बुधवार, 28 दिसंबर 2011

यह कैसी संसद?


राजीव खण्डेलवाल:

कल देर रात तक चली संसद में अंतत: एक तरफ तो लोकपाल एवं लोकायुक्त बिल पारित कर दिया गया लेकिन दूसरी तरफ लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने वाला संवैधानिक संशोधन विधेयक अस्वीकार कर दिया गया। अभी कुछ दिन पूर्व ही मैने 'अन्नाÓ द्वारा उठाये गये मुद्दे ''असली संसद कौनसी है?ÓÓ मे संसद की सार्वभौमिकता का विवेचन किया था। लेकिन कल संसद में जो कुछ हुआ उससे लगता है, मुझे अपने विचारों में परिवर्तन करना पड़ रहा है। अन्ना ने जो कल पुन: कहा कि यह जनसंसद दिल्ली की संसद से बड़ी है ऐसा लगता है कि शाब्दिक अर्थो में न जाकर यदि उक्त कथन का व्यावहारिक अर्थ निकाला जाये तो अन्ना की बात में दम लगता है।
सरकार द्वारा प्रस्तुत लोकपाल बिल के विभिन्न मुद्दो पर संसद बूरी तरह से बॅटी हुई है यह बात कोई छुपी हुई नहीं है। बिल के अधिकतर प्रावधानों पर न केवल विपक्ष बल्कि सरकार के विभिन्न सहयोगी दल भी अपनी असहमति जता चुके है। लेकिन लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने के प्रस्ताव जो कांग्रेस पार्टी के रोल मॉडल राहुल गांधी ने पिछले अगस्त में लोकसभा में हुई बहस के दौरान प्रस्तुत किया था पर लगभग समस्त दल अन्ना सहित सहमत थे उस तरह विरोध में कोई भी पक्ष नहीं था जिस तरह लोकपाल बिल पर थे। वह इसलिए भी क्योंकि लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने से लोकपाल को मजबूती ही मिलती है जो कि मजबूत लोकपाल बनाने के लिए समस्त राजनैतिक पार्टियां (उनके अन्दर की राजनीति को वे लोग ही जाने) व अन्ना की सिविल सोसायटी भी सार्वजनिक रूप से चाहती है। लेकिन सबसे आश्चर्य की बात यह है जिस मुद्दे पर समस्त राजनैतिक दलों में लगभग सहमति थी वह संविधान संशोधन विधेयक तो पारित नहीं हो पाया लेकिन जिस लोकपाल बिल पर विभिन्न राजनैतिक पार्टियों में विभिन्न मुद्दो पर गलाफाड़ विरोध था वह लोकपाल विधेयक सरकार के अल्पमत में होने के बावजूद भारी बहुमत से पारित हो गया। इसलिए अन्ना की उक्त उक्ति कि जनसंसद दिल्ली की संसद से बड़ी है मायने रखती है। यह कहा जा सकता है कि लोकपाल को सवैधानिक दर्जा देने के लिए संविधान संशोधन विधेयक के लिए २/३ बहुमत की आवश्यकता होती है जो सरकार के पास नहीं थी जैसा कि कांग्रेस पार्टी के समस्त वक्ता, महावक्ता कह रहे है। लेकिन सरकार और उनके मैनेजर्स को यह बात जनता को अवश्य बतलानी होगी कि उनके श्रेष्ठतम उच्चतम नेता राहुल गांधी के सपने के उस प्रस्ताव पर उनको लोकपाल बिल पारित होने में मिले वोटो से भी कम वोट क्यों मिले जबकि उक्त मुद्दे पर उससे ज्यादा व्यापक सहमति समस्त दलों की थी। राजनीति का यही पेंच है। कांग्रेस के १६ सांसद अनुपस्थित रहे और ९ सांसदो ने वोट नहीं डाला। जब कांग्रेस के सांसद ही अपने नेता के प्रति न तो गंभीर रहे, न तो उत्तरदायी है और न हीं वफादार हैं तब कांग्रेस का भाजपा पर आरोप लगाना एक बचकानी हरकत ही है।
संसद में कल बहस के दौरान समस्त पार्टी के सांसदों ने संसद की सार्वभौमिकता को बनाये रखने की वकालत एक मत से की। लेकिन उन्ही सांसदों ने उक्त संविधान संशोधन विधेयक पर जिनपर उन्हे कोई आपत्ति नहीं रही अपने कथनानुसार मत डाल नहीं सके। यह दोहरा आचरण ही अन्ना को बार-बार यह कहने की शक्ति प्रदान करता है कि जन संसद दिल्ली की संसद से बड़ी है। इसलिए इस मुद्दे पर अन्ना पर उंगली उठाने से पहले सांसदो को अपने गिरेबारन में झांकना होगा और अपनी कथनी और करनी के बीच व्याप्त दूरी को कम करना होगा तभी वो अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकेंगे।

(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

देश की असली संसद कौन सी?


राजीव खण्डेलवाल: 
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            विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के लोकतंत्र की संवैधानिक सर्वोच्च संस्था  हमारी संवैधानिक रूप से चुनी गई 'संसद' है। संसद के दोनों सदन में लोकसभा, राज्यसभा के कुल मिलाकर ७८८ (५४५+२४३) सदस्य है जो न केवल देश के लिये कानून बनाते है बल्कि समवर्ती सूची में उल्लेखित विषयों पर राज्यों के लिए भी कानून बनाते है। यही संसद वहसंविधान जिसके अंतर्गत उसका गठन हुआ है, में भी देश के हितों को ध्यान में रखकर संविधान के मूल ढांचे (बेसिक स्ट्रक्चर) को नुकसान पहुंचाये बिना उसमें उक्त सीमा तक संशोधन करने का अधिकार रखती है जैसा कि ''केशवानंद भारती" (२४ अपे्रल १९७३) के प्रकरण में माननीय उच्चतम न्यायालय ने निर्णित किया था। आज न केवल देश बल्कि  विश्व के सबसे चर्चित आंदोलनकारी सत्यागृही अन्ना हजारे हैं जिनके जनलोकपाल बिल के लिए किये गये आंदोलन को अमेरिकन पत्रिका 'टाईम्स' ने 'विश्व के १० सबसे प्रभावशाली जनआंदोलनो' में शामिल किया है। जब ऐसा व्यक्तित्व 'अन्ना' एक ही सांस में एक साथ एक तरफ उक्त चुनी हुई संसद के सामने लोकपाल कानून बनाने के लिए बार-बार जाते है और दूसरी तरफ उसकी वैधता को ही निशाना बनाते हुये यह कहते है कि असली संसद 'वह' नही बल्कि 'यह' है, जो मेरे सामने बैठी है (रामलीला ग्राउण्ड पर अनशन पर बैठे विशाल जनमानस की ओर इशारा करते हुए) उनका यह कथन कि सांसदो को अपनी बात संसद में कहने के पूर्व ग्राम सभा जो कि असली लोकतांत्रिक संसद है, के सामने रखनी चाहिये (जमीन अधिकरण के संबंध में) व अभी हाल में ही अनका यह कथन कि यह संसद चोर डाकुओं से भरी है जिसमें १५० से अधिक अपराधी चुनकर गये है। तब इन परिस्थितियों के सामने एक नागरिक यह सोचने पर मजबूर होता है कि असली संसद कौन सी है? इसका विश्लेषण किया जाना आवश्यक है।
            इसमें कोई शक व शुबा नहीं कि देश ने जब 26 जनवरी 1950 को अपना संविधान अपनाया तब ही वह स्वतंत्र भारत से गणतंत्र भारत कहलाया जिसके अंतर्गत ही लोकसभा और राज्यसभा का गठन होकर संसद का निर्माण हुआ और प्रधानमंत्री वाली संसदीय पद्धति अपनाई गई। इस बात में भी न कोई शक वो शिकवा है कि जिस भावना, उद्देश्य को लेकर देश की जनता ने स्वशासन करने के लिए एक लोकतांत्रिक संसद की जो आशा और उन्नत व बढ़ते हुये भारत की कल्पना की थी उसे हम पाने में असफल रहे है। यद्यपि संसदीय लोकतंत्र पर्याप्त लम्बा सफर कर चुका है लेकिन कई कमिंयो के बावजूद कोई बेहतर विकल्प न होने के कारण न केवल हमें इस प्रणाली को मजबूत करते रहना पड़ेगा बल्कि समय की मांग के अनुसार समय-समय पर आवश्यक संवैधानिक संशोधन भी करते रहने होंगे। अत: जब तक हम इस संसदीय प्रजातंत्र का उचित विकल्प नहीं ढूंढ लेते है या इसमें आवश्यक व्यापक सुधार के लिये उचित संशोधन नहीं कर लेतें है तब तक अन्ना व उनकी सिविल सोसायटी को इसी संसद को ही असली जनतांत्रिक संसद मानना होगा। उसमें व्याप्त कमियों के बावजूद उसके अस्तित्व को चैलेंज नहीं किया जा सकता है। क्योंकि जिस जनता की अन्ना बात करते है उसी जनता ने उन १५० से अधिक अपराधियों को चुनकर संसद में भेजा है व अन्ना व उनकी टीम ने भी अपना महत्वपूर्ण 'मत' का उपयोग इसी संसद को चुनने में किया है।
            लोकतंत्र मे सबको अपने विचार रखने की स्वतंत्रता है, यह बात अन्ना हजारे को समझ में आना चाहिये क्योंकि जिस जनता के समर्थन के आधार पर वे अपने विचारो को जनता व संसद के बीच पहुंचाते है उसी जनता द्वारा चुने गये सांसदो (जिसमें अपराधिक प्रकरण चल रहे सांसद भी शामिल है) द्वारा संसद में अपने विचार रखे जाते है। लेकिन सफलता से उत्पन्न दर्प भाव के कारण वे सिर्फ  इस बात पर ही विश्वास करने लगे है कि लोकपाल के मुद्दे पर वे ही एकमात्र 'सच' है और जो लोग उनके विचारों से जरा से भी असहमत है वे गलत है, यह धारणा लोकतंत्र में उचित नहीं है। मुझे एक कथन याद आता है कि जब सीताराम येचुरी कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रहा करते थे तब उनके बाबत एक जुमला बहुत ही प्रसिद्ध था ''न खाता न बही जो केसरी कहे वही सही"। अन्ना जी भी शायद इसी दर्प व्याधि से ग्रसित है और बार-बार संसद को चेंलेंज कर खण्डित करने का खतरनाक प्रयास कर रहे है जो भारत के लोकतंत्र की मजबूती व स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। मैं बार- बार एक ही बात हमेशा कहता हूं कि कोई भी व्यक्ति अपने आप में पूर्ण नहीं होता है। इसी तरह अन्ना जिन्होने देश की लोकशाही को जागृत करके स्वतंत्र भारत में जय प्रकाश नारायण के बाद सबसे बड़ा कार्य किया है, जरूरी नहीं है कि उनके हर विचार, बात व कार्य हर दृष्टि से हर हमेशा सही हो। अन्ना को अपने विचारों पर दृढ़ भी रहना चाहिये जैसा कि शरद पवार के थप्पड़ मामले में नही रह पाये। आश्चर्य! धीर, वीर गंभीर अन्ना के स्वभाव में विचलन भले क्षणिक ही क्यों न हो?
            हमारे देश की लोकतांत्रिक प्रणाली में त्रिस्तरीय न्याय प्रणाली है। एक न्यायालय का निर्णय दूसरी न्यायपालिका में बदल जाता है और तत्पश्चात ऊपरी अदालत में जाकर निर्णय में पुन: बदलाव हो जाता है। अत: एक निचली न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय के विरूध्द जब हम उच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूध्द उच्चतम न्यायालय में अपील करते है। तीनो न्यायालयों के न्यायाधीशों द्वारा एक ही तथ्य पर निर्णय तीन अलग-अलग तरह से दिया गया होता है, तो क्या हम न्यायपालिका के अस्तित्व पर ही उंगली उठाने लग जायेंगे? लेकिन अन्ना संसद के तथाकथित रूप से असफल होने पर संसद के अस्तित्व पर ही प्रश्र चिन्ह लगा रहे है। संविधान में संसद द्वारा दायत्वि न निभाने पर 5 वर्ष बाद सांसदो (सरकार)को  बदलने की व्यवस्था है जो हम (जनता) ठीक से नहीं कर पा रही है। यदि 5 साल की अवधि काफी लम्बी होती है तो उसमें संविधान संशोधन कर ५ साल की अवधि कम की जा सकती है। आपातकाल के दौरान संसद की अवधि 5 वर्ष से बढ़ाकर तत्कालीन सरकार की स्वार्थ पूर्ति के लिए ६ वर्ष कर दी गई थी। यदि हम सांसदो के कार्यो से संतुष्ट नही है तो हम 'राईट टू रिकाल' का प्रावधान ला सकते है जैसा कि अन्ना मांग भी कर रहे है। देश के कई राज्यों में नगरपालिका स्तर पर यह प्रावधान लागू भी किया गया है। अनिवार्य मतदान की व्यवस्था की जा सकती है। अनेक चुनाव सुधारो की बात की जा सकती है। अर्थात व्यवस्था को सुधारने के विभिन्न संवैधानिक संशोधन किये जा सकते है। यदि हम मानते है कि आज की व्यवस्था ही 'अवांछनीय' हो गई है तो भी हम नई 'संवैधानिक' सभा की मांग भी कर सकते है। लेकिन माननीय अन्ना जी जब तक वर्तमान ५ वर्ष की व्यवस्था है तब तक संसद के अस्तित्व को चैलेंज कहना उचित नहीं है क्योंकि भीड तंत्र व लोकशाही में अंतर है। एक ओर जो भीड़ आपके सामने खड़ी है उसमें आपके विचारों से सहमत व असहमत दोनो प्रकार के लोग होते है। जैसा कि हम देखते है चुनावी माहौल में एक नेता अपने साथ भीड़ इकट्रठी किये होता है लेकिन उसका चुनावी परिणाम वोटों में परिवर्तन लाये आवश्यक या सच नहीं होता। यदि भीड़ ही एकमात्र समर्थन का मापदंड है तो अभी हुई मायावती की रेली, कांग्रेस के राहुल गांधी की सभा में हुई भीड़ रहने के बाबत क्या कहेंगे। क्या उनमें आये समस्त लोग अन्ना के जनलोकपाल के विरोधी है? क्योंकि उक्त रैलियो के नेतागण अन्ना से सहमत नहीं है। इसलिए यह अंदाज लगाना गलत है कि भीड उनके विचारों से सहमत है। वैसे यह खुशी की बात है कि सरकार द्वारा जो लोकपाल बिल आज संसद में पेश किया जा रहा है उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए अन्ना व उनकी टीम ने इसे लोकसभा मेंपारित प्रस्ताव 'सेंस ऑफ हाऊस' के विपरीत बताकर उसी संसद की अवमानना माना है जिसके अस्तित्व पर वे लगातार प्रश्रचिन्ह लगाते रहे है।
            अन्ना इस देश की गैर राजनैतिक पूंजी है और जिस दिन वे राजनैतिक पूँजी होगे उस दिन वे 'राजनैतिक' तो हो जायेंगे, लेकिन 'पूंजी' नहीं रह पायेंगे। यह देश के लिये ठीक नहीं होगा क्योंकि देश को स्वतंत्र हुये 67 साल के इतिहास में विनोबा भावे, जय प्रकाष नारायण और अन्ना हजारे जैसे व्यक्तित्व बिरले ही पैदा होते है इसलिये अन्ना टीम से अपील है कि वे अन्ना को रालेगण सिद्धि का ताकतवर 'अन्ना' ही रहने दे 'सेलीब्रिटी' न बनाये। अन्ना जनता की आत्मशक्ति का केन्द्र पूंज है।

रविवार, 18 दिसंबर 2011

संसद पर हमले की दसवीं बरसी: अफजल गुरू पर फॉसी के लिए अनशन क्यों नहीं?


