गुरुवार, 15 सितंबर 2022

‘नाम परिवर्तन’’ के साथ कुछ शब्दों पर भी ‘‘प्रतिबंध’’ समय की मांग है।


शहरों, भवनों, स्मारकों, रेलवे स्टेशनों आदि नामों के बदलने का एक सिलसिला देश में काफी समय से चल रहा है। उसी कड़ी में हाल में ही राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ करने की घोषणा प्रधानमंत्री जी ने की है। इसके लिए निश्चित रूप से वे बधाई एवं धन्यवाद के पात्र है। शायद यह परिवर्तन के युग की समय की आवश्यकता भी है। इस बदलाव को विशिष्ट पहचान (संस्कृति, भाषा, स्थान योगदान, बलिदान इत्यादि) को स्पष्ट रूप से चिन्हित, प्रदर्शित और महसूस करने का प्रयास कहा जा सकता है। इस ‘चलती हवा’ के साथ हम क्यों नहीं कुछ शब्दों जो हमारी संस्कृति पर चोट पहुंचाते हैं, प्रतिबंध लगाने का कार्य नहीं कर सकते हैं?

‘‘हरामजादा’’ ‘‘हराम’’ ऐसे शब्द हैं, जिन पर तुरंत प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए। क्योंकि इन शब्दों में हमारी सर्वोच्च आस्था का नाम जुड़ा हुआ है।। इसका  पूरा अर्थ बहुत ही बुरा नकारात्मक ध्वनित, प्रदर्शित होता है। ऐसा नहीं है कि शब्दों पर प्रतिबंध लगाने का यह कार्य पहली बार होगा। पूर्व में भी हम जरूरत के अनुरूप शब्दों पर प्रतिबंध लगा चुके हैं। याद कीजिए अनुसूचित जनजाति शब्द जिस शब्द (...) के लिए इसका प्रयोग किया गया है, उसे प्रतिबंधित किया जा चुका है। निर्भया, दिव्यांग शब्द की उत्पत्ति भी इसी कारण से हुई है। उक्त शब्दों को स्पीकर ने भी असंसदीय घोषित किया है। जब माननीयों के लिए उक्त शब्दों के उपयोग पर विधानसभा में प्रतिबंध है, तब उक्त प्रतिबंध को विधानसभा के बाहर बढ़ाकर आम प्रचलन में और आम जनता के लिए भी  क्यों नहीं लागू  कर दिया जाना चाहिए?

मेरे राम के देश में जहां हम रामराज्य से गुजर चुके हैं, आज वहां भव्य राम मंदिर निर्माण हो रहा है, उसी देश के राम भक्तों से यही अपील करता हूं कि वे उक्त अपशब्दों पर प्रतिबंध लगाने के लिए मुहिम चलाएं। परिस्थितियां इसके बिल्कुल अनुकूल है। आवश्यकता सिर्फ आपके जागृत होने मात्र की है।

यहां उल्लेखनीय है कि सांसद साध्वी निरंजन ज्योति के द्वारा दिल्ली विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान उक्त हरामजादों शब्द के उपयोग करने पर न केवल प्रधानमंत्री मोदी ने उनको फटकार लगाई, बल्कि उनको माफी भी मांगनी पडी।

रविवार, 11 सितंबर 2022

सिर्फ नामकरण नहीं! ‘‘भाव’’ को धरातल पर कार्य रूप में वस्तुतः उतारने से ही विकसित भारत।

आखिर नाम में क्या रखा? शेक्सपियर!

