आंदोलन
समाज के उठते द्वंद्व पर अंतर्मन में उठते विचार
शनिवार, 2 जुलाई 2022
अभूतपूर्व, ऐतिहासिक, साहसिक, एवं अचंभित करने व दूरगामी परिणाम देने वाला भाजपा का ‘‘दार्शनिक’’ निर्णय।
मंगलवार, 28 जून 2022
‘उच्चतम न्यायालय’’ कहीं स्वयं ‘‘भ्रम’’ का शिकार (‘‘एक परसेप्शन’’) तो नहीं हो गया है?
राजनीति में थोड़ी बहुत भी दिलचस्पी रखने वाले नागरिकों से लेकर राजनैतिक पंडितों,भविष्यवक्ताओं, विश्लेषक, विचारकों और मीडिया से लेकर राजनेताओं तक में महाराष्ट्र में चल रही राजनीतिक घटनाक्रम जो देश को उद्वेलित किए हुए हैं, को लेकर उच्चतम न्यायालय क्या अंतरिम आदेश पारित करेगा?, निर्देश देगा? इस पर परस्पर न काफी विरोधाभासी विचारों, मतों, आकलनों की चर्चा होती रही, बल्कि शंका व अनिर्णय के बादल भी ‘‘अंतरिम आदेश’’ के बावजूद राजनीतिक क्षेत्र में छाये रहें। ऐसी स्थिति में भ्रम को दूर, विवाद को निर्णित करने के लिए लोग न्यायालय की ओर दृष्टि जमाये रखते है व सहायता हेतु न्यायालय की शरण में जाते है। परंतु ऐसा लगता है कि उच्चतम न्यायालय भी स्वयं ‘‘भ्रम (कन्फ्यूजन) के बादल’’ के घेरे में आ गया प्रतीत होता है, ऐसी ‘‘कुछ-कुछ ध्वनि’’ कल पारित अंतरिम आदेश से निकलती लगती सी है। क्योंकि जो अनिश्चितता और भ्रम का वातावरण समस्त पक्षों, दर्शकों व पाठकों के बीच बना हुआ है, उस स्थिति में सिर्फ तुरंत सहायता एक पक्ष (विद्रोही गुट) को अवश्य इस बात की मिली है कि शाम को समाप्त होने वाली जीवनदायिनी रेखा की लाल बत्ती की समय सीमा बढ़कर 12 जुलाई तक की हो गई है। लेकिन उच्चतम न्यायालय स्वयं भ्रम के संकट में कैसे आ गया है? आगे इसे देखते हैं।
महाराष्ट्र में जो कुछ राजनीतिक घटनाक्रम घट रहा है, दल बदल हुआ है, वह देश में कोई पहली बार नहीं हुआ है और न ही सुप्रीम कोर्ट में इस तरह का मामला कोई पहली बार आया है। दल बदल होने पर ‘‘संख्या के दावे की सत्यता’’ के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने कर्नाटक के प्रसिद्ध एसआर बोम्मई मामले में अंतिम रूप से प्रतिपादित कर दिया है कि सरकार के बहुमत का फैसला विधानसभा के फ्लोर पर ही तय होगा, राज्यपाल निवास या अन्य कोई जगह नहीं। जिस निर्णय का अभी तक पालन किया जा रहा है। लेकिन महाराष्ट्र के राजनैतिक घटनाक्रम के लगभग सात दिन व्यतीत हो जाने के बावजूद गुवाहाटी से मुंबई विद्रोही गुट नहीं पंहुचा है। इस कारण अभी तक उक्त स्थिति (फ्लोर टेस्ट) पर पहुंची ही नहीं है, यह एक राजनैतिक विश्लेषक के लिसे आश्चर्य की स्थिति है। महाराष्ट्र में दो तिहाई बहुमत से ज्यादा अधिक विधायकों के दल बदलने के कारण जाहिर तौर पर सरकार के अल्पमत में आ जाने के बावजूद भी न तो विद्रोही गुट ने सरकार से इस्तीफे की मांग की है और न ही अविश्वास का प्रस्ताव स्पीकर या राज्यपाल के पास दिया है। इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात यह है कि प्रमुख विपक्षी दल भाजपा जो परदे के पीछे रहकर परसेप्शन का निर्माण कर रही है और जो इस दलबदल के कारण भविष्य में सत्तारूढ़ होने जा रहा है, ने भी अविश्वास प्रस्ताव का कोई नोटिस ही अभी तक नहीं दिया है।