राजीव खण्डेलवाल
मंगलवार दिनांक १३ तारीख को संसद पर १३ दिसम्बर २००१ को हुए कातिलाना हमले की दसवीं पूण्यतिथि पर मारे गये शहीदों को संसद भवन में देश के श्रेष्ठतम राजनैतिज्ञो द्वारा माला पहनाकर श्रद्धांजली दी गई। भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहा जाता है। लोकतंत्र की आत्मा, स्तम्भ, सम्प्रभुता संसद मानी गयी है व विधानसभा, नगरपालिका तथा ग्राम पंचायत उसकी सहायक शाखाए है। देश की अस्मिता का चीरहरण होकर लोकतंत्र की हत्या कर संसद पर १० वर्ष पूर्व हमला हुआ था जिसमें ७ लोग शहीद एवं १८ लोग घायल हुए थे। देश की सर्वोच्च (अंतिम) न्यायपालिका उच्चतम न्यायालय ने अंतिम रूप से वर्ष २००४ में संसद पर हमले के मामले को निर्णित कर फॉसी की सजा को बरकरार रखा। इसके बावजूद अफजल गुरू को देश की राजनीति और संवैधानिक प्रावधान के चलते आज तक फॉसी नहीं हो पायी। क्या १३ तारीख को देश के कर्णधारों को इस बात पर चिंता नहीं करना चाहिए था कि अफजल गुरू की फॉंसी की सजा अभी तक कार्यान्वित क्यों नही हो पाई? यदि महामहिम राष्ट्रपति द्वारा अफजल गुरू के परिवार द्वारा दायर दया याचिका (मर्सी पिटिशन) पर निर्णय न दिये जाने के कारण कोई संवैधानिक रूकावट है तो उसे दूर करने के उपायों पर विचार नहीं होना चाहिए था? क्या महामहिमजी से दया याचिका पर तुरंत निर्णय दिये जाने की अपील नहीं की जानी चाहिए थी? लेकिन शायद देश के राजनैतिक व्यवस्था के साथ-साथ नागरिकों की देश की सम्मान की रक्षा की भावना में गिरावट आना ही इसका मूलभूत कारण हो सकता है। यह इस बात से भी सिद्ध है कि देश का मीडिया जो दिल्ली के किसी मोहल्ले में हुई डबल मर्डर की घटना को तो पूरे देश में चर्चित कर देता है। लेकिन उसने भी सामान्य रूप से उक्त मुद्दे को १३ तारीख को उस तरह से देश के सामने नहीं रखकर, देश के कर्णधारो और नागरिको का ध्यान आकर्षित नहीं किया जैसा कि मीडिया से उम्मीद की जाती है और जो उसका दायित्व भी है।
कालाधन, भ्रष्टाचार और लोकपाल से भी यदि कोई बड़ा मुद यदि देश में वर्तमान में विद्यमान है तो वह अफजल गुरू को फासी देने का मुद्दा है। वह इसलिए क्योंकि वह मात्र एक अपराधी के फांसी का मुद नहीं है बल्कि देश की अस्मिता को लूटने वाला संवैधानिक व्यवस्था को ढहाने वाला ऐसा घृणापूर्ण कभी न माफ किया जा सकने वाला कृत्य है। इसके दाग को मिटाया तो नहीं जा सकता लेकिन उक्त अपराध को करने वाले व्यक्ति को अधिकतम मानवीय कानूनी सजा देकर स्वयं को तुच्छ रूप में संतुष्ट किया जाकर आने वाले समय को एक हल्की फुल्की चेतावनी जरूर दी जा सकती थी जिससे भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृति न हो। राष्ट्रपति के समक्ष लंबित अनेक फांसी की सजा को माफ करने वाली दया याचिकाए लंबित रहने के कारण महामहिम राष्ट्रपति के इस विवेकाधीन अधिकार पर प्रश्र उठना स्वभाविक है। क्या राष्ट्रपति के विवेकाधिकार को समाप्त तो नहीं कर देना चाहिए? या दया याचिका पर निर्णय लेने की कोई उचित समय सीमा का प्रतिबंध तो नहीं लगाना चाहिए? क्योंकि पूर्व में माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपने एक निर्णय में यह प्रतिपादित किया है कि सजा सुनाये जाने के बाद लम्बे समय तक फॉंसी की सजा को किर्यान्वित न करने के कारण उसे अमानवीय प्रताडऩा मानकर फॉसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया था। अत: इसकी समय सीमा क्यो नहंी निर्धारित की जानी चाहिए जैसे की अधिकतर कानूनों में समय सीमा का प्रावधान होता है। यदि राष्ट्रपति जी के पास दया याचिका पर विचार करने हेतु समय नहीं है तो उक्त प्रावधान को हटा क्यों नही देना चाहिए व अंतिम रूप से निर्णित उच्चतम न्यायालय के निर्णय का पालन होना चाहिए। यदि सब कुछ सही है तो क्या राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण यदि निर्णय नहीं हो पा रहा है तो इसका जवाब निश्चित रूप से केंद्रीय सरकार को जनता को देना पड़ेगा। क्योंकि तकनीकि रूप से कानूनी रूप से दया याचिका पर निर्णय राष्ट्रपति द्वारा लिया जाने के बावजूद व्यवहारिक रूप में महामहिम केंद्रीय सरकार के मत के अनुसार ही निर्णय लेते है। इससे यह बात सिद्ध होता है कि केंद्रीय सरकार इसे एक राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहती है जो की अनुचित व अवांछित है। जिस राजनैतिक उद्देश्य के लिए उसने इस मुद्दे को लटकाये रखा है। वह जिस उचित समय (जैसा समय-समय पर केन्द्रीय सरकार कहती रही है) की रास्ता देख रही है। वह समय आने पर भी उससे उसको फायदा नहीं होगा क्योंकि मामला देश की अस्मिता से जुड़ा है। लेकिन तुच्छ राजनैतिक दृष्टिकोण से कभी कभी मति मारी जाती है और देशहित ताक पर रख दिये जाते है। राष्ट्र यह जानना चाहता है कि इस देश में ऐसा कौन सा चेला है जो 'गुरूÓ को सजा न होने देने में सहायक सिद्ध हो रहा है।
अब मैं आपका ध्यान इस मुद्दे पर देश की विभिन्न राजनैतिक सामाजिक संगठन और स्थापित हस्तियों द्वारा कोई आंदोलन न छेडऩे की ओर ले जाना चाहता हूं। अन्ना ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनलोकपाल बिल लाने के लिए विभिन्न अवसरों पर अनशन कर पूरे देश को आंदोलित कर दिया। बाबा रामदेव कालाधन के मुद़दे पर रामलीला मैदान पर धरने पर बैठने से लेकर अपनी देशव्यापी यात्रा द्वारा पूरे देश को आंदोलित कर चुके है। विभिन्न राजनैतिक दल विभिन्न मुद्दो को लेकर गाहे बगाहे आंदोलन करते रहते है। अर्थात आंदोलन, अनशन हर व्यक्ति, संस्था और पार्टी की नजर में उनके उद्देश्य की पूर्ति का एक सफल हथियार रहा है। देश की अस्मिता को नुकसान पहुंचाने वाले अफजल गुरू को उसकी अंतिम तार्किक परणीति तक पहुंचाने अर्थात फांसी की सजा को लागू करने के लिए देश अनशन पर क्यों नहीं बैठ रहा है और देश क्यो नहीं आंदोलित हो रहा है? और इस उद्देश्य हेतु देश को आंदोलित करने के लिए गांधीवादी अन्ना हजारे आगे क्यों नहीं आ रहे यह सवाल मन को कंचोटता है। 'अन्नाÓ का नाम इसलिए नही कि 'अन्नाÓ ने ही समस्त मुद्दो को उठाने का ठेका ले रखा है बल्कि इसलिए अन्ना को आगे आना चाहिए क्योंकि देश में वर्तमान में वे ही एकमात्र शख्सियत है जिनकी स्वीकार्यता देश के मानस पटल पर (कुछ कमिंयों के बावजूद भी) प्रभावशाली रूप से विद्यमान है। 'टाईम्सÓ पत्रिका ने भी अन्ना की इस स्वीकारिता को माना है। दूसरे अन्ना के लिए यह मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण होना चाहिए क्योंकि जब वे प्रभावशाली कठोर जनलोकपाल बिल की बात करते है। तो इसका यह मतलब नहीं होता है कि मात्र कड़क प्रावधान हो बल्कि उन प्रावधानों का कड़कता की उस सीमा तक कार्यान्वित भी हो। उसी प्रकार जब भारतीय दण्ड संहिता में अधिकतम सजा (केपिटल पनिसमेंट) फांसी है तो फांसी होनी भी चाहिए तभी इस प्रावधान का अर्थ है। चूंकि अफजल गुरू की फॉसी का मुद्दा देश की सुरक्षा व अस्मिता से जुड़ा मामला है तो अन्ना को इस मुद्दे पर अनशन पर बैठना चाहिए ताकि वे अनशन के दबाव के द्वारा महामहिम राष्ट्रपति को निर्णय लेने के लिए मजबूर कर अफजल को फांसी दिलाकर उन शहीद परिवारों जिनके सदस्यों ने संसद की सुरक्षा के लिए अपना सबकुछ बलिदान कर दिया को कुछ सांत्वना मिल सके और देश के नागरिको में भी एक संतुष्टि का भाव पैदा हो सके। वैसे भी भ्रष्टाचार से बड़ा मुद़दा है देश की अस्मिता व प्रतिष्ठा का। यदि देश ही नहीं रहेगा, देश का प्रजातंत्र ही नहीं रहेगा तो भ्रष्टाचार का मुद्दा बेमानी हो जाएगा। मैं अन्ना से अपील करता हूं कि जैसे वे २७ तारीख को लोकपाल मुद्दे पर अनशन पुन: करने वाले है उससे पहले वे इसमें अफजल गुरू की फांसी का मुददा जोड़ दे तो देश के करोड़ो लोगो की भावनाओं का सम्मान करेंगे। यदि वे मुझे भी अनुमति देंगे तो मैं उनके साथ आमरण अनशन पर इस मुद्दे पर बैठने को तैयार हूं। लेकिन क्या अन्ना गांधीवादी होने और अहिंसा पर चलने के कारण देश के लिए अपनी जांन न्यौछावर कर देने के अपने कथन के बावजूद अफजल मुद्दे पर इसलिए अनशन पर नहीं बैठेंगे क्योंकि इससे एक व्यक्ति की हत्या होती है? देश का अवाम इस बात को समझना चाहता है? वैसे भी अन्ना लोकपाल के मुद्दे पर ही रूकने वाले नहीं है बल्कि स्वयं उन्होने यह घोषणा की है कि उनका अगला निशाना 'राइट टू रिकालÓ होगा। अत: जब वे देश की विभिन्न मूलभूत समस्याओं को लेकर अंतिम सांस तक अनवरत लड़ाई लडऩे के विचार व्यक्त कर चुके है। तब वे अफजल के मुद्दे पर क्यो चूक रहे है जिसका जवाब सिर्फ अन्ना ही दे सकते है।
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(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

खुदरा व्यापार-विदेशी सीधा निवेश (एफडीआई) बहस कितनी सही! कितनी गलत!



Photo taken from: firstpost.com


राजीव खण्डेलवाल:
इस समय पूरे देश में रिटेल सेक्टर में विदेशी सीधा निवेश (एफडीआई) पर चर्चा हो रही है। एफडीआई कितना कारगर है या नहीं इस पर मैं यहॉं चर्चा नहीं करूंगा। इससम्बंध में पूरे देश में इलेक्टानिक, प्रिंट मीडिया सहित अनेक फोरम पर चर्चा हो रही है। परन्तु मैं इसके कुछ  अनछुए पहलुओ पर देश के प्रबुद्ध नागरिको का ध्यान अवश्य आकर्षित करना चाहता हूं।
                      देश की राजनीति का यह एक स्थायी कल्चर हो गया है कि जब भी इस देश में कोई भी नई योजना, आयोजना, कार्ययोजना, नियम, कानून, सिद्धांत के विचार लाकर यथास्थिति में परिवर्तन करने का प्रयास किया जाता है तब उसके गुणदोष पर पक्ष-विपक्ष द्वारा विचार किये बिना, परिवर्तन लाने वाला पक्ष उसे पूर्णत: उचित ठहराता है और विरोधी पक्ष इसे पुर्णत: अनुचित। वास्तव में इस प्रकार का व्यवहार न तो सही है न उचित है और न ही देश के आगे बढऩे के लिए सही संकेत देता है। इस परिस्थिति पर गहन विचार विमर्श की आवश्यकता है। वास्तव में जब भी काई नई योजना या नीति की घोषणा सरकार द्वारा की जाती है तो वह न तो अपने आप में पूर्ण होती है, न हीं पूर्ण हो सकती है और न ही यह संभव है, बल्कि इसमें आलोचना का अवसर हमेशा विद्यमान रहता है। लेकिन न तो योजना लागू करने वाले आलोचना सुनने के लिए तैयार रहते है और न ही विपक्षी लोग आलोचना करते समय उसके विद्यमान गुणवत्ता का समर्थन किये बिना उस योजना के बारे में बिना सोचे मात्र उसकी आलोचना की चिंता को दिखाने की कोशिश करते है। इस कारण से वह विषय, मुद्दा, नीति जनता के बीच लाने का प्रयास तो एक तरफ रह जाता है और मात्र परस्पर विरोध की आड़ में वह विषय जिस से समाज के, देश के विकास को जो गति मिल सकती है (जिसके लिए वह लाया जाता है) वह धरा का धरा रह जाता है। किसी भी योजना या नीति के पक्ष-विपक्ष दोनो पक्ष होते है जिसे हमें स्वीकार करना चाहिये। इसके अतिरिक्त जब उसे लागू करने की अवस्था आती है तब भी वर्तमान व्यवस्था में व्याप्त लालफीताशाही व भ्रष्टाचार के कारण उसे पूर्णत: लागू करना संभव नहीं हो पाता है। इस कारण उसके वे परिणाम हमें नही मिलते है जिसकी उम्मीद में वह नीति बनाई जाती है। यह हमारी नीतिगत कमजोरी ही नहीं बल्कि हमारी व्यवस्था की भी विफलता है जिसपर भी गहन मंथन की आज आवश्यकता है।
                      एफडीआई भारत के लिए कोई नया विषय नहीं है पिछले कई सालों से भारत में विभिन्न क्षेत्रो में एफडीआई के माध्यम से निवेश हुआ है। चाहे दुपहिया उद्योग का मामला हो, कार उद्योग या अन्य अनेक क्षेत्र हो जिसमें एफडीआई का निवेश होने के कारण न केवल उद्योगों की प्रगति हुई बल्कि संबंधित टेक्नॉलॉजी भी भारत में आई है जिसके आधार पर भारत नें अपनी स्वयं की टेक्नॉलाजी को विकसित भी किया है। जहां तक खुदरा व्यापार में एफडीआई के आने के कारण लाभ या हानि का प्रश्र है इसपर विचार करने के पूर्व मैं दोनो पक्षों को याद दिलाना चाहता हूं कि लगभग २० वर्ष पूर्व वर्ष १९९१ में जब भारत ने सर आर्थर डंकन प्रस्ताव के माध्यम से वल्र्ड ट्रेड ट्रीटी पर दस्तखत किये थे तब उसको लागू करने वाले सरकारी पक्ष ने सुनहरे भारत का सपना देश के नागरिको को दिखाया था और इसका विरोध करने वाले पक्ष ने इसकी तुलना 'ईस्ट इंडिया कंपनी' के आगमन से कर आर्थिक रूप से पराधीन भारत की आशंका जाहिर की थी। क्या दोनो पक्षों से यह नहीं पूछा जाना चाहिए हूं कि भारत आज दोनो स्थितियों मे कहा खड़ा है? ये हमारे राजनेताओं की आदत सी हो गई है कि किसी भी स्थिति को मात्र अपने राजनैतिक दृष्टिकोण से देखने के कारण उसे अपनी ओर अधिकतम सीमा तक खीचना  देश के आर्थिक विकास के लिए ठीक नही है। यदि डंकन प्रस्ताव की याद करें तो न तो भारत आज वैसा कमजोर हुआ और न ही भारत सोने की चिडिय़ा हुआ जैसा कि दावा तत्समय दोनो पक्षो द्वारा किया गया था। आईये खुदरा व्यापार में एफडीआई के कारण होने वाले प्रभाव के सम्बंध में हम समझ ले जिसपर पूरे देश में हो हल्ला  हो रहा है। एफडीआई पूर्णत: गलत नहीं है क्योंकि हमारे देश के आर्थिक ढांचे को देखते हुए देश के विकास के लिए पूंजीगत निवेश  की अत्यधिक आवश्यकता है जिसकी पूर्ती कुछ हद तक एफडीआई द्वारा हो सकती है। परन्तु देश की आर्थिक सामाजिक स्थिति व देश की आर्थिक विकास की रीढ़ की हडड़ी हमारे किसान और व्यापारी बंधुओं की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर उनके हितो के लिए यदि निश्चित प्रतिबंध नहीं लगाये जाते है तो उससे हानि हो सकती है। इसलिए एक तो इसके निवेश की सीमा का प्रतिशत कम होना चाहिए, दूसरे उनकी संख्या तय होनी चाहिए, तीसरे माल की जगह की शहर से दूरी की न्यूनतम सीमा भी तय होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त इंफ्रास्टक्चर पर खर्च न केवल ५० प्रतिशत से अधिक होने चाहिए बल्कि वह वास्तव में हुआ है या नहीं इसकी प्रभावी निगरानी जॉच एजेंसी भी होना चाहिए। इस सबके बावजूद एफडीआई के बारे में जो गलत प्रचार है कि बिचोलिये का व्यवसाय खत्म हो जाएगा व वे बेराजगार हो जायेंगे यह सरासर गलत है। यदि उपरोक्त प्रतिबंधों के साथ रिटेल में एफडीआई आता है तो निश्चित रूप से उपरोक्त आशंका निर्मूल होगी। मैं आपको एक उदाहरण देना चाहता हूं। शहर में सामान्यतया थोक खरीदी करने वाले व्यक्ति सस्ते माल के लिए बड़ी थोक दुकान से माल किराना खरीदते है। इसके बावजूद हमारी जो नेक्स्ट डोर शॉप (बाजू की दुकान) होती है उसी से डेली कन्ज्यूम होने वाली वस्तुओं की भी खरीदी की जाती है। अब यदि एफडीआई के तहत कोई मॉल वाल-मार्ट शहर में खुलता है तो थोक की खरीदी उक्त थोक विक्रेता के बजाय वालमार्ट से (सस्ती होने पर) खरीदी जायेगी लेकिन प्रतिदिन की खरीदी नेक्स्ट डोर शॉप से ही होगी अर्थात वालमार्ट के आने से होलसेल व्यवसाई पर मार अवश्य पड़ेगी परन्तु रिटेलर पर नहीं। इसलिए शरद यादवजी का यह कथन की दो करोड़ बिचोलिये लोग बेरोजगार हो जाएंगे गलत है। एक और बात है कि जब भी नई प्रणाली लायी जाती है तो कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। इस नीति के द्वारा  हमें शुद्ध  ताजा व सस्ता माल मिले, इंफ्रास्टक्चर खड़ा हो ताकि सब्जियां व अन्य वस्तुए सड़े गले नहीं। अत: एक बेहतर फायदे के लिए एक तत्कालिक नुकसान होता है तो वह हमें सहन करना चाहिये है। फिर एक बात और यदि हम बिचोलियो की बेरोजगारी के नाम पर निंदा करने देना चाहते है जिसके कारण जहां उत्पादक को माल के उत्पादन पर उचित मुनाफा नहीं मिल रहा है वही हमारा उपभोक्ता जिसके लिए उक्त उत्पादन किया जाता है उसको कई गुना उंचे भाव पर क्रय करना पड़ रहा है इसका कारण कई स्तर पर बिचोलियों का होना ही है। मुझे याद आता है जब कम्प्यूटर युग आया था तब भी लोगो ने उस समय उसका विरोध इस आधार पर किया था की इससे बेरोजगारी बढ़ेगी लेकिन हम देखते है कि आज हम कम्प्यूटर बिना अधूरे है। गैर उत्पादक (अनप्रेडिक्टिव) रोजगार कम होकर उत्पादक रोजगार के अवसर बढ़े है। बैंको व इंसोरेंश के क्षेत्र में एफडीआई आने के बावजूद भारतीय बैंक या इंशोरेंस कम्पनी लडख़ड़ाई नहीं है। वर्ष १९६९ में बैंको के राष्ट्रीयकरण के बात देश के ग्रामींण स्तर पर बैंको की शाखा खुलने से ग्रामींण जनता की त्रण की जरूरत की कुछ सीमा तक पूर्ति होनी के कारण तत्समय प्रचलित साहुकारी व्यवसाय के बंद होने कीआशंका के कारण बहुत से लोग बेरोजगार हो गये तो क्या बेरोजगारी की आशंका के कारण साहुकारी व्यवसाय चलने देना चाहिए था। इसी प्रकार जब ऑटो रिक्शे रोड पर चलाये गये तो क्या रिक्शे, टांगे वाले बेरोजगार नहीं हो गये? तब हमने क्या ऑटो चलाना बंद कर दिया? कहने का तात्पर्य यह कि जब भी किसी वर्तमान व्यवस्था को बदला जाता है या बदलने का प्रयास किया जाता है तब इसका प्रतिरोध होना स्वाभाविक है लेकिन समय के साथ-साथ व्यवस्थाएं अपना विकल्प ढूंढ लेती है और लार्जर सिस्टम का एक पार्ट हो जाती है। 
                      एक बात और क्या रोजगार के नाम पर बिचोलियो को मुनाफाखोरी करने देना उचित है? क्या उत्पादन मूल्य व उपभोक्ता मूल्य के बीच अन्तर कम नहीं होना चाहिए? ताकि एक तरफ उत्पादक को उसके लागत खर्च के अनुसार सही मूल्य मिले दूसरी तरफ उपभोक्ता को महंगाई से निजात पाने के लिए उसकी क्रयशक्ति के अनुरूप सस्ता माल मिले। यह वहीं वक्त है जब उत्पादक व उपभोक्ता के बीच की चैनल को कम किया जाए यदि ये चैनल्स ही रोजगार देने की एकमात्र व्यवस्था है तो फिर हम इन चैनल्स के आगे और ५-१० बिचौलिये को जोड़कर उन्हे रोजगार देकर उपभोक्ताओ को क्यों और महंगा माल नहीं दे देते? वास्तव में हम इसके गुण-दोष पर संवाद न कर मात्र विवाद कर रहे है जिस कारण इस मुद्दे से जुड़े अनछुए पहलू पर विचार करने के लिए मजबूर किया है कि क्यो सरकार नें उत्पादन मूल्य से उपभोक्ता मूल्य तक पहुंचने तक में विज्ञापन  जैसा अंधाधुंध गैर उत्पाद व्यय (जो वास्तविक उत्पादन मूल्य से कई गुना हो रहा है) कर माल के कीमत की कई गुना महंगी क्यों होने दिया जा रहा है? क्या उसपर कोई नियंत्रण की आवश्यकता नहीं है? जिससे माल का मूल्य कम होकर उपभोक्ता को सस्ता माल मिल सके। वास्तव समय की यह मांग है कि आज इस पहलू पर भी एक वृहद नीति की आवश्यकता है जिस पर न केवल सरकार बल्कि बड़े औघोगिक घराने भी आत्ममंथन करें।
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(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

