tag:blogger.com,1999:blog-60419429053627438302024-03-19T01:48:40.036-07:00आंदोलनसमाज के उठते द्वंद्व पर अंतर्मन में उठते विचारRajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.comBlogger470125tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-81472520965984648132024-03-10T23:43:00.000-07:002024-03-10T23:43:15.522-07:00 लोकतंत्र की हत्या रोकने के लिए संविधान का अतिक्रमण?<p style="text-align: justify;">लोकतंत्र पर लगे ‘‘अभूतपूर्व काले दाग’’ को मिटाने के लिए ऐतिहासिक न्यायिक निर्णय!</p><p style="text-align: justify;"><b>‘‘निर्णय की तथ्यात्मक गलतियां’’</b> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgMQRSAmiS_30h4UIcq2VHvfjJ5oEm6w52SldObq2GU4w3ZqneZCXU6trg17JAUGa2J-giNLAHDkN6DUaO97EDUMCm5BM8yE2g4VxO169Hyevg750fEZ-8azZmW_XyYE38V07PKl_BWBRum-_oOHGx3IKNBHHXqOhPo09H0hRG0XdidUN9wb4On8o9CK-E/s300/download%20(32).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="168" data-original-width="300" height="168" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgMQRSAmiS_30h4UIcq2VHvfjJ5oEm6w52SldObq2GU4w3ZqneZCXU6trg17JAUGa2J-giNLAHDkN6DUaO97EDUMCm5BM8yE2g4VxO169Hyevg750fEZ-8azZmW_XyYE38V07PKl_BWBRum-_oOHGx3IKNBHHXqOhPo09H0hRG0XdidUN9wb4On8o9CK-E/s1600/download%20(32).jpg" width="300" /></a></div><p style="text-align: justify;">उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रथम प्रधानमंत्री स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरू की परिकल्पना के अनुरूप विश्व प्रसिद्ध फ्रांसीसी वास्तुकार ‘‘ली कार्बजियर’’ द्वारा डिजाइन की गई 20वीं सदी का देश का नया बना शहर चंडीगढ़ के मेयर चुनाव को लेकर उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की गई थी। 5 फरवरी को पहली बार हुई सुनवाई के दौरान माननीय मुख्य न्यायाधीश ने कहा ‘‘क्या इस तरह से चुनाव कराए जाते हैं’’? यह लोकतंत्र का मजाक है, हत्या है। क्या चुनाव अधिकारी का ऐसा बर्ताव हो सकता है’’। ’हम हैरान हैं! इस ‘‘शख्स पर केस चलना चाहिए’’। यह सब आश्चर्य मिश्रित ‘‘कठोर कथन’’ कहकर उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय को इस बात के लिए भी हड़काया कि ऐसे मामले में अंतरिम आदेश पारित क्यों नहीं किये गये? </p><p style="text-align: justify;">सबसे ‘‘आश्चर्यजनक बात’’ यह भी रही कि बिना किसी शक-शुबहा के लोकतंत्र की हत्या होते देखने के तथ्य से सहमति दर्शाने के बावजूद उच्चतम न्यायालय ने स्वयं भी ऐसा कोई ‘‘अपेक्षित आदेश’’ न्याय के लिये पारित नहीं किया। इस प्रकार कहीं न कहीं तथ्यों पर स्वयं के पर्यवेक्षण (ऑब्जरवेशन) एवं निष्कर्षानुसार कार्रवाई न करके प्रथम दृष्ट्वा उच्चतम न्यायालय की गलती प्रतीत होती है। उच्चतम न्यायालय द्वारा संपूर्ण न्याय देने की प्रक्रिया में संविधान के अनुच्छेद 142 में निहित व्यापक विवेकाधिकार का उपयोग करते हुए और विधान को परे रखकर कौन-कौन सी गलतियां उच्चतम न्यायालय ने की हैं, जैसा कि एक उदाहरण ऊपर दिया गया है। इसकी विवेचना की जानी आवश्यक है। ख़ास तौर से इस सिद्धांत को देखते हुए कि कोई भी संस्था या व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो ग़लती न करता हो। ‘‘चांद को भी ग्रहण लगता है’’। </p><p style="text-align: justify;">पहले यह समझना आवश्यक है कि संविधान के अनुच्छेद 142 का उपयोग सामान्यतः विशिष्ट कानून के अभाव में अथवा कानून में अपूर्णता या कमी होने के कारण उपचार के लिए न्याय हित में अत्यंत आवश्यक और अपरिहार्य होने पर ही किया जाता है। यहां पर उच्च न्यायालय द्वारा स्थगन आदेश न दिए जाने के कारण एक ‘‘एसएलपी’’ (विशेष अनुमति याचिका) उच्चतम न्यायालय में दायर की गई थी! प्रथम गलती उच्चतम न्यायालय की तब हुई, जब उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय को फटकारने के बाबजूद अंतरिम आदेश न देकर याचिकाकर्ता को त्वरित सहायता प्रदान न करते हुए 15 दिन बाद प्रदान की! इस कारण से 30 जनवरी को अवैध रूप से चुना गया महापौर 18 फरवरी तक कार्यरत रहा, जब तक उसने पद से (वह भी परिस्थितियों वश) इस्तीफा नहीं दिया, क्योंकि चुनाव अधिकारी ने परिणाम घोषित होते ही उसे तुरंत चार्ज दिलवा दिया था। क्योंकि ‘‘तकल्लुफ में है तक़लीफ़ सरासर’’। </p><p style="text-align: justify;">उच्च न्यायालय के आदेशानुसार की गई चुनावी प्रक्रिया की पूरी वीडियो रिकॉर्डिंग का अवलोकन करने पर पता चला कि पीठासीन चुनाव अधिकारी अनिल मसीह वैधानिक एवं लोकतांत्रिक रूप से स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के अपने कर्तव्य के निर्वहन में न केवल असफल दिख रहे थे, बल्कि कहीं न कहीं ‘‘कूट रचित’’ (फोर्जरी) करते हुए भी दिखाई दे रहे थे। उच्चतम न्यायालय ने उक्त कथित अपराध कदाचार एवं न्यायालय के समक्ष गलत बयानी के लिए न्याय चुनाव अधिकारी के विरुद्ध रजिस्टर को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 340 के अंतर्गत तीन हफ्ते का कारण बताओ सूचना पत्र देने के आदेश भी दिए। याचिकाकर्ता द्वारा स्वयं चुनाव अधिकारी के विरुद्ध कोई आपराधिक प्रकरण दर्ज न करवाना और फिर दायर एसएलपी (विशेष अनुमति याचिका) में इस तरह की सीधी कोई मांग न करने के बावजूद उच्चतम न्यायालय का उक्त निर्देश कितना ‘‘न्यायोचित’’ है?, यह दूसरा प्रश्न है। तीसरा देश की सर्वोच्च न्यायालय की इस तरह की टिप्पणियों के बाद अधीनस्थ न्यायालय में चुनाव अधिकारी के खिलाफ आगे की जाने वाली कार्यवाही क्या प्रभावित नहीं होगी? </p><p style="text-align: justify;">सबसे बड़ा प्रश्न यहां यह उत्पन्न होता है कि चंडीगढ़ मामले में उच्चतम न्यायालय ने संवैधानिक व कानूनी नजरिये से चंडीगढ़ के निर्वाचित महापौर का चुनाव अवैघ घोषित कर हारे हुए उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित कर, जिसकी स्पष्ट मांग याचिका में नहीं थी, क्या कानून व नियम का पूर्ण रूप से पालन किया है? देश के न्यायिक इतिहास में ऐसा शायद पहली बार हुआ है। इस प्रश्न का संवैधानिक व कानून की दृष्टि से सूक्ष्म विवेचन किया जाना आवश्यक है। बावजूद इस तथ्य के उच्चतम न्यायालय ने अंततः पीड़ित पक्ष को राहत प्रदान की और लोकतंत्र की जो हत्या निर्वाचन अधिकारी ने तथ्यों के विपरीत परिणाम घोषित कर की थी, उसका इलाज कर लोकतंत्र की सुचिता को बनाये रखकर सुरक्षित किया।</p><p style="text-align: justify;">उच्चतम न्यायालय का उक्त आदेश निम्न कारणों से संविधान@कानून का पालन करते हुए दिखाई नहीं देता है। तथापि अंतिम निर्णय निश्चित रूप से तथ्यों के आधार पर सही है। अन्यथा ‘‘चंदन धोई मछली पर छूटी ना गंध’’ की उक्ति चरितार्थ होना लाजमी है। आप जानते है, हमारे देश में कोई भी ‘‘चुनाव’’ गलत प्रक्रिया अपनाये जाने पर अथवा चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का उपयोग किये जाने पर उक्त निर्वाचन को चुनौती देने के लिए चुनाव याचिका का प्रावधान है। क्योंकि सामान्यतया एक बार चुनावी प्रक्रिया प्रारंभ हो जाने पर गलत रूप से नामांकन को स्वीकार या अस्वीकार कर दिया जाये, तब भी चुनावी प्रक्रिया रोकी नहीं जाती है, बल्कि ‘‘चुनाव परिणाम’’ को ही चुनाव याचिका के माध्यम से चुनौती दी जा सकती है। ऐसा कानूनी प्रावधान है। </p><p style="text-align: justify;">चंडीगढ़ चुनावी प्रक्रिया को समय समय पर विभिन्न कारणों से उच्च न्यायालय मे चुनौती दी गई थी, जिनमें एक कारण समय पर चुनाव न कराना, चुनाव तिथी एक बार तय हो जाने बाद लम्बी अवधि के लिए स्थगित कर देना, एक पार्षद को अवैध रूप से हिरासत में रखने से मुक्ति के लिए, राजनीतिक पार्टी से संबंधित व्यक्ति की चुनाव अधिकारी के रूप में नियुक्ति आदि! उच्च न्यायलय द्वारा दिए गये अंतरिम स्थगन आदेश को अस्वीकार करने के विरूद्ध दायर चुनाव याचिका में उच्चतम न्यायलय ने केन्द्र व चंडीगढ़ प्रशासन एवं अन्य पक्षों को नोटिस देने के साथ निर्वाचन के समस्त रिकार्ड अपने समक्ष प्रस्तुत किये जाने के निर्देश देते हुए दो सप्ताह बाद की तिथि निश्चित की। उच्चतम न्यायालय ने भी तुरंत अंतरिम स्थगन आदेश पारित नहीं किया। मतलब उच्च न्यायालय द्वारा चुनाव याचिका का निपटारा नहीं हुआ था, मात्र अंतरिम स्थगन आवेदन का निराकण हुआ था, जिसके विरूद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की गई थी। यह तो वही बात हुई है कि ‘‘जल की मछलियां जल में ही प्यासी’’। यहां एक उल्लेखनीय व महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि उच्च न्यायालय में दायर याचिका में याचिकाकर्ता ने पुनः चुनाव किये जाने की प्रार्थना की थी, खुद को विजयी घोषित करने की नहीं। </p><p style="text-align: justify;">मतलब उच्चतम न्यायालय के सामने स्थगन आदेश आवेदन पर आदेश पारित करने का मामला था। चूंकि यहां पर उच्चतम न्यायालय की नजर में चुनावी धांधली आईने के समान स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रही थी और हारे हुए आदमी को जीता हुआ दिखा दिया, यह स्पष्ट है। तब उच्चतम न्यायालय ने बजाय स्थगन आदेश देने के, तथा उच्च न्यायालय को याचिका के गुण-दोष के आधार पर आदेश पारित करने के निर्देश देने की बजाए, स्वयंस्फूर्त रूप से अपील को अंतिम रूप से ही निर्णित कर दिया, जो याचिकाकर्ता की मांग ही नहीं थी। इस प्रकार स्पष्ट रूप से उच्चतम न्यायालय द्वारा एक कानूनी@तथ्यात्मक गलती की और एक गलत परिपाटी डाली गई! </p><p style="text-align: justify;">यद्यपि यह जरूर कहा जा सकता है कि न्याय देने के लिए गलत परिपाटी डाली गई! उच्चतम न्यायालय की दूसरी महत्वपूर्ण गलती दिख रही है, पुलिस जांच अधिकारी के समान न्यायालय भी तथाकथित आरोपी जो जब तक प्रतिवादी था, से प्रश्नोंत्तर करने लगी और जब उसके बाद एक प्रतिवादी के रूप मे प्रस्तुत किये गये व्यक्ति को उच्चतम न्यायालय प्रथम दृष्टिया आरोपी ठहरा देता है, तब सुनवाई के समय अधीनस्थ न्यायालय स्वतंत्र निर्णय दे पायेगा, उसके लिये ‘‘तत्ता कौर न निगलने का न उगलने का’’ वाली स्थिति तो उत्पन्न नहीं हो जायेगी? बड़ा यक्ष प्रश्न यह है? यह उच्चतम न्यायालय का ही बनाया हुआ नियम व सिद्धांत है कि ‘‘न्याय न केवल मिलना चाहिए, बल्कि मिलते हुए दिखना भी चाहिए’’। कहते हैं कि ‘‘जंह पांच पंच तंह परमेश्वर’’, यहां पर उच्चतम स्तर पर किये गये आदेशानुसार बनाये जाने वाले आरोपी के साथ न्याय हो पायेगा? अधीनस्थ न्यायालय स्वतंत्र रूप क्या निर्णय ले पायेगी? सबसे महत्वपूर्ण गलती यह रही कि बहस के दौरान उच्चतम न्यायालय का यह कथन कि हम हॉर्स ट्रेंडिंग नहीं होने देंगे। यह कहीं से कहीं तक चुनाव याचिका का भाग नहीं था, लेकिन चुनाव याचिका के दायर होने के बाद और सुनवाई के एक दिन पूर्व महापौर के इस्तीफा देने व 3 पार्षदों के द्वारा दल-बदल करने के कारण उक्त स्थिति का भी संज्ञान लिया गया लगता है, जो याचिका की विषय वस्तु नहीं थी। तब मसीह के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने के साथ मसीह के ‘‘मसीहा’’ का पता लगाने की जांच के आदेश भी दिए जा सकते थे? </p><p style="text-align: justify;">ऐसी स्थिति में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को उसके पास उपलब्ध असीमित अधिकार को अनुच्छेद 142 के अधीन सही ठहराने के बजाय चुनाव याचिका के लिए बने कानून में आमूलचूल परिवर्तन लाने की आवश्यकता है, क्योंकि ‘‘कड़े गोश्त के लिए पैने दांतों की ज़रूरत होती है’’। ताकि इस तरह की स्थिति पैदा होने पर ऐसे प्रत्येक मामले में त्वरित व तुरंत निर्णय लेने में निम्न न्यायालय सक्षम हो सकंे। यह निर्णय कानून की सीमाओं से ऊपर उठकर न्याय की कुर्सी पर बैठे न्यायाधीपति के साहस व उनके विवेक पर ज्यादा निर्भर करता है। इसलिए यदि ‘‘न्याय तंत्र’’ की मूल कमियों को भविष्य में दूर नहीं किया गया तो, उस पर बैठा हुआ न्यायाधीश आज के मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ जैसा साहसी नहीं हुआ तब ऐसे निर्णय नहीं आ पायेगें, और फिर न्याय न तो ‘न्यायिक’ और न ‘अन्यायिक’ तरीेके से आ पायेगा?</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-39167969514410187772024-03-01T03:31:00.000-08:002024-03-02T02:35:41.570-08:00अनेकता में एकता नहीं! <p style="text-align: justify;"><b>‘‘अनैतिकता’’ में एकता</b>! </p><p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjJQSC9ie9GcddCV_y5R26oyXZiZny0siUrZ-RkGcjiXzizCmFe0ua43IVFwX2W6OTP3qIfLPEPKumwH02ktaE197vipHDsrUtAhgK2KD9tpJqp7-ZiQyAkgJJzodoPoF4rngLj4MEFZ14kCT7oIdxYqFooY4DRL36TQ90-JmjSo5N2HZUVk5Hx2sirrRw/s295/images%20(24).jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="171" data-original-width="295" height="171" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjJQSC9ie9GcddCV_y5R26oyXZiZny0siUrZ-RkGcjiXzizCmFe0ua43IVFwX2W6OTP3qIfLPEPKumwH02ktaE197vipHDsrUtAhgK2KD9tpJqp7-ZiQyAkgJJzodoPoF4rngLj4MEFZ14kCT7oIdxYqFooY4DRL36TQ90-JmjSo5N2HZUVk5Hx2sirrRw/s1600/images%20(24).jpg" width="295" /></a></div><p></p><p style="text-align: justify;">विश्व में भारत देश की पहचान के रूप में एक कथन अभी तक कहा जाता रहा है ‘‘कश्मीर से कन्याकुमारी तक अनेकता में एकता भारत की पहचान है’। यह बात या नारा भिन्न भिन्न संस्कृति, धर्म, जाति, भाषा, बोली, वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान, रंग-रूप आदि को लेकर कही जाती रही है। परंतु अब समय आ गया है कि लगता है कि उक्त कथन में हल्का सा संशोधन कर ‘‘अनेकता’’ की जगह ‘‘अनैतिकता में एकता’’ कर दिया जाना चाहिये। दुर्भाग्य वश, देश की सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र व पार्टियों में ही नहीं बल्कि जीवन के समस्त क्षेत्रों में यह एक नई पहचान बन गई है। नैतिकता की तो ऐसी गत हो गई है कि ‘‘करो तो सबाब नहीं, न करो तो अजाब नहीं’’। शायद इसीलिए अनीतिकता से भरिपूर्ण इसी राजनीति के लिए यह कहना पड़ जाता है कि राजनीति के ‘‘इस हमाम में हम सब नंगे हैं’’। इसीलिए तो कहा जाता है कि स्वयं कांच के घर में रहने वालों को दूसरे के घर पर पत्थर नहीं फेकना चाहिए। </p><p style="text-align: justify;">देश की राजनीति में ‘‘नैतिकता के पतन’’ का सबसे बड़ा और नंगा नाच (उदाहरण) वर्ष 1970-80 के दशक में कांग्रेस के युग में हुआ था, जब विपक्ष की पूरी की पूरी सरकार ही भजनलाल के नेतृत्व में गैरकांग्रेसी से ‘‘कांग्रेसी’’ हो गई। ठीक उसी प्रकार बल्कि उससे भी अभी तक का सबसे विकृत रूप हाल में ही हुए चंडीगढ़ मेयर के चुनाव में अनैतिकता का अकल्पनीय अप्रीतम उदाहरण देखने को मिला, जहां ‘‘रक्षक ही भक्षक’’ होकर लोकतंत्र को इतना तार-तार कर दिया गया कि उच्चतम न्यायालय तक को कहना पड़ गया कि यह तो ‘‘लोकतंत्र की हत्या’’ है। वह जमाना था, लोहिया के ‘‘गैर कांग्रेसवाद’’ का, जिसका विस्तार संविद (संयुक्त विधायक दल) शासन के रूप में हो रहा था। परन्तु तब कांग्रेस ने भी अपने पूरे सत्ता काल में अनुच्छेद 356 का बार-बार दुरुपयोग करते हुए चुनी गई सरकारों को हटाकर 77 बार राष्ट्रपति शासन लागू करके कौन सी नैतिकता का परिचय दिया था? तत्समय नैतिकता की दुहाई देने वाली जनसंघ पार्टी अपना राजनीतिक सफर प्रारंभ कर जनता पार्टी से होकर आज वह विश्व की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी ‘‘भारतीय जनता पार्टी’’ के रूप में स्थापित हो गई है। ‘‘पार्टी विद द डिफरेंस’’, ‘‘सबको परखा-हमको परखो’’ का नारा देकर सत्ता में आते ही उसने भी वही ‘‘अनैतिकता की कैंची’’ की धार को ‘‘तेज’’ कर सरकारों को पलटाया है, जिसकी पहले वह नैतिकता का पाठ पढ़ाकर, झंडा उठाकर आलोचना करती रही है। 10 साल के एनडीए के शासनकाल में 8 से अधिक सरकार (गोवा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, महाराष्ट्र आदि) जिन्हें ‘‘जनादेश’’ नहीं मिला था, उसी अनैतिकता के धारदार औजार का उपयोग कर जनादेश के विपरीत अपनी सरकार बनाई व विपक्षी सरकार गिराई। इन 10 सालों में विभिन्न पार्टियों में 740 से अधिक विधायक व सांसद भाजपा में शामिल कराये गये। </p><p style="text-align: justify;">ऐसा नहीं है कि भाजपा ने नैतिकता के मापदंड को उच्चतम स्तर पर कभी नहीं रखा हो। परंतु वह जमाना ‘‘अटल-आडवाणी की भाजपा’’ का था। जब अटल बिहारी वाजपेई ने नैतिकता के मापदंड के उच्चतम स्तर को बनाए रखने के लिए मात्र एक वोट के खातिर अपनी सरकार की बलि देने में हिचक नहीं की थी। अटल बिहारी वाजपेई का लोकसभा में दिया गया भाषण का वह कथन आज भी भी दिलों दिमाग में गूंजता है, ‘‘सत्ता का खेल तो चलेगा। सरकारें आएंगी जाएंगी। लेकिन देश का लोकतंत्र बने रहना चाहिए’’। जबकि उसके पूर्व झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों की खुल्लम-खुल्ला खरीद फरोक कर कांग्रेस ने पी वी नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार बचाई थी। अटल बिहारी वाजपेई के चाणक्य कहे जा सकने वाले प्रमोद महाजन भी ऐसा ही अनैतिक कार्य करके सरकार को बचा सकते थे। परंतु अटल बिहारी वाजपेई ने ऐसा होने नहीं दिया। जबकि पार्टी के विस्तार के लिए सत्ता में बने रहने के लिए मजबूरी में आवश्यक बुराई के रूप में उक्त हल्का सा अनैतिक कदम उठाया जा सकता था, जिसकी पार्टी की आज की वर्तमान मजबूत स्थिति में बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है। यह था नैतिकता का उच्चतम मापदंड। आज की राजनीति में नैतिकता की अपेक्षा करना अंधों की दुनिया में आईना बेचने के समान हो गया है।