शनिवार, 29 दिसंबर 2012

देश के ‘‘लोकतंत्र’’ में क्या ‘‘राजनीतिक तंत्र’’ ‘‘अप्रासंगिक’’ हो गया है?


राजीव खण्डेलवाल:
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                              हमारा देश भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है जहां लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए प्रतिनिधित्व प्रणाली के माध्यम से सरकार जनता के हितों के लिए और उनके जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए हितकारी सरकार के रूप में कार्य करने की कल्पना हमारे संविधान के निर्माताओं ने की थी। उक्त प्रणाली कमोबेस कई संशोधनों के बावजूद आज तक लागू है। स्वाधीनता के पूर्व और स्वाधीनता के पश्चात् देश में एक से बढ़कर एक कई आंदोलन हुए है जहां राजनैतिक नेतृत्व को ठेंगा दिखाया गया है। 1974 का छात्रों द्वारा गुजरात में प्रारंभ किया गया नवनिर्माण आंदोलन यद्यपि राजनैतिक तंत्र को एकतरफ सरका कर प्रारंभ किया गया था लेकिन बाद में वह लोकनारायण जय प्रकाश नारायण के हाथों में आकर देश के तत्कालीन लगभग सम्पूर्ण विपक्षी राजनैतिक पार्टियों (वाममोर्चा को छोड़कर) ने उक्त आंदोलन में बढ़ -चढ़कर हिस्सा लिया जिसकी परीणति उस समय जनता पार्टी के उदय के रूप में हुई। अर्थात आंदोलन राजनीति से अछूता नहीं रह पाया। अन्ना एवं बाबा रामदेव के आंदोलन भी राजनैतिक नेतृत्व से हटकर व्यक्तिगत नेतृत्व के आधार पर कमोबेस राजनैतिक इच्छा लिए हुए आंदोलन हुए जिसमें जनता की बड़ी भागीदारी हुई इससे भी एक नई राजनैतिक पार्टी आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ। इन सब आंदोलनों में जो एक समान बात यह थी कि गैर राजनैतिक होने के बावजूद प्रत्येक आंदोलन में किसी न किसी व्यक्ति या किसी समूह, संस्था द्वारा तत्कालीन मुद्दो पर जनता का आंदोलन के लिये आव्हान किया गया था जिसमंे जनता ने बड़ी संख्या में भागीदारी करके आंदोलनों को मजबूती प्रदान की थी। 
                              यदि उपरोक्त  दृष्टि से देश में चलती बस में हुए गैंग रेप के बाद अभी जो आंदोलन चल रहा है उसको देखा जाये तो निश्चित रूप में वह अपने आप में एक विशिष्टता लिए हुए एक अनूठा आंदोलन है। जहां जनता को किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह, संस्था या कोई राजनैतिक तंत्र ने आव्हानित नहीं किया है। बल्कि जनता के मन में उपरोक्त घृणित घटना का इतना ज्यादा प्रभाव पड़ा कि जनता खासकर युवावर्ग जिसपर ही सामान्यतः चारित्रिक आरोप लगाये जाते है स्वयं स्वस्फुर्ति से देश के अधिकांश भागों में घर से बाहर निकलकर अपनी वेदना व्यक्त करने बिना किसी बुलावे के सोशल मीडिया के माध्यम से जनता के सामने आये। यह तथ्य ही वर्तमान लोकतंत्र को पूर्नभाषित करने के लिये हमें विवश करता है। ‘गणतंत्र’ स्थापित करते समय यह कहा गया था कि यह गणतंत्र ‘‘जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा’’ है। हमारी लोकतंत्र का मूल आधार यही है और आधार भावना इस आंदोलन में झलकती है जहां सब कुछ जनता द्वारा किया जा रहा है। जिसने एक गहरा प्रश्न पैदा कर दिया है कि अभी तक जो लोकतंत्र राजनैतिक तंत्र (विभिन्न राजनैतिक पार्टियो) द्वारा चलाया जा रहा था क्या स्वस्फुर्ति जन आंदोलन उक्त लोकतंत्र के स्वास्थ के लिए हानिकारक तो नहीं है? क्या यह वर्तमान लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी तो नहीं है। इस आंदोलन के चलते वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व और इनको चलाने वाला पार्टी तंत्र कुछ सबक लेगा? ये सब यक्ष प्रश्न का जवाब भविष्य के गर्भ में है।
                              जिस तरह से पिछले एक सप्ताह से जनता आंदोलित और उद्वेलित हो रही है और सरकार उससे सहमीं हुई है। जिस कारण सरकार को कुछ न कुछ कार्यवाही करने लेने के लिए विवश होना पड़ रहा है। फिर वह चाहे पूर्ण कार्यवाही हो या अधूरी। इससे भी ज्यादा शायद यह पहली बार हुआ है कि इस तरह का यह आंदोलन भी पहली बार है और इस तरह के आंदोलन के कारण राष्ट्रपति को देश की जनता के नाम संदेश देना पड़ा यह भी पहली बार हुआ है। इससे सिद्ध होता है कि सरकार और उसका तंत्र उक्त आंदोलन को न तो कुचलने की स्थिति में है और न ही उसकी उपेक्षा करने की स्थिति में है जैसा कि वह पूर्व में अन्ना और स्वामीं रामदेव के आंदोलन के साथ कर चुकी है। इसलिए यदि आज जनता जाग्रत हुई है तो जनता को इस बात के लिए साधुवाद देना उन प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य हो जाता है जो कम से कम इस आंदोलन में प्रत्यक्ष रूप से इस आंदोलनकारी जनता के साथ भागीदार नहीं हुए है। यही उम्मीद की जा इस तरह सकती है कि जो जज्बा इस देश में पहली बार उत्पन्न हुआ है उसको सरकार थकाने की अनायास कोशिस न करे। उस पर तुरंत प्रभावकारी व निर्णयकारी कार्यवाही कर अध्यादेश के माध्यम से उनके (सरकार) द्वारा की जाने वाली कार्यवाही को जनता के मध्य प्रस्तुत करे ताकि उद्वेलित जनता को इस बात का संतोषपूर्ण विश्वास हो कि सरकार ने वास्तव में इस देश की जनता द्वारा यौन हिंसा के संबंध में उठाये गये विभिन्न मुद्दो पर गहनता से विचार कर उस पर तदानुसार आवश्यक कार्यवाही कर भविष्य में इस तरह की घटनाओं को रोकने में एक साहसपूर्ण सफलता पूर्वक कदम उठाया है ताकि जनता के धन्यवाद के पात्र भी उसकी चुनी हुई सरकार हो सके।

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

नेता ‘‘निर्लज बयानवीर’’ या ‘‘जनता बेशर्म’’?

राजीव खंडेलवाल:

देश की सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस के हरियाणा के नेता श्री धरमवीर गोयत का आया यह बयान कि ‘‘अधिकतर रेप आपसी सहमति से होते हैं’’ उनका मानना है कि‘‘ रेप के 90 फीसदी मामले आपसी सहमति से किए जाने वाले सेक्स के चलते सामने आते हैं, और यह कहने में मुझे कोई झिझक नहीं है। 90 फीसदी लड़कियां मर्जी से सेक्स करना चाहती हैं। वास्तव में यह बयान सम्पूर्ण महिला समाज के साथ एक क्रूर मजाक है।

इसके पूर्व इसी पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्षा व यूपीए प्रमुख श्रीमती सोनिया गांधी का हरियाणा में पीड़ित परिवार के घर के दौरे के दौरान बलात्कार पर चिंता व्यक्त करते हुये यह गैर जिम्मेदाराना बयान कि ‘‘ ये सच है कि बलात्कार की घटनाएं बढ़ी हैं लेकिन ऐसा सिर्फ हरियाणा में नहीं देश के सभी राज्यों में हैं‘‘ कहकर हरियाणा की घटना को कम आंककर अपनी कांग्रेसी सरकार को बचाने का प्रयास किया। अपनी असफलताओ पर परदा डालने के लिए इस तरह के ‘‘शूरवीर’’ बयान क्या निर्लज्जता लिए हुए और बेशरमी भरे हुए नहीं है? क्या एक सभ्य समाज में इस तरह के बयानों से अपनी कार्यक्षमता और प्रतिष्ठा पर आयी हुई ऑच को ढका जा सकता है? ढका जाना चाहिए? ढकना संभव है? यह प्रश्न इसलिए उत्पन्न हो रहा है कि विगत कुछ समय से यदि हम इस तरह के बयानों पर नजर डाले तो ज्यादातर कांग्रेसी नेताओं के इस तरह के बयानों की बाढ़ सी आ गई है जो लज्जा की हर सीमा को पारकर, मर्यादित आचरण की सीमा उल्लंघन कर बेशरमी की उस हद तक पहुंच गई जिसकी कल्पना एक आम बौद्धिक नागरिक ने शायद ही कभी की हो। लेकिन इससे भी बड़ा दुखद तथ्य यह है कि ऐसे बेशरम बयानों पर जनता की उस तरह की प्रतिक्रिया न होकर ‘‘चुप्पी’’ भी ‘‘बेशरमी’’ की सीमा को पार करती हुई दिखती है जो वास्तव में चिंता का विषय है। यदि वास्तव में जनता इतनी जाग्रत होती या उसकी प्रतिक्रिया ऐसे बयानों पर तीव्र होती या तीव्र होने की कल्पना ‘शूरवीर’ राजनीतिज्ञांे के दिमाग मन में होती तो उसके डर और दबाव के कारण ऐसे बयान इस संख्या तक इस सीमा तक शायद नहीं आते।

आईये इस तरह के नेताओं के कुछ और ‘शूरवीर’ बयानो की बानगी देखिएः-

केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा के बयानः-योगऋषि रामदेव एवं अन्ना हजारे के बारे में 9 अगस्त, 2012 को दिया बयान कि ‘‘अन्ना हजारे का शनिचर उतर गया है और अब वो बाबा रामदेव पर चढ़ गया है। ये बेकार के लोग हैं, इन्हें बस कुछ काम चाहिए।’’

28 फरवरी, 2012 गांधी परिवार के लोग सीएम बनने के लिए नहीं, बल्कि पीएम बनने के लिए पैदा होते हैं।

21 अगस्त 2012 महंगाई बढ़ने से मैं खुश हूं।

25 दिसंबर, 2011 वह (अन्ना हजारे) सन् 1965 के भारत-पाक युद्ध का भगोड़ा सिपाही है। इसके गांव रालेगण सिद्धि में सरपंच इसके खिलाफ जीता है। महाराष्ट्र में वह शरद पवार का विरोध कर रहा था, इसके बावजूद उनकी पार्टी नगरपालिका चुनाव में जीती है।

23 दिसंबर, 2011 अन्ना हैं क्या आखिर। यूपी में आकर वह कुछ नहीं कर पाएंगे। चार दिन दिल्ली में धोती कुर्ता पहन कर रहने से कोई नेता नहीं बन जाता है। अन्ना साढ़े चार फीट के हैं और मैं 6 फीट का हूं।

ताजा मामले में दिनांक 16.10.2012 को एनजीओ के कथित फर्जीवाड़े से जुड़े मामले में कानून मंत्री सलमान खुर्शीद का बचाव करते हुए वर्मा ने कहा, खुर्शीद पर 71 लाख रुपये के गबन का आरोप है, जो बहुत छोटी रकम है। अगर यह रकम 71 करोड़ होती तो शायद वे सोचते। मतलब उनकी नजर में 71 लाख से कम का गबन भारतीय दंड संहिता या भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के अंतर्गत अपराध नहीं है।

शहरी विकास मंत्री कमलनाथ का अनाज के कम पड़ने के विषय पर यह बयान कि ‘‘गरीब ज्यादा खाने लगे है, इसलिए अनाज कम पड़ रहा है।’’

देश में हुए लाखों करोड़ो रूपये के घोटालो पर कांग्रेसी नेताओं ने जो बयान दिये है वे भी कम शर्मनाक नहीं है। महंगाई के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मनमोहनसिह के साथ ही अन्य मंत्रियों के यह बयान कि देश की जनता की क्रय क्षमता बढ़ी है, इसलिए महंगाई भी बढ़ी है, निर्धनों के साथ क्रूर मजाक है। यह जले पर नमक छिड़कने समान है।
प्रधानमंत्री का एक और कथन ‘‘विकास के साथ भ्रष्ट्राचार भी बढ़ता है’’ क्या विकास का मतलब फण्ड लाते जाओं खाते जाओं होता है?

म.प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का आतंकवाद पर बयानः- अमेरिका के ओसामा बिन लादेन को मारने के कदम को गलत ठहराते हुए दिग्विजय सिंह द्वारा अपने बयान में ओसामा बिन लादेन को ‘‘ओसामा जी‘‘ कहना भी आतंकवाद पीडितों और आम जनता को बहुत खटका।

केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल का महिलाओं को अपमान करता बयान ‘‘नई-नई जीत और नई-नई शादी. इसका अपना महत्व होता है, जैसे-जैसे समय बीतेगा. जीत पुरानी होती जाएगी. जैसे-जैसे समय बीतता है पत्नी पुरानी होती चली जाती है. वो मजा नहीं रहता है’’

राहुल गांधी जो कांग्रेस के महासचिव एवं युवराज माने जाते है का पंजाब के युवाओं के बारे में दिया गया बयान कि ‘‘यहां 10 में 7 युवक मादक द्रव्य की समस्या से दो चार हैं।’’ युवको पर सत्य से परे कटाक्ष है।

कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता मनीष तिवारी ने 14 अगस्त को न्यायमूर्ति पी. बी. सावंत आयोग की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा था कि सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे पर आरोप लगाया कि वे ‘‘सिर से पावं तक भ्रष्टाचार में डूबे हैं।’’ उनके इस बयान की कांग्रेस में भी आलोचना हुई थी। जिस कारण से उन्हे माफी भी मांगनी पड़ी थी।

दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के एवं अन्य समस्याओं के लिए बाहर से आये लोगो को जिम्मेदार ठहराना बेतुका ही है।

शीला दीक्षित का महंगाई के बचाव में एक और बयान कि ‘‘जब तनख्वाह बढ़ेगी तो दाम भी बढ़ेंगे। शीला ने कहा कि सरकार ने कीमतें बढ़ाने का फैसला मजबूरी में लिया है। शीला ने कहा कि कीमतें बढ़ी हैं तो वेतन-भत्ते भी बढ़े हैं।’’

केंद्रीय ग्रामींण विकास मंत्री जयराम रमेश ने वर्धा में निर्मल भारत यात्रा को हरी झंडी दिखाते हुए कहा था, हमारे देश में टॉयलेट से ज्यादा मंदिरों की संख्या हैं, लेकिन भारत में मंदिर से ज्यादा टॉयलेट महत्वपूर्ण हैं। जिस बयान पर वे अपनी माताजी के विरोध के बावजूद कायम है। क्या स्वच्छता के लिये धर्मस्थल के बजाय दूसरा उदाहरण नहीं दिया जा सकता था।