उन्हे थप्पड़ पड़ा ! सिर्फ एक ! अन्ना हजारे


राजीव खण्डेलवाल:
कृषि मंत्री शरद पवार पर एमडीएमसी सेन्टर में आयोजित एक गैर राजनैतिक कार्यक्रम में मिडिया कर्मियों से चर्चा के दौरान ट्रांसपोर्ट व्यवसायी युवक हरविन्दर सिंह ने अचानक शरद पवार के गाल पर थप्पड़ मार दिया जिसकी गूंज वहां उपस्थित लोगो को भले ही सुनाई न दी हो लेकिन उक्त गूंज को इलेक्ट्रानिक मीडिया ने सम्पूर्ण देश को सुनाया। इस पर त्वरित टिप्पणी करते हुए अन्ना हजारे ने जो उपरोक्त टिप्पणी 'उन्हे थप्पड़ पड़ा! सिर्फ एक!' की गूंज भी शायद उक्तथप्पड़ की गूंज से कम नहीं थी की गरमाहट अन्नाजी के दिमाग तक शायद पहुंची जिसे भाप कर उसका असर होने के पूर्व उन्होने तुरंत अपने उक्त कथन को वापिस लिये बिना उक्त घटना की उसी प्रकार आलोचना एवं निन्दा की जिस प्रकार देश में हो रही राजनीति में राजनैतिक लोग प्रतिक्रिया देते है जिससे स्वयं पंवार भी बच नहीं सकते हैं।
             कहा गया कि देश में बढ़ती हुई महंगाई के गुस्से से आक्रोशित व्यक्ति ने थप्पड़ मारकर अपना गुस्सा प्रदर्शित किया। अन्ना टीम की एक महत्वपूर्ण सदस्य किरणबेदी ने यह कहा यदि उचित लोकपाल विधेयक नहीं आया तो इसी तरह का गुस्सा प्रदर्शित होता रहेगा। टीवी चैनल्स में चर्चा में अपने आप को विशेषज्ञ मानने वाले राशिद अलवी ने यशवंत सिन्हा के महंगाई के मुद्दे पर दिनांक २२ नवम्बर को दिया गया यह बयान कि अगर सरकार महंगाई के मुद्दे पर सोती रही तो यह मुद्दा हिंसा का कारण बन सकता है के बयान को उक्त घटना के लिये दोषी ठहरा दिया। समस्त प्रतिक्रिया जाहिर करने वाले व्यक्तियों ने इस घटना का कड़ी शब्दों में निन्दा तो की लेकिन अपनी-अपनी राजनैतिक रोटिया सेकने का प्राकृतिक (नेचुरल) कार्य भी किया गया। अत: हरविन्दर सिंह ने थप्पड़ इसलिए मारा कि या तो वह महंगाई से बहुत परेशान था या वह जनलोकपाल विधेयक पारित करने में रूकावट एवं विलम्ब के लिये बेहद क्रोधित था ऐसा प्रतिक्रिया-वादियों ने प्रतिक्रिया देते समय स्थापित कर दिया। यहां मैं अन्ना और उनकी टीम की प्रतिक्रिया पर ही चर्चा करूंगा क्योंकि राजनीतिज्ञो की प्रतिक्रियाएं स्वभाविक रूप लिये हुए है और जनता उनसे पूर्ण रूपसे भलीभांति परिचित है।
             वास्तव में 'अन्ना' जैसे शख्स से उक्त तत्काल की गई प्रतिक्रिया की उम्मीद नही की जा सकती है। क्या एक थप्पड़ मारने से महंगाई या जनलोकपाल बिल के स्वास्थ्य पर कोई प्रभाव पड़ेगा? यदि वास्तव में उक्त घटना महंगाई के विरूद्ध प्रतीक मानी जाती है तो अन्ना से यह पूछा जाना चाहिए कि कितने थप्पड़ मारने पर महंगाई खत्म हो जाएगी तब तदानुसार इस देश में जीवित व्यक्ति की मूर्ति स्थापित करने की परम्परा स्थापित करने वाली मायावती के समान ही शरद पवार की भी एक भी मूर्ति बनाकर उसे उतने थप्पड़ जड़वाकर महंगाई को समाप्त कर दिया जाय तो देशहित में यह एक बहुत बड़ा कार्य होगा। अन्ना टीम इस बात का भी जवाब दे कि यदि महंगाई को थप्पड़ का प्रतीक मानते है तो पूरे देश में एक ही व्यक्ति ने थप्पड़ क्यो मारा? क्या देश में एक ही व्यक्ति महंगाई से पीडि़त है? आज के राजनैतिक सार्वजनिक जीवन में लुप्त होते है जा रहे सद्पुरूष अहिंसावादी गांधी 'अन्ना' जैसा व्यक्ति से इस तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं की जा सकती है क्योंकि यह प्रतिक्रिया उन्हे भी आम सार्वजनिक व्यक्तित्व के ऊपर नहीं रखती है। 
             मै अन्ना का बड़ा समर्थक हूं क्योंकि देश की मूक आवाम को आवाज प्रदान कर देश के स्वास्थ्य को सुधारने का सार्थक निस्वार्थ प्रयास उन्होने किया है। मैं शरद पवार की उतना ही घोर विरोधी हूं इसलिए नहीं कि वे कांग्रेसी है बल्कि देश के वे कृषि मंत्री है व देश की कृषि व्यवस्था, बाजार, अर्थ व्यवस्था पर विभिन्न विभिन्न समय पर मामला चाहे अनाज के भंडारण का हो, गन्ना के मूल्य निर्धारण का हो, बढ़ती हुए शक्कर के मूल्य का हो या अन्य कोई नीतीगत मामला हो जिसका सीधा संबंध महंगाई से रहा है उनके बयानों ने आग में घी डालने का ही कार्य किया जिससे उन्हे बचना चाहिए था। लेकिन इस का यह मतलब नहीं है कि इस देश में सामने खड़ी विकराल समस्याओं को उक्त घटना के प्रतीक के रूप में लिया जाये जैसे इलेक्ट्रानिक चैनल तथा देश के राजनीतिज्ञो ने लिया है। अन्ना शायद अपनी त्वरित प्रतिक्रिया की गरमाहट को महंसूस कर गये और इसलिए उस भाप की गरमाहट से जलने के पूर्व उन्होने अपन भाव में संशोधन कर उक्त घटना की कड़ी निन्दा की। लेकिन ज्यादा अच्छा यह होता कि उक्त त्वरित टिप्पणी को वापस ले लेते या उक्त टिप्पणी के बाबत स्पष्टीकरण देते। उक्त बात से एक बात जेहन में आती है सच ही कहा गया है कि जब आत्म विश्वास हद की सीमा पार कर जाता है तब वह 'अहंकार' में बदल जाता है। क्या अन्ना एवं उनकी टीम इस सत्य की शिकार तो नही हो गई है? पिछले कुछ समय से घटित घटनाये इसी तथ्य की और ही इंगित कर रही है। याद कीजिए संसद में सर्व सम्मति से पारित प्रस्ताव द्वारा किये गये अनुरोध को मानने से इनकार कर दिया गया जब तक प्रधानमंत्री की लिखित चिट्टी उन्हे प्राप्त हुई नहीं थी। याद कीजिए जंतरमंतर पर आन्दोलन प्रारंभ करने के पूर्व उन्हे गिरफ्तार कर तिहाड् जेल में रखा गया तब गिरफ्तारी आदेश वापस लेने के बावजूद वे एक दिन अवैधानिक रूप से जेल में कमरे में ही रहे और वही से बाहर जाने के लिए तब तक राजी नही हुए जब तक रामलीला मैदान में जगह नहीं दी गई। याद करें मोहन भागवतजी कें कथन के जवाब में उनका प्रत्युत्तर ''मुझे इनके साथ की क्या जरूरत"। याद कीजिए उस स्थिति को जब उन्होने बाबा रामदेव को अपने आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी करने की स्थिति नहीं बनने दी। याद कीजिए जब इन्होने उमा भारती जैसे राजनीतिज्ञो को (उमा केवल राजनीतिज्ञ ही नही बल्कि देश की एक प्रमुख आध्यात्मिक प्रखर प्रभावशाली वक्ता रही है) मंच के पास तक नहीं आने दिया था। याद करें रामलीला ग्राउण्ड पर आन्दोलन की समाप्ति के समय जब एक राजनैतिक आरोपित व्यक्ति विलासराव देशमुख प्रधानमंत्री का पत्र मंच पर आये तब उन्हे आपत्ती नहीं हुई। लेख लिखते-लिखते अन्ना हजारे का यह बयान ''एक थप्पड़ पर इतना गुस्सा क्यों? किसानों के पिटने पर नही गुस्साते यह बयान भी उनके अहिंसावादी छवि के विपरीत होने के साथ साथ उनके अहंकार को ही दर्शाता है। अत: यह स्पष्ट है कि अचानक प्राप्त हुई सफलता भी कई बार अहंकार को जन्म देती है और अच्छे आदमी को गलत दिशा में ले जाने का प्रयास करती है। 
             अत: यह थप्पड़ सिफ शरद पवार पर नहीं है। परिस्थितियों ने शरद पवार को थप्पड़ मारने का एक प्लेटफार्म अवश्य दिया लेकिन इसका एक अर्थ नहीं बल्कि आने वाले समय में अनेक प्रश्रवाचक चिन्ह इससे उत्पन्न होंगे।

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

शपथ-पत्र की सार्थकता वर्तमान स्थिति में !


राजीव खंडेलवाल:
देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री एवं भाजपा के सर्वोच्च नेता श्री लालकृष्ण आडवानी ने काले धन के मुद्रदे पर अपनी पार्टी के सांसदों का स्वघोषणा पत्र देने का जो कदम उठाने की घोषणा की है उसका स्वागत किया जाना चाहिए। आज के युग में हर मुद्दे पर स्वस्थ परम्परा का निर्वाह न करते हुए मात्र राजनीति करने के उद्देश्य से कांग्रेस ने इस कदम का स्वागत और इसमें सहभागिता करने के बजाय इस आधार पर उनके इस अच्छे कदम को अस्वीकार कर दिया क्योंकि यह भाजपा के लौह पुरूष द्वारा कहा गया था। आज की राजनीति ही ऐसी हो गई है इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। कांग्रेस से क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि स्वर्गीय इंदिरा गांधी के बलिदान दिवस पर पूरे देश में शपथ दिलाई जाती है क्या वे कांग्रेसी होने के कारण समस्त गैर कांग्रेसीयो को शपथ लेने से इंकार कर देना चाहिए? लेकिन आडवानी जी के बयान ने शपथ-पत्र के औचित्य पर एक नई बहस का अवसर प्रदान किया है। 
                      वास्तव में हमारे देश के अनेक संवैधानिक संस्थाओं, कार्यपालिका न्यायपालिका मे पद ग्रहण से लेकर लोंकतंत्र का आधार स्तम्भ चुनावो में भाग लेने से लेकर अनेक कार्यो में शपथ की या स्वघोषणा की व्यवस्था है। वास्तव में इसकी क्यों आवश्यकता है और यह क्या है इसका अर्थ समझ लेना आवश्यक है। शपथ पत्र या स्वघोषणा एक प्रकार का आत्मानुशासन है जो कि एक नागरिक के विवेक पर इस आधार पर छोड़ा जाता है कि वह जो कुछ स्वघोषणा करेगा वह उसे स्वयं की और प्राप्त जानकारी के आधार पर जिसे वह सत्य मानता है उसके विचारों में सत्य है। इसे कानूनी जामा पहनाने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा १९९ एवं १९३ में दांडिक प्रावधान इसलिए किया गया है ताकि कानून का डर शपथकर्ता पर बना रहे और वह झूठा शपथ-पत्र न दे। लेकिन क्या आज शपथ-गृहिता की ऐसी स्थिति वास्तव में है। यह एक प्रश्र भी नही रह गया है बल्कि वास्तविकता इसके लगभग विपरीत है। इसलिए शपथ-पत्र को भी कानूनी रूप से झूठ बालने का एक आम हथियार माना जाने लगा है। 
                      देश में शपथ लेकर अनेक व्यक्तियों ने विभिन्न पदों पर काम किया है और मंत्री से लेकर न्यायपालिका पर कदाचार और भ्रष्टाचार के अनेक आरोप न केवल कई शपथ गृहिता पर लगे है बल्कि उन पर मुकदमें भी चले है और कुछ मामलों में सजा भी हुई है। लेकिन क्या सरकार यह बतलाने का कष्ट करेगी  कि कितने लोगो के विरूद्ध धारा १९९ के अंतर्गत झूठा शपथ पत्र देने के मामले में सरकार या पुलिस प्रशासन ने कार्यवाही की है। यह एक बहुत ही बड़ा विचारणीय मुद्दा है क्योंकि वास्तव में ऐसे विरले ही उदाहरण है जहा झूठा शपथ देने के आधार पर सार्वजनिक-संवैधानिक संस्थाओं पर बैठे किसी व्यक्ति को सजा हुई हो। इसलिए सामान्य रूप से जो व्यक्ति शपथ लेता है उसे कानून का डर नहीं होने के कारण वह शपथ लेने और न लेने में कोई अंतर नहीं मान रहा है। इसलिए जो आत्मानुशासन बने रहने के लिए 'डर' की आवश्यकता होनी चाहिए वह 'न' होने के कारण शपथ पत्र मात्र एक औपचारिकता रह गई है। आयकर वाणिज्यिक कर का वकील होने के कारण शपथ की उक्त आत्म अनुशासन को वही भावना को वर्तमान में मैनें करारोपण प्रावधानों में देखा है। शासन व्यापारियों की हितैषी बनकर प्रशासनिक खर्चो में कटौती कर स्व अनुशासन के आधार पर स्वकर निर्धारण को बढ़ाने का प्रयास कर रही है जिसमें वह एक हद तक सफल भी रही है क्योंकि राजस्व में वृद्धि की हो रही है। लेकिन कर चोरी की स्थिति से इंकार भी नहीं किया जा सकता है। इसलिए आज समय आ गया है कि हम वास्तव में शपथ-पत्र को गरीमा प्रदान करने के लिए कुछ ऐसे आवश्यक कड़े कदम उठाये ताकि लोग शपथ-पत्र और सामान्य कथन में अंतर को महसूस कर सके व तदानुसार उसे अपनाए भी।

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

देश की साख को दांव पर लगाकर ईलेक्ट्रानिक मीडिया का ''टीआरपी" बढ़ाने का यह तरीका क्या उचित है?



