सोमवार, 5 जून 2023

क्या देश की ‘‘आत्मा’’, ‘‘जमीर’’, ‘‘नैतिकता’’ ‘सुस्त’ ‘सृप्त’ होकर ‘‘विलोपित’’ तो नहीं हो रही है?

देश को स्वाधीन हुए 75 वर्ष पूरे हो चुके हैं। अमृतकाल मना रहे देश में ‘‘अमृत’’ की ‘‘घनघोर’’ वर्षा हो रही है? या कराई जा रही है, ऐसा एहसास देश का मीडिया जनता को करने का प्रयास कर रही है। इन 75 वर्षो में देश की पहचान क्या सिर्फ 21वीं सदी की ओर तेजी से बढ़ते हुए ‘‘विकास के पंखे’’ के साथ होना चाहिए? प्रश्न अटपटा सा लग सकता है, ‘अप्रगतिशील’ लग सकता है, प्रतिगामी लग सकता है। परन्तु प्रश्न उत्पन्न तो होता है। वह इसलिए कि जिस देश की ‘संस्कृति’, ‘सभ्यता’ अति प्राचीन होकर जहां सर्वकालीन ‘सर्व समय’ महिलाओं का मान-सम्मान और उनकी ‘‘शुचिता’’ बनाए रखना प्रत्येक नागरिक का एक कर्तव्य बोध होकर जिम्मेदारी होती रही है और आमतौर पर वह सहर्ष स्वीकार भी की जाती रही है। वहां किन्हीं नागरिकों द्वारा गाहे-बगाहे (यद्यपि हाल के वर्षो में यौन अपराधों की घटनाएं बढ़ी हैं) उक्त जिम्मेदारी का उल्ल्घंन किये जाने पर जिम्मेदार शासन में स्थापित कानून के तहत बल्कि आवश्यकता होने पर नये कानून भी बनाये जाकर (जैसे निर्भया कांड के बाद) महिलाओं की ‘‘आन बान और शान’’ की रक्षा के लिए निश्चित रूप से आवश्यक कार्रवाई होती रही है। फिर चाहे सरकार किसी भी विचारधारा की रही हो, पार्टी की रही हो, गठबंधनों की रही हो अथवा अल्पमत की रही हो।

यौन शोषण की घटनाएं न तो देश में पहली बार हो रही है और न ही अंतिम बार। बल्कि प्राचीन काल से होती चली आ रही हैं। निश्चित रूप से ऐसी घटनाएं न हो, यह दायित्व ‘परिवार’, ‘समाज’ व तत्पश्चात लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार का होता है। इस दायित्व को मजबूत ‘‘तंत्र’’ के माध्यम से पूर्ण इच्छाशक्ति से निभाने के बावजूद यौन शोषण की घटनाएं को अंजाम दिया जाता रहा है। लेकिन ऐसी घटनाएं घटित होने पर अभी तक का अनुभव ‘अपराधी’ को ‘सरकार’ और ‘तंत्र’ द्वारा कानूनी प्रक्रिया द्वारा कानून की सूली पर लटका दिया जाने का रहा है। यह सरकार का मूलभूत संवैधानिक व सामाजिक दायित्व व कर्तव्य है, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है। क्योंकि ‘‘कड़े गोश्त के लिये पैने दांतों की जरूरत होती है’’। यौन अपराधियों से निपटने का उक्त ‘'आपराधिक न्यायशास्त्र’’ को आज देश की उन गौरव अंतर्राष्ट्रीय मेडल दिलवाने वाली महिला पहलवानों के साथ हुए यौन शोषण के मामले के परिपेक्ष में बृजभूषण सिंह जैसा दरिंदों को सामने रख कर विचार करें, घोर निराशा, कौफ्त, क्रोध से ग्रसित शमशाद होकर सर झुक जाता है। क्या देश की आन बान शान की प्रतीक महिला पहलवानों के साथ हुए यौन शोषण के अपराधों से हुए "घावों" का ऐसा तथाकथित "उपचार" देश को स्वीकार है?
वर्तमान प्रकरण में राजनीतिक रसूख के कारण हो रही वर्तमान धीमी कार्रवाई व अभियुक्त की अभी तक गिरफ्तारी न होने के बावजूद यौन शोषण के उक्त अपराधों की श्रंखला का उंगलियों पर गिने जाने वाले विरोध को देखते हुए लगता नहीं है कि यह वही देश है, जहां ‘‘जेसिका लाल हत्याकांड’’ से लेकर ‘‘निर्भया कांड’’ जिसने देश की अंतरात्मा तक को झकझोर दिया था। परिणाम स्वरूप भारतीय दंड संहिता की बलात्कार की धारा में संशोधन किए जाने के साथ नाबालिग के साथ किए गए यौन शोषण के अपराध के लिए नया पॉक्सो कानून तक बनाया गया था। शायद एक सिरे पर ‘‘अनाम निर्भया’’ की तुलना में नामी-गिरामी देश का नाम ओलंपिक विश्व खेलों में ऊंचा करने वाली महिला पहलवान है, तो वहीं दूसरा छोर निर्भया कांड के अनाम अपराधियों की तुलना में जनता का आशीर्वाद लेकर देश के लिए कानून बनाने वाली संसद का माननीय सदस्य होकर ब्रजभूषण सिंह शरण लोकतंत्र के मंदिर के अंदर बैठे 543 भगवानों में से एक भगवान है? वह इसलिए कि जब संसद को लोकतंत्र का मंदिर बतलाया गया है, तब मंदिर में तो भगवान ही बैठ सकते हैं?
यौन अपराधों से संबंधित कानूनों में संशोधन किए जाने के बाद ‘‘शायद बिल्कुल नहीं बल्कि निश्चित रूप’’ से देश की यह पहली अलौकिक, अविश्वसनीय घटना है, जहां यौन शोषण के अपराधी जिस पर पास्को कानून के तहत भी प्राथमिकी दर्ज है, गिरफ्तार कर तुरंत जेल भेजने की बजाय तथा उससे पूछताछ करने की बजाय उल्टे 3 महीनों से पीड़िताओं से ही पूछताछ की जाकर उन्हें मानसिक पीड़ा व तनाव से गुजरना पड़ रहा है। प्राथमिकी दर्ज होने के 40 दिन बीत जाने के बावजूद, गिरफ्तारी न होना सरे आम कानून की धज्जियां उड़ाना है। सरकार कहती है कि ‘‘पंचों का कहना सर माथे लेकिन परनाला तो यहीं गिरेगा’’। ‘‘अंधी गली के मुहाने पर खड़ी’’ सरकार; कानून अपना काम कर रहा है, जांच चल रही है, यह कहकर आत्ममुग्ध होकर ‘‘सिर झुकाए नहीं’’, बल्कि सिर ऊंचा कर सीना चाहे ‘‘कितने ही इंच का हो ताने’’ अपने साथी सांसद बृजभूषण सिंह का प्रत्यक्ष रूप से ‘‘मौन बचाव’’ व परदे की पीछे ‘‘सक्रिय बचाव’’ कर रही है। शायद इसलिए की वह अपराधी चुना हुआ उस संसद का सांसद है, जिसे ‘‘लोकतंत्र’’ में जनता चुनती है। अतः उसी लोकतंत्र से चुनी हुई निकली सरकार से आप उसी संसद के चुने हुए सदस्य के खिलाफ ‘‘नाउम्मीद कार्रवाई की उम्मीद’’ का विपरीत आचरण क्यों कर रहे है? यह तो ‘‘अंधे से रास्ता पूछने जैसा है’’। यह हास्यास्पद नहीं है की सरकार के खेल मंत्री और गृह मंत्री कह रहे हैं कि कानून को अपना काम करने दीजिए? आखिर कानून को काम कौन नहीं करने दे रहा है, खिलाड़ी अथवा उनके साथ सहानुभूति रखने वाले 140 करोड़ की जनसंख्या में से कुछ हजारों लोग या कानून का पालन करने और करवाने वाली "समस्त तंत्र"? क्या सरकार को यह बताने की जरूरत है कि ‘‘विकास रूपी पंखे से महिलाओं की अस्मत पर छाया हुआ कोहरा नहीं छंटता है’’?
अंत में न्यायपालिका जिसे ‘‘आपातकाल’’ में कमिटेड ज्यूडिशरी तक कहा गया था, ने  ‘‘न्यायिक सक्रियता’’ के चलते कई बार देश के नागरिक के हितार्थ आगे आकर संज्ञान लेकर कार्रवाई की है। परन्तु दुर्भाग्यवश प्रस्तुत यौन शोषण का मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष लाया जाने के बावजूद उच्चतम न्यायालय ने अपने न्यायिक कार्य को आंशिक पूर्ति ही की है। 40 दिन बीत जाने के बावजूद पॉक्सो एक्ट के तहत एफआईआर दर्ज होने के बावजूद गिरफ्तारी नहीं हुई। यह स्वयं उच्चतम न्यायालय द्वारा स्थापित कानून का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन है। यौन संज्ञेय अपराध के मामले में प्राथमिक जांच किए बिना ही तुरंत प्राथमिकी दर्ज न किए जाने पर भादस की धारा 166ए के अंतर्गत ड्यूटी पर तैनात पुलिस अधिकारी के विरुद्ध प्रकरण दर्ज किया जाना चाहिए था। छः महिलाओं की एक ही प्राथमिकी दर्ज करना तथा इंडियन एक्सप्रेस में एफआईआर के आधार पर छपे समाचार जिसमें विभिन्न जगहों पर 15 बार यौन अपराध घटित होना बतलाया गया है तब पृथक-पृथक 15 प्राथमिकी दर्ज न करना कानूनन गलत है। जब उक्त खामियां मामले में सुनवाई के समय जब न्यायालय के समक्ष थी, तब उच्चतम न्यायालय द्वारा इन कानूनी खामियों का कोई संज्ञान न लेना न्याय देने की दिशा की ओर बढ़ने का सूचक तो नहीं है? साथ ही यह बात भी समझ से परे है महिलाओं के वकील जब उच्चतम न्यायालय तक गये थे, तब न्यायालय ने मांगी गई प्रार्थना पूरी हो जाने के कारण प्रकरण की समाप्ति करते हुए यह निर्देश दिया था कि आवश्यक होने पर वे उच्च न्यायालय अथवा निम्न अदालत में किसी भी सहायता के लिए जा सकते है। तब उन वकीलों का अभी तक ब्रजभूषण सिंह की गिरफ्तारी न होने पर उच्च न्यायालय के पास न जाना समझ से परे है। मेरे एक पाठक ने उक्त अपराध की प्रतिक्रिया में जो लिखा है, रूबरू आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं-
‘‘चूंकि एफआईआर न्यायालय के निर्देश पर दर्ज की गई है, अतः महिला पहलवान का कथन सत्य है। बृजभूषण कह रहे हैं, उन्होंने कुछ गलत नहीं किया है। अतः वे इसे सही मानते हैं। चूंकि दोनों सही है तथा सरकार ने बृजभूषण से इस्तीफा नहीं लिया है। यानी सरकार भी सही मान रहीं हैं। फिर समस्या क्या है?’’
‘‘अमित शाह चाणक्य ऐसे ही नहीं कहलाते है।’’
लेख पूर्ण करते हुए यह समाचार मिला है कि विगत दिवस देर रात्रि अमित शाह की पहलवानों से मुलाकात हुई है। किसकी पहल या माध्यम से, ज्ञात नहीं? परिणाम स्वरूप तीनों खिलाडियों ने रेलवे की नौकरी ज्वाइन कर ली है। अपुष्ट समाचारों के अनुसार चार्जशीट जल्दी पेश होगी। शायद बिना गिरफ्तारी के? आंदोलन वापस हुआ है या नहीं अस्पष्ट है। आंदोलन का आगे का स्वरूप कैसा होगा स्पष्ट नहीं। नाबालिग द्वारा आरोप वापस लिए जाने के समाचार भी मीडिया, सूत्रों के हवाले से दे रहा है। मतलब साफ है! जहां 40 दिन में अभियुक्त बृजभूषण का कम से कम पॉक्सो एक्ट के अंतर्गत चालान पेश होकर सजा होकर जेल में होना चाहिए था, जैसा कि राजस्थान में हुआ। वहां पीड़िताओं के मनोबल को तोड़ने के लिए उच्चतम न्यायालय व गृहमंत्री के ठीक आंख के नीचे "तंत्र" को पूरा अवसर प्रदान किया गया है, जिसमें वे अंततः सफल होते दिख रहे हैं।  गृहमंत्रीअमित शाह की "चाणक्य नीति" के साथ न्यायालय की "अनदेखी" का यह "गजब संयोग" कभी-कभी ही होता है। क्योंकि हर यौन अपराधी ब्रजभूषण सिंह शरण समान रसूख रखता भी नहीं है।
ऐसा लगता है कि 140 करोड़ जनता में कुछ गिनती के चुनिंदा लोग ही रह गये है, जिनका जमीर शायद मरा नहीं है। तब आप भी अपना जमीर बचाकर "बहुमत" के साथ रहने की "आदत" बना लीजिए?