-:द्वितीय भाग:-

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नाम परिवर्तन के साथ ठोस कार्यों से एक मजबूत, बोल्ड, निर्णायक सिद्ध होते जा रहे हैं, वहीं पूर्व यूपीए शासन ने सिर्फ योजनाओं के नामों में परिवर्तन के साथ कुछ गुलामी प्रतीकों के नामों में परिवर्तन किया है। तुलनात्मक रूप से काम करने में यूपीए का शासन बहुत पिछड़ा रहा है। मजबूत ऐसी स्थिति में कम से कम नरेंद्र मोदी से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि नाम बदलने को लेकर जो तर्क देकर अर्थ और परिणाम की जो कल्पना की जा रही हैं, क्या वह भी उतनी ही मजबूत (स्ट्रांग) व वास्तविक होगी? क्योंकि इसी अवास्तविक धारणा को लेकर ही कर्तव्य पथ के मुद्दे पर विवाद का जन्म हुआ है। मैं यह मानता हूं कि वर्तमान व निकट भविष्य में नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प दूर-दूर तक दिखता नहीं है। ‘‘विकल्प हीनता’’ के मामले में देश इंदिरा गांधी के बाद से भी बुरी स्थिति से गुजर रहा है। ऐसी स्थिति में जनता का भी दायित्व हो जाता है कि वह नरेंद्र मोदी का नेतृत्व निष्कलंक और मजबूत तथा कम से कम त्रुटि वाला रहे इस ओर सहयोग करे। कोई भी अच्छे से अच्छा व्यक्ति पूर्ण नहीं होता है, उसमें कुछ न कुछ कमियां-गलतियां अवश्य होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ऐसी कोई गलती न हो, इसी जो उनको कमजोर करे, दृष्टिकोण को लेकर मेरी यह टिप्पणी है।
प्रधानमंत्री ने जिस विस्तार से ‘‘राजपथ को गुलामी का प्रतीक’’ बता कर नए भारत की कल्पना की, क्या यह मजाक नहीं होगा कि जब हम आजादी के 75 वर्ष पर अमृत महोत्सव मना कर खुशीयाली व्यक्त कर रहे हैं, वहीं आज यह कहां जा रहा है कि गुलामी के प्रतीक राजपथ से हम मुक्त हुए। इसी गुलामी के प्रतीक कर्तव्य पथ पर हमने स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव की परेड धूमधाम से मनाई? गुलामी का प्रतीक राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ बदल देने से ही राष्ट्रपति भवन से इंडिया गेट तक का क्षेत्र में चलने रहने वाले लोग क्या कर्तव्य युक्त हो जाएंगे? इसलिए नाम परिवर्तन को इतना ज्यादा महिमामंडित करना गलत है। वैसे विपक्ष खासकर (शर्मदार?) कांग्रेस को इस मुद्दे पर मोदी की आलोचना करने का कोई नैतिक या तथ्यात्मक आधार नहीं है। वैसे कही-अनकही अर्थात राजनीति की आजकल यह प्रवृत्ति हो गई है कि जो कहा उसे शाब्दिक रूप से छोड़कर अनकहा भाव, अर्थ सहूलियत अनुसार निकाला जाए।
स्वतंत्र भारत का नागरिक खासकर स्वतंत्रता के बाद पैदा हुआ नागरिक जो अभी तक यह सोच रहा था कि वह ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी से मुक्त हुआ स्वतंत्र देश का एक नागरिक है। परंतु उसे गाहे-बगाहे कभी भी यह याद दिला दिया जाता है कि जिस देश में वह रह रहा है, वहां अभी भी गुलामी के कई प्रतीक मौजूद हैं, ‘‘हींग लगे न फिटकरी’’ के समान आसान है? ये होंगे भी या नहीं, मालूम नहीं? गुलामी का यह एहसास बार-बार करने की बजाय एक ही बार में समस्त गुलामी के प्रतीकों को हटाने का निर्णय क्यों नहीं ले लिया जाता है?
वैसे हमारी संस्कृति में ‘‘नाम व नामकरण’’ का बड़ा महत्व है। आज भी हिंदू समाज नवजात शिशुओं का नाम के समय की ग्रह स्थिति को देखकर पंडितों से और ज्योतिषियों से राय लेकर रखता है। प्रधानमंत्री की कर्तव्य पथ नाम रखने के पीछे रही भावना का पालन कर यदि कर्तव्य निभाना है, तब इस देश में बहुत से नागरिकों को भी अपना नाम बदलना होगा। उदाहरणार्थ मध्य प्रदेश के विधायक जालम सिंह, पूर्व निगम अध्यक्ष शैतान सिंह (जिन्हें में व्यक्तिगत रूप से जानता हूं) आदि अनेक नाम ऐसे हैं, जो नाम के विपरीत कार्य करने के कारण जनता का विश्वास जीतकर संवैधानिक पदों पर बने हुए रहे हैं। कई विजय कुमार ‘‘विजय’’ की चैखट पर नहीं पहुंच पाए तो कुछ सुखनंदन दुखों के ‘‘अवसाद में ही गुम’’ हो गए। कई दरिद्र नारायण अरबपति हैं। अमीर चंद गरीब नहीं हो सकता? अच्छा राम में कोई बुराई नहीं हो सकती? तो गोरे व्यक्ति का नाम कालू राम कैसे रखा जा सकता है? सज्जन कुमार दुर्जन (84 के दंगों का आरोपी) कैसे हो सकते हैं? विश्वास कुमार पर अविश्वास कैसे किया जा सकता है? ऐसी अंतहीन सूची है। ‘‘होइ है सोई जो राम रचि राखा’’।
अतः यदि वास्तव में बदलने की कोई की जरूरत हो तो आदरणीय लोगों की वो मानसिकता जो गुलामी से लबरेज है, जो स्वार्थ (सिर्फ स्वहित), जातिवादी व्यवस्था, परनिन्दा, अहंकार को ही सर्वश्रेष्ठ समझती है। सिर्फ नारों, बातों या नाम बदलने से रोटी-कपडा-मकान-श्रेष्ठ शिक्षा-उचित व सुलभ स्वास्थ्य सेवा नहीं मिल सकती है। ’कर्तव्य पथ पर घूमने से, या नाम पट्टिका पढने-पढाने से नहीं, कर्तव्य के कडे परिश्रमी, सत्यनिष्ठा व्यवहार को आत्मसात कर पूर्णतः ईमानदारी पूर्वक अनुसरण से ही विकसित भारत की कल्पना साकार हो सकती है।
प्रधानमंत्री के गुलामी के प्रतीक को इतिहास बनाने के कुछ घंटों बाद ही ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय का निधन हो गया। प्रधानमंत्री मोदी ने दुख व्यक्त कर शोक संदेश भेजकर श्रद्धांजलि अर्पित की। तथापि देश का मीडिया ‘‘आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास’’ प्रधानमंत्री के कर्तव्य भाव के संदेश को इतनी जल्दी भूल कर देश की जनता को हमारी गुलामी की सबसे बड़ी प्रतीक को विस्मृत करने की बजाए याद ताजा कर महिमामंडित कर प्रशस्त करने में अपना विस्तृत योगदान दिया। बजाय इसके कि वे प्रधानमंत्री के समान एक लाइन में समाचार देकर श्रद्धांजलि देकर अपने कर्तव्य बोध का एहसास करा सकते थे? तथापि मीडिया महिमामंडित करने के उक्त कार्य को इस आधार पर सही ठहरा सकता है कि एलिजाबेथ द्वितीय के निधन पर उनके सम्मान में एक दिन का राष्ट्रीय शोक रखने का निर्णय भारत शासन ने लिया है। इसीलिए यह भी कहा गया है कि (शेक्सपियर का कथन) ‘‘नाम में क्या रखा है’’।
मध्यप्रदेश शासन ने आम लोगों की खुशहाली के लिए वर्ष 2016 में देश में पहला हैप्पीनेस विभाग (राज्य आनंद संस्थान) ही बना दिया था। आज इस विभाग का रिपोर्ट कार्ड क्या है? क्या प्रदेश की जनता ‘खुश’ होकर ‘सुखी’ हो गई? बल्कि यह आनंद विभाग ही स्वयं अपने अस्तित्व को ज्यादा आनंद नहीं ले पाया। वर्ष 2018 में इसे धर्मस्व विभाग के साथ मिलाकर ‘‘आध्यात्म विभाग’’ बना दिया गया। वर्ष 2020 में देश में मध्यप्रदेश को हैप्पीनेस इंडेक्स में 25वीं रैंकिंग मिली है। नाम व काम करने के अंतर की यह वास्तविकता है। 

शनिवार, 10 सितंबर 2022

‘‘देश की समस्त समस्याओं का सरल व सुगम हल’’ ’नामकरण!

-ःप्रथम भागः-

देश में ही नहीं वरन विश्व में भारत के अभी तक के सर्वाधिक लोकप्रिय और किसी क्रिया-प्रतिक्रिया की चिंता किए बिना अनोखी शैली व कार्यपद्धति से कुछ असंभव (जैसे राम मंदिर का निर्माण, तीन तलाक, अनुच्छेद 370 की समाप्ति) से लगते ठोस कार्य करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ कर न केवल स्वयं को ‘‘कर्तव्य बोध’’ का एहसास दिलाया, बल्कि सबको भी अपना कर्तव्य निभाने के लिए एक संदेश भी दिया। यह बात उनके भाषण से स्पष्ट रूप से झलकती भी है। इस एक संदेश ने ही मुझे तुरंत प्रेरित-उत्प्रेरित किया और मैं यह लेख लिखकर अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूं? तय आपको करना है कि मैं अपने कर्तव्य का पालन करने में सफल हूं अथवा असफल?

प्रधानमंत्री ने ‘कर्तव्य पथ’ के नामकरण व ‘सेंट्रल विस्टा एवेन्यू’ के उदघाटन कार्यक्रम में एक नहीं तीन महत्वपूर्ण संदेश दिए हैं। प्रथम! ब्रिटिश इंडिया के जमाने की गुलामी की प्रतीक राजपथ वर्ष 1955 के पूर्व किंग्सवे नाम से जानी जाती थी। इसका निर्माण वर्ष 1911 में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा भारत की राजधानी कोलकाता से दिल्ली करने के निर्णय के साथ प्रारंभ हुआ था, जो वर्ष 1920 में बनकर पूर्ण हुआ। राजा जॉर्ज पंचम के सम्मान में इसका नाम किंग्सवे रखा गया था। आरंभिक रूप से यह सिर्फ राजाओं का ही रास्ता था। राजपथ रायसीना हिल स्थित ‘‘राष्ट्रपति भवन’’ को ‘‘इंडिया गेट’’ से जोड़ता है। यहां प्रतिवर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के अवसर पर भव्य प्रेरणात्मक राष्ट्रीय परेड का कार्यक्रम संपन्न होता है। इसमें भारतीय संस्कृति व ताकत का बखान व प्रदर्शन होता है। ‘‘राजपथ’’ को (गुलामी का प्रतीकात्मक नाम मानकर?) बदल कर राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत भारतीय नाम कर्तव्य पथ कर दिया है, जिस पर किसी भी नागरिक को कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। 