राजीव खण्डेलवाल:
Photo by: timesofindia.indiatimes.com
विगत दिनांक १७ नवम्बर २०११ से लगातार ''स्टार न्यूज" द्वारा वर्ष १९९६ में भारत श्रीलंका के बीच हुए वल्र्ड कप सेमीफाईनल मैच में कप्तान मो. अजरूद्दीन द्वारा प्रथम फिल्डिंग करने के लिये गये निर्णय बाबत तत्कालीन टीम इंडिया के सदस्य विनोद कांबली द्वारा शंका की उंगली मो. अजरूद्दीन पर उठाई गई है। इस पर न केवल स्टार न्यूज द्वारा सतत लाईव बहस व न्यूज प्रसारण विगत चार दिवस से जारी है अपितु आज की इस गलाफाड़ प्रतिस्पर्धा के युग में अन्य न्यूज चैनल ''आज तक" इत्यादि द्वारा भी प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए इस मुद्दे पर बहस दिखाई जा रही है। क्या यह अनावश्यक होकर देश के समय की बर्बादी और टीआरपी के चक्कर में देश की ईज्जत के साथ खिलवाड़ नहीं है? यह एक प्रश्र एक लगातार प्रसारण स्टार न्यूज चैनल को देखने वाले नागरिकों के दिमाग में कौंध रहा है वह इसलिए कि विनोद कांबली के उक्त शंका पर इतनी लम्बी बहस का कोई मुद्दा ही नहीं बनता है क्योंकि उक्त आरोप के समर्थन में १६ सदस्यीय टीम का कोई भी सदस्य सामने नहीं आया है। जिसे आगे विश्लेषित किया जा रहा है। 
                    सर्वप्रथम यदि हम विनोद कांबली के आरोपो पर दृष्टि डाले तो उन्होने प्रथम बार १७ तारीख को स्टार न्यूज से बातचीत करते हुए कहा कि १९९६ के उक्त मैच के एक दिन पूर्व टीम इंडिया ने सामूहिक निर्णय प्रथम बल्लेबाजी करने का लिया था उसे तत्कालीन कप्तान अजरूद्दीन ने टॉस जीतने के बाद बदलकर फील्डिंग का जो निर्णय लिया जिससे भारत को हार का सामना करना पड़ा। इस कारण उन्होने मैच फिक्सिंग की आशंका व्यक्त की है। लगभग १५ वर्षो के बाद अब यदि विनोद कांबली जो स्वयं भी उस टीम के महत्वपूर्ण सदस्य थे उक्त देरी के लिए उचित स्वीकारयोग्य स्पष्टीकरण के अभाव में आज अकारण ही बिना किसी सबूत के उक्त गम्भीर आरोप लगाकर मात्र आशंका ही जाहिर कर रहे है। मैच फिक्सिंग होने का कोई पुख्ता दावा प्रस्तुत नहीं कर रहे है। इससे यही सिद्ध होता है कि उनके उक्त आरोप को गंभीरता से लेने की आवश्यकता बिल्कुल भी नहीं है जैसा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया उसे दे रहे है। इसके बावजूद हमें यह देखना होगा की क्या उनके बयान में एक प्रतिशत की भी सत्यता है? श्री कांबली के बयान पर यदि बारीकी से गौर किया जाये तो उन्होने यह स्पष्ट कहा की टीम इंडिया का प्रथम बैटिंग करने का सामुहिक निर्णय पूर्व रात्री में लिया गया था जिसे कप्तान अजरूद्दीन ने दूसरे दिन टॉस जीतकर बदल दिया यदि यह तथ्य वास्तव में सही व प्रमाणित है तो बिना किसी अन्य साक्ष्य के कांबली का आरोप प्रमाणित होता है। इसके लिए खेल मंत्रालय, बीसीसीआई एवं आईसीसीआई को केवल कांबली के बयान के आधार पर आवश्यक कार्यवाही करनी चाहिए बल्कि मो. अजरूद्दीन पर देशद्रोह का मुकदमा भी चलना चाहिए था मात्र आजीवन प्रतिबंध लगाकर छोड़ नहीं दिया जाना था। अत: क्या वास्तव में अजरूद्दीन व टीम इंछिया का निर्णय प्रथम बैटिंग का था मूल मुद्दा यही है। तत्कालीन १६ सदस्यीय टीम के अन्य समस्त सदस्यों में से कोई भी सदस्य कांबली के टीम इंडिया के निर्णय दिये गये उक्त कथन का समर्थन नही रहे है। इसके विपरीत टीम के सबसे महत्वपूर्ण सदस्य टीम मैनेजर अजीत वाडेकर, सदस्य वेंकटपति राजू व अन्य दो तीन सदस्यों ने चैनल के साथ बातचीत करते हुए यह स्पष्ट कहा है कि टीम इंडिया का जो सामुहिक निर्णय हुआ था वह फिल्डिंग करने का था न कि बैटिंग का क्योंकि श्रीलंका टीम उस समय टारगेट चेस करने में ज्यादा सफल हो रही थी (फाईनल में भी टीम चेस करने में ही जीती है)। तीन-चार सदस्यों ने इस संबंध में चैनल द्वारा सम्पर्क करने पर अपने कोई कमेंट्रस नहीं दिये व शेष सदस्यों से स्टार न्यूज का कोई सम्पर्क हुआ या नहीं यह भी चैनल द्वारा स्पष्ट नहीं किया गया। अर्थात १६ सदस्यीय टीम में से कोई भी सदस्य कांबली के कथन का समर्थन नहीं करता है। नवजोत सिंह सिद्दू का तत्समय दिया गया बयान कि टीम पहले बैटिंग करेगी या स्टार न्यूज के दीपक चौरसिया का यह कथन कि सिद्दू ने कही अनोपचारिक चर्चा में प्रथम बैंटिंग निर्णय को स्वीकार किया, जिसमें ही यह गलतफहमी फैली है। लेकिन चैनल द्वारा सिद्दू से इस प्रकरण में प्रतिक्रिया मांगने पर उनका प्रतिक्रिया देने से इंकार करना काम्बली के दावे का पूर्णत: कमजोर करता है। एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते एक सासंद होने के कारण उन्हे स्वयं आगे आकर उस समय लिये गये टीम निर्णय के बाबत जानकारी देश को देनी चाहिए थी ताकि चैनल द्वारा फैलाया गया धुआ साफ हो जाता। इसके बावजूद लगातार चार दिन से सतत बहस दिखाना, शंका को जन्म देता है। जितने भी चैनलों द्वारा इस संबंध में लोगो की प्रतिक्रियाए दिखाई जा रही है। उनमें से जो लोग जॉच की मांग कर रहे है उनमें से कोई भी व्यक्ति यह नहीं कह रहा है कि टीम का निर्णय पहले बैटिंग का था जिसे टास जीतने के बाद बदला गया। टीम इंडिया का फिल्डिंग का निर्णय जो लिया गया वह गलत तो हो सकता है जो बाद में हार के परिणाम स्वरूप गलत भी सिद्ध हुआ लेकिन इसे गलत निर्णय को बदला गया निर्णय बिल्कुल भी नहीं कहा जा सकता है। सामुहिक निर्णय गलत सिद्ध होने पर किसी भी व्यक्ति की फिक्सिंग का आरोपी नहीं माना जाता है। इसके बावजूद इलेक्ट्रानिक मीडिया द्वारा इस तरह देश की टोपी को पूरे विश्व में उछालने जो कार्य हो रहा है उस पर तुरंत रोक लगाई जानी चाहिए।
                    ऐसा लगता है कि इस घटना पर वैसी ही राजनीति हो रही है जैसे देश में आमतौर पर घटित कोई भी घटना पर होती है। देश के खेलमंत्री जी का यह कथन की इसकी जॉच की जानी चाहिए  राजनीति की इसी कड़ी का बयान है क्योंकि इसके पूर्व कामन्वेल्थ खेल  कांड में उन्होने प्रभावशाली जॉच की मांग नहीं की थी। चुंकि मैच फिक्सिंग का यह मामला सीधे क्रिकेट से जुड़ा है व क्रिकेट की सर्वोच्च संस्था बीसीसीआई पर खेलमंत्री नकेल डालने का असफल प्रयास कर रहे है इसलिए उनका उक्त बयान आया है। इस देश में यह आम प्रचलन हो गया हे जब भी कोई व्यक्ति किसी दूसरे पर आरोप लगाता है। चाहे वह सरकार के विरूद्ध हो, संस्था के विरूद्ध हो व्यक्तिगत हो तुरन्त जॉच आयोग के गठन की मांग की जाती है आयोग का गठन हो जाता है। जॉच आयोग के बाद समय बीतने के साथ समय के गर्भ में संबंधित पक्षकार भी घटना को भूल जाते है लोग व मीडिया भी उस घटना को भूल जाते है और मामला दफन सा हो जाता है। वास्तव यदि किसी तथ्य की जॉच होनी चाहिए तो वह इस बात की कि स्टार न्यूज ने विनोद कांबली के साथ मिलकर देश की साख पर बट्टा लगाने के मूल्य पर मात्र टीआरपी बढ़ाने के लिए विनोद कांबली के साथ फिक्सिंग तो नहीं की है। जिसके समर्थन में कोई भी तथ्य संबंधित व्यक्तियों के आगे आने के बावजूद स्टार न्यूज या अन्य चैनल प्रस्तुत नहीं कर सके है बल्कि उपलब्ध समस्त कथन, साक्ष्य या तो कांबली के विपरीत हो या मौन है लेकिन तथ्यात्मक रूप से समर्थन में नहीं बल्कि भावनात्मक रूप से। इसकी जॉच की जाकर परिणाम को लोगो के सामने उजागर करना चाहिए जिससे न केवल उक्त फिक्सिंग का सच सामने आये बल्कि उक्त मैच भी फिक्स था या नहीं पता चल सकेगा ताकि भविष्य में इस तरह की ब्राड कास्टिंग-मैच फिक्सिंग न हो सके। 

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

''आरएसएस" एक ''गाली" या ''राष्ट्भक्ति" का प्रतीक?