अरविंद केजरीवाल द्वारा सलमान खुर्शीद के ट्रस्ट पर लगाये गये आरोपों पर उनका दिनांक 17.10.2012 का कथन कि ‘‘वे (अरविंद के लिए) आज कहकर गये है कि हम फरूखाबाद जायेंगे, जाये फरूखाबाद, और आये फरूखाबाद, लेकिन, लौटकर भी आये फरूखाबाद से’’? और ‘‘बहुत दिनों से मेरे हाथ में कलम है, मुझे वकीलों का मंत्री बनाया गया और कहा गया कि मैं कलम से काम करूं लेकिन अब लहू (खून) से भी काम करूंगा।’’ ऐसे धमकीयुक्त बयान भारत जैसे कानूनप्रिय और शांतिप्रिय देश में एक कानून के रखवाले केंद्रीय कानून मंत्री द्वारा ही सम्भव है? वास्तव में यह देश के न्यायिक इतिहास में एक अमिट कलंक है। इसके बावजूद प्रधानमंत्री या यूपीए अध्यक्ष का इस घटना का कोई संज्ञान न लेना बेशर्मी और निर्लज्जता का निरंतर चलने वाला एक और उदाहरण है।

सलमान खुर्शीद के उपरोक्त बयान पर दिनांक 17.10.2012 को कुमार विश्वास का उनके प्रतिउत्तर में यह कथन कि ‘‘फरूखाबाद की जनता उक्त ‘‘गुंडे मवाली’’ को देख लेगी’’ को भी गरिमापूर्ण नहीं कहा जा सकता है। इसी प्रकार भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी पर केजरीवाल द्वारा लगाये गये आरोपो के प्रश्न पर यह कथन कि ‘‘मैं चिल्लर बातों का जवाब देना उचित नहीं समझता’’ ऐसा प्रतीउत्तर एक विपक्ष के नेता के लिये उचित नहीं है।

हमारा देश स्वतंत्र है। स्वतंत्रता से प्राप्त अधिकार के रूप में हमें जो मौलिक अधिकार प्राप्त हुए है। उनमें से एक अपने विचारो को स्वतंत्र तरीके से रखने की स्वतंत्रता भी है। लेकिन यह अधिकार पूर्णतः निर्बाध नहीं है। महत्वपूर्ण पदों पर बैठे सत्तासीन नेताओं की बेलगाम बयानबाजी आम जनता के आत्म सम्मान को दिन प्रतिदिन ठेस पहुंचाती आ रही है। उनके बयानों के अर्थ अधिकांशतः अनर्थ बनकर मुसीबत बन जाते हैं। नेता समाज का आईना होता है उनसे समझदारी भरी बातो की उम्मीद की जाती है, ऐसे बेतुके बयान उनके मुह से शोभा नहीं देते है। ऐसे में वक्त की जरूरत है कि न सिर्फ ऐसी बयानबाजी पर रोक लगाई जाए बल्कि उनके मुंह पर भी ताला लगाया जाए जो कभी चुप नहीं रहते, हर मुद्दे पर अनावश्यक रूप से मुह खोल देते है।

राजनेताओं के बेशर्मी के उपरोक्त बयान आज तक भी नहीं रूके है जो सलमान खुर्शीद द्वारा आज दिये गये उपरोक्त बयान से स्पष्ट है। प्रश्न यही है क्या भविष्य इसी तरह के उलूल-जूलूल बयानों से भरता जायेगा या देश की जनता कभी जाग्रत होकर ऐसे बयानवीरों पर ऐसा ‘‘ताला’’ लगायेगी जिसके रहते वे बयान देने लायक ही नहीं रहे जायेंगे। ‘‘न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।’’

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

क्या अरविंद केजरीवाल ‘‘आम’’ आदमी है?

राजीव खण्डेलवाल:
‘‘मैं आम आदमी हूं’’ के जयघोष एवं ‘टोपी’ के साथ अरविंद केजरीवाल ने नई पार्टी बनाने की घोषणा बिना ‘‘विश्वास’’ (कुमार) के कर दी। जब घोषणा के समय ही विश्वसनीय साथी रहे का विश्वास अरविंद अर्जित नहीं कर पाये जो शायद ‘‘आम’’ आदमी अरविंद केजरीवाल की नजर में नहीं थे इसलिए उन्होने ‘आम‘ आदमी के समर्थन की अपील की। आखिरकार इस देश में राजनीति तो वास्तव में ‘आम’ आदमी ही कर रहा है या ‘आम’ आदमी के नाम पर ही हो रही है? क्या अब भी यह एक प्रश्नवाचक चिन्ह है? हर राजनैतिक नेता के मुख से हमेशा ‘आम’ आदमी की बात ही निकलती है। अरविंद केजरीवाल ने भी इसी का अनुसरण किया है, इससे इतर वे कुछ नयापन नहीं दिखा पाये जिसकी उम्मीद उनसे की जा रही थी। अन्ना आंदोलन की सुरूवात ‘‘मैं हूं अन्ना’’ टोपी के साथ शुरू हुई थी। नये समीकरणों के साथ ही केजरीवाल द्वारा उस टोपी को ‘‘मैं आम आदमी हूं’’ टोपी में परिवर्तित कर दिया। क्या अब अन्ना ‘‘आम’’ आदमी नहीं रहे? इसका जवाब भी केजरीवाल को देना होगा! यदि वास्तव में केजरीवाल ‘आम’ आदमी है, ‘खास’ नही तो वास्तविक ‘‘आम’’, ‘‘खास’’ कब होगा यह गहन शोध का विषय हो सकता है। 

केजरीवाल एवं सहयोगियों द्वारा ‘राजनीति’ वास्तव में ‘आम’ आदमी को ‘खास’ बनाने के लिए की जा रही है, या ‘खास’ आदमी को ’आम’ बनाने के लिए की जा रही है, यह भी शोध का विषय हो सकता है। वैसे भी देश में ‘आम’ काफी प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय है क्योंकि वह अपनी ‘मिठास’ और स्वादिष्ट ‘स्वाद’ के लिए जाना जाता है। हमारे देश में ‘आम’ को श्रेष्ठ फल माना गया है। यह ‘आम’ ‘आम’ होकर भी ‘खास’ बनकर खास व्यक्तियों के बीच का ‘आहार’ बनकर रह गया है। मुम्बई का हाफुज ‘आम’ विश्व प्रसिद्ध है लेकिन उसकी पहुंच कुछ ‘खास’ लोगो तक ही सीमित है। केजरीवाल शायद इस ‘आम’ और ‘खास’ के अंतर को समझ लेते दिशा को समझ लेते तो वह यह प्रारंभिक भूल पार्टी बनाते समय नहीं करते जो उन्होने कर ली है।

राजनैतिक पार्टीयॉ ‘लोकतंत्र’ की ‘जड़’ है, ‘आत्मा’ है, ‘केंद्र बिन्दू’ है, इससे कोई भी व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता है। यद्यपि अन्ना संसदीय लोकतांत्रिक देश के नागरिक होने के बावजूद इससे इनकार कर रहे है। उन्होने कहा है कि राजनीति बहुत गंदी हो गई है व वे राजनीति में नहीं आना चाहते है, यद्यपि प्रारंभ में राजनैतिक विकल्प का उन्होने समर्थन किया था। वास्तव में आवश्यकता नई राजनैतिक पार्टी बनाने की नहीं है। बल्कि राजनीति में नैतिक मूल्यों में आयी गिरावट को रोकने की है जो वर्तमान परिस्थितियों को बदले बिना सम्भव नहीं है। यदि कीचड़ से सने तालाब को साफ किये बिना चाहे उसमें कितनी ही स्वच्छ एवं सुन्दर चीजे फेंकी जाये वे गंदी ही होकर निकलेगी। फिर अरविंद केजरीवाल ऐसा कौन सा नया ‘आम’ लेकर आये है? यह भी विचारणीय है। आवश्यकता है ऐसे अस्वच्छ तालाब को साफ करने की, राजनीति के समूचे परिवेश को बदलने की! स्वस्थ परिवेश लाने की है! एक ऐसा स्वच्छ एवं सुन्दर राजनैतिक ‘तालाब’ (प्लेटफार्म) बनाने की जिसमें यदि कोई भी गंदी चीज फेंकी भी जाए तो वह कुंदन बन जाए। जिससे कोई भी आम नागरिक जब राजनैतिक धरातल पर कदम रखने के बारे में सोचे तो उसकी अंतर्रात्मा में देश सेवा की भावना हो न कि पद और प्रतिष्ठा का लालच। यदि इस बात को केजरीवाल और उनके सहयोगियों, पढ़े लिखे बुद्धिजीवियों ने समझी होती तो वह गलती नहीं करते जिससे अन्ना ने अपने आप को दूर रखकर अपने आपको बचा लिया।

देश के स्वर्णीम अतीत में जाकर देखे तो स्वतंत्रता आंदोलन से उत्पन्न कांग्रेस उसके बाद लोकनारायण जयप्रकाश आंदोलन के परिणाम से उत्पन्न जनता पार्टी सहित न जाने कितने ही जनआंदोलनो ने राजनैतिक मोड़ लेकर कई पार्टियां बनी, अरविंद जैसे कई नायक निकले पर क्या वे देश की दशा-दिशा को मोड़ पाये? देश में स्वतंत्रता प्राप्ति से अब तक 6 राष्ट्रीय 23 क्षेत्रीय मान्यता प्राप्त सहित 1308 गैर मान्यताप्राप्त राजनैतिक पंजीयत पार्टिया ‘आम’ लोगो के हितार्थ बनाई गई। जिनके मूल उद्देश्य या उनके संविधान को उठाकर देखा जाए तो कोई भी पार्टी ऐसी नहीं मिलेगी जो ‘खास’ लोगो के हितो को ध्यान मे रखकर बनायी गई हो, सभी ‘आम’ लोगो के हितार्थ ही कार्य करने हेतु वचनबद्ध है। 

जहां तक एजेंडे की बात है केजरीवाल द्वारा जारी किये गये एजेंडे में जो सबसे महत्वपूर्ण एजेंडा जो किसी अन्य पार्टी में शामिल नहीं था और उन्हे शामिल करना चाहिए था वह यह हैं कि मैंने जो भी दस-बीस सुत्रीय एजेंडा जारी किया है वह इतना वास्तविक है कि उसको सौ प्रतिशत लागू किया जा सकता है। उसको सौ प्रतिशत लागू करने के लिए मैं और मेरी टीम के प्रत्येक सदस्य अपनी सौ प्रतिशत क्षमता से कार्य करेंगे। यदि यही वचनबद्धता भी जनता के सामने आ जाती (जिसके वचनपालन का आकलन भविष्य में अवष्य होगा) तो वास्तव में केजरीवाल की पहचान एक अलग ‘आम’ के रूप में होती। लेकिन शायद ‘आम’ के चक्कर में केजरीवाल जो देश में आम ढर्राशाही, लाल फीताशाही चल रही है उसी ‘आम’ को अपनाने जा रहे है। क्योंकि वर्तमान लोकतंत्र ‘मुंडियो’ की संख्या गिनने पर टिका हुआ है। यदि हमें ‘मुंडिया’ गिनवानी है तो वर्तमान ‘आम’ को अपनाना ही पड़ेगा। अन्ना को साधुवाद दूंगा कि उन्होने इस ‘आम’ के पीछे की असफलता को पढ़ लिया और अपने आप को इस राजनीति से न केवल अलग कर लिया बल्कि अपना एक अलग रास्ता पर चलने का फैसला किया जिस पर वे पूर्व से ही चलते आ रहे है। शायद देश के ‘आम’ नागरिक के पास सिर्फ वक्त का ही इंतजार करने के अलावा कोई चारा भी नहीं बचा है। ।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

बुधवार, 19 सितंबर 2012

‘मंजिल एक’ लेकिन रास्ते अलग-अलग!


अन्ना की साहसपूर्ण स्वीकारोक्ति! एक सही कदम!
राजीव खण्डेलवाल:
अंततः अन्ना हजारे ने पिछले लगभग डेढ़ वर्षो से भ्रष्टाचार के विरूद्ध जनलोकपाल बिल के लिये चले आ रहे आंदोलन के सम्बंध में राजनैतिक पार्टी बनाने के मुद्दे पर आंदोलन के दो धड़ो में सीधे विभाजन की सीमा तक मतभेद को स्वीकार कर लिया है। यह आंदोलन दो धड़ो में बट गया है यह अप्रिय वास्तविकता है। आपको याद होगा जब अन्ना ने अपना आंदोलन समाप्त किया था तब उन्होने मंच से यह घोषणा की थी कि अब राजनैतिक विकल्प के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं बचा है। इसलिए नई राजनैतिक पार्टी बनाना होगा। वास्तव में यदि आंदोलन के इतिहास पर नजर डाले तो अन्ना शुरू से ही आंदोलन के राजनीतिकरण के खिलाफ में रहे है। जबकि अरंविद केजरीवाल ‘आंदोलन’ को वर्तमान समस्त राजनैतिक पार्टियों से दूर रखते हुए नये राजनैतिक धरातल को ढूंढते रहे। इसलिए हिसार से लेकर उत्तराखंड-उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावो में भाग लेने की जो घोषणा अन्ना टीम द्वारा की गई थी, के मुख्य पोषक वास्तव में अरविंद केजरीवाल ही थे, अन्ना नही। लेकिन टीम की एकता की खातिर अन्ना ने हमेशा निर्णयो पर मुहर ही लगाई। यह बात अन्ना के उद्बोधन में उनके चेहरे पर उत्पन्न पीड़ा भाव से देखी जा सकती थी, समझी जा सकती थी। इसे समय-समय पर मीडिया ने भी इंगित किया था। केजरीवाल ने आंदोलन के द्धितीय चरण की समाप्ति के समय एक टीवी चैनल द्वारा किये गये सर्वे के आधार पर यह घोषणा की थी की लगभग 96 प्रतिशत (लगभग 410000) लोगो ने नई राजनैतिक विकल्प बनाने के लिए समर्थन दिया है। अब नई राजनैतिक पार्टी बनाने के लिये जो सर्वे के आकड़े इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के बेनर तले जारी किये गये है उसमें यह प्रतिशत लगभग 76 प्रतिशत रह गया। इससे यह सिद्ध होता है कि  अन्ना टीम द्वारा स्वयं के द्वारा किये गये आकलन में ही जनता का राजनैतिक पार्टी बनाने के प्रति वह समर्थन नहीं है जैसा कि अन्ना टीम दावा कर रही है। शायद इसी वास्तविकता को भॉपकर अंततः अन्ना ने अपनी आत्मा की आवाज को सुनकर वर्तमान राजनैतिक परिवेश को देखते हुए सीधे राजनीति में न जाने जो एक सही निर्णय लिया है उसकी न केवल प्रशंसा की जानी चाहिए बल्कि वह वंदनीय भी है क्योंकि राजनीति के ‘आकर्षण’ से बाबा रामदेव जैसे व्यक्तित्व भी अपने आपको दूर नहीं रख पाये।
                    अन्ना जैसा व्यक्तित्व जो शुरू से ही पुर्णतः गैर राजनैतिक रहा हो के अन्ना टीम बनने के बाद से अन्ना टीम के निर्णयों पर केजरीवाल के प्रभाव दबाव की छाप साफ लोगो को नजर आ रही थी। वह इसलिए कि जिस तरह के निर्णय लिये जाते रहे वे पूर्ण रूप से अन्ना के व्यक्तित्व, विचारो और कृति से मेल नहीं खाते थे। लेकिन आंदोलन के अस्तित्व की रक्षा और उद्धेश्य की प्राप्ति के लिए उसे वृहद रूप बनाने के लिए शायद अन्ना ने आंशिक रूप से ही सही समय समय पर लिये गये निर्णयों को अंगीकार किया।
                      अन्ना का केजरीवाल के द्वारा राजनैतिक पार्टी बनाने के संबंध में उठाये जा रहे कदम के संबंध में यह कथन बहुत ही महत्वपूर्ण है कि भ्रष्टाचार व जनलोकपाल के मुद्दे पर मंजिल एक है, रास्ते अलग-अलग है। देश की कोई भी राजनैतिक पार्टी संस्था या व्यक्ति इससे असहमत नहीं हो सकता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति सिद्धांतः भ्रष्टाचार के विरूद्ध होकर उससे लड़ना चाहता है। लेकिन प्रश्न यही उत्पन्न होता है कि क्या विभिन्न रास्ते अपनाकर ‘मंजिल’ पाई जा सकती है या ‘मंजिल’ पाने के लिये एक ही रास्ता तय करना चाहिए। यदि हॉं तो वह सर्वमान्य सफल एक ही रास्ता कौन सा हो सकता है इसका उत्तर ही भविष्य की देश की राजनैतिक दिशा-दशा को तय करेगा। 
                      अन्ना का यह कथन भी सैद्धांतिक रूप से बिल्कुल सही है कि राजनीति मंे सही अच्छे चरित्र वाले ईमानदार स्वच्छ छवि वाले व्यक्ति को ही जनता चुने। लेकिन इसे व्यवहारिक रूप कैसे दिया जा सकता है पेंच यही पर है। बगैर राजनैतिक पार्टी बनाये यदि स्वच्छ ईमानदार व्यक्ति बताने वाला कोई फार्मुला अन्ना सुझा पाये जो सबको समझ आकर राजनीति के सफल होने का सूचक बन जाये तो शायद केजरीवाल भी राजनैतिक पार्टी बनाने का इरादा छोड़ सकते है। तब यह अन्ना आंदोलन विभाजन से टूटने के कगार से बच जायेगा। केजरीवाल को इस तथ्य को अनदेखा नहीं करना चाहिए कि 125 करोड़ से अधिक की जनसंख्या वाले देश में जहां लगभग 75 करोड़ से अधिक वोटरों के सामने 6 राष्ट्रीय 23 क्षेत्रीय मान्यता प्राप्त सहित 1308 गैर मान्यताप्राप्त राजनैतिक पंजीयत पार्टिया और हजारो गैर पंजीयत पार्टिया हो वहा मात्र 737041 मतदाताओं की भागीदारी के आधार पर जिसमें से 561701 (76 फीसदी) समर्थन को देश की दिशा कहना व समर्थन मानना एक आत्मघाती भूल होगी। अतः या तो सर्वे और व्यापक हो जिसमें कम से कम 25 प्रतिशत वोटरो की भागीदारी तो हों क्योंकि आम चुनाओं में लगभग 50 से 65 प्रतिशत लोग भागीदारी करते है। इसलिए यदि आधे से अधिक लोगो का अपना मत व्यक्त किसी भी विषय पर निर्णय हेतु व्यक्त करना आवश्यक होगा यदि हम देश की वास्तविक नब्ज को काश्मीर से कन्याकुमारी तक पहचानना चाहते है दिशा जानना चाहते है और तदानुसार कार्य करना चाहते है। अन्यथा आज जनता के बीच वर्तमान राजनैतिक पार्टियों ने जो अपना विश्वास लगभग पूर्णतः खोया है उसका विकल्प सिर्फ दूसरा राजनैतिक दल ही हो सकता है? क्या गैर राजनैतिक नहीं हो सकता? यह ‘यछ’ प्रश्न है जिसका समाधान यदि अन्ना ने कर दिया तो सच मानिये वे एक युग पुरूष सिद्ध होंगे।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

