनाव 5 साल में एक बार एक साथ हो, और यह क्रम आगे भी निरंतर चलता रहे। तब फिर दल बदल को पूर्णतः प्रतिबंधित कर और बीच में सरकार किसी भी मुद्दे के गिरने पर शेष अवधि के लिए ‘‘अल्पमत सरकार’’ को कार्य करते हुये देना होगा। अथवा पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत द्वारा वर्ष 2015 में सरकार को एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव के संबंध में दिया गया यह सुझाव महत्वपूर्ण हो सकता है कि अविश्वास प्रस्ताव की जगह ‘‘रचनात्मक विश्वास प्रस्ताव’’ का प्रावधान करना होगा। वैसे यदि देश में पूर्ण रूप से न सही तो 90% सभी राज्यों के चुनाव लोकसभा के साथ एक साथ हो, तब भी वह देश की राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए एक नेशन एक इलेक्शन ही कहलायेगा। ठीक उसी प्रकार जैसे एक देश एक टैक्स की नीति के तहत जीएसटी वर्तमान में विभिन्न टैक्स दरों के साथ लागू है।

शनिवार, 21 सितंबर 2024

‘‘सशर्त’’ मुख्यमंत्री का चुनाव! क्या संवैधानिक व्यवस्था को ‘‘ठेंगा’’ नहीं दिखाएगा?

केजरीवाल का दोहरा व्यक्तित्व चालू आहे।

‘‘भ्रष्ट’’ चुनावी राजनीतिक व्यवस्था से ‘‘ईमानदारी’’ का प्रमाण पत्र?

भारतीय राजनीति में ‘‘धूमकेतु’’ के समान अचानक उभरे, चमके अरविंद केजरीवाल ने लोकतांत्रिक व्यवस्था की दुहाई देते हुए ‘‘नैतिकता’’ के ‘‘भूले बिसरे पाठ’’ को याद करते हुए ‘‘ईमानदारी’’ के प्रमाण पत्र की आवश्यकता महसूस की। परंतु इसके लिए बनाई गई संवैधानिक व्यवस्था ‘‘न्यायालय’’ की शरण में जाकर कानूनी प्रक्रिया को अपना कर न्यायालय से ‘‘ईमानदारी’’ का प्रमाण पत्र प्राप्त करने की बजाय जनता की अदालत (जैसे रजत शर्मा की ‘‘आप की अदालत’’ हो) में जाकर स्वयं को ‘‘दोष मुक्त’’ सिद्ध करने के लिये दो दिन पूर्व की गई घोषणा अनुसार इस्तीफा दे दिया। ‘‘जेल’’ में रहकर मुख्यमंत्री के रूप में पहले से ही  "विकलांग" (केन्द्र द्वारा) शासन की ‘विकलांगता को बढ़ाकर, शासन ’चलाकर देश में ही नहीं, बल्कि विश्व में रिकॉर्ड बनाकर सत्ता लोलुप, अनैतिकता व हंसी का पात्र बने केजरीवाल ने देश के अन्य मुख्यमंत्रियों के समान गिरफ्तार होने के पूर्व इस्तीफा देकर नैतिकता, सुचिता का परिचय नहीं दिया, जिसके झंडाबरदार होने का दावा वह जोर शोर से करते रहे हैं। 

‘‘चतुर’’ केजरीवाल का ‘‘चातुर्य-पूर्ण चाल’’। ‘‘ट्रंप कार्ड’’

इसी बीच लोकसभा के हुए चुनाव में केजरीवाल ने दिल्ली की जनता से कहा था कि ‘‘यदि वह उन्हें जेल में देखना चाहते हैं, तो भाजपा को वोट दें और बाहर देखना चाहते हैं तो आम आदमी पार्टी को वोट दें’’। केजरीवाल के इस तरह स्पष्ट रूप से जनादेश मांगे जाने के बावजूद ‘‘आप’’ पार्टी दिल्ली में पूरी तरह बुरी तरह से हार गई। तब आपके ही तर्को (या कुतर्कों) के सहारे इस जनादेश के द्वारा जनता ने संवैधानिक व्यवस्था के तहत आपके विरुद्ध चल रही कानूनी प्रक्रिया पर मोहर लगा दी, ऐसा क्यों न माना जाए? ‘‘शातिर दिमाग’’ वाले राजनैतिक पैतरेबाजी के उस्ताद केजरीवाल ने इस्तीफा देकर दिल्ली विधानसभा के होने वाले, अगले आम चुनाव तक मंत्री आतिशी सिंह को मुख्यमंत्री बनाने का विधायक दल के द्वारा निर्णय करवा कर अपनी एक अलग राजनीतिक ‘‘केजरीवाल शैली’’ (प्रसिद्ध गुजरात मॉडल समान) का परिचय दिया है। 5 महीने के भीतर होने वाले विधानसभा के चुनावी संग्राम में मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में आतिशी सिंह को रखकर परंतु ‘‘मत’’ (वोट) केजरीवाल को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन करने के लिए मांग कर, ‘‘आम आदमी पार्टी’’ के चुनाव जीतने पर पुनः अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री पद पर चुनेगी। केजरीवाल के इस ‘‘नव प्रयोग’’ की ‘‘मूल बात’’ को मुख्यमंत्री के रूप में चुने जाने पर स्वयं आतिशी ने स्पष्ट कर दिया है। स्पष्ट रूप में यह संवैधानिक व्यवस्था का दुरुपयोग है। जैसा कि उनका स्वयं का कथन है कि पूर्व में मैंने ‘‘संविधान व गणतंत्र’’ को बचाने के लिए इस्तीफा नहीं दिया। ‘‘जनादेश’’ का प्रावधान ‘‘शासन चलाने के लिए है’’, न की ‘‘नेता’’ के दागी व्यक्तित्व को ‘‘धोने’’ के लिए? बड़ा प्रश्न यहां यह है कि पहली बार लगभग 6 महीने पूर्व जब केजरीवाल जेल जा रहे थे, तभी उन्होंने विधानसभा भंग कर करने की सिफारिश कर जनादेश द्वारा अपने ‘‘निष्कलंक’’ होने की दावेदारी क्यों नहीं की? तब भी वे कार्यवाहक मुख्यमंत्री के रूप में बने रह सकते थे। लेकिन तब शायद फिर ‘‘आतिशी’’ का मोहरे के रुप में उपयोग कर ‘‘त्याग तपस्या और बलिदान’’ भाजपा के नारे से ‘‘त्याग’’ को चुरा कर ‘‘शीश महल’’ पर 45 करोड़ से अधिक नवीनीकरण (रिनोवेशन) पर खर्च कर रहवासी बंगले को खाली कर ‘‘त्याग’’ दिखाने का मौका कहां मिल पाता? क्या इन 6 महीने में केजरीवाल को यह विश्वास था कि ‘‘न्यायिक प्रक्रिया’’ जो ही ‘‘उचित प्रक्रिया’’ थी, के द्वारा वह आरोप से उन्मुक्त (डिस्चार्ज) कर दिए जाते? जो प्रार्थना न्यायालय द्वारा अस्वीकार कर दी गई।

