मंगलवार, 22 अक्तूबर 2024

राज्यों का विभाजन? क्या ‘‘अखंड भारत’’ की परिकल्पना के विरुद्ध नहीं?

‘‘राज्यों का विभाजन’’ क्या 562 देशी रियासतों के एकीकरण की भावना से मेल खाता है?

एक सक्षम एवं सेवा से समय पूर्व सेवानिवृत्ति  लिए कमिशनर रहे दृढ़ता से अपनी बात स्पष्ट रखने वाले (एवं सुनने वाले) मध्य प्रदेश केड़र के आईएएस अधिकारी द्वारा मध्य प्रदेश राज्य को 4-5 भाग में बांटने के सुझाव के प्रत्युत्तर में आये सुझावों व चर्चा के परिपेक्ष में यह लेख लिखा गया है।

राज्यों के निर्माण का इतिहास।

‘‘विभाजन’’ शब्द ही शायद अपने आप में खतरे की घंटी है, जिसकी वीभत्स, डंक देश के विभाजन के समय लोगों ने भुक्ता है। "विभाजन" अखंडता, एकता, सार्वभौमिकता, सौहार्दपूर्ण वातावरण के विरूद्ध है। 15 अगस्त 1947 को जब भारत देश स्वतंत्र हुआ, तब कुल 17 राज्य व 1 केंद्र शासित प्रदेश अंडमान निकोबार था। वर्ष 1953 में भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन करने के लिए ‘‘राज्य पुनर्गठन आयोग’’ की स्थापना न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में की गई। तब उनकी सिफारिश पर 14 राज्य व 6 केंद्र शासित प्रदेश बनाए गए। परन्तु इसके बाद भी राजनीतिक  स्वार्थों व उद्देश्यों की पूर्ति हेतु नए राज्यों की मांग स्वीकार की गई, फिर चाहे सरकार कोई भी रही हो। जम्मू-कश्मीर राज्य का दर्जा घटाकर ‘केन्द्र शासित प्रदेश’ कर देने से कुल 28 प्रदेश और 8 केंद्र शासित प्रदेश देश में हो गए हैं। बावजूद इसके आये दिन देश के विभिन्न अंचलों से राज्यों के विभाजन की मांग की जाकर नए राज्यों की मांग की जा रही है। 

विभाजन का कोई ‘‘एक’’ आधार नहीं?  

प्रश्न यह है, क्या राज्यों का आकार, क्षेत्रफल, जनसंख्या, भाषा, जाति, संस्कृति व प्रशासनिक सहूलियत और आर्थिक संरचना व आय को लेकर क्या कोई एक सर्वमान्य सूत्र (फॉर्मूला), मानक तय किया गया है, जिसके आधार पर नए राज्यों की मांग पर विचार किया जा सके? अभी तक ऐसा कोई भी एक व्यापक सिद्धांत या सूत्र तय करना तो दूर उसे पर सोचा भी नहीं गया है। (1953 के भाषायी आधार को छोड़कर) तब प्रश्न फिर यह उत्पन्न होता है कि नए राज्य के निर्माण में राजनीतिक सोच व दबाव से हटकर वे कौन से कारक, तत्व होने चाहिए, जो नये राज्य के निर्माण की मांग को उचित ठहरा सकते हैं। मेरे मत में इस पर देशव्यापी बहस की जाने की आवश्यकता है और किसी न किसी सर्वमान्य नहीं तो एक अधिकतम मान्य निष्कर्ष पर पहुंचा जाना चाहिए। अन्यथा वर्तमान में इस देश के ‘‘राजनीतिक स्वार्थ’’ देश के हितों से इतने ज्यादा बलशाही हो गए हैं कि शायद एक दिन ऐसा न आ जाए कि जब प्रत्येक "जिला" अपने को "प्रदेश" ही न समझने लग जाए या उसकी मांग न करने लग जाए? 

‘‘भारत संघ का गठन’’ ‘संघटन’

भारत देश का कुल क्षेत्रफल 3287263 वर्ग किलोमीटर है। जिसमें से 120849 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र चीन व पाकिस्तान के अवैध कब्जे में है। वर्तमान में कुल जनसंख्या लगभग 143 करोड़ से ज्यादा है। स्वतंत्रता के समय कुल जनसंख्या लगभग 34 करोड़ थी। जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश था और क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य मध्य प्रदेश था। अविभाजित मध्य प्रदेश का एक जिला बस्तर केरल राज्य से भी बड़ा था। ‘‘उत्तर प्रदेश’’ ब्रिटेन देश के बराबर है। जनसंख्या में विश्व के पांचवे स्थान पर पाकिस्तान से भी ज्यादा जनसंख्या वाला प्रदेश उत्तर प्रदेश है। विपरीत इसके गोवा और उत्तर पूर्वी के राज्य अत्यंत छोटे बने।  

विभाजन के पक्ष-विपक्ष में तर्क-वितर्क-कुर्तक

राज्यों के विभाजन के पक्ष में तर्क-वितर्क दोनों है। ठीक उसी प्रकार जैसा "गिलास आधा खाली है या भरा"। परंतु आज हम जब विभाजित हुए राज्यों की स्थिति को देखते हैं और उनके तथा नागरिकों के विकास की तुलना अविभाजित राज्यों के समय से करते हैं, तो निश्चित रूप से हमें अधिकतर जगह निराशा ही हाथ लगती है। साथ ही यह देश की इंटीग्रिटी को भी कहीं न कहीं कमजोर कर रहा है। इसीलिए इस विषय पर कुर्तकों से दूर रहना चाहिए।

ऐसा नहीं है कि बड़े आकार के कारण राज्यों का विभाजन किया गया हो। अन्यथा उत्तर पूर्व में पहले नागालैंड से असम फिर असम छोटा राज्य होने के बावजूद उसका विभाजन कर मिजोरम की स्थापना की गई। छोटे राज्यों के खिलाफ में जो सबसे बड़ी बात कही जाती है, जो सही भी है कि ‘‘अनुउत्पादक खर्चो’’ में बढ़ोतरी होती है। मतलब ‘‘दोहरा प्रशासनिक व्यय’’। मध्य प्रदेश राज्य का स्थापना व्यय (वेतन एवं पेशन) कुल राजस्व का 37 प्रतिशत है। जबकि छत्तीसगढ का 35 प्रतिशत है। राजनीतिक व्यय वह भी अनुउत्पादक व्यय ही होता है, में भी काफी बढ़ोतरी हो जाती है। राज्यों की विभाजन के समय जो सबसे बड़ी समस्या, गलती या अनदेखी होती है, वह राज्य के संसाधनों का जनसंख्या के अनुपात में विभाजन नहीं हो पाता है। विभाजन के परिणाम स्वरूप एक राज्य को बड़ा फायदा मिलता है तो दूसरा राज्य को नुकसान होता है। मध्य प्रदेश का विभाजन होकर बना नया छत्तीसगढ़ राज्य एक उदाहरण है। छोटे राज्य होने के पक्ष का एक बड़ा आधार प्रशासनिक व शासन की धुरी जनता के ज्यादा निकट होकर ‘जीवंत’ होती है। इसके जवाब में आज के आधुनिक संचार व आवागमन के युग में सर्किट न्यायालय, आफिस, आपकी सरकार-आपके द्वार, नीति के तहत सीधे नागरिकों के पास उक्त धुरी पहुंच सकती है। प्रश्न सिर्फ इच्छाशक्ति की है। यह भी कहा जाता है कि इससे आर्थिक व प्रशासनिक दोनों दृष्टिकोण से मदद मिलती है। परन्तु स्थिति ऐसी नहीं है। इंदिरा गांधी विकास अनुसंधान संस्थान के शोधकर्ता विकास वैभव व केवी रामास्वामी द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश वह बिहार के विभाजन से बने राज्यों में अलग-अलग परिणाम पाए गए। प्रश्न ‘‘गुणात्मकता’’ का भी है? शायद इसीलिए उच्चतम न्यायालय की देश में चारों दिशाओं में चार पीठ बनाने के तत्कालीन उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू व विधि आयोग की सिफारिश को उच्चतम न्यायालय ने नहीं माना था। क्या शासन प्रशासन की शक्तियों का निचले स्तर पर वास्तविक रूप में विकेन्द्रीकरण कर राज्य के विभाजन के सीमित उद्देश्य को नहीं पाया जा सकता है? इस पर भी सोचना होगा। 

किसी का सुझाव था कि छोटे राज्य की बजाए जिलों को छोटा कर देना चाहिए। यह  भी न तो सार्थक है न हीं अपने उद्देश्यों में सफल होगा। इससे जिला स्तर पर भी प्रशासनिक व्यय बढे़गा। 1 नवम्बर 1956 को मध्य प्रदेश की स्थापना के समय 43 जिले थे, जो आज छत्तीसगढ़ राज्य बनने बाद भी 55 जिले बन गये है।

उपसंहार। 

जब राज्य के किसी भाग के निवासियों की अपनी अस्मिता, संस्कृति, भेदभाव, भाषा, जाति, आर्थिक आधार आदि मांगो के आधार पर नए राज्य की मांग की जाती है, तब वहां पर राष्ट्रीय भावना का ‘‘छरण’’ होता है और  उसमें छिपा हुआ ड़र व खतरा जो अभी सामने नहीं दिख रहा है, वह यह है कि वह अस्मिता की भावना "प्रदेश" की मांग से आगे जाकर कहीं "नए देश" की मांग में तो परिवर्तित नहीं हो जाएगी?