सोमवार, 10 सितंबर 2012

ओंकारेश्वर बांध पर जल समाधी आंदोलन की ऐतिहासिक सफलता

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राजीव खण्डेलवाल:

               विगत 17 दिनो से चला आ रहा ओंकारेश्वर बांध (इंदिरा सागर बांध) पर घोघल गांव के मात्र 51 ग्राम निवासियों की जल समाधी सत्याग्रह हर तरह से एक ऐतिहासिक छाप छोड़ गया। इंदिरा सागर डेम को 260 मीटर के ऊपर पानी भरने से डूब क्षेत्र में आये 29 गांव हैं जहां के खेत, घर, आबादी और रास्ते पानी से घिर रहे हैं। सम्बंधित गांवो के लोग उनके पुनर्वास की व्यवस्था किये बगैर डेम का जल स्तर बढ़ाने का घोर विरोध कर रहे थे।
वास्तव में आंदोलनो के इतिहास मे जल समाधी का इस तरह का यह शायद पहला आंदोलन हुआ है जहां 17 दिन तक लगातार नदी में आंदोलनकारी लोग लगभग पानी में डूबे रहे जिससे उनके शरीर गलने लग गया थे। ऐसा आंदोलन शायद ही पूर्व में कही देखने को मिला हो। दूसरा इस आंदोलन में कोई भी नामचीन व्यक्ति सीधा नहीं जुड़ा था। यद्यपि इस आंदोलन के मुद्दे पर पूर्व मे नामचीन नेत्री मेघा पाटकर शामिल हुई थी। यह आंदोलन इस मामले में भी ऐतिहासिक रहा कि यह नेतृत्व विहीन था जिसका कोई नेता नही था बल्कि समस्त भागीदारी आंदोलनकर्ता वास्तविक ‘नेता’ बने। हाल के आंदोलनो में चेहरा बने तथाकथित स्वयंसिद्ध बुद्धिजीवियों के चेहरो का भी इस आंदोलन में नितांत अभाव था जो इस आंदोलन को वास्तव में शुद्ध रूप से भारत के ग्रामींण परिवेश को पहचान को स्थापित करता है। वृद्ध ग्रामीण महिलाओं की बराबरी की भूंमिका ने भी इस आंदोलन को ऐतिहासिक बनाया। इस आंदोलन ने प्रथम बार यह सिद्ध किया कि राजनैतिक प्रभाव पैदा किये बिना भी आंदोलन सफल हो सकता है। दूसरे शब्दों में यह प्रथम सफल पूर्णतः गैरराजनैतिक आंदोलन सिद्ध हुआ।
मात्र 51 ग्रामवासियो के आंदोलन ने इतना दृढ़-नैतिक दबाव सरकार पर बना कि सरकार को आंदोलनकारियों की लगभग सभी मांगे अंततः माननी पड़ी जिसमें सबसे मुख्य मांग बांध की उंचाई 189 मीटर तक सीमित करना भी शामिल है। बांध की उंचाई के लिए मेघा पाटकर काफी समय से लम्बी लड़ाई लड़ रही है। अन्ना और बाबा के बड़े जन-आंदोलन के अंततः परिणाम रहित और दिशा भटकने वाले आंदोलन (गैर राजनैतिक से राजनैतिक) होने के बाद यह महसूस किया जाने लगा था कि इस देश में भविष्य में शायद ही कोई जन-आंदोलन उठ पाये। जनता की मूलभूत आवश्यक समस्याएं हल करने का वैधानिक एवं संवैधानिक दायित्व चुनी हुई सरकार का होता है जिसे सरकार जब अनसुनी कर देती है तब उसका कोई निराकरण शायद ही कोई आंदोलन से हो पाए ऐसी धारणा अन्ना आंदोलन के असफल होने के कारण बलवती होती जा रही थी। इस ‘जल आंदोलन’ ने यह उत्पन्न होते मिथक को गलत सिद्ध कर दिया है कि आंदोलन के लिए बहुत ‘मुंडियों’ की आवश्यकता होती है। वास्तव में कुछ ‘मुंडिया’ ही यदि निस्वार्थ बिना किसी प्रचार के लिए आडम्बरहीन होकर अपने कानूनी और सामाजिक हक के लिए लड़ते है तो अंततः वे अपनी ओर वृहत समाज, मीडिया और सरकार का ध्यान सफलता पूर्वक खीच लेते है जिसके परिणाम भी अंततः सकारात्मक आते है जो उक्त आंदोलन ने सिद्ध किया है। इसलिए ऐसे दृढ़ निश्चयी अपने शरीर को गलाकर कुछ प्राप्ति करने के आशा में लगे निमाड़ की भूमिं के उन जाबाज सत्याग्राहियों को मेरा साष्टांग नमन्। ऐसे सत्याग्राहियों का राष्ट्रीय सम्मान भी किया जाना चाहिए।
देश ही नहीं, समस्त जन आंदोलनकर्ता जल सत्यागाहियो से न केवल प्रेरणा ले बल्कि भविष्य में यदि वे भी देश की, समाज की समस्याओं के लिए आंदोलित होंगे तो उन्हे भी वैसी ही सफलता प्राप्त होगी यह विश्वास करें बशर्ते वही दृढ़, निस्वार्थ, प्रचार रहित, दृढ़ इच्छा शक्ति हो?

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

माननीय जस्टिस कापड़िया का कथन बिल्कुल सही, भले ही देरी से!


उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एच.एम. कापड़िया का यह कथन कि ‘‘जजों को देश नहीं चलाना चाहिए न ही उन्हे नीति बनानी चाहिए’’ बल्कि वे मात्र फैसला दे, भारत की न्यायपालिका के इतिहास में एक मील का पत्थर अवश्य सिद्ध होगा। पिछले कुछ समय से माननीय उच्चतम न्यायालय के विभिन्न विषयों पर जो निर्णय आ रहे थे उनके परिपेक्ष में उक्त कथन की आवश्यकता बहुत समय से महसूस की जा रही थी। यदि पाठकगण मेेरे पूर्व के लेखों को ध्यान में लाए तो मैने यही बात पूर्व में भी कुछ न्यायिक निर्णयों की समीक्षा-लेखा के दौरान की थी। वास्तव में उच्चतम न्यायालय का कार्य कानून की समीक्षा मात्र है उन्हे या तो वैध घोषित करें या अवैध। कानून निर्माण उनका कार्य नहीं है। कानून की कमियों की पूर्ति स्वयं न्यायपालिका कर रही है ऐसा निर्णयो से नहीं झलकना चाहिए। कानून को बनाने का कार्य विधायिका का है। ऐसी स्थिति में कोई और संस्था विधायिका या कार्यपालिका, न्यायपालिका को कानून बनाने से या न्यायपालिका द्वारा उक्त कमिंयो की स्वतः पूर्ति करने से (अवमानना के भय से) नहीं रोक पाती है तब खुद न्यायपालिका ही आत्म संयमित होकर इस तरह की प्रवृत्ति पर रोक लगा सकती है। यह पहल देश के माननीय मुख्य न्यायाधीश ने करके न केवल एक अच्छी शुरूआत की है बल्कि देश की न्यायपालिका को एक स्वच्छ व स्पष्ट संदेश भी दिया है। जब मुख्य न्यायाधीश ने अपना मत स्पष्ट रूप से प्रकट कर दिया है तो यह विश्वास है कि अब भविष्य में इस तरह की पुनरावृत्ति नहीं होगी। लेकिन इस तरह की स्थिति में अब यदि कार्यपालिका कानून की कमियांे की पूर्ती नहीं करती है जो न्यायपालिका अभी तक अपने निर्णयो द्वारा करती चली आ रही है तो नागरिको के मन में व्यवस्था के प्रति आक्रोश उत्पन्न हो सकता है। इससे अराजकता की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। पूर्व के निर्णयों मे भले ही न्यायालय के अधिकार क्षेत्र पर प्रश्नचिन्ह लगाया जाता रहा हों लेकिन जनभावना व उनके हितो के अनुरूप निर्णय होने के कारण आमजनो ने वे निर्णयो को विधायिका और कार्यपालिका के मनमाने तौर तरीके पर अंकुश की तरह मानते हुए उन्हे स्वीकार किया। खुद जस्टिश कापड़िया ने जो सोने का अधिकार, सुरक्षा के अधिकार, सम्मान पूर्वक जीने का अधिकार के उदाहरण ज्यूरिसपडेंस आफ कांस्टिट्यूशनल स्ट्रक्चर विषय पर व्याख्यान देते हुए दिया। इसमें उनकी साफ विनम्र व न्यायिक अहंकार-रहित सोच झलकती है। उच्चतम न्यायालय ने अभी कुछ समय पूर्व ही शेरो की घटती हुई संख्या के कारण टाइगर टूरिज्म पार्क एवं फारेस्ट क्षेत्र में विकसित पर्यटन केंद्रो में कुछ प्रतिबंध लगाये जिसमें हमारे प्रदेश का पचमढ़ी क्षेत्र भी शामिल है जिसके कारण पर्यटन उद्योग चौपट होने की नौबत आ गई हैं और कई लोग बेरोजगार भी हो गये है। यदि सरकार किसी भी विद्यमान कानून का उल्लंघन कर रही हो तो उसके लिये उसे अवश्य दंडित किया जाना चाहिए। यदि पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कोई कानून की आवश्यकता है या कानून में कोई कमिया है तो न्यायपालिका उक्त कमियो की पूर्ति निर्णयो द्वारा स्वयं करने के बजाय उक्त कार्य को जनता, विधायिका, कार्यपालिका पर छोड़ देना चाहिये। तदानुसार विधायिका व कार्यपालिका यदि अपने दायित्व का पालन नहीं करती है तो जनता जनतंत्र का दबाव जो लोकतंत्र में एकमात्र हथियार है बनाकर सरकार को उस दिशा में कार्य करने के लिए प्रेरित कर सकती है। पर्यावरण या लुप्त होते शेरो की सुरक्षा किसी भी सरकार का मौलिक दायित्व होना चाहिए, और है। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने सरकार के एक नीतिगत निर्णय के समान निर्णय देकर अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण ही किया था। यद्यपि वह देशहित में हो सकता है लेकिन क्या वह न्यायिक सीमा के अंतर्गत है यह एक सोचनीय प्रश्न हो सकता है। हाल ही में बैतूल से संबंधित जन संगठनों के सदस्यों को प्रताड़ित किये जाने के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार को शिकायत निवारण प्राधिकरण गठन करने के निर्देश दिये है जो उपरोक्तानुसार अतिक्रमित अधिकार क्षेत्र का ही सूचक है। अतः माननीय मुख्य न्यायाधीश का उपरोक्त मत स्वागत योग्य है व इसकी खुले मन से प्रशंसा की जानी चाहिए कि एक न्यायाधीश ने अपने ही अतिक्रमित अधिकारों को जिनको जनता ने मान्य किया, स्वीकार किया यह कहकर कि वे संवैधानिक नहीं है खुद त्याग किया है, वह भविष्य में न्यायालय के निर्णय को और अधिक संवैधानिक बनाने में सार्थक सिद्ध़ होंगा।

बुधवार, 22 अगस्त 2012

सोनिया क्या न्यायपालिका का प्रतिरूप बन गई ?