</p><p style="text-align: justify;">ताजा मामला हिमाचल प्रदेश की राजनीतिक घटनाक्रम का है। राजनीति के शतरंज के शह-मात के खेल में अनैतिकता के ‘‘शह’’ को ‘‘मात’’ अनैतिकता ने ही दे दी। हंसी तब आती है, जब पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर विधानसभा में तथाकथित रूप से बजट पारित होने के बाद ‘‘लोकतंत्र व नैतिकता की दुहाई’’ की बात करते हैं। निश्चित रूप से देश की राजनीति का यह शायद पहला उदाहरण है, जहां दोनों ही पक्षों ने अनैतिकता को साध्य ही नहीं बल्कि साधन भी बना लिया। ‘‘मानों अंधेरे घर में सांप ही सांप’’। परंतु प्रश्न यह है कि यहां पर अनैतिकता का खेल प्रारंभ किसने किया? विपक्षी दल भाजपा ने विधानसभा में कोई अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाया था, बल्कि राज्यसभा चुनाव की वोटिंग के समय कांग्रेस के 6 विधायकों को अनैतिक रूप से तोडा जाकर, उन्हें केंद्रीय अर्धसैनिक बल की सुरक्षा में हरियाणा में पंचकूला के सेक्टर एक पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस में रखा गया। क्या यह नैतिक कदम था? </p><p style="text-align: justify;">यह कहा जा सकता है कि चुने गए प्रतिनिधियों के बाजार की मंडी में जब कोई बिकने के लिए आया है, तो उसमें बोली लगाने अथवा खरीदने वाली की गलती क्या है? परंतु प्रश्न यह है कि मंडी में स्वेच्छा से स्वतः आया अथवा लाया गया? यदि वे स्वेच्छा से आए तो फिर उन्हें उन्मुक्त कर स्वतंत्र क्यों नहीं रहने दिया गया? अर्धसैनिक बल की सुरक्षा में दूसरे राज्य क्यों ले जाया गया? इसलिए जयराम ठाकुर को सरकार गिराने में असफल होने की खींच निकालने के लिए नैतिकता की दुहाई व लोकतंत्र की हत्या करने का कोई नैतिक अधिकार बनता नहीं है, बचता नहीं है। ‘‘कमली ओढ़ लेने से कोई फकीर नहीं हो जाता’’। जिस अनैतिकता से सरकार गिराने का प्रयास हिमाचल प्रदेश में किया गया, कमोबेश उसी अनैतिकता का उपयोग कर सरकार बचाने का प्रयास सफल भी हुआ। इसी को कहते है ‘‘जैसे को तैसा’’ (टिट फॉर टेट)। विधानसभा अध्यक्ष ने जिस तरह से विपक्षी भाजपा के 15 विधायकों को निलंबित कर बजट पारित करवाया, निश्चित रूप से वह संसदीय मर्यादाओं का घोर उल्लंघन और अनैतिक है। परंतु संसदीय कार्यप्रणाली में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। हां अनैतिकता ही अनैतिकता पर भारी पड़ गई, ऐसा पहली बार हुआ है। लगता है कुएं में ही भांग पड़ी हुई है। क्योंकि इसके पूर्व अधिकांश मामलों में एक पक्ष को ही अनैतिकता के हथियार का उपयोग करने का अवसर मिलता था, दोनों पक्षों को नहीं। झारखंड में ‘‘ऑपरेशन लोटस’’ असफल होने के बाद भाजपा के लिए यह दूसरा झटका है। यद्यपि वहां पर इस तरह की अनैतिकता का टेस्ट नहीं हो पाया था, क्योंकि ऐसा करने का अवसर ही उत्पन्न नहीं हो पाया था।</p><p style="text-align: justify;">कहा भी गया है ‘‘लोहा लोहे को काटता है’’, ‘‘डायमंड कटस डायमंड’’। इसीलिए राजनीति में निश्चित सफलता के लिए आज अनैतिकता की काट नैतिकता नहीं, बल्कि उससे भी बड़ी अनैतिकता हो गई है। गांधी जी का यह सिद्धांत आज की राजनीति में पूरी तरह से खोखला हो गया है कि ‘‘साध्य ही नहीं साधन भी पवित्र होना चाहिए’’।</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-71164558980268529252024-02-15T03:57:00.000-08:002024-02-15T03:57:29.110-08:00तेजस्वी का ‘‘तेज’’क्या राष्ट्रीय राजनीति में युवा ‘‘चेतना को चैतन्य’’ कर नेतृत्व करेगा?<p style="text-align: justify;"><b>‘‘तेजस्वी का तहलका’’</b></p><p style="text-align: justify;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_JNcr7Nts7EDemW2NuE0Mp91RR8tHvvr963JZQKRXOrPp42ET7AA7912hSdsu2OEzfYCxDhql_jp1B8icFKmaDkiwoJnFbBAVWQXS2aTug26hRGFPqGoQKXjmY7jSKDu6mQ0XzMcCk-jl_ycQx0daYReez-mKsPgJwPsk7r7EOXX5_nOmHWXNsiJgJJc/s259/download%20(31).jpg" imageanchor="1" style="clear: right; display: inline !important; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="194" data-original-width="259" height="194" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_JNcr7Nts7EDemW2NuE0Mp91RR8tHvvr963JZQKRXOrPp42ET7AA7912hSdsu2OEzfYCxDhql_jp1B8icFKmaDkiwoJnFbBAVWQXS2aTug26hRGFPqGoQKXjmY7jSKDu6mQ0XzMcCk-jl_ycQx0daYReez-mKsPgJwPsk7r7EOXX5_nOmHWXNsiJgJJc/s1600/download%20(31).jpg" width="259" /></a></p><p style="text-align: justify;">‘तेजस्वी‘‘ कहीं भारतीय राजनीति में सशक्त युवाओं के पदार्पण के ‘‘पर्यायवाची’’ तो नहीं होते जा रहे हैं? ‘‘युवा मोर्चा‘‘ भाजपा का युवा संगठन है, जिसके अध्यक्ष नवम्बर 2020 से कर्नाटक के ‘‘तेजस्वी’’ सूर्या एल. एस. है, जो ‘‘सूर्य‘’ के समान चमक रहे हैं और तेजस्वी नाम को जिसका अर्थ चमकदार, उर्जावान, प्रतिभाशाली है, अपने कार्य से सफल सिद्ध कर रहे है। वे मात्र वर्ष 2019 में 28 वर्ष की उम्र में ही बंगलौर दक्षिण से संसद के लिए चुने गए। इसी प्रकार ‘‘लालू के लाल’’ तेजस्वी प्रसाद यादव, क्रिकेटर से राजनेता बने, वर्ष 2015 में मात्र 26 वर्ष की उम्र में विधायक के लिए चुनकर उप-मुख्यमंत्री बने। ‘‘चारा कांड’’ के सजायाफ्ता उनके पिताजी बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व केंद्रीय रेल मंत्री, लालू प्रसाद यादव की ‘‘छत्र छाया’’ नहीं, बल्कि "गहन काली छाया" के साथ मात्र नौंवी पास की पढ़ाई की ‘‘डिग्री’’ लिए तेजस्वी यादव है। उनकी माताजी पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी सहित तेजस्वी पर भी कई मुकदमे दर्ज हैं। ‘‘यानी कि पूरा का पूरा थान ही डैमेज है।’’ उक्त काली पृष्ठभूमि से होने के बावजूद और विधानसभा में सत्ता पक्ष की विश्वास मत पर स्पष्ट दिख रही जीत की स्थिति को अर्थात स्वयं की हार की स्थिति को मतदान के पूर्व ही भाषण के समय ही स्वीकार कर लिया था जैसा कि बाद में मतदान में भाग न लेकर सदन से वॉकआउट कर दिया था। ऐसी विपरीत स्थिति में भी तेजस्वी का लगभग 40 मिनट का जिस तरह का जोरदार भाषण विधानसभा में विश्वास मत पर चर्चा के दौरान हुआ, उससे वे इस समय देश की समस्त मीडिया से लेकर आम जनों, बुद्धिजीवियों में चर्चित होकर राजनीति में बेहद प्रभावी होकर चमक लेकर एक प्रखर वक्ता के रूप में उभरे हैं। तेजस्वी का यह भाषण अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन की सरकार गिरने पर संसद में दिये गये भाषण की याद दिलाते हुए उनके व्यक्तित्व को एक नया अवतार प्रदान करता है व राष्ट्रीय राजनीति में उनके पिताजी से भी ज्यादा महत्वपूर्ण स्थान दिला सकता है, ऐसा कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। तेजस्वी के अपने समकालीन कई युवा नेताओं (राहुल...?) के बारे में यह कहा जा सकता है कि ‘‘जो उगता हुआ नहीं तपा तो डूबता हुआ क्या तपेगा’’?<span style="white-space: pre;"> </span></p><p style="text-align: justify;">सामने प्रत्यक्ष दिख रही निश्चित हार की मानसिकता से उबर कर, उपर उठकर और पिताजी की दाग नुमा छवि के वटवृक्ष के नीचे चलने के बावजूद उक्त घेरे (चक्रव्यूह) से निष्कलंक बाहर निकल कर आ जाना, एक नई युवा राष्ट्रीय राजनीति को इंगित करता है कि तेजस्वी ‘‘उथले पानी की मछली नहीं है’’। फिर ‘‘सुशासन बाबू’’ की छवि लिए राष्ट्रीय राजनीति के स्थापित क्षितिज राजनीतिक अनुभव में अपने से कई गुना बड़े, उम्र दराज, पांच बार की जीत, परन्तु कभी भी पूर्ण बहुमत प्राप्त न करने के बावजूद 17 साल में नौंवी बार बने ऐसे बिहार के ऐसे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सत्ता को चुनौती देते हुए, विधानसभा में अपने ‘तेज’ से तेजस्वी ने सबको ‘चमका’ दिया। जिस तत्परता, कौशल व शालीनता के साथ ‘‘अपशब्दों’’ (जो आज की राजनीति का अंलकारित महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है), का प्रयोग किए बिना विधानसभा में अपनी बात रख कर ‘‘राजा दशरथ’’, ‘‘माता कैकयी’’ का उल्लेख कर सामने वाले की बोलती बंद कर उन्हें भौंचक्का कर देना, तेजस्वी यादव का यह एक नया ‘‘एंग्री मैन’’ का रूप है। जो देश की राजनीति में आगे अग्रेषित होता हुआ स्पष्ट दिख रहा है। नाम (तेजस्वी) के विपरीत ‘‘तेजी’’ से न चलने की नीति, विपरीत परिस्थितियों में ठंडे दिमाग से तेजस्वी यादव ने जिस तरह नीतीश कुमार जो कि ‘‘ऐसे ऊंट के समान हैं जो अपनी पूंछ से मक्खी तक नहीं उड़ा सकते’’ को विधानसभा में सफलतापूर्वक ‘‘गुस्साये’’ नहीं, बल्कि ‘‘मुस्कराते’’ हुए घेरा, उसने नीतीश की अंततः हुई जीत की सफलता में भी तेजस्वी की हार की असफलता को ढक दिया। नीतीश कुमार को निरूत्तर कर सिर्फ पूर्व के लालू-राबड़ी के ‘‘जंगलराज’’ की याद दिलाने के अलावा नीतीश के पास कुछ बचा नहीं था। इस जंगलराज को भी जेडीयू की विधायक बीमा भारती ने जिसने विश्वास मत के पक्ष में मतदान किया, ने रोते हुए जिस प्रकार नीतीश की सरकार को जंगलराज कहा उससे नीतीश कुमार का जंगलराज का आरोप भी बोथल हो गया। नीतीश यह बतलाने में पूरी तरह से असफल रहे कि उन्होंने एनडीए को क्यों पकड़ा व महागठबंधन का साथ क्यों छोड़ा? ‘‘औसर चूकी डोमनी गावे ताल बेताल’’।</p><p style="text-align: justify;">तेजस्वी बार-बार अपने बयानों और किए गए कार्यों से यह अहसास दिलाते रहे कि जिन उद्देश्य को लेकर नीतीश कुमार ने ‘‘एनडीए’’ को छोड़कर ‘‘महागंठबंधन’’ के साथ सरकार बनायी थी, उसी गठबंधन की सरकार ने 17 महीनों में ऐसे अनेकोनेक कार्य किए जो पूर्व में 2005 से लेकर 2024 तक 17 साल की नीतीश कुमार की सरकार में नहीं हुए और इन 17 महीनों की सरकार चलाने में तेजस्वी ने कोई रुकावट नहीं डाली। न ही अपने प्रत्युत्तर में ऐसा कोई असहयोग का स्पष्ट आरोप नीतीश कुमार ने तेजस्वी पर लगाया। हां यह आरोप जरूर लगाया कि उनकी बातों को राजद कोटे के मंत्री गंभीरता से नहीं ले रहे थे। नीतीश कुमार का एनडीए में आने का तर्क बेहद ही लचर, अविवेकपूर्ण, तर्कहीन व बिल्कुल दमदार नहीं, बल्कि एक तरह से हास्यास्पद था। जेडीयू को कमजोर करने के आरोप लगाने के साथ जिस एनडीए को कमजोर करने के लिए और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ आगामी लोकसभा चुनाव में पहले 200 व बाद में मात्र 100 सीटों पर ही समेटने की बात की हुंकार भरने वाले नीतीश कुमार जब यह कहते है कि ‘‘इंडिया’’ गठबंधन ने उनकी बात नहीं सुनी, इसलिए वे जहां थे, वापस वहीं आ गए। लालू, कांग्रेस से मिले हुए थे, यह आरोप भी लगाया। तब क्या नीतीश कुमार का यह कर्तव्य नहीं होता था कि ‘‘गठबंधन’’ छोड़कर ‘‘एनडीए’’ में जाने की बजाए अपनी बची-कुची ताकत के आधार पर उक्त घोषित उद्देश्य की पूर्ति करने के लिए जुट जाते? परन्तु विपरीत इसके वे अपनी मान-सम्मान का ख्याल किए बिना, उस एनडीए को कमजोर करने की बजाय, उसी एनडीए को मजबूत करने में शामिल हो गए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नीतीश कुमार का उद्देश्य एनडीए को कमजोर करना नहीं था, जब एनडीए छोड़कर ‘महागठबंधन’ में शामिल हुए थे।</p><p style="text-align: justify;">सामान्यतया ऐसा कभी नहीं होता है और न ही ऐसा मानवीय स्वभाव होता है कि एक व्यक्ति जो अपने दुश्मन को निपटाने के लिए पहले ‘‘दुश्मन के दुश्मन से’’ हाथ मिलाता हो, असफल होने पर अथवा बीच में ही लड़ाई छोड़ने पर, वह प्रथम दुश्मन से लड़ने की बजाए उसके साथ ही शामिल होकर समर्पण कर दें। यह तभी होता है, जब वास्तव में वह दुश्मन ‘‘जानी दुश्मन’’ न होकर दिखाने के लिए दुश्मन होता है, और ऐसा परसेप्शन बनाया जाता है। यदि राजनीतिक रूप से अपने दुश्मन से लड़ने में सक्षम नहीं है, इस लड़ाई में दूसरों का वांछित सहयोग नहीं मिल रहा है, तो उचित तो यही होता कि कुछ समय का इंतजार करते या परिस्थितियों का सामना कर विद्यमान परिस्थिति, के आधार पर ही लड़ने का प्रयास करते, न कि उसी दुश्मन से मिलकर उसी को मजबूत करने का कार्य करें। इसी को कहते हैं कि ‘‘ओछे की प्रीत बालू की भीत’’। नीतीश कुमार के पूरे कार्य का निचोड़ यही ‘‘गैर जिम्मेदारी’’ है, जिसकी ‘‘जिम्मेदारी’’ से वे भाग नहीं सकते हैं।</p><p style="text-align: justify;">तेजस्वी ने भाषण में कई बातें सकारात्मक कहीं, तो कुछ के द्वारा सामने वाले को आइना दिखाने का सफल प्रयास किया। एक और महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन तीन विधायक के अचानक उनके प्रति पाला पलटकर विश्वास मत के दौरान विश्वासघात करने के बावजूद तेजस्वी ने उनके प्रति राजनीतिक ‘‘उदारता’’ दिखाई। वर्तमान में हममें से शायद किसी ने भी किसी नेता में इस तरह की बहुआयामी प्रतिभा नहीं देखी होगी। तेजस्वी का यह रवैया उनके व्यक्तित्व को बहुत बड़ा कर देता है। </p><p style="text-align: justify;">नीतीश कुमार का युवाओं को नौकरी देने के संबंध में तेजस्वी पर श्रेय लेने का आरोप लगाने पर तेजस्वी ने जिस प्रकार जवाब दिया, वह वाकई में काबिले तारीफ व सटीक था। उन्होंने स्पष्ट रूप से सत्ता पक्ष को चुनौती दी, जो काम करेगा वह ‘‘श्रेय’’ लेगा। चूंकि मैंने वह काम किया जो नीतीश कुमार ने विधानसभा चुनाव के समय कहा था कि "अपने बाप से पैसा लायेगा’’? ‘‘जेल से पैसे लेगा’’? साथ ही उन्होंने सत्तापक्ष को यह चुनौती भी दी कि आप भी जब कोई काम करेंगे तो क्या श्रेय नहीं लेंगे? आप ओल्ड पेंशन लागू कीजिए और श्रेय लीजिए। हम भी इसे स्वीकार करेगें।</p><p style="text-align: justify;">राजद के दो विधायक आनंद मोहन के बेटे चेतन आनंद, बाहुबली अनंत सिंह की पत्नी नीलम देवी के अध्यक्ष की अनुमति के बिना सत्ता पक्ष के साथ बैठकर पाला पलटने पर तेजस्वी का यह कथन महत्वपूर्ण है कि आपको जब भी हमारी जरूरत हो, हम आपके साथ है। पूर्व में भी हमने आपको खराब स्थिति से उबारा है। यह कथन भविष्य की संभावनाओं का खुला रखने का द्वार ही कहा जायेगा। 17 महीनों के शासन में कहीं यह याद नहीं आता है कि तेजस्वी यादव ने नीतीश कुमार से अपनी असहमति या नाराजगी जाहिर की हो। इसके बावजूद नीतीश कुमार ने कई बार लालू प्रसाद यादव के जंगल राज का उद्हरण किया। सचमुच में इस 40 मिनट के भाषण ने नीतीश कुमार की लगभग 40 साल से अधिक की जो राजनीतिक पूंजी कमाई थी, जिस कारण वे सुशासन बाबू भी कहलाये, जो पूंजी इस बार पाला बदलते ही समाप्त हो गई। ऐसी रातों के ऐसे ही सवेरे होते हैं’’। और उस पर तेजस्वी के भाषण ने ऐसा तडका लगा दिया की जो जली हुई पूंजी की अग्नि पर राख पड़ी थी, वह उस राख को तेजस्वी के भाषण ने ठंडा (शीतल) कर दिया, जिससे वह भविष्य में चिंगारी के रूप में भी न जल सके। ‘‘ईंट की लेनी और पत्थर की देनी’’इसी को कहते हैं।</p><p style="text-align: justify;">युवा नेतृत्व की देश की राजनीति में महत्वपूर्ण भागीदारी को रेखांकित करता यह लेख अपूर्ण ही कहा जायेगा, यदि इसमें उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का उल्लेख न किया जाए। उत्तर प्रदेश विधानसभा में अखिलेश यादव ने जो बजट भाषण दिया, निश्चित रूप से अखिलेश भी ‘‘तेजस्वी’’ की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। दोनों ‘‘एक तवे की रोटी, क्या पतली क्या मोटी’’। वे पहली बार वर्ष 2012 में विधानसभा का चुनाव लड़े व मात्र 38 वर्ष की उम्र में उत्तर प्रदेश जैसे सबसे बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए थे। अखिलेश के भाषण में युवा उत्साह के साथ राजनीतिक अनुभव की परिपक्वता भी पूरी तरह से परिलक्षित हो रही थी। इन तीनों युवा नेताओं के मर्यादित विधायकि उद्बोधन और देश की राजनीतिक क्षितिज पर तेजी से उभरते व्यक्तित्व के कारण भविष्य में और भविष्य के गर्भ में छुपी अन्य संभावनाओं के मद्दे नजर अब शायद किसी नागरिक को यह कहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी कि इंदिरा के बाद कौन? मोदी के बाद कौन? सर्व-धर्म, सम-भाव, सर्वसमाज की भावना लेकर बढ़े तेजस्वी जैसे लोग आगे बढ़कर देश के नेतृत्व करे, इन्ही शुभकामनाओं के साथ।</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-66621849514158341342024-02-15T03:23:00.000-08:002024-02-15T03:23:56.911-08:00इंडिया ‘‘गठबंधन‘‘ का पहला ‘‘शक्ति परिक्षण‘‘ चंडीगढ़ मेयर चुनाव!<p style="text-align: justify;"> क्या उच्चतम न्यायालय भी ‘‘एक्शन’’ (कार्रवाई) कम ‘‘परसेप्शन’’ बनाने में ज्यादा लग गया है?<span style="white-space: pre;"> </span></p><p style="text-align: justify;"><b>‘‘खूबसूरत शहर पर लोकतंत्र कमजोर करने का बदनुमा दाग’’!