राजीव खण्डेलवाल:
पिछले कुछ समय से कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं आगामी महत्वपूर्ण होने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रभारी दिग्विजय सिंह देश में घटित विभिन्न घटनाओ/दुर्घटनाओ के पीछे वे आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ) जिम्मेदार मानने के आदी हो चुके है। विगत पिछले कुछ समय से उन्होने आरएसएस के खिलाफ एक (छिपे हुए एजेंडे के तहत?) मुहिम चला रखी है। एक कहावत है कि किसी भी झूठ को लगातार, दोहराया जाय तो वह सच प्रतीत होने लगती है और लोग भी कुछ समय के उसे सच मानने लगते है। एक बकरे का उदाहरण हमेशा मेरे जेहन में आता है- एक व्यक्ति बकरा लेकर बाजार जा रहा था उसे रास्ते में तीन विभिन्न जगह मिले विभिन्न राहगीरो ने उसे बेवकूफ बनाने के लिए उस बकरे को बार-बार गधा बताया जिस पर बकरा ले जाने वाला व्यक्ति भी उसे गधा मानने लगता है। इसी प्रकार दिग्विजय सिंह के कथन सत्य से परे होने के बावजूद वे लगातार झूठ इसलिए बोल रहे है कि वे भी शायद उपरोक्त सिद्धांत के आधार पर अपने ''छुपे हुए एजेंडे" को 'सफल' करने का 'असफल प्रयास' कर रहे जिस पर देश के जागरूक नागरिको का ध्यान आकर्षित किया जाना आवश्यक है।
वास्तव में आरएसएस एक सांस्कृतिक, वैचारिक संगठन है जिसका एकमात्र सिद्धांत राष्ट्र के प्रति प्रत्येक नागरिक के पूर्ण समर्पण के विचार भाव को मजबूती प्रदान कर राष्ट्र को परम वैभव की ओर ले जाना है। इसी उद्वेश्य के लिए वह सम्पूर्ण राष्ट्र में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनके व्यक्तिगत और सामाजिक उत्थान के लिए लगातार वर्ष भर कार्ययोजना बनाकर हजारो स्वयं सेवको की कड़ी मेहनत से नागरिकों के सक्रिय सहयोग से उसे क्रियान्वित करने का संजीदगी से प्रयास करता है। आरएसएस के सिद्धांतो से आम नागरिको को शायद ही कोई आपत्ती कभी रही हो। लेकिन उनकी कार्यप्रणाली को लेकर व उक्त उद्वेश्यों को प्राप्ति के लिए कार्यक्रमों को लेकर अवश्य कुछ लोगो को भ्रांति है जिन्हे दूर किया जाना आवश्यक है। जब से आरएसएस संघटन बना है तब से तीन बार इस पर कांग्रेस के केंद्रीय शासन ने राजनैतिक कारणों से प्रतिबंध लगाया और कुछ समय बाद उन्हे अंतत: उक्त प्रतिबंध को उठाना पड़ा। आज तक संगठन की हैसियत से आरएसएस पर कोई आरोप किसी भी न्यायालय में न तो लगाये गये और न ही सिद्ध किये गये। व्यक्तिगत हैसियत से यदि कोई अपराध किसी सदस्य या व्यक्ति ने किया है तो इसके लिए वह व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से स्वयं जिम्मेदार है न कि संगठन जैसा कि यह स्थिति अन्य समस्त संगठनों, समाजो के साथ है। आरोप लगाने वाले व्यक्ति के संगठन के साथ भी यही स्थिति है। यह स्पष्ट है कि आरएसएस पर लगाये गये आरोपो के विरूद्ध दिग्विजय सिंह या उनके संगठन या सरकार द्वारा कोई वैधानिक कार्यवाही नहीं की गई है और न ही कोई जांच आयोग बैठाया गया है। (क्योंकि अपने देश में जॉच आयोग का गठन तो आरोप मात्र पर तुरंत ही हो जाता है) वे मात्र अपनी 'राजनीति' को चमकाने के लिए 'अंक' बढ़ाने के लिए आरएसएस पर आरोपो की बौछार दिग्विजय सिंह लगा रहे है। लेकिन यह उनकी गलतफहमी है कि इससे उनकी राजनीति चमकेगी। लंबे समय तक न झूठ स्वीकार किया जा सकता है और न ही सत्य को अस्वीकार किया जा सकता है। सुबह उठने से लेकर रात के सोने तक जीने के लिए आवश्यक हर सांस ले रहे है दिग्विजय सिंह कोउसमें आरएसएस के 'कीटाणु' दिख रहे है। लेकिन इससे हटकर जो सबसे दुखद पहलू यह है दिग्विजय सिंह विभिन्न जन आंदोलन को सहयोग देने का आरएसएस पर आरोप लगा रहे है क्या वे वास्तव में आरोप है व वे संगठन खुलकर उक्त आरोपों के प्रतिवाद में क्यों नहीं आ रहे है यह चिंता का विषय है। वास्तव में कोई भी राजनैतिक या गैर राजनैतिक संगठनो पार्टी द्वारा आरएसएस को सहयोग देना या लेना क्या कोई आरोप है क्योंकि आरएसएस कोई अनलॉफुल संगठन नहीं है, न ही उसे कोई न्यायिक प्रक्रिया द्वारा प्रतिबंधित किया गया है। लेकिन मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के चलते खासकर देश के सबसे महत्वपूर्ण और बड़ा राज्य उप्र को देखते हुए मुस्लिम वोट के धु्रवीकरण को देखते हुए कांग्रेस का आरएसएस पर आरोप लगाना एक फैशन हो गया है। इसके विपरीत अनेक राष्ट्र विरोधी संगठन आज भी कश्मीर से लेकर देश के विभिन्न भागो में कार्यरत है। उनके खिलाफ क्या कोई प्रभावशाली आवाज कांग्रेस ने कभी उठाई? कांग्रेस के असम के एक सांसद तो विदेशी नागरिक है व उनकी भारतीय नागरिकता की प्रमाणिकता की जॉच भी चल रही है लेकिन कांग्रेस ने उनके विरूद्ध अभी तक कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं की। यदि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जिनके आंदोलन राष्ट्रीय जन-आंदोलन है जो देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, कालाधन एवं बुराईयों को दूर करने के लिए है ऐसे आंदोलन को यदि संघ का सहयोग प्राप्त है तो कौनसा देशद्रोह का अपराध इसमें अपघटित होता है या भारतीय दंडसंहिता के अंतर्गत क्या अपराध है या कौन सा राजनैतिक अपराध है? यदि नही तो बाबा रामदेव, अन्ना हजारे या श्री श्री रविशंकर जी को आगे आकर स्वयं ही साहसपूर्वक यह तथ्य स्वीकार करना चाहिए क्योंकि यदि वे किसी अच्छे कार्य में लगे है और चाहते है कि देश का प्रत्येक नागरिक, संगठन, संस्था पार्टी इस कार्य में लगे, सहयोग करे और आरएसएस उक्त आंदोलन में सहायता दे रहा है तो उन्हे सार्वजनिक रूप से उनके सहयोग को स्वीकार करने में आपत्ति या हिचक क्यों होनी चाहिए या फिर वे यह कहे कि आरएसएस एक राष्ट्र विरोधी संगठन है और हमें उनके सहायता की आवश्यकता नहीं है। अन्ना का आज मोहन भागवतजी के बयान के संबंध में दिया गया जवाबी बयान न केवल खेदजनक है बल्कि बेहद स्वार्थपूर्ण है। देश के सैकड़ो संगठनों ने अन्ना के आंदोलन का समर्थन किया लेकिन अन्ना का संघ के बारे में यह बयान कि ''मुझे उनके साथ की जरूरत क्या है" क्या अन्ना भी दिग्विजयसिंह समान संघ के 'अछूते' मानते है स्पष्ट करे। वास्तव में यदि दिग्विजय सिंह के कथन का वास्तविक अर्थ निकाला जाये तो यह बात आईने के समान साफ है कि दिग्विजय सिंह जो कह रहे है जिसे इलेक्ट्रानिक मीडिया आरोपों के रूप में पेश कर रहे है वह वास्तव में आरएसएस की प्रशंसा ही है। अन्ना, बाबा और रविशंकर जी के जनआंदोलन सामाजिक व आध्यात्मिक कार्यो को पूरे देश की जनता ने स्वीकार किया है, राष्ट्रहित में माना है। राष्ट्रउत्थान के लिए माना है इस तरह से दिग्विजय सिंह के आरोपो ने आरएसएस को राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रहित का कार्य करने का प्रमाण पत्र ही दिया है।
आपको कुछ समय पीछे ले जाना चाहता हूं। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने काश्मीर विलय के समय व चीन युद्ध में आरएसएस की भागीदारी एवं भूमिंका की प्रशंसा की थी व उन्हे २६ जनवरी की राष्ट्रीय परेड में आमंत्रित किया था। काश्मीर से लेकर देश के किसी भी भाग में आये हुए राष्ट्रीय आपदा, संकट, बाढ़, सूखा में आरएसएस के स्वयं सेवकों की जो निर्माणात्मक व रचनात्मक भूमिका रही है उसे भी कांग्रेस के कई नेताओं सहित देश ने स्वीकारा है। यदि कुछ घटनाओं जैसा कि दिग्विजय सिंह कहते है मालेगांव बमकांड जैसे मे यदि कोई व्यक्ति जो आरएसएस का तथाकथित स्वयं सेवक कभी रहा हो, आरोपित है तो उससे पूरे संगठन को बदनाम करने का अधिकार किसी व्यक्ति को नहीं मिल जाता है। प्रथमत: जो आरोप लगाये गये है वे ही अपने आप में संदिग्ध है। राजनैतिक स्वार्थपूर्ति के तहत कई बार देशप्रेमी सगठन और व्यक्तियों को बदनाम करने की साजिश रची जाती है। यह कहीं भी न तो आरोपित है और न ही सिद्ध किया है कि तथाकथित आरएसएस के व्यक्ति के कृत्य के पीछे आरएसएस की संगठित सोच है, प्लान है जिसके तहत उस व्यक्ति ने संगठन के आदेश को मानते हुए उक्त तथाकथित अपराध घटित किया है। कांग्रेस में कई घोटाले हुए है कामनवेल्थ कांड से लेकर २जी स्पेक्ट्रम कांड के आगे तक सैकड़ों घोटाले आम नागरिकों के दिलो-दिमाग में है। क्या यह मान लिया जाए कि इन घोटालों के पीछे कांग्रेस पार्टी का सामुहिक निर्णय है जिसके पालन में मंत्रियों ने उक्त घोटाले किये? राजनीति में यह नहीं चल सकता कि कडुवा-कड़ुवा थूका जाए और मीठा-मीठा खाया जाए। यदि किसी राजनीति के तहत या राजनैतिक आरोप लगा रहे है तो उससे आप स्वयं भी नहीं बच सकते है और वह सिद्धांत आप पर भी लागू होता है। इसलिए मीडिया का खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया का उत्तरदायित्व बनता है कि वह इस प्रकार के बेतुके तथ्यों को जनता तक परोसने से पहले उसके वैधानिक, संवेधानिक और नैतिक जो दायित्व है उसकी सीमा में ही अपने कार्यक्रम प्रसारित करेंगे तो वो देश के उत्थान में वे एक महत्वपूर्ण योगदान देंगे। मीडिया के दुष्प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है तो उसके प्रभाव को नकारने का प्रश्र ही कहा उठता है। मैं उन समस्त नागरिकों और संस्थाओं और पार्टियों से अपील करता हूं कि यदि अच्छा कार्य कोई भी व्यक्ति, संस्था या पार्टी करती है तो खुले दिल से उसकी प्रशंसा होनी चाहिए उसका सम्मान किया जाना चाहिए न कि उसकी आलोचना होते हुए मूक रूप से देखते रहना चाहिए।
अंत में एक बात और जो आरएसएस पर साम्प्रदायिकता का आरोप अक्सर दिग्विजय सिंह द्वारा जड़ा जाता है। वह वास्तव में गलत व एक तरफा है। किसी एक सम्प्रदाय (दिग्गी राजा के शब्दों में हिन्दु) को संगठित कर एक संगठन खड़ा करना साम्प्रदायिकता है तो यही सिद्धांत दूसरा सम्प्रदायों पर वे क्यों लागू नहीं करते है। क्या दूसरेसम्प्रदाय के लोगो ने अपना संगठन नहीं बनाया है। यदि हिंदु समाज की ही बात करे तो उसमें भी विभिन्न समाजो के सामाजिक स्तर पर अखिल भारतीय स्तर से लेकर जिले तक कई संगठन है। जब २५ करोड़ वैश्य समुदाय का अ.भा.वै. महासम्मेलन संगठन यदि साम्प्रदायिक नहीं है तो तब १०० करोड़ हिन्दुओ को संगठित करने वाला संगठन साम्प्रदायिक कैसे? साम्प्रदायिकता संगठन बनाने से नहीं विचारों से पैदा होती है। यदि एक सम्प्रदाय वाले लोग दूसरे सम्प्रदाय के लोगो को घृणा की दृष्टि को देखते है तो वह साम्प्रदायिकता है जिसे अवश्य कुचला जाना चाहिए?

''अन्ना टीम" पर उभरते आरोपों का औचित्य क्या है?



राजीव खण्डेलवाल:
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बाबा रामदेव के ''भ्रष्ट-तंत्र" और ''कालेधन" के विरूद्धकिये गये ''सफल आंदोलन" को ''सफलता पूर्वक कुचलने" के बाद केन्द्र शासन और कांग्रेस का हौसला बढऩा स्वाभाविक था। इसी कारण से उक्त सोच लिये केन्द्रीय शासन द्वारा पुन: अन्ना के बहुत बड़े ऐतिहासिक जन आंदोलन को उसी तरह से निपटाने का प्रयास किया गया था। लेकिन प्रबल 'जनबल' और 'अन्ना' के स्वयं के महात्तप के प्रभाव के कारण डरी हुई सरकार रामलीला ग्राउण्ड पर हुए अन्ना के जनआंदोलन को बाबा रामदेव के नेतृत्व में हुए आंदोलन के समान नेस्तानाबूद (जमीनदोज) नहीं कर सकी। लेकिन मन में वही पुरानी मंशा लिए हुए वह लगातार अन्ना टीम के सदस्यों पर हमला करने के बहाने व अवसर ढूंडने में लगी रही। निष्कर्ष में अंतत: यदि संतोष हेगड़े को छोड़ दिया जाए तो अन्ना सहित उनकी टीम के प्रत्येक सदस्य अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, शांतिभूषण, प्रशांत भूषण, कुमार विश्वास आदि पर विभिन्न तरह के  आरोप प्रत्यारोप लगाये गये जिनका कुछ बुद्धिजीवी वर्ग ने भी तथाकथित नैतिकता के आधार पर समर्थन किया। परिणामस्वरूप जो मूल रूप से भ्रष्टाचार के लिए आरोपित व्यक्ति, संस्था या जिम्मेदार समूह, लोग थे वे अपनी काली चादर बचाये रखने में इसीलिए सफल होते दिख रहे हैं कि सामने वाले की सफेद चादर में लगा दाग जो इक्का-दुक्का होने के कारण दूर से ही चमकता है, दिखने के कारण मीडिया भी उन इक्के-दुक्के दागो की ओर ही निशाना बनाये हुए है बजाए पूरी काली चादर वालो को निशाना बनाने के। इससे प्रश्र यह उत्पन्न होता है कि यह जो कुछ हो रहा है क्या वह उचित है? न्यायोचित है? नैतिक है? संवैधानिक है? कानूनी है? और उससे भी बड़ा प्रश्र क्या ये आरोप मात्र सैद्धांतिक है या वास्तविक व्यवहारिक है?
उक्त मुद्दे को समझने के पूर्व इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि दुनियां में कोई भी चीज एब्सोल्यूट (absolute पूर्ण) नहीं होती है अर्थात कोई भी व्यक्तित्व १०० प्रतिशत गुण या अवगुणों से परिपूर्ण नहीं होता है। वास्तविकता सदैव १०० प्रतिशत से कम ही होती है। जब कोई सिद्धांत, तथ्य, वस्तु, कार्य को वास्तविकता मेें उतारा जाता है तो वह १०० प्रतिशत से कम हो जाता है। अर्थात १०० प्रतिशत मांत्र एक भावना है, वास्तविकता नहीं। इसे हम निम्र उदाहरण से समझ सकते है। शुद्ध सोना २४ केरेट का होता है लेकिन क्या हम २४ केरेट का सोना उपयोग में ला सकते है। जब हम उसका आभूषण या अन्य उपयोग में लाते है तो उसमें कुछ न कुछ मिलावट करना आवश्यक हो जाता है तब भी उसके गुण खत्म नहीं हो जाते, वह शुद्ध आभूषण ही कहलाता है। यही वास्तविकता एवं सच है इसलिए हम सब इसे स्वीकार भी करते है। इसी प्रकार जब दुधारू जानवर का दूध दोहा जाता है तब उसके उपयोग के पूर्व उसमें एक-दो बूंद पानी मिलाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि गाय का दूध सूख न जाये इसलिए उसमें एक-दो बूंद पानी मिलाया जाता है फिर भी दूध शुद्ध ही माना जाता है। यदि उपरोक्त दोनो सिद्धांत अन्ना की टीम पर लागू किये जाये तो क्या अन्ना टीम पर लगाये गये आरोप सही सिद्ध होते है, क्या वे भ्रष्टाचारी कहलायेंगे? यदि अन्ना टीम और टूजी स्प्रेक्टम के घोटालों से लेकर अनेक बड़े चर्चित घोटालों के आरोपियों को एक साथ तराजू पर रखा जाए तो अंतर एकदम स्पष्ट नजर आएगा। अत: आज प्रत्येक नागरिक को इस स्थिति पर मम्भीरता से विचार करना होगा अन्यथा हम सब भी उस दोष के भागी होंगे जो हमने किया नहीं है अर्थात भ्रष्टाचारियों को बचाने का यह एक अप्रत्यक्ष तरीका है और इस पर रोक लगनी चाहिए जो प्रत्येक जागरूक नागरिक है उन्हे इस दुष्प्रचार के विरूद्ध आवाज उठानी चाहिए।
यदि अन्ना टीम के प्रत्येक सदस्यों पर लगे आरोपों की चर्चा, विश्लेषण किया जाये तो लेख लंबा हो जाएगा लेकिन इन सबमें जो एक कॉमन तथ्य है वह यह है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जो पूरा देश उठ खड़ा हुआ है वह मुख्य रूप से सरकारी तंत्र में लिप्त उस भ्रष्टाचार के विरूद्ध है जिसके द्वारा जनता के वह पैसे की गाढ़ी कमाई से दिया गया टेक्स से इक_ा हुये रूपये की बरबादी हो रही है। जबकि अन्ना टीम पर (सिवाय प्रशांत भूषण को छोड़कर) लगे भ्रष्टाचार और अनियमितता के आरोप को अधिकतम अनियमितता कहा जा सकता है अवैधानिकता नहीं और न ही इसमें कोई सरकारी पैसे का इनवाल्वमेंट है। यह अलग बात है कि वे इस अनियमितता से भी बच सकते थे और भविष्य में उन्हे इससे बचना भी चाहिए। लेकिन मात्र इस कारण से उनकी भ्रष्टाचार के विरूद्ध उठाई गई मुहिम को नैतिक और वैधानिक अधिकार के आधार पर उंगली नहीं उठायी जा सकती खासकर वे लोग जिनकी चाद्दर ही भ्रष्टाचार से पूर्ण पूरी काली है। 
इसलिए सिविल सोसायटी की कोर समिति की बैठक में किसी भी प्रकार के दबाव में आये बिना कोर कमेटी के भंग करने की मांग न मानने का जो निर्णय लिया है। वह सही है लेकिन साथ ही भविष्य में सिविल सोसायटी को इस बात से सावधानी बरतनी होगी कि वे अपने सदस्यों के आचरण में पूरी तरह की पारदर्शिता बनाये रखते हुए किसी भी व्यक्ति को उन पर उंगली उठाने का मौका नहीं दें। क्योंकि हाल में जो आरोप लगे है अनमें से कुछ आरोपकर्ता सिविल सोसायटी के सदस्य रहे है जिनके कारण वे आरोप एकदम से अलग-थलग नहीं किये जा सकते है। अरविंद केजरीवाल का हिसार चुनाव के मुद्दे पर दिया गया स्पष्टीकरण न तो वस्तुपरक है और न ही स्वीकारयोग्य है। केजरीवाल इस तथ्य को बिल्कुल नजर अंदाज कर रहे कि रामलीला मैदान में अनशन से उठने के पूर्व अन्ना की मांग पर न केवल कांग्रेस बल्कि पूरी संसद ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था बल्कि संसद में बहस के दौरान भी आगामी शीतकालीन सत्र में लोकपाल बिल प्रस्तुत करने की सहमति ही समस्त सदस्यों द्वारा दी गई थी। इसके बावजूद यदि केजरीवाल को कांग्रेस में नियत पर शक है जो बहुत कुछ वास्तविक भी है। तो भी उनका यह कथन औचित्यपूर्ण नहीं है कि कांग्रेस ने अन्य पार्टियों समान शीतकालीन सत्र में लोकपाल बिल पारित करने का आश्वासन नहीं दिया है। इसलिए उन्होने हिसार में चुनाव में कांग्रेस का विरोध किया। यह बात उन्हे शीतकालीन सत्र की समाप्ति के बाद ही कही जानी थी। इस कथन से सिविल सोसायटी अभी तक की गैर राजनैतिक छवि को गहरा धक्का लगा है जिससे उभरने का कोई उपाय कोर कमेटी की बैठक में नही किया गया जो कि खेदजनक है। 

क्या 'निजता' क अधिकार को सार्वजनिक करने पर उचित अंकुश लगाने का समय तो नही आ गया है?