फोटो: newindianexpress.com

राजीव खंडेलवाल: असाम हिंसा की घटना पर सोनिया गांधी के पीड़ितो को सहलाने गई असाम दौरे के दौरान यह बयान कि दोषियों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए यह प्रश्न उत्पन्न करता है कि यह कड़ी सजा देगा कौन? जो कुछ असाम में घटित हुई इसकी सर्वत्र आलोचना हुई है। जिस प्रदेश से देश का प्रधानमंत्री प्रतिनिधित्व करता हो वहॉ अचानक यह शर्मनाक घटना का होना एक कलंक है। घटना के संबंध में बोडो आंदोलन से जुड़े व्यक्ति जो सरकार में शामिल है पर आरोप प्रत्यारोप लगे है। समय पर केंद्र सरकार की सेना की टुकड़ी का न पहुंचना भी आलोचना का शिकार बना हुआ है। इस सम्पूर्ण घटना में अपराधियों को पहचानकर सजा दिलाने की जिम्मेदारी या तो प्रदेश सरकार की है या केंद्र की सरकार की है। दुर्भाग्य से दोनो जगह उस कांग्रेस की सरकार है जिसकी मुखिया सोनिया गांधी है। सोनिया गांधी ने यह कथन नहीं किया कि उन्होने केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार को उक्त घटनाओं में शामिल अपराधियों को पकड़कर तुरंत कार्यवाही करने के निर्देश प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को दिये है। कांग्रेस पार्टी की सरकार होने के कारण न केवल राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते बल्कि यूपीए के मुखिया होने के नाते भी उन्हे कड़ी कार्यवाही के निर्देश देना चाहिये थे। इसके विपरीत उन्होने उनको सजा मिलनी चाहिए ऐसी इच्छा अपनी व्यक्त की उसी प्रकार जिस प्रकार माननीय न्यायालय कई प्रकरणों में कानून के प्रावधानों की कमी के कारण या उनका पालन प्रशासनिक तंत्र द्वारा न किये जाने के कारण उनके पास सीधे कार्यवाही के अधिकार न होने के कारण अपने निर्णयो में वे इस तरह के निर्देशो का उल्लेख करते है कि सरकार को या प्रशासनिक अधिकारियों को इस तरह के कार्य करने चाहिए या तथाकथित कमियों को दूर करने के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए। इस तरह वे सरकार से ऐसे कदम उठाने की उम्मीद करते है जो यद्यपि आदेश नहीं होता है। वैसे ही विचार सोनिया गांधी ने व्यक्त किये जिसके पीछे कोई बल या इच्छा शक्ति का न दिखना से वह सिर्फ मात्र विचार ही प्रतीत होते है। इसके विपरीत न्यायालयों की इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं में तो एक प्रकार का न्यायिक डर सम्मिलित होने के कारण उसका सरकार या प्रशासनिक तंत्र पर कुछ प्रभाव अवश्य पड़ता है। क्या सोनिया गांधी उक्त घटना पर राजनैतिक सोच से हटकर देश की एकता के लिए तुरंत समस्त आवश्यक कार्यवाही करने के कड़े निर्देश प्रधानमंत्री व असम के मुख्यमंत्री को देकर व कार्यान्वित करवाकर इसकी प्रतिक्रिया में देश के विभिन्न प्रांतो में फैल रही हिंसक व पूर्वोत्तर के लोगो के घटनाओं के पलायन को रोक कर देश की एकता को मजबूत और स्थिर बनाकर रखना होगी भविष्य उनकी ओर इस आशा की टकटकी से ही देख रहा है। 
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

लोकतंत्र को बचाने के लिए, लोकतंत्र में सीधे भागीदारी करने का गैर राजनैतिक संत का निर्णय कितना उचित?

                            टीम अन्ना ने इस घोषणा के साथ कि देश के लिए ‘राजनैतिक विकल्प’ देना जरूरी है और बिना सत्ता में आये वे राजनैतिक विकल्प देंगें अनशन समाप्त करने की घोषणा कर दी। मतलब अन्ना अभी तक जिस वर्तमान राजनीतिक तंत्र की लगातार आलोचना कर रहे थे अन्ना उसमें अपने समर्थको की भागीदारी कराकर उक्त तंत्र का भाग बनेंगे। वास्तव में यह एक लोकतांत्रिक एवं लोकतंत्र को मजबूत करने वाला निर्णय है। इसलिए कि लोकतंत्र में कोई भी तंत्र (सिस्टम) पूर्ण (एब्सोल्यूट) नहीं होता है। हम एक बेहतर तंत्र (सिस्टम) की कल्पना करते है और देश को सर्वश्रेष्ठ तंत्र देने का प्रयास करते है। कोई भी तंत्र अपने आप मंे गलत नहीं होता है। लेकिन उस तंत्र के जो अंश होते है जिसे मिलकर वह तंत्र बनता है, जो उसको कार्यान्वित करने के लिए जिम्मेदार होते है और जिनके लिए वह तंत्र बनाया जाता है उनकी सामुहिक कमिया ही उस तंत्र को खराब करती है। अन्ना अब तक यह कहते रहे कि यह तंत्र वर्तमान में जो है जिसका केंद्र बिंदू ‘संसद’ है। यह वह संसद है जहां 15 मंत्री भ्रष्ट है 166 से अधिक सदस्य अपराधी है। इनसे न तो स्वच्छ शासन की उम्मीद कर सकते है और न ही उनसे भ्रष्टाचार के विरूद्ध कड़ा कानून की उम्मीद की जा सकती है। 
                            अन्ना ने इसके पूर्व वर्तमान संसद को नकारकर ग्राम सभा की रायशुमारी की बात पर जोर दिया। लेकिन अब उन्हे इस बात का अहसास अवश्य हो गया होगा कि संसद चाहे कैसी हो कानून वही बना सकती है। इसलिये संसद को चाहे जितनी गाली दी जाये, आलोचना की जाय, जब तक उनके मन मुताबिक संसद का गठन नहीं हो पाएगा तब तक जन लोकपाल बिल पारित नहीं हो पायेगा। वर्तमान संसद के संसंद सदस्यों पर जनमत के दबाव के द्वारा जनलोकपाल बिल पर उनको सहमत करने में असफल होने के कारण ही उनके पास उक्त निर्णय के अलावा शायद कोई चारा बचा ही नहीं था। वे आखिरी सांस तक ‘लोकतंत्र’ में अपने विश्वास से डगर नहीं होना चाहते है इसलिए मजबूरी में लिया गया यह निर्णय उनकी हार के रूप में न देखा जाए बल्कि लोकतंत्र के पहियों को मजबूती प्रदान करने व स्वच्छता प्रदान करने के रूप में देखा जाना चाहिए।
अब जब अन्ना व उनकी टीम व समर्थक इस लोकतंत्र के मंदिर संसद में प्रवेश करने के लिये जनता के बीच जायेगी। तब उन्हे वे सब बुराइयों का सामना करना पड़ेगा जिसकी आलोचना वे अभी तक करते आ रहे है। इन बुराईयो का सामना करने पर उन्हे बुराईयो से लड़ना पड़ेगा। जब अन्ना जैसा व्यक्तित्व राजनीति के कीचड़ से युक्त समस्त ‘बुराइयो से लड़ेगा’ व जन जनार्दन के सहयोग से यदि वह विजय प्राप्त कर पायेगा तो ही राजनीति को इस कीचड़ से दूर कर स्वच्छ कर पायेगा। 
                            यदि यह प्रयोग सफल हो गया तो सच मानिये देश प्रगति की ओर अग्रसर होता हुआ पुरानी सोने की चिड़िया के रूप में प्रसिद्धि पा सकता है बशर्ते जनता भी उतनी ही ताकत व क्षमता से अन्ना के इस दिशा में बड़े हुये कदम का ताल ठोककर साथ दें।

भ्रष्टाचार की समस्या का निवारण मात्र जनलोकपाल कानून नहीं बल्कि ‘दोहरे चरित्र’ की समाप्ति की आवश्यकता

                  अन्ना का ‘जनलोकपाल बिल’ को कानून बनाने के लिए चल रहा आंदोलन के दौरान ही जनता के बीच यह साफ हो चुका था कि मात्र जनलोकपाल कानून बनने से भ्रष्टाचार की समस्या का न तो निवारण होगा और न ही उस पर प्रभावी अंकुश लग पायेगा। समस्या कानून की न होने की नहीं, लागू होने की नही है बल्कि उसको लागू करने वाले व्यक्तियों के दोहरे चरित्र होने के कारण उनकी की दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव का होना है।
                  यदि हम अन्ना के 16 महीने के आंदोलन के दौर पर विचार करे तो यह हमारे सामने एक बहुत ही साफ चित्र सामने आता है वह यह कि इस आंदोलन में शामिल या प्रभावित होने वाला प्रत्येक वर्ग चाहे वह संसद हो, सरकार हो, अन्ना टीम हो, समस्त राजनैतिक पार्टीयां हो, नेता हो, अभिनेता हो, बुद्धिजीवी वर्ग हो या आम जनता हो, सबका दोहरा चरित्र कमोवेश एक दूसरे के सामने आ गया है। यह देश की चिंता का विषय है। यदि हम आज व्यक्ति/संस्था के दोहरे चरित्र की बात करते है तो दोहरे चरित्र का यह मतलब कदापि नहीं है कि यदि किसी व्यक्ति ने एक समय कोई स्टेण्ड लिया और वह अनुभव के आधार पर परिस्थितिवश हालत बदलने के कारण अपने स्टैण्ड में बदलाव लाता है। एक साथ ही कथनी व करनी में अंतर ही दोहरा चरित्र है। 
                  बात पहिले अन्ना की ही कर ले। अन्ना एवं उनकी टीम द्वारा सदा से ही लगातार यह कहा जा रहा था कि यह एक गैर राजनैतिक जन-आंदोलन है व वे कभी भी इस राजनैतिक कीचड़ में नहीं पड़ेंगे। इसी राजनीतिक कीचड़ के कारण वर्तमान संसद 166 से अधिक आरोपित सांसदो से घिरी हुई है। मुझे ख्याल आता है जब अन्ना का प्रथम बार आंदोलन हुआ था तो उमाजी जो उनको समर्थन देने गई थी तब उन्हे मंच पर चढ़ने नहीं दिया था जबकि उमाजी राजनीतिज्ञ के साथ-साथ साध्वी व प्रखर आध्यात्मिक वक्ता भी है। लेकिन राजनीति की ‘बू’ से उस समय अन्ना को इतनी ज्यादी चिढ़ थी कि उसकी छाया से भी उन्होने परहेज रखा। लेकिन वही अन्ना उस विलासराव देशमुख जो एक भ्रष्ट आरोपित केंन्द्रीय मंत्री थे (बाद में जारी 15 भ्रष्ट केन्द्रीय मंत्री की लिस्ट में भी उनका नाम शामिल था) प्रधानमंत्री की चिट्ठी को सार्वजनिक मंच पर आदर पूर्वक उनके हाथो से स्वीकार करते हुए वह चिट्ठी पढ़ी गई तब अन्ना को उनसे परहेज करने आवश्यकता महसूस नहीं पड़ी जैसा कि तृतीय स्टेज के आंदोलन में उन्होने भ्रष्ट मंत्रियो से मिलने से इनकार तक की बात कही थी। इससे अन्ना का दोहरा चरित्र परिलक्षित होता है। राजनीति से घृणा करने वाले अन्ना का राजनैतिक विकल्प देने की घोषणा करना भी दोहरे चरित्र का उदाहरण है। यहा कुछ लोग इसे अपने पूर्व स्टेंड का बदलना भी कह सकते है। 
                  राजनैतिक विकल्प की घोषणा के साथ अन्ना एवं अरविंद केजरीवाल द्वारा कोई चुनाव न लड़ने की घोषणा एवं कोई पद ग्रहण न करने का कथन भी दोहरे चरित्र का उदाहरण है इस अर्थ में कि वे एक ओर सक्रिय चुनावी राजनीति में अच्छे लोगो को आने की सलाह भी दे रहे लेकिन वे स्वयं उन अच्छे लोग से अधिक अच्छे होने के बाद सक्रिय राजनीति में भाग लेने से इंकार रहे है। जो आचरण एवं कार्य दूसरे को करने के लिए कह रहे है यदि वे स्वयं उसको अंगीकृत नहीं करते है तो यह दोमुही बाते ही कही जायेगी।
                  जनलोकपाल बिल के लिए अंतिम सांस तक अनशन करने की बात करने के बाद अचानक बिना उद्वेश्य की प्राप्ति के या बिना किसी उपलब्धि के अनशन समाप्त करना। इसके पूर्व अनशन में तो उन्हे सरकार की तरफ से कुछ न कह आश्वासन भी मिला था। यह दोहरे चरित्र के साथ जनता के विश्वास को एवं तोड़ना भी है। देश आंदोलनकारी व जनता को एक माला में पिरोने का आव्हान करने वाली अन्ना टीम स्वयं एकमत न होकर समय-समय पर उनके अलग-अलग स्वर प्रस्फुटित हो रहे थे जो अन्ना टीम के विरोधाभासी आचरण का प्रतीक है।
                  बात जहां तक संसद एवं विभिन्न राजनैतिक दलों की है जिन्होने संसद में सर्वसम्मति से ऐतिहासिक रूप से अन्ना के मुद्दो पर सहमति देकर स्वीकार कर जो ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित कर प्रधानमंत्री ने अन्ना को सेल्यूट किया। इसके बाद क्या हुआ? जब बिल पेश हुआ व उस पर विभिन्न राजनैतिक दलो ने जो विचार व्यक्त किये थे वे घोर अवसरवादी होते हुए दोहरे चरित्र के ही प्रतीक थे। बात अभिनेताओ की भी कर ली जाये वैसे वे डबलरोल में काम करने के अभ्यस्त है। (अनुपम खेर जैसे व्यक्तियों को छोड़ दिया जाए तो)
                  बात मीडिया की भी कर ली जावे। यदि वास्तव में इलेक्ट्रानिक मीडिया नहीं होता तो यह आंदोलन इतना प्रभावी नहीं दिखता। यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि आंदोलन का आव्हान पूरे देश में किया गया था। लेकिन भीड़ मात्र रामलीला मैदान या जंतर मंतर में दिखी क्यो? टीआरपी के चक्कर में मीडिया ने दोहरा आचरण दिखाया।
                  अंत में जनता की बात आती है जो स्वयं दोहरे चरित्र से ग्रसित है जो ही समस्या का मूल कारण है। जनता ने अन्ना टीम के आव्हान पर यह टोपी पहन मैं भी अन्ना तू भी अन्ना। क्या ये टोपी धारी (बाकी लोगो को तो छोड़ ही दिया जाये) इन 16 महीनो में ‘अन्ना’ बन जाने से भ्रष्टाचार से मुक्त हो गये है? बड़ा प्रश्न है?

अन्ना के आंदोलन का बहीखाताः क्या पाया! क्या खोया!