</b></p><p style="text-align: justify;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBxdYtjHXTSBM4UxQcuzD_ndXLaAnUctu5z8lXidBvtSTsq6t3bE3Rbo5ilUuoIDrzCB6JTv2fTzrzW022JduaU1pEBhvjP2Zl6hhtBe2KMmo3SECJiEQ0fx5dm1Jv8VRmnrzZBdYEMvhUZ7AEHvUJ9TuRdxYSpfPetfOQsRaQXx_e-VNkKrQfVX5mHX0/s259/images%20(23).jpg" imageanchor="1" style="clear: right; display: inline !important; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="194" data-original-width="259" height="194" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBxdYtjHXTSBM4UxQcuzD_ndXLaAnUctu5z8lXidBvtSTsq6t3bE3Rbo5ilUuoIDrzCB6JTv2fTzrzW022JduaU1pEBhvjP2Zl6hhtBe2KMmo3SECJiEQ0fx5dm1Jv8VRmnrzZBdYEMvhUZ7AEHvUJ9TuRdxYSpfPetfOQsRaQXx_e-VNkKrQfVX5mHX0/s1600/images%20(23).jpg" width="259" /></a></p><p style="text-align: justify;">वर्तमान राजनीति निसंदेह ‘‘क्रिया’’ (कार्रवाई एक्शन) की बजाए ‘‘धारणा‘‘ (परसेप्शन) और ‘‘नरेटिव‘‘ से परिपूर्ण है। और इस मामले में तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कोई मुकाबला ही नहीं है। इसी ‘‘परसेप्श्न व नरेटिव’’ के सहारे प्रधानमंत्री ‘‘अबकी बार 400 के पार’’ का आत्मविश्वास से भरा कथन संसद में कर रहे थे। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए इस दावे से एकदम से इंकार भी तो नहीं किया जा सकता है? ‘‘कर्ता से करतार हारे’’।</p><p style="text-align: justify;">कहते है न, जिस वातावरण में हम रहते हंै, प्रभाव उसका अवश्य पड़ता है। ऐसा ही कुछ राजनीति की ‘‘क्रिया व बनी धारणा’’ का प्रभाव न्यायपालिका पर भी पड़ता हुआ दिख रहा है। पिछले कुछ समय से उच्चतम न्यायालय में जिस तरह की न्यायालीन कार्रवाई हुई है, जो कुछ तीक्ष्ण टिप्पणियां न्यायालय द्वारा कुछ एक मामलों में की गई, परन्तु बाद में उन्हीं मामलों में जो फैसले आये उनका उन कहीं गई टिप्पणियों से वैसा सरोकार न होने/रखने के कारण, न्यायालय में भी ‘‘धारणा‘‘ की (परसेप्शन) स्थिति बनती हुई प्रतीत होती दिखती है।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>चंडीगढ़ जिसका नाम देवी दुर्गा के एक रूप ‘‘चण्डी’’ के कारण पड़ा, वर्ष 1952 में बना देश का एक बहुत ही सुंदर शहर है। इसके वास्तुकार विश्व प्रसिद्ध फ्रांसीसी ली कार्बजियर थे। इसीलिए इसे ‘‘सिटी ब्यूटीफुल’’ भी कहा जाता है। इस शहर की सुंदरता को मैंने भी देखा है। विश्व में यह शायद एकमात्र ऐसा शहर है, जिसे तीन राजधानी (ट्रिपल क्राउन) होने का गौरव प्राप्त है। प्रथम एक व दो पंजाब तथा हरियाणा राज्य की राजधानी व तीसरा है, ‘‘केन्द्र शासित प्रदेश’’ (संघ राज्य क्षेत्र) है। इसका एक प्रशासक होता है, जो सीधे केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अधीन कार्य करता है। चंडीगढ़ महापौर का कार्यकाल उत्तर भारत पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश की तुलना में मात्र 1 वर्ष का होता हैं। </p><p style="text-align: justify;">अभी चंडीगढ़ मेयर का जो चुनाव हुआ है, जिसका कार्यकाल 16 जनवरी को समाप्त हो चुका है, ‘‘उस चंडीगढ़’’ का था, जिसकी कमान केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है। अर्थात् केन्द्रीय प्रतिनिधी होने कारण सीधे रूप से राज्यपाल के पास है। मतलब चंडीगढ़ प्रशासन की कोई भी गलती अथवा उपलब्धि के लिए केन्द्रीय गृह मंत्रालय व राज्यपाल ही उत्तरदायी अथवा अधिकरी माने जायेगें। ‘‘कमर का मोल होता है तलवार का नहीं’’। महामहिम राज्यपाल बनवारीलाल जो मध्य भारत के अग्रणी अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र ‘‘द हितवाद’’ के मालिक रहें हैं, के इस्तीफा को चंडीगढ़ चुनाव परिणाम, के उक्त परिदृश्य के परिपेक्ष में भी देखा जा सकता है। ‘‘कहु रहीम कैसे निभे बेर केर को संग’’।</p><p style="text-align: justify;">लोकतंत्र को तार-तार कर देने वाली चंडीगढ़ मेयर के चुनावी प्रक्रिया का मामला पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय से आवश्यक सहायता न मिलने पर उच्चतम न्यायालय पहुंचा। सुनवाई के दौरान प्रथमदृष्ट्यिा ‘‘वीडियो’’ क्लिक देखने के बाद माननीय मुख्य न्यायाधीश की यह बेहद तल्ख टिप्पणीयाॅ थी कि ‘‘यह जनतंत्र की हत्या है’’। ‘‘लोकतंत्र मजाक है’’। ‘‘पूरे मामले से हम हैरान है। ‘‘चुनाव अधिकारी क्या कर रहे है? ‘‘चुनाव अधिकारी पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए’’। उक्त टिप्पणियों ने तो देश के लोकतंत्र की जड़ों को ही हिला दिया। एक बार तो ऐसा लगा कि ‘‘देश में लोकतंत्र तख़्त पर नहीं तख़्ते पर है’’। उच्च न्यायालय की इस बात के लिए भी आलोचना की गई कि ऐसे मामले में ‘‘अंतरिम आदेश’’ क्यों नहीं दिया गया? उक्त तल्ख टिप्पणी के बावजूद आश्चर्य की बात यह रही कि स्वयं उच्चतम न्यायालय ने याचिकाकर्ता कुलदीप कुमार टीटा जिसे मेयर चुनाव में तथाकथित गड़बड़ी कर हराया गया था, के पक्ष में कोई अंतरिम आदेश नहीं दिया गया। न तो प्रथम दृष्ट्या दिखते ‘‘शून्य’’ चुनाव परिणाम पर रोक लगाई, जिससे की अवैध रूप से निर्वाचित अध्यक्ष को कार्य करने से रोका जा सकता था और न ही लोकतंत्र का गला घोटने वाले अधिकारी के विरूद्ध प्राथमिकी दर्ज करने के अथवा तत्काल जांच के आदेश दिये। मतदान को एक साजिश के तहत विकृत किया गया हैं, यह अभी अनुत्तरित हैै।</p><p style="text-align: justify;">हाईकोर्ट ने जहां तीन हफ्ते बाद सुनवाई के लिए प्रकरण रखा, वहीं उच्चतम न्यायालय ने दो हफ्ते बाद 19 फरवरी सुनवाई निश्चित की। तत्काल कोई राहत उच्चतम न्यायालय से याचिकाकर्ता को नहीं मिली, सिवाए चुनाव प्रक्रिया के पूरे रिकॉर्ड को संरक्षित करने के साथ निर्वाचन अधिकारी को व्यक्तिगत उपस्थिति के निर्देश दिये गये। इससे इस बात को पूरा बल मिलता है कि, उच्चतम न्यायालय ने यह (परसेप्शन) तो पूरा बनाया कि वह लोकतंत्र का प्रहरी है और संविधान में प्रद्रत्त, वर्णित निष्पक्ष व न्यायप्रिय चुनाव आयोग के अपने कर्तव्य के पालन में असफल होने पर वह सबसे बड़ा अभिरक्षक (कस्टोडियन) है। परन्तु क्या वास्तव में ऐसा ‘‘परिणाम’’ फलितार्थ हुआ? ऐसे कुछ अन्य ऐसे मामले को आगे उद्धरित किया गया है।</p><p style="text-align: justify;">महाराष्ट्र के मामलों को देख लीजिए! जहां उच्चतम न्यायालय ने शिवसेना की टूट पर विधानसभा अध्यक्ष एवं चुनाव आयोग द्वारा की गई कार्रवाई पर यह कहा था, उद्धव ठाकरे इस्तीफा न देकर यदि विश्वास मत हासिल करते हुए हार जाते, तब उच्चतम न्यायालय उनको मुख्यमंत्री पद पर पुनर्स्थापित कर सकता था। यह न्यायालय का न्याय के प्रति क्या मात्र परसेप्शन था? क्योकि अंत में जो निर्णय आया वास्तव में उसमें क्या हुआ? ‘‘काजी के प्यादे घोड़ों पर सवार हो गये’’। स्पीकर के निर्णय ने यह स्थिति ला दी कि समस्त विधायक शिंदे ग्रुप के ही हो गये और अब विधानसभा में शिंदे ग्रुप के व्हिप का विरोध करना सदस्यता खोने के खतरे से खाली नहीं होगा। इसी प्रकार इलेक्ट्रोल बाॅड के विषय में उच्चतम न्यायालय का निर्णय महीनों से आदेशार्थ बंद है। आगामी होने वाले लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया प्रारंभ होने अथवा चुनाव होने के बाद निर्णय आयेगा, तब क्या याचिका का उद्देश्य ही व्यर्थ नहीं हो जाएगा?</p><p style="text-align: justify;">उच्चतम न्यायालय की चंडीगढ़ महापौर के मामले में दो प्रमुख गलती स्पष्ट रूप से प्रतीत होती दिखती है। प्रथम वीडियो के आधार पर उपरोक्त रिमार्क किये गये, जिस वीडियो की पुष्टि कोई ‘‘फोंरेसिक जांच’’ किये बिना उस पर विश्वास कर तथा उसका साक्ष्यात्मक मूल्य कितना होगा, उस पर विचार किये बिना ‘मत’ बना लेना, कितना न्यायोचित है? दूसरा उच्चतम न्यायालय ने तल्ख व तीखे तेवर दिखाकर वही स्टैंड लिया जो उच्च न्यायालय ने शांतिपूर्वक रहकर यह कहकर लिखा कि यह जांच का विषय है, इसलिए दूसरे पक्ष का जवाब आने पर ही इस पर कोई आदेश पारित किया जा सकता है। इससे उच्च न्यायालय की तुलनात्मक रूप से गरिमा ज्यादा दिखती प्रतीत है, भले ही कानूनी रूप से उनका स्टैंड सही नहीं कहा जा सकता है। परन्तु उन्हे भी ‘‘सही’’ करने का काम तो उच्चतम न्यायालय ने नहीं किया। ऐसा लगता है, उच्चतम न्यायालय के मन-मस्तिष्क में वह ‘‘सर्वोच्च’’ के साथ श्रेष्ठतम है, ‘‘भाव’’ के साथ परिस्थितियों, तथ्यों पर कई बार गहराई पर जाये बिना ऐसी त्वरित टिप्पणियां व आदेश पारित कर दी जाती है, जो सामान्यतः कानूनविदों के गले उतरती नहीं है। </p><p style="text-align: justify;">शुरू से ही देखे, मेयर के चुनाव में प्रशासन ने रुकावटें डाली व गंभीर अनैतिकता का प्रदर्शन किया। सामान्यतः 1 जनवरी को मेयर पद ग्रहण कर लेता है। यहां पर संख्या की दृष्टि से भाजपा व अकाली दल के 16 पार्षद (14+1+1) सांसद प्रतिनिधि सहित थे। जबकि आप व कांग्रेस पार्टी में गठबंधन हो जाने के कारण कुल 20 पार्षद हो गये थे। पहली बार जब 10 जनवरी को मेयर चुनाव की तारीख 18 जनवरी घोषित हुई थी, तब तक आप व कांग्रेस का गठबंधन नहीं हुआ था। बल्कि कांग्रेस के उम्मीदवार ने भी पर्चा भरा था। बाद में जब कांग्रेस उम्मीदवार को फार्म वापिस लेने के लिए वह कार्यालय न पहुंच सके उसके लिए घर में ही उसे नजरबंद कर दिया गया था। उच्च न्यायालय के समक्ष बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर होने पर उनकी मुक्ति हुई। परन्तु 18 जनवरी की चुनावी तिथि के पूर्व ही 16 तारीख को गठबंधन हो गया। पीठासीन अधिकारी (चुनाव अधिकारी) चुनावी तिथि के दिन तथाकथित रूप से बीमार हो गये। तद्नुसार सहायक आयुक्त (डीसी) ने चुनाव की नई तारीख 06 फरवरी निश्चित की। ‘‘कमली ओढ़ लेने से कोई फ़कीर नहीं बन जाता’’, चुनाव अधिकारी भी उस व्यक्ति मनोनीत पार्षद अनिल मसीह को बनाया गया जो भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चा का पदाधिकारी रहा है, यह भी बेहद हैरत की बात हैं। 06 फरवरी को निश्चित की गई चुनावी तारीख को गठबंधन के उम्मीदवार कुलदीप कुमार टीटा ने हाईकोर्टं में चुनौती दी। तब पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने 23 तारीख को अंतरिम आदेश पारित करते हुए 30 जनवरी को चुनाव कराने के आदेश इस निर्देश के साथ दिये कि ‘‘पूरी चुनावी प्रक्रिया की वीडियोग्राफी की जावे। तदनुसार हुए चुनाव में चुनाव अधिकारी द्वारा 8 वोट अवैध घोषित किये गये, जिसके लिए जरूरी कानूनी प्रक्रिया नहीं अपनाई गई। विपरित इसके उन वैध मतों को तथाकथित रूप से अवैध करने की प्रक्रिया करते स्वयं चुनाव अधिकारी ‘‘कैमरे‘‘ में पकड़े गये, जो वीडियो उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत की गई। चुनाव परिणाम घोषित करते ही पीठासीन अधिकारी द्वारा तथाकथित जीते गए उम्मीदवार मनोज कुमार सोनकर को तुरंत बुलाकर महामहिम की कुर्सी पर बैठा दिया। </p><p style="text-align: justify;">एक तरफ देश में ‘‘ईवीएम’’ के बदले ‘‘बैलेट पेपर’’ पर चुनाव होने की मांग लगातार उठ रही है। इस पर प्रबुद्ध वर्ग का असंतोष व जन आंदोलन बढ़ते जा रहा है। इन जन आंदोलनकारियों को यह सोचना होगा कि इस तरह दिनदहाड़े बैलेट पेपर पर किस बेशर्मी के साथ डाका डाला जा सकता है, जिससे बैलेट से चुनाव कराना कितना खतरनाक है, और हो सकता है? कभी बैलेट चुनाव के समय इतनी भयावह स्थिति होती थी कि मत पेटियां ही गायब कर दी जाती थी। इसीलिए तो ईवीएम को लाया गया था। हां उसमें कमियां जरूर व अनेक है, उनमें सुधारों का सुझाव जरूर कुछ लोगो ने दिया है। महत्वपूर्ण सुझाव ‘‘वीवीपैड’’ की गिनती की जाने की हैं। तब न तो बैलेट पेपर में गड़बड़ी होने की संभावनाएं रहेगी और साथ ही ईवीएम में ‘चिप’ के द्वारा गड़बड़ी की जाने की तथाकथित आशंका को वीवीपैड की गिनती करके दूर किया जा सकेगा। मेयर चुनाव परिणाम आने के तत्काल बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा द्वारा ट्वीट पर बधाई देते हुए उन्होंने कहा मेयर चुनाव जीतने के लिए भाजपा चंडीगढ़ इकाई को बधाई। भाजपा के ट्विटर हैंडल पर कहा गया ‘‘यह तो अभी झांकी है’’। क्या ये प्रतिक्रियाएँ जल्दबाजी में हुई गलती तो नहीं है?</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-3054855054143071052024-02-05T03:52:00.000-08:002024-02-05T03:52:43.523-08:00कर्पूरी ठाकुर की सादगी का एक आंखों देखा हाल।<p style="text-align: justify;"><b> //संस्मरण// ‘‘तांगे में बैठकर बस स्टैंड गये’’</b></p><p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEinwHCHJvFlyI3tGwluvipABE5X3hwJhNnMKRJTgG-J6KHLqTpgJ6GMhiq4VX9OCPlNM674XQkMOe2H9DzRHHgoHBE8JaLLh65FUPu7vvRs96LFClMdnvR0x4e1h_PVgvBJbnYfTAn8zE7ZXk54h7FHBILrx2v5zIpk11AakyxEpFjhyphenhyphen4FDZPxNhZpLoQs/s300/download%20(30).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="168" data-original-width="300" height="168" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEinwHCHJvFlyI3tGwluvipABE5X3hwJhNnMKRJTgG-J6KHLqTpgJ6GMhiq4VX9OCPlNM674XQkMOe2H9DzRHHgoHBE8JaLLh65FUPu7vvRs96LFClMdnvR0x4e1h_PVgvBJbnYfTAn8zE7ZXk54h7FHBILrx2v5zIpk11AakyxEpFjhyphenhyphen4FDZPxNhZpLoQs/s1600/download%20(30).jpg" width="300" /></a></div><p></p><p style="text-align: justify;">बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कर्पूरी को भारत रत्न दिए जाने पर लिखे मेरे लेख पर भोपाल निवासी श्री नरेंद्र भानू खंडेलवाल ने मुझे फोन पर कर्पूरी ठाकुर की सादगी, जो उन्होंने देखी व जिसके प्रत्यक्षदर्शी मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री जी डी खंडेलवाल रहे, का रूबरू वर्णन में आगे कर रहा हूं, जैसा की श्री नरेंद्र भानू खंडेलवाल ने मुझे फोन पर बतलाया।</p><p style="text-align: justify;">मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री गोवर्धन दास जी खंडेलवाल वर्ष 1967 में बनी संविद सरकार जिनकी जनक व नेत्री स्वर्गीय राजमाता विजयाराजे सिंधिया थीं, के मुख्यमंत्री ठा. गोविंद नारायण सिंह के मंत्रिमंडल में पहले समाज कल्याण विभाग के राज्य मंत्री और बाद में आदिम जाति कल्याण एवं बिजली विभाग के कैबिनेट मंत्री जनसंघ कोटे से रहे। हम लोग उस समय प्रोफेसर कॉलोनी में चार बंगले के बंगला नंबर तीन में रहते थे, जहां बाद में कभी सुश्री उमा भारती भी रहीं।</p><p style="text-align: justify;">बात उस समय की है, जब डॉ राम मनोहर लोहिया के ‘‘गैर कांग्रेस वाद’’ के नारे व नीति के चलते वर्ष 1967 में देश में संविद सरकारें बनने का दौर चला था। मध्य प्रदेश में ही नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल आदि प्रदेशों में भी संयुक्त विधायक दल की (संविद) सरकारें गैर कांग्रेस वाद के आधार पर बनी थी। संपूर्ण देश में गैर कांग्रेसी वाद को मजबूत करने के लिए समस्त विपक्षी दलों को एक साथ खड़े रखने की नीति को मजबूत करने के तहत शायद पार्टी निर्देशों के तारम्तय में मेरे पिताजी जी डी खंडेलवाल जी ने उस समय की समस्त संविद सरकारों के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री को विचार विमर्श करने के लिए एक बैठक अपने निवास, चार बंगले में बुलाई थी। तब कर्पूरी ठाकुर, जो उस समय बिहार के उपमुख्यमंत्री थे, भोपाल हमारे निवास पर आए थे। उस समय पंडित दीनदयाल उपाध्याय, राजमाता विजयाराजे सिंधिया व उपमुख्यमंत्री वीरेंद्र कुमार सकलेचा भी बैठक में उपस्थित थे। पंडित दीनदयाल जी की सादगी का आलम यह था कि एक पत्रकार ने जब यह पूछा कि दीनदयाल जी भी आए हैं? तब उनको यह बतलाया गया कि आपके सामने जो अभी चप्पल पहने जा रहे हैं, यही दीनदयाल जी हैं।</p><p style="text-align: justify;">मीटिंग समाप्ति के बाद कर्पूरी ठाकुर जी को इंदौर एक निजी कार्यक्रम में जाना था। वे बस से इंदौर जा रहे थे। नरेंद्र भानू खंडेलवाल, जो उस समय हमारे पारिवारिक सदस्य थे और मैं और मेरा छोटा भाई उनके द्वारा चलाई जारी शिक्षा क्लासेस में पढ़ने भी जाते थे, घर पर उपस्थित थे। कर्पूरी ठाकुर जी को बस स्टैंड छोड़ने के लिए कार में बैठने के लिए नरेंद्र जी ने कहा तो उन्होंने कहा मैं सरकारी गाड़ी का उपयोग नहीं करूंगा, क्योंकि मैं निजी यात्रा पर जा रहा हूं। तब नरेंद्र जी स्वयं ‘‘तांगे’’ पर उनको लेकर बस स्टैंड छोड़ने गए और 5 रू 50 पैसे की इंदौर की बस का टिकट कटवाया। वह पैसे भी कर्पूरी ठाकुर ने ही दिए, यह कहकर कि जब मैं कार से बस स्टैंड नहीं आया हूं, निजी यात्रा पर जा रहा हूं, आपसे पैसे कैसे ले सकता हूं? सादगी के इस रूप की कल्पना आज तो संभव ही नहीं है, ओढ़ना तो दूर की बात है। इसी सादगी में मैं अपने स्वर्गीय पिताजी की सादगी को भी जोड़ना चाहता हूं। संविद सरकार में शामिल जनसंघ घटक के समस्त मंत्रियों को जब ‘‘कच्छ आंदोलन’’ में भाग लेने के लिए मंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए कहा गया। तब मेरे पिताजी इस्तीफा पत्र लेकर घर से गवर्नर हाउस सरकारी गाड़ी से नहीं गए, बल्कि स्कूटर से गए और उस समय स्कूटर पर जाते हुए उनकी फोटो समाचार पत्रों में छपी थी। तब कोई सोशल मीडिया नहीं था। हम दोनों भाई भी स्कूल पॉलिटेक्निक बस स्टॉप से बस पकड़ कर जवाहर चैक माडल स्कूल जाते थे, जबकि अन्य मंत्रियों के बच्चों को स्कूल छोड़ने सरकारी गाड़ियां जाती थी।