शनिवार, 2 जुलाई 2022
अभूतपूर्व, ऐतिहासिक, साहसिक, एवं अचंभित करने व दूरगामी परिणाम देने वाला भाजपा का ‘‘दार्शनिक’’ निर्णय।
मंगलवार, 28 जून 2022
‘उच्चतम न्यायालय’’ कहीं स्वयं ‘‘भ्रम’’ का शिकार (‘‘एक परसेप्शन’’) तो नहीं हो गया है?
राजनीति में थोड़ी बहुत भी दिलचस्पी रखने वाले नागरिकों से लेकर राजनैतिक पंडितों,भविष्यवक्ताओं, विश्लेषक, विचारकों और मीडिया से लेकर राजनेताओं तक में महाराष्ट्र में चल रही राजनीतिक घटनाक्रम जो देश को उद्वेलित किए हुए हैं, को लेकर उच्चतम न्यायालय क्या अंतरिम आदेश पारित करेगा?, निर्देश देगा? इस पर परस्पर न काफी विरोधाभासी विचारों, मतों, आकलनों की चर्चा होती रही, बल्कि शंका व अनिर्णय के बादल भी ‘‘अंतरिम आदेश’’ के बावजूद राजनीतिक क्षेत्र में छाये रहें। ऐसी स्थिति में भ्रम को दूर, विवाद को निर्णित करने के लिए लोग न्यायालय की ओर दृष्टि जमाये रखते है व सहायता हेतु न्यायालय की शरण में जाते है। परंतु ऐसा लगता है कि उच्चतम न्यायालय भी स्वयं ‘‘भ्रम (कन्फ्यूजन) के बादल’’ के घेरे में आ गया प्रतीत होता है, ऐसी ‘‘कुछ-कुछ ध्वनि’’ कल पारित अंतरिम आदेश से निकलती लगती सी है। क्योंकि जो अनिश्चितता और भ्रम का वातावरण समस्त पक्षों, दर्शकों व पाठकों के बीच बना हुआ है, उस स्थिति में सिर्फ तुरंत सहायता एक पक्ष (विद्रोही गुट) को अवश्य इस बात की मिली है कि शाम को समाप्त होने वाली जीवनदायिनी रेखा की लाल बत्ती की समय सीमा बढ़कर 12 जुलाई तक की हो गई है। लेकिन उच्चतम न्यायालय स्वयं भ्रम के संकट में कैसे आ गया है? आगे इसे देखते हैं।
महाराष्ट्र में जो कुछ राजनीतिक घटनाक्रम घट रहा है, दल बदल हुआ है, वह देश में कोई पहली बार नहीं हुआ है और न ही सुप्रीम कोर्ट में इस तरह का मामला कोई पहली बार आया है। दल बदल होने पर ‘‘संख्या के दावे की सत्यता’’ के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने कर्नाटक के प्रसिद्ध एसआर बोम्मई मामले में अंतिम रूप से प्रतिपादित कर दिया है कि सरकार के बहुमत का फैसला विधानसभा के फ्लोर पर ही तय होगा, राज्यपाल निवास या अन्य कोई जगह नहीं। जिस निर्णय का अभी तक पालन किया जा रहा है। लेकिन महाराष्ट्र के राजनैतिक घटनाक्रम के लगभग सात दिन व्यतीत हो जाने के बावजूद गुवाहाटी से मुंबई विद्रोही गुट नहीं पंहुचा है। इस कारण अभी तक उक्त स्थिति (फ्लोर टेस्ट) पर पहुंची ही नहीं है, यह एक राजनैतिक विश्लेषक के लिसे आश्चर्य की स्थिति है। महाराष्ट्र में दो तिहाई बहुमत से ज्यादा अधिक विधायकों के दल बदलने के कारण जाहिर तौर पर सरकार के अल्पमत में आ जाने के बावजूद भी न तो विद्रोही गुट ने सरकार से इस्तीफे की मांग की है और न ही अविश्वास का प्रस्ताव स्पीकर या राज्यपाल के पास दिया है। इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात यह है कि प्रमुख विपक्षी दल भाजपा जो परदे के पीछे रहकर परसेप्शन का निर्माण कर रही है और जो इस दलबदल के कारण भविष्य में सत्तारूढ़ होने जा रहा है, ने भी अविश्वास प्रस्ताव का कोई नोटिस ही अभी तक नहीं दिया है।
उच्चतम न्यायालय के समक्ष दोनों पक्षों द्वारा बहस की जा रही थी, तब माननीय न्यायाधीश ने एक तरफ जहां यह कहा कि विधानसभा उपाध्यक्ष जिनको अविश्वास का नोटिस मिला वे खुद स्वयं के मामले में जज बन गए और नोटिस को खारिज कर दिया। ऐसी स्थिति में डिप्टी स्पीकर ऐसे बागी विधायकों पर अयोग्यता की कार्रवाई कर सकते हैं अथवा नहीं, यह एक बड़ा प्रश्न उत्पन्न होता है। बावजूद उक्त टिप्पणी के उच्चतम न्यायालय ने उपाध्यक्ष को अपने कर्तव्य निर्वाह का पालन करने से कार्य करने के लिए किसी प्रकार की रोक नहीं लगाई है। यथास्थिति बरकरार रखने की मंशा दिखाने के बावजूद, ‘‘अंतरिम उपाय’’ के रूप में सिर्फ विधायकों की अयोग्यता के नोटिस की अवधि 14 दिन बढ़ाई है। अर्थात बागी विधायक 12 तारीख तक अपना जवाब प्रस्तुत कर सकते हैं।
उच्चतम न्यायालय का कन्फ्यूजन (भ्रम) एक और जगह दिखता है, जब न्यायालय यह कहता हैं कि, अनुच्छेद 179 के तहत उपाध्यक्ष को हटाने का जब नोटिस हो तब, क्या डिप्टी स्पीकर के पास संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत ‘‘अयोग्यता की याचिका’’ पर सुनवाई का अधिकार है? यह पर्यवेक्षण (ऑब्जरवेशन) तथ्यात्मक रूप से कुछ गलत सा लगता है। क्योंकि डिप्टी स्पीकर के अविश्वास की जो सूचना मिली थी, वह उन्होंने अस्वीकार (रिजेक्ट) कर दी थी। इस प्रकार तथ्यात्मक रूप से अविश्वास का कोई नोटिस तत्समय उनके पास लंबित नहीं है। क्योंकि नोटिस को अस्वीकार करने के आदेश पारित होने के बाद नोटिस का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। हां यदि डिप्टी स्पीकर के अविश्वास के नोटिस अस्वीकार करने का आदेश गलत है, तो उसको न्यायालय में चुनौती दी जानी चाहिए थी, जैसा कि शिवसेना के वकील अभिषेक सिंघवी का कथन था। और उच्चतम न्यायालय को निरस्त करने के आदेश की वैधानिकता पर टिप्पणी करनी चाहिए थी। परन्तु चूंकि बागी गुट ने उक्त पारित अवैधानिक आदेश को चुनौती ही नहीं दी, बल्कि उपाध्यक्ष के नोटिस व शक्ति (अधिकार) को चुनौती दी है। शायद इसीलिए उच्चतम न्यायालय ने अविश्वास की सूचना को अस्वीकार करने आदेश की वैधता पर फिलहाल कोई भी विचार ही नहीं किया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उपाध्यक्ष को इस अविश्वास का सूचना पत्र मिला अथवा नहीं, और क्या उन्होंने उक्त सूचना पत्र मिलने की स्थिति में उसे अवैधानिक मानकर निरस्त कर दिया इस तथ्य पर उच्चतम न्यायालय स्वयं भ्रम की स्थिति है, शायद इसीलिए न्यायालय में उपाध्यक्ष को शपथ पत्र प्रस्तुत करने के निर्देश दिये है।
2020 के राजस्थान हाईकोर्ट के निर्णय को छोड़कर ‘‘किहोतो’’ मामले से लेकर अभी तक ऐसे मामलों में जहां स्पीकर विधायकों को अयोग्यता के संबंध में कार्रवाई प्रारंभ कर देते हैं, तब न्यायालय स्पीकर के कार्य क्षेत्र में दखल नहीं देती रही है, जैसा कि अनुच्छेद 212 में रोक (बार) भी है। आदेश पारित होने के बाद ही न्यायालय में आदेश को चुनौती दी जाती है। इस बात को न्यायालय के ध्यान में लाने पर माननीय न्यायाधीश का यह कथन रहा कि अध्यक्ष के अधिकार को उक्त मामले में चुनौती नहीं दी गई थी, जो अभी दी गई है।
तथाति उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा है डिप्टी स्पीकर ने रिकॉर्ड पर कहा है कि कभी भी उन्हें पद से हटाने का नोटिस नहीं दिया गया। जबकि उनके वकील राजीव धवन का यह कहना रहा कि उपाध्यक्ष के प्रति अविश्वास का जो नोटिस दिया गया था, वह विधायकों के अधिकृत ईमेल के जरिये नहीं आये थे। अतः वैधानिक न होने के कारण संज्ञान योग्य नहीं हंै। राज्यपाल का अभी-अभी उठाया गया यह कदम भी बहुत ही आश्चर्यजनक है कि सरकार के तथाकथित अल्पमत में आने के बाद आने के बाद 22, 23 एवं 24 जून 3 दिनों में राज्य सरकार ने जो प्रशासकीय आदेश जारी किए हैं, उनकी रिपोर्ट मांगी है। वास्तविकता व परसेप्शन में महाविकास आघाडी की सरकार के अल्पमत में आ जाने के बावजूद किसी भी पक्ष द्वारा सरकार के बहुमत को चुनौती न देने के कारण तकनीकि व संवैधानिक रूप से उद्धव सरकार की अभी भी बहुतमत की सरकार होने के कारण राज्यपाल का उक्त हस्तक्षेप अनधिकृत ज्यादा वैधानिक कम व राजनैतिक कदम है।
इस पूरे प्रकरण में एक बात में बड़ी समानता व सामंजस्य दिखता है कि प्रत्येक पक्ष परदे के पीछे या आवश्यकतानुसार सामने आकर अपना-अपना ‘परसेप्शन’ बनाना चाहते हैं। इससे इस बात को पुनः बड़ा बल मिलता है कि राजनीति में एक एक्शन (कार्यरूप) से कहीं अधिक परसेप्शन का महत्व है। भाजपा निश्चित रूप से सरकार बनाती हुई दिख रही है, परन्तु ऐसा होते हुए वह बिल्कुल भी नहीं दिखना चाहती है। असम के मुख्यमंत्री के प्रथम दिन की जब मैं विधायकों की उपस्थिति की जानकारी ना होने के बयान को इसी संदर्भ में देखिये। ‘न केवल होना चाहिए बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए’’ न्याय के इस सिद्धांत के इस परसेप्शन के विरुद्ध उपरोक्त परसेप्शन है। इससे यह समझा जा सकता है कम से कम उपरोक्त निर्मित स्थिति न्यायिक नहीं है। इस प्रकार शिवसेना ‘‘कहीं खुशी कई गम’’ के भाव से ‘‘कहीं गरम तो कहीं नरम’’ आवश्यकतानुसार दिखने का परसेप्शन बना रही है, जबकि वास्तव में यदि परिस्थिति उसे अनुमति दे देती तो वह अभी तक कड़क कार्रवाई कर देती। अभी भी सेना प्रमुख की हैसियत से उद्धव उन विद्रोही को वापस आने की बार-बार गुहार कर रहे है, तो पटल (काउंटर) में विद्रोही गुट अभी भी सेना प्रमुख उद्धव को अपना नेता मानने की बात कह रहे है। जबकि विद्रोही गुट भाजपा के साथ ‘सत्ता’ की भागीदारी सुनिश्चित कर चुकी है। परन्तु वह अभी भी उस शिवसेना का भाग दिखना चाहती है, जिसके नेता उद्धव ठाकरे है। उद्धव ठाकरे पर नवाब मलिक के दाउद से संबंध है, जिसे मंत्री बनाकर आरोप लगाकर वे बागी मंत्री अभी भी मंत्रिमंडल में बने रहकर संख्या की शोभा बनाये हुए है। उद्धव भी मंत्रियों से विभाग छीन कर परन्तु मंत्रिमंडल से मुक्त न कर सत्ता का आकर्षण बनाये हुये है। इस तरह के परसेप्शन का ‘‘खेला’’ का महागठजोड़ कभी आपने इसके पूर्व देखा है? जो होता है वह दिखता नहीं और जो दिखता है वह होता नहीं, आज की सफल राजनीति का यही मूल मंत्र है जो पारदर्शी सिंद्धान्त की राजनीति के विपरीत है। परन्तु ‘सिंद्धान्त’ की याद दिलाकर मैं भी ‘‘प्रबुद्ध बहुमत’’ से हटकर ‘‘मूर्ख’’ के साथ नहीं दिखना चाहता हूं।
शनिवार, 25 जून 2022
असम में ‘‘दोहरी’’ ‘‘बाढ़’’! का ‘तांडव’।
मंगलवार, 21 जून 2022
हिंसा का ’समर्थन न’ करने के बावजूद आंदोलन हिंसात्मक ?