सोमवार, 14 अक्तूबर 2024

अनमोल, कोहिनूर ‘‘रत्न’’ ‘‘सर’’ ‘‘रतन’’ ‘‘टा-टा’’ करते, चले गये।

‘गरीबों के ‘‘अरबपति’’ ‘‘मसीहा’’ व उद्योगपतियों के ‘‘भीष्म पितामह’

सिर्फ राष्ट्र की ही अपूर्णीय क्षति ही नहीं, बल्कि......
मेरे जीवन के 70 वर्षों में ऐसे अनेक दुर्भाग्यपूर्ण अवसर आए, जब देश ने अनेक अनमोल रत्नों को खोया। परंतु यह पहला अवसर है, जब सर रतन टाटा के देहावसान पर देश के आम नागरिकों ने गमगीन होकर राष्ट्रीय अपूरणीय क्षति के साथ यह महसूस किया कि उनके परिवार के बीच का ही कोई ‘‘अपना’’ चला गया, जिनकी परिवार में मानसिक उपस्थिति उनके जाने के बाद ‘‘अवसाद’’ के रूप में महसूस हुई। उनकी व्यक्तिगत एवं राष्ट्र निर्माण के लिए की गई उपलब्धियों, संस्मरणों को याद किया, लिखा जाए तो कई किताबें लिख जायेंगी। फिर भी आज एक युग के अंत के इस दुखद अवसर पर कुछ महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख किया जाना आवश्यक है। 
 देश की औद्योगिक प्रगति में ‘‘टाटा’’  का प्रशंसनीय यादगार योगदान।
‘‘जमशेदजी नुसरवानजी टाटा’’ द्वारा वर्ष 1868 में स्थापित की गई ‘‘टाटा’’ के जेआरडी टाटा से वर्ष 1971 में विरासत में पाये टाटा साम्राज्य के शिल्पकार 86 वर्ष की उम्र में भी अंतिम समय तक सक्रियता दिखाते रहे, सर रतन टाटा अन्ततोगत्वा अपने करोड़ों प्रशंसकों को अलविदा कह ‘‘प्रभु’’ के पास ‘‘परलोक’’ चले गये। अभी 2 अक्टूबर को ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘‘स्वच्छ भारत मिशन’’ के सफलतापूर्वक 10 वर्ष पूर्ण होने पर ‘‘स्वच्छता अभियान’’ के संबंध में उन्होंने एक वीडियो क्लिप जारी की थी। मृत्यु के 2 दिन पूर्व ही पूरे देश को अपना परिवार मानने वाले ‘‘अविवाहित’’ सर रतन टाटा ने अपने स्वास्थ्य के बाबत ‘‘एक्स’’ पर लिखें अंतिम संदेश ‘‘उम्र संबंधी जरूरी नियमित चिकित्सा जांच करवा रहा हूं। मेरा मनोबल ऊंचा है’’, के साथ देशवासियों को ‘‘मेरे बारे में सोचने के लिए शुक्रिया’’ कहा। वर्तमान में जिस प्रकार अंबानी-अडानी का औद्योगिक जगत में देश-विदेश में आर्थिक बोल बाला है, (सामाजिक नहीं) ठीक उसी प्रकार स्वतंत्रता के बाद से देश के विकास के प्रारंभिक दौर में टाटा-बिरला औद्योगिक घरानों का बड़ा योगदान रहा है। जब मुंबई की प्रसिद्ध होटल वाटसंस में ‘‘जेआरडी’’ को ‘‘यूरोपीय न होने’’ के कारण प्रवेश करने से रोक दिया गया था, तब उन्होंने अपने अपमान व नस्ल भेद नीति का माकूल जवाब वर्ष 1903 में 14 वर्ष के अथक प्रयासों से मुंबई में देश की प्रथम पंचतारा होटल ताजमहल विदेशी होटलों के समकक्ष बना कर दिया। टाटा समूह ने जमशेदजी टाटा के जमाने से लेकर आज तक औद्योगिक विकास के अलावा, टाटा ट्रस्टों के माध्यम से देश के आम नागरिकों के लिए जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मानवतावादी, परोपकारी सहायता व विकास के नए अतुल्यनीय ‘‘आयाम’’ स्थापित किये। इसके शिल्पकार मुख्य रूप से सर रतन टाटा ही थे। शायद इसलिए आज उनके स्वर्गवासी होने पर सर रतन टाटा की चर्चा ‘‘उद्योगपति’’ से ज्यादा सामाजिक क्षेत्र में विभिन्न ट्रस्टों के माध्यम से किये गये उनके योगदान को याद कर के की जा रही है।


‘‘उद्योगपति’’ से ज्यादा ‘‘सामाजिक सरोकार’’ से भरा ‘‘राष्ट्रवादी’’ व्यक्तित्व।
सर रतन टाटा के व्यक्तित्व में एक नागरिक व समाज की आवश्यकता के अनुरूप नये-नये क्लेवर, इनोवेशन (नवाचार) का जुनून सवार था, जिसे कार्यरूप में परिणत करने की जो जिजीविषा थी, वह निश्चित रूप से उन्हे अन्य किसी भी दान-दाताओं से अलग विशिष्ट व्यक्ति बनाती है। फिर चाहे नैनो कार के उत्पादन ही बात क्यों न हो। देखा, जब उन्होंने एक परिवार को मोटरसाइकिल के पीछे महिला वह बीच में बच्चे को बैठकर जाते देखा। तब उनके मन में यह विचार आया कि ऐसे सामान्य व्यक्ति की आर्थिक क्षमता के अंदर क्या कोई चौपाहा वाहन (कार) उपलब्ध कराई जा सकती है? तब 1 लाख रू. की नैनो कार देश में आयी। वर्ष 1941 में देश के असंख्य कैंसर पीड़ितों के लिए ‘‘टाटा मेमोरियल’’ अस्पताल स्थापित किया गया। तथापि उसका प्रबंधन वर्ष 1957 में भारत सरकार के अधीन हो गया था। कोरोना काल में उद्योगपति ‘अजीम प्रेमजी’ के बाद सर रतन टाटा दूसरे सबसे बड़े दानदाता थे, जिन्होंने लगभग 1500 करोड़ से अधिक का दान दिया था। वास्तव में वे देश व विश्व के सबसे अमीर व्यक्ति बनने की बजाए दूसरे सबसे बड़े दान-दाता बने। ‘‘औद्योगिक घराने देश की सम्पत्ति के ट्रस्टी बनकर विकास करें’’ गांधी जी की इस सोच को सर रतन टाटा ने मूर्त रूप दिया। 26/11 को मुंबई बम कांड में होटल ताज पर हुए आतंकवादी हमले में 11 कर्मचारी मारे गए, तब सर रतन टाटा ने उनके परिवारों के पुनर्वास के लिए मात्र 20 दिन के भीतर ही एक ‘‘ताज पब्लिक सर्विस वेलफेयर ट्रस्ट’’ का गठन कर जो विस्तृत जीवन पर्यान्त सहायता प्रदान की, वह विश्व के लिए एक मिसाल बनी। वे एक ऐसे दरिया दिल दान दाता थे, जिनके दान देने वाला एक हाथ का दूसरे हाथ को पता भी नहीं होता था। सर रतन टाटा अपनी आय का लगभग 65 प्रतिशत से अधिक व्यय टाटा ट्रस्टों के माध्यम से सामाजिक सरोकार के लिए करते थे। ‘‘राष्ट्रवाद’’ उनमे इतना कूट-कूट कर भरा था कि ताज होटल पर आतंकी हमला होने पर उन्होंने यहां तक कह दिया था कि एक भी आतंकी बचना नहीं चाहिए, भले ही पूरी ताज बिल्डिंग को बम से उड़ाना क्यों न पड़े? बेजुबान जानवरों खासकर डॉग्स के प्रति सर रतन टाटा का इतना ज्यादा लगाव था कि लगभग 165 करोड रुपए खर्च कर मुंबई के पॉश महालक्ष्मी इलाके में 5 मंजिला जानवरों के लिए अस्पताल इसी वर्ष खोला।

