बुधवार, 22 नवंबर 2023

"वर्ल्ड कप" की "चका-चौंध" में "कालाबाजारी" "ढंक" गई!

गुजरात के अहमदाबाद के ‘‘नरेन्द्र मोदी क्रिकेट स्टेडियम’’ में अंततः वर्ल्ड कप क्रिकेट का महाकुंभ का भव्य रंगारंग कार्यक्रम के साथ समापन हो गया। तथापि भारतीय टीम की पूरे वर्ल्ड कप में सकारात्मक लगातार विजय यात्रा के कारण उपजी उन्मादी उम्मीद के बावजूद परिणाम हमारे पक्ष में नहीं रहे। इससे प्रत्येक भारतीय को कहीं न कहीं कुछ चुभ रही गहरी निराशा, हताशा अवश्य हाथ लगी। बावजूद इसके 11 में से 10 मैच लगातार जीतकर भारतीय क्रिकेट ने विश्व क्रिकेट में अपना डंका निः संदेह स्थापित किया। खेल के विभिन्न क्षेत्रों में बल्लेबाजी एवं बाॅलिंग में भारत के खिलाड़ियों का जलवा होकर वे सर्वश्रेष्ठ रहे। विराट कोहली सबसे बेस्ट बैट्समैन, मोहम्मद शमी सबसे बेस्ट बॉलर और मैन ऑफ द टूर्नामेंट विराट कोहली रहे। इसलिए तो क्रिकेट को ‘‘अनिश्चितताओं का खेल’’ कहा जाता है। वर्ल्ड कप के फाइनल के परिणाम ने एक बार फिर पूरी तरह से इसी धारणा को पुनः सिद्ध किया है। इसलिए जनता का उन्माद कर देने वाला असीम उत्साह व भारत के प्रधानमंत्री की प्रेरक उपस्थिति के बावजूद जिस परिणाम की चाहत व आकलन विश्व क्रिकेट के विशेषज्ञ पंडित कर रहे थे, दुर्भाग्यवश उससे हम वंचित रह गए। वस्तुतः शायद वह दिन हमारा था ही नहीं, आस्ट्रेलिया का दिन था। ‘‘जिससे अलख राजी, उससे खलक राजी’’! परन्तु इसका विलोम भी उतना ही सही है। शायद इसी को ‘‘भाग्य’’ कहते हैं। इसलिए ‘खेल’ को खेल मैदान में खेल भावना से ही लिया जाना चाहिए। जिसका अभाव शायद इस फाइनल में देखने को मिला।

विश्व का सबसे धनी क्रिकेट संघ ‘‘भारतीय क्रिकेट बोर्ड’’ है, जिसकी सालाना आय लगभग 6558 करोड़ रू है। हारने के बावजूद भारतीय क्रिकेट टीम को 16.62 करोड़ रुपए की राशि मिली। क्रिकेट के ‘‘तीनों फॉर्मेट’’ में भारत की रैंकिंग टॉप में है। धन बल व खेल में अपनी श्रेष्ठता कई वर्षो से बनाये रखने के कारण भारतीय क्रिकेट संघ का विश्व क्रिकेट पर इतना दबाव रहा है कि अनेकों बार भारतीय क्रिकेटर्स अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट संघ व एशियन क्रिकेट संघ के अध्यक्ष व पदाधिकारी रहे हैं। यह भी कहा जाता है विश्व क्रिकेट में भारतीय क्रिकेट संघ की तूती बोलती है और वह विश्व क्रिकेट संघ पर अपनी शर्त लागू (डिकटेटर) करता रहता है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का इतना बड़ा वैभव, ब्राडिंग व सक्षमता होने के बावजूद उनके द्वारा आयोजित क्रिकेट के विश्व के सबसे बड़े आयोजन वल्र्ड कप का सबसे बड़ा काला अध्याय जो रहा, वह न केवल मैच की टिकटों की अकल्पनीय कालाबाजारी रही, बल्कि खान-पान से लेकर होटल, टैक्सी व अन्य सुविधाओं के रेट भी सातवें आसमान को उसी तरह से छूने लगे, जिस तरह से हमारे ‘‘चंद्रयान ने चांद को छुआ’’। इस कमर तोड़ कालाबाजारी (महंगाई नहीं) के लिए न केवल भारतीय क्रिकेट संघ जिम्मेदार है, बल्कि गुजरात सरकार और अहमदाबाद नगर निगल भी पूर्णतः जिम्मेदार हैं। 

हम क्रिकेट के खेल में और उसकी चकाचौंध में हाथी के समान इतने मतवाले हो गये कि क्रिकेट की चमक-धमक में अंध होकर शासन-प्रशासन क्या होता है, उनका क्या उत्तरदायित्व है, शायद उसे हम भूल ही गये, निभाने का प्रयास करना तो दूर की कौड़ी हो गई। हां हमने उस उत्तरदायित्व को पूरे जज्बे और ताकत के साथ निभाया जब वीवीआईपी लोगों के स्वागत आवभगत और सुरक्षा की बात रही हो। शासन-प्रशासन की उदासीनता व अव्यवस्था से आम जनता इस सदी के अभी तक के सबसे बड़े क्रिकेट के महाकुंभ के दर्शन लाभ व प्रसाद से वंचित रह गई। हमारे यहां तो ‘‘कुंभ’’ के दर्शन से प्रसाद तो मिलता ही है। 

आम जनों की हितैषी का दावा करने वाली सरकार का क्या यह दायित्व नहीं था कि कि वह इस तरह की उपभोक्ताओं के साथ हुई कालाबाजारी के विरूद्ध समय पूर्व कड़े कदम उठाकर उस पर रोक लगाती, नियंत्रित करती? क्या खेल के कुंभ के समान भी धार्मिक कुंभ में भी ऐसा ही होता? या सरकार ने यह मान लिया था कि धार्मिक कुंभ में तो बहुसंख्यक आम सामान्य व्यक्ति आता है, ‘‘जिसकी कमाई हुई तो रोजी, नहीं तो रोजा’’। लेकिन खेल के कुंभ में खासकर अभिजात वर्ग का कहलाने वाला खेल क्रिकेट के खेल को देखकर न तो सामान्य वर्ग आता है और न ही उसे आने का अधिकार है। सिर्फ एलीट (अभिजात) वर्ग को ही यह अधिकार शायद इसलिए है क्योंकि ‘‘अघाए हुए को ही मल्हार सूझता है’’। इसलिए वह क्रिकेट बोर्ड और प्रशासन द्वारा की गई कालाबाजारी व उच्च दामों की व्यवस्था में ‘‘फिट’’ बैठता है। ‘‘अंधे ससुर से घूंघट क्या और क्या परदा’’। 

