बुधवार, 14 अक्तूबर 2015

सर संघचालक मोहन भागवत जी को शत्-शत् नमन्

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राजीव खण्डेलवाल:
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पिछले समस्त सर संघचालको से अलग अपनी विशिष्ट भूमिका वहन करने वाले सर संघचालक माननीय मोहनराव जी भागवत का पांचजन्य/आर्गनाइजर को विगत समय दिए गए विशेष साक्षात्कार ने देश में एक नया भूचाल पैदा कर दिया है। ऐसे साक्षात्कार की उम्मीद सिर्फ दृढ़, साहसी, और निरतंर राष्ट्र के लिये सोचने वाले व्यक्ति से ही की जा सकती हैं। इस पर जिस तरह की प्रक्रिया देश के विभिन्न अचंलो से आ रही है वह वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियों को देखते हुये स्वाभाविक ही हैं। आरक्षण के जमे हुये बर्फ को पिघलाने के लिये व आरक्षण के संबंध में वर्तमान संवैधानिक, राजनैतिक, व सामाजिक स्थिति कोे तोडनें के लिए ऐसे साहस पूर्ण विचारो के आघात की प्रबल आवश्यकता थी, जो माननीय भागवत जी ने ‘‘आरक्षण’’ पर अपने बेबाक विचार व्यक्त कर परिपूर्ति कर दी।
जब देश में संविधान सभा में डॉ भीमराव आम्बेडकर के द्वारा ‘‘आरक्षण’’ का प्रस्ताव लाया गया था तब उनका यह स्पष्ट मत था कि देश के कुचलित, अविकसित अत्यधिक पिछडे, कमजोर, अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्गांे के उत्थान के लिए एक ऐसी आरक्षंण व्यवस्था किया जाना अत्यन्त आवश्यक है जो अन्य सुदृढ़, मजबूत, विकसित एवं विकासशील वर्गों के मुकाबले ठहर सकने योग्य उनके आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिये अस्थायी व्यवस्था बन सके। इस प्रकार प्रारंभ में ही संविधान में आरक्षण की यह अस्थायी व्यवस्था किये जाने के साथ ही, निर्धारित समयावधि में अपेक्षित उद्वेश्य की पूर्ति न हो पाने की दशा में, दस - दस वर्षो के लिए आरक्षण बढाये जाने का प्रावधान किया गया था। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आरक्षण की समयावधि की समीक्षा का प्रावधान आरक्षण को संविधान में प्रावधित करते समय ही कर दिया गया था। भागवत जी ने उक्त विशेष साक्षात्कार में कहीं यह नहीं कहा कि आरक्षण समाप्त होना चाहिए। उन्होनें सिर्फ इतना ही कहा कि जिस उद्धेश्य के लिए पिछले 65 साल से आरक्षण की नीति लागू की गई है उसका कितना प्रभाव, कितना, यर्थाथ फायदा उन (कुचले) वर्गो को मिल सका है, उसकी समीक्षा की जानी चाहिए।
                              इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है खासकर मंडल आयोग कि सिफारिश लागू होने के बाद जो आरक्षण की नीति अपनाई गई व लागू की है उसके तहत सिर्फ और सिर्फ वोटो की राजनीति के लिए ही आरक्षण की व्यवस्था को समय - समय पर बढाया गया। इसके परिणाम स्वरूप कालान्तर में एक दिन ऐसा आ जाता जब आरक्षित वर्ग , अनारक्षित वर्ग से अधिक हो जाता। भला हो माननीय उच्चतम् न्यायालय का जिसने आरक्षण की सीमा को अधिकतम 50 प्रतिशत पर सीमित कर दिया। राजस्थान में जाटो को आरक्षण देकर कुल आरक्षण लगभग 68 प्रतिशत (उच्चतम् न्यायालय द्वारा घोषित सीमा से अधिक) कर दिया गया जो न केवल गैर संवैधानिक है वरण राजनीति के दिवालियापन का बेशरम उदाहरण भी है। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि वोटो के लिए आरक्षण की ऐसी राजनीति के चलते कालान्तर में आरक्षण की सीमा 70 से 80 प्रतिशत हो जाती तथा एक दिन ऐसा आता जब गैर आरक्षित वर्गों के लिए कुछ भी नहीं बचता ,और तब आरक्षण की मूलभूत भावना की हत्या ही हो जाती। इसलिए यदि सर संघचालक जी ने आज की राजनीति से प्रभावित हुये बिना देश में आरक्षण की समीक्षा पर बल दिया है तो यह पैमाना उन सब राष्ट्रवादी नागरिको के लिए है जो राष्ट्रवादी देश भक्त होते हुये भी तथाकथित वोटो के प्रलोभन के लिए जाने अनजाने में आरक्षण की उस नीति का समर्थन कर रहे है, जिससे देश और समाज अंततः विघटन की ओर चला जायेगा। आज उन शूर ,वीर, साहसी नेताओं की आवश्यकता है जो जनता के बीच आगे आकर आरक्षण को समाप्त या बढाने जाने के विपरीत उसकी वर्तमान में कितनी प्रासंगिकता है, किस सीमा तक है, कब तक है, यदि इस दृष्टि सेे विचार करंेगे तो निश्चत रूप से देश को मजबूत बनाये रखने में महत्वपर्ण योगदान देगें। देश के एक राज्य गुजरात में पटेलो द्वारा आरक्षण की मांग पर पटेलो के नेता हार्दिक पटेल का यह रूख कि हमें भी आरक्षण दो या समाप्त करो। इसका मतलब साफ है कि आरक्षण का दायरा इतना विशाल और जातिगत होता जा रहा है तथा जिस मूल आर्थिक कारणों के कारण समूह विशेष को दुर्बल व कमजोर व अविकसित पाकर आरक्षण प्रदान किया गया है उसी कारण से अब सामान्य जाति का व्यक्ति भी आरक्षण की मांग कर रहा है। 
                              आरक्षण का एक महत्वपूर्ण पहलू क्रिमीलेयर भी जिस पर भी विचार किया जाना आवश्यक है आरक्षण के कारण आरक्षित जातियों के उन सक्षम वर्गो द्वारा आरक्षण का फायदा उठाया गया है जिसे क्रिमीलीयर कहते है। उन सक्षम वर्गो को आरक्षण का फायदा अब आगे क्यो मिलना चाहिए, इस पर समस्त बुद्धिजीवी का भी मुह बंद है। इतिहास में यह अवसर बार बार नहीं आता। आरक्षण के लाभ से दरकिनार किये गये शेष बचे वर्गाे को यदि आरक्षण का फायदा दिया जायेगा तो आरक्षित असमानता की जो दूरी बढ रही है वह कम होती जायेगी। अतः यह आवश्यक है कि आरक्षण पर देश में गंभीर विचार हो तथा उसे एक निश्चित दिशा तक ले जाने का प्रयास हो ताकि व्यक्ति का स्वयं का भला हो, और समाज का भला हो। 
                              मेरे विचार में देश के दबे, कुचले,कमजोर एवं अक्षम वर्गों के लिए आरक्षण का औचित्य तो सदैव था, है और रहेगां चॅूकि प्रत्येक जाति में सक्षम एवं अक्षम आरक्षित वर्ग सदैव रहते आये है तथा रहेगे भी। जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था से जाति का अक्षम वर्ग तो पहुॅच बनाने में सफल नहीं हो पाता और वह कमजोर ही बना रह जाता है। परन्तु आरक्षण का आधार लेकर आरक्षित जातियों के सक्षम अयोग्य वर्ग (क्रिमीलेयर) भी हर सम्भव लाभ प्राप्त करते रहते है। दूसरी ओर अनारक्षित जातियों के कमजोर एवं अक्षम वर्गो के सर्वथा योग्य व्यक्ति अपना औचित्य पूर्ण हिस्सा प्राप्त करने से वंचित हो जाते है। अतः समाज एवं न्याय के हित में आरक्षण की व्यवस्था का आधार जाति न होकर केवल और केवल व्यक्ति का पिछडा पन यानी आर्थिक आधार पर अक्षमता होना चाहिए जिसके तहत देश में सम्पूर्ण समाज को समग्रता में लाभ मिल सके तथा जाति के नाम पर आरक्षण के तहत क्रीमीलेयर के जो अयोग्य व्यक्ति अभी अनुचित लाभ प्राप्त करते जा रहे हैं उन पर लगाम लग सके। यानी समग्रता में बराबरी से सबको औचित्यानुसार एवं न्यायपूर्ण लाभ के अवसर प्राप्त हों तथा सबका बराबर विकास हो सके।
                              अतः मेरा पुनः मोहन भागवत जी को विकट विपरीत परिस्थितियों के बावजूद यह मुद्वा उठा कर अपने अत्यंत संक्षिप्त लेकिन सारगर्भित विचार व्यक्त कर समाज का यथोचित संदेश देने के लिये साधूवाद एवं नमन्। 

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