उच्चतम न्यायालय के समक्ष दोनों पक्षों द्वारा बहस की जा रही थी, तब माननीय न्यायाधीश ने एक तरफ जहां यह कहा कि विधानसभा उपाध्यक्ष जिनको अविश्वास का नोटिस मिला वे खुद स्वयं के मामले में जज बन गए और नोटिस को खारिज कर दिया। ऐसी स्थिति में डिप्टी स्पीकर ऐसे बागी विधायकों पर अयोग्यता की कार्रवाई कर सकते हैं अथवा नहीं, यह एक बड़ा प्रश्न उत्पन्न होता है। बावजूद उक्त टिप्पणी के उच्चतम न्यायालय ने उपाध्यक्ष को अपने कर्तव्य निर्वाह का पालन करने से कार्य करने के लिए किसी प्रकार की रोक नहीं लगाई है। यथास्थिति बरकरार रखने की मंशा दिखाने के बावजूद, ‘‘अंतरिम उपाय’’ के रूप में सिर्फ विधायकों की अयोग्यता के नोटिस की अवधि 14 दिन बढ़ाई है। अर्थात बागी विधायक 12 तारीख तक अपना जवाब प्रस्तुत कर सकते हैं।
उच्चतम न्यायालय का कन्फ्यूजन (भ्रम) एक और जगह दिखता है, जब न्यायालय यह कहता हैं कि, अनुच्छेद 179 के तहत उपाध्यक्ष को हटाने का जब नोटिस हो तब, क्या डिप्टी स्पीकर के पास संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत ‘‘अयोग्यता की याचिका’’ पर सुनवाई का अधिकार है? यह पर्यवेक्षण (ऑब्जरवेशन) तथ्यात्मक रूप से कुछ गलत सा लगता है। क्योंकि डिप्टी स्पीकर के अविश्वास की जो सूचना मिली थी, वह उन्होंने अस्वीकार (रिजेक्ट) कर दी थी। इस प्रकार तथ्यात्मक रूप से अविश्वास का कोई नोटिस तत्समय उनके पास लंबित नहीं है। क्योंकि नोटिस को अस्वीकार करने के आदेश पारित होने के बाद नोटिस का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। हां यदि डिप्टी स्पीकर के अविश्वास के नोटिस अस्वीकार करने का आदेश गलत है, तो उसको न्यायालय में चुनौती दी जानी चाहिए थी, जैसा कि शिवसेना के वकील अभिषेक सिंघवी का कथन था। और उच्चतम न्यायालय को निरस्त करने के आदेश की वैधानिकता पर टिप्पणी करनी चाहिए थी। परन्तु चूंकि बागी गुट ने उक्त पारित अवैधानिक आदेश को चुनौती ही नहीं दी, बल्कि उपाध्यक्ष के नोटिस व शक्ति (अधिकार) को चुनौती दी है। शायद इसीलिए उच्चतम न्यायालय ने अविश्वास की सूचना को अस्वीकार करने आदेश की वैधता पर फिलहाल कोई भी विचार ही नहीं किया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उपाध्यक्ष को इस अविश्वास का सूचना पत्र मिला अथवा नहीं, और क्या उन्होंने उक्त सूचना पत्र मिलने की स्थिति में उसे अवैधानिक मानकर निरस्त कर दिया इस तथ्य पर उच्चतम न्यायालय स्वयं भ्रम की स्थिति है, शायद इसीलिए न्यायालय में उपाध्यक्ष को शपथ पत्र प्रस्तुत करने के निर्देश दिये है।