देश में विश्व स्तर के किसी भी आयोजन से हमारे देश की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई होती है। ठीक जिस प्रकार जी-20 का बेहद सफल आयोजन अभी हाल में ही दिल्ली में हुआ था। हमारी अत्यंत सुदृढ़, दुरुस्त सुंदर चकाचौंध कर देने वाली व्यवस्था ने विदेशी मेहमानों का दिल जीत लिया था और विश्व की मीडिया का भी सकारात्मक ध्यान आकर्षित हुआ। क्या यही सोच विचार के साथ व्यवस्था जब विदेशों से भी हजारों दर्शक  वर्ल्ड कप देखने आ रहे हो, भले ही वे राष्ट्राध्यक्ष न हो, के प्रति नहीं होनी चाहिये? जिस प्रकार हम धार्मिक कुंभ में आम जनता की सुविधाओं को ध्यान में रखकर सुरक्षा सहित समस्त आवश्यक मूलभूत व्यवस्था बनाते हैं, वैसी ही सामान्य जनों को ‘‘सामान्य प्रचलित रेट’’ पर वे व्यवस्थाएं इस क्रिकेट कुंभ में क्यों नहीं उपलब्ध कराई गई? यह समझ से परे है। सामान्यतया होटलों की केटेगिरी व रेट फिक्स होते है, फ्लाइट के रेट भी फिक्स होते है। तथापि सीजंस में और भीड़ ज्यादा होने पर रेट में बढ़ोतरी होती है। परंतु उसकी भी कोई तार्किक (लॉजिकल) सीमा होती है और नहीं है, तो अवश्य होनी चाहिए। रेलवे विशिष्ट अवसरों पर होने वाली भीड़-भाड़ से निपटने के लिए उपभोक्ता मांग के अनुसार अतिरिक्त ट्रेन चलाती है, बोगी लगाती हैं, मुनाफाखोरी नहीं करती हैं। लेकिन जब मांग व पूर्ति में अंतर बहुत बढ़ जाये तो क्या सरकार भी स्थिति को हाथ पर हाथ धरे रखकर बाजार के हाथों में छोड देती है? ऐसी स्थिति में क्या सरकार को सामान्य दर्शक उपभोक्ताओं की पहुंच (एक्सेस) के लिए बाजार पर नियंत्रण नहीं करना चाहिए था?

याद कीजिए! कोरोना काल में जब हॉस्पिटल व डॉक्टर्स ने इसी प्रकार कोरोना पीड़ित बीमार जनता की बीमारू मन और शारीरिक स्थिति का फायदा उठाते हुए इलाज के रेट अत्यधिक कर दिये थे। दस गुना तक इजाफा कर दिया था। चूंकि मामला जीवन से संबंधित था, इसलिए जनता ने मजबूर होकर अपनी चल-अचल संपत्तियों को बेचकर भी अति महंगा इलाज जान बचाने के लिए करवाये थे। स्थिति को गंभीर होते देख तब शासन-प्रशासन तथा जिलों के कलेक्टरों ने डॉक्टर्स अस्पताल, नर्सिंग होम संचालकों के साथ प्रमुख प्रबुद्ध नागरिकों की बैठक बुलाकर इलाज के रेट की अधिकता सीमा तय कर कुछ राहत अवश्य प्रदान की थी। ‘‘एक नजीर सौ नसीहत के बराबर होती है’’। क्या ऐसा ही सुप्रबंध अहमदाबाद में संपन्न हुए खेल के महाकुंभ में नहीं किया जा सकता था? निश्चित रूप से यह सब कुछ सरकार की व बोर्ड इच्छा शक्ति पर ही निर्भर करता है। कहा भी गया है ‘‘जहां चाह वहां राह’’। आश्चर्य की बात यह भी है कि इस मुनाफाखोरी में सिर्फ व्यापारी वर्ग या ‘‘सेवा-प्रदाता’’ ही शामिल नहीं है, बल्कि चुनी हुई सरकार भी शामिल है। क्योंकि मुनाफाखोरी का एक हिस्सा टैक्स के रूप में सरकार को भी मिलता है। अतः सरकार की भी मुनाफाखोरी में हिस्सेदारी मानी जायेगी। परन्तु सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘‘ख़ता लम्हों की होती है, और सजा सदियां पाती हैं’’।

दूसरे आश्चर्य की बात यह भी है कि सरकार की इस मुनाफाखोरी के विरुद्ध न तो मीडिया खड़ा हुआ और न ही आम जनता जिसे भी मैच देखने में भागीदारी करने का अधिकार था। सरकार व क्रिकेट बोर्ड की अनदेखी व उपेक्षा के कारण एक दर्शक के रूप में वंचित रहा है। ‘‘सब अपने-अपने खेल में मस्त हैं’’, क्योंकि मीडिया तो वीवीआईपी पास के चक्कर में ही लगा हुआ होगा। तब मजबूत शक्तिशाली प्रबंधक के विरुद्ध खड़ा होने का ‘‘नैतिक बल’’ मीडिया कहां से ला पाता? क्या 5 हजार करोड़ से अधिक आय प्राप्त करने वाला भारतीय क्रिकेट बोर्ड ‘‘बीपीएल कार्ड धारक खेल प्रेमी’’ नागरिकों को लॉटरी सिस्टम के तहत कुछ सौ टिकटे एक लाख तीस हजार की क्षमता नरेन्द्र मोदी स्टेडियम मेें मुफ्त में बांटी नहीं जा सकती थी? खासकर जब देश में इस समय रेवड़िया, मुफ्त बांटने का प्रचलन तेजी से चल रहा हो। प्रश्न है इच्छाशक्ति व भावना का है? तभी तो उस दिशा में कार्य कर पायेगें? देश में अमीरो-गरीबो का अंतर अत्यधिक बढ़ते जा रहा है! आखिर गुजरात के मुख्यमंत्री व वहां से आने वाले हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ध्यान इस ओर क्यों नहीं गया? यानी कि ‘‘घर में औलिया होकर भी घर के भूत पर ध्यान नहीं’’! 

इस मैच के अन्य कई भी दुखद पहलू हैं। एक और दुखद पहलू इस आयोजन से निकल कर यह भी आया है कि देश के विभिन्न अंचलों में वर्ल्ड कप के फाइनल में भारत की जीत के लिए दुआएं, प्रार्थनाएं यज्ञ, हवन इत्यादि मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों में की गई। परंतु दुर्भाग्य देखिए 41 मजदूरों का; जो निर्माणाधीन सुरंग के गिरने से अपनी जान हथेली पर लिए हुए कई दिनों से फंसे हुए हैं, उनकी सुरक्षित जान की सुरक्षा के लिए देश में ऐसी ‘‘आवश्यक दुआओं का उन्माद’’ नहीं देखा गया। कम से कम उन आठ प्रदेशों में तो जरूर होनी चाहिए थी, जहां के ये मजदूर रहवासी थे। इस मानवीय व राष्ट्रीय कमी को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। खेल के दौरान भारतीय दर्शक द्वारा ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों के अच्छी शाट/बाॅल पर तालियाँ उत्साहवर्धन न बजाना व पुरस्कार समारोह के दौरान प्रधानमंत्री की उपस्थिति के बावजूद स्टेडियम का लगभग खाली हो जाना मात्र 1.5-2 हजार लोगों की उपस्थिति रही जो हमारी ‘‘अतिथि देवो भवः’’ की भावना व मूल पहचान पर चोट करती है। प्रधानमंत्री की मैच में पूर्व से नियत उपस्थिति के बाबत राहुल गांधी की अशोभनीय टिप्पणी भी बेहद निंदनीय है। यह भी मैच के परिणाम के बाद उत्पन्न परिस्थिति का एक और दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है। कपिल देव व महेन्द्र सिंह धोनी को आमंत्रित न करना भी सिर्फ दुखद पहलू ही नहीं है, बल्कि बेहद शर्मनाक व खेल भावना के एकदम विपरीत कदम है। भारतीय क्रिकेट बोर्ड ‘‘जय शाह’’ देश व खेल प्रेमी को इसका जवाब देंगे?