'अग्नीपथ' के विरोध में "अग्निवीरों’’ द्वारा ‘अग्निपथ’ पर बिहार!
देश की सुरक्षा के लिए नौजवानों के लिए (14 जून) सेना में भर्ती हेतु नई प्रक्रिया ’अग्निपथ’ योजना (जो पूर्व में हर आफ ड्यूटी का ही रूप है) के अंतर्गत ’अग्निवीर’ बनाए जाने योजना की घोषणा होते ही अगले ही दिन ’बिहार’ जो देश के कई ’अहिंसावादी’ राष्ट्रीय आंदोलनों की जननी व अग्रणी रहा है, में ’हिंसावादी’ विरोध प्रदर्शन प्रारंभ होकर उपद्रव, तोड़फोड़, लूटमार आगजनी प्रारंभ हो गई, जो देश के कई भागों में धीरे-धीरे विस्तारित होती गई। कई राजनीतिक दलों एवं नेताओं द्वारा हिंसा का समर्थन न करते हुए आंदोलनकारियों की मांग का समर्थन करते हुए उनसे शांतिपूर्ण आंदोलन की अपील की गई। यह भी कहा गया हिंसा किसी समाधान का रास्ता नहीं है। सरकारी संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए। कानून हाथ में नहीं लिया जाना चाहिए। लेकिन ‘‘घर घाट एक करने के’’ बावजूद आंदोलन का हिंसात्मक रूप कमोबेश बरकरार है।
महत्वपूर्ण प्रश्न यह पैदा होता है कि आंदोलन को हिंसात्मक स्वरूप कौन दे रहा है? क्या स्वयं आंदोलनकारी हिंसात्मक रुख अपनाए हुए हैं? यह प्रश्न इसलिए उत्पन्न होता है कि यदि आंदोलन स्वस्फूर्त है, तब प्रायः इन आंदोलनकारी युवकों ने इस हिंसा का विरोध क्यों नहीं किया और न ही ऐसा कोई बयान उनकी तरफ से अभी तक आया हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि यह आंदोलन बिना कोई नेता के नेतृत्व विहीन है। सरकार को भी यह देखना आवश्यक होगा कि आंदोलन में सभी लोग क्या वे युवा (या उनके परिवार के लोग) हैं जो सेना में भर्ती होना चाहते हैं और जिनके हित अग्निपथ योजना से अहित हो रहे है, अथवा अन्य अवांछनीय तत्व भी हैं। तब विपक्ष पर राजनीति करने के सरकार के आरोप को ज्यादा बल मिल सकता है। यदि आंदोलन विपक्ष द्वारा योजनाबद्ध रूप से निर्मित, प्रेरित या उत्प्रेरित व पोषित है, जैसा कि आंदोलन प्रारंभ होने के बाद से ही सत्ता पक्ष, विपक्ष पर लगातार आरोप लगाते आ रहा है, यह कहकर कि देश के युवाओं को विपक्ष गुमराह कर रहा है। तब ऐसी स्थिति में विपक्ष अपनी हिंसा में अपनी असलिगंता को मजबूती देने के लिए स्पष्ट रूप से क्यों नहीं घोषणा करता है कि यदि आंदोलन का हिंसात्मक रूप जारी रहेगा तो विपक्ष युवकों के इस आंदोलन का समर्थन तब तक नहीं करेगा जब तक हिंसा जारी रहेगी। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार विपक्ष ताल ठोक कर यह कहता है कि वे हिंसा का समर्थन किसी भी स्थिति में नहीं करते हैं।
वैसे हिंसा के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराने वाली भाजपा व उनकी सरकारें इस तरह की स्थितियों से निपटने में सिद्धहस्त उनकी सरकारें (जैसे बुलडोजर मुख्यमंत्री योगी नाथ) हिंसाई उपद्रवियों पर बुलडोजर कार्रवाई करने के नाम पर ‘‘गिन गिन कर पैर’’ क्यों रख रही हैं, यह एक बड़ा प्रश्न है? उत्तर प्रदेश के कई भागों में ‘‘अग्निपथ योजना’’ के विरोध को लेकर हिंसात्मक आंदोलन हुए। परंतु बुलडोजर मुख्यमंत्री योगी ने अभी तक उस तरह की कोई जवाबी बुलडोजर कार्रवाई नहीं की और न ही मंशा दिखाई, जैसा कि उत्तर प्रदेश में कुछ समय पूर्व हुए दंगों के समय की गई थी। क्या दोनों घटनाओं की हिंसा में अंतर है? या अंतर बनाया जा रहा है? आखिर हिंसा ’हिंसा’ ही होती है। इस तरह की ’दोहरी नीति’ अपनाई जाने से ही ओवैसी जैसे विवादास्पद व्यक्तियों की ‘‘आंखों में सरसों फूलने लगती है’’, और अनचाहे ही उन्हें अपनी नेतागिरी चमकाने का अवसर व बल मिल जाता है।
स्वतंत्र भारत के पिछले 75 वर्षों में किसी भी आंदोलन के संबंध में सत्ता व विपक्ष की परस्पर भूमिका, भागीदारी व नीतिगत रोल में प्रायः कोई बदलाव नहीं आया है। हां सत्ता-विपक्ष में बैठे चेहरों का परस्पर बदलाव जरूर हुआ है, जैसे कि ‘‘एक तवे की रोटी, क्या पतली क्या मोटी’’। इसी कारण से आज भी वर्तमान आंदोलन के संदर्भ में सत्ता-विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर ’देश हित’ के नाम पर ’देश हित को एक तरफ (साइड)’ में कर ’राजनीति’ चमकाने के लिए चल रहा है। वैसे भी भाजपा ने विपक्ष खासकर कांग्रेस पर गंभीर आरोप लगाया है कि वह ’राष्ट्रनीति’ के बजाय ’राजनीति’ कर रही है। राष्ट्र नीति से राजनीति शब्द कब अलग हो गया, इसका पता देश की जनता को चल ही नहीं पाया। अब चंूकि राजनीति एक गाली सूचक शब्द हो गई है, बदनाम हो गई है और भाजपा उक्त आरोप लगाकर बदनाम ’राजनीति’ शब्द पर मोहर लगा रही है। तब आश्चर्य की बात यह है कि जिस राजनीति के मैदान में खेल कर, राजनीति कर, जीत कर, राजनेता बनकर उक्त बयान देने में सक्षम व प्राधिकृत हुए हैं, उसी का निरादर कर रहे हैं, यह तो वही बात हुई कि ‘‘बाप से बैर, और पूत से सगाई’’!! इस स्तर पर यह भी सोचने की गहन आवश्यकता है कि आखिर राजनीति नैतिक मूल्यों रहित होकर उसका स्तर इतना क्यों गिर गया कि आज सही स्वच्छ और ईमानदार आदमी न तो राजनीति में आना चाहता है और यदि आ भी जाए तो उसके सफल होने की संभावनाएं भी लगभग निरंक ही होती है। इसके लिए राजनीति में अंदर तक घुसे हुए, डूबे हुए राजनेता ही सिर्फ जिम्मेदार नहीं है, बल्कि जनता भी उतनी ही दोषी है जिनके सहारे ये नेतागण राजनीति कर पाते हैं।
सरकार, यहां तक कि सेना की तरफ से यह कहां जा रहा है कि नौजवान युवाओं को बहकाया, बरगलाया, भड़काया जा रहा है। ऐसी स्थिति में सबसे बड़ा प्रश्न यही उत्पन्न होता है, क्या ऐसे बहक जाने वाले युवकों को सेना में भर्ती किया जाना देश हित में होगा? इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया जाना चाहिए? बिना तथ्यों व जांच के मुद्दे का सामान्यीकरण कर इस तरह के कथनों से बचना चाहिए।
एक बात और! स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब भारत सरकार की सेना में भर्ती की अग्निपथ योजना के संदर्भ में युवाओं के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के चलते युवाओं को समझाने के लिए तीनों सेनाओं के वरिष्ठ अधिकारीगणों ने मीडिया के सामने आकर अग्निपथ योजना के विभिन्न गुणों और फायदों को देश के नौजवानों के सामने रख उन्हें समझाने का प्रयास किया। परंतु साथ ही आंदोलन को भी गलत ठहराया। जबकि उक्त कार्रवाई की जिम्मेदारी, योजना बनाने से लेकर पूरी तरह से कार्यान्वित करने तक का अधिकार क्षेत्र केंद्रीय शासन, रक्षा मंत्रालय व गृह मंत्रालय का है। भारत सरकार की उक्त सैनिक भर्ती नई नीति नीति ’अग्निपथ’ में किसी भी प्रकार की संशय या गलतफहमी को दूर करने के लिए रक्षा मंत्री, रक्षा सचिव या सेना के मीडिया प्रवक्ता (पीआरओ) अथवा अधिकतम जब तीनों सेनाओं के चीफ सीडीएस पद निर्मित किया गया है, तो सीडीएस ने स्पष्टीकरण देना चाहिए था। तथापि जनरल विपिन रावत की मृत्यु के बाद फिलहाल सीडीएस का पद रिक्त है। अतः पुरानी व्यवस्था अनुसार चीफ आफ स्टाफ कमेटी अर्थात आर्मी चीफ के द्वारा स्पष्टीकरण दिया जाना चाहिए था। परंतु धमकी भरे अंदाज में आंदोलित नवयुवको पर दबाव बनाने के लिए एयर मार्शल व वाइस एडमिरल सहित चार वरिष्ठ सैनिक अधिकारियों को सरकार ने कैमरे के सामने पत्रकार वार्ता में बैठाला और यदि उन्होंने स्वयं स्पूर्ति से पत्रकार वार्ता आयोजित की है तो यह एक बड़ा गंभीर मामला है जो उनका क्षेत्राधिकार या कर्तव्य नहीं है।