दूसरा उतना ही महत्वपूर्ण कार्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, आजाद हिंद फौज के संस्थापक व स्वतंत्रता के पूर्व अखंड भारत के प्रथम प्रधानमंत्री, नेताजी के नाम से मशहूर (आज के नेता जी नहीं) सुभाष चंद्र बोस की विशालकाय 28 फुट ऊंची मूर्ति की स्थापना उसी जगह पर की गई, जहां पर पूर्व में इंग्लैंड के ‘‘जॉर्ज पंचम’’ की मूर्ति थी, जो स्वतंत्रता प्राप्ति के 21 वर्ष बाद हटा कर दूसरी जगह ‘कोरोनेशन पार्क’ में विस्थापित कर दी गई थी। यहां यह याद रखने की बात है कि वहां पहले महात्मा गांधी की प्रतिमा लगाने का बात कही जा रही थी, लेकिन अंतिम निर्णय न हो पाने के कारण लग नहीं पाई। इन दोनों कृत्यों को देश में न केवल गुलामी के चिन्ह मिटाने के रूप में देखा गया बल्कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के व्यक्तित्व को  जो सम्मान इस देश में मिलना चाहिए था, जिसके वे हकदार हैं, उसकी पूर्ति कुछ हद तक अवश्य इस प्रतिमा लगने से हुई है। ये दोनों भाव लिए कृत्य के लिए निश्चित रूप से प्रधानमंत्री जी साधुवाद व बधाई के पात्र हैं। इसके लिए देश उनका हमेशा ऋणी रहेगा।

तीसरा किंतु विवाद का महत्वपूर्ण कारण बना उद्घाटन के इस अवसर पर दिया गया कर्तव्य बोध का संदेश। प्रधानमंत्री ने अपने उद्घाटन भाषण में नाम परिवर्तन के जो कारण बतलाए और जो अर्थ मीडिया व राजनेता निकाल रहे हैं, वही विवाद का एक बड़ा कारण बनते जा रहा है। इसी तीसरे विवादित होते कारण ने मुझे अपने कर्तव्य का अहसास कराया जो आपके सामने लेख के रूप में प्रस्तुत है।

प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में जो प्रमुख बातें कहीं उसका लब्बु लबाब यही है कि कर्तव्य बोध के रूप में नए इतिहास का सृजन होगा। आज नई प्रेरणा व ऊर्जा मिली है। प्रधानमंत्री आगे कहते हैं राजपथ की आर्किटेक्चर और आत्मा भी बदली है। ‘‘गुलामी का प्रतीक राजपथ’’ अब इतिहास की बात हो गया है, हमेशा के लिए मिट गया है। गुलामी की एक और पहचान से मुक्ति के लिए मैं देशवासियों को बधाई देता हूं। परन्तु बड़ा एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है, कि वर्ष 1920 में जब इसका नाम किंग्सवे था, और स्वाधीनता प्राप्ति के बाद वर्ष 1955 में नाम बदलकर राजपथ कर दिया गया, तब यह कैसे गुलामी का प्रतीक रह गया है? क्योंकि गुलाम भारत की गुलामी का प्रतीक किंग्सवे का नाम आजाद भारत में पूर्व में ही बदला जा कर राजपथ किया जा चुका था। क्या किंग्सवे का हिंदी अर्थ राज पथ होने से राजा (शासकों) का पथ माना जाकर गुलामी का प्रतीक माना जा रहा था? ऐसा कुछ क्षेत्रों में कहा जा रहा है तो यह बिल्कुल गलत है। क्या हम ‘‘अनर्थ’’ की जगह ‘‘अर्थ’’ नहीं निकाल सकते है? ‘किंग्स’ का अर्थ ‘‘राज’’ नहीं ‘‘राजा’’ होता है। राज का अर्थ शासन लोकतंत्र से है। और यदि ऐसा नहीं है और राज शब्द से इतनी घृणा है, तो राजनीति के राज को लेकर क्या कहेंगे, करेंगे? क्या राज छोड़ देंगे? क्या राज-नीति (इसमें राज महत्वपूर्ण परंतु नीति गौण) की सीढ़ी चढ़कर बने मंत्री, मुख्यमंत्री केन्द्रीय मंत्री और प्रधानमंत्री पद को छोड़ देंगे? क्योंकि गुलामी का प्रतीक राज शब्द जुड़ा हुआ है? सकारात्मक सोच लेकर हम यह क्यों नहीं मान सकते हैं कि राजपथ में ‘‘रामराज’’ के राज का पुट शामिल है? क्या यह बात स्वीकारी नहीं जा सकती हैं कि अंग्रेजों की हर बात गलत नहीं थी, इसलिए हर कार्य/बात को गुलामी का प्रतीक मानना ठीक नहीं होगा? 

यदि सिर्फ नाम बदल कर कर्तव्य पथ कर देने से ही कर्तव्य बोध का भाव उत्पन्न हो जाएगा, ऐसी सोच व मान्यता है तो फिर यह बतलाना होगा कि उसी के पास ‘‘लुटियन जोन’’ में कनॉट प्लेस से रेडियल रोड वन से प्रारंभ होकर पीछे राजपथ से जाने वाला रास्ता का नाम क्वींस (रानी का रास्ता) को बदल कर जनपथ (पीपुल्स पाथ) किया गया था, तो क्या वह वास्तव में जनता (आम) का पथ हो गया? विपरीत इसके जनपथ तो आज अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों का निवास और महंगा वीआईपी मार्केट हो गया है, जो देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए प्रसिद्ध है। नाम बदलने से ही यदि सब कुछ अच्छा हो जाता? समस्त समस्याएं सुलझ जाती? देश गरीबी से खुशहाल हो जाता? तो फिर ‘‘हाथ कंगन को आरसी क्या’’। ‘‘भ्रष्टाचार’’ का नाम बदलकर शिष्टाचार ईमानदारी कर दीजिए, अपराध का नाम बदलकर पुरस्कार कर दीजिए? आपको करना क्या है, सिर्फ नाम ही तो बदलना है? नाम के अनुसार भावनाएं व्यक्ति स्वयं में आत्मसात कर लेगा और यह देश के विकास, सुरक्षा, अखंडता, एकता बनाए रखने के लिए सबसे सुगम और सरल रास्ता सिद्ध हो जाएगा? तब ऐसी स्थिति में मंत्रिमंडल में पृथक से एक ‘‘नामकरण’’ विभाग का सृजन करना होगा?