शनिवार, 28 अक्तूबर 2023

जातिगत आरक्षण, जनसंख्या गणना व रेवड़ियां, देश को किस दिशा में ले जाएगी?

जातिगत जनगणना

आरक्षण के साथ ही पिछले कुछ समय से देश में जातिगत जनसंख्या की गणना की मांग न केवल जोर-शोर से की जा रही है, बल्कि बिहार सरकार ने तो न्यायालीन अवरोधों से निपट कर जातिगत गणना के परिणाम भी प्रकाशित कर दिए हैं। यद्यपि भारत में जनगणना अधिनियम 1948 लागू है, जिसके अंतर्गत सिर्फ केन्द्र सरकार ही जनगणना करा सकती है। बिहार का अनुसरण करते हुए राजस्थान की गहलोत सरकार तथा मध्यप्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी जातिगत जनगणना कराने की घोषणा के साथ राहुल गांधी इसे आगामी चुनाव में मुख्य मुद्दा बनाते हुए दिख रहे हैं। वैसे वर्ष 2011 में यूपीए सरकार ने भी लगभग इसी तरह की जातिगत गणना ‘‘सोशियो इकोनॉमिक एंड कॉस्ट सेंसस’’ (एसइसीसी 2011) (सामाजिक आर्थिक और जातिगत जनगणना) कराई थी। तथापि उसके आंकड़े आज तक प्रकाशित नहीं हो पाए हैं। जातिगत गणना के पीछे जो सबसे बड़ा तर्क दिया जा रहा है, वह है ‘‘शेर से बाड़ भली’’ कि जिसकी जितनी संख्या उसकी उतनी भागीदारी सुनिश्चित हो। अर्थात ‘‘आरक्षण’’ शब्दावली का उपयोग न किया जाकर भागीदारी शब्द का प्रयोग किया गया है, जो ‘‘आरक्षण का ही एक स्वरूप’’ है। लेकिन इस बाड़ से तो ‘‘यारी का घर और दूर हो जायेगा’’ क्योंकि यह मांग; आरक्षण की वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था से भी ज्यादा खतरनाक इसलिए है, की आरक्षण कानूनी संवैधानिक और तकनीकी रूप से एक अस्थायी प्रावधान है, जबकि भागीदारी की मांग एक स्थायी प्रावधान होगा और यह मांग सबका साथ, सबका विश्वास, सबका प्रयास और सबका विकास की अवधारणा व भावना के विपरीत है।

अन्य शेष जातियों (सामान्य वर्ग) की जनगणना भी आवश्यक! 

जातिगत जनगणना के साथ शेष बची अन्य जातियों (सामान्य वर्ग) की गणना करना इसलिए भी आवश्यक है कि जनता को यह जानकारी होनी चाहिए कि देश के वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, न्यायाधीश, प्रोफेसर, पत्रकार, उद्योगपति, व्यापारी, सीमांत कृषक, शासकीय, अर्ध शासकीय एवं अशासकीय सेवा में रत वर्ग कर्मचारी, खिलाडी, कलाकार, कथाकार, ज्योतिषज्ञ, ड्राइवर, कुशल-अकुशल मजदूर, दिहाड़ी मजदूर, आदि विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले व्यक्ति किन-किन जातियों में कितने-कितने हैं, तभी ‘‘दूध का दूध और पानी का पानी’’ हो पायेगा। 

‘‘जितनी संख्या उतनी भागीदारी’’! मात्र सतही!

अब आप कल्पना कीजिए! जिसकी जितनी जनसंख्या उसकी उतनी हिस्सेदारी/ भागीदारी का अर्थ क्या है? क्या इस धरातल पर वस्तुतः उसी रूप में उतारा जा सकता है? यदि तर्क के लिए यह मान भी जाए तो किस तरह की स्थिति उत्पन्न होगी, इसकी कल्पना क्या आपने की है? भागीदारी का मतलब क्या सिर्फ सत्ता प्राप्ति का साधन ‘‘राजनीति’’ के क्षेत्र तक ही सीमित रहेगा या जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जनसंख्या अनुसार भागीदारी होगी? क्या ‘‘यह जहां का मुर्दा वही जलेगा’’ वाली स्थिति होगी। अथवा ‘‘सत्ता प्राप्ति के बाद’’ ‘‘जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जनसंख्या अनुसार भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी’’? 

कल्पना कीजिए एक आंकड़ों (बिहार राज्य में) के अनुसार पिछड़े वर्गों में शामिल विभिन्न जातियों की कुल जनसंख्या (63 प्रतिशत) को एससी एवं एसटी की जनसंख्या के साथ मिलाने पर वह कुल जनसंख्या का लगभग 85 प्रतिशत (84.59 प्रतिशत) हो जाती है। अब क्या इस आधार पर क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी की टीम में 85 प्रतिशत खिलाड़ी इन वर्गो का होना आवश्यक हो जाएगा? फिल्मों में क्या स्थिति बनेगी? क्या ट्रेन के डिब्बांे, बसों में भी यात्रियों की भागीदारी इसी तरह से सुनिश्चित की जाएगी? क्या कारखाने खोलने से लेकर नौकरी देने तक में भी ऐसी ही व्यवस्था हो पाएगी? राहुल गांधी जब पिछड़े वर्गे के आईएएस में भागीदारी के संबंध में आंकड़े देते हुए यह कहते है कि 90 सचिवों में सिर्फ 3 पिछड़ा वर्ग के है, जो देश का मात्र 5 प्रतिशत बजट संभालते हैं, के आंकड़ों की चर्चा करते हैं। तब उनका मतलब जनसंख्या के अनुसार भागीदारी क्या सिर्फ आईएएस तक ही सीमित होने तक है? परन्तु वे स्वयं जनता को यह नहीं बतलाते है कि एआईसीसी (कांग्रेस) के केंद्रीय व राज्यों के कार्यकलापों में पिछड़ा वर्गो के कितने कर्मचारी कार्यरत है? न ही राहुल गांधी से उनका विपक्ष यह प्रश्न करने की जुर्रत करता है। क्या भागीदारी सिर्फ सत्ता पाने तक की ही सीमित रहेगी अथवा संवैधानिक दायित्व और सामाजिक उत्तरदायित्वों में भी उतनी ही होगी? इस तरह के सैकड़ों प्रश्न उत्पन्न होते हैं, जिनका जवाब राजनीति के चलते न तो मिल पाएगा और न ही कोई देना चाहेगा, बल्कि आपको ‘‘पिछड़ा विरोधी’’ घोषित कर दिया जाएगा। 

50 प्रतिशत महिला भागीदारी? जितनी संख्या उतनी भागीदारी में कोई चर्चा नहीं?