दोहरे व्यक्तित्व, चरित्र के खेवनहार ! केजरीवाल

भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोकपाल के गठन व वापस बुलाने के अधिकार की मांग के लिए जंतर मंतर में हुए लोकप्रिय अन्ना आंदोलन से निकले पढ़े-लिखे नौकरशाह से राजनेता बने केजरीवाल राजनीति में निपुण होते-होते उसी की चाल रंग-ढंग में समाहित होकर अपने मूल व्यक्तित्व को ही भूल गए। जेल से बाहर आने पर केजरीवाल ने यह कहा कि मैं ‘‘अग्नि परीक्षा’’ देना चाहता हूं और मैं ‘‘मुख्यमंत्री’’ और मनीष सिसोदिया ‘‘उपमुख्यमंत्री’’ तभी बनेंगे, जब ‘‘लोग (जनता) हमें ईमानदारी का प्रमाण पत्र देंगे’’। ‘‘महाभारत’’ की ‘‘अग्नि परीक्षा’’, ‘‘रामचरित मानस’’ की ‘‘खटाऊ राज’’ और ‘‘शहीद भगत सिंह’’ का बलिदान, कथनों के उच्चारण मात्र से ‘‘वैसा’’ व्यक्तित्व नहीं बन जाता है, बल्कि उसके लिए ‘‘वैसा ही कट्टर आचरण’’ अपनाना भी होता है। इसीलिए वर्तमान राजनीति के अनुरूप बने दोहरे व्यक्तित्व के धनी सिर्फ ईमानदार नहीं, बल्कि कट्टर ईमानदार केजरीवाल को यह आत्म चिंतन करने की गहरी आवश्यकता है कि उन्हें ‘‘ईमानदारी का प्रमाण पत्र’’ लेने की आवश्यकता ही क्यों पड़ रही है? ‘‘साथी ‘‘अन्ना’’ को तो नहीं पड़ी’’?

रामायण काल से तुलना क्या ईमानदारी है? 

सौरभ भारद्वाज से लेकर ‘‘आप’’ के अनेक नेताओं के बयानों से स्पष्ट है कि आतिशी की ताजपोशी रामायण काल के ‘‘राजा भरत’’ के समान है। परंतु वह निर्णय भरत का ‘‘स्वयं का’’ था राजा राम का नहीं। यहां तो इस्तीफे की घोषणा के साथ ही यह भी घोषणा कर दी गई कि वे (केजरीवाल) स्वयं ही चुनाव बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर लौटेंगे। आप नेता शायद यह भूल गए कि लोकतंत्र में भगवान राम ‘‘कौन’’ और राम राज्य ‘‘कहां’’ है? दोहरे व्यक्तित्व की मार शायद अरविंद केजरीवाल पर यहीं पर हो रही हैं। केजरीवाल इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि जिस प्रकार व्यक्ति के साथ ‘‘छाया’’ चलती है, अर्थात एक व्यक्ति दो रूपों में एक साथ दिखता है, तब फिर दोहरा व्यक्तित्व होना तो प्रकृति की निशानी ही है? तब फिर प्राकृतिक स्थिति (दोहरे व्यक्तित्व) की आलोचना क्यों? इस्तीफा देने के साथ जब वे शीघ्र चुनाव की मांग करते हैं, तब भी उनका दोहरा चरित्र दिखता है। क्योंकि वे विधानसभा भंग करने की सिफारिश करके चुनाव कराने का रास्ता साफ नहीं कर रहे है, जिसकी मांग करते हैं। यही उनका दोहरा व्यक्तित्व और चरित्र बना हुआ है। 

संविधान का शब्दशः ही नहीं बल्कि अंतर्निहित भावनाओं का भी पालन होना चाहिए। 

बड़ा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या आप अपनी विशुद्ध राजनीतिक स्वार्थ व छुद्र उद्देश्यों की पूर्ति हेतु संविधान का कानूनी रूप से दुरुपयोग कर सकते हैं? संविधान सिर्फ उतना ही नहीं है, जो शब्दों द्धारा लिखित है, बल्कि उससे भी बढ़कर संविधान वह है, जिसमें लिखे शब्दों के पीछे निहित भावना है, जिसका सम्मान किया जाना ही वास्तव में संविधान का पालन करना माना जाएगा। निश्चित रूप से केजरीवाल की इस्तीफा देने की घोषणा से लेकर आतिशी का विधायक दल का नेता चुने जाने तक की संपूर्ण प्रक्रिया तकनीकि रूप से तो संवैधानिक है। परंतु क्या वह संवैधानिक भावनाओं के अनुकूल भी है? जिनको अंतर्निहित करते हुए संविधान में उक्त व्यवस्था की गई है। संविधान इस बात की अनुमति नहीं देता है कि आप किसी प्रकरण में आरोपी हो और पद से इस्तीफा देकर जनता के बीच जाकर चुनाव लड़कर जीतकर वापस आकर यह दावा कर ले कि अब मैं आरोपो से मुक्त हो गया हूं और भ्रष्टाचारी न होकर ‘‘कट्टर ईमानदार’’ सिद्ध हो गया हूं? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद देश में एक मात्र कोई दूसरा व्यक्ति है, जो देश की राजनीति की नब्ज को समझ कर जनता के नब्ज से सफलतापूर्व जोड़ने का हुनर जानता है, तो वह केजरीवाल हैं, जिनके पास शायद नरेन्द्र मोदी से भी ज्यादा दूरदर्शी राजनीतिक समझ है। चुनाव जीतकर यदि आप आरोप मुक्त या दोष मुक्त हो जाते हैं तो, फूलन देवी चुनाव जीत गई थी, जेल में रहकर कई अपराधी विधायक व सांसद का चुनाव जीत चुके हैं, उनके बाबत तब फिर अरविंद केजरीवाल क्या कहेंगे? वास्तव में भारतीय लोकतंत्र पर अरविंद केजरीवाल का यह बहुत ही खतरनाक दांव है, जो संविधान द्वारा स्थापित की गई देश की न्यायिक व्यवस्था पर भी एक गंभीर चोट लगाता है। क्योंकि हमारे देश में अपराधियों, बाहुबलियों से डर कर आम जनता चुनावों में ऐसे सजायाफ्ता भ्रष्ट अपराधियों को भी विजय दिलाती रही है।