राजीव खण्डेलवाल:-

सिविल  सोसायटी के महत्वपूर्ण सदस्य और सुप्रीम कोर्ट के सीनियर अधिवक्ता व पूर्व केन्द्रीय कानून मंत्री शांति भूषण के बेटे प्रशांत भूषण के द्वारा कश्मीर पर जनमत संग्रह के समर्थन में जो बयान हाल ही में आया था उसकी तात्कालिक प्रतिक्रियावादी प्रक्रियावादी के रूप में और फिर बाद में धीरे-धीरे ''क्रियावादी''रूप में पूरे देश में हुई जो प्रारंभ में अस्वाभाविक होते हुए की धीरे-धीरे स्वाभाविक रूप लेने लगी। जब उनके बयान पर भगतसिंह क्रांति सेना के तीन व्यक्तियो ने खुले आम दिन दहाड़े उनके उच्चतम न्यायालय के चेम्बर में जाकर उनके साथ हाथापाई को तो देश के अधिकांश लोगो ने, बुदिधजीवी वर्ग ने उक्त आक्रमण की तीव्रता के साथ आलोचना तो की लेकिन हमले की आलोचना करने के साथ-साथ प्रशांत भूषण के देश विरोधी बयान पर तात्कालिक वैसी ही कड़ी आपत्ति और प्रतिक्रिया सामान्यत: नही व्यक्त की गई सिवाय शिवसेना को छोड़कर। बाद में कुछ लोगो ने जिसमे अन्ना और इनकी टीम के लोग भी शामिल थे प्रशंत भूषण के बयान को उसके निज विचार बताकर अपना पल्ला झाड़ लिया। लेकिन न तो प्रशांत भूषण की इस बात की आलोचना की गई कि उन्होने इस तरह का बयान क्यो दिया और न ही प्रशांत भूषण को उन्होने अपने से अलग-थलग करने का प्रयास किया। इससे एक बात की आशंका पुन: बलवती हुई कि जो लोग सिद्धांतो की राजनीति करने का दावा करने से अघाते नही है और जिन्हे देश का अपूर्व समर्थन प्राप्त हुआ है वे भी कही न कही सुविधा की राजनीति के शिकार तो नही हो गये है? इससे भी बड़ा प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या ''निजता" की आड़ में सार्वजनिक रूप से कुछ भी बोला जा सकता है और क्या अब समय नही आ गया कि इस पर भी प्रभावी अंकुश विचारो की स्वतंत्रता के होते हुये भी नही लगाया जाना चाहिये?
एक नागरिक होने के नाते प्रशांत भूषण को अपनी निजी राय को सार्वजनिक करने का अधिकार हेै लेकिन उसका औचित्य वही तक है जब तक वह संविधान की सीमा में है, किसी कानून का उल्लघन न करती हो व, मर्यादित हो ,नैतिकता की रेखा से नीचे न गिरे। यदि उक्त आधारो पर प्रशांत भूषणके बयान को परखा जाये तो निश्चित रूप से उनका बयान संविधान और कानून के खिलाफ है। जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और उसका भारत मे विलय अमिट है । राष्टृ की भू-सीमा एकता के खिलाफ  आया प्रशांत भूषण का बयान देना कश्मीर के संबंध मे अलगाववादियो द्वारा जो स्टैण्ड लिया गया है उसका समर्थन करता है तो क्या यह कृत्य देश द्रोह नही है और क्या इसके लिये प्रशांत भूषण के खिलाफ  कार्यवाही नही की जानी चाहिये। अन्ना ने तुरन्त ही उनके बयान की कड़ी भत्सना करते हुए गलत क्यो नही ठहराया मात्र यह कहकर कि ये उनके निजी विचार है, उन्हे छोड़ दिया। क्या इस आधार पर लोगो को अन्ना पर उनकी सुविधा की राजनीति करने का आरोप लगाने का मौका नहीं मिलेगा। भ्रष्टाचार का मतलब सिर्फ पैसो का लेन देन नही  है बल्कि नैतिकता और कानून के विरूद्ध उठाया गया वह हर कदम भ्रष्ट आचरण की सीमा में आता है। क्या प्रशांत भूषण आज राष्ट् के सम्मान के प्रति भ्रष्टाचारी नही है? क्या निजता के आधार पर उन्हे ऐसी बयान बाजी करने की छूट दी जा सकती है  एक पति-पत्नि को सम्भेग करने का निजता का अधिकार प्राप्त है। लेकिन इस अधिकार के रहते इसका सार्वजनिक प्रदर्शन क्या वे कर सकते है?  कहने का तात्पर्य यह है कि निजता के अधिकार पर भी नैतिकता, कानून का कोई न कोई बंधन है जिसका पालन किया जाना आवश्यक है । आजकल यह एक सार्वजनिक फैशन हो गया क्योकि जब भी कोई व्यक्ति किसी मुद्दे पर अपने विचार सार्वजनिक करता है तब असहजता की स्थिति होने पर उस व्यक्ति से जुड़ी संबंधित संस्था ,पार्टियो या व्यक्तियो के समुह संबंधित व्यक्ति के बयान को उनको निजी विचार कहकर अपना पल्ला झाड़ लेती है जिस पर आवश्यक रूप से रोक लगायी जानी चाहिये। यदि किसी व्यक्ति को व्यक्तिगत विचार व्यक्त करने का शौक है तो वह अपने घर के सभी सदस्यो केा बुलाकर उनके बीच क्येा नही व्यक्त कर देता । कानून का  एक मार्मिक विशेषज्ञ माना जाने वाला व्यक्ति जो न्याय व्यवस्था का हिस्सा माना जाता है, ऐसे वकील भूषण के द्वारा इस तरह के अलगाववादी बयान पर भगतसिंह क्रांति सेना के स्वयंसेवको द्वारा जिस तरीके से प्रतिक्रिया की गई वह स्वाभाविक है। एक्सट्रीम क्रिया की एक्सट्रीम प्रतिक्रिया होनी चाहिये (श्व3ह्लह्म्द्गद्गद्व ड्डष्ह्लद्बशठ्ठ स्रद्गह्यद्गह्म्1द्ग द्ग3ह्लह्म्द्गद्गद्व ह्म्द्गड्डष्ह्लद्बशठ्ठ) बल्कि मेरे मत में एक गैर सवैेंधानिक बयान पर जो प्रतिक्रिया 'सेनाÓ द्वारा दी गई है वह सवैंधानिक व कानूनी है। वह इस तरह से कि इस देश के प्रत्येक नागरिक को राइट आफ सेल्फ डिफेन्स का अधिकार प्राप्त है अर्थात् उसे अपनी संपत्ति और जानमाल की सुरक्षा के लिये परिस्थितिवश हिंसा की अनुमति भारतीय दंड संहिता देता है। काश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, देश की माटी हमारी माता है और हमारी माता के अस्तित्व पर अगर कोई प्रश्र चिन्ह लगाएगा, आक्रमण करेगा तो हमारी माता के अस्तित्व की रक्षा के लिये राइट आफ  सेल्फ  डिफेन्स का अधिकार प्राप्त है। इसलिये भगत सिंह क्रांति सेना के उन बहादुर लड़को क ो जिन्होने उक्त कदम उठाकर विरोध व्यक्त किया है के साथ'-साथ शिवसेना केा भी मैं बधाई देना चाहता हूॅं। जिन्होने आत्मसम्मान की रक्षा करने वाले कृत्य को प्रोत्साहित करने का साहस किया। यदि उन्होने अपने अधिकार क्षेत्र का कोई उल्लघन किया हो अर्थात् हिंसा का प्रयोग यदि कानून में परमिटेड सीमा से अधिक किया है तो वे उसके दोषी हो सकते है जिसके लिये उन पर मूकदमा चलाया जा सकता है लेकिन इस बात के लिये उनकी प्रशंसा की जानी चाहिये और उन्हे इसके लिये साधूवाद दिया जाना चाहिये क्योकि उन्होने अपने इस कृत्य द्वारा देश के सोये हुये कई नागरिको को जगाने का कार्य भी किया है। 

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

'जेड' सुरक्षा व्यवस्था स्वीकार करना कितना उचित!


राजीव खण्डेलवाल:
फोटो : http://www.indianexpress.com 

अन्ना हजारे शायद 'संत' से अब एक 'सेलिब्रेटी' बन चुके है। ऐसा आभास जनमानस मे जाने लगा है, जब से उन्होने स्वयं द्वारा कोई सुरक्षा न मांगने के बावजूद महाराष्ट्र सरकार द्वारा पेश की गयी 'जेड श्रेणी' की सुरक्षा व्यवस्था को 'अनिच्छापुर्वक' स्वीकार किया है। यहा यह उल्लेखनीय है कि कोई भी सरकार जबरदस्ती किसी भी व्यक्ति को उसकी अनुमति के बिना कोई भी सुरक्षा लाद नही सकती है। ५ अप्रेल 2011 को जंतर मंतर पर अनशन पर बैठने के पूर्व पिछले बीस सालो से अधिक महाराष्ट्र प्रदेश मे विभिन्न समस्याओ व मुद्दो को लेकर अन्ना द्वारा सफलतापूर्वक 7-8 बार आंदोलन किया गया। महाराष्ट् की सरकार ने तब कोई सामान्य सुरक्षा व्यवस्था भी शायद अन्ना को उपलब्ध नही करायी। लेकिन ''जंतर मंतर" पर अनशन पर बैठने के बाद अन्ना के एक राष्ट्रीय शख्शियत बन जाने के कारण तत्पश्चात उनके द्वारा रामलीला मैदान मे 1३ दिवसीय अनशन से उन्हे राष्ट्रीय प्रसिद्धि मिली व वे देश के एक लगभग निर्विवाद व शिखर के व्यक्तित्व स्थापित हो गये। अन्ना के इस अनशन को तोडने मे महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री व वर्तमान केन्द्रीय मंत्री विलास राव देशमुख, राष्ट्रीय संत पूज्य भैयुजी महाराज के सहयोग से सफल रहे। यहां यह उल्लेखनीय है कि  ये वो ही विलास राव देशमुख है जिनके मुख्यमंत्रीत्वकाल मे अन्ना ने कई बार सफलतापूर्वक अनशन किया और मुख्यमत्री ने उनके अनशन को सफल मानकर तोड़ा। विलासराव देशमुख का दूसरा चेहरा यह भी है कि वे महाराष्ट्र के चर्चित आदर्श सोसायटी कांड में उन पर प्रमुख रूप से उंगली उठी है जिस संबंध में अन्ना ने कोई बयान नहीं दिया है। इसलिये रामलीला मैदान के अनशन की समाप्ती के बाद अन्ना की जो गतिविधिया रही है वह जनमानस को कुछ अचम्भित सी कर रही है। 

दिल्ली से अन्ना का रात्रि मे रालेगढ सिद्धि पहुचना चर्चा का विषय रहा। उससे भी ज्यादा आश्चर्य का विषय यह रहा है कि वे उस गणेश स्थापना उत्सव मे नही पहुचे जिसकी स्थापना पिछले लगातार 22 वर्षो से उनके द्वारा की जाती  रही है। इसका कोई उचित स्वीकार योग्य स्पष्टीकरण नही आया सिवाय इसके कि अन्ना का स्वास्थ्य ठीक नही था जों जनता के गले के नीचे नही उतरा। इसके बाद महाराष्ट सरकार द्वार 'जेड' श्रेणी की सुरक्षा को अनिच्छापूर्वक स्वीकार किया जाना भी अन्ना के पूर्व आचरण से मेल न खाने के कारण राजनैतिक हल्को मे इस पर भी आश्चर्य व्यक्त किया गया। क्या व्यक्ति के लोकप्रियता के शिखर पर पहुचॅने पर उसके जीवन में खतरे बढ़ जाते है, अन्ना को सुरक्षा प्रदान करने से यह प्रश्न स्वभाविक रूप से उत्पन्न होता है। वास्तव मे अन्ना ने अपना वह कठोर रूप व दृढ़ निश्चय जो आंदोलन के दौरान कई बार दिखाया था सुरक्षा व्यवस्था को अस्वीकार करने के लिये क्यों नहीं दिखाया गया यह स्थिति उनपर उंगली उठाने का मौका देती है। सरकार द्वारा उनकी गिरफ्तारी का आदेश निरस्त करने के बाद तिहाड जेल मे डेढ़ दिन तक अवैधानिक रूप से रहने के बावजुद यह उनका द्वढ निश्चय और जनता का बल ही था कि सरकार उनको स्पर्श तक नही कर सकी जैसा कि उन्होने बाबा रामदेव के साथ किया था। यह जनबल की दीवाल की सुरक्षा का ही दबाव था कि सरकार  अन्ना को रामलीला मैदान से इलाज के बहाने अस्पताल स्थानांतरित नही कर सकी। जब अन्ना के पास प्राकृतिक रूप से आज देश की जनता की युवा ब्रिग्रेड समुह सुरक्षा के रूप मे सब जगह उपलब्ध हो गई है तब सरकारी सुरक्षा स्वीकार करने का भले ही वह उनकी इच्छा के विपरीत है, क्या औचित्य है। इससे भी बडी बात यह है कि जब अन्ना स्वयं यह घोषणा कर चुके है कि उन्हे अपने जीवन का कोई भय नही है और वह किसी प्रकार की सरकारी गैर सरकारी धमकियो से नही डरते है व उन्होने अपना जीवन देश के लिये न्यौछावर कर दिया है तब उन्होने सरकार के दबाब मे आकर ही सही अपनी सुरक्षा पर विचार किया यह सबसे दुखद पहलु है। ऐसा लगता है कि सरकार दो तरफा रास्तो पर एक साथ काम कर रही है। एक तरफ अन्ना और उसकी टीम को डराना जिसमे वह पूर्णत: असफल रही है। दूसरी तरफ अन्ना को किसी भी तरीके से खुश करने का प्रयास करना और यह शायद इसी कडी का परिणाम है कि सरकार ने अग्रेंजी र्वणावली का अंतिम अक्षर जेड को अंतिम ब्रम्हास्त्र के रूप में उपयोग कर जेड सुरक्षा प्रदान कर दी। अन्ना शायद यह भूल गये कि उनके पास इससे भी अच्छी सर्वश्रेष्ठ सुरक्षा व्यवस्था ''जेड प्लस" नागरिक सुरक्षा के रूप मे उपलब्ध है। उपरोक्त घटनाये जिस तेजी से घट रही है उससे अन्ना के प्रति कुछ आशंकाओ का पैदा होना स्वभाविक है। जबकि उक्त घटनाये न तो प्राकृतिक है न स्वाभाविक है और न ही अन्ना की अभी तक की कार्यकलापो की प्रकृति से मेल खाती है इसलिए आश्चर्य मिश्रित आशंका है।

एक और बात जो हृदय को चुभने वाली है वह अन्ना का वह कथन जिसमें उन्होने सादी वर्दी में सुरक्षा व्यवस्था स्वीकार करने की बात कही है। एक सम्पूर्ण रूप से पारदर्शी व्यक्तित्व के लिये क्या यह उचित है? यदि उन्हे सुरक्षा व्यवस्था मिलती ही है तो उसकी वर्दी जनता को दिखने में क्या हर्ज है।

अन्ना द्वारा जहॉ रामलीला मैदान पर पिछडे वर्ग के बच्चो द्वारा ज्युस पीकर अनशन तोडा गया वही रालेगंढ़ सिद्धी मे जो  गणेश पूजंन भी पिछडे वर्ग के व्यक्ति से कराया गया। यह भी अन्ना के नये रूप की  ओर इंगित करता  है। इसके पहले  किसी भी आंदोलन में या सार्वजनिक गतिविधियों में अन्ना ने जाति विशेष की दृष्टि पिछले वर्ग का कोई कार्ड नहीं खेला। एक सामान्य नागरिक से, हमारी राष्ट्रिय धरोहर एक बच्चे से पूजा करायी गयी, अनशन तुड़वाया गया यदि यह कहा जाता भले ही वह पिछडे वर्ग का ही क्यो न था तो ज्यादा उचित होता। सिर्फ संविधान मे व्यवस्था कर देने मात्र से या प्रतिक रूप मे पिछडे व्यक्ति को आगे रख देने मात्र से यह पिछड़े-अगड़े की समस्या नही सुलझेगी जब तक की हम अपनी सोच में मूल परिर्वतन नही लायेगे। जब तक हम पिछडे व्यक्ति को तुच्छ नजर से देखेंगे, दया का पात्र मानेंगे अंतर मानेंगे तब तक हम वास्तविक न्याय नही कर पायेंगे इसके लिये हमे अपने दष्टिकोण मे मूलभूत परिर्वतन लाना होगा। समस्त व्यक्ति को बराबर मानते हुये पिछडे व्यक्तियो को अपने साथ बराबरी की भागीदारी देते हुये ऐसा वातावरण व परिस्थिति पैदा करनी होगी जहां पिछड़ा व्यक्ति सामान्य रूप से उसका हिस्सा बन सके तभी हम यह असमानता को दूर कर सकते है अत: अन्ना के राष्ट्रीय सोच मे आदी कमी की ओर उक्त घटना कही न कही इंगित करती है । 

अन्ना हमारी राष्ट्रीय धरोहर है। बार-बार ऐसी राष्ट्रीय धरोंहर पैदा नही होती। उनको अक्षुण बनाया रखना हमार राष्ट्रीय कर्तव्य है। लेकिन जिस 'तंत्र' के खिलाफ  वे लड़ रहे है वह इतना मजबुत है और उसे अपने आप पर इतना धंमड है कि वह अन्ना जैसे व्यक्ति को  भी अपने तंत्र मे समायोजित कर उनके पृथक पहचान को समाप्त कर देगा की सोच लिये हुये है। इसलिये हमे हमेशा होश हवास में रहकर व प्रहरी बनकर अन्ना के आचरण पर यदि रत्ती भर भी आंच आती है या आने की संभावना दिखती है तो हमें उस आंच से अन्ना को दूर रखने का  प्रयास करते रहना चाहिये ताकि अन्ना ने जो देश को मजबूत कर आगे बढाने का जिम्मा उठाया है जिसके लिये उन्हे अनेक कदम और आगे उठाने है वे उसमे अपने आप को पुर्ण रूप से मजबुत व फिट माने।

शनिवार, 27 अगस्त 2011

दृढ़ इच्छाशक्ति कहॉ से लाए?



