शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

''अन्ना टीम" पर उभरते आरोपों का औचित्य क्या है?



राजीव खण्डेलवाल:
Photo By: http://realityviews.blogspot.com
बाबा रामदेव के ''भ्रष्ट-तंत्र" और ''कालेधन" के विरूद्धकिये गये ''सफल आंदोलन" को ''सफलता पूर्वक कुचलने" के बाद केन्द्र शासन और कांग्रेस का हौसला बढऩा स्वाभाविक था। इसी कारण से उक्त सोच लिये केन्द्रीय शासन द्वारा पुन: अन्ना के बहुत बड़े ऐतिहासिक जन आंदोलन को उसी तरह से निपटाने का प्रयास किया गया था। लेकिन प्रबल 'जनबल' और 'अन्ना' के स्वयं के महात्तप के प्रभाव के कारण डरी हुई सरकार रामलीला ग्राउण्ड पर हुए अन्ना के जनआंदोलन को बाबा रामदेव के नेतृत्व में हुए आंदोलन के समान नेस्तानाबूद (जमीनदोज) नहीं कर सकी। लेकिन मन में वही पुरानी मंशा लिए हुए वह लगातार अन्ना टीम के सदस्यों पर हमला करने के बहाने व अवसर ढूंडने में लगी रही। निष्कर्ष में अंतत: यदि संतोष हेगड़े को छोड़ दिया जाए तो अन्ना सहित उनकी टीम के प्रत्येक सदस्य अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, शांतिभूषण, प्रशांत भूषण, कुमार विश्वास आदि पर विभिन्न तरह के  आरोप प्रत्यारोप लगाये गये जिनका कुछ बुद्धिजीवी वर्ग ने भी तथाकथित नैतिकता के आधार पर समर्थन किया। परिणामस्वरूप जो मूल रूप से भ्रष्टाचार के लिए आरोपित व्यक्ति, संस्था या जिम्मेदार समूह, लोग थे वे अपनी काली चादर बचाये रखने में इसीलिए सफल होते दिख रहे हैं कि सामने वाले की सफेद चादर में लगा दाग जो इक्का-दुक्का होने के कारण दूर से ही चमकता है, दिखने के कारण मीडिया भी उन इक्के-दुक्के दागो की ओर ही निशाना बनाये हुए है बजाए पूरी काली चादर वालो को निशाना बनाने के। इससे प्रश्र यह उत्पन्न होता है कि यह जो कुछ हो रहा है क्या वह उचित है? न्यायोचित है? नैतिक है? संवैधानिक है? कानूनी है? और उससे भी बड़ा प्रश्र क्या ये आरोप मात्र सैद्धांतिक है या वास्तविक व्यवहारिक है?
उक्त मुद्दे को समझने के पूर्व इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि दुनियां में कोई भी चीज एब्सोल्यूट (absolute पूर्ण) नहीं होती है अर्थात कोई भी व्यक्तित्व १०० प्रतिशत गुण या अवगुणों से परिपूर्ण नहीं होता है। वास्तविकता सदैव १०० प्रतिशत से कम ही होती है। जब कोई सिद्धांत, तथ्य, वस्तु, कार्य को वास्तविकता मेें उतारा जाता है तो वह १०० प्रतिशत से कम हो जाता है। अर्थात १०० प्रतिशत मांत्र एक भावना है, वास्तविकता नहीं। इसे हम निम्र उदाहरण से समझ सकते है। शुद्ध सोना २४ केरेट का होता है लेकिन क्या हम २४ केरेट का सोना उपयोग में ला सकते है। जब हम उसका आभूषण या अन्य उपयोग में लाते है तो उसमें कुछ न कुछ मिलावट करना आवश्यक हो जाता है तब भी उसके गुण खत्म नहीं हो जाते, वह शुद्ध आभूषण ही कहलाता है। यही वास्तविकता एवं सच है इसलिए हम सब इसे स्वीकार भी करते है। इसी प्रकार जब दुधारू जानवर का दूध दोहा जाता है तब उसके उपयोग के पूर्व उसमें एक-दो बूंद पानी मिलाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि गाय का दूध सूख न जाये इसलिए उसमें एक-दो बूंद पानी मिलाया जाता है फिर भी दूध शुद्ध ही माना जाता है। यदि उपरोक्त दोनो सिद्धांत अन्ना की टीम पर लागू किये जाये तो क्या अन्ना टीम पर लगाये गये आरोप सही