विस्टा प्रोजेक्ट में जिसमें राजपथ भी शामिल है, नए संसद भवन, राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति निवास व प्रधानमंत्री निवास का निर्माण भी पुराने भवन को तोड़कर किया जा रहा है। इसके पीछे का भी उद्देश्य अंग्रेजी व गुलामी की प्रतीकात्मक मानसिकता समाप्त करना बतलाया जा रहा है। यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले वर्ष 1947 के पूर्व के ब्रिटिश इंडिया के समस्त निर्माण व नाम अंग्रेजों व गुलामी के प्रतीक हैं, तो क्या हम उन सब को तोड़ने और नाम बदलने जा रहे हैं? बिल्कुल नहीं। ‘‘काग़ज की नाव पार नहीं लगती’’। देश में विद्यमान अधिकतर ‘‘राजभवन’’ अंग्रेजियत की निशानी है। आज भी गुलामी का सबसे बड़ा प्रतीक राष्ट्रमंडल ब्रिटिश ओपनिवेशिक संगठन है, जिसे स्वतंत्रता के बाद वर्ष 1947 में औपचारिक रूप से गठित किया। इसमें ब्रिटिश साम्राज्य के लगभग समस्त पूर्व क्षेत्र भारत सहित शामिल है। इससे उपनिवेशवाद से हमें कब मुक्ति मिलेगी? सबसे महत्वपूर्ण कांग्रेस शासन द्वारा कोरोनेशन पार्क में जॉर्ज पंचम की विस्थापित की गई जो मूर्ति को विसर्जित होगी या नहीं? अंग्रेजों के जमाने की वर्ष 1860 की भारतीय दंड संहिता जो हमारी अपराधिक न्यायशास्त्र की रीढ़ की हड्डी है, अभी भी चली आ रही है। ऐसे अनेक पुराने ब्रिटिश कानून (लगभग 1500 से अधिक) आज भी प्रचलित है। ‘‘हाथी की सिर्फ पूछ ही निकल पायेगी’’ हाथी नहीं। यदि नाम परिवर्तन करना ही है तो इंडिया, भारत की जगह हिंदुस्थान नामकरण कब होगा? जो हमारी अस्मिता व संस्कृति की प्रतीक नहीं मूल पहचान है। 

बुधवार, 7 सितंबर 2022

विरोधाभाषी अजब-गजब व्यक्तित्व! केजरीवाल’’

-:द्वितीय भाग:-  द ग्रेट पॉलीटिकल शो (ड्रामा) ऑफ केजरीवाल’’!   

केजरीवाल के जवाब देने की शैली की दो पहचान है। प्रथम जवाब में वे प्रश्न ही पूछने लग जाते है, तो दूसरा, विषय (प्रश्न) को इस खूबसूरती व चालाकी से वे विषयांतर कर देते हैं कि ’’सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे’’। शायद इसी कारण उन्हें अपना स्टेण्ड पल-पल बदलने में असहजता व असुविधा महसूस नहीं होती है। उनके पुराने बयानों का वीडियो चला कर देख लें। प्रत्येक मुकदमे बाज, राजनेता अपराध में संलिप्त होने के कारण दाग-दार हैं। और इसलिए चुना हुआ दागी, सांसद, विधायक या जनप्रतिनिधियों को अपने पद बने रहने का कोई हक नहीं है जब तक कि वह अपने पद से इस्तीफा देकर मुकदमा लड़ कर, अंतिम रूप से निर्दोष सिद्ध होकर, फिर से चुनाव लड़कर, जनता का विश्वास प्राप्त कर, फिर से संसद या विधानसभा में आये। कड़क ईमानदार केजरीवाल इस सिद्धान्त को ‘आप’ के लगभग 35 से अधिक दाग-दार विधायक पर क्यों नहीं लागू करते है? जवाब नहीं? भला ’सांच को आंच क्या’?

अरविंद केजरीवाल ने विधानसभा में विश्वास मत पर बोलते हुए एक और नया शिगूफा छोड़ दिया। कट्टर बेईमान पार्टी (भाजपा) में कम पढ़े लिखे लोग हैं। आधे से ज्यादा अनपढ़ हैं। तो दूसरी तरफ ईमानदार पार्टी में आईआईटी के लोग हैं, विजन है। इसका अर्थ तो यही निकलता है कि देश की 70 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या जो आज भी अनपढ़ है, केजरीवाल की उक्त परिभाषा अनुसार भ्रष्ट है। केरल भारत का सबसे शिक्षित राज्य जहां 94 प्रतिशत साक्षरता है। इस हिसाब से तो केरल की तुलना में दिल्ली के लोग ज्यादा भ्रष्ट हैं (जहां साक्षरता का प्रतिशत 86.21 है)? केजरीवाल द्वारा तय किए गए नैरेटिव के अनुसार। केजरीवाल की झूठ की पराकाष्ठा का एक और उदाहरण आईने समान आपके सामने है। 6300 करोड़ रुपए से 277 विधायकों की खरीद-फरोख्त का आरोप भाजपा पर मढ़ना। न सूत न कपास,! न कोई तथ्य! न कोई गवाह! न कोई दस्तावेज! न 6300 करोड़ रुपयों की आवा-गमन (लेन देन) का साक्ष्य? साक्ष्य में सिर्फ केजरीवाल की दहाड़ती सच्चाई का कथन मात्र? आप इसे सच क्यों नहीं मान लेते हैं? पेट्रोलियम उत्पाद के दाम बढ़ने का कारण भी इस 6300 करोड़ को बता दिया। झूठ का एक और पुलिंदा! ’’ऑपरेशन लोटस’’ के तहत दिल्ली सरकार को गिराने के गंभीर आरोप को हल्के-फुल्के ढंग से जड़ दिया। न कोई ऑडियो-वीडियो क्लिपिंग! न रुपए लेने देने वालों का नाम! न अन्य कोई साक्ष्य न कोई एफआईआर। सिर्फ मनीष सिसोदिया का बयान जो ब्रह्म वाक्य होने के कारण साक्ष्य मान लिया जाए?

दिल्ली के वर्तमान उपराज्यपाल विनय कुमार सक्सेना जब वे राष्ट्रीय खादी और ग्रामोद्योग आयोग के अध्यक्ष थे, पर नोटबन्दी के समय 1400 करोड़ रूपये के तथाकथित घपले के आरोपी को जड़ देना झूठ की इंतिहा (पराकाष्ठा) ही हैं। एक शाखा के कैशियर द्वारा 16 लाख (22 लाख नहीं) के नोट अध्यक्ष के कहने पर बदलने की बात कही थी, को राजनीतिक गुणा भाग कर राजनीतिक गुणा भाग कर रुपए 1400 करोड़ के घोटाले में परिवर्तित करना ’’केजरीवाल गणित’’ से ही संभव हैं। शायद यह केजरीवाल की ’’आक्रमण करना ही अच्छे बचाव’’ (अटैक इज द बेस्ट डिफेंस) की नीति का ही परिणाम है। क्योंकि इन्हीं उपराज्यपाल ने शराब नीति को लेकर मनीष सिसोदिया के विरुद्ध सीबीआई जांच की सिफारिश की थी। उल्लेखनीय बात यहां पर  यह भी है कि उक्त नोट बदलने की जांच सीबीआई द्वारा पूर्व में ही की जा चुकी है, जिसकी मांग केजरीवाल अभी कर रहे है व नौटंकी कर रहे हैं (फिर झूठा कथन)। उक्त जांच में सक्सेना को निर्दोष पाया जाकर अन्य अभियुक्तों के विरूद्ध न्यायालय में प्रकरण पेश किया गया। वास्तव में यह आरोप भी इतना हास्यास्पद है कि हिन्दी मीडिया चैनल ’’टाईम नाउ नवभारत’’ के कार्यक्रम ’पाठशाला’ में एंकर ने केजरीवाल का दिल्ली के उपराज्यपाल पर 1400/- करोड़ के भ्रष्टाचार के आरोप को ’तर्क’ के लिये सही मानकर केजरीवाल द्वारा 1400 करोड़ की भ्रष्टाचार की गई गणना के गणित को ही आधार बनाकर गुजरात में आगामी होने वाला विधानसभा के चुनाव में आप की संभावनाएं पर उक्त गणित को लागू करते हुये गणनानुसार ’परिणाम स्वरूप’ आप 90 प्रतिशत से अधिक वोट पाने के अनुमान के कारण गुजरात में आप की सरकार ही बना दी। यह बहुत ही भद्दा और क्रूर मजाक केजरीवाल के जरा ज्यादा ही होशियारी भरे? आरोपों के कारण ही एंकर ने किया। इसी तरह आरोपों के सर्जन (क्रिएटिविटी) के चलते भविष्य में शायद अन्य टीवी प्रोग्राम ‘‘अजब-गजब’’ या ‘‘अद्भुत-अकल्पनीय-अविश्वसनीय’’ (आज तक) में केजरीवाल एपिसोड शामिल हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए?