2020 के राजस्थान हाईकोर्ट के निर्णय को छोड़कर ‘‘किहोतो’’ मामले से लेकर अभी तक ऐसे मामलों में जहां स्पीकर विधायकों को अयोग्यता के संबंध में कार्रवाई प्रारंभ कर देते हैं, तब न्यायालय स्पीकर के कार्य क्षेत्र में दखल नहीं देती रही है, जैसा कि अनुच्छेद 212 में रोक (बार) भी है। आदेश पारित होने के बाद ही न्यायालय में आदेश को चुनौती दी जाती है। इस बात को न्यायालय के ध्यान में लाने पर माननीय न्यायाधीश का यह कथन रहा कि अध्यक्ष के अधिकार को उक्त मामले में चुनौती नहीं दी गई थी, जो अभी दी गई है।
तथाति उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा है डिप्टी स्पीकर ने रिकॉर्ड पर कहा है कि कभी भी उन्हें पद से हटाने का नोटिस नहीं दिया गया। जबकि उनके वकील राजीव धवन का यह कहना रहा कि उपाध्यक्ष के प्रति अविश्वास का जो नोटिस दिया गया था, वह विधायकों के अधिकृत ईमेल के जरिये नहीं आये थे। अतः वैधानिक न होने के कारण संज्ञान योग्य नहीं हंै। राज्यपाल का अभी-अभी उठाया गया यह कदम भी बहुत ही आश्चर्यजनक है कि सरकार के तथाकथित अल्पमत में आने के बाद आने के बाद 22, 23 एवं 24 जून 3 दिनों में राज्य सरकार ने जो प्रशासकीय आदेश जारी किए हैं, उनकी रिपोर्ट मांगी है। वास्तविकता व परसेप्शन में महाविकास आघाडी की सरकार के अल्पमत में आ जाने के बावजूद किसी भी पक्ष द्वारा सरकार के बहुमत को चुनौती न देने के कारण तकनीकि व संवैधानिक रूप से उद्धव सरकार की अभी भी बहुतमत की सरकार होने के कारण राज्यपाल का उक्त हस्तक्षेप अनधिकृत ज्यादा वैधानिक कम व राजनैतिक कदम है।
इस पूरे प्रकरण में एक बात में बड़ी समानता व सामंजस्य दिखता है कि प्रत्येक पक्ष परदे के पीछे या आवश्यकतानुसार सामने आकर अपना-अपना ‘परसेप्शन’ बनाना चाहते हैं। इससे इस बात को पुनः बड़ा बल मिलता है कि राजनीति में एक एक्शन (कार्यरूप) से कहीं अधिक परसेप्शन का महत्व है। भाजपा निश्चित रूप से सरकार बनाती हुई दिख रही है, परन्तु ऐसा होते हुए वह बिल्कुल भी नहीं दिखना चाहती है। असम के मुख्यमंत्री के प्रथम दिन की जब मैं विधायकों की उपस्थिति की जानकारी ना होने के बयान को इसी संदर्भ में देखिये। ‘न केवल होना चाहिए बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए’’ न्याय के इस सिद्धांत के इस परसेप्शन के विरुद्ध उपरोक्त परसेप्शन है। इससे यह समझा जा सकता है कम से कम उपरोक्त निर्मित स्थिति न्यायिक नहीं है। इस प्रकार शिवसेना ‘‘कहीं खुशी कई गम’’ के भाव से ‘‘कहीं गरम तो कहीं नरम’’ आवश्यकतानुसार दिखने का परसेप्शन बना रही है, जबकि वास्तव में यदि परिस्थिति उसे अनुमति दे देती तो वह अभी तक कड़क कार्रवाई कर देती। अभी भी सेना प्रमुख की हैसियत से उद्धव उन विद्रोही को वापस आने की बार-बार गुहार कर रहे है, तो पटल (काउंटर) में विद्रोही गुट अभी भी सेना प्रमुख उद्धव को अपना नेता मानने की बात कह रहे है। जबकि विद्रोही गुट भाजपा के साथ ‘सत्ता’ की भागीदारी सुनिश्चित कर चुकी है। परन्तु वह अभी भी उस शिवसेना का भाग दिखना चाहती है, जिसके नेता उद्धव ठाकरे है। उद्धव ठाकरे पर नवाब