बुधवार, 31 मई 2023

‘‘संवादहीनता’’ ‘‘विवाद’’ ‘‘बवाल’’ ‘‘अर्द्ध सत्य’’ व ‘‘असम्मान’’ की ‘कमजोर’ ‘नीव’ व ‘‘दीवार’’ पर ‘‘मजबूत’’ बनी/टिकी! विश्व की ‘श्रेष्ठतम’ हमारी ‘‘संसद भवन’’।

‘‘राष्ट्रपति का अपमान स्वयं राष्ट्रपति द्वारा’’? 

-ःलेख का सारः-   ‘संदेश’ किसी ‘कार्यक्रम’ में किसी ‘व्यक्ति’ का तभी पढ़ा जाता है, जब उस व्यक्ति को ‘निमंत्रित’ किया जाता है और वह किसी कारण से व्यक्तिगत रूप से आने में असमर्थ हो। तभी उसके द्वारा ‘संदेश’ द्वारा अपनी शुभकामनाएं भेजी जाती है। यह तो ‘बिना बुलाए’ महामहिम ने संदेश भेजकर स्वयं को ही अपमानित नहीं कर लिया है? ‘‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’’। इसके लिए भाजपा/ प्रधानमंत्री या स्पीकर कैसे जिम्मेदार?

निसंदेह विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत है। यहां एक सफल ‘‘संसदीय प्रणाली’’ अपनाई गई है। इसकी सर्वोच्च संस्था लोकसभा व राज्यसभा दो ‘सदन’ होते हैं। इन्हें  संयुक्त रूप से ‘संसद’ कहा जाता है। ‘संसद’ का शाब्दिक अर्थ ‘सभा’ ‘मंडली’ होता है। वास्तव में ‘संसद’ अंग्रेजी शब्द ‘‘एंग्लो नॉर्मल’’ से लिया गया है। इसका अर्थ ‘बात करना’ होता है। ‘‘विधायिका’’, ‘‘कार्यपालिका’’ और ‘‘न्यायपालिका’’ लोकतंत्र व भारतीय संविधान की लिखित ‘‘रीढ़ की हड्डी’’ है। ‘‘अलिखित’’ रूप से लोकतंत्र का ‘‘चौथा स्तंभ’’ ‘‘मीडिया’’ है। उक्त चारों खंभों में से सबसे प्रमुख खंबा "विधायिका" की सर्वोच्च संस्था यह संसद ही है, जो संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के तहत नागरिकों के हितों व सर्वांगीण विकास के लिए संपूर्ण भारत देश (अब तो जम्मू-कश्मीर सहित) के लिए कानून बनाती है।

वर्तमान संसद भवन (जो ब्रिटिश शासन काल में वर्ष 1927 में बनी थी) के लगभग 95 वर्ष बाद एक अद्भुत, अलौकिक व चकाचौंध करने वाली वर्तमान 870 सदस्यों की जगह 1272 सदस्यों के एक साथ बैठने की व्यवस्था के साथ 1200 रू करोड़ से अधिक की लागत आत्मनिर्भर भारत की भावना का प्रतीक होकर, अभी तक की विश्व की सबसे बड़ी नई संसद भवन का निर्माण लगभग 28 महीने की अल्प अवधि में पूर्ण हुआ है। ऐसी संसद भवन को 28 मई को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हस्ते ‘मंत्रोच्चार’ के बीच देश की जनता को सौंप दिया गया। विवाद यहीं से प्रारंभ नहीं होता है, बल्कि इसके जन्म (निर्माण) ‘‘शिलान्यास’’ से लेकर इसे जनता को ‘‘सौंपने तक लगातार व तत्पश्चात भी विभिन्न स्तरों पर विभिन्न विषयों को लेकर अभी भी चालू है व आगे भी जारी रहेगा। कहते हैं ना "कदली और कार्टों  में कैसे प्रीत"। नई संसद बनाने की योजना को ही उच्चतम न्यायालय में असफल चुनौती दी गई थी। कोरोना काल में चालू निर्माण कार्य पर भी गंभीर आपत्तियां की गई थी। पर्यावरण, डिजाइन कंसलटेंट, स्थापित राष्ट्रीय प्रतीक शेर की मूर्ति के लुक को लेकर भी विवाद हुए। फिलहाल विवाद का मुख्य विषय राष्ट्रपति के द्वारा उद्घाटन न करवाना अथवा उन्हे न बुलाने से उनके ‘‘अपमान’’ होने को लेकर है। साथ ही "भवन" से ज्यादा "भावना" का सवाल है।

मैंने पिछले लेख में भी सुझाव दिया था कि ‘स्वस्थ्य’ व मजबूत लोकतंत्र के लिए नई संसद भवन में नई पारी प्रारंभ करने के लिए यह एक श्रेष्ठतम स्थिति होती, यदि राष्ट्रपति की अध्यक्षता में उपराष्ट्रपति जो (उच्च सदन) राज्यसभा के स्पीकर होते है, लोकसभा स्पीकर एवं विपक्ष के नेता की गरिमामय उपस्थिति में विश्व में भारत का डंका बजाने वाले दृढ़, दूर दृष्टि रखने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा उद्घाटन कराया जाता तो यह ‘‘सोने पर सुहागा’’ होता। तब विवाद की कोई स्थिति ही नहीं रहती। परन्तु दुर्भाग्य कि वर्तमान में हमारी ‘‘लोकतंत्र का मुखौटा रह गई संसद’’ (जहां पिछले वर्ष मात्र 9 मिनट में बिना चर्चा के वर्ष 2023-24 के लिए बजट पारित कर दिया गया था), विवादों को समाप्त करने के लिए नहीं बल्कि नये-नये विवादों को जन्म देने के रूप में जानी जाती है।