वैसे उक्त अद्भुत अकल्पनीय अविश्वसनीय में शामिल शब्द अविश्वसनीय से एक बात जेहन में जरूर आयी कि इस अविश्वसनीय शब्द को जिस तरह से केजरीवाल ने ‘‘जिया’’ है, वैसे अन्य कोई उदाहरण आपको शायद ही मिले। कम समय की लगभग 10 साल की राजनैतिक यात्रा में ही केजरीवाल ने दिल्ली में दो बार व पंजाब में लगभग 90 प्रतिशत विधानसभा की सीटें जीतकर निसंदेह एक अकल्पनीय अविश्वसनीय कार्य जरूर किया है। परन्तु विपरीत इसके कसम खाते हुए राजनीति में नहीं आऊंगा, दागी सांसद इस्तीफा दे, ‘‘स्वराज’’ पत्रिका में लिखे अपने आदर्शों से पीछे हटना, सुरक्षा व वीआईपी कल्चर से दूर आदि आदि से उनकी विश्वसनीयता खत्म होकर अविश्वसनीय हो गई है।

गनीमत है, केजरीवाल इतनी ईमानदारी जरूर बरत रहे हैं कि अपनी पार्टी की हो रही दागदार छवि को स्वच्छ करने, धोने के लिए न्यायालय में जाकर साफ करने का प्रयास जरूर कर रहे हैं। अन्यथा उन्हे अपनी स्वप्रमाणित ईमानदारी के साथ यह कहने से कौन रोक सकता था कि न्यायालय भी ’’दाग से धुली नहीं है?’’ और जब मैंने कह दिया हमारा कोई विधायक, मंत्री अपराधी नहीं है, ईमानदार हैं, इतने छापे पड़ गये परन्तु कुछ नहीं मिला, ’लाकर’ में भी नहीं मिला। तब आप ’’अमिताभ बच्चन शो’’ समान मेरे जवाब को लॉक कर मेरे द्वारा दिये गये ईमानदारी के प्रमाण पत्र को मानिये? केजरीवाल जी ’प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती', ’चूहे का जाया बिल ही खोदता है’। तथ्य यह है कि सीबीआई व ईडी का कोई आधिकारिक बयान प्रकरण की प्रगति के संबंध में अभी तक सामने नहीं आया है, जहां उन्होंने आरोपी को क्लीन चिट दे दी हों? केजरीवाल जारी किये जा रहे प्रमाण पत्र के लिए किसी भी तंत्र को बदलने की या ‘वाशिंग मशीन’ की आवश्यकता नहीं है क्या? 

वाह रे केजरीवाल जी! ’शौकीन बुढ़िया चटाई का लंहगा’! गजब का जरूरत से ज्यादा, 56 इंच से भी ज्यादा का गरूढ़ भरा (कुमार) विश्वास को छोड़कर आत्मविश्वास। निश्चित रूप से कमजोर (नर्वस) दिल वालों को केजरीवाल को अपना गुरु मानकर उनका स्कूल ज्वाइन कर अपने कमजोर आत्मविश्वास को मजबूत कर लेना चाहिए? कम से कम मैं जरूर यह कह सकता हूं कि केजरीवाल को सुन-सुन कर मेरा भी आत्मविश्वास इतना ज्यादा बढ़ गया है कि मुझे यह लेख लिखने के लिए हिम्मत के साथ प्रेरित किया। हां मैं उन पर मनन करते हुए, सुनते हुए, पढ़ते समय अपनी ’’आंख कान और दिमाग’’ एक साथ खुला जरूर रखता हूं।

केजरीवाल का व्यक्तित्व एक ऐसी विशेषता लिये हुए है, जो दो एकदम परस्पर विपरीत ध्रुवों पर स्थित विचारों को ’’एक ही समय एक साथ जीने’’ का माद्दा रखते हैं। ’’आधा गिलास खाली है या भरा,’’ यह दोनों विकल्पों का एक साथ एक ही समय उपयोग की क्षमता ’एक म्यान में दो तलवारें रखने की कला’ के समान केजरीवाल के ही पास है, देश के अन्य किसी दूसरे राजनेता के पास नहीं। इसलिए दोहरा मापदंड अपनाने के लिए उन्हें कई उपाधियों से एक साथ सुशोभित किया जा सकता है। जैसे दोहरा चरित्र, ‘‘मुंह में राम-बगल में छुरी’’, कथनी-करनी में अंतर, सिद्धांतों की नहीं सुविधा की राजनीति, सुविधा अनुसार परिभाषाओं का गठन करना, कट्टर देश भक्ति के दावे के साथ बेबाक बेशर्मी से सफेद झूठ बोलना, गिरगिट समान रंग बदलना, साहस नहीं दुस्साहस के साथ गलत बात को सही प्रमाणित करने का अथक प्रयास करना, नौटंकी कार, मुखौटा, बाजीगर, पलटूराम (नीतीश कुमार समान नहीं) आदि आदि! अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘‘कालिया’’ का यह प्रसिद्ध डायलाग वर्तमान में केजरीवाल पर लागू होता हैं ’’हम जहां खडे हो जाते है, लाइन वही से शुरू होती हैं।’’ मैं ही कानून, न्यायाधीश, गवाह, आरोपी, शिकायतकर्ता होकर मेरा कथन ही अंतिम सत्य हैं। 

2014 में एक ओर जहां नवभारत टाइम्स ने लिखा केजरी सरकार एक्शन ड्रामा, इमोशन, संस्पेस का कंप्लीट पैकेज। वहीं प्रतिष्ठित ’’टाईम मैगनीज" ने वर्ष 2014 में केजरीवाल को विश्व के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति के रूप में शामिल किया। विपक्षियों पर हवाई आरोप लगाकर सीबीआई जांच की मांग करने वाले केजरीवाल की सरकार पर शराब नीति व स्कूल निर्माण तथा बस खरीदी में हुए भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच से इंकार।  केजरीवाल भले ही सिसोदियां को ‘‘भारत रत्न’’ न दिला पाए, (भई वाह! छछूंदर के सिर पर चमेली का तेल!!) लेकिन केजरीवाल को उक्त ’आभूषणों’ के लिए (डॉ.) पीएचडी की डिग्री जरूर मिलनी चाहिए। अन्यथा अनाधिकृत दूसरो को चारित्रिक प्रमाण पत्र देने वाले, स्वयं को ही प्रमाण देने से बच क्यों रहे हैं? 