             जनता के सामने राजनैतिक विकल्प प्रस्तुत करने के इरादे के साथ अन्ना द्वारा सांय 5 बजे से अनशन समाप्ति की घोषणा पर मीडिया में यह सुर्खिया कि एक बड़े जन आंदोलन की मौत/ हत्या, हो गई छायी रही। वास्तव में उक्त आंदोलन के समाप्त होने के प्रभाव एवं परिणाम की विवेचना किया जाना इसलिए आवश्यक है कि यह भविष्य की देश की राजनीतिक दिशा को तय करने में एक महत्वपूर्ण कारक होगा।
             सर्वप्रथम यह बात तो अन्ना को मालूम ही होनी चाहिये जब वह तीसरी बार जनलोकपाल के साथ एक मुद्दे 15 मंत्रियों के विरूद्ध एटीएस की जांच करने की मांग को और जोड़कर आंदोलन पर बैठे तो उन्हे उस सरकार से कोई उम्मीद नहीं होनी चाहिए, करनी चाहिये जिससे पूर्व में लगातार उनकी बात असफल हो चुकी हो, बावजूद इस तथ्य के देश की संसद व प्रधानमंत्री ने उन्हे ऐतिहासिक सेल्यूट ठोका था। इस कारण से तीसरे स्टेज के इस अनशन का यह परिणाम तो लाजिमी ही था। अन्ना को ही इस बात का जवाब देना है कि वे इस स्थिति के बावजूद आशा लिये अनशन पर क्यों बैठे? लेकिन यदि हम इस जन-आंदोलन की 16 महीने की अवधि को संज्ञान मे ले तो यह मानना बड़ी भूल होगी कि इस आंदोलन की कोई उपलब्धि नहीं हुई। आइये आगे हम इस पर हम विचार करते है।
             सबसे बड़ी उपलब्धि तो इस आंदोलन की यही है कि यह स्वाधीनता के बाद राष्ट्रीय परिपेक्ष में पहला संगठन-विहीन जन-आंदोलन था, राजनैतिक आंदोलन नहीं। आसाम का ‘आसू (आल इंडिया स्टुडेंट यूनियन), का आंदोलन निश्चित रूप से एक गैर राजनैतिक सफल आंदोलन था जो बाद में राजनैतिक प्लेटफार्म में परिवर्तित हो गया। लेकिन यह देश का मात्र एक छोटे से प्रांत का आंदोलन था जो सिर्फ ‘आसाम’ के हितो व उद्वेश्य के लिए किया गया था। अतः उक्त जन-आंदोलन की तुलना इस राष्ट्रीय आंदोलन से नहीं की जा सकती है। 
             इस आंदोलन की प्रथम उपलब्धि यही है कि इसे एक राष्ट्रीय जन आंदोलन की मान्यता मिली यह कहना अतिश्योक्ति पूर्ण नहीं होगा। यदि जय प्रकाश नारायण के आंदोलन से इसकी तुलना की जाती है तो वह अनुचित है। जयप्रकाश नारायण का आंदोलन भ्रष्टाचार के विरूद्ध प्रथमतः ‘नवनिर्माण समिति गुजरात’ द्वारा प्रारंभ किया जाकर बिहार के छात्रो के शामिल होने के बाद जय प्रकाश नारायण के आव्हान के बाद समस्त गैर कांग्रेसी कम्यूनिष्ट राजनैतिक पार्टियो के भाग लेने के कारण वह आंदोलन जन आंदोलन न होकर जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में राजनैतिक पार्टियों के साथ समय के साथ-साथ आम आदमियों की भागीदारी होकर एक सम्पूर्ण क्रांति का आंदोलन बना था। जिसकी यह परिणाम हुआ कि आंदोलन में भाग लेने वाले समस्त राजनैतिक दल एवं गैर राजनैतिक व्यक्तित्वो का विलय जनता पार्टी निर्माण के रूप में हुआ जिसने तत्कालीन स्थापित राजनैतिक धरातल को जो सड़ गये लोकतंत्र का प्रतीक था को उखाड़ फेका था।
इस आंदोलन की दूसरी बड़ी उपलब्धि यह रही कि इसने भ्रष्टाचार के मुद्दो को आम मानस पटल तक पहुॅचाकर झकझोर दिया। वे नागरिक भी जो भ्रष्टाचार से लाभान्वित है उनके सुर भी भ्रष्टाचार के विरूद्ध उठने लगे। लेकिन यह आधी सफलता है क्योंकि इसके बावजूद वे समस्त नागरिक स्वयं भ्रष्टाचार से विरक्त नहीं हो पा रहे है।
             तीसरी बड़ी बात अन्ना के इस आंदोलन से उठती है वह यह कि आंदोलन समाप्त नही हुआ है लेकिन निश्चित ही आंदोलन का स्वरूप बदला है। अर्थात जन-आंदोलन राजनैतिक आंदोलन में बदला जा रहा है। (अन्ना एवं उनकी टीम आगे किस नाम से जाने जायेंगे यह अभी गर्भ मे है।) लोकपाल से आगे जाकर विभिन्न जन समस्याओं के लिए आंदोलन की आवश्यकता के कारण आंदोलन तो समाप्त नहीं होगा क्योकि समस्याएॅ समाप्त नहीं होगी। इस आंदोलन की एक ओर उपलब्धि से इंकार नहीं किया जा सकता वह यह कि मध्यम वर्ग जो मूक दर्शक बना रहता था प्रखर होकर घर व अपने कार्य से बाहर निकल कर आंदोलन में शामिल हुआ व स्व-प्रेरणा से आंदोलन को चलाने के लिये आर्थिक सहयोग भी प्रदान किया।
             बात जब बही-खाते की है तो जमा के साथ खर्च की भी चर्चा करना आवश्यक है। सबसे बड़ा नुकसान आंदोलन के अचानक समाप्त होने की घोषणा से जो हुआ है वह यह कि जनता की अपेक्षाए, विश्वास की हत्या नहीं तो मौत अवश्य हुई है। यदि प्राकृतिक मौत होती तो भी कोई दिक्कत नहीं थी। दूसरे इस आंदोलन ने समस्त लोगो के दोहरे चरित्र को उजागर किया है जिसका विस्तृत विवरण के लिए पृथक लेख की आवश्यकता होगी। तीसरा बड़ा नुकसान अन्ना की स्वयं की विश्वसनीयता पर एक हल्का सा प्रश्नवाचक चिन्ह भी लगा है जो लगातार राजनीति से दूर रहने की बात कहने के बाद उनका राजनैतिक विकल्प की शरण लेना है। यदि परिस्थितिवश व देशहित में यही एकमात्र विकल्प है तो यह उनकी मजबूरी, लाचारी को भी दर्शाता है। चौथा जो सबसे बड़ा खतरा भविष्य में बना रहेगा वह यह कि यदि यह आंदोलन दूसरे रूप में भी सफल नहीं हो पाया तो जो एक रिक्तता पैदा होगी वह स्थिति को ‘बद’ से ‘बदतर’ कर देगी।
             इसलिए अंत में ईश्वर से यही प्रार्थना की जा सकती है कि अन्ना जैसे व्यक्तित्व बार-बार पैदा नहीं होते है अतः जो कुछ अन्ना अभी हमारे बीच बचे है उनसे ही इस देश की वर्तमान ‘गति’ का उद्धार हो जाये अन्यथा भविष्य में शायद इतना भी संभव नहीं होगा।

बुधवार, 1 अगस्त 2012

आखिर न्यूज चैनल्स कब देश के प्रति कुछ जिम्मेदारी समझेंगे?


राजीव खण्डेलवाल: 
                           देश के सात राज्य ‘नार्थन ग्रिड’ के फेल हो जाने के कारण बिजली गुल हो जाने से अंधेरे में डूब गये, सरकार भी ‘अंधेरे’ में हैं। देश का मीडिया इन दोनो अंधेरे से जनता को उजाले में लाने का कुछ कार्य कर सकता था। वह भी राष्ट्र के प्रति अपने दायित्व निभाने में असफल होकर अंधकार को और अंधेरे की ओर बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो रहा है। जब न्यूज चैनल्स यह समाचार देते है कि ट्रेनों के एसी कोच में बिजली न होने के कारण यात्रियों का दम घुटे जा रहा है (सामान्य कोच के यात्रियों का खयाल नहीं आया?)। सरकार कुछ नहीं कर रही है। क्या सरकार को इस घटना के होने की पूर्व कल्पना थी? क्या न्यूज चैनल्स आरोप प्रत्यारोप के बजाय जनता को इस अचानक हुई बिजली गुल होने की दुर्घटना से निपटने के लिए कुछ सकारात्मक सुझाव नहीं दे सकते है? यह सही है कि सरकार के पास हर स्थिति से निपटने के लिए एक आपात योजना अवश्य होनी चाहिए। इसकी चर्चा न्यूज चैनल्स बाद में भी कर सकते है। लेकिन तुरंत तो उनका दायित्व है कि आशंका के बादलों को हटाकर स्थिति का सामना करने के लिये सकारात्मक जानकारी व सुझाव दें। आजकल न्यूज चैनल्स न्यूज परोसने का कार्य नहीं करते है, बल्कि उनका ब्रेकिंग न्यूज पर ज्यादा ध्यान रहता है। न्यूज जितनी ज्यादा ‘ब्रेक’ होगी उतना ही ज्यादा उनका न्यूज चैनल ‘तेज‘ ‘फास्ट’ कहलाएगा और उनकी टीआरपी भी उतनी ही बढ़ेगी, ऐसा न्यूज चैनलों का मानना होता है। टीआरपी की भी एक अलग कहानी है जिसका आधार भी वैज्ञानिक न होकर जन सामान्य को न समझने वाला आधार है जिसके पीछे न्यूज चैनल दौड़ते है। अधिकांश दर्शक वर्ग भी उस पर विश्वास करता है। 
                           आज सुबह से बिजली फेल हो जाने का समाचार जिस प्रकार न्यूज चैनल दे रहे है। उसमें कुछ भी नयापन नहीं है। नार्थन ग्रिड का फेल होना मेकेनिकल गड़बड़ी है जो न तो सरकार की साजिश है और न ही सरकार उक्त स्थिति के लिए तैयार थी। इसलिए उसके परिणाम का सामना करने के लिए भी सरकार का तुरंत कार्यवाही करने के लिए तैयार न होना लाजमी था। स्थिति का जायजा लेने के बाद ही शासन-प्रशासन कुछ निर्णय लेने की स्थिति में होते है, जिसमें कुछ समय लगना स्वाभाविक है। लेकिन न्यूज चैनल्स उस आवश्यक, न्यूनतम, सामान्य लगने वाले समय को भी शासन-प्रशासन को देने को तैयार नहीं होते है। घटना घटते ही तुरंत खबर चलती है ‘जनता परेशान है और सरकार के द्वारा अभी तक कुछ नहीं किया जा रहा है।’ न्यूज चैनलो के भोपू शासन और प्रशासन की तीव्र गति से आलोचना में लग जाते है। यदि कोई हत्या हो गई है तो उनका यह समाचार ‘अभी तक अपराधी पकड़े नहीं गये है।’ यदि कोई एक्सिडेंट हो जाए तो उनका यह कथन ‘घायलों को अभी तक अस्पताल नहीं पहुचाया गया।’ यदि ट्रेन दुर्घटना हो जाए तो उनका यह कथन ‘कि राहत कार्य अभी तक प्रारंभ नहीं हुआ।’ आसाम जैसे कोई छेड़छाड़ की सामुहिक घटना हो जाए तो ‘अभी तक मात्र एक ही अपराधी पकड़ा गया।’ ऐसे अनेक बहुत से उदाहरण दिये जा सकते है जहां न्यूज चैनल्स ‘अभी तक’ पर ही जोर देते है जिन पर नेताओं के आरोप-प्रत्यारोप बयान भी आने शुरू हो जाते है। ये न्यूज चैनल्स, संवाददाता और एंकरिंग करने वाले शासन और प्रशासन को स्थिति से निपटने के लिए थोड़ा भी समय देने को तत्पर नहीं होते है। क्योंकि वे तेज चैनल कहलाने की होड़ में शासन प्रशासन से भी उतनी ही तेजी की एक्शन की उम्मीद करते है। तुरंत एक्शन होना चाहिए इसकी उम्मीद भी की जानी चाहिए लेकिन एक्शन लेने के लिए आवश्यक सामान्य समय की भी कल्पना चैनल वालो को करके शासन-प्रशासन को देना चाहिए। किसी भी चैनल द्वारा कोई भी घटना दुर्घटना पर उनकी भी कोई सकारात्मक जिम्मेदारी होती है उस पर उन्होने कभी विचार ही नहीं किया। आसाम छेड़छाड़ के प्रकरण में जनता के बीच वीडियो जारी होने एवं अंततः लगभग समस्त अपराधियों के गिरफ्तार होने के बावजूद कोई भी चैनल का कोई भी संवाददाता उन पकड़े गये अपराधियों के मोहल्ले में जाकर उन अपराधियों के पड़ोसियों से इंटरव्यू नहीं लिया। उनसे यह नहीं पूछा कि इतने दिन से ये अपराधी आपके पड़ोस में रहते थे, घुमते-फिरते थे, क्या आपको मालूम नहीं था? आपने पुलिस में सूचना क्यूं नहीं दी? ऐसा करके वे उन नागरिकों को भी अपनी जिम्मेदारी से विमुख होने की गलती का अहसास करा सकते थे। पत्रकारिता में खोजी पत्रकारिता महत्वपूर्ण होती है। इलेक्ट्रानिक चैनल स्टिंग आपरेशन के जरियें यह करते है। लेकिन ये स्टिंग ऑपरेशन भी ब्लेकमैल और कमाई के साधन बन जाते है। इस संबंध में यह आमचर्चा का विषय है कि संबंधित चैनल के स्वार्थ की पूर्ति हो जाये तो स्टिंग सिक्र्रेट बन जाता है अन्यथा वह ब्रेकिंग न्यूज बन जाता है। न्यूज चैनल्स सामान्य रूप से घटना और दुर्घटना के कारणों का पता लगाने का प्रयास क्यों नहीं करते है? जनता, शासन और प्रशासन प्रत्येक के उत्तरदायित्व को बोध कराने का प्रयास सकारात्मक रूप से क्यूं नहीं करते है? यह प्रश्न अक्सर कौंधता है। लोकतंत्र में मीडिया की बहुत ही प्रभावशाली और महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वह स्वयं भी यह बहुत अच्छी तरह जानता है। यदि मीडिया सकारात्मक नहीं है, तो वह निश्चिंत ही देश के विकास के आड़े आएगी। इसलिए मीडिया को सनसनीखेज घटनाओं को दिखाने के साथ अपनी सकारात्मकता भी सिद्ध करना चाहिए ताकि न केवल उनकी विश्वसनीयता, स्वीकारिता बनी रहे बल्कि वे समाज में चाहे वह राजनैतिक हो, सामाजिक हो, धार्मिक हो या अन्य कोई क्षेत्र हो अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वाह कर सके, जिसकी जनता उनसे अपेक्षा करती है और यही उनका देश के प्रति कर्तव्य भी है। 
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

15 संसद सदस्यों 49 विधायको के अयोग्य मत लोकतंत्र पर कलंक!