सर रतन टाटा व्यक्ति से ज्यादा एक ‘‘संस्था’’थे।
यदि सर रतन टाटा को ‘‘इनसाइक्लोपीडिया’’ कहा जाये तो गलत नहीं होगा। जीवन के लगभग हर क्षेत्र में वे एक अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति से लेकर शीर्ष स्तर पर विद्यमान उघमी, राजनेता आदि सबके लिए एक अविवादित, विशिष्ट प्रेरक व्यक्ति थे। मतलब ‘आम’ होकर भी वे एक दुर्लभ विशिष्ट व्यक्तित्व के धनी हो गये थे। अमेरिका की कॉर्नेल यूनिवर्सिटी से आर्किटेक्ट की डिग्री लेने के बाद सीधे टाटा समूह के डायरेक्टर न बनकर कंपनी में एक कर्मचारी के रूप में कार्य कर उन्होेंने अनुभव लिया। पढ़ाई के दौरान भी उन्होंने नौकरी की। ‘‘सादा जीवन उच्च विचार’’ के वे दूसरे प्रतीक लाल बहादुर शास्त्री के बाद बन गए। कड़ी मेहनत, अनुशासित, शुचिता, स्वच्छता, ईमानदारी, उदारवादी, दूरदर्शी व्यक्तित्व के धनी, हर दिल अजीज, धड़कनों में देश व दिल में मानवता लिए, पशु प्रेमी, आम आदमी व देश की आवश्यकता के अनुरूप इनोवेशन करते हुए कार्य करना, उनको एक विलक्ष्ण व्यक्ति बनाता है। देश और स्वयं के स्वाभिमान के प्रति सजग रहने वाले सर रतन टाटा टाटा इंडिका की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण उसे ‘‘फोर्ड कंपनी’’ को बेचने की बात लगभग अंतिम हो जाने के बावजूद, फोर्ड की हृदय को चूभने वाली एक बात से उनके स्वाभिमान को चोट पहुंचने के कारण उन्होने सौदे को तुरंत निरस्त कर दिया। 


‘‘उद्योगपतियों की वर्तमान छवि, परसेप्शन व नरेशन से बिल्कुल अलहदा टाटा की छवि’’।  
वर्तमान युग में आज जो प्रायः उद्योगपतियों की छवि ईमानदारी से दूर और औद्योगिक नियमों के उल्लंघन से भरपूर होकर जहां उत्पाद की विश्वसनीयता की कमी झलकती है, वहीं विपरीत इसके टाटा उत्पाद राष्ट्रीयता व राष्ट्रवाद का भाव लिए विश्वसनीयता का एक नाम है, जो स्वयं में आईएसआई मार्क समान है। समय के पाबंद, प्रायः स्वयं फोन उठाने वाले, खुद कार चलाने वाले सर रतन टाटा की इच्छानुसार ‘‘स्वर्गवासी’’ होने पर टाटा उद्योग में छुट्टी घोषित नहीं की गई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वर्तमान नीति राष्ट्र निर्माण, राष्ट्र प्रथम (नेशन फर्स्ट), मेक इन इंडिया, मेड इन इंडिया को रतन टाटा ने पहले ही अपने व्यक्तिगत और औद्योगिक व्यावसायिक जीवन में पूरी तरह से उतारा। परिणाम स्वरूप देश की प्रथम ‘‘स्वदेशी कार’’ इंडिका का निर्माण उन्होंने किया। टाटा साम्राज्य को लगभग 100 से ज्यादा देशों में 100 से अधिक कंपनियों के द्वारा वैश्विक विश्व समूह में बदल दिया। पाकिस्तान की जीडीपी से भी ज्यादा टाटा ग्रुप का मार्केट वैल्युएशन 400 अरब डॉलर से ज्यादा हो गया। ‘‘वंश वाद व परिवार वाद’’ से कुछ हटकर भी टाटा कंपनियों में परिवार के बाहर के लोगों को भी भागीदारी प्रदान कर सर रतन टाटा ने उनकी योग्यता और कर्मठता को मान्यता दी। वर्ष 2012 में 75 साल की उम्र में टाटा संस से इस्तीफा देकर ‘‘साइरस मिश्री’’ को अध्यक्ष बनाया जिन्हे वर्ष 2016 में कुछ मतभेदों के चलते हटा कर स्वयं अंतरिम अध्यक्ष बनकर वर्ष 2017 में नटराजन चंद्रशेखर को नया चेयरमेन नियुक्त किया।

पद्म पुरस्कारों से नवाचार परिवार।
जेआरडी की बहन सिल्ला टाटा की भाभी रतनबाई पेटिट का विवाह पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना से होने के बावजूद संस्थापक जेआरडी टाटा को पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने भारत रत्न पुरस्कार दिया था। यह उनकी अटूट और अटल राष्ट्रभक्ति पर एक मोहर ही है। नवल टाटा को भी ‘‘पद्म विभूषण’’ से सम्मानित किया गया था। अब सर रतन टाटा को भी पद्म भूषण और पद्म विभूषण मिलने के बाद भारत रत्न देने की मांग की जा रही है, जो उनके प्रति देश की सही श्रद्धांजलि होगी। यद्यपि अपने जीवन काल में सर रतन टाटा ने इस मांग का विरोध किया था। इस परिवार की एक और उल्लेखनीय बात यह भी है कि जेआरडी की मां सुजैन वर्ष 1905 में देश की प्रथम महिला कार चलाने वाली बनी। वर्ष 1910 में जेआरडी के बड़े सुपुत्र दोराबजी टाटा के भारत की औद्योगिक उन्नति में योगदान देने के लिए ‘‘नाइट हुड’’ को आधी मिली। सर रतन टाटा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मान्यता मिली, जिसका एक उदाहरण उन्हें ‘‘ऑर्डर ऑफ ऑस्ट्रेलिया’’ से सम्मानित किया जाना है। परोपकारिता के लिए इंग्लैंड की ‘रौकफेलर फाउंडेशन लाइफटाइम अचीवमेंट’ के लिए चुने गए। वर्ष 2008 में उन्हें नैसकॉम ग्लोबल लीडरशिप पुरस्कार प्रदान किया गया। तथापि अपने डॉग के अचानक बीमार पड़ जाने के कारण उन्होंने प्रिन्स चार्ल्स के पास पुरस्कार लेने के लिए जाने का कार्यक्रम निरस्त कर दिया स वे कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सलाहकार बोर्ड के सदस्य रहे। अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों के ट्रस्टी होकर उन्हें मानद डॉक्टरेट की कई डिग्रियां भी प्रदान की गई। विश्व प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाएं ‘‘टाइम्स’’ व ‘‘फार्चून’’ की विश्व के प्रभावशाली लोगों की सूची में सर रतन टाटा का नाम शामिल था।

‘टाईकून’’ सर रतन टाटा की सफलता के मूल मंत्र।
सर रतन टाटा की सफलता के पीछे उनकी कुछ अद्धभूत सोच, विचार, मंत्र रहे हैं, जिनका अनुपालन करके हर कोई व्यक्ति सफलता के आयाम की ओर बढ़ सकता है।  
1. मैं सही निर्णय लेने में विश्वास नहीं करता। मैं निर्णय लेता हूं और फिर उन्हें सही बनाता हूं।
2. जो पत्थर लोग तुम पर फेंकते हैं. उनका इस्तेमाल स्मारक बनाने में करो।
3. ऐसी कई चीजें हैं, जो अगर मुझे दोबारा जीने का मौका मिले तो शायद मैं अलग तरीके से करूंगा, लेकिन मैं पीछे मुड़कर यह नहीं देखना चाहूंगा कि मैं क्या नहीं कर पाया।
4. अगर आप तेजी से चलना चाहते हैं तो अकेले चलिए, लेकिन अगर दूर तक चलना चाहते हैं, तो साथ मिलकर चलिए।
5. तुम्हारी गलती सिर्फ तुम्हारी है, तुम्हारी असफलता सिर्फ तुम्हारी है, किसी को और दोष मत दो, अपनी इस गलती से सीखो और आगे बढ़ो।
6. लोहे को कोई नष्ट नहीं कर था सकता, उसका अपना ही जंग उसे नष्ट कर सकता है इसी तरह कोई भी व्यक्ति को नष्ट नहीं कर सकता, लेकिन उसकी अपनी मानसिकता कर सकती है।
7. जीवन में आगे बढ़ने के लिए उत्तार चढ़ाव जरूरी है, क्योंकि ईसीजी में भी एक सीधी लाइन का मतलब होता है कि हम जिंदा नहीं है।
8. चार बातों से शर्मिंदा मत हो स पुराने कपड़े, गरीब दोस्त, बूढ़े माता-पिता एवं सादगी।
9. सबसे अच्छे नेता वे हैं, जो अपने से अधिक बुद्धिमान सहायकों और सहयोगियों के साथ रहने में रुचि रखते हैं।