चुनावी प्रणाली ‘‘वाशिंग मशीन’’ नहीं

लोकतंत्र में जनादेश का अर्थ लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्थाओं को ‘‘मजबूत’’ करना है न कि ‘‘मजबूर कर कमजोर’’ करना है। केजरीवाल शायद यही करना चाहते हैं। वे चुनाव जीतकर ‘‘परसेप्शन’’ (धारणा) द्वारा संवैधानिक व्यवस्था को ‘‘ठेंगा’’ दिखाना चाहते हैं। अन्ना आंदोलन के समय, अन्ना का नहीं बल्कि केजरीवाल का यह विचार अत्यधिक वायरल होकर जनता के बीच पसंद किया गया था कि तत्कालीन संसद के आधे से भी ज्यादा (251) सांसद दागी है। समस्त ‘‘दागी सांसद’’ इस्तीफा देकर, न्यायिक प्रक्रिया द्वारा दोष मुक्त होकर, और फिर चुनाव लड़कर, जीत कर, संसद में आए। परंतु केजरीवाल अपने उक्त कथनों को ‘‘पूर्ण रूप’’ से नहीं, बल्कि ‘‘अर्द्ध रूप’’ में ही लागू करना चाहते हैं। अर्थात सिर्फ चुनाव में जाना चाहते हैं, परंतु न्यायिक प्रक्रिया में से होकर नहीं गुजरना चाहते? क्योंकि इसके आगे शायद उनका राजनीतिक स्वार्थ ‘‘आड़े’’ आ जाता है। केजरीवाल शायद इस बात को भूल गए हैं कि उन्होंने अपनी गिरफ्तारी की वैधता को न्यायालय में चुनौती दी थी, जिसे न्यायालय ने ईडी व ‘‘तोता सीबीआई’’ के विरुद्ध की गई गंभीर टिप्पणियों के बावजूद स्वीकार नहीं किया। वह अभी मात्र जमानत पर हैं, आरोपो से उन्मुक्त (डिस्चार्ज) नहीं हुए हैं। जैसा कि वे गलत कथन करते है कि यह कानून की अदालत से इंसाफ मिला। इसलिए न्यायालयों की टिप्पणियों का सहारा लेकर वे अपने को बेदाग नहीं कह सकते हैं। जनता की अदालत ‘‘राजनैतिक इंसाफ’’ देगी ‘‘आपराधिक इंसाफ’’ नहीं? यदि उन्हें प्रकरण में 2 साल से ऊपर की सजा हो जाती है, तब फिर केजरीवाल क्या करेंगे? (क्योंकि तब सदस्यता समाप्त होकर वे 6 साल के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य हो जायेगें।) तब फिर जनादेश मानेंगे या न्यायादेश? आरोपी अपराधी दलबदलुओं को भाजपा में शामिल करने को लेकर केजरीवाल सहित संपूर्ण विपक्ष भाजपा को वाशिंग मशीन बताने वाले केजरीवाल अब संवैधानिक व्यवस्था चुनाव को अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए ‘‘वाशिंग मशीन’’ बनाने में ही तुल (लग) गए हैं। इसलिए राजनीति का ‘‘नॉरेटिव’’ तय करने में व ‘‘परसेप्शन’’ बनाने में केजरीवाल नरेन्द्र मोदी से एक कदम आगे ही हैं।

उपसंहार। 

केजरीवाल सशर्त जमानत पर है। जिन शर्तों ने केजरीवाल को एक ‘‘लूला-लंगड़ा’’ मुख्यमंत्री बना दिया है। ‘‘जनादेश’’ मिल जाने के बावजूद मुख्यमंत्री पद का ‘‘लंगड़ापन’’ दूर नहीं हो जाएगा। वह तो मुकदमे में न्यायालय द्वारा बाईज्जत दोष मुक्त होने से ही होगा। केजरीवाल की राजनीति में कदम रखने के पूर्व अति उत्साह में की गई घोषणाएं, वचन, कथन समस्त राजनीतिक दलों और स्वयं केजरीवाल सहित समस्त नेताओं के लिए एक आत्म चिंतन का विषय है, कि परस्पर आरोपों-प्रत्यारोपों की बौछार लगाने के पूर्व ‘‘बुद्धि’’ का प्रयोग अवश्य करें, अन्यथा ‘‘आप बीती’’ होने पर जनता के सामने आपको स्वयं के आरोपों के कथनों के लिए शर्मिंदा होना पड़ेगा। या फिर केजरीवाल समान बेशर्म होकर दोहरा व्यक्तित्व बनना पड़ेगा। क्योंकि केजरीवाल ने आज तक अन्ना आंदोलन के समय मंच से कहे गए सुविचारों को गलत बताकर क्षमा नहीं मांगी है और न ही आज उसका पालन कर रहे हैं? वैसे राजनीति में हया-शर्म, नैतिकता, आदर्श रह कहां गया है?

गुरुवार, 12 सितंबर 2024

मोहन सरकार के 9 महीने पूर्ण होने के अवसर पर।

 ‘‘मन-मोहन’’ ‘‘वो’’ नहीं (जो मौन रहते रहे) बल्कि मन को ‘‘मोहने’’ वाले ‘‘वाचाल’’ मोहन।

‘‘गर्भ’’ की पहचान‘ ‘‘भ्रूण’’ से होती है।

9 महीने के गर्भकाल के बाद होने वाला बच्चे का ‘‘प्रतिबिंब’’ पूर्णतः माता-पिता का ही होता है। ठीक इसी प्रकार डॉ. मोहन यादव सरकार के 9 महीने के रूप को हमें उस (माता-पिता) ‘‘मतदाता’’ (भ्रूण) की नजर से देखना होगा, जिन्होंने ‘‘अनेपक्षित’’ ऐतिहासिक बहुमत से 9 महीने पूर्व भाजपा सरकार को चुना है। यद्यपि आम चुनाव के चेहरे डॉ. मोहन यादव नहीं थे, ठीक जैसे लगभग समान परिस्थितियों में बनाए गए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चुनावी चेहरा नहीं थे। तथापि 9 महीने के कार्यकाल में मोहन यादव ने यह अहसास जरूर करा दिया है कि वे अल्पकालीन ‘‘अस्थायी’’ व्यवस्था के तहत नहीं, बल्कि ‘‘फर्श से अर्श’’ तक पहुंचने की उनकी योग्यता के चलते वे पूरी कार्यावधि को पूर्ण करने वाले मुख्यमंत्री सिद्ध होगें।

गहरी ‘‘छाया व छाप’’ से बाहर निकलकर स्वयं की ‘‘पहचान’’ बनाई। 

देश के 9.38% क्षेत्र पर बसे दूसरे सबसे बड़ा राज्य, हृदय प्रदेश ‘‘मध्य प्रदेश’’ के डॉ मोहन यादव, संघ, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की ‘‘गूढ़ राजनीति’’ के तहत (कुछ लोग उन्हें मनमोहन सिंह के सामान ‘‘एक्सीडेंटल’’ मुख्यमंत्री भी कह सकते हैं), उस शख्सियत के उत्तराधिकारी बने हैं, जिन्होंने लगभग 18 साल मध्य प्रदेश में एक-छत्र राज्य किया और ‘‘मामा’’ बनकर कई कीर्तिमान बनाए जो ‘‘गिनीज बुक ऑफ रिकार्ड्स’’ में दर्ज भी हुए। ऐसे व्यक्तित्व की ‘वट वृक्ष छाया’ के नीचे 18 साल की ‘‘गढ़ी छवि’’ के ऊपर 19 वें मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर मात्र 9 महीनों में अपनी अलग ‘‘स्वतंत्र पहचान’’ बना लेना, मेरी नजर में यही सबसे बड़ी उपलब्धि ‘‘उच्च शिक्षित’’ डॉ मोहन यादव की मुख्यमंत्री के रूप में है। मोदी-शाह के हस्तक्षेप के चलते ‘‘तकदीर’’ से बने मुख्यमंत्री मोहन अब जनता की ‘‘तकदीर’’ व प्रदेश की ‘‘तसवीर’’ बदलने में लग गये हैं। यद्यपि यह बेमानी ही होगी कि मात्र 9 महीने के कार्यकाल की तुलना शिवराज सिंह के 18 वर्षो से की जाए। फिर भी, इस परीक्षा में आप आगे देखेंगे की मोहन यादव ‘‘छाप और छाया’’ से सफलता पूर्वक बाहर निकल कर निरंतर आगे बढ़ रहे हैं। ‘‘शिव-राज’’ के ‘‘राज’’ में जनता को ‘‘ना-राज’’ न करने की ‘‘शिव शैली’’ से अलहदा मोहन यादव ने ‘‘सधे हुए कदमों’’ से जनहित में कड़क फैसले लेते समय नाराजगी की कोई चिंता नहीं की है। हम लेखकों के समान ‘‘भूमिका’’ बनाने में समय व्यतीत करने की बजाए तुरंत-फुरंत (इंस्टेंट) निर्णय की अपनी शैली मोहन ने प्रदर्शित की है। मध्य प्रदेश में निशुल्क पीएम श्री एयर एंबुलेंस सेवा का शुभारंभ किया गया। दो कदम आगे चलकर ‘‘लाडली बहना योजना’’ के लाभार्थी ‘आशा’ और ‘लीला’ दो बहनों के घर जाकर राखी बांधकर ‘‘मामा’’ की छाया से प्रदेश को बाहर निकाल कर ‘‘भैया’’ के परसेप्शन को बनाने की ओर डॉक्टर मोहन यादव निकल चले हैं। लोकसभा की पूरी की पूरी 29 सीटों पर धमाकेदार जीत, जिसमें 1952 से अभी तक की अपराजित (बीच में सिर्फ एक उपचुनाव को छोड़कर) कमलनाथ की छिंदवाड़ा सीट भी शामिल है और उसके बाद हुए छिंदवाड़ा जिले की ही अमरवाड़ा विधानसभा के उपचुनाव में जीत ‘संगठन’ से अच्छे तालमेल को भी सिद्ध करता है। ‘‘पर्ची’’ से मुख्यमंत्री बने मोहन यादव के शासन में अब ‘‘पर्ची लिखना और चलना बंद’’ हो गया है। (याद कीजिए ‘‘व्यापम कांड’’ के समय का)