                         अभी हाल ही में सम्पन्न हुए 13 वे राष्ट्रपति चुनाव में प्रणव मुखर्जी आशा के अनुरूप ही नहीं बल्कि उससे भी अधिक वोट प्राप्त कर जीतने में सफल हुए। उनके प्रतिद्वद्वी पी.ए. संगमा जो अपनी जीत हेतु किसी चमत्कार की उम्मीद रख रहे थे, वह नहीं हो पाया। लेकिन एक दुर्भाग्यपूर्ण चमत्कार अवश्य इस चुनाव में देखने को मिला वह यह कि ‘इलेक्ट्राल कॉलेज’ के पंद्रह आदरणीय, माननीय, सम्माननीय सांसद सदस्य एवं 49 विधायकों के वोट अवैध घोषित किये गये। देश में गणतंत्र स्थापित हुए 62 वर्ष हो गये और प्रथम आम चुनाव 1952 में हुआ था। प्रथम राष्ट्रपति का चुनाव 2 मई 1952 को हुआ तब से लेकर आज तक दोनों सदनों संसद व विधानसभा के सदस्यगण (सांसद व विधायकगण) राष्ट्रपति के ‘इलेक्ट्राल कॉलेज’ के सदस्य होकर मतदान करते चले आये है। 
                         60 वर्ष से अधिक समय व्यतीत हो चुका है यदि इसके बावजूद इस देश के लाखों नागरिकों के ‘वैध’ वोट पाकर चुने हुए जनप्रतिनिधि अभी तक अपना ‘एक’ ‘वैध’ ‘मत’ देने की तमीज नहीं सीख पाए है तो क्या उन्हे अपने गरिमामय पद पर बने रहने का नैतिक अधिकार है? उपरोक्त स्थिति को देखते हुए निश्चित ही उनका यह कानूनी अधिकार भी संविधान में आवश्यक संशोधन कर समाप्त किया जाना चाहिए। यह उन असंख्य मतदाताओं का भी अपमान है जिन्होने चुनकर इन संसद सदस्यों को भेजा। इसमें तो कुछ संसद सदस्य तो ऐसे भी है जिन्होने पहली बार राष्ट्रपति चुनाव में अपने मत का प्रयोग किया हो ऐसा नहीं है। लाखो ’वैध’ मत प्राप्त करने वाले व्यक्ति को अपना स्वयं का मत सही प्रदत्त करने की अक्ल नहीं है तो यह लोकतंत्र का उपहास ही कहा जाएगा। संसद जब ऐसे लोगो से युक्त होती है तभी अन्ना टीम और बाबा रामदेव को यह कहने का साहस एवं नैतिक अधिकार मिलता है कि ‘यह कैसी संसद’? जहां एक सौ पैसठ से भी अधिक अपराधी प्रवृत्ति के लोग है जिनके खिलाफ विभिन्न न्यायालयों में मुकदमें चल रहे है। जिन पंद्रह सदस्यों के मत सही रूप में उपयोग नहीं किये जाने के कारण अवैध घोषित हुए उनके कारण टीम अन्ना को वर्तमान संसद पर पुनः उंगली उठाने का अवसर मिलेगा। अतः पूर्व में संसद के बाबद उन्होने जो बात कही थी वह वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए गलत नहीं कही जा सकती है। 
                         अतः एक बार जनप्रतिनिधि को चुनकर हमें आंख मूंदकर नहीं बैठ जाना चाहिए और न ही जनप्रतिनिधियों को निर्बाध रूप से निरंतर अपने विशेषाधिकारों का उपयोग करने का अधिकार होना चाहिए। उन पर निश्चत ही कुछ प्रतिबंध आवश्यक रूप से होने चाहिए कि यदि वे अपने अधिकार का प्रयोग जनता के हितो के विपरीत करे, या अपने अधिकारो का उपयोग करने में अक्षम हो तो उनके विशेषाधिकार समाप्त हो जाने चाहिए। अन्ना टीम की मंशा भी शायद यही है। 15 सांसदों की उपरोक्त विफलता केवल देश के लोकतंत्र के लिए ही शर्मनाक घटना नहीं है, बल्कि इससे विदेशों में भी राष्ट्र का सिर नीचा हो जाता है।
                         यह विडम्बना ही है कि 60 वर्ष के परिपक्व होते लोकतंत्र में हम ऐसे प्रतिनिधि नहीं चुन पाए जिन्हे खुद के मताधिकार का सही प्रयोग नहीं आता है। यह तो देश का सौभाग्य है कि इस तरह के मताधिकार प्रयोग करने के अवसर सांसदो को राष्ट्रपति चुनाव के अलावा शायद ही है। अन्यथा ऐसे सांसदो के बल पर तो देश के लोकतंत्र का गुड़-गोबर होना निश्चित है। संसद के अधिवेशन में विधेयक को पारित करते समय इलेक्ट्रानिक बटन से ‘हां’ या ‘ना’ दबाकर मत देना होता है, जहां सांसदों को अपने ‘दिमाग’ का प्रयोग शायद ही करना होता है। संसद सदस्य, विधायको के मत अवैध घोषित होने का कारण उनका अनपढ़ होना नहीं है! क्योंकि वे बाकी की अन्य सारी ‘कलाओं’, भ्रष्टाचार से लेकर.........! में काफी निपुण होने के कारण पढ़े लिखे नजर आते है। यह स्थिति निश्चय ही इन अयोग्य राजनीतिज्ञो को ‘वैध’ मत देकर जनप्रतिनिधि बनाने वाली जनता के लिए चिंतनीय है।

क्या भारतीय क्रिकेट बोर्ड को भंग करने का समय नहीं आ गया है?


                  भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट दौरे की स्वीकृति देकर क्रिकेट बोर्ड ने पुनः अपनी निरंकुश स्वेच्छा चारिता का परिचय दिया है। भारतीय क्रिकेट बोर्ड न केवल देश के समस्त खेल संगठनों में आर्थिक रूप में मजबूत संगठन है बल्कि विश्व के भी गिने चुने अमीर खेल संगठनों में उसकी गिनती होती है। किसी भी खेल के सुविरचित विकास के लिए यह आवश्यक है कि उसका खेल संगठन स्वायत्ताती हो और उस खेल के विशेषज्ञ लोगों से वह परिपूर्ण हो। दुर्भाग्यवश भारत का क्रिकेट बोर्ड स्वायत्त होने के बावजदू क्रिकेट विशेषज्ञो से परिपूर्ण नहीं है जिसके अध्यक्ष और शक्तिशाली पदाधिकारी अधिकांश रूप से राजनेता या उद्योगपति रहे है। 
क्रिकेट भारत का एक लोकप्रिय खेल है। यद्यपि विदेशी खेल है लेकिन इसी खेल पर बनी फिल्म ‘लगान’ में जब आमीर खान की टीम ब्रिटिस टीम को हराती है तो हमें एक आत्मिक संतोष मिला था। लेकिन वही क्रिकेट के माध्यम से जब हम पास्तिान से संबंध सामान्य, शांती से करना चाहते है जो हमारा एक स्थाई पड़ोसी शत्रु देश (पड़ोसी होना हमारे हाथ में नहीं है।) से हमारा न केवल दो बार युद्ध हो चुका है बल्कि लगातार वह हमारा देश में हो रही आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त भी रहा है मुम्बई बम आतंकवादी कार्यवाही जैसे कर उसने जन मानस के दिल को झकझोर दिया थे। इस कारण से हमारी सरकार और बोर्ड ने तत्समय क्रिकेट टीम के दौरे पर दोनो देशो के बीच प्रतिबंध लगा दिया था। जिन कारणों से इस देश की सरकार और क्रिकेट बोर्ड ने प्रतिबंध लगाया था और आज जब प्रतिबंध खोला है तो दोनों की यह सामूहिक जिम्मेदारी है कि वे जनता के बीच एक स्वेत पत्र जारी करें कि क्या वे कारण दूर हो गये है या उनको यह भरोसा दिलाया गया है कि वे कारण दूर हो जाएंगे या प्रतिबंध के समय जो तत्कालीन आरोप थे वे गलत थे ऐसा उन्हे आज एहसास हुआ है। तभी उनकी यह कार्यवाही सही कहीं जाएगी अन्यथा बालासाहेब ठाकरे ने ‘सामना‘ में जो विचार यद्यपि असंयमित शब्दों में कहा है वही भावना जो पूरे देश की है को ही व्यक्त किया है। 
                  एक आम भारतीय के जेहान में यह प्रश्न कौंधता है कि क्या क्रिकेट बोर्ड देशभावना से ऊपर हो गया है? क्या मार्केटिंग के दौर में क्रिकेट का व्यापार ही क्रिकेट बोर्ड की प्राथमिकता हो गई है? क्या करोड़ो रूपये कमाकर, अमीर बोर्ड कहलाना ही बोर्ड का एकमात्र उद्वेश्य रह गया है? यदि ऐसी स्थिति वास्तव में बन रही है तो क्या यह समय नहीं आ गया है कि ऐसे क्रिकेट बोर्ड को तुरंत भंग कर दिया जाए। लेकिन प्रश्न फिर यही उठता है कि इस क्रिकेट बोर्ड को भंग कौन करेगा? क्योंकि जिस    आधार पर क्रिकेट बोर्ड को भंग करने के विचार हमारे मन में आते है वही आधार और वही विचार केंद्रीय सरकार के प्रति भी आते है जो ही इस क्रिकेट बोर्ड को भंग कर सकती हैं। तो क्या हमारी यह भावना केंद्रीय सरकार को भंग करने की मानसिकता की ओर जा सकती है? यह बात समय के गर्भ में है। 

शनिवार, 7 जुलाई 2012

भारत-पाक विदेश मंत्रियों की बातचीत! टेबल पर? युद्धभूमिं पर?



राजीव खण्डेलवाल:
                   भारत और पाकिस्तान के बीच आज विदेश मंत्री के स्तर पर आज अंतिम दौर की बातचीत हो रही है। दोनो देशो के बीच बातचीत कोई नई बात नहीं है, न ही बातचीत में कोई नई बात है और न ही कोई नया परिणाम निकलने वाला है। हाल ही में 26/11 का मास्टर माईंड अबु जिन्दाल उर्फ अबु हमजा उर्फ जबीउद्दीन अंसारी को सउदी अरब से प्रत्यार्पण कर भारत लाया गया है। उसने जो जानकारी दी है उसके बाद राजनैतिक स्तर पर विदेश मंत्रियों के बीच बातचीत होना भारत का बड़प्पन ही कहा जाएगा जबकि पूर्व में ही भारत ‘डोजियर’ के रूप में समस्त दस्तावेज पाकिस्तान को दे चुका है जिसमें न केवल दाउद इब्राहिम के विरूद्ध मुम्बई बम कांड में लिप्त होने के दस्तावेजी साक्ष्य है बल्कि इस बात के भी पुख्ता सबूत दिये गये है कि वह कराची में ही विद्यमान है। अबु जिन्दाल के बयान से यह स्पष्ट हो गया है कि 26/11 के मुम्बई बम कांड जो स्वतंत्रता के बाद शायद भारत पर सबसे बड़ा आतंकवादी हमला था, में न केवल आईएसआई की मुख्य भूंमिका थी बल्कि पाकिस्तान सरकार की भी सहायता उक्त बम कांड योजना में थी। अमेरिका ने 09/11 के हुए हमले के लिए जिम्मेदार ओसामा बिन लादेन को पकड़ने में अपनी सारी शक्ति झोंक दी और बिना अंतर्राष्टीय कानून का पालन किए बिना संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद की स्वीकृति लिए बिना, पाकिस्तान सरकार की बगैर किसी स्वीकृति या जानकारी के पाकिस्तानी क्षेत्रों में लगातार ड्रोन हमले किये और अघोषित आक्रमण के रूप में आब्टाबाद शहर पर अपने स्पेशल शील कमाण्डों भेजकर लादेन को जिन्दा पकड़ने के बजाय उसको न केवल मृत्यू के घाट उतार दिया बल्कि उसका अंतिम क्रियाकर्म भी कर उसके नामो निशान को समाप्त करने का सफल प्रयास किया। 
                   भारत को शहीदे आजम भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद का देश कहा जाता है। ऐसे देश का वर्तमान नेतृत्व अपने आन बान की सुरक्षा के लिए अमेरिका समान हिम्मत क्यों नहीं बटोर पा रहा है यह समझ से परे है? यह प्रश्न न केवल कौंध रहा है बल्कि देश के नवयुवकों का सर यह सोचकर शर्म से नीचे झुक जाता है। क्या हमारे देश में वह मारक क्षमता नहीं है कि हम पाकिस्तान को इस मुद्दे पर अमेरिका के समान नेस्तनाबुत कर सके या हमारे देश के नेतृत्व में वह विचार शक्ति ही नहीं है। देश की सैनिक क्षमता में यदि कोई कमी है तो हमारा नेतृत्व उक्त कमी की पूर्ति क्यों नहीं कर रहा है? उसमें क्या कठिनाई आ रही है उसे देश के नागरिको को बताया जाना चाहिए व इस संबंध में स्वेतपत्र (जानकारी) लाया जाना चाहिए। यदि वास्तव में देश की सुरक्षा व्यवस्था, मारक व्यवस्था सुदृढ़ है और सिर्फ राजनैतिक नेतृत्व में ही कमी है तो यह नेतृत्व देश की आन-बान और शान को बचाये रखने के लिए क्यों नहीं तुरंत हट जाता है? जनता स्वयं उसे क्यूं नहीं हटा देती? यह प्रश्न हर भारतीय के दिलो-दिमाग में कौंध रहा हैं। खासकर दिमाग की नसे तब फटने लगती है जब-जब भारत पाकिस्तान से युद्ध के मैदान में बातचीत न कर टेबल पर बातचीत करता है और दूसरी ओर पाकिस्तान लगातार आतंकवादियों व आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देता है। कम से कम इस देश का जोशीला जवान खून तो दुर्बल भारत का अंश नहीं बनना चाहता है। यदि भारत सरकार दाउद इब्राहिम जो मुम्बई बम कांड का मुख्य आरोपी है एवं कराची में रहता है, उस पर हमला कर उसे भारत नहीं लाना चाहती है, तो क्यों नहीं मानव बम के रूप में मैं और मेरे जैसे विचारों वाले कई लोग राष्ट्र में है जिन्हे सरकार राष्ट्रहित में कराची में दाउद के घर पर क्यों नहीं उतार देती? ताकि दाउद का नामोंनिशान इस दुनिया से मिट सके और मुझे भी असीम शांति की चिर स्थायी नींद मिल सके। 
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

रविवार, 24 जून 2012

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 की धारा 6 में संशोधन से उत्पन्न खतरे!