उपसंहार
अंत में देश के साधारण या निम्न मध्यम वर्ग को अमीर या अभिजात वर्ग का ‘‘लखपतिया नैनो कार’’ के माध्यम से एक एहसास, अनुभव कराने वाले सर रतन टाटा जरूर हमें टा-टा कह कर सृष्टि के अमिट नियम का पालन कर चले गये। परंतु किसी समय धनाढ्य की पहचान व पर्यायवाची बने उद्योगपति सर रतन टाटा का देश की जनता से इतना जुड़ाव भी हो सकता है, यह आज उनको श्रद्धांजलि देने आई अपार जनता तथा सोशल मीडिया सहित समस्त प्लेटफॉर्म्स के माध्यमों से देश भर से आई अपार श्रद्धांजलि, प्रतिक्रियाओं को देख-पढ़-सुन कर महसूस किया जा सकता है। शायद ही इसके पूर्व किसी उद्योगपति के निधन पर देश इतना शोकाकुल व नतमस्तक हुआ है। इसका एक कारण शायद प्रत्येक घर की दिनचर्या में विभिन्न क्षेत्रों में टाटा उत्पाद की भागीदारी रही है। परंतु इससे जुड़ा एक दुखद पहलू यह भी है कि एक-दो टीवी चौनलों इंडिया टीवी आदि को छोड़कर शेष चौनलों ने अंतिम यात्रा का पूरा लाइव टेलीकास्ट न कर सायं पांच बजे निर्धारित कार्यक्रमों ‘‘हल्ला बोल’’, ‘‘देश की बात’’ इत्यादि पर राजनीतिक बहस कराते रहे। गोया, सर रतन टाटा का जाना राष्ट्रीय क्षति न होकर ‘‘देश की बात’’ नहीं थी? देश की तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया का किसी प्रसिद्ध अभिनेता या नेता की ‘‘अंतिम यात्रा’’ के समय भी क्या यही रुख रहता? राजकीय सम्मान के साथ परंतु परंपरागत पारसी धर्म से अंत्येष्टि न होकर उनका अंतिम संस्कार भी सर्वधर्म समभाव का एक संदेश दे गया। स्वयं टा-टा कहकर अलविदा होकर परंतु नागरिकों को उनकी सफलता के लिए आवश्यक जीवन के नौ-दस मूल मंत्रो को टा -टा न कहकर अपने जीवन में आत्मसात करने का बहुमूल्य संदेश दे गए।  और यह उनके प्रति न केवल सच्ची श्रद्धांजलि होगी, बल्कि वह स्वयं को प्रगति के पथ पर ले जाकर राष्ट्र के प्रति भी ‘‘उपकार’’ होगा।

रविवार, 13 अक्तूबर 2024

‘माननीय न्यायाधीश का आदेश!’’ कितना ‘‘न्यायिक’’।

वित्त मंत्री के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश।

‘न्यायिक आदेश से राजनीतिक भूचाल’’! 

क्षा के अधिकार व कानून से जुड़े मुद्दों के लिए लड़ने वाला संगठन ‘‘जन अधिकार संघर्ष परिषद’’ द्वारा भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 175 (पुरानी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अंतर्गत दायर की गई निजी शिकायत (पीसीआर) में कहा गया है, ‘‘आरोपी संख्या एक (निर्मला सीतारमण) ने आरोपी संख्या दो (ईडी) की गुप्त सहायता और समर्थन के जरिए राष्ट्रीय स्तर पर आरोपी संख्या तीन (भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा) और कर्नाटक राज्य में आरोपी संख्या चार (कर्नाटक भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष नलिन कुमार कटील) के लाभ के लिए हजारों करोड़ रुपये की उगाही करने में मदद की।’’ बेंगलुरु महानगर के 42वीं एसीएमएम कोर्ट के मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट तथा जन प्रतिनिधियों की विशेष अदालत (एमपी एमएलए कोर्ट) के न्यायाधीश ने प्रथम दृष्टिया मामला बनने के कारण प्रथम दृष्टिया आरोपों को सही पाते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण एवं अन्यों के विरुद्ध भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 308 जबरन वसूली (एक्सटॉर्शन), 61 आपराधिक षड्यंत्र एवं धारा 3(5) सामान्य आशय, पुरानी भारतीय दंड संहिता की धारा 384, 120बी एवं 34 के अंतर्गत बेंगलुरु के तिलक नगर थाने को प्राथमिकी दर्ज करने के आदेश करते ही देश के राजनीतिक हाल में भूचाल आ गया। मुकदमे के द्वारा मुद्दे उठाने वाले व्यक्ति की पृष्ठभूमि, स्थिति (स्टेटस) को देखते हुए यह न्यायिक प्रकरण, एक नई न्यायिक निर्णय की दिशा स्थापित करता हुआ दिख रहा है। क्योंकि शिकायतकर्ता स्वयं भुक्तभोगी नहीं है। जिस अपराध की शिकायत की गई है, वह ‘‘आफेसं इन परसोनम है, रेम नहीं’’। जिस प्रकार जजमेंट इन रेम न परसोनम होता है। प्रकरण के मुख्य विषय को एक बार आपको याद करना आवश्यक है, तभी आप समझ पाएंगे ‘‘न्याय कितना न्यायिक है’’? उक्त प्राथमिक आदेश की न्यायिक समीक्षा आगे की जा रही हैं। 

‘‘चुनावी बांड’’ को लेकर पूर्व में उच्चतम न्यायालय ने क्या कहा था? 

उच्चतम न्यायालय ने चुनावी बांड स्कीम (ईबीएस) को अवैद्य ‘‘असंवैधानिक’’ घोषित किया था। फलतः; निर्णय के तुरंत बाद से चुनावी बॉन्ड की बिक्री को भारतीय स्टेट बैंक ने रोक दिया था। उक्त निर्णय की महत्वपूर्ण बात यह रही कि, बॉन्ड को असंवैधानिक घोषित करने के बावजूद सर्वोच्च न्यायालय ने खरीदे गए बांड्स की राशि को व्यावहारिक रूप से ‘‘अवैध’’ घोषित नहीं किया। शायद इसीलिए न तो वे राशि जब्त की या वसूली गई। मतलब निर्णय के पूर्व तक जिन व्यक्तियों, कंपनियां ने बांड के माध्यम से पैसे दिए और जिन राजनीतिक पार्टियों ने लिए, वह राशि एक तरह से ‘‘वैध’’ मान ली गई। क्योंकि लेन-देन परस्पर वापस नहीं हुआ। उच्चतम न्यायालय का यह आदेश ठीक उसी प्रकार का है, जिस प्रकार महाराष्ट्र की एकनाथ शिंदे की सरकार के मामले में राज्यपाल के आदेश को गैर संवैधानिक ठहराने के बावजूद उक्त असंवैधानिक सरकार को उच्चतम न्यायालय ने इसलिए चलने दिया, क्योंकि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने अविश्वास प्रस्ताव का सामना किया बिना मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। इसी प्रकार जब याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट से चुनावी बांड के मामले में आगे जांच के लिए एक एसआईटी गठन की मांग की, तब माननीय न्यायालय ने यह कहकर उक्त मांग को अस्वीकार कर दिया था कि आगे जांच की कोई आवश्यकता नहीं है। उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय के उक्त दोनों प्रभावों को बेंगलुरु के माननीय विशेष मजिस्ट्रेट ने प्राथमिकी दर्ज करने के आदेश देकर, व्यावहारिक रूप से निष्प्रभावी बना दिया, जो कानूनी रूप से उचित नहीं  दिखता है। 

‘‘जेएसपी’’ के सह अध्यक्ष आदर्श अय्यर के प्रमुख आरोप। 

शिकायतकर्ता जेसीपी के सह अध्यक्ष आदर्श अय्यर के अनुसार मार्च 2024 में पुलिस के समक्ष 15 विभिन्न शिकायतें की गई थी, परन्तु कोई कार्रवाई न होने के कारण यह एक पीसीआर की गई है। आदर्श अय्यर ने विशेष मजिस्ट्रेट के समक्ष दायर शिकायत में प्रमुख आरोप लगाया कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण व कुछ उन व्यक्तियों के द्वारा प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के अधिकारियों की सहायता से चुनावी बांड के माध्यम से राजनीतिक दलों को दिए गए दान के नाम पर जबरन उगाही (वसूली) की गई। अनिल अग्रवाल की फर्म से 230 करोड़ और अरविंदो फार्मेसी से 49 करोड़ रुपए वर्ष 2019 से 2022 के बीच वसूली का आरोप लगाया गया। माननीय मजिस्ट्रेट ने लगभग 4 महीने में 10 से ज्यादा सुनवाई (हियरिंग) करने के बाद जबरन वसूली के अपराध को दर्ज करने के आदेश दिए। सत्ता का दुरुपयोग कर भाजपा के लाभान्वित पक्ष होने से उनके राष्ट्रीय पदाधिकारियों व कर्नाटक प्रदेश भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष नलिन कुमार कटील तथा पार्टी के नेता अनिल खत्री को भी आरोपी बनाया गया है। विद्यमान परिस्थितियों के चलते और देखते हुए यह आदेश असामान्य व अविश्वसनीय सा लगता है।

‘‘क्विड प्रो क्वो’’ "quid pro quo" (प्रतिकर) कहां?