हिंदुत्व की राह पर साहसिक निर्णय

संघ के स्वयंसेवक और एबीवीपी से आने के कारण अपनी ‘‘कट्टर हिंदुत्व’’ की छवि को और मजबूत करने के लिए उन्होंने कुछ बोल्ड महत्वपूर्ण निर्णय लिए हैं। सर्वप्रथम तो मोहन यादव ने ‘‘महाकाल के भक्त’’ होकर ‘‘महाकाल में रूककर’’ इस मिथक को तोड़ा कि कोई भी ‘‘राजा’’ (मुख्यमंत्री) महाकाल (उज्जैनिय) में रात्रि विश्राम नहीं करता है। अन्यथा उनका राज्य (‘‘कुर्सी’’) चली जाती है। कट्टर हिंदुत्व की राह पर चलते खुले बाजार में मीट बेचने तथा धार्मिक स्थलों पर ध्वनि प्रदूषण पर प्रतिबंध लगाने के निर्णय से लेकर जन्माष्टमी  पर्व को सरकारी स्तर पर प्रोत्साहन दिया। धार्मिक न्यास व धर्मास्त्र विभाग का मुख्यालय भोपाल से गृह नगर ‘‘महाकाल’’ की नगरी उज्जैन में स्थानांतरित करने का निर्णय उनकी ‘‘दूरदृष्टि इरादे’’ को दिखाता है, जब आगामी वर्ष 2028 में उज्जैन में ‘‘सिंहस्थ’’ होगा। भगवान कृष्ण के ‘‘आराध्य’’ होने से एक सेवक होकर कृष्ण पथ (माधव पथ) (राम गमन पथ समान) निर्माण करने का निर्णय भी लिया। गोवंश की रक्षा के लिए 7 साल की सजा का प्रावधान किया। हिन्दुत्व के क्रम को आगे बढ़ाते हुए हर ब्लाक में ‘‘बरसाना ग्राम’’ व पूरे प्रदेश में ‘‘गीता भवन’’ बनाने का भी निर्णय लिया। ‘‘बाबा महाकाल’’ की शाही सवारी के ‘‘शाही’’ शब्द को हटाकर ‘‘राजश्री सवारी’’ का इस्तेमाल संतो की सहमति से किया। रानी दुर्गावती व अवंती बाई के विषयो को शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल कर भारतीय संस्कृति व सांस्कृतिक पुर्नत्थान के प्रति अपने समर्पण को दृष्टिगोचर किया। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा ‘‘देश में रहना है तो राम-कृष्ण की जय करना होगा’’। 

प्रदेश के सर्वांगीण विकास के लिए त्वरित निर्णय।

मध्य प्रदेश देश का ऐसा पहला राज्य बन गया जहां ‘‘साइबर तहसील’’ को पूरे प्रदेश में लागू कर संपत्ति की रजिस्ट्री होते ही तत्काल नामांतरण की व्यवस्था की। प्रदेश के द्रुत औद्योगिक विकास के लिए इंदौर से हटकर भी संभागीय स्तर पर औद्योगिक निवेश समिट आयोजित की। धार्मिक स्थलों को भी पर्यटन स्थलों के रूप में विकसित किया जाकर ‘‘आय’’ के स्त्रोत बढ़ाये जा रहे हैं। मोटे अनाज के उत्पादन पर किसानों को 10 रू प्रति किलो प्रोत्साहन राशि दी गई। पुलिस ट्रेनिंग में ‘‘साइन लैंग्वेज’’ शुरू कर दिव्यांगों को नई आवाज देने वाला देश का पहला राज्य बना। भोपाल का बीआरटीएस कॉरिडोर खत्म करने का निर्णय, 52 साल पुराने वीआईपी कल्चर के नियम को समाप्त कर दिया, जहां सरकार मंत्रियों के ‘‘आयकर’’ भरती थी। संभवतः पहली बार किसी मुख्यमंत्री ने जिले का प्रभार अपने पास रखा है। मुख्यमंत्री ने प्रदेश के संभाग व जिलों की सीमाओं का पुनर्निर्धारण करने के लिए प्रशासनिक ईकाई पुर्नगठन आयोग का गठन करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया है। शपथ ग्रहण करते ही शिवराज सिंह के निकट नौकरशाहों का स्थानांतरण प्रथम अवसर पर कर मोहन यादव ने अपने शासन की ‘‘दशा व दिशा’’ को इंगित कर दिया था। 

अफसर शाही के ‘‘घोड़े’’ पर सवार ‘‘घुड़सवार’’ मोहन। 

पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश चंद सेठी और वीरेंद्र कुमार सकलेचा के काफी समय बाद शायद यह मौका आया है, जब अफसर शाही बेलगाम, निरंकुश न होकर उन पर जनप्रतिनिधि का संवैधानिक अंकुश कार्य रूप में परिणत होते दिख रहा है। शायद इसी का परिणाम है कि मुख्य सचिव की कुर्सी मुख्यमंत्री के बाजू से ‘‘हट’’ गई है। तथापि इस दिशा में आगे और कदम उठाने की आवश्यकता भी है। नौकरशाह द्वारा अपने कार्यों के प्रति लापरवाही व घटनाओं के लिए जिम्मेदार अधिकारियों के लिए मोहन यादव, शिवराज सिंह से ज्यादा ‘‘कड़क’’ व त्वरित निर्णय लेने वाले शासक सिद्ध हुए हैं। परिणाम स्वरूप गुना बस दुर्घटना जिसमें 13 लोग जिंदा जले थे, के लिए परिवहन आयुक्त, कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक को जिम्मेदार मानकर हटाया तथा आरटीओं, सीएमओं को निलम्बित किया। 