राजीव खण्डेलवाल:
                    राहुल गांधी ने लोकसभा में लम्बे अंतराल की चुप्पी के बाद लोकपाल बिल पर अपना रूख  लोकसभा में स्पष्ट किया। यद्यपि उन्होने अपना रूख स्पष्ट करने में बहुत देरी की जिसके लिए उन्होने कोई कारण नहीं बताया। सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी जिस व्यक्ति को देश का भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्राजेक्ट कर रही हो और हाल ही में कुछ सर्वे में भी देश के प्रधानमंत्री के रूप में सबसे अधिक स्वीकारिता राहुल गांधी के नाम पर बताई गई थी। जनता की यह उम्मीद गलत नही है कि किसी भी राष्ट्रीय मुद्दे पर खासकर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जहां पूरा देश आंदोलित हो चुका है उस पर राहुल गांधी का चुप्पी साधना निश्चित रूप से एक आश्चर्यजनक घटना थी। अंतत: राहुल गांधी ने जो विचार व्यक्त किये उससे असहमत नहीं हुआ जा सकता है। मुख्य रूप से राहुल गांधी ने तीन बाते कही। एक अन्ना ने भ्रष्टाचार के विरोध में देश को राष्ट्रव्यापी रूप से आंदोलित किया जिसके लिए वे साधुवाद के पात्र है। दूसरा प्रभावी लोकपाल बिल आना चाहिए जिसके लिए जनलोकपाल बिल से एक कदम आगे जाकर लोकपाल को चुनाव आयोग के समान संवैधानिक ढांचा देने की वकालत की तीसरा एक कानून बनाने से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होगा, अंतिम बात लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को कमजोर न करने की थी। राजनैतिक हल्को में जो सबसे चर्चित टिप्पणी राहुल के बयान को लेकर रही वह लोकपाल को ''संवैधानिक संस्था" का रूप देने के मुद्दे पर रही। इसे सही मानते हुए भी कई राजनैतिक टीकाकारों ने उसे गलत समय पर मुद्दे से हटाने वाला कथन बताया। यदि सरकार आज अन्ना के तीन मुद्दों पर प्रस्ताव पारित करवा देती है तो वह लोकपाल का संवैधानिक दर्जा देने के राहुल गांधी के मुद्दे को राजनीति से ग्रस्त होने के आरोपों से बच जायेगी। राहुल गांधी ने एक और महत्वपूर्ण बात  कही की आज ठोस दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति की भी आवश्यकता है।
                          सबसे महत्वपूर्ण बात मेरी नजर में जो है वह दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता। किसी भी समस्या का समाधान सिर्फ कानून बनाकर लागू करके नहंी किया जा सकता है जब तक न केवल उसको लागू करने की तंत्र की दृढ़ इच्छाशक्ति हो बल्कि नागरिकगण भी स्वप्रेरणा से मजबूत दृढ़ इच्छाशक्ति के रहते स्वयं पर उस कानून को लागू करें। यह सिर्फ तर्क ही नहीं है बल्कि वास्तविकता है। इसका एक उदाहरण मैं आपको देना चाहता हूं। लोक जनप्रतिनिधित्व अधिनियम १९५१ (प्यूपिल्स रिप्रजेंटेशन एक्ट) १९५१ से आज तक लागू है। १२ दिसम्बर १९९० को जब टीएन शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त बने तब लोगो ने पहली बार यह महसूस किया कि वास्तव में लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम कोई चुनावी कानून इस देश में लागू है जिसके अंतर्गत निपष्क्ष स्वच्छ व कम खर्चीले चुनाव कराये जा सकते है। टीएन शेषन जब आये थे तो उन्होने लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम में कोई नया संशोधन नहीं करवाया था या उन्हे कोई स्पेशल अधिकार नहीं मिल गये थे। कानून वही पुराना लागू था लेकिन उस कानून का अहसास प्रथम बार इस देश के 'मालिकोÓ (नागरिकों) को तभी हुआ। उसका एक मात्र कारण उस कानून को लागू करने वाला तंत्र का मुखिया टीएन शेषन की दृढ़ इच्छाशक्ति थी जिसके कारण वही कानून के द्वारा उन्होने एक बेहतर चुनाव कराये जो इसके पूर्व मात्र एक कल्पना ही थे और पूर्व दूसरे मुख्य चुनाव आयुक्त नहंी करवा पाये थे। उसके बाद के भी चुनावों में दृढ़ इच्छाशक्ति में कुछ कमी आने के कारण वैसे चुनाव नहीं हो पाये। अत: यह स्पष्ट है कि यदि दृढ़ इच्छाशक्ति है तो ही कानून के सहारे समस्या सुलझाई जा सकती है अन्यथा नहीं। यही भाव क्या लोकपाल बिल पारित होने के उपरान्त होगा। इसकी सफलता इसी दृढ़शक्ति पर निर्भर रहेगी। जैसा कि मैंने पूर्व में कहा कि लोकपाल की दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ-साथ यदि जनता की भी दृढ़शक्ति उतनी ही ठोस हो जाए तो फिर वह कानून, लोकपाल का कानून बहुत तजी से कार्य करेगा। क्योकि जब जनता जिनके बीच में ही भ्रष्टाचार करने वाले व्यक्ति शामिल है वे अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण  यदि यह प्रण लेते है कि वे न तो रिश्वत लेंगे और न ही देंगे। यदि उनकी इच्छाशक्ति और मजबूत हो जाती है तो वे यह भी सोच सकते है कि वे दूसरे व्यक्क्तियों की भी न रिश्वत लेने-देंगे। सच मानिये तब फिर न केवल लोकपाल बिल प्रभावशाली रूप से परिणाम देगा बल्कि भविष्य में ऐसी स्थिति आ सकती है जब इस तरह के कानून होने की आवश्यकता ही समाज में महसूस नहीं होगी। यही बात आज रामलीला मंच पर प्रथम बार कोई लोकप्रिय प्रभावशाली व्यक्तित्व ने की थी जो प्रसिद्ध फिल्मी कलाकार आमीर खान थे। व्यक्तिगत लेवल पर कुछ लोगो ने जरूर यह विचार व्यक्त किये थे कि वे आगे से अपने जीवन में न तो रिश्वत लेंगे और न ही देंगे। लेकिन अन्य प्रभावशाली व्यक्तित्व की इस तरह की प्रभावी अपील शायद ही पंच पर हुई हो लेकिन अंत में श्रीमति किरण बेदी ने इसी तरह की अपील की है। आज अन्ना को इस बात के लिये साधुवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होने लोगो का मेंटल स्टेटस इस बात के लिए तैयार कर दिया है कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ मानसिक रूप से तैयार हो रहे है। जब 'मन' एक स्थिति के लिए तैयार हो जाता है तब उस समय 'मन' को कोई बात स्टाईक (स्ट्राईक) की जाए तो वह बहुत प्रभावशाली होती है। अन्ना को इस बात के लिए उन हजारो लोंगो का आव्हाहन किया जाना चाहिए कि वे अपने साथ उन लोगो को शपथ दिलाए कि वे न तो आगे भ्रष्टाचार करेंगे और न करने देंगे जैसा कि आमीर खान ने आज मंच से अपील की। इसी तरह प्रतिदिन देश के आध्यात्मिक गुरूगण अपने-अपने भक्तों, शिष्यों के बीच अपने आश्रम में, शिविर में उन्हे अपने-अपने ईस्ट (ईश्वर) की शपथ दिलाकर भ्रष्टाचार के विरूद्ध शपथ दिलाए तो वह लोगो कि इच्छाशक्ति को दृढ़ करने में सहायक होगी। इस तरह से देश बगैर आंदोलित हुये बिना भी किसी भी समस्या का निवारण करने में सक्षम होगा। क्योंकि देश की लगभग ८० प्रतिशत से अधिक जनता धार्मिक आस्था के कारण किसी न किसी आध्यात्मिक गुरूओं से प्रभावित होने के कारण उनके कथनों को मानती है। मैं इसी उम्मीद के साथ अन्ना जी से अपील करता हूं कि वे अनशन समाप्त करने के बाद प्रतिदिन रामलीला ग्राउण्ड में यदि लोगो को भ्रष्टाचार न करने की शपथ दिलाए तो यह बहुत बड़ी मूहिम होगी और देश उनको नमन करेगा। 

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

क्या 'भ्रष्टाचारी' भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकता?


राजीव खण्डेलवाल

विगत कुछ समय से अन्ना और उसकी टीम पर केन्द्र सरकार और कांग्रेस पार्टी द्वारा लगातार हमले किये जा रहे है कि अन्ना और उनके साथी भ्रष्टाचार में स्वयं लिप्त रहे है। इसलिए भ्रष्टाचार के विरूद्ध इन्हे आवाज उठाने का कोई अधिकार नहीं है। वास्तव में जब भी किसी भी सरकार के विरूद्ध कोई व्यक्ति, संस्था या पार्टी आवाज उठाती है और उसेआंदोलन के स्वरूप तक ले जाती है। तो सरकार का प्रयास यह होता है कि उस व्यक्ति या संस्था को इतना बदनाम कर दो की उसकी नैतिक स्वीकारिता जनता के बीच नहीं रहे और वह आंदोलन टाय टाय फिस हो जाए। अन्ना और उसकी टीम पर आरोप लगाने का सरकार का उद्देश्य भी यही है।

कांग्रेस पार्टी और खासकर उनके प्रवक्ता मनीष तिवारीजी यह स्पष्ट करें कि उन्होने अन्ना पर उपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार में लिप्त होने का आरोप लगाकर क्या वह उनके भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करने का कानूनी हक छीनना चाहते है या नैतिक हक छीनना चाहते है? और दोनो ही स्थितियों में वे अपने गिरेबान में झांके तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि उन्हे न तो कानूनी और न ही नैतिक रूप से अन्ना और उनकी टीम पर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उंगली उठाने का अधिकार है। मनीष तिवारी कीबात को यदि सिर्फ तर्क के रूप में मान्य भी की जाए कि अन्ना भ्रष्टाचारी है तो भी उन्हे कानूनी रूप से किसी भी दूसरे जगह हो रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने का नागरिक अधिकार प्राप्त है। यदि एक 'अपराधीÓ के सामने कोई दूसरा अपराध हो रहा है तो उसकी गवाही अन्य परिस्थितियां और गवाहो के साथ स्वीकार योग्य है। इस देश की वर्तमान संसद में लगभग साठ से अधिक सांसदो के खिलाफ विभिन्न अपराधिक प्रकरण चल रहे है, पूर्व में स्टिंग आपरेशन हुए है वे भी जनता का समर्थन पाकर संसद में चुने जाकर कानून निर्माण में लगे हुए है। तब कोई नैतिकता की बात नहीं आती। इसी प्रकार यदि कांग्रेस पार्टी अन्ना को भ्रष्ट मान भी रही है तो भी उसके बावजूद जनता ने उनको देशव्यापी समर्थन भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिल के माध्यम से दिया है। अर्थात न तो जनता अन्ना व उसकी टीम को भ्रष्ट मान रही है और न ही किसी कानूनी प्रक्रिया के तहत वे भ्रष्टाचार के आरोपी बनाये गये, सिद्ध होना तो दूर की बात है। इसलिए अन्ना के पास जितना कानूनी बल है, उतना ही नैतिक बल भी है इसलिए सरकार में घबराहट के लक्षण है। चूंकि अन्ना निडर है और उन्होने सरकार को खुली चेतावनी दी है कि वे उनके खिलाफ कोई भी जॉच करा ले, एफआईआर दर्ज करा लें वे सबका स्वागतपूर्वक सामना करने को तैयार है इसलिए सरकार की घबराहट और झल्लाहट क्षण प्रतिक्षण बढ़ती जा रही है जिसके यह परिणाम है कि सरकार संवैधानिक दायित्वों को निभाने के बजाय इस प्रकार के दुष्प्रचार कर जनता के बीच अन्ना के विरूद्ध एक घृणा पैदा करने का असफल प्रयास कर रही है।

प्रधानमंत्री, केंद्रीय सरकार के विभिन्न मंत्री और कांगेस पार्टी का बार-बार यही कथन कि अन्ना संविधानेत्तर लोकपाल बिल के मुद्दे पर गैरसंवैधानिक रूख अपनाये हुए है क्योंकि कानून बनाने का काम संसद का है जो संसद की स्थाई समिति को सौप दिया गया है और इसलिए अन्ना का अनशन गैर औचित्यपूर्ण है। कांगे्रस पार्टी और मंत्री भूल गये कि यद्यपि लोकतंत्र में संसदीय प्रणाली में जनता द्वारा प्रतिनिधि निश्चित अवधि (पांच वर्ष) के लिए चुने जाकर सरकार चलाते है। लेकिन संसदीय लोकतंत्र की इस व्यवस्था मात्र से ही लोकतंत्र के जनता के जनतांत्रिक अधिकार छिन नहीं जाते है। यदि कांग्रेस पार्टी का तर्क मान लिया जाए तो फिर विपक्षी पार्टियों को संसद में भी कोई विरोध नहीं करना चाहिए क्योंकि संसदीय लोकतंत्र बहुमत की राय से चलता है और जब जनता ने कांगे्रस को बहुमत देकर शासन करने का जनादेश दिया है तो फिर विपक्ष की क्या आवश्यकता है और न ही विपक्ष को संसद में सरकार की नकेल कसना चाहिए है? लोकतंत्र की यह व्यवस्था है कि सत्ता पक्ष (शासन) के साथ-साथ विपक्ष भी इसी लोकतंत्र का भाग है और विपक्ष होने के नाते सरकार की गैरसंवेदनशील अलोकप्रिय व जनअहितकारी नीतियों पर अंकुश लगाये और उसके लिए अपना सार्थक विरोध करें। उसी प्रकार पांच साल के लिए चुनी गई सरकार के अलोकप्रिय निर्णय के विरूद्ध नागरिक संगठनो को सरकार के विरूद्ध जनता के बीच जाकर आवाज उठाने का अधिकार भी यही संसदीय लोकतंत्र देता है। इसका उपयोग ही अन्ना हजारे और उसकी टीम कर रही है। जिसको देश के विराट बहुमत ने समर्थन देकर सही सिद्ध किया है। इसलिए कांग्रेस पार्टी और उसके मंत्री इस कुतर्क का सहारा नहीं ले कि अन्ना संसदीय लोकतंत्र के परे संसदीय संस्था को कमजोर करने का प्रयास कर रहे है। यहां लोहिया की पंक्ति की पुन: याद आती है कि ''जिंदा कौमें पांच साल तक चुप नहीं रह सकतीÓÓ। अन्ना ने यह बात सिद्ध की है कि भारत की कौम जिंदा कौम है। लोहिया ने जो कहा था वह आज भी सही और अन्ना का अगला कदम राईट टू रिकाल के लिए होना चाहिए ताकि सत्ताधारी पार्टी जनआंदोलन के खिलाफ उपरोक्त कुतर्क के आधार पर यदि आंदोलन को रोकने का प्रयास करेंतो ऐसे जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाकर माकूल जवाब दिया जा सके।

अंत में एक बात और इस दुनिया में कोई भी व्यक्तित्व पूर्ण नहीं है। कुछ कमियों के साथ अधिकतम अच्छाई या कुछ अच्छाईयों के साथ अधिकतम बुराईया है यह मानवीय लक्षण है। इसलिए भी यदि अन्ना में कोई बुराइयां है या कोई गलत कार्य किया है तो भी एक अच्छे उद्देश्य के लिये अच्छा कार्य करने से उक्त आधार पर उन्हे नहीं रोका जा सकता है बल्कि वे उक्त कार्य करके अपने को एक और अच्छा व्यक्ति बनने की दिशा में एक अच्छा उठाया गया कदम है यह सिद्ध करेंगे।

सोमवार, 15 अगस्त 2011

आंदोलन-परमिशन क्या परस्पर विरोधाभासी नहीं?