राष्ट्रनीति या आंदोलन का राजनीतिकरण हो रहा है, यह सिद्ध होना तो अभी शेष है, परंतु निश्चित रूप से उक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस से सेना के राजनीतिकरण का एक हल्का सा प्रारंभिक आभास अवश्य पैदा होता है। जिससे हर हालत में बचा जाना चाहिए था। क्योंकि उक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह भी कहा गया कि आंदोलन के पीछे असामाजिक तत्वों के साथ-साथ कुछ कोचिंग संस्थाओं का हाथ है। अग्निपथ योजना वापिस नहीं ली जाएगी। इस तरह के आरोप लगाने व अग्निपथ योजना को वापस लेने का नीतिगत निर्णय का पूर्ण अधिकार भारत सरकार उनके मंत्रियों और पार्टी के पदाधिकारियों को है। सेना को नहीं। अतः इस ’चूक’ की गंभीरता को समझना होगा, ताकि भविष्य में इस तरह की पुनरावृत्ति न हो पाए और किसी को भी सेना पर उंगली उठाने का इस तरह का अवसर न मिल सके।
एक बात और! आंदोलन समाप्त करने के लिए ’अग्निपथ योजना वापस लिए बिना’ दूसरे विकल्पों व उपायों पर सरकार क्यों नहीं विचार करना चाहती है? आंदोलन का मुख्य आक्रोश का कारण प्रमुख रूप से वे युवा लोग हैं, जो पिछले दो-तीन सालों से सेना में भर्ती के लिए तैयारी कर रहे हैं, ट्रेनिंग ले रहे हैं। कुछ लोगों ने परीक्षा पास कर ली है। तो कुछ ने प्रथम स्तर को पार कर लिया है, तो कुछ के मेडिकल फिटनेस भी हो चुके हैं। कुछ लोगों ने इंटरव्यू भी पास कर लिया है और पिछले साल भर से उनको सर्विस सिलेक्शन बोर्ड द्वारा अगली कार्रवाई के लिए पत्र पर पत्र तारीख बढ़ाने के दिए जा रहे हैं। यदि ऐसे लोगों की अंतिम भर्ती पूर्व नियम व घोषणा अनुसार पूरी कर ली जावे तो इसमें सेना का नुकसान क्या है? अधिकतम आप यह मान लीजिए की यह योजना 6 महीने बाद लागू की जा रही है। कई आंदोलनकारी युवाओं ने कहा है की पुरानी योजना के साथ नई योजना समानांतर या विकल्प रूप में चलती रहे तो इसमें नुकसान कहां है? और यदि वास्तव में यह योजना पुरानी योजना से ज्यादा अच्छी है, फायदेमंद है, और देश हित में है, तो सेना में भर्ती होने वाले नौजवान इसे ही अपनाएंगे, पुरानी योजना को नहीं। सरकार को अपनी नई योजना की विश्वसनीयता पर विश्वास होना चाहिये।
सरकार को इस समय कृषि कानून के समय अपनाई गई, किसी को ‘‘जूते के बराबर भी नहीं समझने’’ वाली अक्खड़ नीति से बचना चाहिए। यदि तत्समय केंद्रीय सरकार किसानों को न्यूनतम खरीदी मूल्य के कानूनी प्रावधान बनाने की गारंटी दे देती तो, आंदोलन खत्म हो जाता और तीनों कृषि कानून वापिस नहीं लेने पड़ते। भारत सरकार की किसी योजना, नीति या बनाए गए कानून के संबंध में प्रधानमंत्री ने अग्निपथ योजना का नाम लिये बिना सांकेतिक रूप से प्रथम बार यह स्वीकार किया है कि तात्कालिक रूप से कोई योजना अप्रिय लग सकती है, लेकिन समय के साथ उसका फायदा मिलता है। जब कोई सुधार लाया जाता है तो वर्तमान में कुछ फैसले अनुचित प्रतीत हो सकते हैं, लेकिन बाद में वे महत्वपूर्ण साबित होते है व राष्ट्र निर्माण में सहायक होते है। ऐसी स्वीकृति तीनों कृषि कानून, जीएसटी या नोटबंदी के समय नहीं की गई, बल्कि अभी की तरह यही कहा गया कि किसानों, व्यापारियों व आम जनता को ठीक तरह से कानून नहीं समझाया गया है, बल्कि बरगलाया गया है।
अंत में सरकार को पिछली घटनाओं से सबक लेकर खुले दिल दिमाग व मन से घटनाओं पर नज़र रखते हुये राज्यों की स्थिति पर विचार कर सहमति का रास्ता निकालने की आवश्यकता है।
गुरुवार, 9 जून 2022
क्या ‘‘न्यायिक प्रक्रिया’’ पर देश की ‘‘राजनीति’’ ‘‘राजनेताओं’’ और आध्यात्मिक धर्मगुरूओं का विश्वास कम होते जा रहा है?
शुक्रवार, 3 जून 2022
अरविंद केजरीवाल अभियोजक, वकील, जज, जनता और भविष्यवक्ता! सब एक साथ?
बुधवार, 1 जून 2022
मेरा देश भारत महान! लेकिन मैं?
भारत मेरी मातृभूमि है। मैं देश का नागरिक हूं। इसलिए बेशक बेहिचक मेरा देश महान है। परन्तु ‘‘एक हाथ से ताली नहीं बजती‘‘। मैं कितना महान हूं? इसी के जवाब में मेरा देश कितना महान है? उत्तर मिल जायेगा। लेकिन इसके पूर्व में ‘‘मैं’’ व ‘हम’ पर कुछ बातें अवश्य आपसे साझा करना चाहता हूं।
प्रायः हम सब दिनचर्या में ‘हम’ शब्द का प्रयोग ‘मैं’ की तुलना ज्यादा करते है। जैसे ‘‘हम बदलेगें, युग बदलेगा’’ विश्व का सबसे बड़ा आध्यात्मिक आंदोलन गायत्री परिवार का महत्वपूर्ण मूल ‘नारा’ है। परन्तु हम ‘‘हमारा देश महान’’ के बदले ‘‘मेरा देश महान’’ प्रयुक्त करते है। ‘हम’ में ‘‘मैं’’ शामिल है, परन्तु हम का मैं स्वयं को छोड़कर दूसरे के ‘‘मैं’’ को शामिल कर वह ‘हम’ को पूरा करता है। इसलिए सार्वजनिक जीवन में मैं छूट जाता है, जिससे व्यक्ति स्वयं को अप्रभावी कर लेता है। क्योंकि व्यक्ति की सामान्यतः प्रवृत्ति यही होती है। ‘‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’’ की वीडियो पर चलते हुए अर्थात पड़ोसी, दूसरे से अच्छे व्यवहार, आचरण व कार्य की आशा करते है और इसी आशा में, मैं (स्वयं) को भूल जाते हैं। यह मानकर कि दूसरा तो करेगा ही। अतः यदि ‘मैं’ सार्थक रूप से जमीन में उतर गया तो वह ‘हम’ में परिवर्तित हो जाता है अन्यथा वह ‘‘अपने मुंह मियां मिट्ठू‘‘ होकर रह जाता है। इसीलिए ‘‘मेरा देश महान’’ कहा गया है। जो ‘‘मैं + मैं’’ ‘‘हम’’ बनकर देश को मजबूती प्रदान करेगा। अतः आज के समय की आवश्यकता स्वयं को सुधारने की ही है। ‘मेरा देश महान’ के कुछ उदाहरण आगे आपके सामने प्रस्तुत है, जिस पर गंभीरता पूर्वक विचार कर मंथन करे कि निम्न घटनाएं मेरे देश को कितना ‘महान’ बनाती है।
1. जनसंख्या वृद्धि की वर्तमान दर की चीन से तुलनात्मक रूप से करते हुए भारत 2027 तक विश्व की सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बनने की ओर अग्रसर हो रहा है। वर्ल्ड रिकार्ड बनाने की आदत जो है, हमारी! बधाई?
2. हमारे देश में 15 न्यूज चेनल ‘‘नम्बर वन’’ है। परन्तु सूचना एवं प्रसारण विभाग सोये हुये हैं।
3. 27 मई 2022 को दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम में एक कुत्ते को टहलाने के कारण दो आईएएस दंपति (पति-पत्नि) संजीव खिरवार और रिंकू दुग्गा को राष्ट्रीय राजधानी से क्रमशः लद्दाख और अरूणाचल प्रदेश में तबादला कर दिया गया। यानी कि ‘‘कुत्ते ने न घर का रखा ना घाट का‘‘। शायद नेता से ज्यादा ताकत कुत्ते की? शायद इसी कारण से नेतागिरी में जब इस शब्द के द्वारा महिमा मंडित किया जाता है, तो बुरा नहीं माना जाता है?)
4. आंतकवादी यासीन मलिक को टेरर फंडिग मामले में 25 मई 2022 को न्यायालीन उम्रकैद की सजा होने पर भी राजनेताओं (महबूबा मुफ्ती, फारूख अब्दुला) द्वारा हमदर्दी बताना व न्यायालीन आदेश का भी समर्थन न करना, उच्च कोटी के देशप्रेम का घोतक तो नहीं है? अथवा कहीं यह ‘‘मौसेरे भाइयों का दर्द छलकना तो नहीं‘‘?