गलतियां व कमियां शासन चलाने का अभिन्न व अविभाज्य अंग है।

दिन-रात, सुख-दुख, अंधेरा-उजेला की तरह किसी भी शासन की उपलब्धियां के साथ कमियां व गलतियां भी होती ही हैं। शिवराज सिंह के जमाने में न्यूज चैनल की सुर्खियों में मध्य प्रदेश की अजब-गजब के रूप में प्रसिद्ध/बदनाम छवि को मोहन यादव पूरी तरह से तोड़ नहीं पाये, जहां एक मंत्री (रामनिवास रावत) को एक ही दिन में ‘‘दो बार’’ मंत्री पद की शपथ लेनी पड़ गई। हालांकि इसके लिए मोहन यादव कदापि जिम्मेदार नहीं थे। विगत दिवस उज्जैन में हुई सार्वजनिक रूप से महिला की शील भंग की घटना निश्चित रूप से प्रदेश के लिए एक धब्बा है। इसी तरह एक वर्ष पूर्व इसी समय (6 सितम्बर 2023) उज्जैन में दिन दहाड़े सड़क के किनारे बलात्कार से पीड़ित महिला लोगों से सहायता की भीख मांग रही थी। परन्तु इन स्थितियों के लिए मोहन सरकार से ज्यादा वहां के नागरिक जिम्मेदार हैं, जहां हमारी नागरिक और मानवीय संवेदनाएं खत्म होती जा रही दिख रही हैं। 

आगे और काम करने की जरूरत है।

मोहन सरकार को ‘‘मील का पत्थर’’ बनने के लिए अभी आगे बहुत से कदम उठाने होंगे। मध्य प्रदेश जिस पर पूर्व से ही लगभग 3ः82 लाख करोड रुपए से अधिक का कर्जा है, मोहन सरकार वित्तीय वर्ष 24-25 के लिए अभी तक का सबसे बड़ा कर्जा रू. 88450 करोड अतिरिक्त लेने जा रही है, जिसे कम करना मोहन सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती रहेगी? महिलाओं के खिलाफ यौन शोषण के अपराधों के मामलों में मध्य प्रदेश का देश में शीर्ष में तीसरा स्थान है, जो चिंताजनक है। देश में लागू किए गए नए आपराधिक कानून के अंतर्गत महिलाओं, बच्चों के मामले की जांच महिला ऑफिसर ही कर सकती है, जिनकी संख्या प्रदेश में बहुत कम है। उनकी संख्या बढ़ाए जाने की तुरंत आवश्यकता हैै। 

उपसंहार।

अंत में 9 महीने के गर्भ के पूर्ण विकसित होने के बाद डॉ. मोहन यादव के नेतृत्व में आप अपने प्रदेश की एक अच्छे भविष्य की आशा निश्चित रूप से रख सकते हैं, क्योंकि कहा भी गया है। ‘‘पूत के पांव पालने में दिख जाते हैं’’। पूज्य पिताजी के ‘‘स्वर्गवासी’’ हो जाने के कारण डॉ. मोहन यादव ‘‘गहरे शोक’’ में है। मृतात्मा को श्रद्धांजलि देते हुए मोहन के इस असीम दुख में मैं भी सहभागी होते हुए जिस प्रकार इस शोकाकुल अवस्था में भी ‘‘मुखिया’’ होने के दायित्व को मोहन निभा रहे है, उस दायित्व के उज्जवल भविष्य की कामना भी इन 9 महीने पूर्ण होने के अवसर पर करता हूं।

सोमवार, 9 सितंबर 2024

‘‘बुलडोजर न्याय’’ या ‘‘प्रशासनिक न्यायिक’’ कार्रवाई।

सिद्धांतः सभी पक्ष सहमत! तो फिर भी अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग क्यों?

अवैध निर्माण तोड़ने पर सर्वसम्मति।

उच्चतम न्यायालय के समक्ष जमीयत उलेमा ए हिंद, सीपीएम नेत्री पूर्व राज्यसभा सांसद वृंदा कारंत व अन्य कुछ संस्थाओं सहित लगभग 100 से अधिक याचिकाकर्ताओं की दो वर्षो से भी ज्यादा समय से आरोपियों के अवैध निर्माण को तोड़े जाने से संबंधित लंबित याचिकाओं पर विगत दिवस सुनवाई करते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय ने सुनवाई के दौरान जो ‘‘टिप्पणियां’’ की, उस पर राष्ट्रव्यापी बहस होना लाजमी ही है। जबकि उच्चतम न्यायालय ने अभी कोई निर्णय नहीं दिया है, बल्कि 17 तारीख की अगली पेशी नियत की है, जहां समस्त पक्षों से सुझाव मांगे गए हैं। तत्पश्चात ही कोई फैसला आ पायेगा। यद्यपि इस मुद्दे पर तीनों पक्ष पीड़िता, शासन व माननीय न्यायालय में सर्वानुमति है कि अवैध निर्माण तोड़ा जाना चाहिए। बावजूद इसके उच्चतम न्यायालय की ‘‘टिप्पणियों’’ की हर पक्ष अपने अपने तरीके से व्याख्या कर एक दूसरे को नीचा/औकात दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। 

न्यायालय की टिप्पणी मात्र ‘‘ओबिटर डिक्टा’’ बंधनकारी नहीं?

आखिर उच्चतम न्यायालय की ‘‘टिप्पणियां’’ है क्या:-संदिग्ध, आरोपी या दोषी ही क्यों न हो कोई व्यक्ति के निर्माण को ‘‘कैसे गिराया जा सकता है’’, इस टिप्पणी के आधार पर समाचार पत्रों की हैडिंग पर जरा गौर कीजिए! ‘‘कड़ी फटकार लगाता है’’ तो कहीं ‘‘बुलडोजर एक्शन पर सख्त नाराजगी जाहिर की है’’ शीर्षक दिए गए। माननीय न्यायालय की उक्त टिप्पणी शायद निम्न घटनाओं के संज्ञान में लाये जाने के कारण आयी लगती है। छतरपुर की 20 करोड़ की 20 हजार वर्गफीट में तीन मंजिला हवेली के मकान को पैगम्बर के विरूद्ध घटिया बयान देने के विरोध प्रदर्शन में मालिक शहजाद अली के नेतृत्व करने के कारण और प्रदर्शन में पथराव होने के बाद दूसरे दिन तोड़ दिया गया। जबकि चार साल से मकान का निर्माण कार्य चल रहा था। मुरादाबाद व बलिया में भी आरोपी की छः संपत्तियां तोड़ी गई। उदयपुर हिंसा के आरोपी छात्र जिसका परिवार ‘‘किराएदार’’ के रूप में जिस मकान में रहता था, को ध्वस्त कर दिया गया। माननीय न्यायालय ने इस बात को नहीं देखा कि ‘‘वन भूमि पर बने अतिक्रमित मकान’’ को नोटिस देकर तोड़ा गया था। तथापि मकान मालिक का यह भी कहना है कि इस तरह के और भी मकान बने हैं, परंतु उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। वैसे उक्त टिप्पणियां ‘‘ओबिटर डिक्टा’’ कहलाती है, जो एक लैटिन शब्द होकर कानूनी रूप से ‘‘बंधनकारी’’ नहीं है। इसलिए इनका ‘‘न्यायिक महत्व कम’’ है। तथापि उसे ‘प्रेरक’ के रूप से जरूर ‘उद्धत’ किया जा सकता है। 

सरकार का दावा। ‘‘अवैध’’ निर्माण तोड़ने की कार्रवाई ‘‘वैद्य’’कितनी सत्यता

वास्तव में उच्चतम न्यायालय के समक्ष मुद्दा क्या है और उस पर समस्त पक्षों का स्टैंड (कहना) क्या है? इसको समझाना पहले आवश्यक है, तभी हम आगे की कार्रवाई को समझ पाएंगे। उच्चतम न्यायालय के समक्ष निर्माणों को ध्वस्त की गई कार्रवाई क्या कानून सम्मत हुई है? मुख्य प्रश्न यह है। उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यह शपथ पत्र पेश किया कि निर्माण को ध्वस्त करने की जो भी कार्रवाई की गई है, वह स्थानीय कानून, नियमों का पालन करके ही की गई है। याचिका कर्ताओं ने भी किसी ने यह नहीं कहा है कि अवैध निर्माण को तोड़ा नहीं जा सकता है। एक याचिका कर्ता की ओर से यह अवश्य कहा गया है कि उनके विरुद्ध की गई कार्रवाई दुर्भावना से सांप्रदायिक हिंसा भड़कने के बाद की गई। स्पष्ट है, मुद्दा इतना सा है कि जो निर्माण तोड़े गए हैं, क्या वे ‘‘अवैध’’ है। दूसरे यदि जांच में वे अवैध पाए गए हैं, तब उनको तोड़ने की कार्रवाई में क्या कानून की ‘‘पूरी प्रक्रिया’’ का पालन किया गया है? 