लगभग 50 प्रतिशत महिलाओं की जनसंख्या होने के बावजूद ‘‘जिनती संख्या उतनी हिस्सेदारी’’ की बात करने वाले नेतागणों ने इन 50 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी पिछड़े वर्गो से सुनिश्चित करने का कोई ‘‘कथन’’ अथवा ‘‘प्रतिबद्धता’’ नहीं दर्शायी है, जो उक्त प्रतिपादित सिद्धांत के एकदम विपरीत है। आश्चर्य की बात तो यह है कि आरक्षण और जनसंख्या अनुसार हिस्सेदारी की बात करने वाले समस्त राजनेता गण चाहे किसी भी पार्टी के क्यों न हों, ‘‘लंका में सब बावन गज के’’ वे सब समाज के जातिगत विभाजन और जातिवाद का मंच पर विरोध करते हैं, समरसता की बात करते हैं, सबका साथ सबका विकास की बातें करते हैं। इस तरह इनका दो-मुंहापन स्पष्ट रूप से जनता के सामने परिलक्षित है। परन्तु साथ ही दुर्भाग्य की बात यह भी है कि जनता नेताओं के इस दोहरेपन पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया देने में असमर्थ है। ‘‘वक्र चंद्रमहि ग्रसहु न राहू’’ फिर वह कोई भी व्यक्ति हो, चाहे आरक्षित वर्ग का हो अनारक्षित वर्ग का हो या पिछड़ा वर्ग का हो।

‘‘रेवड़ी’’ या ‘‘जरूरी न्यूनतम आवश्यकता’’

देश में इस समय ‘‘जनहित’’ लोकहित के नाम पर रेवड़ियां अथवा आर्थिक रूप से बेहद कमजोर वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ‘मुफ्त’ या ‘सब्सिडी’ के साथ जीवनदायी सुविधा देने, बांटने का कार्य केंद्र से लेकर लगभग हर राज्य की सरकारें कर रही हैं । एक लोकप्रिय और जनोन्मुखी सरकार के लिए कौन सी सुविधाएं रेवड़ियां है और कौन सी या जरूरत मंद आवश्यकताएं है, इनके बीच बहुत ही बारिक ‘‘लक्ष्मण रेखा’’ है। प्रधानमंत्री स्वयं कई बार कह चुके हैं, रेवड़ी बांटना संस्कृति (कल्चर), बंद करना होगा। परंतु कई बार केंद्रीय सरकार भी जनता की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करते-करते लक्ष्मण रेखा को पार कर ‘‘रेवड़ी’’ बांटने में लग जाती हैं इसलिए ‘रेवड़ी’ संस्कृति पर रोक कानूनी प्रक्रिया द्वारा ही लगाई जा सकती हैं। क्योंकि ‘‘जब ‘‘देने’’ वाला ‘‘राजी’’ और ‘‘लेने’’ वाला राजी तो क्या करेगा काजी’’। ‘‘घूस देना-लेना’’ देश में एक अपराध है। फिर रेवड़ियां भी तो एक ‘घूस’ ही है। तब भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में संशोधन कर रेवड़ियों को ‘‘घूस की परिभाषा’’ में लाकर क्यों नहीं रोक लगाने का प्रयास समस्त राजनीतिक पार्टियों करती हंै? जहां समस्त राजनीतिक पार्टियां सिद्धांत रूप से इस बात पर सहमत है कि रेवड़ियां नहीं बटनी चाहिए और इस पर रोक होनी चाहिए।

मुफ्तखोरी! व्यक्तित्व के विकास में अवरोध।

यदि व्यक्ति को बिना प्रयास के जीवन उपयोगी सभी न्यूनतम आवश्यक साधन सरकार द्वारा उपलब्ध करा दिये जायेगें तो फिर व्यक्ति व व्यक्तित्व का निर्माण व विकास कैसे हो पायेगा? क्या ऐसा व्यक्ति अकर्मण्य नहीं हो जाएगा? और इस कारण से प्रतिभाओं के विकसित होने का अवसर नहीं मिल पायेगा। इन बातों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।

गुरुवार, 28 सितंबर 2023

मध्यप्रदेश की ‘‘राजनैतिक पिच’’ पर भाजपा का दुक्का, तिक्का, छक्का नहीं सत्ते!(सात)

‘‘सत्ता के लिए सात’’

लेख का सार 

अंत में हिंदुत्व की सबसे बड़ी चेहरा रही फायर ब्रांड साध्वी नेत्री पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमाश्री भारती जिन्होंने वर्ष 2003 में दिग्विजय सिंह की ‘‘बंटाधार सरकार’’ को सफलतापूर्वक हटा कर भाजपा के जीत के10 साल के सूखे को  समाप्त किया था, को चुनावी मैदान में न उतार कर भाजपा ने कहीं एक बड़ी गलती तो नहीं कर दी है? महिला आरक्षण व महिला सशक्तिकरण पर जोर-शोर से कार्य करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीति के बावजूद उनके पुरानी मंत्रिमंडल सहयोगी को चुनाव दंगल में न उतारना भी भाजपा के आश्चर्यचकित करने वाला निर्णयों की श्रृंखला का ही भाग हो सकता है। क्या भाजपा नेतृत्व आगे इस गलती को  सुधारेगा? यह देखना बड़ा दिलचस्प होगा। क्योंकि एक छोटी सी गलती भी पूरी कार्य योजना को असफल कर सकती है। फिर यह तो एक बड़ी गलती है।

सत्ता के लिए सात! गुगली या आत्मघाती गोल? 

चुनाव नजदीक आते-आते मध्यप्रदेश की राजनीति में दिन प्रतिदिन नये-नये नाटकीय और अचंभित करने वाली घटनाएं मोड़ लेते जा रही हैं। मध्यप्रदेश में भाजपा व कांग्रेस के बीच चुनावी मैदान पूर्णतः क्रिकेट के उस मैदान में परिवर्तित हो चुका है, जहां दोनों पार्टियों द्वारा ‘‘बैटिंग और बॉलिंग’’ के द्वारा परस्पर एक दूसरे पर हावी होने का प्रयास किया जा रहा है। क्रिकेट में टीम जब कभी संकट में होती है, समय कम होता है, तब ‘‘लक्ष्य’’ की प्राप्ति के लिए चौके, छक्के मारना बल्लेबाजों की ‘‘मजबूरी’’ हो जाती है। यदि बल्ला चल जाता है, तो वह मैच जीत जाता है। विपरीत इसके चौके, छक्के मारने में यदि खिलाड़ी आउट हो जाते हैं, तो टीम हार जाती है। मध्यप्रदेश में दोनों पार्टियों की स्थिति कुछ इसी तरह की है कि "क्या पता ऊंट किस करवट बैठता है"। फिलहाल भाजपा ‘‘बैटिंग पिच’’ पर है और सत्ता विरोधी कारक की बॉलिंग जिसमें ‘‘समस्त तीर गुगली’’ सहित शामिल है, से निपटने के लिए भाजपा के चौके (जन आशीर्वाद यात्राएं) तथा छक्के (प्रधानमंत्री मोदी की प्रदेश के लगातार दौरे) के बावजूद भाजपा को जीत के लिए सत्ता (सात) लगाना पड़ गया है। यह भाजपा के लिये "कड़वी गोली" के समान है, कहा भी है कि "कड़वी भेषज बिन पिये, मिटे न तन का ताप"। भाजपा की परिस्थितिवश यह मजबूरी भी होकर विपक्ष से लेकर मीडिया तक ने भाजपा की इस मजबूरी को उसकी ‘‘कमजोर पहचान’’ तक बता दिया है, जिससे सफलतापूर्वक निपटना भाजपा के लिए एक चुनौती है। जबकि भाजपा के बाबत यह बात प्रसिद्ध होकर सिद्ध है कि वह हमेशा बैहिचक चुनौतियां को गंभीरतापूर्वक स्वीकार कर सफलता को प्राप्त करती है। कांग्रेस की स्थिति इसके ‘‘उलट’’ होती है। 

 "पार्टी" को नहीं "चेहरे"  को बदलने का विकल्प! 