‘‘प्रोटोकॉल’’ के तहत प्रधानमंत्री का नम्बर तीसरी पायदान (राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति के बाद) पर आता है। राष्ट्रपति को उद्घाटन के लिए बुलाए जाने पर शायद प्रधानमंत्री की एकमात्र, एकछत्र गरिमाय उपस्थिति के सम्मुख राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति का प्रोटोकॉल एक बड़े अवरोध के रूप में आ जाती? इसलिए शायद राष्ट्रपति से उद्घाटन नहीं करवाया गया। अतः यदि राष्ट्रपति की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री उद्घाटन करते तो निश्चित रूप से ‘‘प्रोटोकॉल’’ आड़े नहीं आता। परन्तु प्रधानमंत्री ने यह रास्ता क्यों नहीं अपनाया? शायद उनकी इस कार्य योजना के पीछे राजनीति के कुछ ‘‘गूढ़ अर्थ’’ हो सकते हैं? यद्यपि इस पूरे मामले में स्पीकर जो संसद सचिवालय का प्रमुख होता है, के द्वारा ही तकनीकी रूप से उद्घाटन के संबंध में निर्णय लिया जाते है। प्रधानमंत्री से उद्घाटन के निर्णय के लिए "तकनीकी" रूप से प्रधानमंत्री को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। परन्तु भाजपा का यह जवाब बे-मतलब का है कि संविधान में प्रधानमंत्री को संसद के उद्घाटन से रोकने का कोई प्रावधान नहीं है। यद्यपि यह यर्थाथ कानूनी सत्य है। परन्तु हर कानूनी सत्य का राजनीति के मैदान में भी वैसा ही प्रभाव होगा, यह जरूरी नहीं है। क्योंकि वर्तमान में राजनीति ‘ऐक्शन’ की बजाय ‘परसेप्शन’ व ‘नोशन’ से ज्यादा चलती है। वैसे जब राष्ट्रपति दोनों सदन के दोनों सदनों को संयुक्त रूप से संबोधित करते हैं, तब प्रधानमंत्री वहां पर उपस्थित होते हैं। तब उद्घाटन के अवसर पर प्रोटोकॉल को बनाए रखते हुए दोनों महामहिम व महानुभाव एक साथ एक ही कार्यक्रम में क्यों नहीं रह सकते हैं? यह बात गले से उतरती नहीं है।

राष्ट्रपति को आमंत्रित न करने से ‘अपमान’ होने से ज्यादा ‘‘बुरी अपमान की स्थिति’’ अनिमित्रिंत राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति का इस उद्घाटन अवसर पर संदेश भेजना था, जिसका उद्घाटन कार्यक्रम में राज्यसभा के उपसभापति ने संदेश वाचन किया गया। क्या अपने इस बात पर गंभीरता से विचार किया है कि संदेश (वाचन) क्यों पढ़े जाते हैं। ‘संदेश’ किसी ‘कार्यक्रम’ में किसी ‘व्यक्ति’ का तभी पढ़ा जाता है, जब उस व्यक्ति को ‘निमंत्रित’ किया जाता है और वह किसी कारण से व्यक्तिगत रूप से आने में असमर्थ हो। तभी उसके द्वारा ‘संदेश’ द्वारा अपनी शुभकामनाएं भेजी जाती है। यह तो ‘बिना बुलाए’ महामहिम ने संदेश भेजकर स्वयं को ही अपमानित नहीं कर लिया है? ‘‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’’। इसके लिए भाजपा/प्रधानमंत्री या स्पीकर कैसे जिम्मेदार? जब तक कि महामहिम यह नहीं कह देते है कि उन्हें संदेश भेजने के लिए अथवा कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आग्रह, निमंत्रित किया गया था। ऐसा कोई दावा दूसरे पक्ष लोकसभा सचिवालय द्वारा अभी तक नहीं किया गया है। यानी की "खामोशी नीम रजा"। वस्तुत: यदि ऐसा हुआ है, तब राष्ट्रपति लोकतंत्र के मंदिर संसद भवन के बहिष्कार की दोषी नही मानी जाएंगी? 

शिलान्यास, लोकार्पण,वैवाहिक कार्यक्रम या शोकसभा में संदेश भेजे जाने की प्रथा है व किताबों के विमोचन के लिए संदेश भेजे जाते है, जो छापे जाते है। प्रत्येक स्थिति में ‘निमत्रंण’ या ‘अनुरोध’ अवश्य होता है। अब यदि यह दावा भी किया जाता है (जो अभी तक नहीं किया गया है) कि संदेश भेजने के लिए संसद (पार्लियामेंट) सचिवालय ने अनुरोध किया था, तब भी ‘‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’’। क्योंकि ‘‘आपको’’ तो उद्घाटन कार्यक्रम में शरीक होने के लिए भी बुलाया नहीं गया था (जिसका कोई जवाब स्पष्टीकरण अभी तक लोकसभा सचिवालय से नहीं आया है), परंतु घाव पर नमक छिड़कने के लिए कार्यक्रम के लिए शुभ संदेश भेजने के लिए शायद मजबूर किया जा रहा है। एक व्यक्ति को उसका दोस्त वैवाहिक कार्यक्रम में बुलाए ना और उससे नव दंपति के लिए शुभ संदेश भेजने के लिए कहे। उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी? यह लिखने की आवश्यकता है? फिर तो राष्ट्रपति देश की प्रथम नागरिक हैं। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भवन के शिलान्यास के समय राष्ट्रपति नहीं थे, उद्घाटन के समय उपस्थिति क्या एक संदेश है कि इस तरह के कार्यक्रमों में राष्ट्रपति पूर्व राष्ट्रपति के रूप में ही उपस्थित हो सकते हैं?

इसका दूसरा पहलू यह भी है कि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था या नियम नहीं है कि संसद संविधान का सर्वोच्च संवैधानिक पद ‘‘राष्ट्रपति’’ जो देश का प्रथम नागरिक होता है, के द्वारा किया जावे। (एक तरफ हमारे देश में डॉक्टर की डिग्री न लिए स्वास्थ्य मंत्री, अशिक्षित शिक्षा मंत्री और इसी तरह न जाने कौन-कौन से विभाग लिये हुए व्यक्ति जो उस विभाग के विशेषज्ञ नहीं होते है, मंत्री बन जाते है। तब इन राजनेताओं को यह समझ में नहीं आता है कि वह विभाग ऐसे अज्ञानी लोगों से कैसे चलेगा? क्या देश में अस्पतालों अथवा कॉलेजों का उद्घाटन हमेशा स्वास्थ्य मंत्री या शिक्षा मंत्री द्वारा ही किया जाते रहे है।) तब अनुच्छेद 79 का हवाला देकर संवैधानिक प्रमुख होने के साथ ही प्रथम नागरिक होने के नाते तथा अनुच्छेद 87 के अधीन संसद सत्र का प्रारंभ राष्ट्रपति द्वारा दोनों सदनों को संयुक्त रूप से संबोधन से ही होता है। इस कारण से राष्ट्रपति से संसद भवन का उद्घाटन कराने की मांग कितनी संवैधानिक, वैधानिक, नैतिक, अथवा औचित्यपूर्ण है, या सिर्फ और सिर्फ ‘‘अंध राजनीतिक विरोध’’ पर टिकी है, इस बात को समझना होगा। राष्ट्रपति द्वारा उद्घाटन के मुद्दे पर दायर की गई एक याचिका पर स्वयं उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 79 का हवाला देते हुए याचिका को प्रथम दृष्टया सुनवाई हेतु योग्य न मानते हुए अस्वीकार कर दिया। सही कहा है! "करघा छोड़ तमाशा जाए, नाहक चोट जुलाहा खाए"।

कोई प्रश्न; निरुत्तर हो चुके विपक्ष से करना बेईमानी ही होगी। जातिवाद-जातिपात का गर्जना के साथ विरोध व सर्व सद्भाव की बात करने वाले नेताओं ने ‘‘आपदा को अवसर’’ में बदलने की अपनी पुरानी ‘‘बद-आदत’’ के चलते सत्ता पक्ष (महिला आदिवासी को प्रथम राष्ट्रपति बनाने का श्रेय लेने वाला) व विपक्ष ने संसद के उद्घाटन के अवसर को ही महिला व आदिवासी (राष्ट्रपति के) उत्थान व असम्मान से जोड़ कर चुनाव आयोग की ठीक ‘‘आंख, नाक के नीचे’’ खुले आम ‘‘जातिवादी राजनीति के रंग’’ से राजनीति को भर दिया। वास्तव में विपक्ष को आगे बढ़कर प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटन का हृदय से इसआधार पर स्वागत करना चाहिए, एक संवैधानिक पद पर बैठे हुए अधिकार विहीन राष्ट्रपति की तुलना में एक मजबूत दृढ़ इरादा रखने वाले शक्तिमान प्रधानमंत्री के हाथों हुआ है। इससे देश में ही नहीं विश्व में दृढ़ता, दृढ़ निश्चय और निर्भीकता का संदेश हमारी संसद के प्रति जायेगा। मुझे लगता है, विरोधी दल पहली बार अपने नाम और कार्यो के अनुरूप विरोध को सार्थक बनाने के लिए 21 विपक्षी दलों ने संयुक्त रूप से लिखित चिट्ठी लिखकर बायकाट किया। ताकि जनता उन्हे यह न कहें सके कि आप अपने ‘‘विरोध’’ करने का ‘‘कर्तव्य’’ भी संसद भवन की भव्यता के आकर्षण तथा चकाचौंध में भूल गये।

एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या भव्यता की चकाचौंध से चमकने वाले संसद भवन के देश की जनता को सौंपने के अवसर पर एक काला धब्बा लगाने वाले इस अप्रिय विवाद से बचा जा सकता था? या बचने का कोई गंभीर प्रयास किये गए? साथ ही लोकतंत्र के नवीन मंदिर के समीप ही अनशन पर बैठी कुश्ती पहलवानों के विरुद्ध आज ही की गई कार्रवाई को टालकर या "पहले" कार्रवाई कर लोकतंत्र पर इस कारण से पड़े "काले छीटों" से क्या बचा नहीं जा सकता था? इसके लिए पहले आप संसद की परिभाषा जिसका उल्लेख मैंने ऊपर किया है, उसे समझिये! संसद अर्थात ‘‘बात करना’’ है। जबकि यहां पर पूरे मामले में संवादहीनता की स्थिति दिन-प्रतिदिन मजबूत होते हुई ही दिख रही थी।"कहि रहीम कैसे निभे केर बेर को संग"। 

जब विपक्ष ने समय पूर्व ही यह कह दिया था कि वे संसद के उद्घाटन के रंगारंग कार्यक्रम में राष्ट्रपति की उपस्थिति न होने के कारण कार्यक्रम का बायकॉट करेंगे, तब सर्वदलीय बैठक क्यों नहीं बुलाई गई जैसा कि प्रधानमंत्री संसद के हर सत्र के प्रारंभ होने के पूर्व बुलाते रहे हैं, जो एक परिपाटी है, यद्यपि कानून या नियम नहीं है! फिर सिर्फ ‘‘निमंत्रण पत्र’’ दिया गया। संसदीय कार्य मंत्री प्रहलाद जोशी जिनका मूलभूत कार्य और कर्तव्य संवाद के जरिए संसद के गतिरोध को दूर करने का प्रयास करना है, संवाद सुनने को देश तरस गया था। यदि वे अथवा प्रधानमंत्री कुछ प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं तथा संसद में विपक्ष के नेता को चाय पर बुलाकर या फोन कर इस संबंध में बातचीत करते तो बातचीत की ‘गर्मी’ से ‘‘बहिष्कार की बर्फ को’’ पिघलाने में कुछ तो मदद होती?लेकिन यह मुमकिन न हुआ, "खुदी और खुदाई में बैर" जो ठहरा।

अंत में लेख के शीर्षक में जिन शब्दों का उपयोग मैंने किया है, उन सब का आधार व विस्तृत विवरण मैंने ऊपर लेख में लिखा है। ‘‘अर्ध सत्य’’ (जो कई बार सत्य से भी ज्यादा खतरनाक होता है) शब्द का उपयोग भी मैंने संसद भवन के उद्घाटन के संबंध में इसलिए किया है की जिस पवित्र "सैंगोल" (तमिल शब्द, धर्म दंड, राजदंड) जिसे सत्ता का प्रतीक माना जाता है, को लार्ड माउंटबेटन ने पं. जवाहरलाल नेहरू को सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य के सुझाव पर तमिलनाडु के एक मठ से बुलाया जाकर सौंपा गया। जिसे बाद में पं. नेहरू ने ‘‘सोने की वाकिंग ‘‘छड़ी’’ के रूप में इलाहाबाद के संग्रहालय में रखवा दिया गया था। अब इसे स्पीकर की कुर्सी के पास स्थापित इसलिए किया गया कि वह "कर्तव्य पथ" की याद दिलाता रहेगा। इस सैंगोल के बाबत जो भी जानकारी, कथन किया जा रहा है, वह अधिकतर मिथ्या होकर तथ्यों के विपरीत है। वास्तव में राजगोपालाचार्य की जीवनी की किसी भी किताब में सैंगोल का उल्लेख नहीं मिलता है। उसी प्रकार इस सत्ता के प्रतीक के हस्तांतरण के रूप में दिया गया वह तथ्य भी सत्यापित नहीं होते हैं। तथापि तंजौर के धार्मिक मठ प्रमुख ने यह दावा जरूर किया है कि सैंगोल थम्बीरन स्वामी ने लार्ड माउंटबेटन को सौंपा, उन्होंने इसे भेंट स्वरूप उन्हें वापस दे दिया गया था। तब एक शोभायात्रा के रूप में सैंगोल को पं. नेहरू के आवास पर ले जाया जाकर उन्हे भेट किया गया था।

गुरुवार, 25 मई 2023

लोकतंत्र की सर्वोच्च नीति निर्धारण करने वाली संस्था ‘‘संसद के मनमंदिर’’ के उद्घाटन में भी ‘‘नीति’’ नहीं ‘‘दलगत राजनीति’!

‘‘राष्ट्रपति की बजाय प्रधानमंत्री से उद्घाटन कराने का एकमात्र उद्देश्य शायद यही हो सकता है कि राष्ट्रपति मात्र ‘‘संवैधानिक’’ प्रमुख हैं। जबकि ‘‘सत्ता’’ (पावर) की शक्ति का केंद्र बिंदु ‘‘प्रधानमंत्री’’ है। संसद पूरी विधायिकी की शक्ति की एकमात्र केंद्र बिंदु है। इसलिए विधायिका और कार्यपालिका का शक्तिपुंज ‘‘प्रधानमंत्री’’ से संसद भवन का उद्घाटन करा कर विश्व में यह संदेश देना हो सकता है कि, जितनी हमारी संसद सर्वशक्तिमान है, उतने ही हमारे प्रधानमंत्री भी लोकतंत्र होने के बावजूद लोकतांत्रिक रूप से सर्वशक्तिमान हैं। खासकर उस स्थिति को देखते हुए जहां-तहां राष्ट्रपति के बाबत यह कहा जाता रहा है कि, वे एक ‘‘रबर स्टैंप’’ मात्र रह गए हैं।’’

सर्वोच्च शक्ति प्राप्त ऐसी संसद का भवन या सबसे बड़ा ‘मन’ ‘‘मंदिर’’ जहां मन मोहने वाले वातावरण में बैठकर देश के सांसद देश के लिए भी जनता के मन को भाने वाले कानून बना पाएंगे, जो 862 करोड़ रुपए से अधिक की लागत से 21वीं सदी की समस्त आधुनिक सुविधाओं से युक्त भविष्य के अगले 100 वर्ष की आवश्यकताओं की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए भव्यतम भवन बना है। इसका उसका उद्घाटन 28 तारीख को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों होना है। 

देश की एक और महत्वपूर्ण उपलब्धि और खुशी के बीच दुर्भाग्यवश अधिकतर विरोधी पक्ष जिसमें कांग्रेस के नेतृत्व में 21 पार्टियां शामिल है, ने उद्घाटन का विरोध करने का मजबूत डंडा (झंडा नहीं) गाड़ दिया है। विपरीत इसके एनडीए के 16 दलों के नेताओं ने विपक्षी दलों से अपने रुख पर पुनर्विचार करने का लिखित अनुरोध किया है। संविधान का अनुच्छेद 60 और 111 का सहारा लेकर विपक्षी दलों द्वारा यह कहा जा रहा है कि लोकतंत्र के इस मंदिर का उद्घाटन राष्ट्रपति द्वारा किया जाना चाहिए। जबकि वास्तव में इन दोनों अनुच्छेद का उद्घाटन अथवा उसकी प्रक्रिया से कोई लेना देना नहीं है। अनुच्छेद 60 राष्ट्रपति द्वारा शपथ का उल्लेख करता है, तो अनुच्छेद 111 किसी विधेयक में राष्ट्रपति की स्वीकृति का उल्लेख करता है। तथापि अनुच्छेद 79 में यह अवश्य कहा गया है की ‘‘भारत संघ’’ के लिए संसद होगी जिसमें ‘‘राष्ट्रपति’’ और दो सदन शामिल होंगे। संसद या विधान सभा के भवनों के उद्घाटन के संबंध में क्या संवैधानिक, कानूनी स्थिति है, अथवा अभी तक की क्या परिपाटी रही है, इसको यदि आप समझ लेंगे, तब ही आप समझ पाएंगे की प्रधानमंत्री द्वारा किए जाने वाले संसद भवन की उद्घाटन की स्थिति कितनी जायज अथवा नाजायज है?