संयोग या प्रयोग

एमनेसटी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के अनुसार अप्रैल 2022 से जून 2023 तक साम्प्रदायिक दंगे के बाद 128 संपत्तियों को बुल डोज किया गया। तथापि यह ‘‘संयोग’’ है या ‘‘प्रयोग’’ जिन अपराधियों की संपत्ति जमींदोज की गई है, वह प्रायः अपराध घटित होने के बाद ही की गई है। इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि जब जहां कहीं अपराध घटित होता है, तब स्थानीय स्वशासन (नगर पालिका, विकास प्राधिकरण इत्यादि) के अधिकारी ‘‘कुंभकरण की नींद’’ से जागकर ‘‘ग्रीन सिग्नल’’ मानकर कार्रवाई में लग जाते हैं। वैसे एक प्रश्न नगर निगम, प्राधिकरण के अधिकारियों से जरूर यह पूछा जाना चाहिए कि उनके अवैध निर्माण तोड़ने की कार्रवाई समस्त मामले में पूरी होकर अपराध करने की सूचना मिलते ही (कागजात में प्रक्रिया पूरी कर) बुलडोजर निकल पड़ता है? वैसे इस तरह की कार्रवाई से क्या सरकार नागरिकों को यह संकेत तो नहीं देना चाहती है कि अपराध किए जाने पर उनके दीवानी (सिविल) हित भी अवैध भवन निर्माण को ध्वस्त होने के रूप में प्रभावित होंगे? इन कार्रवाइयों से एक और प्रश्न उठता है कि आरोपियों के विरूद्ध आपराधिक कानून में कार्रवाई के अलावा ऐसी कार्रवाई से एक अतिरिक्त भय पैदा करना का सरकार का कहीं प्रयास तो नहीं? ताकि अपराधी अपराध करने से हतोत्साहित हां! क्योंकि अपराध को रोकने के लिए कानून का एक आधार भय पैदा करना भी होता है। उपरोक्त कार्रवाई को इस दृष्टिकोण से भी देखने की आवश्यकता है। वैसे सरकार यह बात नहीं कह रही है, लेकिन मैं आपको यह समझा रहा हूं कि जांच दल को आरोपियों के अपराध की जांच करने के दौरान ही अवैध निर्माण की जानकारी होने पर ही तो कार्रवाई की गई है, यदि बात आप समझ गये तो फिर प्रशासनिक कार्रवाई पर कोई उंगली नहीं उठा पाएंगे?  

गाइडलाइन बनाने की बात! दोहरा (डबल) नियम-कानून तो नहीं?

उच्चतम न्यायालय ने समस्त पक्षों से अवैध अधिक्रमण को तोड़ने के लिए एक अखिल भारतीय गाइडलाइन बनाए जाने के लिए सुझाव मांगे हैं, जो न तो निहायत जरूरी है और न ही उनका कोई औचित्य है। साथ ही उच्चतम न्यायालय के सामने यह मुद्दा भी नहीं था (अनुच्छेद 142 के अंतर्गत विवेकाधिकार शक्तियों को छोड़कर)। न ही यह सामान्य क्षेत्राधिकार है। वास्तव में उच्चतम न्यायालय का क्षेत्राधिकार मूलतः कानून की व्याख्या करना है, और संवैधानिक अधिकारों, कानून व नियमों को लागू करवाना है और उनका उल्लंघन होने पर उल्लंघनकर्ताओं को दंडित करना है। क्या इस बात की जानकारी उच्चतम न्यायालय को नहीं है कि अवैध निर्माण को ध्वस्त करने के कानून प्रत्येक राज्य में हैं, जिनको लागू करने का दायित्व स्थानीय प्रशासन (नगर पालिका, नगर निगम इत्यादि) के पास है। इन कानूनों की वैधता को किसी भी याचिकाकर्ता ने चुनौती नहीं दी है। (प्रबुद्ध पाठक इस संबंध में मुझे सही कर सकते हैं) फिर नई गाइडलाइन जारी करने की आवश्यकता क्यों? क्या यह नियमों की ‘‘द्धैघता’’ (दोहराव) नहीं होगा? अथवा माननीय न्यायालय समस्त प्रदेशों के स्थानीय स्वशासन के अवैध निर्माण तोड़ने संबंधी प्रावधानों को खत्म करेगें? क्या उच्चतम न्यायालय किसी कानून या नियमो की कोई कर्मियों की गाइडलाइन बनाकर पूर्ति कर सकता है, यह भी एक बड़ा प्रश्न है?

विभिन्न प्रदेशों में निर्माण व कंपाउंडिंग के अलग-अलग नियम होने के कारण अखिल भारतीय गाइड लाइन बनाना कितना उचित?

एक बात और है! क्या माननीय न्यायालय की इच्छा अनुसार अखिल भारतीय एक समान गाइड लाइन बनाना उचित होगा? क्योंकि निर्माण की गाइड लाइन व अवैध निर्माण के कंपाउंडिंग के नियम/कानून प्रत्येक प्रदेश में अलग-अलग हैं। तब एक ही गाईड लाईन पूरे देश के लिये कैसे संभव है? वैसे वास्तविकता में तो देश में लगभग 90 प्रतिशत निर्माण में कुछ न कुछ अवैध निर्माण होता ही है, क्योंकि नक्शे अनुसार मकान बनाने के बावजूद बाद में कई एडिशन, परिवर्तन होते हैं, जिनकी कोई अतिरिक्त स्वीकृति सामान्यतया नहीं ली जाती है। एक रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली के लगभग 65 प्रतिशत निर्माण नक्शे के अनुसार नहीं हैं। 

अवैध सम्पत्ति ‘‘तोड़ने’’ की बजाए ‘‘राष्ट्रीय सम्पत्ति’’ घोषित हो?