बड़ा प्रश्न यहां पर यह है कि इस मामले में क्या वित्त मंत्री के विरुद्ध ‘‘क्विड प्रो क्वो’’ अर्थात ‘‘प्रतिदान’’ मतलब ‘‘कुछ के बदले कुछ’’ स्थापित होता है क्या? क्योंकि बॉन्ड की राशि  तो वित्त मंत्री के निजी खाते में जमा हुई नहीं? न ही ऐसी कोई साक्ष्य है कि वित्त मंत्री के कहने से या दबाव से अनिल अग्रवाल ने बॉन्ड के द्वारा पैसे भारतीय जनता पार्टी को दिए। एक बात जरूरी यह भी है कि 2 जनवरी 2018 को जब यह स्कीम लॉन्च की गई थी, तब वित्त मंत्री अरुण जेटली थे, जिन्होंने 2017 के बजट में उक्त स्कीम को पेश किया था, तब निर्मला सीतारमण वित्त मंत्री नहीं थी। एक बात और यहां महत्वपूर्ण है कि जिस प्रकार कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने के लिए राज्यपाल की अनुमति ली गई थी, वैसी ही अनुमति लिए बिना क्या वित्त मंत्री के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की जा सकती है? क्योंकि वे भी सिद्धारमैया के समान एक लोक सेवक (पब्लिक सर्वेंट) हैं। क्या राज्यपाल से अनुमति की प्रतीक्षा की गई? अथवा  अस्वीकार किये जाने पर न्यायालय ने प्राथमिकी दर्ज करने के आदेश दिये। तथ्य सार्वजनिक होना बाकी है। एक और प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है कि चुनावी बांड के मामले में आगे और जांच करने के लिए ‘‘एसआईटी’’ गठित करने की मांग को उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहकर की आगे जांच की कोई आवश्यकता नहीं है, अस्वीकार करने के बावजूद एफआईआर दर्ज करने के आदेश का मतलब यह होता है कि अब आगे जांच की जाएगी। जो प्रथम दृष्टिया सुप्रीम कोर्ट के आगे जांच न करने के आदेश का उल्लंघन प्रतीत होता दिखता है। तथापि 48 घंटे बाद माननीय कर्नाटक उच्च न्यायालय ने निचली मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट के आदेश पर अगली सुनवाई तक रोक लगा दी है। अंत में राजनीतिक गलियारों में यह भी कहा जा रहा है की कर्नाटक के कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के विरुद्ध मुकदमा चलाने की अनुमति राज्यपाल द्वारा दी जाने पर प्रतिक्रिया स्वरूप भाजपा नेताओं के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज करवा कर कहीं हिसाब बराबर चुकता करना तो नहीं है?

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024

‘‘एक देश एक चुनाव’’!

 ‘‘बुनियादी ढांचे में परिवर्तन’’ या  ‘‘पुर्नस्थापना’’? ‘‘संघीय ढांचे पर अतिक्रमण’’ कैसे?

प्रधानमंत्री मोदी की पहल

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहली बार 73वें स्वाधीनता दिवस (वर्ष 2019) के अवसर पर ‘‘लाल किले’’ से संबोधित करते हुए देश को ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ ‘‘एक देश एक चुनाव’’ का एक ‘‘वैचारिक उपक्रम’’ दिया। इस संबंध में वर्ष 1983 से ही भिन्न-भिन्न समयों में चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग एवं संविधान समीक्षा आयोग विचार कर चुके हैं। पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की अध्यक्षता में एक वर्ष पूर्व (सितम्बर 2023 में) गठित कमेटी की रिपोर्ट की सिफारिशों को कैबिनेट ने रूबरू स्वीकार भी कर लिया है। इस पर देश का ‘‘अभिमत’’ लगभग सीधा-सीधा पक्ष-विपक्ष में विभाजित है। कई लेख, आलेख, चर्चा-बहस, बयान, तर्क-कुतर्क पक्ष-विपक्ष में आ चुके हैं। लगा था कि इस विषय पर लिखने के लिए ‘‘अलग’’ से रह क्या गया है? परन् जब मैं  इस विषय पर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी, स्वराज इंडिया पार्टी के अध्यक्ष  योगें द्र यादव व प्रसिद्ध यूट्यूबर, ध्रुव राठी के विचारों को पढ़-सुन रहा था, तब मुझे लगा कि इस विषय पर जो एक महत्वपूर्ण बिंदु है, ‘‘क्या इससे संविधान के मूलभूत (बुनियादी) ढांचा (उच्चतम न्यायालय द्वारा केशवानंद भारती में प्रतिपादित) में परिवर्तन होगा अथवा यह संघीय ढांचे पर अतिक्रमण है’’? वस्तुतः इसकी व्याख्या व आलोचना गलत रूप से की जा रही है। इस संबंध में गले से गले मिलाते हुए राहुल गांधी का ट्वीट है ‘‘भारत राज्यों का एक संघ है’’। ‘‘एक देश-एक चुनाव’’ संघ और इसके सभी राज्य पर हमला है’’। ऐसी स्थिति में इस बिंदु पर वर्ष 1950 से लागू संघीय संवैधानिक व्यवस्थाओं वह उसके अंतर्गत हो रहे चुनावों को ध्यान में रखकर प्रकाश डालना जरूरी हो गया है। 

‘एक देश-एक चुनाव’ की जरूरत क्यों?

बेशक यह मुद्दा आज बहस के केंद्र में है। परन्तु स्वाधीन भारत के प्रारंभिक चरणों में वर्ष 1952 से 1967 तक हुए चार आम चुनावों में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ ही करवाए गए थे (एक अपवाद को छोड़कर जब वर्ष 1960 में केरल विधानसभा के मध्यावधि चुनाव कराने से यह क्रम पहली बार टूटा)। एक साथ चुनाव कराने का लगातार क्रम तब टूटा, जब वर्ष 1968-69 में व उसके बाद समय-समय पर विभिन्न राज्यों की विधानसभाएँ भिन्न-भिन्न कारणों से समय से पूर्व भंग कर दी गईं। बड़े पैमाने पर वर्ष 1969 में कांग्रेस पार्टी में विभाजन होने से देश में वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी द्वारा गरीब हटाओ  का नारा देकर पहली बार लोकसभा चुनाव भी समय से पहले कराये गए थे। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब चार बार एक साथ चुनाव पहले भी करवाए जा चुके हैं, तो अब पुनः उक्त स्थिति को पुनर्स्थापित करने में समस्या क्या है?

‘चुनाव’’ ही लोकतंत्र का सबसे बड़ा ‘‘उत्सव’’ है

अगर हम देश में होने वाले चुनावों पर वर्तमान में नजर डालें, तो पाते हैं कि  हर वर्ष किन्हीं राज्यों में चुनाव होते ही रहते हैं। परंतु यह कथन भी पूरी तरह से सही नहीं है कि इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं, बल्कि देश के खजाने पर भी भारी बोझ पड़ता है। सेंट्रल फार मीडिया स्टडीज के एक अध्ययन के अनुसार हाल ही में हुए 18 वीं लोकसभा के चुनाव में एक लाख करोड़ रुपए से अधिक का खर्च आया और लगभग तीन महीने तक देश चुनावी मोड में रहा। एक हनुमान के अनुसार भारत की कुल 4120 विधानसभाओं के एक साथ चुनाव लोकसभा के साथ कराने पर लगभग 3 लाख करोड रुपए से अधिक का खर्चा आएगा l वैसे ओपी रावत पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त के अनुसार भारत का चुनाव विश्व भर में सबसे सस्ता चुनाव है। 1 अमेरिकी डॉलर प्रति वोटर के हिसाब से खर्च होता है। तब फिर राजनीतिक पार्टियों द्वारा किए गए खर्चों की सीमा क्यों नहीं बांधी जाती है? जो उम्मीदवारों द्वारा किए गए खर्चों से कई गुना ज्यादा होती है जो जो उपरोक्त उल्लेखित खर्चे में शामिल नहीं है। आचार संहिता लागू होने पर सिर्फ "नई नीति" की घोषणा नहीं की जा सकती है।  वह भी जरूर यदि जनहित में अति आवश्यक हो तो चुनाव आयोग की अनुमति से की जा सकती है। आचार संहिता में में भी आवश्यक संशोधन करके सरकार के दैनिक कार्यों में लगे अनावश्यक अंकुश को कम किया जा सकता है। इसलिए इस आधार पर एक साथ चुनाव की वकालत तथ्यात्मक नहीं है। विशेष कर इस बात को देखते हुए कि  ‘‘चुनाव’’ का ‘ड़र’ ही तो जनप्रतिनिधियों को जनता-जर्नादन के साथ जीवंत सर्म्पक व उनके निकट लाता है। 

भाजपा की वैचारिक पहचान

‘‘जनसंघ’’ से लेकर भाजपा और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का एक सपना रहा है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक, ‘‘विविधता में अनेकता लिये हुए’’ भारत देश की अखंडता को एक सूत्र में बांधने के लिए ‘‘एक देश-एक प्रधान", "एक विधान’’ ‘‘एक निशान’’, ‘‘एक मोबिलिटी कार्ड, (एनसीएमसी)’’ एक पहचान (आधार कार्ड) ‘‘एक राशन कार्ड’’, ‘‘एक कर’’, ‘‘एक शिक्षा नीति’’, एवं एक देश-एक ग्रिड’’ का होना आवश्यक है। इसी कड़ी में एक देश-एक चुनाव की नीति पर मोदी सरकार लगातार काम कर रही है। इसके पटल (काउंटर) में विपक्षी नेताओं ने वन नेशन-वन इनकम, वन एजुकेशन, वन इलाज का शिगूफा छोड़ दिया है। 