निश्चित रूप से अनुच्छेद 87 के अनुसार राष्ट्रपति संसद की दोनों सदनों को आहूत कर सत्र के पहले दिन संबोधित करता है। इसलिए वह सदन के नेता के रूप में श्रेष्ठतम प्रधानमंत्री की तुलना में उच्चतम स्थिति में है। परंतु साथ में इस बात को भी आपको ध्यान में रखना होगा कि राष्ट्रपति दोनों सदनों में से किसी के भी सदस्य नहीं होते हैं, जबकि प्रधानमंत्री का होना अनिवार्य है। (अपवाद स्वरूप छः महीने की अवधि को छोड़कर) अतः जिस संसद के राष्ट्रपति सदस्य नहीं है, उसके भवन का उद्घाटन उनसे न कराने से राष्ट्रपति की गरिमा गिरती, जैसा कि विपक्ष का आरोप है, यह तथ्यात्मक और संवैधानिक दोनों रूप से उचित नहीं जान पड़ता है।

दूसरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रथम व्यक्ति नहीं है, जो संसद भवन का उद्घाटन करने जा रहे हैं। इसके पूर्व वर्ष 2017 में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष की उपस्थिति में ‘‘संसद भवन एनेक्सी विस्तार भवन’’ (जिसकी आधारशिला तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी और लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने रखी थी), का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया गया था, तब कोई विरोध नहीं हुआ था। ‘‘पार्लियामेंट लाइब्रेरी’’ की आधारशिला तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने और इसके पूर्व ‘‘पार्लियामेंट हाउस एनेक्सी’’ की आधारशिला का उद्घाटन अक्टूबर 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था। यही नहीं वर्ष 2009 में असम के नए विधानसभा भवन का शिलान्यास मुख्यमंत्री ने, मार्च 2010 में यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी जो किसी भी संवैधानिक पद पर नहीं थी, द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ तमिलनाडु के नए विधानसभा परिसर तथा दिसंबर 2011 में मणिपुर के नए विधानसभा भवन, वर्ष 2019 में बिहार विधानसभा का उद्घाटन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तथा वर्ष 2020 में सोनिया गांधी ने छत्तीसगढ़ के नए विधानसभा भवन का शिलान्यास किया गया था। इन सब कार्यक्रमों में महामहिम राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल को प्रायः आमंत्रित नहीं किया गया था। 

यदि राष्ट्रपति के सर्वोच्च होने के आधार पर संसद का उद्घाटन उनसे कराने की बात विपक्ष कह रहा है, तो यह बात भी ‘‘अर्ध-सत्य’’ ही है। क्योंकि राष्ट्रपति पर "महाभियोग" संसद ही लगा सकती है। इस प्रकार इस स्थिति में संसद राष्ट्रपति से ऊपर सर्वोपरि हो जाती है। वैसे भी जिस राष्ट्रपति को संसद को भंग करने का अधिकार हो, तब उसके निर्माण अर्थात निर्मित भवन के उद्घाटन के लिए राष्ट्रपति को कैसे बुलाया जा सकता है? यदि ऐसा होता है तो वह प्रेमवत नहीं, बल्कि भय के भाव के कारण ही। वैसे यदि लोकसभा के स्पीकर की अध्यक्षता में और राज्यसभा के स्पीकर की विशिष्ट उपस्थिति में प्रधानमंत्री से उद्घाटन कराया जाता तो निश्चित रूप से ऐसी विवाद की स्थिति शायद बनती ही नहीं।

वैसे इस पूरे उद्घाटन कार्यक्रम का सबसे दुखद पहलू यह है कि आजादी के अमृत महोत्सव काल में हो रहे इस स्वर्णिम अवसर का ‘‘साक्षी’’ बनने  के लिए राष्ट्रपति को आमंत्रित ही नहीं किया गया है। मुझे नहीं मालूम है कि राष्ट्रपति को आमंत्रित करने के प्रोटोकॉल क्या है? राष्ट्रपति की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटन कराने पर प्रोटोकॉल आड़े आता है क्या? मुझे याद आता है, जब रजत शर्मा की इंडिया टीवी की "आप की अदालत" की 21वीं वर्षगांठ के जश्न "सिग्नेचर शोसी कार्यक्रम का उद्घाटन भाषण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिया, तो वहीं उसी कार्यक्रम में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी शिरकत की थी। सरकार के पास अभी भी समय है। यदि इस त्रुटि को उपरोक्त तरीके से सुधारा जाए, तो देश के लोकतंत्र की मजबूती के लिए एक बड़ा कदम होगा। तब विपक्ष को दाएं बाएं झांकने का अवसर नहीं होगा और उन्हें भी इस अवसर पर जन दबाव के चलते अपनी भागीदारी प्रदर्शित करनी ही होगी।

‘‘राष्ट्रपति की बजाय प्रधानमंत्री से उद्घाटन कराने का एकमात्र उद्देश्य शायद यही हो सकता है कि राष्ट्रपति मात्र ‘‘संवैधानिक प्रमुख’’ हैं। जबकि ‘‘सत्ता’’ (पावर) की शक्ति का वास्तविक केंद्र बिंदु ‘‘प्रधानमंत्री’’ है। संसद पूरी विधायिकी की शक्ति की एकमात्र केंद्र बिंदु है इसलिए विधायिका और कार्यपालिका का शक्तिपुंज प्रधानमंत्री से संसद भवन का उद्घाटन करा कर विश्व में यह संदेश देना हो सकता है कि जितनी हमारी संसद सर्वशक्तिमान है, उतने ही हमारे प्रधानमंत्री भी लोकतंत्र होने के बावजूद लोकतांत्रिक रूप से सर्वशक्तिमान है। खासकर उस स्थिति को देखते हुए जहां-तहां राष्ट्रपति के बाबत यह कहा जाता रहा है कि, वे मात्र एक रबर स्टैंप रह गए हैं।’’

विरोधी दलों द्वारा राष्ट्रपति के उद्घाटन न करने की बात को दलित आदिवासी महिला के अपमान से जोड़कर देखने से पहले विपक्ष को अपना गिरेबान में झांकना होगा। क्या द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति पद के चुनाव के समय उनके सर्वसम्मति से न बनने देकर बल्कि उनके खिलाफ उम्मीदवार उतारे जाने से क्या विपक्ष ने उनका मान बढ़ा दिया मान-मर्दन किया? आज की राजनीति गिरगिट से भी ज्यादा रंग बदलने वाली है। इसलिए आज की राजनीति को लिए आपको वस्तुतः गिरगिट शब्द की जगह नया शब्द का लाना होगा। राष्ट्रपति चुने जाने के बाद भी उनके राष्ट्रपति का अपमान गाहे बगाहे किया जा रहा है।

देश यह का दुर्भाग्य ही है कि लोकतंत्र का पवित्र मंदिर संसद भवन कुछ अदूरदर्शिता के चलते, बेवजह, अनावश्यक रूप से राजनैतिक अखाड़े का दंगल बन गया है जैसे एक और दंगल जंतर मंतर पर लगभग एक महीने से कुश्ती संघ और देश के ख्याति प्राप्त अंतरराष्ट्रीय कुश्ती पहलवानों के बीच चल रहा है।

सोमवार, 22 मई 2023

काला धन संग्रहकर्ता तथा उत्पादनकर्ता पर कोई शिकंजा नहीं! बल्कि ‘‘बल्ले-बल्ले’’।

भारतीय रिजर्व बैंक की अधिसूचना दिनांकित 19 मई द्वारा की गई इस घोषणा का क्या वास्तविक उद्देश्य ‘काले धन’ पर अंकुश लगाना है अथवा इस खेल के जरिये काला धन संग्रहकर्ताओं व उत्पादकों को बचाना है। भारतीय स्टेट बैंक द्वारा आज जारी के एक सर्कुलर से यह स्पष्ट हुआ हैं कि आपको 2000 के नोट बदलवाने के लिए किसी भी तरह का कोई फार्म भरना या पहचान देनी नहीं है। इससे अब आप यह समझिए कि काला धन संग्रहकर्ता का कोई रिकॉर्ड या पहचान बैंकों और अंततः सरकार के पास नहीं होगी कि किस व्यक्ति ने कितना पैसा स्वयं, अन्य साधनों तथा दिहाड़ी मजदूरों के माध्यम से बदलवाया है जैसा कि 2016 में हुई नोटबंदी के समय देश की जनता ने देखा है। यह समझ से परे है कि सरकार इन व्यक्तियों की पहचान क्यों नहीं करना चाहती है? और न ही सरकार की तरफ से कोई नीतिगत बयान इस संबंध में आया है। 

स्पष्ट है कि पिछली बार की ‘‘नोटबंदी’’ ‘‘नोेट बदली’’ होकर (कुल 99.30 प्रतिशत ) सफेद धन में परिवर्तित हो गई। तब आज तो भारतीय स्टेट बैंक के अपने जारी सर्कुलर ने तो नोटबंदी-2 को कानूनन् ‘‘नोेेट बदली’’ में (काला धन नोट जब्ती में नहीं) परिवर्तित कर दिया है। स्वच्छ मुद्रा नीति की घोषणा के समय भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार प्रचलन में काला धन में लगा कुल 3.62 लाख करोड़ 2000 के नोट के में से न्यूनतम 50 प्रतिशत वैसे यह मात्र 90 प्रतिशत तक हो सकती हैं मान लिया जाए तो 2016 में नोटबंदी लागू कर काला धन समाप्त करने के बाद इन साढ़े छः सालों में ही लगभग 1.50 लाख करोड़ काला धन भ्रष्टाचार की जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाने वाली सरकार के ‘‘नाक के नीचे’’ यह भारी भरकम काला धन कैसे पैदा हो गया? शायद इसीलिए ‘‘पिंक इज न्यू ब्लैक’’ जुमला चल पड़ा था। (2000 की नोट पिंक कलर के थे)। जो जुमला न होकर आरबीआई, एसबीआई के उक्त कदम से उक्त जुमला सच होता हुआ दिखा हुआ दिख रहा है। तो क्या यह मान लिया जाए कि काले धन की समानांतर आर्थिक व्यवस्था चलेगी? सरकार शायद देश के भीतर काला धन की उस आर्थिक व्यवस्था का हिस्सा बनाने निकल चुकी है, जहां उसकी काला धन वालों से नहीं, बल्कि ट्रांजेक्शन जो ‘पेपर करेंसी’ होती हैं, उसकी तादाद बैंकों में बनी रहे और आर्थिक व्यवस्था उसी हिसाब से चलती रहे। 