शिवराज सिंह की विभिन्न लोक लुभावनी योजनाओं की चुनावी वर्ष में लगातार घोषणाएं होने के बावजूद व्यक्तिगत शिवराज सिंह के चेहरे की सत्ता विरोधी कारक (एंटी इनकंबेंसी) रिपोर्ट आने से हाईकमान को स्थिति में "चक्की में से साबुत निकल आने लायक़" अपेक्षित सुधार नजर नहीं आ रहा है। वैसे इसे ‘‘सत्ता विरोधी लहर’’ की बजाए शिवराज सिंह का ‘‘थका हुआ चेहरा’’ (थकान, फटीग) कहना ज्यादा उचित होगा। वहीं जनता भी उक्त चेहरे को लगातार देख कर थक सी चुकी है। अतः जनता चेहरे का बदलाव चाहती है, पार्टी का नहीं। जिस प्रकार क्रिकेट में टीम पर देश की इज्जत लगी होती है, इसी प्रकार देश में मोदी के वर्ष 2024 के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के अवसर को सुगमित व सुनिश्चित करने के लिए इस ‘‘सेमीफायनल’’ को जीतने का भार मध्यप्रदेश भाजपा जो भाजपा की प्रयोगशाला (मॉडल स्टेट) रही है, के मजबूत कंधों पर है। इसी कड़ी में एक-एक सीट का महत्व समझते हुए लोकसभा के सात सांसदों जिसमें से चार महत्वपूर्ण कद्दावर नेता, तीन केन्द्रीय मंत्री और एक राष्ट्रीय महासचिव को विधानसभा चुनाव में उतार कर हाईकमान ने छक्का नहीं ‘‘सत्ता (सात)’’ मारा है। ‘‘सत्ता के खेल’’ में ‘‘छक्के की बजाए सात’’ मारना पार्टी की नई ईजाद होकर मजबूरी (शायद) सी बन गई है। यह नया प्रयोग तो मानो पार्टी को "कंकर बीनते हीरा हाथ लगा है",जो पार्टी को सफलता के निकट पहुंचा देगा, ऐसी उम्मीद पार्टी कर रही है और करनी भी चाहिए। क्योंकि पहली बार भाजपा ने क्षेत्रवार क्षत्रप नेताओं को उभारने का गंभीर प्रयास कर जीत के हवन कुंड में उनकी आहुति से हवन की ज्वाला को जलाये रखने का प्रयास किया गया है।

क्षत्रपों को पहली बार महत्व 

ग्वालियर व चंबल क्षेत्र से नरेन्द्र सिंह तोमर, महाकौशल में प्रहलाद सिंह पटेल, मालवा क्षेत्र से कैलाश विजयवर्गीय, और ‘‘आदिवासी वोट बैंक’’ को साधने के लिए फग्गन सिंह कुलस्ते, इन चारों क्षत्रपों को हाईकमान ने बिना कहे यह संदेश देने का प्रयास किया है कि आप न केवल स्वयं की सीट जीते, बल्कि अपने-अपने प्रभाव के क्षेत्रों में अधिकतम सीटें जिताकर लाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी के दावेदारों में स्वयं को शामिल कर ले। कांग्रेस में क्षत्रपों की यह राजनीति पुरानी है। कांग्रेस में नेतृत्व चाहे किसी का भी हो, विभिन्न क्षत्रपों को उनके प्रभाव क्षेत्र में टिकट देने की अलिखित परिपाटी, चली आ रही है। परन्तु भाजपा में टिकट का वैसा अधिकार क्षत्रपों को नहीं दिया गया है। हां पहली बार, मुख्यमंत्री का दावा करने का अप्रत्यक्ष अधिकार ज्यादा सीटें जीत कर लाने पर देने का संकेत अवश्य दिया गया है। वैसे यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि कांग्रेस द्वारा हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में (राष्ट्रीय अध्यक्ष के वहां से होने के बावजूद) स्थानीय क्षत्रपों को महत्व (विपरीत इसके भाजपा ने उतना महत्व येदुरप्पा को नहीं दिया) और चुनाव लडा़ने की सफल नीति को भाजपा ने मध्य प्रदेश में उतारने का निर्णय लिया और शायद यह निर्णय राजस्थान में भी दोहराया जाए। 

 शिवराज सिंह रिटायर हर्ट 

देश के किसी राज्य व प्रमुख राजनैतिक पार्टियों के इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ है, जब तीन केंद्रीय मंत्री और विश्व की सबसे बडी पार्टी के केंद्रीय महामंत्री को एक साथ चुनावी दंगल में उतारा गया है। इससे इस बात का आकलन किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की जोडी मध्य प्रदेश को जीतने के बारे में कितनी चिंतित, सतर्क और सक्रिय रूप से निरंतर लगी है। "कछुए का काटा कठौती से डरने लगता है"। इन प्रभावशाली मुख्यमंत्री के दावेदारो, परिणाम देने वाले सिद्ध क्षत्रपों को चुनाव में उतार कर, साथ ही इनकी टिकट की घोषणा के कुछ समय पूर्व संपन्न हुई ‘‘महारैली’’ में प्रधानमंत्री द्वारा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का एक बार भी नाम न लेना, जबकि अन्य दिवंगत नेताओं के नामों का उल्लेख करना, महिला सशक्तिकरण की बात करते हुए भी  शिवराज सिंह की महिलाओं के सशक्तिकरण करने की विभिन्न योजनाएं खासकर ‘‘लाडली बहना योजना’’ का उल्लेख न करना इन सब बातों का स्पष्ट संकेत यह है कि शिवराज सिंह की ‘‘पारी’’ रिटायर्ड हर्ट हुए बिना उन्हें रिटायर कर दिया जाएगा। वैसे हाईकमान ने एक अन्य प्रमुख ग्वालियर चंबल क्षेत्र के ‘‘आयातित’’ क्षत्रप केंद्रीय मंत्री महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया को चारों क्षत्रपों के साथ विधानसभा चुनाव में न उतारकर तीन तरह के संदेश दिए हैं।

 ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनावी मैदान में न उतारने के मायने? 

प्रथमः एक क्षेत्र में एक ही क्षत्रप का नेतृत्व होगा। अर्थात ग्वालियर चंबल संभाग में नरेंद्र सिंह तोमर अकेले (सिंधिया के साथ नहीं) नेता बने रहेंगे। दूसरा संदेश कम, सोच ज्यादा यह रही है कि सिंधिया को चुनावी पिच पर उतारने पर अंतर्कलह व नेतृत्व के मुद्दे पर खींचतान बढ़ जाने से फायदा कम नुकसान ज्यादा होगा। तीसरा महत्वपूर्ण संदेश यह भी हो सकता है कि महाराजा को पार्टी (जनसंघ-संघ-भाजपा) की नियमावली अनुसार उन्हें उनकी उस सीमा के भीतर ही रखा जावे, ताकि वह भविष्य के एक व्यावहारिक भाजपाई रंग में पूर्णतः ढलकर पार्टी के लिए उपयोगी नेता बन सके। ठीक भी है, "कोतवाल को कोतवाली ही सिखाती है"। यद्यपि उनकी परवरिश तो राजमाता सिंधिया के कारण जनसंघ की ही रही है।

 गुजरात मॉडल की पुनरावृत्ति? 