मलिक के दाउद से संबंध है, जिसे मंत्री बनाकर आरोप लगाकर वे बागी मंत्री अभी भी मंत्रिमंडल में बने रहकर संख्या की शोभा बनाये हुए है। उद्धव भी मंत्रियों से विभाग छीन कर परन्तु मंत्रिमंडल से मुक्त न कर सत्ता का आकर्षण बनाये हुये है। इस तरह के परसेप्शन का ‘‘खेला’’ का महागठजोड़ कभी आपने इसके पूर्व देखा है? जो होता है वह दिखता नहीं और जो दिखता है वह होता नहीं, आज की सफल राजनीति का यही मूल मंत्र है जो पारदर्शी सिंद्धान्त की राजनीति के विपरीत है। परन्तु ‘सिंद्धान्त’ की याद दिलाकर मैं भी ‘‘प्रबुद्ध बहुमत’’ से हटकर ‘‘मूर्ख’’ के साथ नहीं दिखना चाहता हूं।
शनिवार, 25 जून 2022
असम में ‘‘दोहरी’’ ‘‘बाढ़’’! का ‘तांडव’।
मंगलवार, 21 जून 2022
हिंसा का ’समर्थन न’ करने के बावजूद आंदोलन हिंसात्मक ?
'अग्नीपथ' के विरोध में "अग्निवीरों’’ द्वारा ‘अग्निपथ’ पर बिहार!
देश की सुरक्षा के लिए नौजवानों के लिए (14 जून) सेना में भर्ती हेतु नई प्रक्रिया ’अग्निपथ’ योजना (जो पूर्व में हर आफ ड्यूटी का ही रूप है) के अंतर्गत ’अग्निवीर’ बनाए जाने योजना की घोषणा होते ही अगले ही दिन ’बिहार’ जो देश के कई ’अहिंसावादी’ राष्ट्रीय आंदोलनों की जननी व अग्रणी रहा है, में ’हिंसावादी’ विरोध प्रदर्शन प्रारंभ होकर उपद्रव, तोड़फोड़, लूटमार आगजनी प्रारंभ हो गई, जो देश के कई भागों में धीरे-धीरे विस्तारित होती गई। कई राजनीतिक दलों एवं नेताओं द्वारा हिंसा का समर्थन न करते हुए आंदोलनकारियों की मांग का समर्थन करते हुए उनसे शांतिपूर्ण आंदोलन की अपील की गई। यह भी कहा गया हिंसा किसी समाधान का रास्ता नहीं है। सरकारी संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए। कानून हाथ में नहीं लिया जाना चाहिए। लेकिन ‘‘घर घाट एक करने के’’ बावजूद आंदोलन का हिंसात्मक रूप कमोबेश बरकरार है।
महत्वपूर्ण प्रश्न यह पैदा होता है कि आंदोलन को हिंसात्मक स्वरूप कौन दे रहा है? क्या स्वयं आंदोलनकारी हिंसात्मक रुख अपनाए हुए हैं? यह प्रश्न इसलिए उत्पन्न होता है कि यदि आंदोलन स्वस्फूर्त है, तब प्रायः इन आंदोलनकारी युवकों ने इस हिंसा का विरोध क्यों नहीं किया और न ही ऐसा कोई बयान उनकी तरफ से अभी तक आया हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि यह आंदोलन बिना कोई नेता के नेतृत्व विहीन है। सरकार को भी यह देखना आवश्यक होगा कि आंदोलन में सभी लोग क्या वे युवा (या उनके परिवार के लोग) हैं जो सेना में भर्ती होना चाहते हैं और जिनके हित अग्निपथ योजना से अहित हो रहे है, अथवा अन्य अवांछनीय तत्व भी हैं। तब विपक्ष पर राजनीति करने के सरकार के आरोप को ज्यादा बल मिल सकता है। यदि आंदोलन विपक्ष द्वारा योजनाबद्ध रूप से निर्मित, प्रेरित या उत्प्रेरित व पोषित है, जैसा कि आंदोलन प्रारंभ होने के बाद से ही सत्ता पक्ष, विपक्ष पर लगातार आरोप लगाते आ रहा है, यह कहकर कि देश के युवाओं को विपक्ष गुमराह कर रहा है। तब ऐसी स्थिति में विपक्ष अपनी हिंसा में अपनी असलिगंता को मजबूती देने के लिए स्पष्ट रूप से क्यों नहीं घोषणा करता है कि यदि आंदोलन का हिंसात्मक रूप जारी रहेगा तो विपक्ष युवकों के इस आंदोलन का समर्थन तब तक नहीं करेगा जब तक हिंसा जारी रहेगी। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार विपक्ष ताल ठोक कर यह कहता है कि वे हिंसा का समर्थन किसी भी स्थिति में नहीं करते हैं।