इस प्रकार इस नीति के उद्देश्यों की पूर्ति पर आशंका तो उपरोक्त अनुसार आरंभ से ही दिख रही है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू नोट छापने में खर्च हुए करोड़ों रुपए की बर्बादी भी है, जिस पर जनता से टैक्स भी वसूला गया है। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार 2000 का एक नोट छापने में रू. 4.18 पैसे का खर्च आता है, वही रू. 500 का नोट छापने में रू. 2.57 पैसे का खर्च आता है। एक अनुमान के अनुसार 2000 के नोट छापने में कुल खर्चा 1400 करोड़ रुपए का हुआ है। अमुद्रिकृत किए गए 2000 के नोट की पूर्ति हेतु 500 के 4 गुना नोट छापने होंगे। अब आप अंदाजा लगा लीजिए दूसरे मूल्यांक के नोटों को छापने में जो पैसा खर्च होगा वह अतिरिक्त बर्बादी होगी। नोटों को बाजार में लाने फिर वापस लेने के लिए जो मशक्कत श्रम एटीएम और बैंकों में के चेस्ट में रखी नकली नोटों को जांच करने की मशीन में सुधार लाने पड़ेंगे, यह सब खर्चे अलग है, जो जनता पर एक अतिरिक्त बोझ है। वापिस लिये गये नोटों को नष्ट करने में भी तो खर्चा होगा। ये सब खर्चे अनुत्पादक होकर घोषित उद्देश्य के लिए न होकर एक छिपे हुए एजेंडे के लिए प्रतीत होते दिखते है।

दूसरी महत्वपूर्ण बात आरबीआई, सरकार व भाजपा का यह दावा है कि 2000 के नोट पिछली योजना के समान तुरंत (चार घंटे बाद) अमुद्रिक (अवैध) नहीं किये गये हैं, बल्कि वह आज भी एक वैध मुद्रा है, जो कि 30 सितंबर तक बाजार में प्रचलन में वैध रहेगी। उक्त बात अंशतः शब्दशः कागज पर बिल्कुल सही है। पिछले बार भी 30 दिसंबर तक अवैध घोषित मुद्रा को बदलने का समय दिया गया था, जिस प्रकार अभी 30 सितंबर तक। हां अभी की कार्रवाई में मुद्रा को तुरंत अवैध घोषित नहीं किया गया है, परन्तु व्यवहार में क्या 1 प्रतिशत भी यह सही है? 30 सितंबर के बाद भी क्या वह वैध मुद्रा होकर प्रचलन में होगी? यदि नहीं तो फिर यह मुद्रा ‘‘वैध’’ है, इस दावे का ‘‘यथार्थ’’ मतलब क्या है? या मकसद सिर्फ जनता को गुमराह करना है? सूक्ति है कि ‘संशयात्मक विनश्यति’। जब एक नागरिक को यह मालूम है कि 2000 के नोट 1 अक्टूबर से ‘‘कागज की रद्दी’’ हो जाएंगे, तब वह आज किसी भी ट्रांजेक्शन में 2000 का नोट लेकर बैंक के चक्कर क्यों लगाएगा। भुगतान करने वाला तो कानूनन जोर (दबाव) कर सकता है, परन्तु भुगतान प्राप्त करने वाला व्यावहारिक रूप से उसे हर हाल में अस्वीकार ही करेगा। इस प्रकार ऐसा व्यक्ति कानून की नजर में भी अकारण ही अपराधी हो जाएगा, क्योंकि लीगल टेंडर को अस्वीकार करना भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए के अंतर्गत एक अपराध है। मतलब यह कि ‘‘पठ्ठों की जान गई, पहलवान का दांव ठहरा’’। याद कीजिए! जब कभी बीच-बीच में किसी भी नोट के अमुद्रीकरण की अफवाह फैलती या फैला दी जाती रही, तब जनता सतर्क होकर उन मूल्यांकन के नोटों को स्वीकार करने में हिचकती है। खतरे की आशंका से बचने का सबसे सुरक्षित तरीका भी यही है कि खतरे से दूर रहो। इस प्रकार शब्दों के भ्रमजाल से भ्रम पैदा कर धरातल पर मौजूद वास्तविक स्थिति को बदला नहीं जा सकता है।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भी 375 करोड़ से ऊपर की नकदी (नोट) जब्त किये गये थे, जो पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में 4.05 गुना ज्यादा थे। इससे एक अंदाजा यह भी लगाया जा सकता है कि इस योजना का एक उद्देश्य आगामी होने वाले विधानसभा व लोकसभा के चुनाव में कालेधन के उपयोग को रोकना भी हो सकता है। तथापि इसका प्रभाव सत्ताधारी दल की बजाए विपक्ष पर पड़ने की संभावनाएं ज्यादा है। शायद यह बात समझ में आने पर ही पूरा विपक्ष इस मामले में एकमत होकर आक्रमण आलोचना कर इस नीति के विरुद्ध खड़ा हो गया है। इसके अतिरिक्त भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कर्नाटक में मिली कड़ी हार को देखते हुए वर्ष 2023 के अंत में विधानसभाओं के चुनाव तथा 2024 में होने वाले लोकसभा के चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए भाजपा भ्रष्टाचार को समाप्त करने के मोर्चे पर अपने को आगे दिखाने के लिए भी काला धन  जिसकी उत्पत्ति भ्रष्टाचार से ही होती है, की समाप्ति के लिए उक्त कदम उठाने का श्रेय ले सकती है।

अंत में एक महत्वपूर्ण बात और! जिस कारण से इसे (स्वच्छ मुद्रा नीति को) तुगलकी फैसला कहा अथवा ठहराया जा रहा है। या यूँ समझिये की सरकार ने एक ही सांस में यह कह दिया है कि ‘‘गिलास आधा खाली है और आधा भरा है’’, जिसको जो अर्थ निकालना हो, उसके लिए वह स्वतंत्र है। क्योंकि नवंबर 2016 को की गई नोटबंदी के समय जारी 2000 के नोटों के लिए जो आवश्यक कारण बतलाये गये थे, आज उसे प्रचलन से वापस लेने का कारण भी वही नोटबंदी के समय कहा गया मुख्य उद्देश्य काले धन की समाप्ति को बताया जा रहा है। अर्थात सरकार ने ‘‘न उगलते बने न निगलते बने’’ की स्थिति को विपरीत कर ‘‘उगलना भी पड़ेगा और निगलना भी पड़ेगा’’ बनाने का जादुई करिश्मा किया है। यदि ऐसा नहीं है तो इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है, जो शायद सरकार कहना नहीं चाह रही हो कि वर्ष 2016 में नोटबंदी के समय की तुलना में आज 2000 रुपए का वास्तविक मूल्य महंगाई व मुद्रास्फीति के कारण घटकर रुपए 1000 के बराबर हो गया है। उस 1000 के बराबर जिसे पिछले नोटबंदी में अमुद्रीकृत कर दिया गया था। तब आज वह बाजार में चलन में कैसे रह सकता है? इतनी छोटी सी बात आप नहीं समझ पा रहे हैं? इसीलिए तो इस नीति की घोषणा शोर-शराबे के साथ राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री द्वारा संबोधन न की जाकर गहन शांति की योग मुद्रा में आरबीआई के एक अदने से सर्कुलर द्वारा कर दी गई। ‘विवाह’ व लिव-इन-रिलेशनशिप दो पृथक शब्दों के परिणाम एक ही है। ठीक इसी प्रकार नोटबंदी (अमुद्धिकरण) व ‘स्वच्छ मुद्रा नीति’ की भी स्थिति है। भले ही सरकार बार-बार यह घोषणा करके कि यह नोटबंदी (अमुद्रीकरण) नहीं है, इसलिए 2000 के नोट के एक वैध मुद्रा है। जिस प्रकार 2000 के मूल्यांकन वैध मुद्रा होने के बावजूद 30 सितंबर के बाद 2000 के नोटों का बाजार में लेन-देन नहीं हो पाएगा। ठीक उसी प्रकार लिव-इन-रिलेशनशिप वैध रूप से शादी न होने के बावजूद शादी के बराबर ही है, जब तक कि कोई एक पक्ष शिकायत न करें।

शनिवार, 20 मई 2023

2000 के नोट चलने अथवा बंद करने के लिए देश से माफी अथवा नीतिगत त्रुटि को स्वीकारा नहीं जाना चाहिए?