</p><p style="text-align: justify;">कर्पूरी ठाकुर की ऐसी सादगी को नमन। मैं नरेंद्र जी का हृदय की गहराई से धन्यवाद करना चाहता हूं कि मुझे उन्होंने उक्त तथ्यों से अवगत कराया, जिसकी जानकारी मुझे अभी तक नहीं थी। </p><p style="text-align: justify;">सादगी का उक्त वर्णन जैसा कि नरेंद्र भानू खंडेलवाल जी ने बतलाया।</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-58859317906179097342024-01-30T23:04:00.000-08:002024-01-30T23:04:01.672-08:00 ‘जननायक’’ कर्पूरी ठाकुर के व्यक्तित्व का ‘‘आकलन’’ करने में इतने वर्ष क्यों लग गए?<p style="text-align: justify;"><b><br />मोदी का ‘‘जादू’’ हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को कब ‘‘भारत रत्न’’ दिलाएगा</b>?</p><p style="text-align: justify;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1EfSAuLGOKDtSv2U-0-AdoFTo1PgFPRCMmIqfJSzYXhyEpYFsDnAwZBt1OxIhIO8R1SetFVbWDGtE8J4EOkacpkfqUH8iRyMOeSCUR5IS4ez4ZRTmgcShMz3FtyO04bjIhjKID8dYdwxG3jOhjWHDt_DjGkkXE4eJL8MPilEZLf21ErGtsJRKS20E0z0/s300/download%20(29).jpg" imageanchor="1" style="clear: right; display: inline !important; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="168" data-original-width="300" height="168" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1EfSAuLGOKDtSv2U-0-AdoFTo1PgFPRCMmIqfJSzYXhyEpYFsDnAwZBt1OxIhIO8R1SetFVbWDGtE8J4EOkacpkfqUH8iRyMOeSCUR5IS4ez4ZRTmgcShMz3FtyO04bjIhjKID8dYdwxG3jOhjWHDt_DjGkkXE4eJL8MPilEZLf21ErGtsJRKS20E0z0/s1600/download%20(29).jpg" width="300" /></a></p><p style="text-align: justify;"><b>देरी से दिया गया सम्मान</b></p><p style="text-align: justify;">भारत देश का सर्वोच्च सम्मान ‘‘भारत रत्न’’ बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और खांटी समाजवादी और शोषितों के जननायक, महानायक, गरीबों के मसीहा स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर को दिए जाने का निर्णय भले ही अत्यंत देरी से लिया गया हो, तब भी अत्यंत स्वागत योग्य और एक ‘‘गलती’’ को सुधारने का देरी से किया गया सफल प्रयास है। आपको याद दिला दें। कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु 64 वर्ष की आयु में 17 फरवरी 1988 को हुई थी। वे पहली बार वर्ष 1952 में बिहार विधानसभा के लिए चुने गये थे। ‘‘यूं तो दुनिया मुर्दा परस्त है’’, दिवंगत लोगों की ही प्रशंसा करती है। परन्तु ‘‘भारत रत्न’’ देने का यह कोई नियम नहीं है कि ‘माननीय’ को देश के लिए किए गए सर्वोच्च उत्कृष्ट कार्यों की प्रशस्ति के लिए मृत्यु उपरांत ही ‘‘भारत रत्न’’ दिया जाकर सम्मानित व याद किया जा सकता है। बल्कि ऐसे उदाहरण है हमारे देश में, जब जीवित व्यक्ति को भी देश के प्रति उनके योगदान के लिए भारत रत्न देकर सम्मानित किया गया है, जैसे सचिन तेंदुलकर (वर्ष 2014 में) क्योंकि वे उसकी योग्यता, पात्रता रखते थे।</p><p style="text-align: justify;"><b>सम्मान अविवादित! परन्तु राजनीतिक सोउद्देश्य लिये हुए।</b>’</p><p style="text-align: justify;">जहां तक कर्पूरी ठाकुर के व्यक्तित्व का सवाल है या उनको ‘‘भारत रत्न’’ दिए जाने का प्रश्न है, यह निर्विवाद है। यह इस बात से भी सिद्ध होता है कि देश की समस्त राजनीतिक पार्टियों ने केंद्र सरकार के इस निर्णय की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। परंतु महत्वपूर्ण प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या ‘‘भारत रत्न’’ वास्तव में कर्पूरी ठाकुर को सिर्फ सम्मान देने के उद्देश्य से दिया गया है, जिसके वे निसंदेह हकदार है। अथवा इस घोषणा के साथ ‘‘राजनीति’’ भी जुड़ी हुई है? देश की वर्तमान में जो राजनीतिक परिस्थितियां विद्यमान है, उनमें हर क्षेत्र में न केवल राजनीति प्रविष्टि हो जाती है, बल्कि राजनीति को घुसेड़ भी दिया जाता है, ऐसा हम देखते चले आ रहे हैं। फिर चाहे धर्म में राजनीति का ही प्रश्न क्यों न हो? शिक्षा, कला, खेल इत्यादि क्षेत्रों में के मूल क्षेत्रों के अतिरिक्त वहां भी राजनीति हमेशा हावी रहती है। इसलिए यदि स्वर्गीय कपूरी ठाकुर को मृत्युपरांत शीघ्र ही कुछ समय बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के पूर्व भारत रत्न दिया गया है, तो इसके पीछे एक बड़ा राजनीतिक उद्देश्य भी छुपा हुआ ही नहीं है, बल्कि दिखता हुआ शामिल है/शामिल दिखता हुआ है।</p><p style="text-align: justify;"><b>‘‘मोदी है तो मुमकिन है’’।</b> </p><p style="text-align: justify;">याद कीजिए! पिछले कुछ समय से मीडिया में नीतीश कुमार के ‘एनडीए’ में शामिल होने की खबरें लगातार छप रही थी या ज्यादा उचित कहना यह होगा कि ऐसी खबरें सो/दुः उद्देश्य छपाई जा रही थी। परन्तु यह मुहिम असफल होने के बाद ही बिहार में अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करने के लिए शायद केंद्रीय शासन ने उक्त निर्णय लिया। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जातिगत जनसंख्या की गणना के निर्णय की काट के परिपेक्ष में भी इस निर्णय को देखा जा रहा है। मैं पहले भी कई बार स्पष्ट कह चुका हूं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नरेटिव फिक्स करने और परसेप्शन बनाने के ‘‘मास्टर ऑफ मास्टर’’ है, जिस कारण से वह विरोधियों को ‘हतप्रद’ कर ‘चित’ कर देते हैं। कई बार तो विरोधियों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीति और निर्णय की प्रशंसा मजबूरी में सही, करनी ही पड़ जाती है। यही देश का ‘‘मोदी नामा’’ है। ‘‘मोदी है तो मुमकिन है’’, यह जिस किसी ने भी कहा है, गलत नहीं है।</p><p style="text-align: justify;"><b>अत्यंत सादगी से परिपूर्ण जीवन</b></p><p style="text-align: justify;">कर्पूरी ठाकुर का जन्म गांव पितौंझिया में जिसे अब ‘‘कर्पूरी ग्राम’’ कहां जाता है, बाल काटने के पेशे से जुड़े सीमांत किसान के घर में हुआ था। 1970 के दशक के राजनीतिज्ञों में कर्पूरी ठाकुर का एक महत्वपूर्ण, विशिष्ट, अति सम्मानीय, स्थान रहा है। वे देश के ऐसे मुख्यमंत्री थे, जो अत्यंत गरीबी के चलते राजनीति में आये थे। वे जीवनपर्यंत दलित, शोषित व वंचित वर्ग के उत्थान के लिए संघर्ष करते हुए कुछ-कुछ सफलता भी प्राप्त की। वे देश के ऐसे पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने ‘‘मंडल’’ व उसकी प्रतिक्रिया में आये ‘‘कमंडल’’ के काफी पहले वर्ष 1978 में ‘‘मुगेरीलाल आयोग’’ की रिपोर्ट को लागू कर सिर्फ पिछड़ा वर्ग को ही आरक्षण (12 फीसदी) व अतिपछड़े वर्ग को 8 प्रतिशत आरक्षण प्रदान नहीं किया, बल्कि गरीब सवर्ण को भी सबसे पहले 3 फीसदी आरक्षण प्रदान किया था। लम्बे समय तक विधायक रहने के साथ उपमुख्यमंत्री, मुख्यमंत्री पद पर दो बार तथा नेता प्रतिपक्ष पर विराजित होने के बावजूद उनका मानना था कि ‘‘तलवार म्यान में ही अच्छी लगती है’’। उनके सरल स्वभाव, हृदय व अत्यंत सादगी पूर्ण जीवन को महात्मा गांधी के कुछ निकट अवश्य कहा जा सकता है। </p><p style="text-align: justify;"><b>बेहद ईमानदार व्यक्तित्व</b></p><p style="text-align: justify;">स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर कुछ उन चुनिंदा राजनीतिज्ञों में से रहे है, जिन्होंने राजनीति को भी शुद्ध जन सेवा के रूप में लिये व जिये, जिनके लक्षण, दर्शन व कल्पना भी आज दुर्लभ है। अर्थात यह भावना आज ‘‘थोथे बांस कड़ाकड़ बाजें’’ दुर्लभ व लुप्त होती हुई व ‘‘लुप्त प्रजाति’’ में परिवर्तित हो गई है। स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर, डाॅ. राम मनोहर लोहिया के राजनैतिक चेले और लालू, नीतीश, रामविलास पासवान व सुशील मोदी के राजनीतिक गुरू रहे। मधु लिमये जैसे दिग्गजों के साथी रहे। वे अपने कर्मों व जीवन शैली से शुद्ध व कष्टदायक, ईमानदारी के पर्यायवाची हो गये थे।</p><p style="text-align: justify;"><b>ध्यानचंद को भारत रत्न कब? </b></p><p style="text-align: justify;">देश में अनेक ऐसी सफल और श्रेष्ठतम प्रतिभाएं हैं, जो उक्त सर्वोच्च पुरस्कार पाने की अधिकारी (एनटाइटल) होने के बावजूद ‘‘भारत रत्न’’ उन्हें तब तक नहीं मिल सकता है, जब तक राजनीति पर वोट बैंक के रूप में उनका प्रभावी प्रभाव व पकड़ न हो। तेंदुलकर ऐसे ही खिलाड़ी थे, जिनकी प्रतिभा पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता है। परंतु यदि उनका करोड़ो खेल प्रेमी जनता पर प्रभाव न होता तो उन्हें भी भारत रत्न शायद ही मिलता। ध्यानचंद को खेल रत्न दिए जाने की मांग काफी पुरानी है। अतः देश के असंख्य खेल प्रेमियों को केंद्रीय सरकार का ध्यान ध्यानचंद को भारत रत्न दिए जाने पर आकर्षित करना है तो उनको यह जज्बा पैदा कर प्रदर्शित करना होगा, परसेप्शन बनाना होगा कि यदि ध्यानचंद को ‘‘भारत रत्न’’ नहीं दिया गया तो, देश के करोड़ों खेल प्रेमी प्रेमियों का ‘‘ध्यान’’ वर्तमान से हटकर उस ओर केंद्रित करना होगा जो उन्हें आश्वासित करें। क्योंकि लोकतंत्र में तो राजनीतिक पार्टिया मुद्दों की नहीं, वोट बैंक की ही राजनीति को समझती हैं, और उसी से प्रभावित व हडकायी होती है। मतलब साफ है! ध्यानचंद पर ध्यान नहीं तो हमारा वोट पर भी ध्यान नहीं? हाँ! यदि ध्यानचंद किसी आरक्षित वर्ग (अजा.अजजा.पिछड़ा अति पिछड़ा) से होते तो शायद चुनावी वर्ष में उन्हें भी भारत रत्न मिल जाता।</p><p style="text-align: justify;"><b>‘‘बेशर्म’’ शब्द ने भी हाथ खड़े कर दिये।</b>’’</p><p style="text-align: justify;">देश की राजनीति का सबसे गंदा चरित्र का सबसे ताजा उदाहरण बिहार में विध्वस रूप में देखने को मिल रहा है। इसके लिए देश की अधिकतर पार्टी व नेतागण जिम्मेदार है। जैसा कि राजनीति के लिए कहा भी गया है ‘‘इस हमाम में हम सब नंगे है’’। एक तरफ कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देकर बिहार को गौरवान्वित किया गया है, तो दूसरी तरफ उसी भारत रत्न की उर्वरा भूमि बिहार में राजनीति का जिस तरह का नंगा नाच अभी चल रहा है, उसके लिए यही कहा जा सकता है कि ‘‘तत्ता कौर न निगलने का न उगलने का’’। ये ‘‘दावत है या अदावत है’’? वैसे बेशर्मी हमेशा नंगी ही होती है या यह कहे नंगा (साधु संतों को छोड़कर) बेशर्म ही होता है। जिस बेशर्मी का नंगा प्रदर्शन हुआ है, शायद उसके लिए अब ‘‘बेशर्म’’ शब्द भी परेशान होकर, बेशर्म होकर यह कहने लग गया कि आज की ‘‘राजनीति की बेशर्मी’’ को पूरी तरह व्यक्त करने का सामर्थ्य अब मेरे पास नहीं रहा है। कृपया अब अन्य कोई मजबूत ‘‘शब्द’’ की खोज कर ले? एक दौर था, जब हरियाणा के भजनलाल ने पूरी की पूरी सरकार का ही दलबदल करा कर इतिहास बनाया था। अब उसके ‘‘मास्टर ऑफ मास्टर’’ ‘‘सुशासन बाबू’’ नीतीश कुमार हो गये है। भ्रष्टाचार के आरोप का प्रभाव तो सिर्फ एक-दो या कुछ व्यक्तियों तक ही सीमित रहता है। परन्तु आर्थिक दृष्टिकोण से ईमानदार नीतीश कुमार की ‘‘बेईमान राजनीति’’ राजनीति को पूरी ही भ्रष्ट कर दे रही है, जो व्यक्तिगत ईमानदारी से ज्यादा घातक, खतरा समाज, देश व राजनीति के लिए है।</p><p style="text-align: justify;"><b>नीतीश कुमार ‘‘सिद्धांत’’ पर अडिग</b>!</p><p style="text-align: justify;">जो लोग नीतीश कुमार को ‘‘पलटू राम’’ कह रहे है, वे एक तरफा गलत आरोप नीतीश कुमार पर लगा रहे है। देश की पूरी राजनीति ही ‘‘पलटू राम’’ से भरी हुई है। क्या ‘‘राम’’ शब्द से परहेज रखने वाली राजनीतिक पार्टियों में भी पलटू राम के रूप में ‘‘राम’’ मौजूद नहीं है? और अगले ही दिन (30 जनवरी) को ‘‘हे राम’’ की समाधि पर श्रद्धांजलि देने जाने की भी मजबूरी होगी? नीतीश कुमार ने ‘‘सिद्धांत’’ की राजनीति की है। वह सिद्धांत एक मात्र यह रहा कि वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर साधन की पवित्रता को बाजू में रखकर एन केंन प्रकारेण बैठे रहे, जब कि गांधी जी ने साध्य के साथ साधन की सुचिता व पवित्रता पर बहुत जोर दिया था। अतः गलती नीतीश कुमार की नहीं, बल्कि उनका आकलन करने वाले राजनीतिक पंडितों की है, जोे नीतीश कुमार के मूल सिद्धांत ‘‘कुर्सी को जकड़ कर पकड़ने’’ के सिद्धांत को पकड़ नहीं पाए। शायद नीतीश कुमार बचपन व अपनी युवावस्था में ‘‘कुर्सी पकड़ दौड़’’ खेल में हमेशा प्रथम आते रहे होंगे। स्पष्ट है नीतीश कुमार अपने सिद्धांत पर अडिग रहकर 9 वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। यह उनके सिद्धांत के प्रति कट्टरता व जीवटता को दिखाता है? अतः ब्रेकिंग न्यूज नीतीश कुमार का पलटू राम होना नहीं है, बल्कि राजनीतिक पार्टियां का पलटू राम होना है। ठीक उसी प्रकार जैसे मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चैहान चुनाव के पूर्व तक मुख्यमंत्री बना रहना ब्रेकिंग न्यूज थी, हटाना ब्रेकिंग न्यूज नहीं बनती। शपथ लेना व इस्तीफा व फिर शपथ लेना, यह उनकी दिनचर्या बन गई। राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का यह कथन याद कीजिए ‘‘मैं तो कुर्सी छोड़ना चाहता हूं, पर कुर्सी मुझे छोड़ नहीं रही है’’। उक्त बात गहलोत स्वयं पर तो लागू नहीं कर पाए। परन्तु शायद उनके मन, दिमाग में नीतीश कुमार का भाव उक्त कुर्सी पकड़ ज्यादा होगा, इसलिए उक्त बात नीतीश कुमार पर पूर्णता सही लागू होती है। मुझे लगता है कि 8वीं बार मुख्यमंत्री पद पर शपथ लेने के बावजूद लोग उन्हें सुशासन बाबु के आगे से सुशासन मुख्यमंत्री के नाम से प्रचलित नहीं कर पाये। तब शायद उनको लगा होगा कि 9वीं बार शपथ ग्रहण करने पर अब तो बाबू (सुशासन) से मुख्यमंत्री (सुशासन) मान ले?</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-53761649739218375722024-01-29T02:41:00.000-08:002024-01-29T04:57:35.525-08:00ऐतिहासिक भगवान ‘‘श्री रामलला विग्रह’’ प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम!<p style="text-align: justify;"> <b>सिर्फ मोदी को ही ‘‘नरेटिव फिक्स’’ करना आता है।</b></p><p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEiMqrZpuOGEeLMdtD04gzzvMUsXlVzhMcd5dM_2McejN4t7b1gS4LsNjcIuTV39iTwl_UUGpVMFUcSNtlPOjK8ZZMWJrPmDLAQnT5by5HShItTXYNUU0zX9Zfjfz3pDxmDoMsyVf1sx0oepglQnL0_MD90h6KGrOq5ylCUobBZrn42jAa5jJDOnPMn06zc" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="" data-original-height="168" data-original-width="299" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEiMqrZpuOGEeLMdtD04gzzvMUsXlVzhMcd5dM_2McejN4t7b1gS4LsNjcIuTV39iTwl_UUGpVMFUcSNtlPOjK8ZZMWJrPmDLAQnT5by5HShItTXYNUU0zX9Zfjfz3pDxmDoMsyVf1sx0oepglQnL0_MD90h6KGrOq5ylCUobBZrn42jAa5jJDOnPMn06zc" width="320" /></a></div><p></p><p style="text-align: justify;">देश के ही नहीं बल्कि विश्व के इतिहास में 22 जनवरी ऐतिहासिक रूप से अमिट रूप से लिख दिया गया है, जो भविष्य में एक नए ‘‘काल चक्र’’ के रूप में राष्ट्रीय दिवस मनाया जाएगा, इसमें किसी को भी संदेह होना नहीं चाहिए। इस अभूतपूर्व सफलता के लिए यदि किसी एक व्यक्ति को ही श्रेय दिया जाना हो तो, निसंदेह, बेशक वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही है, जिनकी कार्य योजना को पढ़ना, समझना, समयपूर्व आकलन, महसूस करना एक सामान्य व्यक्ति के लिए ही नहीं, बल्कि विशिष्ट व्यक्तियों के लिए भी एक बमुश्किल कार्य होता है। धरातल पर कार्य योजना उतरने के बाद ही लोग उन योजनाओं से रूबरू होते हैं। प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में बिना किसी संदेह के इस बात को भी प्रतिष्ठित और सिद्ध कर दिया है कि ‘‘नरेटिव एवं परसेप्शन’’ अर्थात राजनीति की ‘‘दिशा’’, ‘‘दशा’’ और ‘‘धारणा’’ ‘‘अवधारणा’’ तय करने में विपरीत परिस्थितियों में भी नरेन्द्र मोदी का कोई मुकाबला ही नहीं है। कैसे! आइये! आगे इसे देखते- समझते हैं। </p><p style="text-align: justify;">1.‘‘धर्म’ को देश के ‘विकास’ से जोड़ने का यह अब तक का सबसे बड़ा पहला सफल प्रयास है, जो देश की जीडीपी की बढ़ोतरी में महत्वपूर्ण योगदान देगा, ऐसा आकलन आर्थिक पंडितों द्वारा किया जा रहा है। यह तथ्य इस बात से भी सिद्ध होता है कि इस प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के अवसर पर लगभग सवा लाख करोड़ रू. का व्यापार हुआ। ‘‘जहां सुमति तहँ संपति नाना’’। लगभग तीस हजार (30000) करोड़ से अधिक का निवेश होने की संभावनाएं भी बतलाई जा रही हैं। प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के पश्चात भगवान श्री रामलला व भव्य व अभिभूत कर देने वाले भगवान श्री राम मंदिर के दर्शन के लिए भारी भरकम रिकार्ड तोड़ भीड़ उमड़ कर आ रही है, विशालतम स्तर पर देश में भंडारे हुए। इन सब बातों से भी उक्त बातें सिद्ध होती दिखती है।</p><p style="text-align: justify;">2.अधिकतर निमंत्रित विपक्षी नेताओं के तथाकथित ‘‘कारण सहित’’ न आने पर उन्हें भगवान श्री राम का विरोधी तक सफलतापूर्वक ठहरा दिया गया, जबकि अनेक निमंत्रित केंद्रीय मंत्रियों और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के ‘‘अकारण’’ (कोई कारण बताये बिना) न आने का कोई संज्ञान मीडिया अथवा विपक्षी पार्टियों द्वारा गंभीर रूप से नहीं लिया गया। अर्थात उन्हें भगवान श्री राम विरोधी नहीं कहा गया, जो एक विपरीत नरेटिव बन सकता था। जबकि 48 घंटे के पूर्व तक अधिकतरों के आने का सुनिश्चित कार्यक्रम था। इस प्रकार इस मुद्दे पर भी मोदी अपने विपक्षों पर भारी पड़ गए और अपना नरेटिव व परसेप्शन बनाने में सफल रहे।