तीन महीने पहले ही मै अपने लेख में लिख चुका हूं कि ‘‘गुजरात माडल’’ मध्य प्रदेश में दोहराया जायेगा। यद्यपि भाजपा हाईकमान चुनाव की घोषणा होने पर "तकल्लुफ में है तकलीफ सरासर" की उक्ति को ध्यान में रखते हुए स्वप्रेरणा व स्वविवेक से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह सहित कुछ प्रमुख मंत्रियों और वरिष्ठ विधायकों से यह घोषणा करवायेगें कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे, संगठन का काम करेंगे, तभी पार्टी को सफलता की उम्मीद हो सकती है। क्योंकि पार्टी अब जनता के समक्ष ‘‘नेता बदलने के लिए पार्टी बदलने की जरूरत नहीं है,’’ की नीति पर आगे बढकर जनता को दूसरे भाजपाई नेताओं का विकल्प देने का प्रयास कर रही है। पार्टी ने अपनी चाल चल दी है और शतरंज की बिछायत पर पार्टी द्वारा फेंके गये इन मोहरों में कौन ‘‘किंग’’ बनकर अंततः उभरेगा, निकलेगा, यह देखना दिलचस्प होगा। यह बात सही है कि पार्टी ने "ब्रह्मास्त्र 2023" हथियार निकालकर उपयोग कर लिया है। अब इस ब्रह्मास्त्र के उपयोग/प्रयोग की सफलता पर टिप्पणी तो समय ही कर सकेगा। जनता तो अब राजनीति के खेल के मैदान के चारों तरफ बैठकर वोट देने की बारी आने की प्रतिक्षा भर कर रही है। मन शायद बना चुकी है। 

 सुश्री उमा श्री भारती की उपेक्षा कहीं भारी न पड़ जाए? 

अंत में भाजपा की चार तोपों को चुनावी मैदान में उतारने की कार्य योजना में सिर्फ बुंदेलखंड या लोधी समाज तक सीमित नहीं, बल्कि संपूर्ण मध्यप्रदेश की हिंदुत्व की सबसे बड़ी चेहरा रही फायर ब्रांड साध्वी नेत्री पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमाश्री भारती जिन्होंने वर्ष 2003 में दिग्विजय सिंह की ‘‘बंटाधार सरकार’’ को सफलतापूर्वक हटा हटाकर जीत के 10 साल के सूखे को समाप्त किया था, को चुनावी मैदान में न उतार कर पार्टी ने कहीं एक बड़ी गलती तो नहीं कर दी है? महिला आरक्षण व महिला सशक्तिकरण पर जोर-शोर से कार्य करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीति के बावजूद उनके पुरानी मंत्रिमंडल सहयोगी को चुनाव दंगल में न उतारना भी भाजपा के आश्चर्यचकित करने वाला निर्णयों की श्रृंखला का ही भाग हो सकता है। भाजपा नेतृत्व आगे इस गलती को क्या सुधारेगा? यह देखना बड़ा दिलचस्प होगा। क्योंकि एक छोटी सी गलती भी पूरी कार्य योजना को असफल कर सकती है। फिर यह तो एक बड़ी गलती है।

रविवार, 17 सितंबर 2023

कांग्रेस क्या ‘‘आत्मघाती गोल’’ मारने की ‘‘विशेषज्ञ’’ होती जा रही है?

14 पत्रकारों के साथ असहयोग/बहिष्कार 

‘‘असावधानी’’ बरतने पर क्रिकेट में ‘‘हिट विकेट’’ और फुटबॉल, हॉकी के खेल में ‘‘गलत पास’’ दे देने से ‘‘आत्मघाती गोल’’ कभी कभार हो ही जाते हैं। परन्तु कांग्रेस की ‘‘राजनीतिक पिच’’ पर पिछले कुछ समय से ऐसा लग रहा है कि ‘‘आत्मघाती गोल’’ मारने का अभ्यास कर कांग्रेस पार्टी उसकी विशेषज्ञ होकर शायद भाजपा की ‘‘चिंता व भार’’ को ‘‘हल्का’’ करने का प्रयास कर रही है? ‘‘औरों को नसीहत और खुद मियां फजीहत’’ उक्ति की प्रतीक कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता सांसद रणदीप सिंह सुरजेवाला का बयान भाजपा का जो समर्थन करता है या जो भी उन्हें वोट देता है, वह, ‘‘राक्षस प्रवृत्ति’’ का हैं। विदेशी धरती पर देश की आर्थिक, राजनीतिक और विदेश नीति पर तथ्य परक न होकर तथ्यों से दूर राहुल गांधी के कथन, टिप्पणियां चाहे-अनचाहे अथवा जाने-अनजाने में कहीं न कहीं देश के सम्मान को विश्व पटल पर कमजोर करती हुई दिखती है। भगवान राम के जन्म, जन्म स्थल और अपमान, रामसेतु, सर्जिकल स्ट्राइक पर प्रश्न, अनुच्छेद 370 हटाए जाने को मुस्लिम बहुल होने के कारण हिंदू-मुस्लिम कार्ड तथा कश्मीर को ‘‘फिलिस्तीन’’ ठहराए जाने का बयान, समान नागरिक संहिता,  चाय वाला, नीच इंसान, मौत का सौदागर, मोदी तेरी कब्र खुदेगी, आदि से लेकर नवीन एक राष्ट्र-एक चुनाव, सफल ऐतिहासिक जी-20 के आयोजन पर भी आलोचनात्मक टिप्पणी, सनातन पर और ‘‘इंडिया गठबंधन’’ के एक महत्वपूर्ण घटक डीएमके के नेता मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के पुत्र उदय निधि स्टालिन के बयान का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन करने (कांग्रेस द्वारा उक्त बयान की आलोचना नहीं की गई) जैसे कि ‘‘एक कील ठोंके दूसरा उस पर टोपी टांगे’’ जैसे उदाहरण कांग्रेस के आत्मघाती गोल नहीं है, तो क्या आम जनों को उद्वेलित कर उनके (कांग्रेस के) पक्ष में करने वाले बयान है? नवीनतम उदाहरण तथाकथित ‘‘गोदी मीडिया’’ हालांकि इस ‘‘शब्द’’ का उपयोग नहीं किया गया है, लेकिन अंदाजे बयान तो वही है, चैदह पत्रकारों व चैनल के बहिष्कार का इंडिया गठबंधन जिसमें कांग्रेस प्रमुख भागीदार है, का निर्णय ‘‘जैसी रातों के ऐसे ही सबेरे होते हैं’’ भी इन्हीं आत्मघाती गोलो की कड़ी की एक और कड़ी है। सनातन पर जारी संग्राम अभी ठंडा भी नहीं हुआ है कि उक्त नये मुद्दे को इंडिया गठबंधन ने देवर ‘‘एंचन छोड़ घसीटन में पड़ कर’’ एनडीए को आलोचना करने का पुनः एक मौका अवश्य दे दिया है।