सिद्ध होते है, क्या वे भ्रष्टाचारी कहलायेंगे? यदि अन्ना टीम और टूजी स्प्रेक्टम के घोटालों से लेकर अनेक बड़े चर्चित घोटालों के आरोपियों को एक साथ तराजू पर रखा जाए तो अंतर एकदम स्पष्ट नजर आएगा। अत: आज प्रत्येक नागरिक को इस स्थिति पर मम्भीरता से विचार करना होगा अन्यथा हम सब भी उस दोष के भागी होंगे जो हमने किया नहीं है अर्थात भ्रष्टाचारियों को बचाने का यह एक अप्रत्यक्ष तरीका है और इस पर रोक लगनी चाहिए जो प्रत्येक जागरूक नागरिक है उन्हे इस दुष्प्रचार के विरूद्ध आवाज उठानी चाहिए।
यदि अन्ना टीम के प्रत्येक सदस्यों पर लगे आरोपों की चर्चा, विश्लेषण किया जाये तो लेख लंबा हो जाएगा लेकिन इन सबमें जो एक कॉमन तथ्य है वह यह है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जो पूरा देश उठ खड़ा हुआ है वह मुख्य रूप से सरकारी तंत्र में लिप्त उस भ्रष्टाचार के विरूद्ध है जिसके द्वारा जनता के वह पैसे की गाढ़ी कमाई से दिया गया टेक्स से इक_ा हुये रूपये की बरबादी हो रही है। जबकि अन्ना टीम पर (सिवाय प्रशांत भूषण को छोड़कर) लगे भ्रष्टाचार और अनियमितता के आरोप को अधिकतम अनियमितता कहा जा सकता है अवैधानिकता नहीं और न ही इसमें कोई सरकारी पैसे का इनवाल्वमेंट है। यह अलग बात है कि वे इस अनियमितता से भी बच सकते थे और भविष्य में उन्हे इससे बचना भी चाहिए। लेकिन मात्र इस कारण से उनकी भ्रष्टाचार के विरूद्ध उठाई गई मुहिम को नैतिक और वैधानिक अधिकार के आधार पर उंगली नहीं उठायी जा सकती खासकर वे लोग जिनकी चाद्दर ही भ्रष्टाचार से पूर्ण पूरी काली है। 
इसलिए सिविल सोसायटी की कोर समिति की बैठक में किसी भी प्रकार के दबाव में आये बिना कोर कमेटी के भंग करने की मांग न मानने का जो निर्णय लिया है। वह सही है लेकिन साथ ही भविष्य में सिविल सोसायटी को इस बात से सावधानी बरतनी होगी कि वे अपने सदस्यों के आचरण में पूरी तरह की पारदर्शिता बनाये रखते हुए किसी भी व्यक्ति को उन पर उंगली उठाने का मौका नहीं दें। क्योंकि हाल में जो आरोप लगे है अनमें से कुछ आरोपकर्ता सिविल सोसायटी के सदस्य रहे है जिनके कारण वे आरोप एकदम से अलग-थलग नहीं किये जा सकते है। अरविंद केजरीवाल का हिसार चुनाव के मुद्दे पर दिया गया स्पष्टीकरण न तो वस्तुपरक है और न ही स्वीकारयोग्य है। केजरीवाल इस तथ्य को बिल्कुल नजर अंदाज कर रहे कि रामलीला मैदान में अनशन से उठने के पूर्व अन्ना की मांग पर न केवल कांग्रेस बल्कि पूरी संसद ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था बल्कि संसद में बहस के दौरान भी आगामी शीतकालीन सत्र में लोकपाल बिल प्रस्तुत करने की सहमति ही समस्त सदस्यों द्वारा दी गई थी। इसके बावजूद यदि केजरीवाल को कांग्रेस में नियत पर शक है जो बहुत कुछ वास्तविक भी है। तो भी उनका यह कथन औचित्यपूर्ण नहीं है कि कांग्रेस ने अन्य पार्टियों समान शीतकालीन सत्र में लोकपाल बिल पारित करने का आश्वासन नहीं दिया है। इसलिए उन्होने हिसार में चुनाव में कांग्रेस का विरोध किया। यह बात उन्हे शीतकालीन सत्र की समाप्ति के बाद ही कही जानी थी। इस कथन से सिविल सोसायटी अभी तक की गैर राजनैतिक छवि को गहरा धक्का लगा है जिससे उभरने का कोई उपाय कोर कमेटी की बैठक में नही किया गया जो कि खेदजनक है। 

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