</p><p style="text-align: justify;">3.22 जनवरी को मंदिर पूर्ण निर्मित न होने के कारण, सही मुहूर्त न होने से भगवान श्री रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का गलत ठहराकर प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर महत्वपूर्ण निमंत्रित नेताओं के व्यक्तिगत रूप से उपस्थिति नहीं हुए। उनमें से अधिकतरों ने उसी दिन 22 जनवरी को देश के विभिन्न मंदिरों में जाकर पूजा अर्चना कर अपनी फोटो शेयर की व ट्वीट किया। इस प्रकार ‘‘अनजाने’’ में ही अथवा ‘‘धार्मिक वातावरण के बने दबाव’’ के चलते उन्होंने जनता को यह दिखाना उचित समझा कि उन्होंने भी इस अवसर पर ईश्वर पूजा की है व वे राम भगवान भक्त है। लेकिन ‘‘चना कूदे तो कितना कूदे, ज्यादा से ज्यादा कड़ाही से बाहर’’। नरेन्द्र मोदी की ‘‘नरेटिव फिक्स’’ व परसेप्शन बनाने की इसी कला के चलते अनजाने में ही सही, विपक्षी नेतागण अपने अधैर्य के कारण उसमें फंसते चले गये। ‘‘चबा कर खाते तो हलक़ में नहीं फंसता’’। विपक्षी नेताओं की दुविधा, अनिर्णय व असमंजस की स्थिति होने के कारण मोदी की यह कारगर नीति उक्त नरेटिव फिक्स करने में सफल रही।</p><p style="text-align: justify;">4.लगभग 500 से अधिक वर्षों से जो आंदोलन चल रहा था, वह राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण का था। वर्ष 1949 में जब पहली बार मूर्तियां रखी गई अथवा प्रकट हुई, तब से वहां पूजा प्रारंभ हुई। इसके पूर्व रामलला का ‘‘विग्रह’’ स्थापित था अथवा नहीं, इसका इतिहास ज्ञात नहीं है। वर्ष 1949 के बाद जब 6 दिसम्बर 1992 को ढांचा तोड़ा गया, तब वहां स्थापित मूर्ति हट गई और तुरंत अयोध्या के राजा के घर से रामलला की मूर्ति लाकर रखी गई, ऐसा 4 गोली खाये अयोध्या निवासी कारसेवक संतोष दुबे ने दावा किया। तब से उसी रामलला की ही पूजा की जाती रही है। लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा से प्रारंभ राम जन्मभूमि निर्माण आंदोलन से लेकर भव्य मंदिर निर्माण तक किसी की भी यह मांग कभी भी नहीं रही कि ‘‘नई रामलला का विग्रह’’ स्थापित किया जाकर उसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाए। परंतु नई ‘‘रामलला की विग्रह’’ स्थापित कर उनकी प्राण प्रतिष्ठा की गई। आंदोलन जहां रामलला स्थापित थी जो भगवान श्री राम का जन्म स्थल माना जाता है, पर भव्य श्री राम मंदिर निर्माण का था, न कि नई रामलला की विग्रह की स्थापना कर उसकी प्राण प्रतिष्ठा का। इस ‘‘परसेप्शन और नरेशन’’ को जिसे मोदी ने ‘‘स्थापित’’ किया को ‘‘विस्थापित’’ करने में विपक्ष पूर्णतः असफल रहा। इसी को कहते हैं, ‘‘जबरा मारे और रोने भी न दे’’। </p><p style="text-align: justify;">5.भगवान श्री राम की ‘‘काले पत्थर’’ की विग्रह स्थापित की गई, जो कि सामान्यतः दक्षिण में ही काले पत्थर के विग्रह भगवान के रूप में स्थापित होते हैं। जबकि देश में भगवान श्री राम की अधिकतम विग्रह सफेद पत्थर के स्थापित है। स्वयं राम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास ने भगवान श्री राम की तीन मूर्तियां बनाने के आदेश दिए थे, जिसमें से दो मूर्तियां सफेद पत्थरों की संगमरमर की बनकर आयी। काले पत्थर का विग्रह चुनने का कोई कारण नहीं बतलाया गया है। इस नए नरेटिव पर तो शायद किसी का भी ध्यान ही नहीं गया।</p><p style="text-align: justify;">6.‘‘विध्वंस’’ कार्य हमेशा ‘‘नकारात्मक’’ होता है। इसी कारण से वर्ष 1992 में ‘‘ढांचे’’ के विध्वंस किये जाने के पश्चात चार हिन्दी राज्यों उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश की विधानसभा को भंग कर हुए नये चुनावों में भाजपा हार गई थी (तब मोदी नहीं थे) जिसमें उत्तर प्रदेश भी शामिल था, जहां धार्मिक उन्माद सर्वोपरि होकर ढांचा तोड़ा गया था। जबकि निर्माण हमेशा ‘‘सकारात्मक’’ भाव लिये होता है। शायद इसलिए भगवान श्री राम मंदिर निर्माण से वर्ष 2024 में भाजपा का आकड़ा लोकसभा में आकड़ा 400 पार करने का अनुमान राजनीतिक पंडितों का है। 1992 में मोदी नहीं थे, 2024 में मोदी है। यही नरेटिव है। </p><p style="text-align: justify;">7.जनवरी के महीने में 26 जनवरी व 30 जनवरी के राष्ट्रीय दिवसों के साथ एक और नया राष्ट्रीय दिवस ‘‘काल चक्र’’ 22 जनवरी को भविष्य में मनाने का नरेटिव भी तैयार कर लिया गया है।</p><p style="text-align: justify;">8.शिवराज सिंह चौहान और राहुल गांधी दोनों एक ही दिन अर्थात 22 जनवरी को; शिवराज सिंह ओरछा जाते हुए ट्रेन में और राहुल गांधी असम के मंदिर में प्रवेश देने से इनकार करने पर वही सामने बाहर बैठकर गीत गा रहे थे रघुपति राघव राजा राम ! मोदी का यह नरेटिव तो बिल्कुल ही नया व छप्पर फाड़ देने वाला था। ‘‘ढंग से करो तो गैंडे को भी गुदगुदी होती है’’।</p><p style="text-align: justify;">9.प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बिहार की राजनीति का नरेटिव तय करने वाला नवीनतम निर्णय बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने का निर्णय है। ‘‘मास्टर ऑफ मास्टर’’ नरेन्द्र मोदी के इस मास्टर स्ट्रोक निर्णय ने एक झटके में ही नीतीश कुमार की अति पिछड़े वर्ग व जातीय जनगणना की राजनीति को आगामी 4 महीनों के भीतर होने वाले लोकसभा चुनाव में ‘‘बोथल कर धराशायी’’ कर दिया है।</p><p style="text-align: justify;">अंत में ‘‘आस्था और धर्म’’ के सहारे जिस राजनीति को ‘‘साधना’’ शुरू किया गया, उसी ‘‘राजनीति’’ ने आस्था और धर्म को साधना शुरू कर दिया! मोदी है तो मुमकिन हैं, क्या अभी भी कोई शक की गुंजाइश है?</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-92102411935180916152024-01-17T03:49:00.000-08:002024-01-17T04:07:50.815-08:00अंतिम छोर में खड़े़ व्यक्ति को भी नग्न आंखों से भगवान श्री राम की प्राण प्रतिष्ठा को देखने का अधिकार होना चाहिये।<p style="text-align: justify;"> <b>‘‘पहले आओ पहले पाओ’’ की तर्ज पर ‘‘खुला निमंत्रण’’ होना चाहिये।</b></p><p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjloTRwurLHqbp8CL_3B8Dlr5Gdi6GTwoVVzj6Wd8-fF3VDv_Z-LFoK6o6rIDnBCjvIBeV-2zx7TRXkcSKNYLhShdADRHmHCOdn8neAXSeecVd0aT3BWZr-9R11zrCM9of3QmRCKMESzuTpK7zL3tZCTB2oCAgZq-hXLFV0vW683JNEcMrhWqRahWUbzk4/s300/images%20(22).jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="168" data-original-width="300" height="168" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjloTRwurLHqbp8CL_3B8Dlr5Gdi6GTwoVVzj6Wd8-fF3VDv_Z-LFoK6o6rIDnBCjvIBeV-2zx7TRXkcSKNYLhShdADRHmHCOdn8neAXSeecVd0aT3BWZr-9R11zrCM9of3QmRCKMESzuTpK7zL3tZCTB2oCAgZq-hXLFV0vW683JNEcMrhWqRahWUbzk4/s1600/images%20(22).jpg" width="300" /></a></div><p></p><p style="text-align: justify;">आखिर वह क्षण (पल) आ ही गया, जब भगवान श्री राम में आस्था रखने वाले, आराध्य मानने वाले इस सृष्टि के प्रत्येक इंसान (भक्त) का सपना 22 जनवरी 2024 को पूरा होने जा रहा है। देश के अब तक के सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री (इंदिरा गांधी से भी ज्यादा) नरेन्द्र मोदी के हाथों साधु-संतों की उपस्थिति में जन्म स्थल अयोध्या में ‘‘भगवान श्री राम मंदिर’’ का उद्घाटन और ‘‘प्राण प्रतिष्ठा’’ होने जा रही है। प्रधानमंत्री मोदी की कार्ययोजना की एक विशिष्ट विशेषता यह है कि जिस योजना की आधारशिला रखी जाएगी, उसका उद्घाटन भी वे ही करेंगे। जो अन्य राजनेताओं में कम ही होती है। अर्थात ‘‘समय बद्ध’’ योजना के अंतर्गत ही भगवान श्री राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा हो रही है। ‘‘श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट’’ द्वारा प्रधानमंत्री सहित लगभग 4000 से अधिक संत-महंत, संवैधानिक पदों पर बैठे माननीयों के अलावा देश के विभिन्न अंचलों में, विभिन्न कार्यक्षेत्रों में बैठे काम करने वाले चुनिंदा लोगों लगभग 2500 से अधिक व्यक्तियों, को ही निमंत्रित किया जा रहा है। स्टार, सेलिब्रिटी (हस्तियां) चाहे वे राजनीतिक क्षेत्र की हो, खेल, कला, पत्रकारिता, साहित्यिक, व्यापारिक, उद्योग जगत क्षेत्र की हो आदि या अन्य किसी भी क्षेत्र की हो, उनमें से कुछ प्रमुख लोगों को ही निमंत्रण पत्र भेजा जा रहा है। राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति को निमंत्रण भेजने की उनकी उपस्थिति के संबंध में अभी तक स्थिति अस्पष्ट है। निमंत्रण पत्र भेजने का आधार क्या है? यह भी स्पष्ट नहीं है। </p><p style="text-align: justify;">निश्चित रूप से इस ऐतिहासिक व अभिभूत करने वाले अवसर पर सबसे पहला अधिकार लगभग 500 से ज्यादा वर्षो से जो साधु-संत व्यक्ति, संगठन इस आंदोलन में लगे रहे है, वे उनकी वर्तमान पीढ़ी परिवार और विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, शिवसेना (हिंदू महासभा जो मुकदमा लड़ रही थी) से लेकर अन्य अनेक संगठन जिनके अनवरत अथक प्रयासों ने यह विराट स्वरूप दिया है, और ‘‘राम लला’’ जन्मभूमि मंदिर के सपने को हकीकत में उतारा जा रहा है, वे सब हजारों नागरिक जिन्होंने रामजन्म मंदिर निर्माण के लिए हुए विभिन्न स्तरों में हुए आंदोलन में भाग लिया, देश के विभिन्न अंचलों में ‘राम’ ईंट एकत्रित की गई और कई कार सेवकों ने अपना बलिदान दिया और कई तरीके से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इस निर्माण में योगदान दिया है, वे सब भी निमंत्रण के यथोचित पात्र है। साथ ही मंदिर निर्माण में लगे मजदूर भी निमत्रिंत होने के अधिकारी है। </p><p style="text-align: justify;">निमंत्रण भेजने के आधार के स्पष्ट न होने से एक कौतूहल अवश्य उत्पन्न होता है कि निमंत्रण पत्र को उक्त तरीके से भेजे जाने से क्या ‘‘जाने-अनजाने’’ में समाज में नया वर्ग भेद उत्पत्ति की संभावना तो नहीं हो जायेगी। भगवान तो कण-कण में व्याप्त है व सबकी आस्था के प्रतीक (सिर्फ नास्तिकों को छोड़कर) है। इस प्रकार भगवान सब की पहंुच में है। लेकिन सिर्फ हिंदू ही नहीं, सर्व धर्म-सम भाव का पालन (कुछ अपवादों को छोड़कर) करने वाला देश का प्रत्येक नागरिक, साथ ही दूसरे धर्मो में आस्था रखने वाले देश के नागरिक को भी गौराविंत करने वाले इस महत्वपूर्ण अवसर पर उपस्थित होने की इच्छा अवश्य रहेगी। परन्तु प्रश्न यह है कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों के अनुरूप अंत्योदय के अंतिम छोर में खड़े हुए व्यक्ति को अपने आराध्य भगवान श्री राम के ‘‘प्राण-प्रतिष्ठा’’ के दुर्लभ शुभ अवसर पर अपनी ‘‘नग्न आंखों’’ से दर्शन करने की पात्रता सिर्फ इसलिए नहीं होगी? क्योंकि उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। मुझे ख्याल आता है कि एक समय महाकाल मंदिर उज्जैन में भस्म आरती के दर्शन के लिए रात्रि 3 बजे से लाइन में खड़े रहकर दर्शन सुनिश्चित करने का प्रयास करते थे।</p><p style="text-align: justify;">होना तो यह चाहिए था कि जिन लोगों ने इस आंदोलन में अपना सब कुछ स्वाहा कर महत्वपूर्ण योगदान दिया, उन सबको तवज्जों देकर देश के शेष समस्त नागरिकों कों खुला निमंत्रण दिया जाता और ‘‘फ़स्ट कम फस्ट सर्व’’ (पहले आओ पहले पाओे) की नीति के आधार पर वहां उन्हें प्रवेश व बैठने की व्यवस्था की जाती। ‘‘दिल में होय करार, तब सूझे त्योहार’’। तब किसी को यह कहने का अवसर उत्पन्न नहीं होता कि एक राम भक्त होने के बावजूद इस अवसर पर उसे सिर्फ इस आधार, उपस्थिति होने का अवसर नहीं मिल पाया, क्योंकि वह अंतिम छोेर पर खड़ा हुआ एक सामान्य नागरिक है। ‘‘दीन सबन को लखत है दीनहिं लखै न कोय’’। न तो वह उद्योगपति, साहित्यकार, पत्रकार, लेखक, कलाकार, खिलाड़ी, सेवाकर्ता, डॉक्टर, इंजीनियर या अन्य कोई शेष किसी क्षेत्र का यशवशी ‘‘स्टार’’ आधार (सेलिब्रिटी) नहीं है। इसलिए वह निमंत्रण पत्र का अधिकारी नहीं। ‘‘श्रीमंतों को दावत तो सर्वहारा से अदावत क्यों‘‘? मैं यह समझता हूं कि इस पर गहनता से विचार करने की आवश्यकता है और देश के प्रत्येक नागरिक का धार्मिक कर्तव्य है, संवैधानिक अधिकार है कि वे अपने ‘‘राम लला’’ को स्वयं की आंखों से साक्षात् दीदार कर साष्टांग दंडवत प्रणाम कर आशीर्वाद लेने का अधिकार हो। कितना संभव हो पायेगा यह उनके प्रयास पर छोड़ देना चाहिए। भगवान के कार्यक्रम का निमंत्रण व्यक्तिगत कैसे हो सकता है, जैसे कि आमंत्रण पत्र के नियम में उल्लेखित है, यह भी समझ से परे है।</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-71916328944863609692023-12-28T03:47:00.000-08:002023-12-28T04:37:15.530-08:00मोदी सरकार की 10 साल की कार्यावधि में दूसरी बार कदम पीछे हटे।<p style="text-align: justify;"><b>नवनिर्वाचित कुश्ती संघ का निलंबन! ‘‘कानूनी’’ व ‘‘तथ्यात्मक रूप’’ से गलत।</b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhxT05iSXsDhhlGCXsBBWyZdPXwKG2Ipxo8r4wgXAgBg8h-0eMRoqLGcEcIAuuIwQbBpKzMB7rpVXDnMoMoh4ISBTP_2chDAtgoaaGlSTmh7xoOhDVUFRKdTQAKnY7dwnvGahyHGKVKQGqlRdgXnuPuR8YKdNkkYignSq21cr96DRR_wEkQhcHPjVYP2Eg/s259/download%20(29).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; display: inline !important; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="194" data-original-width="259" height="194" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhxT05iSXsDhhlGCXsBBWyZdPXwKG2Ipxo8r4wgXAgBg8h-0eMRoqLGcEcIAuuIwQbBpKzMB7rpVXDnMoMoh4ISBTP_2chDAtgoaaGlSTmh7xoOhDVUFRKdTQAKnY7dwnvGahyHGKVKQGqlRdgXnuPuR8YKdNkkYignSq21cr96DRR_wEkQhcHPjVYP2Eg/s1600/download%20(29).jpg" width="259" /></a></div><p style="text-align: justify;"></p><p style="text-align: justify;"><b>कुश्ती संघ के चुनाव संपन्न </b></p><p style="text-align: justify;">लंबे समय लगभग एक वर्ष पूर्व जनवरी से प्रारंभ हुई भारतीय कुश्ती संघ (रेसलिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया-डब्लू.एफ.आई) व खिलाड़ियों के बीच विवाद के चलते 28 नवंबर को उच्चतम न्यायालय द्वारा पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट द्वारा भारतीय कुश्ती संघ के चुनाव पर लगाई गई रोक को हटाते हुए उच्च न्यायालय में लंबित याचिका के परिणाम के अधीन चुनाव कराने के निर्देश दिए। अंततः 21 दिसंबर को कुश्ती संघ के बाकायदा नियमानुसार चुनाव कराए गए। अध्यक्ष पद पर निवर्तमान अध्यक्ष सांसद, बाहुबली व यौन उत्पीड़न के गंभीर अपराध का आरोपी, बृजभूषण शरण सिंह के बेहद करीबी विश्वास पात्र भागीदार, कुश्ती संघ के मंत्री तथा लगभग पिछले 12 वर्षों से कुश्ती संघ में रहे संजय सिंह भारी बहुमत से चुने गए। उल्लेखनीय बात यह कि संजय सिंह हरियाणा की राज्य पुलिस सेवा में कार्यरत अनिता श्योराण जिन्होंने ओडिशा इकाई के रूप में नामांकन भरा था, (जिसे कानूनन गलत बतलाया गया है) तथा जो बृजभूषण सिंह के खिलाफ लगे आरोप में एक गवाह भी है, को हराया। नागरिकों में मान-सम्मान, स्वाभिमान, आत्म स्वाभिमान व नैतिकता की ‘‘कमतर’’ होती भावना तथा चाटुकारिता की वृत्ति में निरंतर वृद्धि होने से ऐसे परिणाम अवश्यसंभावी ही थे।</p><p style="text-align: justify;"><b>बनी सहमति के विपरीत चुनाव परिणाम</b> ! </p><p style="text-align: justify;">महिला कुश्ती खिलाड़ियो द्वारा आंदोलन वापस लेते समय गृहमंत्री अमित शाह व खेल मंत्री अनुराग ठाकुर के साथ हुए समझौते के समय दोनों पक्षों के बीच अन्य बातों के साथ एक ‘‘समझ’’ यह बनी थी कि कुश्ती संघ से बृजभूषण शरण सिंह की छाया को भी दूर रखा जाएगा तथा कम से कम एक महिला "संघ" की पदाधिकारी बनाई जाएगी। परंतु ऐसा हो नहीं पाया क्योंकि तकनीकी रूप से सरकार या खेल मंत्रालय के हाथ में यह बात थी ही नहीं। क्योंकि किसी चुनना है यह अधिकार सिर्फ मतदाता के पास होता है। चुनाव कराने वाली संस्था अथवा सरकार उसमें अपनी मनमानी नहीं चला सकती है। यद्यपि अपने प्रभाव का उपयोग कर परिणाम को कुछ प्रभावित अवश्य कर सकती है। लेकिन ‘‘नीम पे तो निबोली ही लगती थी’’ लोकतांत्रिक तरीके से संपन्न हुए चुनाव में सरकार या खेल मंत्रालय का कोई सीधा हस्तक्षेप अमूनन नहीं होता है। हां यदि सरकार जिसने खेल मंत्रालय के माध्यम से संघ की चुनी गई पूरी कार्यकारिणी को निलंबित करने में जिस तरह का दबाव अभी बनाया, यदि वैसा ही दबाव चुनाव के पूर्व बृजभूषण सिंह पर बनाया होता, तब परिणाम शायद दूसरे ही होते। साथ ही उच्चतम न्यायालय के द्वारा जिस प्रकार क्रिकेट बोर्ड के संविधान में मंत्री (मिनिस्टर्स), 70 वर्ष से अधिक उम्र, एक व्यक्ति के कार्यकाल की अधिकतम सीमा आदि लगाई रोक को यदि आगे विस्तार कर समस्त खेल संघों में राजनेताओं की प्रविष्टि पर रोक लगा दी जाती, तब खेलों में विवाद की स्थिति ही नहीं होती।