प्रेस की निष्पक्षता व स्वतंत्रता पर कहीं प्रहार तो नहीं?
मजबूत परिपक्व लोकतंत्र जिसका चैथा स्तम्भ ‘‘प्रेस’’ है, ऐसा समस्त पक्षों द्वारा कहा ही नहीं गया है, बल्कि माना भी जाता है। परंतु उलट इसके कांग्रेस द्वारा मीडिया के एंकरों पत्रकारों पर उक्त प्रतिबंध, बहिष्कार या अभी कांग्रेस जिसे असहयोग कह रही है, से प्रेस की स्वतंत्रता व निष्पक्षता पर खतरा है, जिस पर दोनों पक्ष समय-समय पर अपनी चिंता व्यक्त करते रहे हैं। एक पक्ष प्रेस की स्वतंत्रता पर खतरे के कारण बहिष्कार कर रहा है, तो दूसरा पक्ष उक्त प्रतिबंध लगाए जाने को प्रेस की स्वतंत्रता व निष्पक्षता पर खतरा बता रहा है। इस प्रकार प्रेस के स्वास्थ्य को लेकर दोनों पक्ष की चिंता के बावजूद क्या प्रेस स्वयं भी स्वयं की स्वतंत्रता के बाबत चिंतित भी है, बड़ा प्रश्न यह है? यदि प्रेस वास्तव में धरातल पर ‘‘निष्पक्ष’ व शाब्दिक नहीं वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र होती तो, किसी भी पक्ष को उसकी स्वतंत्रता, निष्पक्षता बनाए रखने पर चिंता करने की जरूरत ही नहीं होती। कहते हैं न कि ‘‘औघट चले न चैपट गिरे’’ इसलिए मुद्दा यह नहीं है कि इंडिया गठबंधन के उक्त निर्णय से देश की प्रेस की स्वतंत्रता अच्छुण रह सकती है या खतरे में पड़ सकती है। प्रश्न यह है कि क्या यह कदम संविधान में विचारों के व्यक्त करने के संवैधानिक अधिकार जिस पर ही प्रेस की स्वतंत्रता टिकी हुई है, को देखते हुए क्या उक्त असहयोग का निर्णय उचित है? अथवा ‘‘ओछी नार के समान उधार गिनाने से’’ से बचा जा सकता था? अथवा बैगर किसी शोर-शराबे से इस तरह के निर्णय को व्यवहार में लागू किया जा सकता था, प्रश्न यह हैं? वैसे कांग्रेस के प्रवक्ता पवन खेड़ा ने बहिष्कार की जगह गांधी जी के ऐतिहासिक ‘‘असहयोग आंदोलन’’ के असहयोग शब्द का प्रयोग कर असहयोग आंदोलन पर एक मालिन ही पोता है।
‘‘बहिष्कार’’ मतलब अपनी बात को जनता के सामने रखने का एक ‘‘अवसर खोना’’ है।
इसमें कोई शक नहीं है देश में अधिकांश मीडिया लगभग 90 प्रतिशत अंबानी, अडानी और भाजपा समर्थकों (जैसे कि डॉ. सुभाष चन्द्रा का ‘‘जी न्यूज’’) का मालिकाना हक है। इस कारण से उन मीडिया हाउसेस में काम करने वाले निष्पक्षता व स्वतंत्रता से काम नहीं करते है बल्कि चाह कर भी नहीं कर पाते है और अपनी ‘‘पत्रकारिता धर्म’’ नहीं निभा पाते हैं, जो उनकी पहचान के लिए आवश्यक है। इसलिए ऐसे मीडिया हाउसेस की डिबेटों में या उनको साक्षात्कार देने पर कहीं न कहीं विपक्ष के लोगों को असुविधा या असहज स्थिति हो जाती है। परन्तु बड़ा प्रश्न यह है कि घेरे में लिए गए उक्त मीडिया के प्रश्न ‘‘निष्पक्ष’’ न होकर ‘‘गाइडेड’’ प्रश्न होते है, जिसे कानून की भाषा में ‘‘लीडिंग प्रश्न’’ भी कह सकते है। परन्तु उत्तर तो आपके (विपक्ष के) ‘जबान’ बुद्धि, क्षमता पर निर्भर करता है। यद्यपि एंकरों गाइडेड उत्तरों को आपकी जुबान पर ठूंसने का प्रयास अवश्य करते है, परन्तु यहीं तो आपके व्यक्तित्व की परीक्षा होती है। इसलिए आपको तो इस बात की खुशी होना चाहिए, किन्ही मुद्दे बिन्दु पर हो रही बहस में आपको बुलाये बिना वे आपके खिलाफ अपने मीडिया पटल पर किसी अवधारणा को प्रसारित नहीं करते हैं। विपरीत इसके निश्चित की गई अवधारणा में आपको बुलाकर एक अवसर उसी प्रकार प्रदान अवश्य करते है, जिस प्रकार कानून का यह मूल सिद्धांत होता है कि कोई भी अपराधी या डिफॉल्टर को सुनवाई का अवसर दिये बिना उसे सजा नहीं दी जा सकती। इसलिए इंडिया गठबंधन को दिए जाने वाले अवसरों को चूकने के बजाय भुनाने का करतब दिखाने का प्रयास करना चाहिए। अन्यथा विपक्ष का हाल ‘‘औसर चुकी डोमनी गावे ताल बेताल’’, जैसा हो सकता है। इसलिए इंडिया गठबंधन को पत्रकारिता के हित में नहीं स्वयं के हित में इस निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए और जहां जिस भी चैनल में नहीं बुलाया जाता है, वहां भी उनको बुलाये जाने का प्रयास किया जाना चाहिए ताकि वह अपनी बात वजनदारी से जनता व श्रोता के सामने रख सके। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। वर्ष 2014 में एनडीटीवी का भाजपा प्रवक्ताओं द्वारा बहिष्कार किया गया था। बीच-बीच में भी कई व्यक्तियों द्वारा घोषित/अघोषित रूप से बायकाट किया जाता रहा है। परंतु लोकतंत्र को स्वस्थ बनाए रखने जिसका महत्वपूर्ण खंभा मीडिया है, को भी स्वस्थ बनाये रखने के लिए तीनों पक्ष, पक्ष-विपक्ष तथा स्वयं मीडिया इस पर गहराई से आत्मचिंतन करे, मनन करे, आरोप-प्रत्यारोप अथवा ‘‘टूल’’ बनने की बजाए जिस उद्देश्य के लिए मीडिया की अवधारणा की गई है, की पूर्ति में समस्त लोग अपनी ‘‘आहुति दे’’। देश के स्वस्थ लोकतंत्र को मजबूत बनाए रखने के इन्ही आशाओं के साथ

सोमवार, 11 सितंबर 2023

देश के "संसदीय इतिहास" में ‘‘विशेष सत्र’’ का आव्हान ‘‘विशेष तरीके’’ से।

 बिना एजेंडा के ‘‘सत्र’’ क्या ‘‘नये तरीका का एजेंडा’’ फिक्स करने का प्रयास तो नहीं है?