कि हम लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं, जहां लोकतंत्र के स्वस्थ व मजबूत होने के लिये पक्ष-विपक्ष का मजबूत होना आवश्यक हैं, ताकि परस्पर एक दुसरे पर अंकुश लगाकर कोई भी पक्ष निरंकुश न हो पायें। परन्तु विद्यमान राजनैतिक स्थिति का सबसे दुखद पहलू यह है कि देश की राजनीति में कांग्रेस की प्रासंगिकता कुछ-एक अपवादों को छोड़कर (अमित शाह के शब्दों में शब्दों में कांग्रेस गायब होती जा रही है) तेजी से समाप्ति की ओर जाने के कारण लोकतंत्र एकतंत्रीय दिशा की ओर बढ़ने से उत्पन्न शून्य के चलते उक्त शून्य को भरने हेतु वैकल्पिक राजनीति का झंडा लिए हुए झंडाबरदार केजरीवाल ने स्वयं पलटूराम बनकर, और राजनीति को ’चलती का नाम गाड़ी’ बना कर वैकल्पिक राजनीति की ’’ भ्रूण-हत्या’’ कर दी। अन्ना के सानिध्य से आशा का केन्द्र बने ’’ईमानदार केजरीवाल’’ ने मात्र 8 वर्ष में ही दोहरे मापदंड अपना कर विश्वसनीयता खोकर देश व जनता को निराशा के अंधकार में धकेल दिया। अविश्वास या विश्वास पैदा न करने से ज्यादा खतरनाक विश्वासघात होता है, जिसके लिए केजरीवाल इतिहास में  पूर्णतः दोषी ठहराये जायेंगे।न्द्र बने ’’ईमानदार केजरीवाल’’ ने मात्र 8-9 वर्षों में ही देश व जनता को निराशा के अंधकार में धकेल दिया। अविश्वास होना या विश्वास पैदा न करने से ज्यादा खतरनाक विश्वासघात होता है, जिसके लिए केजरीवाल इतिहास में  पूर्णतः दोषी ठहराये जायेंगे।

मंगलवार, 6 सितंबर 2022

‘‘द ग्रेट पॉलीटिकल शो (ड्रामा) ऑफ केजरीवाल’’!

‘‘विरोधाभाषी अजब-गजब व्यक्तित्व! केजरीवाल’’                                                                                    -:प्रथम भाग:- नाटक का शो शुरू करने के लिए पर्दा उठाने के पूर्व, देश की राजनीति और राजनीतिक स्थिति-परिस्थितियों पर मंथन करना आवश्यक है, ताकि आप वस्तुस्थिति से अच्छे से भिज्ञ हो सकंे। विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश हमारा भारत है, कहते-कहते हम थकते नहीं हैं और पड़ोसी देश चीन, पाकिस्तान को देखकर तो ’आत्मविमुग्ध’ व ’आत्मविभोर’ हो जाते हैं। लोकतंत्र का आधार, रीढ़ की हड्डी तथा उसे जीवंत, जीवट और जनोन्मुखी बनाये रखने के लिए दलीय, निर्दलीय व संघीय व्यवस्था हमारी संविधान की बिना प्रश्नचिन्ह लगे, खूबसूरत संवैधानिक व्यवस्था है। तथापि दल बदल विरोधी कानून लागू होने के बावजूद भी ‘‘थोक’’ में विधायकों की दल बदलने की घटनाओं में हाल में हुई बेतहाशा वृद्धि होने से हमारे संविधान की इस खूबसूरत व्यवस्था पर ‘‘चिंताजनक’’ प्रश्न चिन्ह अवश्य लगा है। यह ’’चिराग तले अंधेरा’’ की स्थिति दीखती है। स्वतंत्रता के पहले और उसके बाद भी कुछ समय तक राजनीति में भाग लेना गौरवशाली, सिर ऊंचा करने वाला और पूर्णतः राष्ट्र हित का कार्य माना जाता रहा है। अन्य कारकों के साथ मुख्य रूप से इसी कारण से ही न केवल देश को स्वतंत्रता मिली, बल्कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए देश के सक्षम, योग्य, कर्मठ वर्ग बेहिचक राजनीति में सक्रिय भाग लेकर अपना-अपना योगदान देते रहे। 

परन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के 75 साल व्यतीत हो जाने के बाद जब देश अमृत महोत्सव मना रहा है, तब आज ’’राजनीति’’ की स्थिति क्या हो गई है? जहां ऐन-केन प्रकरण सिर्फ ‘‘राज’’ को भोग कर ‘‘नीति’’ को छिटक दिया जाता है। शायद ’’तेल देखो तेल की धार देखने वाली राजनीति’’ की ऐसी स्थिति की कल्पना सार्वजनिक व सामाजिक जीवन में नहीं की गई थी। जब कोई भी व्यक्ति गलत कार्य अथवा गलत कदम उठाया है, तो उसे टोकतें-रोकते हुए कहा जाता है ‘‘कम से कम यहां तो राजनीति’’ मत कीजिए। अर्थात राजनीति ‘‘राजनीतिक खेल का एक गंदा मैदान’’ रह गई है, जहां गंदगी व बू के कारण स्वच्छ ईमानदार व्यक्ति जाना ही नहीं चाहता है। यदि किसी कारणवश कोई चला जाता हैं, तो वह भी भ्रष्ट राजनीति का शिकार होकर ’’ढाक के तीन पात’’ के अंदाज में स्वयं के अस्तित्व को समाप्त कर उसका अभिन्न अंग बन जाता है। जैसे नौकरशाही, सामाजिक कार्यकर्ता, आंदोलनकारी, स्वच्छ, ईमानदार अरविंद केजरीवाल के राजनीति में आने का उदाहरण आप सबके सामने है। 

इस गंदी भ्रष्ट प्रभावशाली राजनीति का असर केजरीवाल पर इतना ज्यादा चढ़ गया कि ईमानदार व साहस पूर्वक बोलने वाले केजरीवाल को इस भ्रष्ट राजनीति की कुर्सी की सत्ता ने अपने ‘तंत्र’ के कुचक्र में ही मिलाकर विसर्जित कर उनकी अलग विशिष्ट पहचान को अस्तित्वहीन ही कर दिया। तदनुसार केजरीवाल भी ’’सावन के अंधे के समान’’ भ्रष्ट तंत्र का भाग बन कर वही सुविधाजनक राजनीतिक जीवन जीने भोगने लगे है, जिनके खिलाफ उंगली उठाते हुए आंदोलन किया, इतने लम्बे समय तक कि शायद उनकी दर्द से उंगली व लगातार बोलने के कारण मुंह कराह रह रहा होगा? मतलब राजनीति का परसेप्शन पूरी तरह से निर्माणात्मक की बजाय ऋणात्मक हो गया है। अर्थात सेवा करने की बजाय मेवा लेना वाला हो गया है। 

इस गंदी राजनीति का एक पुराना सिद्धांत है जिस सीढ़ी से चढ़ो उसी को हटा दो। विद्वान, तेजतर्रार नौकरशाह लेकिन राजनीति  के नौसिखिया केजरीवाल ने इस सिद्धांत को शिखर पर बने रहने के लिए बहुत तेजी से अपनाया। जिस लोकपाल व लोकायुक्त कानून बनाने के आधार पर व अन्ना के कारण  वे प्रसिद्धि के जिस शिखर पर पहुंचे और राजनीति में सफलता मिली उसको ही वे भूल गए।