मूल महत्वपूर्ण मुद्दा।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की वर्ष 1952 से 67 तक हुए एक साथ चुनाव की स्थिति आज विभिन्न कारणों से अलग-अलग हो गई हैं। ध्यान देने योग्य बात यहां यह है कि यह स्थिति कोई संविधान में संशोधन होने के कारण नहीं हुई है? परंतु एक साथ चुनाव में वापस आने के लिए जरूर संविधान संशोधन करना आवश्यक है। प्रश्न यह है की पूर्व स्थिति की "पुनर्स्थापना" के लिए  प्रस्तावित संविधान संशोधन, क्या संविधान की मूल भावना को या संघीय ढांचे को चोट पहुंचाते हैं ? मूल विषय सिर्फ  इतना सा ही है, जिसकी विवेचना आगे की जा रही है। 

सिर्फ पुरानी व्यवस्था की पुनर्स्थापना ही ! कोई नई नीति नहीं

संविधान निर्माताओं ने जब 5 साल के अंतराल में एक साथ लोकसभा व विधानसभा के चुनाव कराने की बात कही थी, तब उन्होंने यह कल्पना नहीं की थी कि देश में दल बदल के कारण ‘‘आयाराम-गयाराम’’ की राजनीति के गिरते स्तर, लालच, धन, बल के चलते  शैनः शैनः एक स्थिति ऐसी बन जायेगी, जब संवैधानिक चुनाव अवधि ( 5 वर्ष) का पालन करने के कारण प्रायः अधिकतर राज्यों की विधानसभाओं व केंद्र के लोकसभा चुनाव अलग-अलग होने लगेगें। अतः वर्ष 1967 तक चुनाव एक साथ होते रहे हैं, जब वे संघीय ढ़ाचे पर अतिक्रमण नहीं थे, तब आज कैसे? जबकि किसी भी सरकार ने संविधान संशोधन कर चुनावी व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया है। संविधान निर्माताओं ने प्रारंभ में आरक्षण के लिए मात्र 10 वर्ष का प्रावधान किया था, और उक्त उद्देश्य की प्राप्ति न होने के कारण इसे हर आगे 10 साल के लिए बढ़ाने का प्रावधान किया गया, जिसकी कल्पना तो उन्होंने कर ली थी। परन्तु यहां संविधान निर्माताओं ने शायद राजनेताओं के गिरते नैतिकता व गलत आचरण की कल्पना नहीं की थी, जो दुर्भाग्यवश आज व्यवस्था का अभिन्न अंग बन गई है। जिस कारण ही एक साथ चुनाव कराने का चक्र पांच साल की अवधि का (क्रम) टूटा है। तो उसको सुधारने के लिए वही पुरानी व्यवस्था लागू करने के लिए यदि आवश्यक संविधान संशोधन किया जाता है, तो वह संविधान की संघीय ढांचे के साथ छेड़-छाड़ या चोट कैसे! यह समझ से परे है। 

योगेन्द्र यादव, कुरैशी व ध्रुव राठी का विरोध! कानून व तथ्यों से परे। 

योगेन्द्र यादव व एस वाई कुरैशी ने कमेटी की रिपोर्ट की कुछ कमियों को जो इंगित किया है, वह बिल्कुल सही है। परन्तु योगेन्द्र यादव का यह कहना कि यह ‘‘शासक की लोकतंत्र को कमजोर करने की डिजाइन’’ है। यह संसदीय शासन प्रणाली में निहित विधायिका के प्रति कार्यपालिका की जवाब देही के मूल सिंद्धात को बिगाड़ देगा। साथ ही यह संविधान की बुनियादी संरचना का उल्लंघन करता प्रतीत होता है। ये तीनों ही बातें तथ्यात्मक व संवैधानिक दृष्टि से गलत हैं। इसका सीधा जवाब है कि प्रारंभिक 20 वर्षों तक देश में एक साथ चुनाव हो रहे थे, जब क्या देश में लोकतंत्र व संविधान के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन हो रहा था? तब देश के किसी भी शख्स ने एक साथ चुनाव के विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा? पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त कुरैशी ने जरूर कुछ मुद्दों का व्यवहारिक हल निकालने का आग्रह किया है। 

विरोध के कारण

विरोध में एक बात और कही जाती है। जिस प्रकार जीएसटी को लागू किया, परन्तु एक देश एक कर की बात पूरी तरह से लागू नहीं हो पायी। ‘‘एक दर’’ की बजाए विभिन्न दरों के साथ पेट्रोलियम उत्पाद को भी जीएसटी के दायरे में नहीं लाया गया । इसी प्रकार एक देश-एक चुनाव पूरी तरह से आज भी सरकार लागू करने नहीं जा रही है?  क्योंकि कोविंद कमेटी की रिपोर्ट में पंचायतों के चुनाव आम चुनाव के बाद 100 दिन के अंदर कराये जाने की बात की गई है, जो समझ से परे है। एक बात और जो इस कदम के विरूद्ध में कही जा रही है, देश के एक साथ विधानसभा-लोकसभा को वोट देने पर देश में साक्षरता का स्तर कम होने के कारण लोग विवेक से सही निर्णय नहीं ले पाते हैं। इसका कुछ फायदा केन्द्र में बैठी सरकार की पार्टी को होता है। विशेषकर क्षेत्रीय दलों को नुकसान होता है। इस संबंध में अभी हाल के हुए ओडिशा विधानसभा चुनाव का उल्लेख करने वाले उड़ीसा के पिछले परिणाम को भूल जाते हैं। यदि 1952 से लेकर 1967 तक साक्षरता की दर को देखे तो आज वह लगभग दो गुनी हो गई है। जब उस समय 20 साल तक मतदाता के विवेक पर प्रश्न साक्षरता के आधार पर नहीं उठाया गया, तब इस आधार पर आज प्रश्न उठाना कितना जायज है? एक और आधार ‘‘राज्य के मुद्दों’’ पर केंद्र के मुद्दे हावी हो जाएंगे, एक साथ चुनाव कराने में? वस्तुतः यह जनता के विवेक पर ही प्रश्न-चिन्ह लगाने समान है?

सरकार परसेप्शन बनाने में असफल। 

यद्यपि आज की राजनीति में ‘‘एक्शन की बजाय पररेप्शन’’ का महत्व ज्यादा है, जिसे बनाने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी माहिर है। उनके मुकाबले सिर्फ केजरीवाल ही ठहर पाते है। इसके लिए भी कुछ करते हुए दिखना जरूर पड़ता है। परंतु इस मुद्दे को लेकर मोदी चूक गये लगते है। क्योंकि ‘‘एक देश-एक चुनाव’’ को लेकर प्रथम अवसर मिलने पर ही एक्सन कर परसेप्शन क्यों नहीं बनाया जा रहा है? पिछले एक साल में हुए लोकसभा और विधानसभा चुनाव को ही ले लें  l सात फेसों में हुए लोकसभा चुनाव की चुनावी प्रक्रिया की अवधि कम की जा सकती थी। स्वयं मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने लोकसभा चुनाव संपन्न होने के बाद इस बात को स्वीकार किया है l उड़ीसा सिक्किम विधानसभाओ के साथ ही महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, झारखंड के चुनाव लोकसभा के साथ एक साथ कराया जा सकते थे, यदि चुनाव आयोग इनकी अवधि को 6 महीने आगे-पीछे घटा-बड़ा कर लेता, जो उसके अधिकार क्षेत्र में है। वर्ष 2022 में भी गुजरात के साथ हिमाचल के भी चुनाव कराये जा सकते थे, जो पूर्व मे होते थे। तब शायद जनता के मन यह परसेप्शन जरूर चला जाता कि सरकार वास्तव में इस विषय पर गंभीर है और वह बिना संवैधानिक संशोधन किये इस दिशा में जो कदम उठा सकती है, उठा रही है। इसीलिए शायद कुछ लोग सरकार को इस विषय पर गंभीर न होकर नरेन्द्र मोदी का "शिगूफा" मात्र भी कहते हैं, क्योंकि इसके लिए दोनों सदनों में आवश्यक संख्या बल से एनडीए "कोसों" दूर है। कोविंद कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में बीच में विधानसभा भंग होने पर उसका चुनाव 5 साल के लिए न किये जाकर शेष अवधि के प्रावधित किया है। जरूर यह प्रस्तावित संशोधन शायद  संविधान की मूल अवधारणा को चोट पहुंचा सकता है। इस संबंध में उच्चतम न्यायालय की राय भी ली जा सकती है।

उपसंहार।

वास्तव में यदि राजनीतिक दल व जनता यह चाहती है कि संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार चुनाव 5 साल में एक बार एक साथ हो, और यह क्रम आगे भी निरंतर चलता रहे। तब फिर दल बदल को पूर्णतः प्रतिबंधित कर और बीच में सरकार किसी भी मुद्दे के गिरने पर शेष अवधि के लिए ‘‘अल्पमत सरकार’’ को कार्य करते हुये देना होगा। अथवा पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत द्वारा वर्ष 2015 में सरकार को एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव के संबंध में दिया गया यह सुझाव महत्वपूर्ण हो सकता है कि अविश्वास प्रस्ताव की जगह ‘‘रचनात्मक विश्वास प्रस्ताव’’ का प्रावधान करना होगा। वैसे यदि देश में पूर्ण रूप से न सही तो 90% सभी राज्यों के चुनाव लोकसभा के साथ एक साथ हो, तब भी वह देश की राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए एक नेशन एक इलेक्शन ही कहलायेगा। ठीक उसी प्रकार जैसे एक देश एक टैक्स की नीति के तहत जीएसटी वर्तमान में विभिन्न टैक्स दरों के साथ लागू है।

शनिवार, 21 सितंबर 2024

‘‘सशर्त’’ मुख्यमंत्री का चुनाव! क्या संवैधानिक व्यवस्था को ‘‘ठेंगा’’ नहीं दिखाएगा?