जब अवसर मिला है तब, क्या इस बात का सुझाव उच्चम न्यायालय को नहीं दिया जाना चाहिए कि जहां अवैध अतिक्रमण पूरे मकान, अपार्टमेंटस अथवा ‘‘कालोनी’’ के है, उसे तोड़ने के बजाए जप्त कर गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले नागरिकोें को दे दी जाए? यदि उन अवैध निर्माण से यातायात या पडोसियों को कोई ज्यादा दिक्कत न होती है तो! क्योंकि निर्मित संपत्ति ध्वस्त करना राष्ट्रीय संपत्ति का ही नुकसान है। राष्ट्रीय संसाधन को बचाने के लिए आपराधिक कमाई से बनाई गई संपत्ति को भी राष्ट्र में समाहित करने की आवश्यकता है। इसके लिए ईडी, पीएमएलए कानून के अंतर्गत कार्रवाई करके अपराधियों की संपत्तियों को जब्त कर सकती है। साथ ही अवैध अतिक्रमण के साथ जो ‘चल सम्पत्ति’ वाहन, घरेलू सामान इत्यादि होता है उसे भी जमींदोज (नष्ट) करने का क्या फायदा? जिस प्रकार आपराधिक न्यायशास्त्र में ‘‘मानवाधिकार’’ का ध्यान रखा जाता है, उसी प्रकार अचल अवैध अतिक्रमित सम्पत्ति में चल सम्पत्ति के मानवाधिकार (उसे बनाए रखना) को मान्य करने से मूल कार्रवाई पर क्या कोई असर पडेगा? यदि अवैध निर्माण तोड़ना जरूरी ही है, तब अतिक्रमणकर्ता स्वयं को अवैध निर्माण तोड़ने का एक युक्ति युक्त अवसर पहले जरुर दिया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त जिन अधिकारियों के रहते अवैध निर्माण होते हैं, उन्हें भी दीवानी व फौजदारी दोनों रूप से जिम्मेदार ठहराया जाकर मुआवजा व सजा का प्रभावी प्रावधान बनाया जाकर लागू किया जाना चाहिये।

बनते ‘‘परसेप्शन’’ के चलते न्यायालय का कठोर कथन! i

सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि अतिरिक्त सालिसिटर जनरल द्वारा उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से इस आशय का शपथ कि सरकार ने अवैध निर्माण तोड़ने की समस्त करवाई नियमों का पालन कर विधि सम्मत की हैं, प्रस्तुत करने के बावजूद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री व अन्य नेताओं ने बार-बार यह कहकर, दोहरा कर क्या यह परसेप्शन नहीं बनाया है कि उन्होंने अपराधियों के विरुद्ध ‘बुलडोजर न्याय’ अवैध निर्मित अतिक्रमित संपत्ति को बुुलडोज कर न्याय दिलाता है? इस ‘बुलडोजर’ को चुनाव के दौरान घुमाया भी गया था। शायद इसी ‘‘परसेप्शन’’ के चलते  उच्चतम न्यायालय को उक्त कड़े शब्द कहने पड़े।

वर्ग विशेष के विरुद्ध कार्रवाई! कितनी सत्यता?

एक और आरोप जो सरकार पर लगाया जा रहा है कि एक विशेष वर्ग मुस्लिम समाज पर ही ये कार्रवाई की गई है, जो तथ्यात्मक रूप से गलत है। मुस्लिमो के साथ अन्य वर्गो के लोगों पर भी कार्रवाई की गई है। यह बात जरूर है कि गैर मुस्लिमों पर तुलनात्मक रूप से बहुत कम कार्रवाई हुई है। इसी प्रकार सिर्फ विपक्षी नेताओं के विरूद्ध अवैध निर्माण की कार्रवाई की गई है जैसा कि प्रवर्तन निदेशालय द्वारा धन शोधन निवारण अधिनियम के अंतर्गत कार्रवाई की जा रही है, यह आरोप भी पूर्णतः सही नहीं है। तथापि विपक्षी नेताओं के विरूद्ध की गई कार्रवाई का प्रतिशत काफी ज्यादा है। ‘‘सत्ता’’ होने के कारण इसका फायदा सत्तारूढ़ लोगों को मिलना तो लाजिमी ही है। आखिर सत्ता में बैठने का एक उद्देश्य जनसेवा के साथ यह भी तो होता है? बड़ा प्रश्न यह है कि उक्त दोनों वर्ग मुस्लिम व विपक्षी नेताओं के विरूद्ध जो कोई भी कार्रवाई की गई है, क्या वहां कानून की प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है? अथवा कानून सम्मत नहीं है? अभी तक किसी भी न्यायालय ने इन अवैध निर्माण के ध्वस्त करने की कार्रवाई को अवैध नहीं ठहराया है।

असमान व गैर बराबर। अवैध निर्माण तोड़ने की कारवाई। 

उपरोक्त चर्चा से एक विशिष्ट तथ्य जो उभर कर सामने आ रहा है और जो चिंता का विषय भी है कि अवैध निर्माण तोड़ने की कारवाई विधि सम्मत (मान भी ली) होने के बावजूद यह बराबरी और समानता (पैरिटी, एट पार) के सिद्धांत के विरुद्ध दिख रही है जो ‘‘पिक एंड चूस’’ आधार पर आधारित है। ठीक उसी प्रकार जैसा उच्चतम न्यायालय ने पीएमएलए कानून के संबंध में ईडी को यह कहते हुए फटकार लगाई कि आप पिक एंड जूस आधार पर आरोपियों को पकड़ रहे हैं। वास्तव में इस असमानता पर ही उच्चतम न्यायालय को ‘‘चाबूक’’ चलाने की आवश्यकता है।

सोमवार, 2 सितंबर 2024

आखिर पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन कब तक?

देश के प्रथम नागरिक द्वारा चिंता व्यक्त! एक ऐतिहासिक घटना। 

स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह शायद पहली बार हुआ है कि देश की महामहिम राष्ट्रपति महोदया ने देश के किसी भाग में हुई विक्षप्त यौन घटना पर गहरी चिंता व्यक्त की है। कोलकाता में ट्रेनिंग डॉक्टर से रेप हत्या केस के लगभग 20 दिन बाद ‘‘विमेंस सेफ्टी इनफ इज इनफ’’ नाम से लिखे अपने लेख पर ‘‘पीटीआई एडिटर्स’’ से चर्चा के दौरान महामहिम ने बतलायाः-

 ‘कोलकाता में हुई डॉक्टर के रेप और मर्डर की घटना से देश सकते में है। जब मैंने इसके बारे में सुना तो मैं निराश और भयभीत हुई। ज्यादा दुखद बात यह है कि यह घटना अकेली घटना नहीं है। यह महिलाओं के खिलाफ अपराध का एक हिस्सा है। जब स्टूडेंट्स, डॉक्टर और नागरिक कोलकाता में प्रोटेस्ट कर रहे थे, तो अपराधी दूसरी जगहों पर शिकार खोज रहे थे। विक्टिम में किंडरगार्टन की बच्चियां तक शामिल थी। कोई भी सभ्य समाज अपनी बेटियों बहनों पर इस तरह के अत्याचारों की इजाजत नहीं दे सकता। देश के लोगों का गुस्सा जायज है, मैं भी गुस्से में हूं।’’

राष्ट्रपति शासन अभी तक क्यों नहीं?