विशेष सत्र की संवैधानिक स्थिति। 

मुंबई में ‘‘इंडिया’’ गठबंधन की बैठक के ठीक पहले संसदीय कार्यमंत्री प्रहलाद जोशी ने पत्रकार वार्ता के माध्यम से देश के सामने आकर नहीं, बल्कि सर्वप्रथम पहले एक ट्वीट (सोशल मीडिया) के माध्यम से 18 से 22 सितंबर के बीच पांच दिवसीय ‘‘संसद का विशेष सत्र’’ बुलाने की जानकारी देश को दी। यह 17 वीं लोकसभा का 13 वां और राज्यसभा का 261 वां सत्र होगा। देश की संसदीय परम्परानुसार नियम नहीं संसद की तीन सामान्य बैठक मानसून, शीतकालीन व बजट सत्र के अतिरिक्त यदि कोई सत्र बुलाया जाता है, तो वह ‘‘विशेष सत्र’’ कहलाता है। तथापि यह नियम या कानून में परिभाषित नहीं है। यह सरकार का विशेषाधिकार है कि वह विशेष सत्र "कब, कैसे और कारण-अकारण" बुलाए। अनुच्छेद 85 के अनुसार संसद की वर्ष में कम से कम दो बैठके होनी चाहिए, तथा दो सत्रों के बीच छः महीने से अधिक का अंतर नही होना चाहिए। न्यूनतम 10 प्रतिशत से अधिक सांसदों की मांग पर भी विशेष सत्र बुलाया जा सकता है। यही संवैधानिक, वैधानिक स्थिति है।

अभी तक देश में कुल सात बार:- जून 2017 (आधी रात को जीएसटी के लिए), नवम्बर 2015 (125वीं आंबेडकर जयंती), अगस्त 1997 (स्वतंत्रता के 50 साल पूरे होने पर मध्य रात्रि में) अगस्त 1992 (भारत छोड़ो आंदोलन के 50 वर्ष पूरे होने पर) अगस्त 1972 (आजादी के 25 वर्ष) एवं 1962 (अटलजी के अनुरोध पर चीन युद्ध को लेकर) 14-15 अगस्त1947 को रात्रि को देश की आजादी के औपचारिक ऐलान के लिए पहला विशेष सत्र बुलाये जा चुके हैं। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति शासन लागू करने व विस्तार करने के लिए भी विशेष सत्र बुलाये गये हैं। परंतु "प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं" को चरित्र करती हुई वर्तमान में सीजीपीए (संसदीय कार्यों के लिए कैबिनेट मंत्रियों की कमेटी) द्वारा विपक्षी दलों को विश्वास में लिए बिना (हालांकि ऐसा न तो कोई नियम है और न ही परंपरा) केंद्रीय सरकार ने उक्त निर्णय लेकर विपक्ष को ‘‘अनावश्यक रूप’’ से आलोचना करने का एक अवसर अवश्य दे दिया है। 

‘‘विशेष सत्र’’ फिलहाल बिना ‘‘विषय’’ के। 

प्रश्न यही नहीं रुकता है, बल्कि ‘‘विशेष सत्र’’ बुलाए जाने की सूचना के तुरंत बाद ‘‘सूत्रों’’ के हवाले से समस्त मीडिया में यह समाचार ब्रेकिंग न्यूज के रूप में चलने लग जाता हैं कि इस विशिष्ट सत्र में ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ लागू करने के लिए कानून में संशोधन करने के लिए एक विधेयक लाया जाएगा। सूत्र यही नहीं रूकते हैं, बल्कि आगे यह भी कहते हैं कि ‘‘सत्र’’ में 10 से ज्यादा महत्वपूर्ण बिल पेश किये जा सकते है, जिसमें जम्मू-कश्मीर में चुनाव, यूसीसी, नये दो आपराधिक कानून विधेयक, महिला आरक्षण बिल आदि शामिल हो सकते हैं। ‘‘सूत्रों’’ की उक्त ब्रेकिंग न्यूज को ‘‘सही’’ ठहराने के लिए ही अगले दिन पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय कमेटी बनाई जाने की घोषणा कर दी जाती है, जो ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ के संबंध में अपनी रिपोर्ट/सुझाव देगी।  तत्पश्चात अभी एक और ब्रेकिंग न्यूज़ चलने लग गई है कि उक्त विशेष सत्र में इंडिया का नाम भारत किए जाने का विधेयक लाया जाएगा। जबकि सरकार की ओर से यह कहा गया कि ‘‘अमृतकाल में सार्थक चर्चा’’ के लिए यह विशेष सत्र बुलाया गया है। इन सब से हटकर केन्द्रीय सरकार के प्रवक्ता केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने इन सब अटकलों का खंडन करते हुए स्पष्ट रूप से यह कहा कि आम चुनाव ‘‘समय से पहले या बाद में’’ कराने का सरकार का कोई ‘‘इरादा नहीं’’ है। शायद अरुण जेटली के ‘‘शाइनिंग इंडिया’’ के दुष्परिणाम को देखकर तो नहीं? कहीं ऐसा न हो की "कच्ची सरसों पेर की खली होय न तेल"।

समिति की ‘‘निष्पक्षता की गुणक्ता’’। 

देश के इतिहास में यह भी शायद पहली बार हुआ है, जब पूर्व राष्ट्रपति को किसी ‘‘कमेटी का अध्यक्ष’’ बनाया गया हो, जो ‘‘राजनैतिक सक्रियता’’ का एक भाग है। इसके साथ नहीं, बल्कि 24 घंटे के भीतर इस कमेटी में 7 सदस्य जोड़कर उनका गजट नोटिफिकेशन भी जारी कर दिया गया। पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में बनी समिति को एक ‘‘नोटंकी’’ बताने वाले कांग्रेस ने कमेटी में शामिल किये गये लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी ने समिति की "शुचिता", वैधता पर प्रश्नचिन्ह न लगाकर इस्तीफा नहीं दिया? बल्कि राज्यसभा में विपक्ष के नेता व कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को समिति में शामिल न करने के विरोध में दिया। अब स्पष्ट है कि कमेटी की वैधता, शुचिता, आवश्यकता, गुण व  बिना एजेंडा या कहें कोई गुप्त एजेंडा लिए अस्पष्ट कार्यकाल के साथ यह विशेष सत्र बुलाया गया है। यानी कि "प्रारब्ध बन गया है, शरीर रचना भर शेष है"।

वर्ष 2022 में भी चुनाव आयोग ने स्पष्ट रूप से कहा कि वह एक साथ चुनाव कराने के लिए तैयार है, परंतु इसके पहले संविधान में आवश्यक संशोधन करना होगा। केंद्र सरकार ने भी पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में गठित कमेटी के नोट में अपने कदम के समर्थन में वर्ष 1999 की जस्टिस पी जीवन रेड्डी के लॉ कमीशन की 170 वीं रिपोर्ट का उल्लेख किया है। अतः उक्त कारणों से इस मुद्दे पर सिद्धांत रूप से समस्त लोगों की सहमति होने के बावजूद यह ‘‘राजनीति’’ ही है, जो ‘‘श्रेय लेने-देने’’ की राजनीति के चक्कर में "विरोध के स्वर" उठाए जा रहे हैं।

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