पूरे देश में इस समय एक ही बात पर बहस हो रही है १६ तारीख को अन्ना हजारे का अनशन होगा कि नहीं? क्योंकि इसके लिए सिविल सोसायटी के लोगो ने अनशन की ''परमिशन" शासन व पुलिस कमीश्नर से मांगी जो देहली पुलिस द्वारा २२ शर्तो के साथ ''परमिशन" दी गई जिसमें से २० शर्ते पूर्व में अन्ना टीम स्वीकार कर चुकी है लेकिन आज १६ शर्तो की स्वीकृति का शपथ पत्र देने के बाद बची शेष शर्ते न मानने के कारण देहली पुलिस ने अभी तक स्वीकृति प्रदान नहीं की और इसलिए अन्ना के अनशन पर एक संदेह पैदा हो गया है। 

यह पूरा घटनाक्रम जो पिछले एक हप्ते से ''अनशन की परमिशन" के कारण पैदा हो रहा है वह यह है कि क्या विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में आंदोलन या अनशन के लिए ''परमिशन" की आवश्यकता है? जिस तरह से सरकार अन्ना टीम को 'परमिशन" के लिए झुला रही है और अन्ना टीम भी एक ऑफिस से दूसरे ऑफिस के चक्कर लगा रही है, क्या यह उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन व आक्रमण तो नहीं है? इस पर भी अन्ना टीम को गहराई से लोकपाल के मुद्दे के साथ विचार और चिंतन करना आवश्यक हो गया है। अन्ना जैसे व्यक्तित्व जिसे पूरे देश का जनसमर्थन अनशन और आंदोलन के लिए प्राप्त हो रहा है, की तुलना में दूसरा अन्य व्यक्ति या संस्था जनता से जुड़े किसी अन्य मुद्दे (जनता के सामने अनेक समस्याएं है) पर आंदोलन करने की हिम्मत कैसे जुटाएगा प्रश्र यह भी उत्पन्न होता है। यह प्रश्र इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि सरकार के मंत्री कालेधन के मुद्दे पर बाबा रामदेव के एक बहुत बड़े जन आंदोलन को पुलिस प्रशासन के बल पूर्वक उपयोग कर सफलता पूर्वक कुचलकर ''दम्भ" भर रही है। दम्भ भरने के कारण सरकार का हौसला अन्ना के इस आंदोलन को भी कुचलने के लिए बढ़ा हुआ है और इसलिए यह परमिशन का नौटंकी चल रही है। 
वास्तव में कोई भी ''आंदोलन" जिसका रूप धरना, अनशन, आमरण अनशन, अनिश्चितकालीन अनशन जुलूस, चक्का-जाम, अवज्ञा इत्यादि के रूप में होता है, तब किया जाता है जब सरकार नागरिकों और समाज से जुड़े किसी मुद्दे पर आम नागरिकों की इच्छा के विरूद्ध कार्य करती है। तब कोई व्यक्ति संस्था या पार्टी आम नागरिकों की बहुमत कीइच्छा के आधार पर उक्त मुद्दे को सरकार के समक्ष उठाती है। जब सरकार उसपर कोई ध्यान नहीं देती या विचार नहीं करती है या उस पर कोई कार्यवाही नही करती तब ही 'आंदोलन" की ''उत्पत्ति" होती है। जब 'आंदोलन" किया जाता है तब उसमें निहित अर्थ और प्राथमिक भावार्थ जो आंदोलनकर्ताओं के दिमाग में होता है कि वह सरकार की सामान्य गतिविधियों और मशीनरी पर अवरोध कर सरकार के मन में यह दहशत पैदा करें। यह डर पैदा करे कि यदि उनकी सही जरूरी मांगे जिसके पीछे जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग खड़ा है और उसकी स्वीकार्यता को स्वीकार करता है वह सरकार के खिलाफ सड़क पर खड़ा हो जाएगा। अर्थात कोई न कोई नियम-कानून का उलंघन कर जनता का ध्यान आकर्षित कर सरकार का ध्यान आकर्षित होगा और आंदोलन को तीव्रता देकर सरकार के मन में दहशत पैदा करेगा। तभी उसकी जायज मांगो पर सरकार विचार करेगी। यही आंदोलन का मूल मंत्र है। अर्थात आंदोलन में कानून नियम का उलंघन निहितार्थ है और यह कानून नियम का उलंघन उसके संवैधानिक मौलिक और उसके मानवाधिकार के तहत है जिसे भी कानूनी कहा जा सकता है। अर्थात एक कानून का उलंघन दूसरे स्थापित कानून द्वारा किया जा रहा है इसलिए उसे उचित और जायज एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में माना गया है। इस देश में सरकारी मुलाजिमों द्वारा दफ्तरो में नियम के अनुसार कार्य करना भी आंदोलन का एक अस्त्र बन चुका है। इसलिए 'आंदोलन" में परमिशन के लिए जगह कहां है। परमिशन का मतलब हम उस संस्था, संगठन से इस बात की उम्मीद करें जिसके खिलाफ हम आंदोलन करने जा रहे है उसी से हम कहे कि वह स्वयं के खिलाफ आक्रमण करने की इजाजत दें। क्या यह उचित है? इसलिए अन्ना हजारे को परमिशन के इतर किस उ्देश्य के लिए किस स्थान पर वह आंदोलन करने जा रहे है इसकी सूचना सरकार, क्षेत्राधिकार में आने वाली पुलिस प्रशासन व जनता को मीडिया के माध्यम से दे इसके अतिरिक्त जिम्मेदारी कहां है और इसलिए वेे आंदोलन करने में सक्षम है। अन्ना की टीम को दिल्ली के पुलिस आयुक्त और मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल, गृह मंत्री पी चिदम्बरम और माननीय प्रधानमंत्री से यह पूछने का अधिकार है कि इस देश में स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर आज तक का क्या यह पहला आंदोलन है। यदि उत्तर नहीं है तो आज तक जितने आंदोलन हुए है उसके लिए क्या सरकार से या पुलिस से अनुमति प्राप्त की गई और अनुमति नहीं ली तो उन पर क्या कार्यवाही की गई। और यदि अनुमति दी गई तो क्या इस तरह की २२ सूत्रिय शर्त कभी पूर्व में लगाई गई। यदि नहीं तो क्या सरकार यह कहना चाहती है कि आज की जो वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियां है या आंदोलनकारी ने यह स्थिति पैदा कर दी है जो १९७४ के आंदोलन से भी बूरी स्थिति है। सरकार इस बात का जवाब दे कि इस देश में समस्त राजनैतिक पार्टियों में लाखों की संख्या में दिल्ली में कई बार प्रदर्शन हुए है तब क्या उनपर इस २२ सूत्रिय इस तरह तो सत्ता की बाबत प्रस्ताव लिया गया यह भी जनता का बताए। राजनैतिक पार्टिया अपनी सुविधा के अनुसार जब राजनैतिक आंदोलन बिना किसी परमिशन के कर सकती है तो अन्ना के द्वारा क्यों नही है।  इन सब प्रश्रो का उत्तर एक ही है कि अन्ना अनशन की मंजूरी के लिये सरकार के सामने याचिकाकार के रूप में न कर जनता के सम्मान को झुकाये बिना अपने एक लोकतांत्रिक संवैधानिक और मानवाधिकार के तहत जेपी सचान आंदोलन प्रारम्भ करे। जनता उनके साथ है और सरकार की किसी भी कार्यवाही का जवाब देने में वह न केवल सक्षम है बल्कि जाग्रत भी हो चुकी है। 

इसलिए इस बात पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है कि 'मिशन" (अन्ना द्वारा उठाये गये मुद्दे मिशन ही है) के लिए क्या 'परमिशन" की आवश्यकता है। क्या सरकार से इस बात का प्रश्र नहीं पूछा जाना चाहिए की बगैर परमिशन के राष्ट्र विरोधी संगठन इस देश को कमजोर करने के लिये जो मिशन चला रहे है सरकार ने उनको रोकने के लिए क्या किया। क्या उनके मिशन को परमिशन दी गई और यदि नहीं तो सरकार पूरी ताकत का उपयोग कर प्रभावी रूप से उन्हे क्यों नहीं रोक पा रही है जो ताकत (सत्ता की) का उपयोग वह अपने देश के नागरिकों के खिलाफ आंदोलन को कुचलने के लिए करना चाहती है।  

अत: अन्ना से यही उम्मीद की जाती है कि वे पूरी शक्ति के साथ 'आंदोलन" प्रारम्भ करे पूरे देश की जनता का जन, बल, भाव उनके साथ है। 
जय अन्ना

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

मनमोहन सिंह "प्रधानमंत्री" कितने ईमानदार!


(राजीव खण्डेलवाल)

           माननीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी को वर्तमान में सबसे चर्चित चेहरे बाबा रामदेव और अन्ना हजारे द्वारा ईमानदार प्रधानमंत्री (व्यक्तित्व का नहीं) का फतवा दिया गया। मैने फतवा शब्द का प्रयोग इसलिए किया है इस देश में में बाबा व अन्ना का जो सम्मान, विश्वास, आकर्षण एवं प्रभाव है उसके कारण उनके कहे गये कथन का प्रभाव जन मानस पर फतवे से कम नहीं है। निश्चित रूप से यह वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए मनमोहन सिंह जी के लिए  न केवल गौरवान्वित करने वाला क्षण है बल्कि एक मील का पत्थर भी है। वास्तव में किन व्यक्तियों द्वारा किन परिस्थितियों में यह ''आभूषणÓÓ दिया गया, यह न केवल विचारणीय है बल्कि चिंतनीय भी है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में गुजरात में छात्रो द्वारा प्रारम्भ किये गये नव निर्माण आंदोलन जिसने बाद में जेपी की समग्र क्रांति के आंदोलन का रूप ले लिया, के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्र व्यापी व्यापक और प्रभावशाली मूहिम चलाने वाले व्यक्ति बाबा रामदेव और अन्ना हजारे ही है। अत: उनके द्वारा दिया गया यह अलंकरण यू ही साईड लाईन नहीं किया जा सकता है। इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इन दोनो व्यक्तियों ने ऐसे शख्स को ईमानदारी का वह ताज दिया जिनके बाबत कहा जाता है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में इससे भ्रष्ट सरकार कोई और नहीं हुई जिसके की वे मुखिया होकर प्रधानमंत्री है। भ्रष्टाचार का मुद्दा कई सदियों पुराना है लेकिन मनमोहन सिंह जी के नेतृत्व में जिस तरह भ्रष्टाचार के कांडो की संख्या तेजी से बढ़ी और उनका आकार आसमान की ऊंचाई की ओर बढ़ा वह निसंदेह अपने उच्चतम स्तर पर है। यदि घोटालों की गिनती की जाए तो एक लम्बी श्रंखला बन जाएगी। २जी स्पेक्ट्रम कांड, राष्ट्र्रमंडल खेल आयोजन कांड, निजी क्षेत्र की गैस कम्पनी रिलायंस पर उंगली उठाने वाली केग की रिपोर्ट जैसे न जाने कितने ही घोटाले है जिनका आकार अब सैकड़ो हजारो करोड़ में न होकर लाखो करोड़ में होता है। एक जमाने में हर्षद मेहता कांड जो लगभग छ: हजार करोड़ का था को सबसे बड़ा स्केम माना गया था। इसके बावजूद यदि प्रधानमंत्री जी ईमानदारी का तमगा पाते है और ऐसे व्यक्तियों द्वारा जो घोषित और कार्य रूप में भ्रष्टाचार के विरूद्ध देश की नब्ज को सम्भाले हुए है निर्देशन दे रहे है तो वह एक आश्चर्य मिश्रित सत्य है। इसका भी विश्लेषण किया जाना आवश्यक है।
                             प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सोनिया गांधी के प्रति पूर्णत: समर्पित है। उनकी स्वामीभक्ति पर कोई भी उंगली नहीं उठाई जा सकती है। इसमें उनकी पूर्णत: ईमानदारी प्रकट होती है। प्रधानमंत्री एक विद्वान अर्थशास्त्री है और आर्थिक प्रबंधन के प्रति उनके कमिटमेंट के प्रति भी वे भी पूर्णत: ईमानदार है भले ही उससे परिणाम निकल रहे हो या दुष्परिणाम। प्रधानमंंत्री की व्यक्तिगत छवि भी एक ईमानदार व्यक्ति की है और न तो उनपर कोई ऐसा व्यक्तिगत आरोप लगा है जिसके द्वारा उन्होने उससे कोई फायदा उठाया हो। न ही उनकी संपत्ति जो उन्होने लोकसभा में घोषित की है में ऐसा कोई बढ़ावा हुआ है जिसमें भ्रष्टाचार की बू आती हो। प्रधानमंत्री ने अपनी लाचारीपन को भी बड़ी ईमानदारी से अपने भाषणों में स्वीकार किया है। इतनी सारी 'ईमानदारी' होने के बावजूद इतने सारे हुए स्केण्डल्स जिसमें उनके मंत्रिमंडल के अनेक सदस्य फंसे यह कैसे सम्भव हुआ? कई मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा और कईयों पर मुकदमें चल रहे है और कई जेल के अंदर अभी भी बंद है। हमारा देश एक लोकतांत्रिक देश है जहां मंत्रिमंडल का सामुहिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत है। अर्थात मंत्रिमंडल की सामुहिक जिम्मेदारी होने के कारण प्रधानमंत्री हर मंत्री के मंत्री के हैसियत से किये गये कार्यो के लिए जिम्मेदार है। मनमोहन सिंह जी ईमानदारी पूर्वक कृपया राष्ट्र को यह बताएं, साथ ही अन्ना हजारे और बाबा रामदेव भी इस बात को परिभाषित करे कि मनमोहन सिंह की ईमानदारी के बावजूद उनकी नाक के नीचे टूजी स्केण्डल से लेकर कई बड़े-बड़े स्केण्डल्स कैसे हो गये। प्रधानमंत्री ने इन पर स्व प्रेरणा से कोई कार्यवाही नही की। इनपर तब कार्यवाही की गई जब उच्चतम न्यायालय का डण्डा सीबीआई पर पड़ा अैार सीबीआई को उच्चतम न्यायालय के डंडे से बचने और अपनी बची खुची साख को बचाने के लिए इन आरोपियों को जेल भेजने की कार्यवाही करनी पड़ी। तभी प्रधानमंत्री को अपनी और जग हसॉई न हो इस कारण मंत्रियों से इस्तिफे लिए गये, उनको बर्खास्त करने का साहस नहीं दिखा पाये जो एक ईमानदार प्रधानमंत्री का कर्तव्य था। यदि वास्तव में प्रधानमंत्री उनकीनाक के नीचे प्रधानमंत्री कार्यालय में हो रहे भ्रष्टाचारों से अनभिज्ञ थे तो भारत राष्ट्र क्या ऐसे प्रधानमंत्री के हाथों में सुरक्षित है जिसके हाथो में देश के सीमा की सुरक्षा, सुरक्षातंत्र व विभिन्न गोपनीय सूचनाएं होती है। व्यक्तिगत रूप से ईमानदार होने के बावजूद क्या हम इन्हे राष्ट्र के प्रति ईमानदार कह सकते है? और यदि नहीं तो उनके कुर्सी पर बने रहने का क्या औचित्य है? यदि वे इनोसेंस प्रधानमंत्री है तो क्या अक्रर्मणय प्रधानमंत्री नहीं कहलाएंगे क्योकि जो कार्य की अपेक्षा उनसे की जाती है उसमें देश की सुरक्षा से लेकर अपने चारो तरफ के वातावरण के प्रति सजग, सचेत और संजीदगा रहना उनका कर्तव्य है जो लोगो की अपेक्षा भी है लेकिन वे उसमें असफल रहे।
                      भ्रष्टाचार का मतलब सिर्फ पैसो के लेनदेन से ही नहीं है बल्कि हर वह कार्य जो नैतिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है वह भ्रष्टाचार है। ४-५ जून की रात्री की रामलीला मैदान की घटना को दूर्भाग्यपूर्ण लेकिन आवश्यक बताने वाले मनमोहन सिर्फ का यह बयान क्या उनकी ईमानदारी को दर्षित करता है? वास्तव में वे तब ईमानदार कहलाते जब न केवल उस घटना की कड़ी भत्र्सना करते बल्कि उसके लिए देश की जनता से माफी भी मांगते। प्रधानमंत्री अपने कर्तव्यो के प्रति कितने ईमानदार है यह बात माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा बार-बार उनके प्रति की गई टिप्पणीयों से लक्षित होती है। फिर चाहे अनाज सडऩे का मामला हो या अन्य मामले हो।
                             अन्ना साहब और बाबा रामदेव जनता को यह बताये कि वे सिस्टम में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे है या व्यक्तिगत भ्रष्टाचार? अभी तक जितने भी बड़े स्केम हुए है वे मात्र व्यक्तिगत भ्रष्टाचार नहीं है यद्यपि उनसे व्यक्तिगत फायदा भी हुआ है लेकिन वास्तव में वे सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण ही इतना बड़ा रूप ले सके है। एक और बात जो है इन दोनो संतो की जो कार्य सूची है उसमें कोई भी कदम, बात, या एक्शन भ्रष्टाचार को खतम करने का नहीं है यदि बारीकी से देखे तो उनके समस्त कदम या मुद्दे भ्रष्टाचारियों को कड़क सजा दिलाकर न्याय के इस सिंद्धात पर कि अपराधियों को कड़क सजा मिलेगी तो वे अपराध करने से डरेंगे, की अवधारणा पर पर आधारित है लेकिन सजा की इस अवधारणा से वर्तमान में जो विभिन्न अपराधों के लिए सजा के प्रावधान है उसमें क्या काई कमी आई है, यह एक विश्लेषण का विषय है? कई देशो में फॉसी की सजा न होने के बावजूद हत्या के लिए हमारे देश में फासी की सजा होने के बावजूद हत्या में कितनी कमी आई है, यह शोध का विषय है? अन्ना हजारे लोकपाल बिल द्वारा  भ्रष्टाचारियों को कड़ा सजा दिलाने का और डर पैदा करने का प्रयास कर रहे है जो स्वागत योग्य तो है लेकिन भ्रष्टाचार को कम करने की दिशा में उठाया गया कारगर कदम नहीं है। वास्तव में विदेशो से कालाधन वापिस लाना एवं लोकपाल विधेयक बनाना में दोनो संतो के मुख्य मुद्दे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के है न कि भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने की दिशा के। लेकिन भ्रष्टाचार तभी कम हो पाएगा जब हम उस जगह पर सीधे चोट करेंगे जहां भ्रष्टाचार पैदा होता है। जिन परिस्थितियों से, कारणों से भ्रष्टाचार पैदा होता है। और यदि भ्रष्टाचार पर कड़ी सजा दिलाने के साथ-साथ यदि हमने इसको उत्पन्न करने वाले मूल तत्व पर चोट करने का सार्थक प्रयास अभी किया जिसके लिए इस देश की जनता का मन बन चुका है तो निश्चित मानिये जिसके बाबत यह कहा जाता है कि न तो वह खत्म किया जा सकता है और न ही कम किया जा सकता है उस दिशा में हम निश्चित रूप से आगे बढ़ेंगे। अन्ना और बाबा रामदेव को इस मूल को पहचानने और इस पर चोट करने की आवश्यकता है। सच मानिये न तो हर व्यक्ति ऐतिहासिक होता है और न ही इतिहास में हर समय ऐतिहासिक व्यक्ति या परिस्थिति पैदा होती है। यह मौका है अन्ना और बाबा के लिए यदि आज की परिस्थितियों ने उन्हे यह भार स्वीकार करने की जिम्मेदारी दी है तो उसको सफलता पूर्वक वहन करके भविष्य में ऐतिहासिक संत का दर्जा पाने का अवसर लें। 

(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

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