</p><p style="text-align: justify;"> <b>पदक वापसी से विवादों को पुन: हवा</b>! </p><p style="text-align: justify;">उम्मीद थी कि चुनाव होने के बाद यह विवाद समाप्त हो जाएगा। परंतु दुर्भाग्यवश यौन अपराधों का आरोपी बृजभूषण सिंह जिसके विरुद्ध न्यायालय में प्रकरण चल रहा है, के ही चेले सिपहसालारों के चुनाव में भारी विजय प्राप्त करने से निसंदेह बृजभूषण शरण सिंह का कुश्ती संघ पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप पूर्व समान पूरी तरह से प्रभाव बना हुआ दिख रहा हैं जो आगे भी रहेगा। इस वस्तुस्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता है। प्रत्यक्ष उदाहरण जीतने के बाद अध्यक्ष संजय सिंह को मात्र एक माला पहनाई गई और बृजभूषण सिंह के गले को मालाओं को भर दिया गया। बृजभूषण सिंह के सपुत्र द्वारा किया गया ट्वीट उसकी पूरी स्थिति को और साफ कर देता है, ‘‘दबदबा है..., दबदबा तो रहेगा’। ‘‘बेशर्मी को तेरहवां रत्न’’ यूं ही नहीं कहा गया है। इस कारण से उनके विरुद्ध लड़ रही पीड़ित महिला पहलवान अपने को असहाय स्थिति में पाने से ‘‘अस्मिता’’ के अपमान को लेकर लंबी लड़ाई लड़ने वाली ओलंपिक पदक विजेता साक्षी मलिक (एकमात्र ओलंपिक विजेता महिला पहलवान) ने न केवल कुश्ती से सन्यास लेने की घोषणा कर दी, बल्कि उनके समर्थन में पदक विजेता बजरंग पूनिया ने भी अपना पद्मश्री अवार्ड वापस कर दिया। इसके बाद बबीता फोगाट व विनेश फोगाट ने अपने मेडल्स व डेफ ओलंपिक के गोल्ड मेडलिस्ट वीरेन्द्र सिंह ने भी अपना पद्मश्री सम्मान वापिस करने की घोषणा की। ‘‘नानक दुखिया सब संसार’’। फलतः कुश्ती संघ का वर्ष के प्रारंभ में शुरू हुआ विवाद वर्ष के अंत में फिर से सुर्खियों में आ गया।</p><p style="text-align: justify;"> <b>जाट समुदाय के बीच फैलता असंतोष</b>! </p><p style="text-align: justify;">साक्षी मलिक, बजरंग पूनिया, फोगाट व अन्य महिला पहलवानों के जाट बिरादरी से होने के कारण जाटों के अंदर ही अंदर फैल रहे असंतोष को भांपते हुए शायद भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व के इशारों पर खेल मंत्री अनुराग ठाकुर के निर्देश पर खेल मंत्रालय ने धोबी पछाड़ दांव चलाकर उक्त चुनी गई पूरी बॉडी को ही आगामी आदेश तक के लिए चित (निलंबित) कर दिया। यानी ‘‘नयी बहू का दुलार नौ दिन’’ भी नहीं साथ ही भारतीय ओलंपिक संघ को 48 घंटे में तदर्थ बाडी बनाने को कहा।(अभी तीन सदस्यीय समिति बन भी गई है)। साथ ही नवनिर्वाचित अध्यक्ष के लिए गए समस्त फैसलों पर रोक लगा दी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस नए चुनाव की प्रक्रिया या वैधता को किसी भी व्यक्ति ने गैरकानूनी या अनियमितता होने के आधार पर कोई चुनौती नहीं दी थी। साथ ही निलम्बन की यह कार्यवाही किये जाने के पूर्व संघ या पदाधिकारियों को कोई कारण बताओं सूचना पत्र नहीं दिया गया। यद्यपि निर्वाचन के तुरंत बाद की गई बैठक में नवनिर्वाचित प्रधान सचिव प्रेमचंद शामिल नहीं हुए थे व जूनियर राष्ट्रीय खेल आयोजन का निर्णय उनकी जानकारी के बिना किया गया था। जबकि प्रधान सचिव का यह कहना है कि सचिव की अनुपस्थिति में कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता है। इसलिए प्रधान सचिव ने लिखित में आपत्ति ली। </p><p style="text-align: justify;"><b>सतही आरोप जिनका चुनावी प्रक्रिया से संबंध नहीं</b>! </p><p style="text-align: justify;">सरकार की ओर से यह कहा गया कि जो पदाधिकारी चुने गए हैं, उनके पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण सिंह से बड़े करीबी संबंध है व पिछले पदाधिकारीयो के पूर्ण नियंत्रण में प्रतीत होता है। प्रश्न यह है कि क्या कुश्ती संघ के नियम या देश के किसी भी खेल संस्था के नियम में ऐसा कोई प्रावधान है कि जहां पूर्व अध्यक्ष के करीबियों को चुना नहीं जाना चाहिए? क्या मतदाताओं को किसी विशिष्ट व्यक्ति को चुनने या न चुनने का निर्देश दिया जा सकता है। लोकतंत्र में यह क्या एक नई परिपाटी नहीं होगी? यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण बिंदु है जो आगे लोकतंत्र के लिए खतरनाक हो सकता है। निश्चित रूप से कुश्ती संघ के चुनाव का परिणाम ‘‘नैतिकता’’ से जुड़ा हुआ है, न की कानूनी प्रक्रिया से। निर्वतमान अध्यक्ष पर 7 कुश्ती महिलाओं ने ‘‘यौन अपराध’’ के आरोप लगाए थे और कुश्ती महासंघ के ‘‘मतदाताओं’’ ने उक्त गंभीर आरोप को नजर अंदाज करते हुए ऐसे व्यक्तियों को चुना जो आरोपी बृजभूषण सिंह के ‘‘ताश के पत्ते’’ है। जिनको ‘‘ फेंटने का अधिकार’’ सिर्फ उन्हीं के पास बना हुआ है। यह नैतिकता के गिरते हुए स्तर का एक बड़ा उदाहरण है, जो वस्तुतः सामाजिक दर्पण एवं व्यवस्था पर एक तमाचा ही है। जिस पर गहन चितंन-मनन की आवश्यकता है।</p><p style="text-align: justify;"><b>संघ के निर्णयों में नियमों की अनदेखी! </b></p><p style="text-align: justify;">वैसे तो ‘‘ धतूरे के गुण महादेव ही जानें’’ लेकिन केंद्रीय खेल मंत्रालय की हस्तक्षेप कर राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु की गई यह कार्रवाई किसी भी तरीके से कानूनी रूप से उचित नहीं ठहराई जा सकती है। एक अनेतिकता को दूर करने के लिए दूसरा अनैतिक कदम नहीं उठाया जा सकता है। यह आरोप लगाया गया कि नए चुने हुए संघ ने संविधान के अनुच्छेद xi के अनुसार 15 दिवस व आपातकालीन स्थिति में 7 दिवस की अवधि के प्रावधान के विपरीत बैठक तुरंत कर अंडर 15 और अंडर 20 वर्ष की जूनियर राष्ट्रीय कुश्ती खेल प्रतियोगिता को बृजभूषण सिंह के गृह जिला गोंडा में जल्दबाजी में आयोजित करने की घोषणा को प्रक्रिया व नियमों का उल्लंघन बतलाया। क्या इस आधार पर मात्र 3 दिन पहले ही चुने गए संपूर्ण बोर्ड को निलंबित किया जा सकता है? अथवा यह उठाया गया चरम कदम कितना उचित है? जिस जल्दबाजी के आधार पर संघ की बैठक को अनुचित ठहराया गया, क्या वही जल्दबाजी की गलती खेल मंत्रालय ने संघ को निलंबित कर नहीं की? यदि जल्दबाजी करना ही थी तो बृजभूषण शरण सिंह के विरुद्ध पास्को एक्ट के अंतर्गत जब अपराध दर्ज हुआ था, तभी तुरंत गिरफ्तारी जो कानूनी रूप से भी आवश्यक थी, कर ली जाती तो मसला यहां तक नहीं पहुंचता। यदि बैठक के आयोजन पर व उसमें लिये निर्णय में किसी नियम का पालन नहीं किया गया है तो, अधिकतम संघ के खेल आयोजन के उस निर्णय को ही रद्द करने की मात्र आवश्यकता थी, जो की गई। परन्तु बाडी निलम्बित नहीं करना चाहिए था। नियमों का पालन कर नई तारीख में राष्ट्रीय खेल आयोजन करने की निर्देश संघ को दिए जाने थे। जबकि संघ का यह कहना है कि 31 दिसम्बर के पहले यदि यह राष्ट्रीय आयोजन नहीं किया गया तो सैकड़ों जूनियर खिलाड़ियों का एक वर्ष का केरियर बर्बाद हो जायेगा। इसीलिए उन्हे तुरंत-फुरंत यह निर्णय मजबूरी में लेना पड़ा।</p><p style="text-align: justify;"><b>अराजक स्थिति -अराजक हाथियार</b>! </p><p style="text-align: justify;">संघ पर खेल मंत्रालय ने यह आरोप भी लगाया कि अभी भी बृजभूषण सिंह के घर से ही संघ का कामकाज चलाया जा रहा है। कुछ घंटों में या चंद दिनों में ही नया भवन दफतर के लिये मिलना संभव नहीं है। संघ के अध्यक्ष का यह कहना है कि बिना सचिव के निर्णय लेना का अध्यक्ष को अधिकार है, जिसे सचिव मानने के लिए बाध्य है। चूंकि खेल की उन्नति के लिए संघ निलंबित नहीं किया गया था। बल्कि इसके पीछे छिपा उद्देश्य राजनैतिक था। इसलिए यदि सिर्फ उक्त निर्देश दिए जाते तो संघ का निलम्बन नहीं होता और तब उनकी राजनैतिक उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो पाती। इससे यह बात भी स्पष्ट होती है कि एक ‘‘अराजक स्थिति’’ से निपटने के लिए ‘‘अराजक हथियार’’ का ही उपयोग करना होगा। ‘‘नाक दबाने से ही मुंह खुलता है’’, और यह सिद्धांत सिर्फ खेल पर ही लागू नहीं होता है, बल्कि देश की राजनीति से लेकर अन्य क्षेत्रों में भी लागू होता है, और हो रहा है। इससे निश्चित रूप से लोकतांत्रिक संस्थाएं और लोकतंत्र पर आंच आ सकती है। इससे बचा जाना चाहिए। इस प्रकार खेल मंत्रालय पर्यवेक्षण में हुए चुनाव नवनिर्वाचित कुश्ती संघ को भंग करने का लिया गया निर्णय किसानों के तीनों कानून को वापस लेने के निर्णय के समान ही है।</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-26507187462780059902023-12-19T04:42:00.000-08:002023-12-19T04:42:43.869-08:00 मोदी के ‘‘मन’’ को मोहने वाले ‘‘मोहन’’ सबके ‘‘मन मोहन’’। <p style="text-align: justify;"><b>मोदी है तो ‘‘मुमकिन है ही नहीं’’ बल्कि ‘‘नामुमकिन कुछ भी नहीं है’’।</b></p><p style="text-align: justify;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWlhV5-vCE5RCQUvTXT0RGsRHbCN-0olwHz0XNq44_KAfmFJaicxxu4_xSlaC4VAQ6ue6GHolXStkw-AsfjVzGYXbQM77T6a1aG7SS7GLaGtRwKoZ-cj0w0oSNBMJB2BCOkMmXUcmkZD7BC_RfS-t8X5tUPwSD3qd9DOOOvXxJoafSWEZsMlhKUuKRPEo/s259/download%20(26).jpg" imageanchor="1" style="clear: right; display: inline !important; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="194" data-original-width="259" height="194" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWlhV5-vCE5RCQUvTXT0RGsRHbCN-0olwHz0XNq44_KAfmFJaicxxu4_xSlaC4VAQ6ue6GHolXStkw-AsfjVzGYXbQM77T6a1aG7SS7GLaGtRwKoZ-cj0w0oSNBMJB2BCOkMmXUcmkZD7BC_RfS-t8X5tUPwSD3qd9DOOOvXxJoafSWEZsMlhKUuKRPEo/s1600/download%20(26).jpg" width="259" /></a></p><p style="text-align: justify;">तीनों हिन्दी प्रदेशों में अप्रत्याशित अभूतपूर्व जीत के साथ ही मुख्यमंत्रियों की नियुक्तियां भी चुनावी परिणाम समान अभूतपूर्व व अप्रत्याशित रही हैं। अभी तक की प्रधानमंत्री नरेन्द्री मोदी की कार्यप्रणाली और निर्णयों से यह सिद्ध हो चुका है कि किसी भी राजनैतिक विश्लेषक, विशेषज्ञ, पंडित, ज्योतिष के लिए राजनैतिक निर्णयों के संबंध में भविष्यवाणी भूल कर भी करने की त्रुटि नहीं करनी चाहिए। ‘‘कबीरदास की उल्टी बानी भीगे कंबल बरसे पानी’’। नरेन्द्र मोदी की राजनैतिक निर्णय की कार्यप्रणाली पर यह जुमला फिट होता है, जो एक समय कांग्रेस के तत्कालीन कोषाध्यक्ष सीताराम केसरी के लिए बनाया गया था ‘‘न खाता न बही, जो केसरी कहे वही सही’’। ठीक इसी प्रकार ‘‘न खाता न बही जो ....?’’।</p><p style="text-align: justify;">प्रथम मोदी-शाह युक्ति के उक्त मुख्यमंत्रियों को मनोनीत करने के निर्णयों से भौंचक्का विपक्ष जैसे कि ‘‘बिजली कड़की कहीं और गिरी कहीं’’, राजनैतिक विश्लेषकों को आश्चर्यचकित कर देने के बावजूद कहीं न कहीं उपरोक्त निर्णयों के कुछ हल्के से संकेत सांकेतिक रूप से ही सही, मोदी ने अवश्य दे दिये थे। यह अलग बात है कि मीडिया से लेकर समस्त विशेषज्ञ, विश्लेषक, दावा करने वाले लोग उसे पढ़ नहीं पाए। याद कीजिए! तीनों प्रदेशों के लिये नियुक्त पर्यवेक्षकों में ही यह संकेत छुपा हुआ था कि तीनों प्रदेश में भविष्य की, खासकर लोकसभा चुनाव की व्यूह रचना को देखते हुए विपक्ष की जातिगत गणना के हथियार को बोथल करने के लिए जातिगत समीकरण को साधते हुए और कौन-कौन प्रदेश के प्रमुख चेहरा बनेंगे। छत्तीसगढ़ में आदिवासी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अर्जुन मुड्ढा को भेजकर आदिवासी मुख्यमंत्री, मध्यप्रदेश में राष्ट्रीय पिछडा वर्ग मोर्चा अध्यक्ष के लक्ष्मण को भेजकर पिछडा वर्ग के मुख्यमंत्री, राजस्थान में ब्राह्मण चेहरा सांसद सरोज पांडे को भेजकर ब्राम्हण चेहरा मुख्यमंत्री बनाने के संकेत दे दिये थे। तीन-तीन पर्यवेक्षकों की कदापि आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि न तो विधायकों से मिलकर रायशुमारी करना था और न ही एक-एक विधायक को समझाकर केन्द्र के नामंकित नाम पर सहमति बनानी थी। क्योंकि यह तो ज्ञात ही नहीं था कि हाईकमान का निर्णय क्या है? इसलिए एक पर्यवेक्षक न भेजकर तीन-तीन भेजे गये, ताकि संकेत देने वाले पर्यवेक्षक पर ध्यान केन्द्रित न हो। </p><p style="text-align: justify;">लेकिन मोदी है, तो मुमकिन ही नहीं है बल्कि नामुमकिन कुछ भी नहीं है। ‘‘मोदी कभी कच्चे घड़े में पानी नहीं भरता’’, मोदी मैजिक है, तो इतिहास की नई-नई उचांईओं को गढ़ना मोदी को आता है। मोदी ने 77 साल के स्वतंत्र भारत के इतिहास में बिल्कुल नया इतिहास रच दिया, जब राजस्थान में भजनलाल शर्मा के सिर पर मुख्यमंत्री का साफा पहनवा दिया। शर्मा देश के ऐसे पहले मुख्यमंत्री होंगे, जो विधानसभा में प्रथम दिवस प्रवेश ही मुख्यमंत्री के रूप में करेगें। यद्यपि इसके पूर्व देश में प्रथम बार विधानसभा अथवा सीधे विधायक से मुख्यमंत्री कई बन चुके है। गुजरात में भूपेंद्र भाई पटेल, मनोहर लाल खट्टर, सुंदरलाल पटवा आदि अनेक नाम है। लेकिन विधायक के रूप में चुनकर नव निवार्चित विधानसभा का प्रथम दिन ही उनका मुख्यमंत्री बनना यह अभी पहली बार हुआ है। तीनों मुख्यमंत्री की संघ पृष्ठभूमि है, जो आज की एक राजनीतिक योग्यता व आवश्यकता है। </p><p style="text-align: justify;">बात मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव की भी कर ले! यह भाजपा ही है, जो देश ‘‘चाय वाले’’ को प्रधानमंत्री को बना सकते हैं, एक पकोड़े बेचने वाले (होटल व्यवसायी) को महाकाल के आशीर्वाद से मुख्यमंत्री बनाने के निर्णय के साहस (दुःसाहस) लिए भाजपा नेतृत्व मोदी शाह की जोडी की वंदना तो की ही जानी चाहिए। एक सिक्के के हमेशा दो पहलू होते है। आधा गिलास खाली है अथवा आधा गिलास भरा है। ठीक उसी प्रकार प्रधानमंत्री के उक्त निर्णयों की भी समीक्षा की जानी चाहिए। निर्णय के पक्ष के पीछे एक बड़ा कारण एक दरी उठाने वाले कार्यकर्ता को मुख्यमंत्री के सिंहासन पर बैठालने का है। तो दूसरा बडा प्रश्न छिपा हुआ यह भी है कि क्या इससे उन नेताओं व कार्यकर्ताओं के बीच में, जो यह मान कर चल रहे थे कि ‘‘खि़दमत से ही अज़मत है’’, यह मैसेज नहीं जाएगा कि काम करने से फायदा क्या? क्योंकि परिणाम, शाबाशी तो मिलने से रही? इसलिए कार्यकर्ताओं की मेहनत से जब कार्यकर्ता अपने नेता को आगे बढ़ता है और उस नेतृत्व को केन्द्रीय हाईकमान स्वीकार नहीं करता है तो क्षोभ, गुस्सा निराश होना स्वाभाविक ही है। शिवराज सिंह चौहान से लेकर अन्य क्षत्रप नेताओं प्रहलाद सिंह पटेल, नरेन्द्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय को चुनावी मैदान में उतारकर उनके अथक प्रयासों से उक्त भारी मिली जीत के बावजूद हाईकमान ने उन्हें नेता नहीं चुना। न ही प्रदेश का चेहरा चुनने में उनसे चर्चा की गई। यह संदेश भविष्य के लिए ठीक नहीं है, इससे बचा जाना चाहिए। </p><p style="text-align: justify;">बावजूद इसके हाईकमान का मोहन यादव का चयन सही मायनों में लोकसभा को देखते हुए बहुत महत्वपूर्ण और आशाजनक परिणाम की आशा लिए हुए है। जमीन से जुड़ा व्यक्ति जब शीर्ष पर पहुंचता है, तब उसकी कार्य क्षमता और बढ जाती है। वो दिन हवा हुए जब ‘‘ख़ुशामद ही आमद है’’ राजनीति का ध्येय वाक्य हुआ करता था। मोहन यादव ऐसे ही व्यक्ति है जिन्हें अब अपने कार्य क्षमता को बढ़ाने के साथ सिद्ध करने अवसर है। प्रथम महती दायित्व लोकसभा की समस्त सीटों को जिताने का है। इस दायित्व को निभाने की घोषणा 29 की 29 लोकसभा सीट जीतकर लाने की शिवराज सिंह चौहान ने की है। प्रश्न यह है कि क्या वे घोषणाओं को धरातल पर उतारने में मुख्यमंत्री का सहयोग करके श्रेय मुख्यमंत्री मोहन यादव को लेने व देने में तो कोई द्वंद तो उनके मन नहीं होगा? निश्चित रूप से शिवराज सिंह का अनुभव और मोहन यादव की ऊर्जा जिस पर हाईकमान का आशीर्वाद हो, सिर पर हाथ रखा हो, यह कार्य बखूबी कर पायेगें। खासकर उस स्थिति में जब हारी हुई कांग्रेस की आत्मावलोकन की वह क्षमता ही नहीं बची हो, जिस पर कार्य कर अवसाद से उभर कर आगे बढ़ सके, जो क्षमता भाजपा नेतृत्व के पास है। छः महीने पूर्व 70 सीटें के स्वयं व अन्य समस्त आकलन को 163 में बदल दिया। मध्य प्रदेश के नये मुख्यमंत्री के रूप में भाई मोहन यादव को प्रदेश की जनता की ओर से हृदय की गहराइयों से हार्दिक बधाइयां। वे सफल हो मध्यप्रदेश आगे बढ़े इन्हीं शुभकामनाओं के साथ।</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-20191818381402347432023-12-15T05:27:00.000-08:002023-12-16T06:55:17.938-08:00गणतंत्र की पहचान ‘‘लोकतंत्र’’ का संसद में कहीं गला तो घोंटा नहीं जा रहा हैं?