               आज जब मैं एक क्लाइंट की अचल सम्पत्ति की समस्या के संबंध में हिन्दू सक्सेशन एक्ट का अध्ययन कर रहा था तब यह महसूस हुआ कि उक्त धारा में जो संशोधन किया गया है उसके दूरगामी प्रभाव क्या हो सकते है। जब मैं अपने सहयोगी वकील के साथ इस सम्बंध में चर्चा कर रहा था तो उनका यह वाक्य क्या आप हिन्दू है? हिन्दुत्व पार्टी को बिलंाग करते है और इस इश्यू पर आप लोगो ने कोई स्टैण्ड नहीं लिया। इस एक वाकये ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। आईये पहले हम उक्तानुसार उक्त संशोधन के प्रभाव के परिणाम का आकलन करे तभी हम उसकी सही विवेचना कर सकते है।  
               धारा 6 में किये संशोधन के बाद और उच्चतम न्यायालय के इस सम्बंध में हुए निर्णय से यह स्थिति स्पष्ट हो गयी है कि अभिभावक द्वारा छोड़ी गई अचल सम्पत्ति पर लड़के व लड़कियां दोनो वैध उत्तराधिकारी होकर बराबरी के उत्तराधिकारी है। पुरूष व महिला में कोई विभेद नहीं किया जाना चाहिए व महिलाओं व पुरूष के बराबर अधिकार प्राप्त है यह कानूनी मान्यता है लेकिन सामाजिक मान्यता भी होनी चाहिए। इसीलिए वर्तमान में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की बराबरी की भागीदारी के लिए सरकारी व गैरसरकारी स्तर पर तेजी से प्रयास किये जा रहे जिनके परिणाम भी आ रहे है। लेकिन इसके क्या दुष्परिणाम होने की संभावना है उपरोक्त संशोधन सें उत्पन्न स्थिति के प्रभाव के साथ इसे देखना व विवेचना करना आवश्यक है। मूलतः महिलाओं के बराबर के अधिकार की स्थिति कोई गलत नहीं है। लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब हम अपने समाज में गठित पारिवारिक स्थिति की ओर देखते है। 
               सामान्य रूप से हमारी सामाजिक प्रणाली में यह चलन सदियों से चला आ रहा है कि सम्पत्ति पर पिता की मृत्यू के बाद उनके जितने पुत्र उत्तराधिकारी होते है उनका नाम राजस्व रिकार्ड में चढ़ाये जाते है व उनको बराबरी का हिस्सा मिलता है। जिस कारण लड़कियों का हिस्सा भी लड़को को मिल जाता है। जो लड़कियां अविवाहित होती है उनका नाम भी सामान्यतः राजस्व रिकार्ड में नहीं चढ़ता है। यदि चढ़ता भी है तो वास्तविक अर्थ में वे हिस्सेदार होती नहीं है और न ही उनमें अपने हिस्से लेने की कोई भावना उत्पन्न होती है। लड़कियों की शादी होने के बाद भी उनका हिस्सा कानून के अनुसार तो बना रहता है लेकिन वे भी सामान्य रूप से अपने उस अधिकार का कभी उपयोग नहीं करती है और वास्तविक धरातल में वे अपना अधिकार छोड़ देती है या वह छोड़ा हुआ सरीका ही होता है क्योंकि वे अपने जीवन में इस अधिकार का उपयोग शायद ही कभी करती हो। यह स्थिति पूर्व में जब लड़कियों में पढ़ाई का प्रतिशत कम था परिवार रूढ़ीवादी परिस्थितियों से ग्रस्त होने के कारण विद्यमान थी। लेकिन धीरे-धीरे आज शिक्षा के कारण महिलाओ की प्रत्येक कार्य में बराबरी की भागीदारी का अभियान चलाने के कारण महिलाएं भी घर से बाहर निकलने लगी, नौकरी, सामाजिक कार्य में योगदान इत्यादि माध्यम से सार्वजनिक रूप से कार्य करने आगे आ रही है। तब भी हमारी जो पारिवारिक संरचना है उसमें सामान्य रूप से आज भी पढ़ी लिखी लड़कियां भी सम्पत्ति में अपने अधिकार का उपयोग प्रायः नहीं करती है। चुंकि आज कानून में स्पष्ट रूप से उक्त अधिकारो की यह उत्तराधिकारी की व्यवस्था की गई है इसलिए इसके दुरूपयोग होने की सम्भावनाएं भी बढ़ती जा रही है। महिलाओं को जो विशेषाधिकार दिये जा रहे है उसके दुष्परिणाम में ही अब हमाने सामने आने लगे है। आज हम समाचार पत्रों के या अपने आसपास कई बार देखते है कि महिलाएं बलातकार, छेड़छाड़, मोलेसाटी आदि यौन अपराध मामले में उनके दिये विशेषाधिकार का दुरूपयोग या तो अपने आत्मा सुरक्षा के लिए (सहमति होते हुए पकड़े जाने पर) या ब्लेकमेलिंग के लिये करने लगी है। हाल मे ही बैतूल में चर्चित एक प्रकरण इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
               सामान्य स्थिति में जब सम्पत्ति का बटवारा होता है उसी समय लड़के और लड़कियों में बराबर बटवारा किया जाए तो उसमें कोई समस्या नहीं है। लेकिन आज भी वर्तमान परिस्थितयों में सामान्य रूप से लड़कियों को हिस्सा नहीं दिया जाता है और खासकर शादी शुदा महिलाओं को तो दिया ही नहीं जाता है। लेकिन ससुराल में लड़कियों जाने के पश्चात ससुराल पक्ष के बनते बिगड़ते रिस्तों के कारण लड़कियां (एवं उनके उत्तराधिकारी) अपने पति एवं ससुराल पक्ष के दबाव के बाद 10-20-50 या इस से भी अधिक साल बाद भी आपने उक्त वास्तविक सम्पत्ति के अधिकार की मांग कर सकती है। तब उन वैध उत्तराधिकारी लड़को को जिन्हे संम्पत्ति उस समय मिली थी उसमें से उनको हिस्सा देने में दिक्कते पैदा हो सकती है। चुंकि उस समय उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत हो यह जरूरी नहीं होता है। इसलिए इस स्थिति मं सुधार लाने के लिये यह आवश्यक है कि जब लड़कियों की शादी हो जाती है तब उन्हे सम्पत्ति के अधिकार से वंचित किया जाना चाहिए। यदि शादी के कारण वे एक अधिकार से वंचित हो रही होती है तो दूसरी तरफ शादी के कारण वे अपने पति की सम्पत्ति की अधिकारी भी हो जाती है। अंतर सिर्फ इतना है कि उन्हे यह अधिकार पति की मृत्यु के बाद ही प्राप्त हो सकता है। यदि खानदानी सम्पत्ति पति को उत्तराधिकार में प्राप्त हुई है तो उस सम्पत्ति पर पत्नि को शादी के दिन से ही अधिकार प्राप्त हो जाता है। वैसे भी एक अभिभावक लड़की की शादी के समय दहेज के रूप में लड़के के अधिकार का अतिक्रमण करते हुए लड़की के सम्पत्ति के वैधानिक हिस्से से ज्यादा ही सामाजिक सुरक्षा एवं प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुये देता है। इस तरह सामान्यतः वह अपने दायित्व का पूर्ण करना भी महसूस करता है। विकल्प में यदि उक्त सुरक्षा तकनीति रूप से उचित नहीं लगता है तब इसके लिये एक समय सीमा का प्रावधान अवश्य किया जाना चाहिए ताकि उक्त समय सीमा के बाद सम्पत्ति के वैध पुरूष प्रतिनिधी पर तलवार न लटकती रहे और वे निश्चिंतता का जीवन जी सके अन्यथा सम्पत्ति पिता की मृत्यू के बाद उनके वैध वारिस जिन्हे सम्पत्ति प्राप्त होती है न केवल उन पर बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी तलवार लटकती रहेगी क्योंकि जब तक महिला उत्तराधिकारी अपने अधिकार को छोड़ नहीं देती है तब तक यह स्थिति बनी रहेगी। इससे सबसे बड़ी आशंका जो होगी वह परिवार टूटने की होगी, पारिवारिक झगड़े बढ़ेंगे। परिवार के बीच जो परस्पर समरसता बनी हुई है इसके भी नष्ट होने की सम्भावना बनी रहेगी।
               यदि इस स्थिति में हमने गंभीरता से विचार नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब इसके दुष्परिणाम इस सीमा तक हो सकते है कि हमें पुरूषो की सुरक्षा के लिए वहीं अभियान  चलाना पड़ेगा जो वर्तमान में महिलाओं के लिए किया जा रहा है अतः प्रकृति का यह साफ संदेश है, संतुलन बराबर बना रखे।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है

बुधवार, 20 जून 2012

अंतरात्मा की आवाज! नई पहचान



Photo: http://janoktidesk.blogspot.in/

राजीव खण्डेलवाल:-
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने अंततः अंतरात्मा की आवाज पर देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद राष्ट्रपति का दोबारा चुनाव लड़ने से मना कर दिया। इस प्रकार अंतरात्मा की आवाज की यह नई पहचान है। आपका याद होगा वर्ष 1969 में तत्कालीन     प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी ने कांग्रेस जिसे तत्समय ‘सिंडिकेट’ के नाम से जाना जाता था के अधिकृत उम्मीदवार डॉ. नीलम संजीव रेड्डी के विरूद्ध डॉ. वेंकट वराह गिरी को चुनाव में अंतरात्मा की आवाज पर उतारकर इलेक्ट्राल कॉलेज से जिताने की अपील की थी तब वेंकट गिरी को इलेक्ट्रोल कॉलेज के सदस्यों ने इस अंतरात्मा की अपील को स्वीकार कर उन्हे राष्ट्रपति के पद पर जिताकर निर्वाचित किया था। यह प्रथम अवसर था जब अंतरात्मा की आवाज का देशव्यापी व्यापक असर व प्रभाव दिखा। इसके बाद जब भी कोई अधिकारिक उम्मीदवार का विरोध करना होता है तब उसी पार्टी के लोग अंतरात्मा की आवाज पर उसका विरोध कर विरोधी उम्मीदवार को वोट देने की अपील करते है। अर्थात पूर्व में अंतरात्मा की आवाज का उपयोग चुनाव लड़ने के लिए या वोट डालने की अपील के लिये किया जाता था। अतः अंतरात्मा का अर्थ अधिकारिक स्थिति का सक्रिय विरोध। इसके पूर्व किसी भी व्यक्ति दल या दल ने अंतरात्मा की आवाज की शक्ति का उपयोग कर चुनाव लड़ने ने इंकार नहीं किया। जैसा कि डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने इस आधार पर चुनाव लड़ने से इंकार किया है जो इस दृष्टिकोण से प्रथम होने के कारण ऐतिहासिक है।
डॉ. कलाम एक निर्विवादित योग्य एवं आम जनता के निकट के व्यक्ति थे इसलिए डॉ. कलाम का चुनाव पूर्व में निर्विरोध हुआ था। ममता बनर्जी द्वारा उनसे राष्ट्रपति का चुनाव पुनः लड़ने के मुद्दे पर बात करने के बाद मुलायम सिंह यादव से बात के बाद उनकी उम्मीदवारी की घोषणा ममता-मुलायम द्वारा की गई। बावजूद, पूर्व राष्ट्रपति को वह समर्थन नहीं मिला जिसके वे अधिकारी थे। शायद उसका कारण ‘राजनीति’ ही थी। कुछ पार्टी सैद्धांतिक रूप से एक बार चुने गये व्यक्ति को दोबारा राष्ट्रपति बनाने के पक्ष में नहीं थी।  इसमें इस आशंका को बल मिलता है कि वास्तव में डॉ. कलाम ने ममता बेनर्जी को अपनी उम्मीदवारी की सहमति दी थी और यदि नहीं दी तो तत्काल उनके द्वारा मुलायम सिंह की प्रेस कांफ्रेस की धोषणा का खंडन क्यो नहीं किया गया सिवाय इस कथन के कि वे सही समय पर सही निर्णय लेंगे। इसके बावजूद डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी ओर से कोई इच्छा व्यक्त नहीं की थी। कुछ लोग यह कह सकते है अंतरात्मा की आवाज को सुनकर मना करने के बजाय उत्पन्न परिस्थ्तियों का अंकगणित उनके विरूद्ध होने के कारण डॉ. कलाम ने चुनाव लड़ने से इंकार किया क्योंकि उनके द्वारा प्रथम उपलब्ध अवसर पर उक्त बयान जारी नहीं किया गया।
इसलिए उन लोगो को जिन्होने प्रारंभ में कलाम जैसे व्यक्ति को चुनाव में उतारने की बात कही उनसे सहमति लिये बिना व उनको चुनने वाले इल्लोक्ट्रोल कॉलेज के समर्थन की संभावनाओं का सही आकलन किये बिना उनके नाम की घोषणा कर अनावश्यक रूप से अपने राजनैतिक हित के लिए उन्हे विवादित बना दिया।
अतः भविष्य में इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए लाभ हानि के  दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर राष्ट्रीय व्यक्तित्व को विवादित कर गोटियॉं चलाना न केवल एक राष्ट्रीय अपराध है बल्कि स्वस्थ राजनीति के विपरीत भी है।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

शनिवार, 16 जून 2012

‘प्रणव दा’ की उम्मीदवारी! आम सहमति की भावना को बढ़ाने का एक अवसर?


Photo: ibtimes.co.in

‘प्रणव दा‘ के नाम का देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद राष्ट्रपति के लिए यूपीए उम्मीदवार के रूप में घोषणा के साथ ही जिस तरह से राजनैतिक और पत्रकार जगत में जो समर्थन आ रहा है, उससे आम सहमति का एक नया वातावरण बनता हुआ दिख रहा है जो वर्तमान क्लिष्ट राजनैतिक वातावरण को देखते हुए एक सुखद स्थिति का घोतक है। यह स्थिति क्या इस बात के लिए प्रेरित नहीं करती है कि देश के राजनैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक लोग इस बात पर गहनता से विचार करे कि देशहित की विभिन्न समस्याओं को सुलझाने के लिए अपने-अपने दृष्टिकोंण को छोड़कर क्या उनपर आम सहमति से विचार कर कार्य नहीं किया जा सकता है? यह एक गम्भीर मुद्दा है जिसे आज की उत्पन्न इस परिस्थिति ने हमें सोचने पर मजबूर किया है। ‘प्रणव दा‘ की जीत निश्चित है आम सहमति का दायरा यदि और आगे बढ़ा तो वे निर्विरोध भी निर्वाचित हो सकते है। लेकिन यह आम सहमति का जो मुद्दा परिस्थितिवश उत्पन्न हो रहा है उसका उद्देश्य क्या मात्र ‘प्रणव दा’ को देश के शीर्ष पद पर पहुंचाना ही है? या इसका उपयोग हम देश के व्यापक हित में कर सकते है। जिस प्रकार प्रणव दा की मात्र एक ‘गुण’ उनकी योग्यता (क्वालिफिकेशन) राजनैतिक सार्वजनिक स्वीकारिता ने उन्हे उक्त सर्वोच्च पद पर नियुक्ति के लिए आम सहमति के निकट ला दिया है। क्या इन उत्पन्न परिस्थितियों का लाभ अन्य समस्याओं पर भी राजनैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में काम करने वाले लोग राष्ट्रहित में आम सहमति नहीं बना सकते है, प्रश्न यह है। 

यदि वास्तव में आज उत्पन्न हुई परिस्थितियों को व्यापक दृष्टिकोण में देखा जाए और राष्ट्रहित में देश के विभिन्न क्षेत्रों मेें काम करने वाले व्यक्ति देश के विभिन्न मुद्दो पर आम सहमति गढ़े, बनाये, पालन करे, करवाये तो निश्चित रूप से वे आम सहमति के माध्यम से देश के आम नागरिको के जीवन स्तर को सुधारने में सहायक सिद्ध होंगे। इसलिए यह आम सहमति की आशा जो देश के सर्वोच्च पद के लिए उत्पन्न हो रही है इसे सिर्फ वही तक नहीं छोडे़ बल्कि उसे उक्त सर्वोच्च पद से एकदम विपरीत नीचे की ओर मोड़ कर देश के निम्नतम निर्धन वर्ग के उत्थान के लिए आम सहमति बनाने की दिशा में प्रयास करेंगे तो देश खुशहाल हो जाएगा। इतना तो कम से कम हो ही जाएगा की अनावश्यक मुद्दो पर बहस में जो हमारी शक्ति खर्च होती है उस शक्ति को हम बचा पाएंगे जिसका उपयोग देश के विकास में कर पाएंगे। 
नियती का खेल देखिए ‘प्रणव दा’ जिनका इस देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचना लगभग तय हो गया हैं। उन्होंने पूर्व में देश के वित्तमंत्री के पद पर आसीन रहकर वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को आरबीआई के गवर्नर पद पर नियुक्त किया था। इस प्रकार वे एक नौकरशाह (वर्तमान प्रधानमंत्री) के मंत्री के रूप में बॉस थे। नियति ने पलटी खाई और डॉ. मनमोहन सिंह वित्तमंत्री के रूप में प्रणव मुखर्जी के साथ एक सहयोगी मंत्री के रूप में काम करने लगे। नियति ने एक और पलटी खाई डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के रूप में चुने गये और प्रणव मुखर्जी वित्त मंत्री के रूप में उनके अधीन कार्य करने लगे। और अब नियति ने पुनः पलटी खाई और अब वे राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अपनी सर्वोच्चता पुनः स्थापित करेंगे और डॉ. मनमोहन सिंह उनके अधीन कार्य करेंगे। नियति का यह खेल देशहित में आम सहमति के मुद्दे पर भी संभव है, बशर्ते दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी न हो।
‘प्रणव दा’ को ढेरो ‘शुभकामनाएं’ इस भावना के साथ कि जिस तरह वह आम सहमति की सीढ़ी पर चढ़कर देश के सर्वोच्च पद पर सुशोभित होना चाहते है वे राष्ट्रपति के रूप में आम सहमति का रूख अख्तियार कर अपनी संवैधानिक सीमा में रहते हुए देश के ‘आम’ आदमी को ‘खास’ बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देंगे इस संदेश के साथ कि देश का राष्ट्रपति सिर्फ रबर स्टॉम्प नहीं है जैसा कि जुमला लोगो के मुह में अक्सर आ जाता है?
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

बुधवार, 13 जून 2012

‘‘ब्लेक-ब्लॉक्ड मनी बिकॅम्स करप्ट मनी‘‘?