केजरीवाल का दोहरा व्यक्तित्व चालू आहे।

‘‘भ्रष्ट’’ चुनावी राजनीतिक व्यवस्था से ‘‘ईमानदारी’’ का प्रमाण पत्र?

भारतीय राजनीति में ‘‘धूमकेतु’’ के समान अचानक उभरे, चमके अरविंद केजरीवाल ने लोकतांत्रिक व्यवस्था की दुहाई देते हुए ‘‘नैतिकता’’ के ‘‘भूले बिसरे पाठ’’ को याद करते हुए ‘‘ईमानदारी’’ के प्रमाण पत्र की आवश्यकता महसूस की। परंतु इसके लिए बनाई गई संवैधानिक व्यवस्था ‘‘न्यायालय’’ की शरण में जाकर कानूनी प्रक्रिया को अपना कर न्यायालय से ‘‘ईमानदारी’’ का प्रमाण पत्र प्राप्त करने की बजाय जनता की अदालत (जैसे रजत शर्मा की ‘‘आप की अदालत’’ हो) में जाकर स्वयं को ‘‘दोष मुक्त’’ सिद्ध करने के लिये दो दिन पूर्व की गई घोषणा अनुसार इस्तीफा दे दिया। ‘‘जेल’’ में रहकर मुख्यमंत्री के रूप में पहले से ही  "विकलांग" (केन्द्र द्वारा) शासन की ‘विकलांगता को बढ़ाकर, शासन ’चलाकर देश में ही नहीं, बल्कि विश्व में रिकॉर्ड बनाकर सत्ता लोलुप, अनैतिकता व हंसी का पात्र बने केजरीवाल ने देश के अन्य मुख्यमंत्रियों के समान गिरफ्तार होने के पूर्व इस्तीफा देकर नैतिकता, सुचिता का परिचय नहीं दिया, जिसके झंडाबरदार होने का दावा वह जोर शोर से करते रहे हैं। 

‘‘चतुर’’ केजरीवाल का ‘‘चातुर्य-पूर्ण चाल’’। ‘‘ट्रंप कार्ड’’

इसी बीच लोकसभा के हुए चुनाव में केजरीवाल ने दिल्ली की जनता से कहा था कि ‘‘यदि वह उन्हें जेल में देखना चाहते हैं, तो भाजपा को वोट दें और बाहर देखना चाहते हैं तो आम आदमी पार्टी को वोट दें’’। केजरीवाल के इस तरह स्पष्ट रूप से जनादेश मांगे जाने के बावजूद ‘‘आप’’ पार्टी दिल्ली में पूरी तरह बुरी तरह से हार गई। तब आपके ही तर्को (या कुतर्कों) के सहारे इस जनादेश के द्वारा जनता ने संवैधानिक व्यवस्था के तहत आपके विरुद्ध चल रही कानूनी प्रक्रिया पर मोहर लगा दी, ऐसा क्यों न माना जाए? ‘‘शातिर दिमाग’’ वाले राजनैतिक पैतरेबाजी के उस्ताद केजरीवाल ने इस्तीफा देकर दिल्ली विधानसभा के होने वाले, अगले आम चुनाव तक मंत्री आतिशी सिंह को मुख्यमंत्री बनाने का विधायक दल के द्वारा निर्णय करवा कर अपनी एक अलग राजनीतिक ‘‘केजरीवाल शैली’’ (प्रसिद्ध गुजरात मॉडल समान) का परिचय दिया है। 5 महीने के भीतर होने वाले विधानसभा के चुनावी संग्राम में मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में आतिशी सिंह को रखकर परंतु ‘‘मत’’ (वोट) केजरीवाल को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन करने के लिए मांग कर, ‘‘आम आदमी पार्टी’’ के चुनाव जीतने पर पुनः अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री पद पर चुनेगी। केजरीवाल के इस ‘‘नव प्रयोग’’ की ‘‘मूल बात’’ को मुख्यमंत्री के रूप में चुने जाने पर स्वयं आतिशी ने स्पष्ट कर दिया है। स्पष्ट रूप में यह संवैधानिक व्यवस्था का दुरुपयोग है। जैसा कि उनका स्वयं का कथन है कि पूर्व में मैंने ‘‘संविधान व गणतंत्र’’ को बचाने के लिए इस्तीफा नहीं दिया। ‘‘जनादेश’’ का प्रावधान ‘‘शासन चलाने के लिए है’’, न की ‘‘नेता’’ के दागी व्यक्तित्व को ‘‘धोने’’ के लिए? बड़ा प्रश्न यहां यह है कि पहली बार लगभग 6 महीने पूर्व जब केजरीवाल जेल जा रहे थे, तभी उन्होंने विधानसभा भंग कर करने की सिफारिश कर जनादेश द्वारा अपने ‘‘निष्कलंक’’ होने की दावेदारी क्यों नहीं की? तब भी वे कार्यवाहक मुख्यमंत्री के रूप में बने रह सकते थे। लेकिन तब शायद फिर ‘‘आतिशी’’ का मोहरे के रुप में उपयोग कर ‘‘त्याग तपस्या और बलिदान’’ भाजपा के नारे से ‘‘त्याग’’ को चुरा कर ‘‘शीश महल’’ पर 45 करोड़ से अधिक नवीनीकरण (रिनोवेशन) पर खर्च कर रहवासी बंगले को खाली कर ‘‘त्याग’’ दिखाने का मौका कहां मिल पाता? क्या इन 6 महीने में केजरीवाल को यह विश्वास था कि ‘‘न्यायिक प्रक्रिया’’ जो ही ‘‘उचित प्रक्रिया’’ थी, के द्वारा वह आरोप से उन्मुक्त (डिस्चार्ज) कर दिए जाते? जो प्रार्थना न्यायालय द्वारा अस्वीकार कर दी गई।

दोहरे व्यक्तित्व, चरित्र के खेवनहार ! केजरीवाल

भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोकपाल के गठन व वापस बुलाने के अधिकार की मांग के लिए जंतर मंतर में हुए लोकप्रिय अन्ना आंदोलन से निकले पढ़े-लिखे नौकरशाह से राजनेता बने केजरीवाल राजनीति में निपुण होते-होते उसी की चाल रंग-ढंग में समाहित होकर अपने मूल व्यक्तित्व को ही भूल गए। जेल से बाहर आने पर केजरीवाल ने यह कहा कि मैं ‘‘अग्नि परीक्षा’’ देना चाहता हूं और मैं ‘‘मुख्यमंत्री’’ और मनीष सिसोदिया ‘‘उपमुख्यमंत्री’’ तभी बनेंगे, जब ‘‘लोग (जनता) हमें ईमानदारी का प्रमाण पत्र देंगे’’। ‘‘महाभारत’’ की ‘‘अग्नि परीक्षा’’, ‘‘रामचरित मानस’’ की ‘‘खटाऊ राज’’ और ‘‘शहीद भगत सिंह’’ का बलिदान, कथनों के उच्चारण मात्र से ‘‘वैसा’’ व्यक्तित्व नहीं बन जाता है, बल्कि उसके लिए ‘‘वैसा ही कट्टर आचरण’’ अपनाना भी होता है। इसीलिए वर्तमान राजनीति के अनुरूप बने दोहरे व्यक्तित्व के धनी सिर्फ ईमानदार नहीं, बल्कि कट्टर ईमानदार केजरीवाल को यह आत्म चिंतन करने की गहरी आवश्यकता है कि उन्हें ‘‘ईमानदारी का प्रमाण पत्र’’ लेने की आवश्यकता ही क्यों पड़ रही है? ‘‘साथी ‘‘अन्ना’’ को तो नहीं पड़ी’’?

रामायण काल से तुलना क्या ईमानदारी है? 