स्वच्छ मुद्रा नीति (क्लीन नोट पॉलिसी) के तहत भारतीय रिजर्व बैंक ने 19 मई को एक अधिसूचना जारी कर पूर्व में 10 नवम्बर 2016 को भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 की धारा 24(1) के अंतर्गत जारी 2000 मूल्याँक के नोट को बाजार से "संचलन से वापस" लेने की घोषणा की। साथ ही उक्त मुद्रा को तत्काल अवैध घोषित न करते हुए अर्थात 2000 मूल्य वर्ग के नोट को वैध मुद्रा (लीगल टेंडर) जारी रखते हुए 30 सितंबर के बाद उसके ट्रांजेक्शन को बाजार में प्रतिबंधित कर दिया, जिसे आम भाषा में ‘‘नोटबंदी द्वितीय’’ कहा/ठहराया जा रहा है। प्रश्न यह खड़ा किया जा रहा है कि आरबीआई की उक्त कार्रवाई क्या  विमुद्रीकरण/ नोटबंदी है? जैसा कि प्रधानमंत्री ने दिनांक 8.11.2016 को घोषणा कर की थी। उत्तर उसका यही है कि तकनीकी रूप से न तो यह कदम विमुद्रीकरण है और न ही नोट बंदी। वस्तुतः विमुद्रीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा विमुद्रीकृत किए गए नोटों को किसी भी प्रकार के लेनदेन के लिए वैध मुद्रा के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। अर्थात किसी करेंसी यूनिट के लीगल टेंडर के दर्जे को हटा लेना विमुद्रीकरण है। जबकि ‘‘क्लीन नोट पॉलिसी’’ में 4-5 साल के बाद नोट के खराब हो जाने के कारण उसे क्रमशः प्रचलन से बाहर कर दिया जाता है, परंतु वह मूल्यांक वैध रहता है।
अबकी बार "नोटबंदी भाग दो" की घोषणा प्रधानमंत्री द्वारा नहीं की गई, जैसा कि पिछली बार प्रधानमंत्री ने स्वयं मीडिया के माध्यम से देश को संबोधित करते हुए नोटबंदी की घोषणा की थी। विपरीत इसके प्रधानमंत्री के विदेशी दौरे में होने के कारण उनकी अनुपस्थिति में बिना कोई शोर शराबा किए (पत्रकार वार्ता इत्यादि) शांति से एक अधिसूचना द्वारा जारी करके कर दी गई। आम जनता के लिए अचानक लेकिन आर्थिक क्षेत्रों के जानकार लोगों के लिए नवंबर 2016 में आई नोट बंदी की योजना के समय ही बाजार में नकदी उपलब्ध कराने की उद्देश्य से 2000 के नोट छापने की नीति लागू की गई थी। तब ही यह स्पष्ट था कि धीरे-धीरे उद्देश्य पूरा होते होते इसे बंद कर दिया जाएगा। इसी नीति के तहत आरबीआई द्वारा 2018 से 2000 के नोट छापना बंद कर दिया गया था। इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए भारतीय रिजर्व बैंक की दृष्टि में रू. 2000 के अंकन का नोट जारी करने का उद्देश्य पूरा होने से अंतिम कड़ी के रूप में उक्त अधिसूचना जारी हुई है। यद्यपि आरबीआई के सूत्रों के अनुसार बड़े नोटों को काले धन के रूप में इकट्ठा करने की जानकारी आने के बाद ही यह कदम उठाया गया है। आंकड़ों की नजर से भारतीय रिजर्व बैंक की इस नीति को आगे इस तरह से समझिए।
8 नवंबर 2016 को देश में हुई नोटबंदी के समय चलन में मौजूद 15.50 लाख करोड़ बेकार हो गए, जो बाजार में चलन कुल नगदी का 89% था। चूंकि बाजार की नगदी की आवश्यकता की आपूर्ति में छोटे नोट छापने में लंबा समय लग जाता, इसलिए 2000 के हाई डिनॉमिनेशन (मूल्य वर्ग) के नए नोट लाने की नीति अपनाई जा कर वर्ष 16-17 में 2000 रुपए के 6.30 लाख करोड़ के नोट छाप कर डाले गए। आरबीआई के अनुसार मार्च 2017 में ही 89% 2000 के नोट जारी कर दिए गए थे, जिस कारण से 5-6वर्ष की आयु पूर्ण हो जाने के कारण स्वच्छ मुद्रा नीति के तहत उक्त मुद्रा बाजार से प्रचलन के बाहर किए जाने की परिधि में आती थी। वर्ष 2016  में की गई नोट बंदी के बाद बाजार में नकदी घटने की उम्मीद थी, परंतु वह घटने के बजाय बढ़ गई। नोटबंदी के समय चलन में नकदी 17.7 लाख करोड़ थी, जो एक समय दोगुनी से ज्यादा होकर 36 लाख करोड़ तक हो गई। यानी "मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की"। इस कारण से आरबीआई द्वारा 2000 के नोट छापने बंद किये जाने से 31 मार्च 2018 को इन नोटों की अधिकतम मात्रा 6.73 लाख करोड़ रुपए रह गई थी, जो बाजार में मुद्रा के कुल संचलन का 37.3 थी। यह पुनः घटकर 31 मार्च 2023 को घटकर मात्र 3.60 लाख करोड़ रह गई जो कुल मुद्रा संचलन का मात्र 10.8 है। इस प्रकार बाजार में आज लगभग 3.62 लाख करोड़ रूपये 2000 के नोट है, को ही हटाया गया है। इसके लिए अब नए मूल्य के नोट छापने की आवश्यकता इसलिए नहीं है, क्योंकि अन्य मूल्यांक के नोट आवश्यकता के अनुरूप पर्याप्त संख्या में बाजार में उपलब्ध हैं। अतः जनता को कोई असुविधा नहीं होगी। इस कार्रवाई का यह एक पक्ष आरबीआई व उसके पीछे खड़ी सरकार का है।
अब सिक्के के दूसरे पहलु सरकार के दावे व ‘‘नोटबंदी भाग-1’’ के समय किए गए दावों व उनकी प्राप्ति (उपलब्धि) का परीक्षण कर ले तभी हम नोटबंदी भाग-2 के निर्णय पर सही निष्कर्ष पर पहुंच पायेगें। सरकार का यह कहना है कि अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों में बड़े नोटों का प्रचलन नहीं है। भारत भी वही मौद्रिक नीति अपना रहा हैं। प्रश्न यह है कि फिर प्रथम बार नवम्बर 2016 में 2000 के उच्च मूल्यांकन के नये नोट जारी ही क्यों किये गये? जब तब भी यह दूसरे देशों में नहीं था। रू. 500 व 1000 की नोटबंदी के समय यह तर्क दिया था कि इससे "काला धन" व "टेरर फंडिंग" पर लगाम कसेगी। तब फिर उससे भी ज्यादा मूल्यांक 2000 के नोट जारी करते समय क्या सरकार इस तथ्य से अवगत नहीं थी कि काला धन के संचयन के लिए बड़े मूल्याँक 2000 के नोट ज्यादा सुविधाजनक होंगे? सरकार के पक्ष घर लोगों का यह कथन की आम गरीब जनता के पास 2000 के नोट होते कहां हैं। तो क्या सरकार  तत्समय अमीरों के लिए ही ₹2000 के नोट लाई थी? फिर यदि काला धन को समाप्त करने के लिए ही 2000 के नोट चलन से बाहर किए जा रहे हैं तब इस काले धन की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार कौन? 2016 की नोटबंदी के बाद काला धन फिर कैसे उत्पन्न हो गया?  इसकी पूरी जिम्मेदारी भाजपा सरकार की ही तो है, क्योंकि भ्रष्टाचार विमुक्त तंत्र व शासन देने का हर समय भरोसा देने वाली सरकार के नेतृत्व में ही तो भ्रष्टाचार के कारण यह काला धन उत्पन्न हुआ है। परंतु आरबीआई ने 2000 के नोट जारी करने के संबंध में  दिया स्पष्टीकरण उचित व मान्य है कि बाजार में रूपये की तरलता के लिए छोटे नोटों के अवैध हो जाने से बची वैध नोटों की मुद्रा के बाजार की आवश्यकतानुसार जरूरत की पूर्ति में काफी समय छापने में लगेगा? इसलिए 2000 के नये नोट छापने की नीति बनाई गई। क्या उक्त नीति जो आज 2000 के नोट को प्रचलन से बाहर करते समय बताई जा रही है, जारी करते समय जनता को बताई गई थी क्या? या "आगे देखी जाएगी" सोचकर "नाव पानी में उतार दी" थी। एक तरफ जब यह दावा किया जा रहा है कि  तकनीकी रूप से "नोटबंदी' और बाजार से "नोट को प्रचलन से बाहर" करना अलग-अलग क्रिया एवं प्रक्रिया है, तब फिर आज की कार्रवाई के औचित्य को सही ठहराने के लिए पूर्व की नोटबंदी का हवाला क्यों  दिया जा रहा है? क्या पूर्व नोटबंदी का "पत्थर घिसते घिसते  महादेव बन चुका है"? फिर क्या एक ‘कमी’ की पूर्ति के लिए दूसरी ‘‘बड़ी गल्ती’’ कर कमी की पूर्ति कर उसे सुधारा जा सकता हैं? दूसरा आरबीआई ने जो स्थिति 2000 रू. के नोट के संबंध में अपने स्पष्टीकरण में बतलाई है, कमोबेश वही स्थिति 500 रू. के नोट के मामले में भी हैं। तब क्या 500 मूल्यांकन के नोट फिर से बंद किये जाने वाले है? क्या आरबीआई खुद को "हरफनमौला हरफन अधूरा" साबित करने में लगा हुआ है? प्रथम नोटबंदी के घोषित लक्ष्य भ्रष्टाचार, काला धन, टेरर फंडिंग, आतंकवाद, नक्सलवाद को रोकना,नकली नोट आर्थिक स्थिति को तीव्रगति देना तथा डिजिटल ट्रांजैक्शन को बढ़ावा देने की थी। डिजिटल ट्रांजिशन को छोड़कर बाकी किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति वांछित सीमा तक नही हो पाई। तब क्या उक्त कमियों की पूर्ति के लिए आरबीआई द्वारा यह अधिसूचना जारी की गई है जिसके परिणाम भी क्या वही ढाक के तीन पात तो नहीं होंगे?