‘कालाधन’ और ‘भ्रष्टाचार’ दो ऐसे शब्द है जिनका उपयोग देश के राजनीतिक लोग परस्पर एक दूसरे पर आरोप लगाते समय एवं गैर राजनीतिक लोग भी विभिन्न फोरमों में चर्चा के दौरान धड़ल्ले से करते है। बाबा रामदेव ने फिर हुंकार भरी है कि देश के बाहर जमा कालाधन वापस देश में लाकर देश को खुशहाल बनाएंगे। बार-बार लगातार प्रभावी आंदोलन करने के बावजूद इस दिशा में उन्हे कुछ खास सफलता नही मिल सकी है। इससे भी बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या कालाधन वापिस आ जाने पर देश खुशहाल हो जायेगा व क्या जन लोकपाल कानून बनने पर भ्रष्टाचार समाप्त हो जावेगा। सिर्फ अनशन पर बैठना, रैली करना, आंदोलन करना और आरोप प्रत्यारोप लगना तथा भ्रष्टाचार विरोधी कानून बनाने से न तो इस देश मेें भ्रष्टाचार कम हुआ है न ही आगे कम होगा। इससे एक वातावरण बनाने में तो सहायता मिल सकती है लेकिन इसमें अंतिम सफलता तभी मिल सकती है जब हम इसके जड़ में जाकर जहां भ्रष्टाचार व कालाधन पैदा होता है पर उक्त बने हुए वातावरण के प्रभाव के द्वारा चोट न करे। बाबा का देश के बाहर का कालाधन व अन्ना का भ्रष्टाचार का मुद्दा पृथक-पृथक होने के बावजूद पारस्परिक संबंधित है, क्योंकि भ्रष्टाचार ही मूल रूप से कालेधन का जन्मदाता है। 
बात कालेधन को वापस लाने की है जैसा बाबा रामदेव कहते है। इस देश का कितना कालाधन बाहर है इसका कोई प्रामाणिक आकड़ा किसी के पास नहीं है। उक्त कालाधन बाबा किस प्रकार भारत मंे वापस ला सकते है इसकी भी कोई स्पष्ट प्रभावशाली व्यवहारिक एवं संभव कार्य योजना जनता के सम्मुख प्रस्तुत नहीं गई है। तर्क के लिए मान लिया जाए अरबो खरबो रूपये का कालाधन देश के जो बाहर है बाबा के आंदोलन से उत्पन्न शक्तिपुंज की ऊर्जा के प्रभाव से देश में आ भी जाये तो देश का भला किस प्रकार होगा यह एक गंभीर विषय है। देश की वर्तमान समस्या अर्थ (धन) की किल्लत नहीं है बल्कि जो भी उपलब्ध धन है वह ऊपर से लेकर नीचे तक आवश्यकतानुसार जरूरतमंद लोगो को पूरा का पूरा पहुंच जाये यह समस्या है। इस देश की जनता को ध्यान है कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने यह कहा था कि विभिन्न योजना के लिए जो पैसा ऊपर से नीचे जाता है उसमें से मात्र 15 प्रतिशत धन ही वास्तविक हितग्राहियों तक पहुचता है शेष पैसा भ्रष्टाचार में चला जाता है।
बाबा रामदेव को इस बात का ध्यान रखना होगा कि राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल से लेकर आज तक भ्रष्टाचार बढ़ा है कम नहीं हुआ है अर्थात 1 रूपये का 15 पैसा भी अब नहीं मिल रहा है। इसलिए यदि अरबो खरबो का कालाधन देश में वापिस आ भी गया तो वह जनता के बीच विभिन्न योजनाओं के माध्यम से उत्पादन के माध्यम से वर्तमान सिस्टम में सुधार लाये बिना यदि वितरित किया जाएगा तो उसका भी वही हाल होगा। अर्थात मात्र 10-12 प्रतिशत पैसा ही वास्तविक लोगो को मिल पाएगा। शेष धन भ्रष्टाचार को बढ़ाने में ही सहायक सिद्ध होगा। अतः हमारा तथाकथित पैसा जो कालाधन के रूप में बाहर रखा है वह देशी भ्रष्टाचारियो के चंगुल से दूर होने के कारण ही बचा हुआ है उसे लाने की जल्दबाजी क्यो? पहले बाबा व अन्ना देश में ऐसा वातावरण क्यों नहीं बनाते कि देश के वर्तमान सिस्टम में ऐसे चमत्कारिक परिवर्तन हो जाए कि लोगो की बेईमानी की प्रवृत्ति व भावनाएं बदलकर लोग ईमानदारी को ओढ़ ले ताकि कम से कम इस धन का सही बटवारा हो सके। जब हम 85 प्रतिशत भ्रष्टाचार की बात करते है तो उसके दो अर्थ निकलते है कि देश का 85 प्रतिशत वर्ग भ्रष्टाचारी हो गया है या 85 प्रतिशत पैसा मात्र कुछ लोगो के बीच एकत्रित हो गया है। जब हमारे देश में लाखो करोड़ो रू. में सैकड़ो घोटाले हो रहे है जिससे यह सिद्ध होता है कि यह भ्रष्टाचार का 85 प्रतिशत पैसा मात्र 15 प्रतिशत लोगो के बीच ही जा रहा है। यदि बाबा-अन्ना अपने इस मुहिम में असफल हो जाते है, इस देश के लोगो को ईमानदार नहीं बना सकते है तो कम से कम भ्रष्टाचार का समाजवादी में विकास हो जाए ताकि 85 प्रतिशत जनता को समान रूप से लाभ पहुचे। 
संक्षिप्त में हर आन्दोलन का अगला कदम रचनात्मक कदम होता है जो उस आंदोलन से उत्पन्न प्रभाव व उर्जा का उपयोग कर उसे एक रचनात्मक मोड़ देकर उस उद्वेश्य को प्राप्त करता है जिसके लिए आंदोलन किया गया था। यह सोच फिलहाल उन नेताओं में नहीं दिख रही है। कहने का मतलब यह है कि वास्तव में देश के नागरिको को बलात मात्र नैतिक शिक्षा देने की आवश्यकता है। बाबा व अन्ना को अपनी हर सभा में विचार गोष्ठी में शिविर में एक नैतिक शिक्षा का शिविर अवश्य लगाना चाहिए जिसमें वे नैतिक शिक्षा का पाठ न केवल जनता को दे बल्कि उनकी उक्त शिक्षा देने वाली टीम को भी (जिनका नैतिक स्तर पढ़ने वालो से तुलनात्मक रूप से उंचा है।) तब तक पढ़ाए जब तक कि उन्हे यह विश्वास नहीं हो जाता है कि परिस्थितियों में गुणात्मक परिवर्तन हो गया है। मैं सोचता हूं कि यही देशहित में होगा।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

बुधवार, 30 मई 2012

‘‘आम‘‘ लोग ‘‘खास‘‘ कब से हो गये?



Photo From:  http://automotivehorizon.sulekha.com
                    जब से पेट्रोल के भाव में 7.50 रू. की बढ़ोतरी पेट्रोलियम कम्पनियों द्वारा की गई है तब से पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है, जो स्वाभाविक है। लेकिन जिस तरह से प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा राजनैतिक दलों सामाजिक एवं गैर राजनैतिज्ञो व अन्य व्यक्तियों द्वारा इस बढ़े हुए पेट्रोल के दाम पर प्रतिक्रिया व्यक्त की जा रही है वह बहुत कुछ भौंडी और सतही होकर मूल समस्या पर न तो केंद्रित हो रही है और न ही उसका कोई समाधान कारक और सम्भव होने वाला हल उक्त समालोचनाओं में परिलक्षित होता है। सबसे पहले बात टीवी चैनल्स पर हो रही प्रतिक्रिया पर ही ले ले। लगभग सभी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने देश के विभिन्न क्षेत्रों में कारो में बैठे हुए, पेट्रोल पम्पो पर खड़ी गाड़िया और द्विवाहनी वाहनों में बैठे हुए लोगो की प्रतिक्रियाएं यह कहते हुए दर्शाई कि पूरे देश में ‘आम लोग‘ परेशान हो गये है। मैने जो आम आदमी देखा है और जिसकी आम आदमी के रूप में पहचान है उसके दर्शन टीवी पर बिरले ही हुए है और सुनने को मिले है। झुग्गी झोपड़ी वाला, निम्न आयवर्ग वाला, फुटपाथ, गांव में रहने वाला कृषक सार्वजनिक परिवहन प्रणाली में चलने वाला आम आदमी इत्यादि किसी व्यक्ति की प्रतिक्रिया का सामान्य रूप से देखने को नहीं मिली जिससे यह लगे कि पेट्रोल के मुद्दे से आम आदमी परेशान है। वास्तव में यदि बिना किसी राजनैतिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो पेट्रोल के मूल्य की वृद्धि का कोई सीधा सम्बंध ही नहीं है आम लोगो से। वह इसलिए कि कार रखने वाले व्यक्ति आम आदमी तो है ही नहीं और आज भी भारत जैसे देश में स्कूटर, मोटर सायकल, रखने वाले व्यक्ति यदि ‘‘खास‘‘ नहीं है तो ‘‘आम‘‘ भी नहीं है। यदि भारत की प्रति व्यक्ति औसतन आय और ‘गरीबी‘ के पैमाने (जिसकी आलोचना निरंतर रूप से हो रही है) को ध्यान में रखा जाए तो निश्चित रूप से वे व्यक्ति उक्त सीमा से ऊपर उठकर है और इसीलिए पेट्रोलियम उत्पादो में से सिर्फ पेट्रोल की कीमत बढ़ने से आम व्यक्ति की जेब में सामान्यतः कोई असर नहीं हुआ है। हां यदि डीजल की दरों में बढ़ोतरी होती तो निश्चित रूप से डीजल का प्रभाव न केवल किसानों पर पड़ता, बल्कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट के कारण और ट्रक एवं रेलवे में उपयोग में आने के कारण उसका अप्रत्यक्ष प्रभाव आम आदमी के जीवन स्तर पर अवश्य पड़ता। एक बिल्कुल सामान्य व्यक्ति के दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली आवश्यक वस्तुओं, खाद्यान्य, सब्जी, कपड़ा इत्यादि में बेतहाशा वृद्धि होने पर उसके चेहरे पर उत्पन्न दर्द व उत्पीड़न को मीडिया ने शायद ही जनता के सामने पेश किया हो। इस प्रकार ‘कार‘ वाले व्यक्तियों को मीडिया ने ‘आम‘ बनाकर सरकार का देश के भीतर व राष्ट्र का अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर सिर ऊंचा रखने में अवश्य सहायक सिद्ध हुई। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मात्र इस आधार पर पेट्रोल की बढ़ोतरी को उचित कहा जा सकता है।
                    26 जून 2010 से जब पेट्रोल उत्पाद का मूल्य निर्धारण सरकारी नियंत्रण से मुक्त हुआ है तब से मूल्य का नियंत्रण एवं निर्धारण कौन कर रहा है इस बारे में सरकार एक तरफ तो कहती है कि पेट्रोल के मूल्य पर उसका कोई नियत्रंण नहीं है और वे मूल्य निर्धारण के लिए स्वतंत्र है लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? हमनें यह देखा है कि जब-जब कम्पनियों के समुह ने मूल्य बढ़ाने की बात पर विचार किया तब-तब सरकार ने उस पर हस्तक्षेप किया और जब राजनैतिक परिस्थितियां ऐसी नहीं थी, चुनाव थे, संसद चल रही थी तब उन्होने कम्पनियों को मूल्य बढ़ाने से परिस्थितियों वश रोका। तत्पश्चात मूल्यो में वृद्धि की व उसका पूरा ठीकरा कम्पनियों पर थोप दिया गया। अंततः सरकारी कम्पनियों को दिशा निर्देशित और संचालित करने की जिम्मेदारी भी भारत सरकार की ही है जिन्हे वे अपने पेट्रोलियम मंत्रालय के माध्यम से संचालित करते है। पेट्रोलियम मंत्री श्री जयपाल रेड्डी का यह बयान कि डीजल व एलपीजी की कीमतो में फिलहाल वृद्धि नहीं की जाएगी जो न केवल उक्त बात को सिद्ध करती है बल्कि सरकार की दोहरेपन की नीति को ही दर्शाती है।
                    एक तरफ जब सरकार द्वारा सरकारी राजस्व में कमी होने के कारण बैलेंस ऑफ पेमेंट संतुलित न होने के कारण सब्सिडी को कम किये जाने के उद्वेश्य से यदि पेट्रालियम प्रोडक्टस के मूल्य बढ़ाये जाते है तो अन्य क्षेत्रों में सरकार द्वारा क्यों सब्सिडी प्रारम्भ या बढ़ाई जाती है। चाहे वह मुफ्त बिजली का मामला हो, शिक्षा का मामला हो या अन्य कोई भी। वास्तव में सरकार को इस मामले में एक दृढ़ नीति तय करनी होगी कि सिद्धांत रूप से किसी भी मामले में सब्सिडी या मुफ्त माल, सेवा न दी जाकर यदि सामाजिक न्याय की दृष्टि से आवश्यक हो तो मात्र आर्थिक आधार पर न कि जातीगत आधार पर आर्थिक सहायता जो आर्थिक रूप से पिछड़े है उनको उस समय तक ही दी जावे जब तक उनका आर्थिक पिछड़ापन दूर नहीं हो जाता और उनका आर्थिक रूप से उन्नत होने पर वह सुविधा समाप्त की जावे। लेकिन हमने यह देखा है कि सरकार ने जब भी किसी क्षेत्र में आर्थिक सुविधा, सब्सिडी या मुफ्त के नाम पर उपलब्ध कराई वह आज तक कभी वापस नहीं हुई। इसका मतलब साफ है कि आर्थिक सुविधा दिये जाने के बाद भी वह वर्ग आर्थिक रूप से स्वावलम्बी न होकर अक्रमण्य होकर उस सब्सिडी पर उसकी निर्भरता बढ़ती जा रही है। यह स्थिति हमारे देश को आगे ले जा रही है या पीछे यह चिन्तनीय विषय है। 
                    वास्तव में तेल कम्पिनियों को कितना घाटा हो रहा है या वे 2011 की वार्षिक रिपोर्ट के आधार पर भारी मुनाफे में है, तेल की वास्तविक लागत कितनी है इन सब पर पृथक से एक लेख लिखा जा सकता है। दूसरी बात देश के किसी संस्था ने, राजनैतिक पार्टी ने, समाज सुधारको ने या नागरिकों ने इस बात का कोई संकेत नहीं दिया कि इस पेट्रोल के बढ़ते हुए घाटे के पूल को कम करने में यदि महंगाई हम पर एक वार है तो क्या हम उसके उपभोग में कुछ प्रतिशत मान लीजिए 10 प्रतिशत की बचत करके अपना सहयोग नहीं कर सकते है? यदि आपको याद होगा? कि जब देश में अन्न का भारी संकट था तो तत्कालीन महापुरूषों ने सप्ताह में एक दिन उपवास रखने की सलाह दी थी। क्या हम किसी मुद्दे पर राजनीति से हटकर, सोचकर दूसरों पर आरोप और आशा की किरण की टकटकी देखने के बजाय स्वयं के बल के कुछ अंश की आहुति नहीं लगा सकते है? आज की परिस्थितियों में हमें इस पर गम्भीरता से विचार करना ही देशहित और स्वयं के हित में होगा।

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