काफी समय पश्चात, कुछ दिन पूर्व ही जब ‘‘निस्वार्थी’’ अन्ना हजारे का केजरीवाल को उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद पहली बार लिखा शराब नीति के संबंध में पत्र सार्वजनिक हुआ, तब ’आप’ पार्टी सहित अन्य दलों की आई प्रतिक्रिया स्वार्थ से परिपूर्ण थी। शायद अन्ना ने ’’जिस थाली में खाय उसी में छेद करने’’ वाला मुहावरा नहीं सुना, जो अपनी चिट्ठी में केजरीवाल द्वारा रचित ‘‘स्वराज’’ किताब में लिखी उन आदर्शों की याद केजरीवाल को नहीं दिखाते? इसका कोई जवाब केजरीवाल के पास न कल था, न आज है और न कल होगा। इसलिए चुप रहना ही बेहतर हल है। कहते हैं न कि ’’सौ को हराए एक चुप’’। राजनैतिक विवाद-लडाई आरोप-प्रत्यारोप में जीत व सफलता के दो ही तरीके होते हैं। प्रथम चुप रहना ताकि समय के गुजरने के साथ कमजोर याददाश्त के कारण जनता भूल जाती हैं। दूसरा ’’आक्रमक होना सबसे अच्छा बचाव’’ (अटैच इज  द बेस्ट डिफेंस) हैं।      केजरीवाल इन दोनो हथियारों का उपयोग समयानुसार सफलतापूर्वक करते चले आ रहे हैं। जनता के विश्वास का हमेशा दावा करने वाले 62 में से 56 सदस्य का अटूट बहुमत होने के बावजूद जिस प्रकार दिल्ली विधानसभा मेें अनावश्यक रूप से प्रस्तुत विश्वास मत के जवाब में अरविंद केजरीवाल संबोधन कर रहे थे, उससे निश्चित रूप से यह बात बेशक सिद्ध हो जाती है कि कथनी व करनी में जो अंतर अच्छे व बुरे के बीच कैसा रहा है, अरविंद केजरीवाल ने अपने कृत्य से उस अंतर की गहराई को समुद्र तट की मीलों लम्बी दूरी के समान कर दिया है। अन्ना ने भी अपने पत्र में केजरीवाल की कथनी-करनी में अंतर की सच्चाई को स्वीकारा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ज्यादा आत्मबल व ’’काली रात को सफेद उजाला’’ के रूप में दमदारी से भाजपा से ज्यादा मीडिया का अच्छे तरीके से दुरूपयोग कर जनता के दिलों दिमाग तक में उतारने वाला एकमात्र कोई शख्स है, तो वह अरविंद केजरीवाल ही है। (हालांकि यह कहना भी ’’सूरज को दीपक दिखाने जैसा’’ है।) विधानसभा में जवाब देते समय उनके चेहरे से टपक रहा आत्मबल, आत्मविश्वास व चेहरे की भाव भंगिमा निश्चित रूप से असाधारण थी। ‘एडीआर’ की एक रिपोर्ट अनुसार आप के आधे से अधिक (लगभग 60 प्रतिशत) विधायकों के विरुद्ध 140 से ज्यादा चल रहे आपराधिक प्रकरणों के संबंध में केजरीवाल विधानसभा में स्थिति स्पष्ट कर यह गिना रहे थे, फलाने विधायक पर इतने प्रकरण चल रहे हैं और इतने में से वे छूट चुके है, शेष आपराधिक प्रकरण विचाराधीन है, किसी को भी सजा नहीं हुई है। ये बोलते समय उन केजरीवाल के चेहरे पर जरा सी भी शिकन तक नहीं थी, जो अन्ना आंदोलन के समय मात्र ‘दागी’ होने के आधार पर ही दागी सांसदों के इस्तीफे की मांग लगातार कर रहे थे। बल्कि ’’थोथा चना बाजे घना’’ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए ’’ताल ठोक कर’’ जैसे न्यूज चैनलों के प्रोग्राम के नाम होते हैं, विधानसभा में विधानसभा में डेक्स ठोक-ठोक कर, चिल्ला-चिल्ला कर बोल रहे थे, साथ ही जुमला भी जोड़ रहे थे कि देश को 75 सालों में किसी ने नहीं बदला, हम बदलेंगे? भारत को दुनिया का नंबर वन देश बनाएंगे? (क्या दिल्ली दुनिया का सबसे सर्वश्रेष्ठ शहर बन गया ?) देश में दो ही पार्टी रह गई है, एक कट्टर ईमानदार आप और दूसरी कट्टर बेईमान भाजपा। केजरीवाल वास्तव में यह प्रमाण पत्र देते और कहते समय भूल जाते है कि वे इस क्रिया में ईमानदारी का प्रमाण पत्र सामने वाले को ही दे रहे है, जब वे कहते है कि आप कड़क ईमानदार है। इतनी शालीनता उन्होंने जरूर रखी है, जब वे संबोधन में तुम की जगह आप का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार आप का प्रयोग सामने वाली भाजपा के लिए अपने आप हो जाता है व ईमानदारी का प्रमाण पत्र भी आपके (भाजपा) के पास पहुंच जाता है। 

यदि आप भाजपा है, तब प्रश्न पैदा होता है मैं कौन? केजरीवाल खुद ही मैं का बखान करते हुए कहते है, मेरे विधायकों पर केस चल रहे हैं, मैंने दिल्ली में स्कूलों की देश का सबसे सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था लागू की है। अच्छी स्वास्थ्य सेवा के लिए मोहल्ला चिकित्सा व्यवस्था की। इसी मैं में ही केजरीवाल का मैं (स्वयं) का झूठ छिपा हुआ है। यदि दिल्ली की स्कूल व चिकित्सा सर्वश्रेष्ठ है, तब वे यह दावा क्यों नहीं करते हैं कि हमारे 56 विधायकों व मंत्रियों के बच्चे इन्हीं स्कूलों में पढ़ रहे है और उनके परिवारों के सदस्य इन्हीं अस्पतालों में इलाज कराते हैं। विशेष कर उस स्थिति में जब ’’विदेशी अति महत्वपूर्ण गणमान्य’’ दिल्ली आकर केजरीवाल माडल की प्रशंसा करते चुकते-थकते नही हैं व विश्व प्रतिष्ठित पत्रिका न्यूयॉर्क टाईम के पृथक पृष्ठ पर दिल्ली सरकार के स्कूल मॉडल को छापती है। तब फिर स्वयं की पत्नी के इलाज का पच्चीस लाख के बिल का भुगतान दिल्ली सरकार के अस्पतालों के बजाए अन्य अस्पतालों (मैक्स हॉस्पिटल) को कैसे हो गया? ’’राम नाम जपना, जनता का माल अपना’’! इसका जवाब केजरीवाल जी से नहीं आता है और न ही आयेगा।

गुरुवार, 1 सितंबर 2022

अनियमित ‘‘ट्विन टाॅवर्स’’ को नियमित कर बचाया जाना चाहिए था?

 -ःद्वितीय भागः-

क्या बिल्डर्स एवं विकास प्राधिकरण के अहंकार व अनियमितता को ध्वस्त करने के मात्र एक तरीका यही रह गया था?
         