वैसे हिंसा के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराने वाली भाजपा व उनकी सरकारें इस तरह की स्थितियों से निपटने में सिद्धहस्त उनकी सरकारें (जैसे बुलडोजर मुख्यमंत्री योगी नाथ) हिंसाई उपद्रवियों पर बुलडोजर कार्रवाई करने के नाम पर ‘‘गिन गिन कर पैर’’ क्यों रख रही हैं, यह एक बड़ा प्रश्न है? उत्तर प्रदेश के कई भागों में ‘‘अग्निपथ योजना’’ के विरोध को लेकर हिंसात्मक आंदोलन हुए। परंतु बुलडोजर मुख्यमंत्री योगी ने अभी तक उस तरह की कोई जवाबी बुलडोजर कार्रवाई नहीं की और न ही मंशा दिखाई, जैसा कि उत्तर प्रदेश में कुछ समय पूर्व हुए दंगों के समय की गई थी। क्या दोनों घटनाओं की हिंसा में अंतर है? या अंतर बनाया जा रहा है? आखिर हिंसा ’हिंसा’ ही होती है। इस तरह की ’दोहरी नीति’ अपनाई जाने से ही ओवैसी जैसे विवादास्पद व्यक्तियों की ‘‘आंखों में सरसों फूलने लगती है’’, और अनचाहे ही उन्हें अपनी नेतागिरी चमकाने का अवसर व बल मिल जाता है।
स्वतंत्र भारत के पिछले 75 वर्षों में किसी भी आंदोलन के संबंध में सत्ता व विपक्ष की परस्पर भूमिका, भागीदारी व नीतिगत रोल में प्रायः कोई बदलाव नहीं आया है। हां सत्ता-विपक्ष में बैठे चेहरों का परस्पर बदलाव जरूर हुआ है, जैसे कि ‘‘एक तवे की रोटी, क्या पतली क्या मोटी’’। इसी कारण से आज भी वर्तमान आंदोलन के संदर्भ में सत्ता-विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर ’देश हित’ के नाम पर ’देश हित को एक तरफ (साइड)’ में कर ’राजनीति’ चमकाने के लिए चल रहा है। वैसे भी भाजपा ने विपक्ष खासकर कांग्रेस पर गंभीर आरोप लगाया है कि वह ’राष्ट्रनीति’ के बजाय ’राजनीति’ कर रही है। राष्ट्र नीति से राजनीति शब्द कब अलग हो गया, इसका पता देश की जनता को चल ही नहीं पाया। अब चंूकि राजनीति एक गाली सूचक शब्द हो गई है, बदनाम हो गई है और भाजपा उक्त आरोप लगाकर बदनाम ’राजनीति’ शब्द पर मोहर लगा रही है। तब आश्चर्य की बात यह है कि जिस राजनीति के मैदान में खेल कर, राजनीति कर, जीत कर, राजनेता बनकर उक्त बयान देने में सक्षम व प्राधिकृत हुए हैं, उसी का निरादर कर रहे हैं, यह तो वही बात हुई कि ‘‘बाप से बैर, और पूत से सगाई’’!! इस स्तर पर यह भी सोचने की गहन आवश्यकता है कि आखिर राजनीति नैतिक मूल्यों रहित होकर उसका स्तर इतना क्यों गिर गया कि आज सही स्वच्छ और ईमानदार आदमी न तो राजनीति में आना चाहता है और यदि आ भी जाए तो उसके सफल होने की संभावनाएं भी लगभग निरंक ही होती है। इसके लिए राजनीति में अंदर तक घुसे हुए, डूबे हुए राजनेता ही सिर्फ जिम्मेदार नहीं है, बल्कि जनता भी उतनी ही दोषी है जिनके सहारे ये नेतागण राजनीति कर पाते हैं।