5. स्वतंत्र भारत देश के अभी तक के इतिहास में जब ईमानदारी ‘‘गूलर का फूल’’ हो गई है, यह देश में पहला मामला है, जब 24 मई 2022 को पंजाब के मुख्यमंत्री ने अपने ही स्वास्थ्य मंत्री विजय सिंगला को भ्रष्टाचार में लिप्त होने पर बचाने के बजाए न केवल पकड़वाया, बल्कि उसके खिलाफ आपराधिक कार्यवाई कर बिना देर किये मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर आपराधिक कार्यवाही कर एफआईआर भी दर्ज की। लेकिन मीडिया में इस तरह की त्वरित, चरित्र निर्माण करने वाली घटना की देशव्यापी चर्चा होने के बजाए, ज्ञानवापी मुद्दा ही मीडिया व जनता के बीच छाया रहा है। आखिर ‘जन’ व ‘तंत्र’ इतना निरीह क्यों हो गया है?
6. देश की लगभग 140 करोड़ की जनसंख्या में कोई तो एक बंदा हो, जो गइराई से जड़ जमाती मंहगाई की नींव को खोदने के लिए (जैसा कि धार्मिक स्थलों को खोदने के लिये) उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर दे। या सिर्फ मंदिर-मस्जिदों के लिए ही न्यायालयों में याचिकाएं दायर होती रहेगी? कई महत्वपूर्ण बात महत्वपूर्ण मामलों में स्वयं संज्ञान लेकर जनता को राहत पहंुचाने वाली उच्चमत न्यायालय, उक्त मामले में स्वतः संज्ञान क्यों नहीं ले रहा है? जो देश की लगभग 90 प्रतिशत जनता से जुड़ा हुआ मामला है।
7. 15 मई 2022 को देश के बैडमिंटन खेल के इतिहास में अभी तक की सबसे बड़ी विजय, ‘‘थॉमस कप’’ पर भारत का कब्जा हो गया। 14 बार की विजेता इंडोनेशिया को सीधे 3-0 सेट से हराकर ‘लक्ष्यसेन’ की टीम ने लक्ष्य प्राप्त कर 73 साल बाद रचा इतिहास। परन्तु इस खुशी में भारतवंशी लगभग नदारत, सिवाएं कुछ खेल प्रेमियों और राजनेताओं के औपचारिक बधाई संदेश को छोड़कर। हां प्रधानमंत्री ने जरूर फोन पर चर्चा कर व्यक्तिगत बधाई दी। क्या देश में उपलब्धियों का मतलब सिर्फ राजनैतिक या सैनिक क्षेत्र तक ही सीमित है, जिन पर ही देशव्यापी प्रतिक्रियाएँ होती है?
8. जेल में (फरवरी 2022) 100 दिनों से ज्यादा बंद महाराष्ट्र के मंत्री नवाब मलिक वास्तव में नवाब होकर जनता के मालिक है। इसलिए उन पर नैतिकता के कानून की कोई कैंची ही नहीं चलती है। अतः वे बड़े ठाठ बाट से जेल में भी मंत्री बने हुये है। स्वतंत्र भारत के इतिहास की यह पहली अनोखी अंचभित करने वाली घटना है, जो संविधान की भावनाओं का साफ-साफ उल्लघंन प्रतीत होता है। संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने शायद नैतिकता में पतन की इतने निचले स्तर की कल्पना स्वयं की ही नहीं थी, इसलिए ऐसी आपातकालीन स्थिति से निपटने का कोई प्रावधान संविधान में रखा ही नहीं गया। क्या देश के समस्त मंत्रियों का आत्म स्वाभीमान मर गया है? जो जेल में रहकर मंत्री के इस्तीफे की दबाव पूर्वक मांग नहीं कर पा रहे है? क्यों नहीं वे न्यायालय की शरण ले रहे है? क्या इस ‘‘एक चुप सौ को हराए‘‘ नीति से उनके सम्मान पर भी प्रश्नवाचक चिंह नहीं लगता है? क्या इससे मंत्रिपद की गरिमा बिल्कुल भी घट नहीं गई है, जिसके गौरवपूर्ण आकर्षण के कारण ही तो राजनेता, मंत्री बनने के लिये मरे जाते है।
9.अभी दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येन्द्र जैन को भी प्रर्वतन निदेशालय (ईडी) ने धन-शोधन निवारण अधिनियम के अंतर्गत गिरफ्तार किया है। परन्तु 24 घंटे बीत जाने के बावजूद न तो उन्होंने इस्तीफा दिया और न ही भ्रष्ट्राचार के विरूद्ध बिगुल बजाने का अकेले दावा करने वाले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने उन्हे बर्खास्त किया है? वैसे 24 घंटे में भ्रष्ट्राचार के आरोप में ‘‘लोक सेवक’’ के जेल में बंद रहने पर उन्हे तुरन्त नौकरी से निलम्बित कर दिया जाता है। कई मामलो में न्यायालय ने विधायक/मंत्री को लोकसेवक माना है।
10. आर्यन शाहरूख खान केस (अक्टूबर 2021) के माध्यम से फिल्म इंडस्ट्रीज को बदनाम करने में अधिकतर मीडिया और राजनेताओं के परस्पर आरोप-प्रत्यारोप के बीच आर्यन के खिलाफ कोई सबूत न होने पर अभियोजन द्वारा चार्जशीट में न केवल उसका नाम शामिल न करना, बल्कि यह कहना, कि उसने दूसरे लोगो को ड्रग्स लेने से रोका, यह ‘‘बालू की दीवार पर खड़े‘‘ अभियोजन के लिए हास्यादपद स्थिति नहीं है? वर्तमान एनसीबी, सीबीआई व ईडी इत्यादि के ताबड़तोड़ छापे राजनैतिक विरोधियों की आवाज को दबाने के बीच एनसीबी की अभीयोजन टीम द्वारा पूर्व अभियोजन टीम को पूरी तरह से अस्वीकार (आर्यन के मामले में) करना सातवें आश्चर्य से कम नहीं? यहां यह उल्लेखनीय है कि न्यायालय ने आरोपी को अपराध से डिसचार्ज (निर्वहन) नहीं किया है। इसी तरह सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या केस में मीडिया द्वारा ट्रायल कर अभियोगी रिया चक्रवती को हत्या तक का अपराधी बताकर सजा देने की मांग भी कर दी गई। जबकि जांच के अंतिम निष्कर्ष में प्रकरण में अधिकतम आत्महत्या का मामला का ही निकल पाया। आत्महत्या को प्रेरित करने का आरोप (धारा 306) भी नहीं पाया गया।
11. मई 2022 में दिल्ली बीजेपी प्रवक्ता तेजिंदर पाल सिंह बग्गा की पंजाब पुलिस द्वारा की गई गिरफ्तारी पर दिल्ली पुलिस ने आरोपी के परिवार की शिकायत के आधार पर पंजाब पुलिस के विरूद्ध ही अपहरण का प्रकरण दर्ज कर लिया व दिल्ली पुलिस के कहते पर हरियाणा के कुरुक्षेत्र में पंजाब पुलिस के काफिले को रोक कर आरोपी को पंजाब पुलिस से छुड़वाकर दिल्ली पुलिस को सौंप दिया। देश के इतिहास में इस तरह की पहली घटना है।
12. देश के इतिहास में पहली बार दो राज्यों असम-मिजोरम के बीच जमीन को लेकर जबरदस्त हिंसा व खुनी संघर्ष हुआ जिसमें पुलिस फोर्स की गोलियों में 5 पुलिस कर्मियों सहित 6 लोगों की जान चली गयी। 50 से अधिक घायल हो गये।
13. उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता आजम खां के मंत्री रहते हुये जनवरी 2014 में रामपूर स्थित डेयरी से 7 भैंसें चोरी हो गई। वारदात पर तुरंत संज्ञान लेते हुए पुलिस प्रशासन ने कार्यवाही की और 24 घंटे बाद ही पुलिस ने भैंसें बरामद भी कर ली। परन्तु फिर भी पुलिसकर्मियों को लाइन हाजिर की सजा दी गई।
14. वर्ष 1967 के बाद से देश में आया-राम गया-राम के चलते कई संयुक्त विधायक दल सरकारांे का निर्माण हुआ। परन्तु हद तो तब हो गई, जब हरियाणा की सियासत ने आया-राम गया-राम के दल-बदल के नए आयाम स्थापित करते हुए पूरा का पूरा मंत्रिमंडल का ही दल बदल करवा दिया व जनता पार्टी के मुख्यमंत्री रातोरात बिना इस्तीफा दिये कांग्रेस के मुख्यमंत्री कहलाने लगे। ‘‘को नृप हमहिं का हानी‘‘।
15. तमिलनाडु के अरियालुर में 27 नवंबर 1956 को भीषण ट्रेन हादसा हुआ था. हादसे में करीब 142 लोगों की मौत हो गई। लाल बहादुर शास्त्री ने रेल हादसे के बाद नैतिकता के आधार पर तुरंत इस्तीफा देकर वे देश के पहले ऐसे नैतिकता का उच्चतम मादंड स्थापित करते हुए राजनैतिज्ञ मंत्री सिद्ध हुये। यद्यपि इसके बाद नीतीश कुमार ने भी वर्ष 1999 में गैसला ट्रेन हादसे में 290 लोगों की मृत्यु होने के कारण इस्तीफा दिया था। तत्पश्चात् तत्कालीन रेल मंत्रियों सुरेश प्रभु, ममता बनर्जी ने भी भीषण रेल दुर्घटनाओं के बाद इस्तीफे की पेशकश की थी, परन्तु नैतिकता का यह आवरण सिर्फ रेल मंत्रालय तक ही सीमित रहा।
16. सरकार भले ही पेट्रोल-डीजल की कीमत निर्धारित करने में अपनी भूमिका से इनकार करती है। परन्तु दिन प्रतिदिन, हफ्ता-पखवाड़ा डी़जल-पेट्रोल के मूल्यों में होने वाली वृद्धि ‘‘चुनाव के समय’’ बिना किसी रूकावट के पूरी चुनावी अवधि में बिना नागा ‘‘अवकाश’’ ले लेती है। यह छुट्टी सरकार ही तो देगी? अंतर्राष्ट्रीय बाजार नहीं? ‘‘आदर्श चुनाव संहिता’’ लागू होते ही मूल्य वृद्धि भी ‘‘आदर्श’’ दिखने के लिए ‘‘रूक’’ जाती रही। इसे क्या कहा जाए ‘‘दो नावों की सवारी या फिर दोनों हाथों में लड्डू‘‘?
17. सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2013 में सीबीआई को सरकारी तोता निरूपित कर दिया है। कोयला ब्लाक आवंटन घोटाले और अन्य मामलों की सीबीआई जांच में केंद्र के हस्तक्षेप पर चिंता जाहिर करते हुए न्यायालय ने कहा कि सीबीआई पिंजरे में बंद ऐसा तोता बन गई है जो अपने मालिक की बोली बोलता है। राजनैतिक हित के लिए सरकार जगह-जगह छापे लगवाती है। स्थिति अभी भी वही है परन्तु ‘मालिक’ अवश्य बदल गया है।
18. पिछले कुछ समय से देश में सीबीआई (केन्द्रीय जांच ब्यूरो), ईडी (प्रर्वतन निदेशालय), एनआईए (राष्ट्रीय जांच एजेंसी) एनसीबी (नारकोटिक कंट्रोल ब्यूरो) विजिलेंस आदि केंद्रीय एजेंसियों के छापे विरोधी दलों के नेताओं या उनके समर्थकों पर ही लग रहे हैं। सिवाय मध्यप्रदेश में एक छापा भाजपा समर्थक बिल्डर के विरुद्ध अवश्य लगा था।
19. हरियाणा के एक आईएएस अधिकारी अशोक खेमका का 30 साल में 54 बार तबादला (ट्रांसफर) किया गया। गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड। जबकि इस अवधि में विपरीत सिंद्धान्तों वाली सरकारें आती जाती रही। लगता है कि ‘‘कुएं में ही भांग पड़ी है‘‘।
अंत में निष्कर्ष रूप में मेरा भारत देश महान इसलिए भी है क्योंकि उपरोक्त तत्वों की उपस्थिति व साथ के बावजूद देश प्रगति की ओर अग्रसर हो रहा हैं। आइये ‘‘मेरे’’, ‘‘अपने’’ ‘‘हमारे’’, महान देश भारत को महान बनाने में अपना तुच्छ किंतु महान योगदान अवश्य करे।
गुरुवार, 12 मई 2022
अवैध गिरफ्तारी (?) से मुक्ति के लिए की गई ‘‘अवैध कार्रवाई‘‘ ’’क्या वैधानिक’’ हो जाएगी?
स्वाधीनता के ‘‘अमृत महोत्सव वर्ष’’ में कमजोर होता ‘‘गण’’ व ‘‘तंत्र’’।
पतन पर तेजी से जाती हुई ‘‘राजनीति’’ का ‘‘हाई वोल्टेज ड्रामा’’।
विषय लेख लम्बा होने से पाठकों की सुविधा की दृष्टि से इसे दो भागों में लिखा जा रहा हैंः- प्रथम भाग
30 नवंबर को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के निवास के समक्ष दिल्ली युवा मोर्चा के प्रदर्शन में दिल्ली भाजपा के प्रवक्ता, युवा इकाई के सचिव तेजिंदर पाल सिंह बग्गा, निवासी जनकपुरी, दिल्ली ने फिल्म ‘‘द कश्मीर फाइल्स’’ पर की गई केजरीवाल की टिप्पणी से नाराज होकर बग्गा द्वारा अरविंद केजरीवाल के प्रति कुछ आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। इसे लेकर आप पार्टी के प्रवक्ता मोहाली निवासी सनी अहलूवालिया द्वारा तेजिंदर पाल द्वारा सोशल मीडिया पर सांप्रदायिक सौहाद्र व सद्भाव बिगाड़ने की शिकायत की गई। जिस पर मोहाली पुलिस द्वारा 3 अप्रैल (कुछ मीडिया रिपोर्ट में 1 अप्रैल बतलाया है) को थाना पंजाब स्टेट साइबर क्राइम में एक एफआईआर दर्ज की गई। दर्ज मुकदमें के सिलसिले में जांच में शामिल होकर सहयोग देने के लिए पंजाब पुलिस द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 ए के अंतर्गत 5 बार नोटिस भेजने के बावजूद बग्गा के जांच में उपस्थित न होने पर पंजाब पुलिस ने दिल्ली आकर भा.द.स. की धारा 153 ए, 505 व 506 के अंतर्गत आरोपित बग्गा को जनकपुरी स्थित स्थित, उनके निवास से गिरफ्तार कर लिया। यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत प्रकरण में पुलिस को संज्ञेय अपराधों में बिना वारंट के अपराधी को गिरफ्तार करने का कानूनी अधिकार है।
इस पर जिस तरह ‘‘ढाई हाथ की ककड़ी और नो हाथ के बीज’’ समान राजनैतिक भूचाल पैदा किया गया और पुलिस तंत्र किस तरह से निरुत्साहित (पंजाब पुलिस) व अति-उत्साहित (दिल्ली व हरियाणा पुलिस) होकर कानून की धज्जियां उड़ाते हुए बदनाम पुलिसिया अंदाज में कार्रवाई करके संघीय ढांचे पर हथौड़े चलाकर तार-तार करते रहे, वह देश व राजनीति के लिए अत्यंत ही शर्मसार है। हद तो तब और हो जाती है जब बेशर्म होकर राजनीतिज्ञगण बेशर्मी से आरोप-प्रत्यारोप लगाकर सिर्फ उसी राजनीति को चमकाने में लग जाते हैं, जो उनके कार्यकलापों से शर्मसार हुई जा रही है। क्या आजकल देश को हाई वोल्टेज ड्रामा की ओर तो ले जाने का प्रयास तो नहीं किया जा रहा है? जैसे उपरोक्त पुलिसिया के हाई वोल्टेज ड्रामे के साथ वर्तमान में बुलडोजर का भी हाई वोल्टेज ड्रामा, बेरोजगारों की विभिन्न क्षेत्रों में भर्ती न निकालने का, उच्चतम महंगाई को शांतिपूर्ण सहने का भी हाई वोल्टेज ड्रामा देश में चल रहा है? जिनके पीछे राजनीतिक दलों का ही तो हाथ हैं?
उक्त पूरी घटनाक्रम देश के स्वतंत्र भारत के इतिहास की अभी तक की इस तरह की एकमात्र अनोखी घटना होकर 75 वें स्वतंत्रता वर्ष के लिए ‘‘न भूतो न भविष्यति’’ एक कलंक होकर सिर झुकाने के लिए मजबूर करने के साथ गंभीर चिंतन के लिए विवश कर देती है। किसी अपराध व तदनुसार अपराधी से निपटने के लिए अभी तक की अपने तरह की यह प्रथम बिल्कुल ही असामान्य व अस्वाभाविक पुलिसिया प्रक्रिया से कई गंभीर व अनुतरित प्रश्न उत्पन्न होते हैं। यह घटना इस बात को भी सिद्ध करती है कि हमारे देश के गणतंत्र व संघीय ढांचे में अभी भी आधारभूत मूल कमियां हैं, जो मात्र एक व्यक्ति की गिरफ्तारी पर उजागर हो जाती है। इस पूरी घटना ने प्रारंभिक अवस्था में न्यायालय को तो लगभग एक तरफ दरकिनार ही कर दिया। दिल्ली पुलिस जो केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है और हरियाणा पुलिस दोनों मिलकर पंजाब पुलिस पर बुरी (पूरी) तरह से हावी हो गए। परिणाम स्वरूप दिल्ली पुलिस पंजाब पुलिस से एक आरोपी को ठीक उसी प्रकार से छुड़ा कर ले आती है, जिस प्रकार किसी जमाने में ‘‘एक बंधक को माधोसिंह गैंग के कब्जे से मोहर सिंह गैंग अधिक बल के आधार पर छुड़ाकर ले आता रहा होगा’’। मानो दिल्ली पुलिस यह दर्शना चाह रही होगी कि ‘‘बाज के बच्चे मुंडेरो पर नहीं उड़ा करते’’। कानून के राज की बात तो कोई कर ही नहीं रहा है, तो पालन करना तो दूर की बात हो गई।
सर्वप्रथम आरोपी तेजिंदर पाल सिंह बग्गा के खिलाफ मोहाली पुलिस द्वारा दर्ज की गई ‘‘प्रथम सूचना पत्र’’ जिसे कानून में कहीं परिभाषित नहीं किया गया है, ठीक उसी प्रकार गिरफ्तारी को भी परिभाषित नहीं किया गया है। को ही ले ले। दर्ज एफआईआर गलत है या सही, इसे निरस्त (नस्ति) करने का अधिकार क्षेत्राधिकार प्राप्त न्यायालय को ही है। किसी थाने या राजनेताओं को नहीं। हां अवश्य जांच के दौरान पर्याप्त आवश्यक साक्ष्य न मिलने पर जांच अधिकारी प्रकरण को समाप्त करने के लिए क्लोजर रिपोर्ट (प्रकरण बंद करना) संबंधित मजिस्ट्रेट के पास अवश्य भेज सकता है। तब भी जांच अधिकारी अपने स्तर पर प्रकरण नस्ती नहीं कर सकता है। यही कानूनी स्थिति है।
यहां पर न तो जांच अधिकारी ने ऐसा किया और न ही आरोपी को निचली अदालते तथा पंजाब उच्च न्यायालय से इस संबंध में कोई अंतरिम सहायता मिली। जहां तक पंजाब पुलिस की उक्त कार्रवाई करने के आशय या राजनीतिक दबाव के चलते दुरूराशय का प्रश्न है, जैसा कि आरोपी व उसका परिवार लगातार लगा रहे हैं और अब तो यह भाजपा-आप के बीच यह एक राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के युद्ध में परिवर्तित हो गया है। पंजाब पुलिस की सदृशयता का अंतिम निराकरण तो न्यायालय के द्वारा ही निर्णीत होगा और तब तक पंजाब पुलिस को न्यायालीन आदेश के बिना आगे कार्रवाई करने से रोका नहीं जा सकता था। तब तक तत्समय ऐसा कोई आदेश नहीं था।
मतलब राजनैतिक उद्देश्य व विद्वेष को लेकर (यदि ऐसा मान भी लिया जाए तो भी) दर्ज की गई एफआईआर पर मोहाली पुलिस द्वारा की गई कार्यवाही प्रथम दृष्टया दंड प्रक्रिया संहिता व भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अधिकार क्षेत्र में व वैध थी, तथापि वह देखने की न्यायालय की नज़र में नहीं बल्कि दिल्ली और हरियाणा पुलिस के लिए। आरोपी को जांच में शामिल होकर सहयोग देने के लिए पंजाब पुलिस द्वारा 5 बार नोटिस दिए जाने के बावजूद ‘‘अपने खोल में मस्त रहने वाला’’ बग्गा उपस्थित नहीं हुआ। जहां तक अंर्तप्रातींय पुलिस कार्यवाही के लिए अभियुक्त को एक राज्य से दूसरे राज्य में ले जाने के लिए नियमों की बात है, द.प्र.स. की अध्याय (सेम)V(5)की धारा 41 से 60 में आवश्यक सक्षम प्रावधान दिए गए हैं।
सामान्यतया एक राज्य की पुलिस को दूसरे राज्य में जाकर अभियुक्त को गिरफ्तार करने के लिए सामान्य प्रक्रिया के तहत उस राज्य की स्थानीय पुलिस को (प्रशासनिक, सुरक्षा व कानून व्यवस्था की दृष्टि से) सूचित करना आवश्यक होता है। परंतु यदि दूसरे राज्य की पुलिस को स्थानीय पुलिस पर विश्वास न हो तो, वह बिना सूचना के भी सीधे आरोपी को गिरफ्तार कर सकती है, ताकि स्थानीय पुलिस द्वारा आरोपी को सूचना देने की आशंका की स्थिति में उसके फरार होने की संभावना न हो। जिसकी संभावना प्रस्तुत मामले में पूरी तरह से थी, जो बात के घटनाक्रम से सिद्ध भी होती है। यदि पुलिस गिरफ्तार आरोपी को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर धारा 57 (76 वारंट निष्पादन की दशा में) के अंतर्गत सक्षम/निकटतम न्यायालय में रिमांड हेतु प्रस्तुत कर देती है, तो दं. प्र. सं. की धारा 167 के अनुसार ट्राजिस्ट रिमांड लेने की कतई आवश्यकता नहीं है।