यदि ‘‘ट्विन टावर्स’’ को गिराने का निर्णय नहीं लिया जाता तो ऐसी स्थिति में एक बड़ा प्रश्न यह उत्पन्न हो सकता था कि सोसाइटी के रहवासियों ने दो टावरों के बीच व रहवासी फ्लैटों के बीच न्यूनतम दूरी 16 मीटर से कम होकर मात्र 9 मीटर होने के कारण उन्हे खुली हवा मिलने में व अन्य दिक्कते होने की शिकायतें की थी उनका न्याय कैसे मिलता? निश्चित रूप से उनकी यह शिकायत जायज है। ‘‘लॉ ऑफ टॉर्टस्’’ (अपकृत्य कानून) के अनुसार भी उनका यह वैधानिक अधिकार है। परन्तु क्या इस तथ्य से इनकार किया जा सकता है कि इस देश में विभिन्न राज्य सरकारें; कॉलोनाइजेशन कानून व बाद में रेरा एक्ट आने के बावजूद, बिना अनुमति के अथवा अनुमति की शर्तो का उल्लंघन कर बनी इमारतों को कुछ पैसा जमा कराकर व फाइन (शास्ति, ब्याज) लगाकर नियमित करती चली आ रही हैं? ऐसी कालोनियों को तो तोड़ा नहीं जाता है?
देश में करोड़ों लोग झुग्गी झोपड़ीयों और पुरानी बस्ती में रहते हंै जहां दो, गलियों के बीच 16 मीटर की दूरी की सुविधा बिल्कुल भी नहीं है। फिर भी वे आजाद भारत की उस ‘‘खुली’’, ‘‘सांस’’ के साथ रह कर जीवन व्यतीत करते हैं। वहां स्वच्छ व साफ सांस लेने के लिए डिमोलेशन की कार्रवाई नहीं होती है। क्या यह सरकार का दायित्व नहीं है कि देश के हर नागरिक को वही सुविधा दे, उपलब्ध कराये व दिलवाये जो इन याचिकाकर्ता सोसाइटी के निवासियों की जायज मांग की पूर्ति के लिए कार्रवाई की गई है? सिर्फ इसलिए कि वे देश की उच्चतम न्यायालय के पास नहीं आये और न ही देश की मीडिया ने ‘‘आगे नाथ न पीछे पगह’’ समझ कर उनकी आवाज को उठाया? क्या वे ‘‘कसाई के खूंटे से बंधे रहने के लिए’’ अभिशाप हैं? उन्हें उनके उक्त कानूनी अधिकार से वंचित रखा गया?
यह सत्य है जीवन का कोई मूल्य नहीं हो सकता हैं और न ही उसे वापिस लाया जा सकता है। जिंदगी को रुपयों से भी तौला नहीं जा सकता है। बावजूद इसके दिनचर्या में हम देखते हंै कि इस देश में जब भी कोई भी घटना, दुर्घटना, सुनियोजित षडयंत्र पूर्वक घटना घटित होती है, जहां जान माल का नुकसान होता है, वहां शासन-प्रशासन हजारों, लाखों व करोड़ों की राशी मुआवजा के नाम पर प्रभावित लोगों को देकर हर बड़ी से बड़ी घटना के दुष्प्रभाव को लगभग प्रभावहीन कर भुक्तभोगी की क्षतिपूर्ति परिपूर्ति मान कर चुप करा दिया जाता है। क्योंकि वे जानते है कि उनके पास इसके अलावा विकल्प क्या है? इसलिए घटना से प्रभावित लोग इसे अपना (दु)र्भाग्य, नियति मानकर स्वीकार कर लेते हंै। बुरा मत मानइये! क्या यहां पर भी ‘‘कानून की लकीर का फ़कीर’’ बनने के बजाए यही तरीका अपना कर 600 करोड़ की राष्ट्रीय संपत्ति को बचाया नहीं जाना चाहिए था, जो अंततः देश के नागरिकों की मकान आवश्यकता की पूर्ति में काम ही आती? विशेषकर यह देखते हुए कि सुपरटेक कंपनी ने फायर, पर्यावरण पर स्पोर्ट अथॉरिटी की एनओसी ली हो। कपंनी ने यह भी दावा किया कि वे किसी भी तरह के भ्रष्टाचार में शामिल नहीं है। इस दिशा में शिकायत कर्ता को समझाने का प्रयास नहीं किया जा सकता था क्या? इस देश में ऐसे कई उदाहरण मिल जायेंगे, जहां न्यायालयों ने निर्माण कार्यों की अनियमितताओं को नियमित किया है। उदाहरणार्थ दिल्ली उच्च न्यायालय ने पूनम गुप्ता व अन्य द्वारा दिल्ली नगर निगम को अवैध निर्माण को नियमित करने से रोकने के लिए दायर की गई याचिका में अवैध निर्माण को नियमित करने के नगर निगम के अधिकार को स्वीकारा है। यद्यपि जर्जर भवन को तोड़ने के आदेश सामान्य रूप से होते रहे हैं। परन्तु यहां तो मजबूत नींव को 3700 किलो विस्फोटक लगाकर ‘‘भ्रष्टाचार’’ को ध्वस्त किया गया, ‘‘जर्जर भवन’’ को नहीं?
परन्तु दुर्भाग्य यह है कि इस देश का ‘‘अंगूठा चूसता मीडिया’’ आजकल प्रायः एक परसेप्शन बनाता है जिसका लोग, अधिकांशतः राजनेता व राजनीतिक दल ‘‘अंधानुकरण’’ करते है। मीडिया के द्वारा ट्विन टावर को अट्ठाहास् करती ‘‘भ्रष्टाचार’’ का पर्यायवाची, प्रतीक बनाकर इस गगनचुंबी इमारत को जमींदोज कर भ्रष्टाचार को नेस्ताबूद बनाने वाले परसेप्शन के विरुद्ध कौन खड़ा हो सकता है? अभी तक नौकरशाहों और न्यायाधीशों के मामले में रिश्वत अर्थात पैसों का नगद लेन-देन तथा नेताओं के मामले में अवैध तरीके से निर्मित की गई अकूत संपत्ति भ्रष्टाचार का प्रतीक/परसेप्शन रही है। एक ओर जहां ‘रिश्वत’ के मामले में जेल भेज दिया जाता रहा है, वहीं दूसरी भ्रष्टाचार से निर्मित अकूत संपत्ति को राजसात कर लिया जाता है। क्या आपने किसी राजनेता की भ्रष्टाचार से कुटी गई अकूत अचल संपत्ति का इस तरह से विध्वंस होते हुए देखा है? (राजनैतिक द्वेषभाव से की गई कार्रवाईयांे को छोड़कर?) तब फिर ऐसी ही कार्यपद्धति ट्विन टावर मामले में क्यों नहीं अपनाई गई? शायद विध्वंसात्मक भावना के हावी होने के चलते वैकल्पिक रास्ता सोचने का प्रयास ही नहीं किया गया?
मुझे लगता है, मैं भी इस मामले में कुछ न कुछ दोषी हूं, यदि समय रहते  उच्चतम न्यायालय के पास एक याचिका प्रेषित कर देता, तो शायद उच्चतम न्यायालय भी पुनर्विचार कर लेती। मेरी नजर में यह दोषपूर्ण निर्णय है, लेकिन निश्चित रूप से गैरकानूनी न होकर न्यायिक है। समस्त न्यायालीन अंतिम निर्णय कानूनी होने के बावजूद अन्य परिस्थितियों (में) के लिए दोषपूर्ण हो सकते हैं। तथापि तथ्य यह भी है कि सुपरटेक की पुनर्विचार याचिका को भी उच्चतम न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया था।
ऐसा लगता है, शायद देश की वर्तमान विकल्पहीन राजनीति के चलते विकल्पहीन, रचनात्मक निर्माण की भावना रहित निर्णय ‘‘अस्तित्व’’ को समाप्त कर मलबे के धुएं में परिवर्तित होकर स्वयं अस्तित्व हीन हो गया?

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