सरकार, यहां तक कि सेना की तरफ से यह कहां जा रहा है कि नौजवान युवाओं को बहकाया, बरगलाया, भड़काया जा रहा है। ऐसी स्थिति में सबसे बड़ा प्रश्न यही उत्पन्न होता है, क्या ऐसे बहक जाने वाले युवकों को सेना में भर्ती किया जाना देश हित में होगा? इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया जाना चाहिए? बिना तथ्यों व जांच के मुद्दे का सामान्यीकरण कर इस तरह के कथनों से बचना चाहिए।
एक बात और! स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब भारत सरकार की सेना में भर्ती की अग्निपथ योजना के संदर्भ में युवाओं के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के चलते युवाओं को समझाने के लिए तीनों सेनाओं के वरिष्ठ अधिकारीगणों ने मीडिया के सामने आकर अग्निपथ योजना के विभिन्न गुणों और फायदों को देश के नौजवानों के सामने रख उन्हें समझाने का प्रयास किया। परंतु साथ ही आंदोलन को भी गलत ठहराया। जबकि उक्त कार्रवाई की जिम्मेदारी, योजना बनाने से लेकर पूरी तरह से कार्यान्वित करने तक का अधिकार क्षेत्र केंद्रीय शासन, रक्षा मंत्रालय व गृह मंत्रालय का है। भारत सरकार की उक्त सैनिक भर्ती नई नीति नीति ’अग्निपथ’ में किसी भी प्रकार की संशय या गलतफहमी को दूर करने के लिए रक्षा मंत्री, रक्षा सचिव या सेना के मीडिया प्रवक्ता (पीआरओ) अथवा अधिकतम जब तीनों सेनाओं के चीफ सीडीएस पद निर्मित किया गया है, तो सीडीएस ने स्पष्टीकरण देना चाहिए था। तथापि जनरल विपिन रावत की मृत्यु के बाद फिलहाल सीडीएस का पद रिक्त है। अतः पुरानी व्यवस्था अनुसार चीफ आफ स्टाफ कमेटी अर्थात आर्मी चीफ के द्वारा स्पष्टीकरण दिया जाना चाहिए था। परंतु धमकी भरे अंदाज में आंदोलित नवयुवको पर दबाव बनाने के लिए एयर मार्शल व वाइस एडमिरल सहित चार वरिष्ठ सैनिक अधिकारियों को सरकार ने कैमरे के सामने पत्रकार वार्ता में बैठाला और यदि उन्होंने स्वयं स्पूर्ति से पत्रकार वार्ता आयोजित की है तो यह एक बड़ा गंभीर मामला है जो उनका क्षेत्राधिकार या कर्तव्य नहीं है।
राष्ट्रनीति या आंदोलन का राजनीतिकरण हो रहा है, यह सिद्ध होना तो अभी शेष है, परंतु निश्चित रूप से उक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस से सेना के राजनीतिकरण का एक हल्का सा प्रारंभिक आभास अवश्य पैदा होता है। जिससे हर हालत में बचा जाना चाहिए था। क्योंकि उक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह भी कहा गया कि आंदोलन के पीछे असामाजिक तत्वों के साथ-साथ कुछ कोचिंग संस्थाओं का हाथ है। अग्निपथ योजना वापिस नहीं ली जाएगी। इस तरह के आरोप लगाने व अग्निपथ योजना को वापस लेने का नीतिगत निर्णय का पूर्ण अधिकार भारत सरकार उनके मंत्रियों और पार्टी के पदाधिकारियों को है। सेना को नहीं। अतः इस ’चूक’ की गंभीरता को समझना होगा, ताकि भविष्य में इस तरह की पुनरावृत्ति न हो पाए और किसी को भी सेना पर उंगली उठाने का इस तरह का अवसर न मिल सके।