गिरफ्तार अभियुक्त को एक राज्य से दूसरे राज्य ले जाने में यदि 30 किलोमीटर से अधिक दूरी पर जाना पड़ता है तो ट्राजिस्ट पास लेना चाहिये। ऐसा मीडिया के कुछ भाग में बताया जा रहा है। परंतु 30 किलोमीटर का ऐसा कोई प्रावधान मेरी नजर में नहीं आया। यूपी के महत्वपूर्ण बहु चर्चित विकास दुबे प्रकरण में भी अभियुक्त को उज्जैन से गिरफ्तार कर उत्तर प्रदेश बिना ट्रांजिट रिमांड के ले जाया गया था ऐसा म.प्र. पुलिस का कहना था। जबकि उल्ट इसके यूपी पुलिस ने ट्रांजिस्ट रिमांड लेने का दावा किया था। तथापि अधिकतम यह एक नियम है, कानून नहीं। अर्थात् यह एक अनियमितता(इररेगुलारिटी) हो सकती है, लेकिन गैरकानूनी अवैध(इलेगलिटी)नहीं और अनियमितता के लिये पुलिस के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही अवश्य की जा सकती है। परंतु गैरकानूनी होने पर अभियुक्त को मुक्ति का अधिकार मिल जाता है। दोनों में अंतर को समझना होगा।
अतः जब तक एफआईआर दर्ज है और वह सक्षम न्यायालय द्वारा निरस्त नहीं की गई है, तब तक मोहाली पुलिस को अभियुक्त को गिरफ्तार करने का वैधानिक अधिकार था। जहां तक 7 साल से कम सजा वाले मामलों में गिरफ्तारी न करने के उच्चतम न्यायालय के निर्देश की बात की जा रही है, उसमें भी कुछ परिस्थितियों में ही गिरफ्तारी न करने के निर्देश है। वैसे हम जानते हैं कितने मामलों में उच्चतम न्यायालय के निर्देशों का पालन होता है। उच्चतम न्यायालय के निर्देश तो ‘‘अरहर की टटिया में अलीगढ़ी ताले’’ के समान होकर रह गए हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे कि अपराधी को हथकड़ी पहनाकर कोर्ट के अनुमति के बिना पुलिस को अधिकार न होने के उच्चतम न्यायालय के निर्देश के बावजूद दैनंदिन पुलिस द्वारा बेशर्मी के साथ अपराधियों को हथकड़ी पहना कर न्यायालय की ठीक नाक के नीचे प्रस्तुत किया जाता है। गिरफ्तारी के समय व उसके बाद उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय डी.के.बसु वि. पश्चिम बंगाल सरकार (ए.आई.आर.1997 एस.सी. 610 में) दिया गया 11 सूत्रीय निर्देशों का आज भी कितना पालन होता है, यह हमसे छुपा नहीं है। वास्तविकता में तो जैसे कानूनी अधिकार कानूनी किताबों पर सुशोभित देखते है, धरातल पर नहीं। उच्चतम न्यायालय के निर्देशों की भी लगभग वही स्थिति है।
शेष अगले अंक में.......
शुक्रवार, 6 मई 2022
‘‘अशांत’’‘प्र‘’शांत’ किशोर को स्वयं एक ‘‘रणनीतिकार’’ की आवश्यकता?
पूर्व केन्द्रीय मंत्री असलम शेर खान ने आज सुबह मुझे मैसेज कर प्रशांत किशोर के बाबत् राय पूछी। तदानुसार उन्हे अपनी बेबाक राय लिखते-लिखते वह एक लेख के रूप में ही परिवर्तित हो गयी, जो रूबरू प्रस्तुत है।
प्रशांत किशोर राजनीति के खेल में ‘‘ब्रांडिंग’’ लाने के लिए जाने जाएंगे।
2014 के लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद प्रथम बार प्रशांत किशोर का नाम सार्वजनिक रूप से आया व एक रणनीतिकार के रूप में चर्चित हुआ। मोदी की जीत में प्रशांत किशोर की नई नीति ब्रांडिग की रणनीति का महत्वपूर्ण योगदान माना गया। तब से प्रशांत किशोर भारतीय राजनीति में ‘‘विभिन्नता में एकता’’ लिये हुये ‘‘नीतिगत मूल्यों की सिंद्धान्त की राजनीति से एकदम दूर’’ एक रणनीतिकार के रूप में विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए चुनावी जीत के लिए एक तुरुप के इक्के के रूप में चल निकले हैं। उन्होंने बहुत ही चतुराई से उन्हीं राजनीतिज्ञ व राजनीतिक दलों जेडीयू, आप, तृणमूल कांग्रेस, वाईएसआर कांग्रेस, से डीएमके तक विभिन्न परस्पर विरोधी विचारधाराओं के लिए रणनीतिकार होकर रणनीति बनाई, जिनकी राजनीतिक जमीनी धरातल पूर्व से ही काफी मजबूत रही है। इसलिए वे राजनैतिक ‘‘दलों व व्यक्तियों’’ के चुनाव करने की अपनी ‘नीति’(रण नीति नहीं?) में वे असफल नहीं रहे, और विजय पथ पर पूर्व से चली आ रही विजयी पार्टी की सफलता का श्रेय सफलतापूर्वक अपने सिर लेते रहे।
परंतु वर्ष 2017 में जब वे कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश में रणनीतिकार बने तो कांग्रेस का जमीनी आधार लगभग समाप्त की ओर हो जाने के कारण प्रशांत किशोर उत्तर प्रदेश कांग्रेस में कोई नई परिणामोंन्मुख जान नहीं ड़ाल पाये। पिछले आम चुनावों से भी बहुत कम सीटें मिली।अतंतः वे कांग्रेस को सफलता नहीं दिला पाय एव बुरी तरह से असफल हो गए। परन्तु उक्त असफलता का ‘ठीकरा’ न तो कांग्रेस ने और न ही राजनैतिज्ञ विश्लेषकों व पंडितों ने उनके सिर पर फोड़ा। वो इसलिए कि कांग्रेस की जमीनी सच्चाई को सब जानते थे कि रेत से तेल निकालना आसान काम नहीं है। इसलिए मैं प्रशांत किशोर को शुद्ध रणनीतिकार के रूप में स्वयं के लिए मानता हूंय दूसरों के लिए रणनीतिक सलाहकार के रूप में नहीं। क्योंकि रणनीतिकार बनते समय उन्होंने राजनीतिक दलों को चुनने की सही नीति अपनायी जहां उनकी रणनीति से ज्यादा पूर्व से ही पार्टियों की मजबूत जमीन जीत का आधार विद्यमान थी।
आज की भारतीय राजनीति में सिर्फ एक ‘‘कला’’ (रणनीति) से राजनैतिक युद्ध नहीं जीता जा सकता है। साम, दाम, दंड, भेद रण (युद्ध) जीत के पुराने हथियार रहे हैं, जो आज भी उतने ही प्रासंगिक है। ‘‘चार एम’’ अर्थात मनी पावर, मसल पावर, मांब पावर व मीडिया पावर के साथ ही अच्छी रणनीति सफल हो सकती है, यह आज की राजनीति की कड़वी सच्चाई है। प्रशांत किशोर ने 2 अक्टूबर गांधी जयंती से पूर्वी चंपारण के गांधी आश्रम से तीन हजार किलोमीटर की सुराज पद यात्रा शुरू करने की घोषणा की है। जब वे यात्रा पर निकलेंगे और जनता से सीधे रूबरू होंगे, तब वह स्थिति, अभी तक की उनकी कार्यप्रणाली के बिल्कुल विपरीत होगी। क्योंकि रणनीतिकार तो बंद कमरों के अंदर अपने कुछ सलाहकारों के साथ बैठकर ही रणनीति बनाता है। इसलिए प्रशांत किशोर के जनता के बीच जाने पर ही वे धरातल पर मौजूद राजनीतिक सच्चाई को जान पाएंगे, जो उनके लिए एक नया अनुभव भी होगा। और तब वे यदि आगे राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में काम करना चाहेंगे, तो ज्यादा सफल हो सकते हैं।
प्रशांत किशोर ने पत्रकारवार्ता में नीतीश कुमार पर निशाना साधते हुये बेरोजगारी व ध्वस्त होती शिक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिंह लगाया। एक रणनीतिकार के रूप में व जेडीयू के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के रूप मेें तब वे नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने की पूरी रणनीति बनाते रहे। पिछले 15 दिनों से 600 से ज्यादा स्लाइड़ दिखाकर वे कांग्रेस के लिए मुख्य रणनीतिकार बनने के लिए शर्तो के साथ बातचीत कर रहे थे। लेकिन अंततः बात बन नहीं पायी। यहां यह उल्लेखनीय है कि ये वही प्रशांत किशोर हैं जिन्होंने पिछले साल अक्टूबर में मोदी के नेतृत्व की बढ़ाई करते हुए सोनिया और राहुल गांधी के नेतृत्व की आलोचना की थी। प्रशांत किशोर की उपरोक्त मनः स्थित को देखते हुए वे एक भ्रांत (कन्फ्यूज्ड) व्यक्तित्व हो गए हैं। और शायद इसीलिए वे एक नई राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए रणनीतिकार से राजनेता बनने की और स्वयं की रणनीति बनाने में जुट गये है। यहां प्रशांत किशोर का दोहरा परस्पर विरोधी ‘चेहरा’ दिखता सा है। अब उनका व्यक्तित्व उनके नाम प्रशांत किशोर के विपरीत हो गया है। अर्थात न तो वे शांत (प्र शांत) और न ही किशोर (अनुभवी होने के कारण) रह गए हैं। स्पष्ट है, राजनीति में आने की संभावना टटोलते व बनाते हुए उन्हे कमरे के अंदर की ब्रांडिग की रणनीति के बजाय जनता के बीच राजनैतिक मुद्दों को तलाशने की रणनीति बनानी की नई पारी खेली होगी। तभी तो वे किशोर रह पाएंगे। (अनुभवी व्यक्ति तो प्रोड हो जाता है।)
प्रशांत किशोर ने फरवरी 2020 में ‘‘बात बिहार की’’ कार्यक्रम की घोषणा की थी लेकिन वे शुरू नहीं कर पाये जो उनकी विश्वसनीयता पर एक प्रश्नचिंह अवश्य लगाता है। क्योंकि इस संबंध में उनका स्पष्टीकरण बेहद घिसा-पिटा कोरोना संक्रमण काल का कारण बताया जो गुणदोष (मेरिट) पर आधारित नहीं है।
राजनीति में एक राजनीतिज्ञ रणनीतिकार दूसरों को सफलता अवश्य दिला सकता है, परंतु वह स्वयं के लिए रणनीति लागू करके राजनीति में सफलता दिला दें, ऐसा अवश्यंभावी होना संभव नहीं हो पाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे घर का वकील और डॉक्टर सामान्यतया स्वयं के ‘प्रकरण’ और ‘रोगी’ को देखने की बजाय दूसरे विशेषज्ञों की सहायता अपने आत्मविश्वास को बल देने के लिए लेते हैं। ऐसा ही राजनीति में भी कुछ विशिष्ट योग्य लोग दूसरों को तो ‘‘राजा’’ बनाने की क्षमता रखते है, परन्तु स्वयं नहीं बन पाते है, ‘‘प्रजा’’ ही बने रहना पड़ता है। इस सत्य को शायद प्रशांत किशोर ने नई पारी खेलने के पहले ही स्वीकार कर लिया है जब वे यह कहते हैं कि यदि नई पार्टी बनी भी तो मैं एक साधारण सदस्य रहूंगा।
राजनैतिक युद्ध के पटल में रणनीति एक हिस्सा अवश्य व आवश्यक होती है। परन्तु यदि आपके पास युद्ध लड़ने के समस्त साधन, संसाधन, शस्त्र-अस्त्र, तंत्र नहीं है तो, न तो रणनीतिकार रणनीति बना पाएगा और न ही रण में विजय दिला पाएगा। प्रशांत किशोर की यही सच्चाई व वास्तविक स्थिति है। पर्दे के पीछे काम करना अलग बात है और पर्द से निकलकर जनता के बीच सीधे जाकर काम करना अलहदा कार्य प्रणाली है। इस सच्चाई से प्रशांत किशोर जल्दी ही वाकिफ और रूबरू हो जाएंगे। ईश्वर प्रशांत किशोर को इस नई पारी खेलने के लिए पहली पारी समान ही सफलता प्रदान करें। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ!