एक दूसरी महत्वपूर्ण बात आरबीआई व सरकार, भाजपा का यह दावा है कि 2000 के नोट पिछली योजना के समान तुरंत (चार घंटे बाद) अमुद्रिक (अवैध) नहीं किये गये है, बल्कि वह आज भी एक वैध मुद्रा है, जो कि 30 सितंबर तक बाजार में प्रचलन में वैध रहेगीं। उक्त बात अंशत: शब्दशः कागज पर बिल्कुल सही है। पिछले बार भी 30 दिसंबर तक अवैध घोषित मुद्रा को बदलने का समय दिया गया था जिस प्रकार अभी 30 सितंबर तक। हां अभी की कार्रवाई में मुद्रा को तुरंत अवैध घोषित नहीं किया गया है, परन्तु व्यवहार में क्या 1 प्रतिशत भी यह सही है? 30 सितंबर के बाद भी क्या वह वैध मुद्रा होकर प्रचलन में होगी? यदि नहीं तो फिर यह  मुद्रा वैध है, इस दावे का "यथार्थ" मतलब क्या है?  या मकसद सिर्फ जनता को  गुमराह करना है? सूक्ति है कि "संशयात्मक  विनश्यति'। जब एक नागरिक को यह मालूम है कि 2000 के नोट 1 अक्टूबर से कागज की रद्दी हो जाएंगे, तब वह आज किसी भी ट्रांजैक्शन में 2000 का नोट लेकर बैंक के चक्कर क्यों लगायेगा। भुगतान करने वाला तो कानूनन जोर (दबाव) कर सकता है, परन्तु भुगतान प्राप्त करने वाला व्यवहारिक रूप से उसे हर हाल में अस्वीकार ही करेगा। इस प्रकार ऐसा व्यक्ति कानून की नजर में भी अकारण ही अपराधी हो जाएगा क्योंकि लीगल टेंडर को अस्वीकार करना भारतीय दंड संहिता की धारा 124 A के अंतर्गत एक अपराध है। मतलब यह की "पठ्ठों की जान गई, पहलवान का दांव ठहरा"। याद कीजिए! जब कभी बीच-बीच में किसी भी नोट के अमुद्रीकरण की अफवाह फैलती या फैला दी जाती रही, तब जनता सतर्क होकर उन मूल्यांकन के नोटों को स्वीकार करने में हिचकती है। खतरे की आशंका से बचने का सबसे सुरक्षित तरीका भी यही है कि खतरे से दूर रहो। इस प्रकार शब्दों के भ्रमजाल से भ्रम पैदा कर धरातल पर मौजूद वास्तविक स्थिति को बदला नहीं जा सकता है।
‘‘नकली नोटों’’ को बाजार से हटाने के लिए भी ‘‘विमुद्रीकरण’’ की नीति लाई जाती है, जैसा कि  पिछली नोटबंदी में प्रचलित समस्त 500 के नोटों का विमुद्रीकरण कर 500 के नोटों की नई सीरीज जारी की गई थी। परन्तु क्या उससे नकली नोटों का छपना बंद हो गया? नवंबर 2016 की नोटबंदी से लेकर आज की गई स्वच्छ मुद्रा नीति के बीच देश के विभिन्न भागों में कई बार 2000 व 500 के नकली नोट जब्त कियेे गये है। कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में भी 375 करोड़ से उपर की नगदी (नोट) जब्त किये गये थे पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में 4.05 गुना ज्यादा थी। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि  इस योजना का एक उद्देश्य आगामी होने वाले विधानसभा व लोकसभा के चुनाव में कालेधन के उपयोग को रोकना भी हो सकता है। तथापि इसका प्रभाव सत्ताधारी दल की बजाए विपक्ष पर ज्यादा पड़ने की संभावनाएं है। शायद यह बात समझ कर ही  पूरा विपक्ष इस मामले में एकमत होकर आक्रमण आलोचना कर इस नीति के विरुद्ध खड़ा हो गया है। इसके अतिरिक्त भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कर्नाटक में मिली कड़ी हार को देखते हुए वर्ष 2023 के अंत में विधानसभाओं के चुनाव तथा 2024 में होने वाले लोकसभा के चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए भाजपा भ्रष्टाचार को समाप्त करने के मोर्चे पर अपने को आगे दिखाने के लिए भी काला धन  जिसकी उत्पत्ति भ्रष्टाचार से ही होती है, की समाप्ति के लिए उक्त कदम उठाने का श्रेय ले सकती है।
रिजर्व बैंक द्वारा वर्ष 1999 में लागू की गई स्वच्छ मुद्रा नीति (क्लीन नोट पॉलिसी) का एक कारण  4-5 साल बाजार में चले नोटों को खराब हो जाने से उन्हें बाजार से हटाना भी होता है। इसका उद्देश्य ग्राहकों को अच्छी गुणवक्ता वाले करंसी नोट देना है। यदि इस कारण से भी 2000 के नोट वापस लिये जा रहे हो तो शेष मूल्यांक के खराब हो रहे नोटों को वापिस लेने के लिए आरबीआई ने क्या कदम उठाये हैं? साथ ही इस नीति के तहत उसी मूल्यांकन के नये सीरीज के नोट जारी किये जाते हैं। क्या भविष्य में भी "स्वच्छ मुद्रा नीति" के तहत रू. 2000 के बाजार से वापिस लेने के बावजूद वैध होने के कारण भविष्य में पुनः नई सीरीज का 2000 के नोट जारी किये जायेगें?
किसी भी सरकार की सबसे बड़ी साख उसका "पाक दामन और पारदर्शिता" होना ही नहीं बल्कि दिखना भी चाहिए। मतलब एक्शन के साथ वही परसेप्शन का होना भी आवश्यक है। बार-बार कम समय के अंतराल में इस तरह नोटबंदी किये जाने से सरकार, आरबीआई व बैंकों की साख पर भी उंगली उठती है खासकर जब ऐसी कार्रवाइयों से इच्छित वांछित परिणाम न निकले हो। कहीं इन कारवाइयों में रिजर्व बैंक की उपलब्धि "भूसा ज्यादा, आटा कम" की तो नहीं रही है? ऐसी कार्रवाईयो से भारत जैसे देश में जहां ग्रामीण इलाकों में जहां आज भी लगभग 40-45% जनता अशिक्षित है, का सरकार व उन बैंकों के प्रति जहां जन धन योजना के अंतर्गत ग्रामीण जनता ने प्रधानमंत्री के आव्हान पर खाता खोलें, के प्रति विश्वास को कहीं न कहीं चोट व धक्का नहीं लगता है? कहीं ऐसा तो नहीं हो जाएगा जब करेंसी की साख के प्रति विश्वास की बजाय अविश्वास की खाई इतनी बढ़ जाए कि नागरिकों का एक बड़ा वर्ग वैध करेंसी की बजाएं सोने को करेंसी मानकर ट्रांजेक्शन करने लगे और संचय करने लगे तो? क्योंकि अंतंतः करेंसी तो साख पर ही चलती है। यदि करेंसी की साख का बेड़ा गर्क हो जाए तो अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क होने में देर नहीं  लगेगी? अतः सरकार को आर्थिक नीतियों के मामले में बहुत सोच समझकर और राजनीतिक नफा नुकसान को परे रखकर सिर्फ और सिर्फ देश हित में निर्णय लेना चाहिए और यदि संभव हो तो निर्णय के पूर्व जनता को भी विश्वास में लेना चाहिए।
अंत में एक महत्वपूर्ण बात और!  जिस कारण से इसे (स्वच्छ मुद्रा नीति को) तुगलकी फैसला कहा अथवा ठहराया जा रहा है, या यूं कहिए की सरकार ने एक ही सांस में यह कह दिया है कि गिलास आधा खाली है और आधा भरा है जिसको जो अर्थ निकालना हो उसके लिए वह स्वतंत्र है। क्योंकि नवंबर 2016 को की गई नोटबंदी के समय जारी 2000 के नोटो को नोटबंदी के उद्देश्य के लिए जहां आवश्यक बतलाया गया था, आज उसे प्रचलन से वापस लेने का कारण भी वही नोटबंदी के समय का कहा गया मुख्य उद्देश काले धन की समाप्ति का है। अर्थात सरकार ने उगलते बने न निगलते बने की स्थिति को विपरीत कर उगलना भी पड़ेगा, निगलना भी पड़ेगा बनाने का जादुई करिश्मा किया है। यदि ऐसा नहीं है तो इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है जो शायद सरकार कहना नहीं चाह रही वह यह कि 2016 की तुलना में आज  2000 रुपए का वास्तविक मूल्य महंगाई व मुद्रास्फीति के कारण घटकर ₹1000 के बराबर हो गया है उस 1000 के बराबर जिसे पिछले नोटबंदी में अमुद्रिकृत कर दिया गया था। तब आज वह बाजार में चलन में कैसे रह सकता है? इतनी छोटी सी बात आप नहीं समझ पा रहे हैं? इसीलिए तो इस नीति की घोषणा शोर-शराबे के साथ राष्ट्र के नाम संबोधन करके प्रधानमंत्री द्वारा न की जाकर गहन शांति की योग मुद्रा में एक अदने से आरबीआई के सर्कुलर द्वारा कर दी गई।

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