सौरभ भारद्वाज से लेकर ‘‘आप’’ के अनेक नेताओं के बयानों से स्पष्ट है कि आतिशी की ताजपोशी रामायण काल के ‘‘राजा भरत’’ के समान है। परंतु वह निर्णय भरत का ‘‘स्वयं का’’ था राजा राम का नहीं। यहां तो इस्तीफे की घोषणा के साथ ही यह भी घोषणा कर दी गई कि वे (केजरीवाल) स्वयं ही चुनाव बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर लौटेंगे। आप नेता शायद यह भूल गए कि लोकतंत्र में भगवान राम ‘‘कौन’’ और राम राज्य ‘‘कहां’’ है? दोहरे व्यक्तित्व की मार शायद अरविंद केजरीवाल पर यहीं पर हो रही हैं। केजरीवाल इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि जिस प्रकार व्यक्ति के साथ ‘‘छाया’’ चलती है, अर्थात एक व्यक्ति दो रूपों में एक साथ दिखता है, तब फिर दोहरा व्यक्तित्व होना तो प्रकृति की निशानी ही है? तब फिर प्राकृतिक स्थिति (दोहरे व्यक्तित्व) की आलोचना क्यों? इस्तीफा देने के साथ जब वे शीघ्र चुनाव की मांग करते हैं, तब भी उनका दोहरा चरित्र दिखता है। क्योंकि वे विधानसभा भंग करने की सिफारिश करके चुनाव कराने का रास्ता साफ नहीं कर रहे है, जिसकी मांग करते हैं। यही उनका दोहरा व्यक्तित्व और चरित्र बना हुआ है। 

संविधान का शब्दशः ही नहीं बल्कि अंतर्निहित भावनाओं का भी पालन होना चाहिए। 

बड़ा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या आप अपनी विशुद्ध राजनीतिक स्वार्थ व छुद्र उद्देश्यों की पूर्ति हेतु संविधान का कानूनी रूप से दुरुपयोग कर सकते हैं? संविधान सिर्फ उतना ही नहीं है, जो शब्दों द्धारा लिखित है, बल्कि उससे भी बढ़कर संविधान वह है, जिसमें लिखे शब्दों के पीछे निहित भावना है, जिसका सम्मान किया जाना ही वास्तव में संविधान का पालन करना माना जाएगा। निश्चित रूप से केजरीवाल की इस्तीफा देने की घोषणा से लेकर आतिशी का विधायक दल का नेता चुने जाने तक की संपूर्ण प्रक्रिया तकनीकि रूप से तो संवैधानिक है। परंतु क्या वह संवैधानिक भावनाओं के अनुकूल भी है? जिनको अंतर्निहित करते हुए संविधान में उक्त व्यवस्था की गई है। संविधान इस बात की अनुमति नहीं देता है कि आप किसी प्रकरण में आरोपी हो और पद से इस्तीफा देकर जनता के बीच जाकर चुनाव लड़कर जीतकर वापस आकर यह दावा कर ले कि अब मैं आरोपो से मुक्त हो गया हूं और भ्रष्टाचारी न होकर ‘‘कट्टर ईमानदार’’ सिद्ध हो गया हूं? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद देश में एक मात्र कोई दूसरा व्यक्ति है, जो देश की राजनीति की नब्ज को समझ कर जनता के नब्ज से सफलतापूर्व जोड़ने का हुनर जानता है, तो वह केजरीवाल हैं, जिनके पास शायद नरेन्द्र मोदी से भी ज्यादा दूरदर्शी राजनीतिक समझ है। चुनाव जीतकर यदि आप आरोप मुक्त या दोष मुक्त हो जाते हैं तो, फूलन देवी चुनाव जीत गई थी, जेल में रहकर कई अपराधी विधायक व सांसद का चुनाव जीत चुके हैं, उनके बाबत तब फिर अरविंद केजरीवाल क्या कहेंगे? वास्तव में भारतीय लोकतंत्र पर अरविंद केजरीवाल का यह बहुत ही खतरनाक दांव है, जो संविधान द्वारा स्थापित की गई देश की न्यायिक व्यवस्था पर भी एक गंभीर चोट लगाता है। क्योंकि हमारे देश में अपराधियों, बाहुबलियों से डर कर आम जनता चुनावों में ऐसे सजायाफ्ता भ्रष्ट अपराधियों को भी विजय दिलाती रही है।

चुनावी प्रणाली ‘‘वाशिंग मशीन’’ नहीं

लोकतंत्र में जनादेश का अर्थ लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्थाओं को ‘‘मजबूत’’ करना है न कि ‘‘मजबूर कर कमजोर’’ करना है। केजरीवाल शायद यही करना चाहते हैं। वे चुनाव जीतकर ‘‘परसेप्शन’’ (धारणा) द्वारा संवैधानिक व्यवस्था को ‘‘ठेंगा’’ दिखाना चाहते हैं। अन्ना आंदोलन के समय, अन्ना का नहीं बल्कि केजरीवाल का यह विचार अत्यधिक वायरल होकर जनता के बीच पसंद किया गया था कि तत्कालीन संसद के आधे से भी ज्यादा (251) सांसद दागी है। समस्त ‘‘दागी सांसद’’ इस्तीफा देकर, न्यायिक प्रक्रिया द्वारा दोष मुक्त होकर, और फिर चुनाव लड़कर, जीत कर, संसद में आए। परंतु केजरीवाल अपने उक्त कथनों को ‘‘पूर्ण रूप’’ से नहीं, बल्कि ‘‘अर्द्ध रूप’’ में ही लागू करना चाहते हैं। अर्थात सिर्फ चुनाव में जाना चाहते हैं, परंतु न्यायिक प्रक्रिया में से होकर नहीं गुजरना चाहते? क्योंकि इसके आगे शायद उनका राजनीतिक स्वार्थ ‘‘आड़े’’ आ जाता है। केजरीवाल शायद इस बात को भूल गए हैं कि उन्होंने अपनी गिरफ्तारी की वैधता को न्यायालय में चुनौती दी थी, जिसे न्यायालय ने ईडी व ‘‘तोता सीबीआई’’ के विरुद्ध की गई गंभीर टिप्पणियों के बावजूद स्वीकार नहीं किया। वह अभी मात्र जमानत पर हैं, आरोपो से उन्मुक्त (डिस्चार्ज) नहीं हुए हैं। जैसा कि वे गलत कथन करते है कि यह कानून की अदालत से इंसाफ मिला। इसलिए न्यायालयों की टिप्पणियों का सहारा लेकर वे अपने को बेदाग नहीं कह सकते हैं। जनता की अदालत ‘‘राजनैतिक इंसाफ’’ देगी ‘‘आपराधिक इंसाफ’’ नहीं? यदि उन्हें प्रकरण में 2 साल से ऊपर की सजा हो जाती है, तब फिर केजरीवाल क्या करेंगे? (क्योंकि तब सदस्यता समाप्त होकर वे 6 साल के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य हो जायेगें।) तब फिर जनादेश मानेंगे या न्यायादेश? आरोपी अपराधी दलबदलुओं को भाजपा में शामिल करने को लेकर केजरीवाल सहित संपूर्ण विपक्ष भाजपा को वाशिंग मशीन बताने वाले केजरीवाल अब संवैधानिक व्यवस्था चुनाव को अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए ‘‘वाशिंग मशीन’’ बनाने में ही तुल (लग) गए हैं। इसलिए राजनीति का ‘‘नॉरेटिव’’ तय करने में व ‘‘परसेप्शन’’ बनाने में केजरीवाल नरेन्द्र मोदी से एक कदम आगे ही हैं।

उपसंहार। 

केजरीवाल सशर्त जमानत पर है। जिन शर्तों ने केजरीवाल को एक ‘‘लूला-लंगड़ा’’ मुख्यमंत्री बना दिया है। ‘‘जनादेश’’ मिल जाने के बावजूद मुख्यमंत्री पद का ‘‘लंगड़ापन’’ दूर नहीं हो जाएगा। वह तो मुकदमे में न्यायालय द्वारा बाईज्जत दोष मुक्त होने से ही होगा। केजरीवाल की राजनीति में कदम रखने के पूर्व अति उत्साह में की गई घोषणाएं, वचन, कथन समस्त राजनीतिक दलों और स्वयं केजरीवाल सहित समस्त नेताओं के लिए एक आत्म चिंतन का विषय है, कि परस्पर आरोपों-प्रत्यारोपों की बौछार लगाने के पूर्व ‘‘बुद्धि’’ का प्रयोग अवश्य करें, अन्यथा ‘‘आप बीती’’ होने पर जनता के सामने आपको स्वयं के आरोपों के कथनों के लिए शर्मिंदा होना पड़ेगा। या फिर केजरीवाल समान बेशर्म होकर दोहरा व्यक्तित्व बनना पड़ेगा। क्योंकि केजरीवाल ने आज तक अन्ना आंदोलन के समय मंच से कहे गए सुविचारों को गलत बताकर क्षमा नहीं मांगी है और न ही आज उसका पालन कर रहे हैं? वैसे राजनीति में हया-शर्म, नैतिकता, आदर्श रह कहां गया है?

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