एक बात और! आंदोलन समाप्त करने के लिए ’अग्निपथ योजना वापस लिए बिना’ दूसरे विकल्पों व उपायों पर सरकार क्यों नहीं विचार करना चाहती है? आंदोलन का मुख्य आक्रोश का कारण प्रमुख रूप से वे युवा लोग हैं, जो पिछले दो-तीन सालों से सेना में भर्ती के लिए तैयारी कर रहे हैं, ट्रेनिंग ले रहे हैं। कुछ लोगों ने परीक्षा पास कर ली है। तो कुछ ने प्रथम स्तर को पार कर लिया है, तो कुछ के मेडिकल फिटनेस भी हो चुके हैं। कुछ लोगों ने इंटरव्यू भी पास कर लिया है और पिछले साल भर से उनको सर्विस सिलेक्शन बोर्ड द्वारा अगली कार्रवाई के लिए पत्र पर पत्र तारीख बढ़ाने के दिए जा रहे हैं। यदि ऐसे लोगों की अंतिम भर्ती पूर्व नियम व घोषणा अनुसार पूरी कर ली जावे तो इसमें सेना का नुकसान क्या है? अधिकतम आप यह मान लीजिए की यह योजना 6 महीने बाद लागू की जा रही है। कई आंदोलनकारी युवाओं ने कहा है की पुरानी योजना के साथ नई योजना समानांतर या विकल्प रूप में चलती रहे तो इसमें नुकसान कहां है? और यदि वास्तव में यह योजना पुरानी योजना से ज्यादा अच्छी है, फायदेमंद है, और देश हित में है, तो सेना में भर्ती होने वाले नौजवान इसे ही अपनाएंगे, पुरानी योजना को नहीं। सरकार को अपनी नई योजना की विश्वसनीयता पर विश्वास होना चाहिये।
सरकार को इस समय कृषि कानून के समय अपनाई गई, किसी को ‘‘जूते के बराबर भी नहीं समझने’’ वाली अक्खड़ नीति से बचना चाहिए। यदि तत्समय केंद्रीय सरकार किसानों को न्यूनतम खरीदी मूल्य के कानूनी प्रावधान बनाने की गारंटी दे देती तो, आंदोलन खत्म हो जाता और तीनों कृषि कानून वापिस नहीं लेने पड़ते। भारत सरकार की किसी योजना, नीति या बनाए गए कानून के संबंध में प्रधानमंत्री ने अग्निपथ योजना का नाम लिये बिना सांकेतिक रूप से प्रथम बार यह स्वीकार किया है कि तात्कालिक रूप से कोई योजना अप्रिय लग सकती है, लेकिन समय के साथ उसका फायदा मिलता है। जब कोई सुधार लाया जाता है तो वर्तमान में कुछ फैसले अनुचित प्रतीत हो सकते हैं, लेकिन बाद में वे महत्वपूर्ण साबित होते है व राष्ट्र निर्माण में सहायक होते है। ऐसी स्वीकृति तीनों कृषि कानून, जीएसटी या नोटबंदी के समय नहीं की गई, बल्कि अभी की तरह यही कहा गया कि किसानों, व्यापारियों व आम जनता को ठीक तरह से कानून नहीं समझाया गया है, बल्कि बरगलाया गया है।
अंत में सरकार को पिछली घटनाओं से सबक लेकर खुले दिल दिमाग व मन से घटनाओं पर नज़र रखते हुये राज्यों की स्थिति पर विचार कर सहमति का रास्ता निकालने की आवश्यकता है।
गुरुवार, 9 जून 2022
क्या ‘‘न्यायिक प्रक्रिया’’ पर देश की ‘‘राजनीति’’ ‘‘राजनेताओं’’ और आध्यात्मिक धर्मगुरूओं का विश्वास कम होते जा रहा है?
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