बुधवार, 4 मई 2022
राणा दंपत्ति का जमानती आदेश! कितना न्यायिक! कितना संवैधानिक!

‘‘तेल नीति’’ पर ‘‘राजनीति’’ नहीं, बल्कि दृढ़ राष्ट्रहित, जनहित व ‘‘पारदर्शी नीति’’ की आवश्यकता है।
‘‘तेल का खेल’’, ‘‘न खेला होवे कब’’?
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोरोना के विषय पर बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की मींटिग में समस्त राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सहकारी संघवाद की याद दिलाते हुये कहा कि वे अपने-अपने प्रदेशों में वेट को घटाकर अपने राज्य के नागरिकों को तेल की मंहगाई से राहत प्रदान करें। प्रधानमंत्री ने तेल कीमतों में ‘‘मंहगाई की आग’’ का कारण ‘‘रूस-यूक्रेन युद्ध’’ को बतलाया। पिछले 8 वर्षो में पेट्रोल 70-75 रू. से बढ़कर सैकड़ा (100) पार कर गया, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का मूल्य 130-135 डॉलर प्रति बैरल से घटकर 40-60 डॉलर तक आ गया था। रूस व यूक्रेन के बीच युद्ध प्रारंभ होने के पूर्व 24 फरवरी तक क्रुड़ आईल की कीमत अंर्तराष्ट्रीय बाजार में 100 डॉलर से भी कम लगभग 95 डाॅलर रहने के बावजूद भी हमारे देश में औसत 100 रू. से ऊपर पेट्रोल के दाम पहुंच गये थे। परन्तु प्रधानमंत्री की इस बेतहाशा तूफानी बढ़ोतरी पर कोई नजर नहीं गई। भले ही इसका कोई कारण नहीं बतलाया हो, परन्तु इस बढ़ोतरी का कारण ‘‘न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः‘‘, अर्थात धन से कभी तृप्त न होने वाली लालसा के अलावा और क्या हो सकता है? यद्यपि यह कारक देश के खजाने में वृद्धि करने में निसंदेह बहुत सहायक रहा।
केन्द्रीय सरकार द्वारा नवम्बर 2021 में एक्साइज ड्यूटी घटाकर राज्य सरकारों से वेट कम करने की अपील की गई थी। तब समस्त बीजेपी शासित राज्यों ने अपने राज्यों में वेट की दर घटा दी थी। परन्तु विपक्षी राज्योें ने नहीं घटाई। सिवाएं पंजाब को छोड़कर जहां चुनाव होने वाले थे, वहां पर वेट अवश्य घटाया गया। उक्त बैठक में ही विपक्षी राज्यों पर तंज कसते हुये प्रधानमंत्री ने एक महत्वपूर्ण आक्षेप यह लगाया कि वेट कम न करना एक तरह से राज्यों के लोगों के साथ अन्याय है। यानी ‘‘जबरा मारे और रोने भी न दे‘‘
आपको याद होगा, देश के उपभोक्ताओं के लिये पेट्रोलियम उत्पादों के मूल्य निर्धारण की नीति को यूपीए सरकार ने सरकारी ‘‘नियंत्रण से मुक्त‘‘ कर कंपनियों के पाले में ड़ाल दिया था, यह कहकर कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल (क्रूड़ ऑयल) के बढ़ते घटते मूल्य के आधार पर पेट्रोलियम कंपनीयां देशी बाजार में पेट्रोल-डीजल के दाम को तदनुसार निर्धारित कर सकेगीं और इस तरीके से तकनीकि रूप से पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने के लिए सरकार ने स्वयं को जिम्मेदारी से मुक्त कर लिया था। इसे डायनमिक प्राइसिंग कहते है। यह ‘‘आधिकारिक सैंद्धातिक’’ स्थिति है। परन्तु वास्तविक रूप से धरातल पर उतरी हुई नहीं है। बल्कि यह जैसी ‘‘बहे बहार पीठ तब वैसी दीजे’’ की नीति अपना लेती है। यह इस बात से सिद्ध होती है कि दिन-प्रतिदिन, हफ्ता-पख़वाड़ा डीजल-पेट्रोल के मूल्यों में होने वाली वृद्धि ‘‘चुनाव के समय’’ बिना किसी रूकावट के पूरी चुनावी अवधि में बिना नागा ‘‘अवकाश’’ ले लेती है। यह छुट्ठी सरकार ही तो देगी? अंर्तराष्ट्रीय बाजार नहीं? ‘‘आदर्श चुनाव संहिता लागू‘‘ होते ही मूल्य वृद्धि भी ‘‘आदर्श‘‘ दिखाने के लिए ‘‘रुक‘‘ जाती है?
देश की राजनीति में पेट्रोलियम उत्पाद के मूल्यों को लेकर क्या पक्ष क्या विपक्ष दोनों ने ही सत्ता के समय की अपनी नीति व विपक्ष के रूप में अपनी आलोचनात्मक नीति को देश हित में सही ठहराया है। इसे ही कहते है ‘‘कालस्य कुटिला गति’’ मतलब पक्ष से विपक्ष या ‘विपक्ष’ से ‘पक्ष’ होने पर राजनैतिक दलों द्वारा तेल की अपनी मूलभूत नीति में भी बहुत आसानी से सुविधाजनक परिवर्तन कर लिया जाता है। जनता द्वारा समस्त दलों को गिरगिट समान बदलती इस तेल नीति का आईना दिखाना आवश्यक है, ताकि वे अपने गिरेबानों में झांक सके। दुर्भाग्यवश यह संभव नहीं हो पा रहा है। इसलिए उक्त शीर्षक दिया गया है।
प्रधानमंत्री की राज्यों को वेट कम करने की सलाह की इस दोहरी नीति पर नागरिकों को ध्यान देने की अति आवश्यकता है। प्रधानमंत्री जब राज्यों को वेट घटाने की बात कहते है, तो वे यह कहना नहीं भूलते हैं, बल्कि इस बात पर जोर देते हैं कि इन छः महीनों में कर्नाटक को 5 हजार करोड़ व गुजरात (दोनो भाजपा शासित राज्य) को 3-4 हजार करोड़ का राजस्व का घाटा वेट घटाने के कारण उठाना पड़ा। तथापि उक्त राज्यों के पड़ोसी राज्यों (विपक्षी शासित) ने 5 हजार करोड़ का अतिरिक्त राजस्व वेट न घटाने के कारण कमा लिया। प्रधानमंत्री ने यह भी माना कि टैक्स में कटौती करने से राजस्व की हानि होती है, लेकिन आम जनता को राहत मिल जाती है। बड़ा प्रश्न यह है कि प्रधानमंत्री इस सिद्धांत को ‘‘चैरिटी बिगत्स एट होम’’ की तर्ज पर एक्साइज ड्यूटी के संबंध में क्यों नहीं अच्छी तरह से लागू करते है? पिछले 8 सालों में पेट्रोल-डीजल में क्रमशः 45%, 75% तक की एक्साइज ड्यूटी में वृद्धि (लगभग 30 रू. प्रति लिटर) होकर केन्द्र सरकार के राजस्व में चार गुना इजाफा हुआ। नवम्बर 2021 में मात्र 5 रू. व 10 रू. प्रति लिटर पेट्रोल-डीजल में कमी की गई थी। तथापि यह भी एक तथ्य है कि इसका 42 प्रतिशत राज्यों के पास चला जाता है। अब शायद 100 रू. जिसमें 100 प्रतिशत अर्थात 50 रू कीमत व 50 रू समस्त करो के करारोपण का योग शामिल हैं मूल्य को आधार मूल्य मानकर तेल के मूल्यों में वृद्धि की तुलनात्मक निष्कर्ष निकाले जाकर जनता को गुमराह किया जा रहा हैं। एक्साइज ड्यूटी बढ़ातेे समय प्रधानमंत्री को सहकारी संघवाद की याद व जनता को राहत देने का ख्याल शायद नहीं आया? यही ‘‘एक आंख से हसने और एक आंख से रोने वाली’’ दोहरी नीति है। ऐसी स्थिति में एक्साइज ड्यूटी में अल्प कमी कर सरकार राहत देने का दावा कैसे कर सकती है? अतः एक्साइज ड्यूटी बढ़ाते समय उसे अन्याय नहीं माना है। जब बढ़ोत्री ‘अन्याय’ ही नहीं तब ‘न्याय’ (छूट) की आवश्यकता कहां है?
इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है, जब भी पेट्रोल उत्पादकों पर खासकर डीजल पर करारोपण चाहे एक्साइज ड्यूटी हो अथवा वेट, उसका केसकेड़िंग प्रभाव होता है। अर्थात 2ग2त्र 4 न होकर 5 हो जाता हंै। क्योंकि अधिकतम परिवहन साधनों में फ्ूयल डीजल का उपभोग (कंजूमशन) होने के कारण भाडे़ में वृद्धि होने से समस्त जीवनपयोगी वस्तुओं के मूल्य में भी वृद्धि हो जाती है और इस प्रकार 10 रू. मूल्य की वृद्धि अंत में जाकर 12-13 रू. की वृद्धि में परिवर्तित हो जाती है। यह 2 से 3 रू. की अतिरिक्त वृद्धि जो ट्रान्सपोटेशन के कारण हो जाती है, वह देश के विकास में खर्च नहीं होती जैसा कि केन्द्रीय सरकार एक्साइज ड्यूटी बढ़ाते समय जनता से अपील करती है या दावा करती है कि बढ़ा हुआ टैक्स देश के विकास में खर्च होगा। यह बढी हुई वृद्धि ट्रान्सपोर्ट के लागत में ही लग जाती है।
प्रश्न यह है देश को चलाने वाले देश के राजनैतिज्ञ जो जनता की सेवा के नाम पर राजनैतिक क्षेत्र में आते है, और जैसा कि कहा भी जाता हैः-‘‘परोपकाराय सताम् विभूतयः’’ और जनता की सेवा के लिए पक्ष व विपक्ष के सौंपे गये दायित्व का बीड़ा उठाने का संकल्प लेते है, वे तेल की इस दोहरी नीति को कब छोड़ेगें? और देश का उद्धार करेंगें? और इस दुमही नीति के लिए देश से वे कब माफी मागेंगें?
यूपीए सरकार के प्रथम कार्यकाल (2004 से 2009) में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 50 डाॅलर से बढ़कर 160 डाॅलर प्रति बैरल तक पहंुच गई थी। जबकि पेट्रोल का दाम तब भी 45-50 रू. प्रति लिटर ही था। परन्तु कम्यूनिष्टिों के दबाव के आगे सरकार ने तेल की कीमत लगभग नहीं बढ़ाई। आर्थिक मंदी के कारण जनवरी 2009 में कच्चे तेल की कीमत घटकर 50 डाॅलर हो गयी। 2014 में एक पत्रकार वार्ता में मनमोहन सिंह का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि ‘‘इतिहास मेरे प्रति दयालु’’ होगा। एनडीए सरकार के समय कच्चे तेल के मूल्य में भारी गिरावट के बावजूद भी तेल के महगे होने के कारण भारी अंतर से हुये मुनाफे को वह कम कर जनता को राहत क्यों नहीं दे पा रही है? बल्कि जनता से बढ़ी कीमतों का भार देशहित में बुनियादी ढांचों के विकास के लिए सहने को कह रहे है। लोकोक्ति (मुहावरा) ‘‘तेल देखों; तेल की धार नहीं’’ के अर्थ को ही तेल की कीमत ने बदल दिया है। वास्तव में जनता का ही ’’तेल’’ निकल रहा है। कयोंकि तेल मतलब सिर्फ पेट्रोल-डीजल ही नहीं, बल्कि खाद्य तेलों के मूल्यों में बढ़े हुयें आयात के बावजूद भी अंगार लगी हुयी है। 56 इंच सीना लिये हुये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब सालों से चले आ रहे कठिन, बेहद विवादस्पद विषयों तीन तलाक व अनुच्छेद 370 को समाप्त कर सुलझा सकते है और किया है। इस प्रकार देशहित में साहसपूर्ण निर्णय के लिए स्वयं को सिद्ध कर चुके है। तब पेट्रोलियम उत्पादकों को जीएसटी में शामिल क्यों नहीं कर रहे हैं? पहली बार जीएसटी की जब अवधारणा आई थी, तब ‘‘एक राष्ट्र-एक दर’’ के सिद्धांत के आधार पर उसमें समस्त वस्तुओं पेट्रोल उत्पाद सहित (माल) को शामिल किया जाना था। जिस प्रकार यूपीए सरकार के समय भाजपा शासित सरकारांे के मुख्यमंत्रियों ने जीएसटी का अप्रत्यक्षतः विरोध किया था। उसी प्रकार आज पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने के लिए कुछ विपक्षी सरकारें भी अपनी अनिच्छा व्यक्त कर चुकी है। तथापि विगत दिवस ही झारखड़ के वित्तमंत्री ने पेट्रोल-डीजल कोे जीएसटी में लाने का स्वागत किया है।
पेट्रोलियम उत्पादकों को जीएसटी मंे लाने से वास्तव में किसी भी राज्य का नुकसान नहीं होगा। क्योंकि जिस प्रकार वस्तु के क्रय-विक्रय पर ‘वेट’ जिससे राज्यों को सीधे राजस्व मिलता है को समाप्त कर जीएसटी लागू करने पर वस्तुतः उससे होने वाला राजस्व का तय फ्रामूले के अनुसार राज्य कोे अपना हिस्सा केन्द्र सरकार से मिलता है। मतलब राजस्व में हानि नहीं होती है। इसका एक प्रत्यक्ष राजनैतिक फायदा यह है कि राज्य सरकारें तेल पर कर बढ़ने की स्थिति में जिम्मेदारी व बदनामी से भी बच जायेगी। यदि केेन्द्र सरकार ‘‘ओस चाट कर प्यास बुझाने वाली‘‘ नहीं बल्कि दृढ़ता से एक्साईज ड्यूटी में उद्देश्यपूर्ण राहत पहंुचाने वाली कमी करे जिससे नागरिकों को वास्तविक राहत महसूस हो तब विपक्षी शासित राज्यों पर भी नैतिक रूप से दबाव बढ़ जायेगा। और आज नहीं तो कल जब चुनाव का समय आयेगा तब निश्चित रूप से पंजाब के समान अन्य राज्य भी वेट कम करने के लिए मजबूर होगें। क्योंकि ‘‘खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है‘‘।
आप जानते है कच्चे तेल का देश में उत्पादन यूपीए सरकार के समय 30 प्रतिशत होता था पिछले तीन वर्षो से लागत कच्चे तेल के चाल उत्पादन के लागत जिसका आयात जो अभी एनडीए सरकार के समय घटकर 15 प्रतिशत के आस-पास रह गया। वर्ष 2013-14 में 77 प्रतिशत से बढ़कर 84 प्रतिशत रह गया। प्रधानमंत्री ने 10 प्रतिशत आयात कम करने का लक्ष रखा था। भारत विश्व का सबसे बड़ा कच्चे तेल का आयातक देश है। जहां घरेलू मांग की पूर्ति अधिकतम अंर्तराष्ट्रीय बाजार से आयात कर ही की जाती है, इस कारण हमारे देश की मेहनत से कमाई गई विदेशी मूद्रा भंडार का भारी मात्रा में खर्च होता है। यह हमारे बजट, जीडीपी मतलब देश के विभिन्न आर्थिक पहलुओं को किसी न किसी तरह से नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। वैसे आपको यह जानकर भी आश्चर्य होगा कि भारत रिफाइड़ कच्चे तेल का दुनिया में शीर्ष 10 देशों में शामिल है। क्या अब भी सरकार तेल के आयात कम करने के लिए वैकल्पिक उर्जा स्त्रोतों के विकास के अतिरिक्त तेल पर एक आवश्यक नई नीति नहीं बनानी चाहिए?
प्रथम तो देश में नये तेल कुओं की खोजकर नई तकनीक का उपयोग कर कच्चे तेल के धरेलु उत्पादन को बढ़ाना आवश्यक है, ताकि आयात पर निर्भरता कुछ कम हो सके। पिछले 7 सात सालों से अंर्तराष्ट्रीय बाजार में कीमत कम होने के कारण तेल पूल में संग्रहित अतिरिक्त राजस्व की कुछ राशी तेल के शोध, रिसर्च पर खर्च किया जाना चाहिए। दूसरी बात हमें कहीं न कहीं देश के भीतर कन्यजूम्शन की मांग को नियंत्रित करना होगा। जिस प्रकार हमने जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक कदम उठाये है। उसी प्रकार तेल के उपभोग को नियंत्रित करने के लिए राशनिंग एक तरीका हो सकता है। दूसरा तरीका सार्वजनिक व वाणिज्यिक परिवहन को छोड़कर प्रत्येक व्यक्ति की तेल के उपभोग की एक अधिकतम सीमा तय कर उससे उपर जाने वाले तेल के उपयोग पर अतिरिक्त कर लगाकर उपभोग को निरूतासित किया जा सकता है। जैसे बिजली की दरों की बात हो, अधिक उपभोग पर सरकार अधिक कर लगाती है। यह काम आसान नहीं होगा। परन्तु जब तब सोचेगें नहीं तो उसका हल कैसे निकलेगा? आयात पर खर्च होने वाली महत्वपूर्ण मंहगी विदेशी मूद्रा के कारण इस मुद्दे पर भी गहनता से त्वरित विचार करेने की आवश्यकता है।
अंत में एक बात और भाजपा प्रवक्ता यह कहते-कहते नहीं थकते है, देशहित में बढ़ा हुआ कर देश के विकास में खर्च होगा। देश की आय जब किसी भी भी स्त्रोत या करारोपण से हो तो उसका उपयोग अंततः देश के विकास में ही तो खर्च होता है। पेट्रोलियम में सेस का मामला ही ले लीजिये। कैग (सीएजी) ने एक रिपोर्ट में सेस की राशी जिस के अंतर्गत वसूली गयी है, उसका उपयोग उस तरह नहीं हुआ है। मात्र 21 प्रतिशत राशि ही अपेक्षित उद्देश्य के लिए की गई। अतः सरकार का जनता से उक्त आव्हान भी तथात्मक रूप से गलत सिद्व होता हैं। चंूकि बात हमेशा देश के विकास की जाती है। परन्तु देश को निर्मित व अंशदान देने वाले नागरिकों के विकास की बात पर कोई दल ध्यान नहीं दे रहा है। तो क्या देश और नागरिक का विकास अलग-अलग है? नागरिक है, तभी तो देश हैः ‘‘सर सलामत तो पगड़ी हजार‘‘!
तेल की महंगाई की जनता की इस सहनसीलता को देखते हुए एक टीवी चैनल ने तो राष्ट्रीय सहनशक्ति सूचकांक की नई अवधारणा की ही घोषणा कर दी है।
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