 महिला आदिवासी राष्ट्रपति होने के कारण और महिला पर यौन अत्याचार होने के कारण उनके मन में चिंता के भाव, आना और ‘‘आहत’’ होना स्वाभाविक ही है। परंतु राष्ट्रपति के संवैधानिक पद पर रहते हुए सार्वजनिक रूप से उक्त प्रतिक्रिया व्यक्त करना, क्या इस बात का संकेत नहीं करता है कि राज्य में "कानून, तंत्र" की व्यवस्था ध्वस्त हो गई है ? आखिर ‘‘राष्ट्रपति शासन’’ लगाने की परिस्थितियां "क्यों व कब" पैदा होती है? राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल को गृह मंत्रालय के माध्यम से राष्ट्रपति को रिपोर्ट करना होता है। बंगाल के राज्यपाल का मत ममता सरकार के प्रति कभी भी अच्छा या सकारात्मक नहीं रहा है। वे कह चुके है, "बंगाल में लोकतंत्र नहीं है"। राज्य सरकार हर मोर्चे पर असफल रही है और बंगाल पुलिस का अपराधीकरण हो गया है। बावजूद इसके न तो राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की और न ही केंद्र ने राज्यपाल से रिपोर्ट देने को कहा। वैसे भी राज्यपालों की स्थिति तो केंद्र के इशारों पर कार्य करने की ही रही है। इसलिए यह समझ से परे है कि इतनी खराब कानूनी स्थिति, जिस पर केन्द्र सरकार के मंत्री गण व पश्चिम बंगाल भाजपा के नेता गण ममता सरकार पर आरोपों की बौछार लगातार लगा रहे हैं, बावजूद इसके राष्ट्रपति शासन के कोई संकेत अभी तक नहीं मिले हैं ? यदि यह स्थिति किसी अन्य राज्य की होती तो शायद अभी तक राष्ट्रपति शासन जरूर लग गया होता। पूर्व में भी कानून व्यवस्था के नाम पर राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाए जा चुके हैं। याद कीजिए वर्ष 1992 में जब बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी, तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में ‘‘कानून व्यवस्था’’ के नाम पर ही धड़ल्ली से राष्ट्रपति शासन लगाया गया था।

संवेदनशीलता! बलात्कार के अन्य जघन्य अपराधों तक क्यों नहीं?

इससे बड़ा प्रश्न यह है कि राष्ट्रपति की संवेदना में सिर्फ कोलकाता की ट्रेनी डॉक्टर की घटना का ही उल्लेख किया गया! क्यों? इससे भी बुरा जघन्य अपराध महाराष्ट्र के ठाणे के बदलापुर में हुई दो नाबालिग (मात्र 3 साल की) बच्चियों के साथ घटित बलात्कार की घटना है l उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में दो बच्चियों के लटकेे शव, बिहार के मुजफ्फरपुर में 14 साल की दलित लड़की का अपहरण कर हत्या, असम रेप कांड, उन्नाव, हाथरस, बिलकिस बानो के दोषी अपराधियों को छोड़ना, महिला पहलवानों का यौन उत्पीड़न, मनीपुर में 4 मई को भडके दंगे के बाद दो आदिवासी महिलाओं को नग्न कर बदन से खिलवाड़ करते हुए घुमाना व गैंगरेप  जिनमें एक महिला तो सीमा पर खड़े सैनिक की धर्मपत्नि थी, तब महामहिम एक शब्द भी नहीं बोली, आज भी मणिपुर के संबंध में नहीं बोली। अतः वर्तमान उपरोक्त उल्लेखित घटनाओं को देखते हुए कुछ दुखद लगता है। इसी समय देश के कई राज्यों में बलात्कार की अन्य कई घटनाएं भी हुई है। हमारे देश में औसतन 85 बलात्कार प्रतिदिन (हर 16 मिनट में एक) हो रहे हैं। राजस्थान इस मामले में सबसे अग्रणी राज्य है। परंतु दुर्भाग्य वश राष्ट्रपति ने उन सब घटनाओं को एक साथ जोडकर अपना दुख व रोष व्यक्त नहीं किया! क्यों। अथवा फिर पश्चिम बंगाल के कोलकाता का नाम न लेकर वह देश के विभिन्न भागों में हो रही बलात्कार की अनेक घटनाओं का कथन कर चिंता व्यक्त कर सकती थी ? जो ज्यादा उचित व सामयिक होता l एक तो हमारे देश में राष्ट्रपति वैसे ही बहुत कम अवसरों पर बोलते है और जब राष्ट्रपति बोली तब निश्चित रूप से वे बोल निष्पक्ष नहीं दिखें। शायद इसीलिए महामहिम के उपरोक्त कथन के संबंध में तृणमूल कांग्रेस के नेताओं के बयान आने लगे। इसलिए महामहिम को इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि देश में हो रही यौन शोषण की घटनाओं की एक लाइन से भर्त्सना करे और समस्त राज्य सरकार को निर्देशित करें कि कानून व्यवस्था व तंत्र को युद्ध स्तर पर सुधारा जाए, ताकि ऐसे दुष्कर्मों की संख्या कम हो सके, क्योंकि एक रिपोर्ट के अनुसार दुष्कर्म के मात्र 27 प्रतिशत मामलों में ही सजा हो पाती है। 

भूलवश शायद गलत तथ्य का उल्लेख?

महामहिम ने शायद भूलवश एक गलत तथ्य का उल्लेख अपने लेख में किया है ‘‘वह जब स्टूडेंट्स, डॉक्टर और नागरिक कोलकाता में प्रोटेस्ट कर रहे थे, तो अपराधी दूसरी जगहों पर शिकार खोज रहे थे।’’ मुख्य  अपराधी की गिरफ्तारी 24 घंटे के भीतर हो जाने के बाद अभी तक यह बात सामने नहीं आयी है कि इस कांड में अन्य अपराधी भी शामिल हैं? यद्यपि कुछ क्षेत्रों में यह दावा जरूर किया गया है। परन्तु यह तो डीएनए की रिपोर्ट से ही सिद्ध हो पायेगा, जिस रिपोर्ट आने की कोई जानकारी अभी नहीं है। अतः अपराधी के जेल में जाने के बाद यह महामहिम का यह कथन गलत हो जाता है कि अपराधी दूसरी जगह पर शिकार खोज रहे थे l वैसे बलात्कार के मामलों को नारी अस्मिता से जोड़कर देखने की हम सब की आदत है, की बजाए पुरूष की घृणित मानसिकता पर ज्यादा विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि यौन शोषण,  उत्पीड़न के मामलों में अपराधी सिर्फ पुरूष ही होता है, महिला नहीं। अतः यदि बलात्कार की मूल समस्या अर्थात घटना न होने की स्थिति पर पहुंचाना है, तो हमें घृणित पुरूष मानसिकता को बदलना होगा, सुधारना होगा। सिर्फ यह कहकर कि कम-छोटे कपड़े पहनने से यौन उत्पीड़न को प्रोत्साहन मिलता है, मामले की जड़ पर नहीं पहुंच पायेगें। संत कबीर का यह दोहा महत्वपूर्ण है ‘‘जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय’’। 

एक बात और नारी सम्मान के तार-तार होने पर यदि ‘‘महामहिम’’ को गुस्सा व्यक्त करना ही था, तो नवीनतम वीभत्स घटना का उल्लेख पहले करके तत्पश्चात ही दूसरी (कोलकाता) घटनाओं का उल्लेख किया जाना था। ‘‘बदलापुर’’ के बाद कोल्हापुर महाराष्ट्र में 10 साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म कर हत्या कर दी गई थी, जिसका उल्लेख पहले किया जाना चाहिए था। एक महत्वपूर्ण वह आश्चर्य करने वाली बात यह भी है  कि यह वही कोलकाता है जिसे राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने तीन साल लगातार (2021 से 2023) सबसे ‘‘सुरक्षित शहर’’ के अवार्ड से नवाजा है, जहां सबसे कम संज्ञेय अपराध दर्ज किये गये। ऐसा लगता है कहीं यह अवार्ड गलत तो नहीं दिया गया है?

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