<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHqQAGzo0_o1O8VSxKOF-opGD3ek7x7upOCBrhLI8wrj_8f-98DXz9jDhNzLHiEh6xKLF6MLZ7Y4mULtgRVsiY2vSkzDhtpvAz_dtmr_n0bSYEO_HbHLKCLHPEpTbtX0XFSz12iXs7RiuR45lROq_gHfK3oLot-FjY1hN0dxOwnwjkDh93OxIkfAwziN4/s300/download%20(25).jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="168" data-original-width="300" height="168" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHqQAGzo0_o1O8VSxKOF-opGD3ek7x7upOCBrhLI8wrj_8f-98DXz9jDhNzLHiEh6xKLF6MLZ7Y4mULtgRVsiY2vSkzDhtpvAz_dtmr_n0bSYEO_HbHLKCLHPEpTbtX0XFSz12iXs7RiuR45lROq_gHfK3oLot-FjY1hN0dxOwnwjkDh93OxIkfAwziN4/s1600/download%20(25).jpg" width="300" /></a></div><p style="text-align: justify;">भारत विश्व का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए देखी-परखी श्रेष्ठ प्रणाली संसदीय प्रणाली अपनाई गई है। लोकतंत्र के चार खम्भों में से दो खंभे एक संसद व दूसरी सर्वोच्च न्यायालय धरातल पर एक दूसरे के ऊपर सर्वोच्च न होकर पूरक है। परन्तु ‘‘वास्तविकता सत्ता’’ तो संसद में ही निहित है, जो जनता को प्रतिबिंबित करती है। संसद लोकतंत्र की वह संस्था है, जहां जनता की समस्त समस्याएं, मुद्दों का सकारात्मक हल खुली बहस के बाद सर्वसम्मति या बहुमत से निर्णय लिया जाकर न्यायलीन समीक्षा के अधीन रहते लागू किया जाता है। यही हमारे संसदीय लोकतंत्र की एक बड़ी छाप रही है। </p><p style="text-align: justify;">यदि हमारे संसदीय इतिहास को पलट कर देखा जाए तो दो शताब्दि पूर्व तक जहां पर सांसदों खासकर विपक्षी सांसदों को न केवल अपनी बात प्रस्तुत करने का पूरा अवसर स्पीकर सहित सत्ता पक्ष द्वारा दिया जाता रहा है, बल्कि वे अपनी वाक्पटुता व बौद्धिकता लिए हुए भाषणों से पूरी संसद को प्रभावित करते रहे हंै। याद कीजिए अटल बिहारी वाजपेयी का विपक्ष के नेता के रूप में उनके शेरो शायरी से युक्त भाषणों को आज भी सदन व सदन के बाहर उद्धरित किया जाता है। आचार्य जेपी कृपलानी, डाॅ राममनोहर लोहिया, डॉ. भीमराव अम्बेड़कर, डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, जगन्नाथ राव जोशी जैसे न जाने अनेक महान हस्तियां रही है, जिन्हे संसद में देखकर शायद संसद भी अपने को गौरवान्वित महसूस करती रही है। परन्तु पिछले कुछ दशकों से संसद में संसदीय व्यवहार व वचनों में जो गिरावट आई है, संसदीय परम्पराओं का जो खुलेआम उल्लंघन हो रहा है, उससे संसद को एक तरह से चुनावी सभा का मंच बना दिया है, ‘‘जहां उलझना आसान सुलझना मुश्किल’’, और जो तू-तू, मैं-मैं गाली-गलौज की एक पहचान बन गई है। </p><p style="text-align: justify;"><span style="text-align: left;">ताजा मामला कैश-फाॅर क्वेरी में टीएमसी की सांसद महुआ मोइत्रा को संसद से निष्कासन का है। मामला गंभीर प्रकृति का होने के बावजूद क्या मामला इतना गंभीर व संगीन था, जहां मात्र ‘‘लाॅग इन’’ का पासवर्ड अनाधिकृत व्यक्ति को देने के आधार पर एक चुने हुए सांसद को अधिकतम सजा सदस्यता समाप्त की दी जानी चाहिए थी, प्रश्न यह है? यद्यपि ‘‘लाॅग-इन’’ शेयर न करने का कोई संसदीय नियम नहीं हैं। तथापि नैतिकता के स्तर पर तो यह निश्चित रूप से यह मामला बहुत गंभीर है, इसमें भी कोई शक ही नहीं है। संसद में प्रश्न पूछने का अपना ‘‘लॉग इन पासवर्ड’’ किसी अधिकृत दूसरे व्यक्ति को देना निश्चित रूप से गंभीर नैतिक अपराध है, जिसके गंभीर दुरुपयोग की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है। परन्तु यह त्रुटि आपराधिक तभी होगा, जब देश की सुरक्षा पर कोई आंच आ जाती, जैसा कि आरोप में शिकायतकर्ता ने लगाया था। हिरानंदानी द्वारा विदेश (दुबई) से प्रश्न पूछने मात्र से ही महुआ मोइत्रा देशद्रोही नहीं हो जाती हैं। देश के कई नागरिक विदेशों सहित दुश्मन देश के नागरिकों से आईएसडी द्वारा बात करते हैं। क्या वे सब भारत के हितों को नुकसान कर देशद्रोही हो जाते है? ‘‘ऐब को भी हुनर की दरकार होती है’’। असावधानी, अज्ञानता अथवा बेवकूफी के कारण दुबई में बैठे व्यक्ति को दिया ‘‘लाॅग इन’’ से देश की सुरक्षा को खतरा वस्तुतः उत्पन्न हुआ क्या? ऐसा कोई दावा अथवा तथ्य सामने नहीं आया। उक्त लाॅग इन का (दुरू) प्रयोग? कर सब प्रश्न ‘‘अडानी’’ के संबंध में तब पूछे गये थे, जब अडानी के संबंध में पूरा विपक्ष संसद में लगातार प्रश्न पूछ रहा था। </span></p><p style="text-align: justify;">यह वही संसद है, जहां वर्तमान संविधान को लागू किया है, जिसके द्वारा ही ‘‘कानून का राज’’ का निर्माण हुआ है। कानून सबके के लिए बराबर है। संसद द्वारा स्थापित उसी न्याय प्रणाली में यह व्यवस्था है, जहां हर अपराधी को अपने बचाव में सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है और उसको उक्त अधिकार दिये बिना देश की कोई भी अदालत चाहे वह संसद ही क्यों न हो, न्याय नहीं दिला सकती है। यह एक प्राकृतिक न्याय का मूलभूत सर्वमान्य, सर्वकालीन सिद्धांत है। कानून का यह भी सिद्धांत है ‘‘न्याय न केवल मिलना चाहिए, बल्कि न्याय मिलते हुए दिखना भी चाहिए’’। न्याय का यह सिद्धांत भी दशकों से चला आ रहा है। अन्यथा तो ‘‘उघरहिं अंत न होई निबाहू .....’’।</p><p style="text-align: justify;">उक्त पूरे प्रकरण में कितनी गंभीर कानूनी त्रुटि हुई और किस तरह से जल्दबाजी में महुआ मोइत्रा को अडानी के खिलाफ प्रश्न पूछने पर ‘‘सूली पर लटकाया’’ गया है, यह प्रथम दृष्टया स्पष्ट दिखाता है कि "रहना है तो कहना नहीं और कहना है तो रहना नहीं"। प्रथम उच्चतम न्यायालय वकील जय अनंत देहाद्राई (जो मोइत्रा के पूर्व मित्र थे) के पत्र के आधार पर सांसद निशिकांत दुबे (जिसके खिलाफ महुआ मोइत्रा ने फर्जी डिग्री के आरोप लगाये थे) के अक्टूबर 2022 में लिखे पत्र के आधार पर स्पीकर ने संसद की एथिक्स कमेटी के पास उक्त मामले को भेजा। वह मूल भुगतयमान शिकायतकर्ता न होकर मात्र एक माध्यम है, जिसने उस व्यवसायी दर्शन हिरानंदानी की शिकायत दर्ज कराई जिसके द्वारा पहले इंकार के चार दिन बाद शपथ पत्र प्रस्तुत किया गया था। दर्शन हिरानंदानी सीधे शिकायतकर्ता नहीं थे। मोइत्रा और दुबई में बैठा व्यक्ति ( हिरानंदानी) के बीच हुए कुछ ‘‘चैट’’ और लाॅग इन पासवर्ड को शेयर कर यह आरोप लगाया कि महंगे उपहार व नगदी के बदले में मोइत्रा ने संसद में प्रश्न पूछने के लिये अपना ‘‘लॉग इन’’ पासवर्ड हिरानंदानी के साथ शेयर किया और दुबई में रहकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बदनाम करने के लिए अडानी के विरुद्ध प्रश्न पूछे गये। ‘‘ऊंट की चोरी ऐसे निहुरे निहुरे थोड़े ही होती है’’। </p><p style="text-align: justify;">वास्तविक शिकायतकर्ता हिरानंदानी का एक शपथ पत्र जो एक सादे कागज पर (लेटर हेड या स्टांप पेपर पर नहीं) एथिक कमेटी के सामने प्रस्तुत किया गया। परन्तु आश्चर्य की बात यह थी न तो उस व्यक्ति को एथिक कमेटी के दौरान जांच के लिए बुलाया गया और न ही उससे ऑनलाइन किसी तरह की पूछताछ की गई, जिस तरह की पूछताछ महुआ मोइत्रा को आचार समिति में बुलाकर की गई। शिकायतकर्ता एवं गवाह से प्रतिप्रश्न (क्राॅस एग्जामिनेशन) का अधिकार एक आरोपी सांसद का संवैधानिक अधिकार है, जिसका पालन न करने पर पूरी कार्यवाही स्वयमेव अवैध होकर प्रारंभ से ही शून्य हो जाती है, जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने उनके निर्णयों में यह न्यायिक सिद्धान्त प्रतिपादित किया। </p><div style="text-align: justify;">मामला संसद के अंदर का नहीं है, जहां सामान्यतः उच्चतम न्यायालय हस्तक्षेप नहीं करती है। मामला संसद के बाहर का है और वैसे भी संसद के अंदर भी प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का पालन किया ही जाना चाहिए। जब किसी व्यक्ति के खिलाफ संसद की कार्यवाही करने जा रही है तब उस अभियोगी सांसद को सुनवाई का पूरा अवसर दिया जाना चाहिए। लगभग 600 पेजों (495 एनेक्सर्स सहित) की रिपोर्ट को मात्रा दो घंटे में पढ़कर संसद में सांसदों को बहस की अनुमति देना सुनवाई का अवसर न देने के बराबर ही कहां जाएगा। क्योंकि कहते हैं कि ‘‘अंतर अंगुली चार का झूठ सांच में होय’’। वैसे भी विशेषाधिकार समिति ने निष्कासन की सजा तय कर उक्त सिफारिश के साथ रिपोर्ट को सदन के पटल पर प्रस्तुत करने में त्रुटि है। वस्तुत: समिति को आरोपी सांसद को सिर्फ दोषी पाया जाकर सजा देने के लिए संसद के पास आवश्यक कार्यवाही हेतु रिपोर्ट देनी चाहिए थी। सजा की प्रकृति व परिमाण तय करने का अधिकार संसद को ही है। पार्टी द्वारा व्हिप जारी करना भी प्राकृतिक न्याय के विरूद्ध है क्योंकि तब सांसदों को स्वतंत्र रूप से मत-अभिमत देने का अधिकार सदस्यता खोने की दर से नहीं रह जाता है।। संसदीय मंत्री द्वारा संसद में यह कहा गया कि इसके पूर्व भी जब इसी तरह के पुराने मामले में वर्ष दिसंबर 2005 में 10 लोकसभा एवं 1 राज्यसभा सदस्य की सदस्यता समाप्त की थी। तब तत्कालीन स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने उन निष्कासित सदस्यों को बोलने का अवसर नहीं दिया था। इसी को कहते हैं, ‘‘औरों को नसीहत खुद मियां फजीहत’’। उक्त प्रकरण वर्तमान प्रकरण से इस कारण से भिन्न हैं कि वहां एक निजी चैनल द्वारा किए गए स्टिंग ऑपरेशन में प्रश्न पूछने के बदले पैसे लेते हुए कैमरे में कैद हुए थे, माननीय सांसदगण नोटों के साथ पकडे गये थे। वीडियो भी बायकायदा रासायनिक जांच में सही पाये गये थे। परन्तु यहां पर किसी तरह का सबूत प्रस्तुत नहीं किया, सिवाय उस व्यक्ति के शपथ पत्र के जिसने पहले तीन दिन पूर्व संबंधित मामले से इंकार कर दिया था। </div><div style="text-align: justify;">बड़ा प्रश्न यह है कि हमारी संवैधानिक व संसदीय कार्य प्रणाली (संसद चलाने के नियमों) में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जहां इस तरह की दुरूद्देश्य पूर्ण दुरूपयोग की घटना होने पर कोई सजा का प्रावधान हो। साक्षरता की कमी के कारण प्रत्येक सांसद इतना सजग नहीं होता है कि उसे समस्त संसदीय नियमों की जानकारी हो। हमारे जीवन में भी हमें कई ऐसे अनुभव मिल जायेगें, (मेरे अनुभव में है) जहां विधायकों, सांसदो के लेटर पेड खाली हस्ताक्षर किये हुए दूसरे व्यक्तियों के पास प्रश्नोतर के लिए पडे़ रहते है। (जब प्रश्नोत्तर आॅनलाईन नहीं होते थे।) आज भी संसद मंे मत विभाजन में कई मत अवैध हो जाते है। अतः यह एक अज्ञानता का प्रश्न भी हो सकता है। परन्तु निश्चित रूप से प्रस्तुत प्रकरण में अज्ञानता का प्रश्न न होकर लापरवाही का हो सकता है।</div><p style="text-align: justify;">परन्तु सवाल यह है कि ‘‘लाॅग इन’’ का उपयोग अथवा दुरुपयोग करके संसद या देश की कौन सी सार्वभौमिकता, अखंडता पर ‘‘प्रहार’’ हुआ है, यह बात जब तक सिद्ध न हो जाये, तब तक कोई भी कार्यवाही बेमानी होगी। इस अपराध के लिए कोई एफआईआर भी दर्ज नहीं कराई गई है। न ही हिरानंदानी के खिलाफ और न ही महुआ मोइत्रा के खिलाफ। इस मामले के पहले के एक मामले में दिल्ली के सांसद रमेश बिधूड़ी द्वारा संसद में साथी सांसद को अपशब्द, गाली आदि देने पर इसी तीव्रता से कोई कार्यवाही अभी तक नहीं हुई है। प्रारंभिक जांच भी प्रारंभ हुई कि नहीं यह भी संज्ञान में नहीं है। लोकतंत्र में विपक्ष को यदि इस तरह से कुचलते रहेंगे तो, लोकतंत्र कैसे मजबूत होगा? यह सबको सोचने की आवश्यकता है। तथापि यह सत्ता पक्ष का काम नहीं है कि विपक्ष को मजबूत करे। परन्तु साथ ही सत्ता पक्ष का यह भी काम नहीं है कि वह विपक्ष को क्षेत्राधिकार के बाहर जाकर प्रचंड बहुमत के आधार पर कुचलने का कार्य करे।</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-1069351224500851752023-12-15T05:20:00.000-08:002023-12-15T05:20:24.799-08:00प्रहलाद सिंह पटेल मध्य प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री।<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgTNNlQPl3LoVaHPzEOi7K05V27N4IldVDLt31dMkw76W692_o1biliYB6HJ2WM-LEJ7xFMZJAIijtzBivO-XMwb_UShelDzLjDt_M8SnW5ivFFUrFmQ0MRq7htlXm1IfhN83Z9BbuSTb3T1tx-HkBXqab7F6SjBqBU4t_c1GBelHifXA8qYvQtqmTvE8E/s225/download%20(24).jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="225" data-original-width="225" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgTNNlQPl3LoVaHPzEOi7K05V27N4IldVDLt31dMkw76W692_o1biliYB6HJ2WM-LEJ7xFMZJAIijtzBivO-XMwb_UShelDzLjDt_M8SnW5ivFFUrFmQ0MRq7htlXm1IfhN83Z9BbuSTb3T1tx-HkBXqab7F6SjBqBU4t_c1GBelHifXA8qYvQtqmTvE8E/s1600/download%20(24).jpg" width="225" /></a></div><p></p><p style="text-align: justify;">3 दिसंबर को मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनाव परिणाम की गणना में चुनाव के दौरान बनी अनपेक्षित सामान्य धारणा के विपरीत भाजपा को 163 सीटों के साथ प्रचंड बहुमत प्राप्त होने के कारण शायद मुख्यमंत्री चुनने में इतना समय लग रहा है। वैसे ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा है। पूर्व में भी इससे भी अधिक समय कई बार मध्य प्रदेश में ही नहीं, अनेक राज्यों में भी मुख्यमंत्री का चुनाव करते समय भाजपा ही नहीं वरन् दूसरी राजनीतिक पार्टियों को भी लगा था। इसलिए इसे वर्तमान में एक सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया ही मानी जानी चाहिए।</p><p style="text-align: justify;"><b>भविष्यवाणी नहीं! वास्तविकता।</b></p><p style="text-align: justify;">मध्य प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री पूर्व केंद्रीय मंत्री व वर्तमान में नरसिंहपुर विधानसभा के नवनिर्वाचित विधायक प्रहलाद सिंह पटेल, भाजपा प्रदेश अध्यक्ष कैलाश विजयवर्गीय, नरेंद्र सिंह तोमर राष्ट्रीय महासचिव, गोपाल भार्गव विधानसभा अध्यक्ष, शिवराज सिंह चौहान, केंद्रीय कृषि मंत्री और प्रदेशाध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा केंद्र में प्रहलाद पटेल की जगह राज्य मंत्री बनाए जाएंगे। दो उपमुख्यमंत्री बनाए जाएंगे। इनमें से एक रीता पाठक पूर्व सांसद व विधायक सीधी होगी । यह न तो कोई भविष्यवाणी है और न ही चुने हुए विधायकों का कल आने वाले परिणाम के पूर्व का एग्जिट पोल है। प्रदेश में वर्तमान में उत्पन्न नई राजनीतिक परिस्थितियों और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं गृहमंत्री अमित शाह की बेजोड़ जोड़ी की वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में जीत सुनिश्चित करने के लिए उनकी सूक्ष्म दूरदृष्टि व माइक्रो मैनेजमेंट को देखते हुए ऐसा होना अवश्यसंभावी है।</p><p style="text-align: justify;"><b>प्रहलाद सिंह पटेल! एक व्यक्तित्व</b></p><p style="text-align: justify;">प्रहलाद सिंह पटेल का जन्म 28 जनवरी 1960 को नरसिंहपुर जिले के गोटेगांव में एक किसान परिवार में हुआ है। एमए.एलएलबी शिक्षित प्रहलाद पटेल पेशे से वकील है। यद्यपि उन्होंने राज्य प्रशासनिक सेवा की परीक्षा पास करके डीएसपी बनने के मौके को ठुकरा दिया था। तथापि वर्ष 1980 में जबलपुर विश्वविद्यालय से छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने जाकर पटेल ने अपना राजनीतिक जीवन प्रारंभ किया था। भारतीय जनता मजदूर महासंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। प्रहलाद पटेल का राजनीतिक सफल जीवन एक तेज-तर्रार निष्कलंक राजनीतिक व्यक्तित्व के रहते मित्रता निभाने व ‘‘स्पष्ट सोच’’ के साथ अपनी बात दृढ़ता से रखने वाले राजनीतिक व्यक्तित्व के रूप में रहा है। प्रहलाद पटेल मध्यप्रदेश की सियासत के एक मंझे हुए और माहिर खिलाड़ी हैं। प्रहलाद पटेल मां नर्मदा के अनन्य भक्त हैं और दो बार नर्मदा परिक्रमा कर चुके हैं। प्रहलाद भाई के राजनीति में यदि दोस्त कम है, (क्योंकि वे दोस्ती निभाना जानते है) तो दुश्मन उससे भी कम है। मुझे याद आता है, उनके राजनीतिक गुरु स्वर्गीय प्यारे लाल जी खंडेलवाल के आशीर्वाद से वह बहुत ही कम उम्र (मात्र 29 वर्ष की) में ही वर्ष 1989 में पहली बार लोकसभा चुनाव लड़े थे व विजय होकर आए थे। अब तक चार अलग-अलग लोकसभा सीटों सिवनी, बालाघाट, छिंदवाड़ा और दमोह से चुनाव लड कर जीत चुके हैं। परन्तु उन्हें सिवनी और छिंदवाड़ा से एक-एक बार हार का सामना भी करना पड़ा। वे वर्ष 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में कोयला राज्य मंत्री बनाये गये थे। वर्तमान में मोदी सरकार में स्वतंत्र प्रभार के राज्य मंत्री थे।</p><p style="text-align: justify;"><b>प्रहलाद सिंह पटेल ही क्यों</b>।</p><p style="text-align: justify;">प्रहलाद सिंह पटेल, शिवराज सिंह चौहान, नरेंद्र सिंह तोमर और कैलाश विजयवर्गीय ने लगभग एक ही समय में एबीवीपी (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) व युवा मोर्चा में एक साथ राजनीतिक जीवन प्रारंभ किया है। राजनीतिक सफर में यद्यपि शिवराज सिंह चौहान, प्रहलाद सिंह पटेल से एक कदम आगे हैं, तो केंद्र की राजनीति में प्रहलाद सिंह पटेल, नरेंद्र सिंह तोमर से आगे रहे हैं और राज्य की राजनीति में कैलाश विजयवर्गीय, प्रहलाद पटेल से आगे रहे हैं। सुश्री साध्वी उमाश्री भारती के बाद वे बुंदेलखंड, महाकौशल क्षेत्र के वरिष्ठतम नेता व लोधी वर्ग में गहरी पैठ रखने वाले नेता हैं। तीनों हिन्दी प्रदेशों के हुए विधानसभा के चुनावों में जो राजनीतिक परिस्थितियाँं जातिगत समीकरण से बन रही है, उसमें छत्तीसगढ़ में आदिवासी चेहरा को मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है, तो मध्य प्रदेश में पिछड़ा वर्ग के शिवराज सिंह की जगह दूसरे पिछड़ा प्रहलाद सिंह पटेल को बनाया जा रहा है। जातिगत समीकरण में अन्य दावेदार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक शतरंज की गोटी में फिट नहीं बैठ पा रहे हैं। तथापि प्रधानमंत्री मोदी की अभी तक की कार्यप्रणाली को देखते हुए कोई भी पूर्वानुमान लगाना खतरे से खाली नहीं हैै। अतः एक दूसरे प्रदेश में "असंतुष्ट" महारानी को संतुष्ट करने के लिए यदि यहां पर भतीजे महाराज को संतुष्ट कर दिया जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए?</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-74682719876247918742023-11-22T03:34:00.000-08:002023-11-25T04:06:39.048-08:00"वर्ल्ड कप" की "चका-चौंध" में "कालाबाजारी" "ढंक" गई!<p style="text-align: justify;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhQHgCnZz0hbHF7jzri1dcTsGw3k6D8IrUcTomoapkbDFtLabe4pPhOkdJC3duMaL9alW4HtoTmaTKTrb1x2ccQtOPNqh9INVYuCeJ2ejyaomXx6skrMcRY_8oouSbJLy6UskORLfXr2W3zLHAabx9YWPIXE73MrcKKxx6d_3_Lhg0YWrXnTB4nKPBPxH4/s350/2023-ODI-Cricket-World-Cup.webp" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="200" data-original-width="350" height="183" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhQHgCnZz0hbHF7jzri1dcTsGw3k6D8IrUcTomoapkbDFtLabe4pPhOkdJC3duMaL9alW4HtoTmaTKTrb1x2ccQtOPNqh9INVYuCeJ2ejyaomXx6skrMcRY_8oouSbJLy6UskORLfXr2W3zLHAabx9YWPIXE73MrcKKxx6d_3_Lhg0YWrXnTB4nKPBPxH4/s320/2023-ODI-Cricket-World-Cup.webp" width="320" /></a></p><p style="text-align: justify;">गुजरात के अहमदाबाद के ‘‘नरेन्द्र मोदी क्रिकेट स्टेडियम’’ में अंततः वर्ल्ड कप क्रिकेट का महाकुंभ का भव्य रंगारंग कार्यक्रम के साथ समापन हो गया। तथापि भारतीय टीम की पूरे वर्ल्ड कप में सकारात्मक लगातार विजय यात्रा के कारण उपजी उन्मादी उम्मीद के बावजूद परिणाम हमारे पक्ष में नहीं रहे। इससे प्रत्येक भारतीय को कहीं न कहीं कुछ चुभ रही गहरी निराशा, हताशा अवश्य हाथ लगी। बावजूद इसके 11 में से 10 मैच लगातार जीतकर भारतीय क्रिकेट ने विश्व क्रिकेट में अपना डंका निः संदेह स्थापित किया। खेल के विभिन्न क्षेत्रों में बल्लेबाजी एवं बाॅलिंग में भारत के खिलाड़ियों का जलवा होकर वे सर्वश्रेष्ठ रहे। विराट कोहली सबसे बेस्ट बैट्समैन, मोहम्मद शमी सबसे बेस्ट बॉलर और मैन ऑफ द टूर्नामेंट विराट कोहली रहे। इसलिए तो क्रिकेट को ‘‘अनिश्चितताओं का खेल’’ कहा जाता है। वर्ल्ड कप के फाइनल के परिणाम ने एक बार फिर पूरी तरह से इसी धारणा को पुनः सिद्ध किया है। इसलिए जनता का उन्माद कर देने वाला असीम उत्साह व भारत के प्रधानमंत्री की प्रेरक उपस्थिति के बावजूद जिस परिणाम की चाहत व आकलन विश्व क्रिकेट के विशेषज्ञ पंडित कर रहे थे, दुर्भाग्यवश उससे हम वंचित रह गए। वस्तुतः शायद वह दिन हमारा था ही नहीं, आस्ट्रेलिया का दिन था। ‘‘जिससे अलख राजी, उससे खलक राजी’’! परन्तु इसका विलोम भी उतना ही सही है। शायद इसी को ‘‘भाग्य’’ कहते हैं। इसलिए ‘खेल’ को खेल मैदान में खेल भावना से ही लिया जाना चाहिए। जिसका अभाव शायद इस फाइनल में देखने को मिला।</p><p style="text-align: justify;">विश्व का सबसे धनी क्रिकेट संघ ‘‘भारतीय क्रिकेट बोर्ड’’ है, जिसकी सालाना आय लगभग 6558 करोड़ रू है। हारने के बावजूद भारतीय क्रिकेट टीम को 16.62 करोड़ रुपए की राशि मिली। क्रिकेट के ‘‘तीनों फॉर्मेट’’ में भारत की रैंकिंग टॉप में है। धन बल व खेल में अपनी श्रेष्ठता कई वर्षो से बनाये रखने के कारण भारतीय क्रिकेट संघ का विश्व क्रिकेट पर इतना दबाव रहा है कि अनेकों बार भारतीय क्रिकेटर्स अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट संघ व एशियन क्रिकेट संघ के अध्यक्ष व पदाधिकारी रहे हैं। यह भी कहा जाता है विश्व क्रिकेट में भारतीय क्रिकेट संघ की तूती बोलती है और वह विश्व क्रिकेट संघ पर अपनी शर्त लागू (डिकटेटर) करता रहता है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का इतना बड़ा वैभव, ब्राडिंग व सक्षमता होने के बावजूद उनके द्वारा आयोजित क्रिकेट के विश्व के सबसे बड़े आयोजन वल्र्ड कप का सबसे बड़ा काला अध्याय जो रहा, वह न केवल मैच की टिकटों की अकल्पनीय कालाबाजारी रही, बल्कि खान-पान से लेकर होटल, टैक्सी व अन्य सुविधाओं के रेट भी सातवें आसमान को उसी तरह से छूने लगे, जिस तरह से हमारे ‘‘चंद्रयान ने चांद को छुआ’’। इस कमर तोड़ कालाबाजारी (महंगाई नहीं) के लिए न केवल भारतीय क्रिकेट संघ जिम्मेदार है, बल्कि गुजरात सरकार और अहमदाबाद नगर निगल भी पूर्णतः जिम्मेदार हैं। </p><p style="text-align: justify;">हम क्रिकेट के खेल में और उसकी चकाचौंध में हाथी के समान इतने मतवाले हो गये कि क्रिकेट की चमक-धमक में अंध होकर शासन-प्रशासन क्या होता है, उनका क्या उत्तरदायित्व है, शायद उसे हम भूल ही गये, निभाने का प्रयास करना तो दूर की कौड़ी हो गई। हां हमने उस उत्तरदायित्व को पूरे जज्बे और ताकत के साथ निभाया जब वीवीआईपी लोगों के स्वागत आवभगत और सुरक्षा की बात रही हो। शासन-प्रशासन की उदासीनता व अव्यवस्था से आम जनता इस सदी के अभी तक के सबसे बड़े क्रिकेट के महाकुंभ के दर्शन लाभ व प्रसाद से वंचित रह गई। हमारे यहां तो ‘‘कुंभ’’ के दर्शन से प्रसाद तो मिलता ही है। </p><p style="text-align: justify;">आम जनों की हितैषी का दावा करने वाली सरकार का क्या यह दायित्व नहीं था कि कि वह इस तरह की उपभोक्ताओं के साथ हुई कालाबाजारी के विरूद्ध समय पूर्व कड़े कदम उठाकर उस पर रोक लगाती, नियंत्रित करती? क्या खेल के कुंभ के समान भी धार्मिक कुंभ में भी ऐसा ही होता? या सरकार ने यह मान लिया था कि धार्मिक कुंभ में तो बहुसंख्यक आम सामान्य व्यक्ति आता है, ‘‘जिसकी कमाई हुई तो रोजी, नहीं तो रोजा’’। लेकिन खेल के कुंभ में खासकर अभिजात वर्ग का कहलाने वाला खेल क्रिकेट के खेल को देखकर न तो सामान्य वर्ग आता है और न ही उसे आने का अधिकार है। सिर्फ एलीट (अभिजात) वर्ग को ही यह अधिकार शायद इसलिए है क्योंकि ‘‘अघाए हुए को ही मल्हार सूझता है’’। इसलिए वह क्रिकेट बोर्ड और प्रशासन द्वारा की गई कालाबाजारी व उच्च दामों की व्यवस्था में ‘‘फिट’’ बैठता है। ‘‘अंधे ससुर से घूंघट क्या और क्या परदा’’। </p><p style="text-align: justify;">देश में विश्व स्तर के किसी भी आयोजन से हमारे देश की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई होती है। ठीक जिस प्रकार जी-20 का बेहद सफल आयोजन अभी हाल में ही दिल्ली में हुआ था। हमारी अत्यंत सुदृढ़, दुरुस्त सुंदर चकाचौंध कर देने वाली व्यवस्था ने विदेशी मेहमानों का दिल जीत लिया था और विश्व की मीडिया का भी सकारात्मक ध्यान आकर्षित हुआ। क्या यही सोच विचार के साथ व्यवस्था जब विदेशों से भी हजारों दर्शक वर्ल्ड कप देखने आ रहे हो, भले ही वे राष्ट्राध्यक्ष न हो, के प्रति नहीं होनी चाहिये? जिस प्रकार हम धार्मिक कुंभ में आम जनता की सुविधाओं को ध्यान में रखकर सुरक्षा सहित समस्त आवश्यक मूलभूत व्यवस्था बनाते हैं, वैसी ही सामान्य जनों को ‘‘सामान्य प्रचलित रेट’’ पर वे व्यवस्थाएं इस क्रिकेट कुंभ में क्यों नहीं उपलब्ध कराई गई? यह समझ से परे है। सामान्यतया होटलों की केटेगिरी व रेट फिक्स होते है, फ्लाइट के रेट भी फिक्स होते है। तथापि सीजंस में और भीड़ ज्यादा होने पर रेट में बढ़ोतरी होती है। परंतु उसकी भी कोई तार्किक (लॉजिकल) सीमा होती है और नहीं है, तो अवश्य होनी चाहिए। रेलवे विशिष्ट अवसरों पर होने वाली भीड़-भाड़ से निपटने के लिए उपभोक्ता मांग के अनुसार अतिरिक्त ट्रेन चलाती है, बोगी लगाती हैं, मुनाफाखोरी नहीं करती हैं। लेकिन जब मांग व पूर्ति में अंतर बहुत बढ़ जाये तो क्या सरकार भी स्थिति को हाथ पर हाथ धरे रखकर बाजार के हाथों में छोड देती है? ऐसी स्थिति में क्या सरकार को सामान्य दर्शक उपभोक्ताओं की पहुंच (एक्सेस) के लिए बाजार पर नियंत्रण नहीं करना चाहिए था?</p><p style="text-align: justify;">याद कीजिए! कोरोना काल में जब हॉस्पिटल व डॉक्टर्स ने इसी प्रकार कोरोना पीड़ित बीमार जनता की बीमारू मन और शारीरिक स्थिति का फायदा उठाते हुए इलाज के रेट अत्यधिक कर दिये थे। दस गुना तक इजाफा कर दिया था। चूंकि मामला जीवन से संबंधित था, इसलिए जनता ने मजबूर होकर अपनी चल-अचल संपत्तियों को बेचकर भी अति महंगा इलाज जान बचाने के लिए करवाये थे। स्थिति को गंभीर होते देख तब शासन-प्रशासन तथा जिलों के कलेक्टरों ने डॉक्टर्स अस्पताल, नर्सिंग होम संचालकों के साथ प्रमुख प्रबुद्ध नागरिकों की बैठक बुलाकर इलाज के रेट की अधिकता सीमा तय कर कुछ राहत अवश्य प्रदान की थी। ‘‘एक नजीर सौ नसीहत के बराबर होती है’’। क्या ऐसा ही सुप्रबंध अहमदाबाद में संपन्न हुए खेल के महाकुंभ में नहीं किया जा सकता था? निश्चित रूप से यह सब कुछ सरकार की व बोर्ड इच्छा शक्ति पर ही निर्भर करता है। कहा भी गया है ‘‘जहां चाह वहां राह’’। आश्चर्य की बात यह भी है कि इस मुनाफाखोरी में सिर्फ व्यापारी वर्ग या ‘‘सेवा-प्रदाता’’ ही शामिल नहीं है, बल्कि चुनी हुई सरकार भी शामिल है। क्योंकि मुनाफाखोरी का एक हिस्सा टैक्स के रूप में सरकार को भी मिलता है। अतः सरकार की भी मुनाफाखोरी में हिस्सेदारी मानी जायेगी। परन्तु सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘‘ख़ता लम्हों की होती है, और सजा सदियां पाती हैं’’।</p><p style="text-align: justify;">दूसरे आश्चर्य की बात यह भी है कि सरकार की इस मुनाफाखोरी के विरुद्ध न तो मीडिया खड़ा हुआ और न ही आम जनता जिसे भी मैच देखने में भागीदारी करने का अधिकार था। सरकार व क्रिकेट बोर्ड की अनदेखी व उपेक्षा के कारण एक दर्शक के रूप में वंचित रहा है। ‘‘सब अपने-अपने खेल में मस्त हैं’’, क्योंकि मीडिया तो वीवीआईपी पास के चक्कर में ही लगा हुआ होगा। तब मजबूत शक्तिशाली प्रबंधक के विरुद्ध खड़ा होने का ‘‘नैतिक बल’’ मीडिया कहां से ला पाता? क्या 5 हजार करोड़ से अधिक आय प्राप्त करने वाला भारतीय क्रिकेट बोर्ड ‘‘बीपीएल कार्ड धारक खेल प्रेमी’’ नागरिकों को लॉटरी सिस्टम के तहत कुछ सौ टिकटे एक लाख तीस हजार की क्षमता नरेन्द्र मोदी स्टेडियम मेें मुफ्त में बांटी नहीं जा सकती थी? खासकर जब देश में इस समय रेवड़िया, मुफ्त बांटने का प्रचलन तेजी से चल रहा हो। प्रश्न है इच्छाशक्ति व भावना का है? तभी तो उस दिशा में कार्य कर पायेगें? देश में अमीरो-गरीबो का अंतर अत्यधिक बढ़ते जा रहा है! आखिर गुजरात के मुख्यमंत्री व वहां से आने वाले हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ध्यान इस ओर क्यों नहीं गया? यानी कि ‘‘घर में औलिया होकर भी घर के भूत पर ध्यान नहीं’’! </p><p style="text-align: justify;">इस मैच के अन्य कई भी दुखद पहलू हैं। एक और दुखद पहलू इस आयोजन से निकल कर यह भी आया है कि देश के विभिन्न अंचलों में वर्ल्ड कप के फाइनल में भारत की जीत के लिए दुआएं, प्रार्थनाएं यज्ञ, हवन इत्यादि मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों में की गई। परंतु दुर्भाग्य देखिए 41 मजदूरों का; जो निर्माणाधीन सुरंग के गिरने से अपनी जान हथेली पर लिए हुए कई दिनों से फंसे हुए हैं, उनकी सुरक्षित जान की सुरक्षा के लिए देश में ऐसी ‘‘आवश्यक दुआओं का उन्माद’’ नहीं देखा गया। कम से कम उन आठ प्रदेशों में तो जरूर होनी चाहिए थी, जहां के ये मजदूर रहवासी थे। इस मानवीय व राष्ट्रीय कमी को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। खेल के दौरान भारतीय दर्शक द्वारा ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों के अच्छी शाट/बाॅल पर तालियाँ उत्साहवर्धन न बजाना व पुरस्कार समारोह के दौरान प्रधानमंत्री की उपस्थिति के बावजूद स्टेडियम का लगभग खाली हो जाना मात्र 1.5-2 हजार लोगों की उपस्थिति रही जो हमारी ‘‘अतिथि देवो भवः’’ की भावना व मूल पहचान पर चोट करती है। प्रधानमंत्री की मैच में पूर्व से नियत उपस्थिति के बाबत राहुल गांधी की अशोभनीय टिप्पणी भी बेहद निंदनीय है। यह भी मैच के परिणाम के बाद उत्पन्न परिस्थिति का एक और दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है। कपिल देव व महेन्द्र सिंह धोनी को आमंत्रित न करना भी सिर्फ दुखद पहलू ही नहीं है, बल्कि बेहद शर्मनाक व खेल भावना के एकदम विपरीत कदम है। भारतीय क्रिकेट बोर्ड ‘‘जय शाह’’ देश व खेल प्रेमी को इसका जवाब देंगे?</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-74832600886843310612023-10-28T05:39:00.001-07:002023-10-28T05:39:08.962-07:00जातिगत आरक्षण, जनसंख्या गणना व रेवड़ियां, देश को किस दिशा में ले जाएगी?<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitcyUJdVhRQWdZISfqgn3NRI3AJH4BrTenXMYHwlruVdLOzCFuPvWbOJeX-m5odLs-m8JqSVwED9ZOOd23Rax33a2dI4zcwBpKvLQUIb0Uw8w9s2OM25sUyIIAPJMtdW2olE1bXP8qkH1VLEzP-BZaqa7DyJL7MfCPXGCvBK2hwLszN3ZcTgfLwLUW9wo/s300/images%20(21).jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="168" data-original-width="300" height="168" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitcyUJdVhRQWdZISfqgn3NRI3AJH4BrTenXMYHwlruVdLOzCFuPvWbOJeX-m5odLs-m8JqSVwED9ZOOd23Rax33a2dI4zcwBpKvLQUIb0Uw8w9s2OM25sUyIIAPJMtdW2olE1bXP8qkH1VLEzP-BZaqa7DyJL7MfCPXGCvBK2hwLszN3ZcTgfLwLUW9wo/s1600/images%20(21).jpg" width="300" /></a></div><p></p><p style="text-align: justify;"><b>जातिगत जनगणना</b></p><p style="text-align: justify;">आरक्षण के साथ ही पिछले कुछ समय से देश में जातिगत जनसंख्या की गणना की मांग न केवल जोर-शोर से की जा रही है, बल्कि बिहार सरकार ने तो न्यायालीन अवरोधों से निपट कर जातिगत गणना के परिणाम भी प्रकाशित कर दिए हैं। यद्यपि भारत में जनगणना अधिनियम 1948 लागू है, जिसके अंतर्गत सिर्फ केन्द्र सरकार ही जनगणना करा सकती है। बिहार का अनुसरण करते हुए राजस्थान की गहलोत सरकार तथा मध्यप्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी जातिगत जनगणना कराने की घोषणा के साथ राहुल गांधी इसे आगामी चुनाव में मुख्य मुद्दा बनाते हुए दिख रहे हैं। वैसे वर्ष 2011 में यूपीए सरकार ने भी लगभग इसी तरह की जातिगत गणना ‘‘सोशियो इकोनॉमिक एंड कॉस्ट सेंसस’’ (एसइसीसी 2011) (सामाजिक आर्थिक और जातिगत जनगणना) कराई थी। तथापि उसके आंकड़े आज तक प्रकाशित नहीं हो पाए हैं। जातिगत गणना के पीछे जो सबसे बड़ा तर्क दिया जा रहा है, वह है ‘‘शेर से बाड़ भली’’ कि जिसकी जितनी संख्या उसकी उतनी भागीदारी सुनिश्चित हो। अर्थात ‘‘आरक्षण’’ शब्दावली का उपयोग न किया जाकर भागीदारी शब्द का प्रयोग किया गया है, जो ‘‘आरक्षण का ही एक स्वरूप’’ है। लेकिन इस बाड़ से तो ‘‘यारी का घर और दूर हो जायेगा’’ क्योंकि यह मांग; आरक्षण की वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था से भी ज्यादा खतरनाक इसलिए है, की आरक्षण कानूनी संवैधानिक और तकनीकी रूप से एक अस्थायी प्रावधान है, जबकि भागीदारी की मांग एक स्थायी प्रावधान होगा और यह मांग सबका साथ, सबका विश्वास, सबका प्रयास और सबका विकास की अवधारणा व भावना के विपरीत है।</p><p style="text-align: justify;"><b>अन्य शेष जातियों (सामान्य वर्ग) की जनगणना भी आवश्यक! </b></p><p style="text-align: justify;">जातिगत जनगणना के साथ शेष बची अन्य जातियों (सामान्य वर्ग) की गणना करना इसलिए भी आवश्यक है कि जनता को यह जानकारी होनी चाहिए कि देश के वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, न्यायाधीश, प्रोफेसर, पत्रकार, उद्योगपति, व्यापारी, सीमांत कृषक, शासकीय, अर्ध शासकीय एवं अशासकीय सेवा में रत वर्ग कर्मचारी, खिलाडी, कलाकार, कथाकार, ज्योतिषज्ञ, ड्राइवर, कुशल-अकुशल मजदूर, दिहाड़ी मजदूर, आदि विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले व्यक्ति किन-किन जातियों में कितने-कितने हैं, तभी ‘‘दूध का दूध और पानी का पानी’’ हो पायेगा। </p><p style="text-align: justify;"><b>‘‘जितनी संख्या उतनी भागीदारी’’! मात्र सतही!</b></p><p style="text-align: justify;">अब आप कल्पना कीजिए! जिसकी जितनी जनसंख्या उसकी उतनी हिस्सेदारी/ भागीदारी का अर्थ क्या है? क्या इस धरातल पर वस्तुतः उसी रूप में उतारा जा सकता है? यदि तर्क के लिए यह मान भी जाए तो किस तरह की स्थिति उत्पन्न होगी, इसकी कल्पना क्या आपने की है? भागीदारी का मतलब क्या सिर्फ सत्ता प्राप्ति का साधन ‘‘राजनीति’’ के क्षेत्र तक ही सीमित रहेगा या जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जनसंख्या अनुसार भागीदारी होगी? क्या ‘‘यह जहां का मुर्दा वही जलेगा’’ वाली स्थिति होगी। अथवा ‘‘सत्ता प्राप्ति के बाद’’ ‘‘जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जनसंख्या अनुसार भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी’’? </p><p style="text-align: justify;">कल्पना कीजिए एक आंकड़ों (बिहार राज्य में) के अनुसार पिछड़े वर्गों में शामिल विभिन्न जातियों की कुल जनसंख्या (63 प्रतिशत) को एससी एवं एसटी की जनसंख्या के साथ मिलाने पर वह कुल जनसंख्या का लगभग 85 प्रतिशत (84.59 प्रतिशत) हो जाती है। अब क्या इस आधार पर क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी की टीम में 85 प्रतिशत खिलाड़ी इन वर्गो का होना आवश्यक हो जाएगा? फिल्मों में क्या स्थिति बनेगी? क्या ट्रेन के डिब्बांे, बसों में भी यात्रियों की भागीदारी इसी तरह से सुनिश्चित की जाएगी? क्या कारखाने खोलने से लेकर नौकरी देने तक में भी ऐसी ही व्यवस्था हो पाएगी? राहुल गांधी जब पिछड़े वर्गे के आईएएस में भागीदारी के संबंध में आंकड़े देते हुए यह कहते है कि 90 सचिवों में सिर्फ 3 पिछड़ा वर्ग के है, जो देश का मात्र 5 प्रतिशत बजट संभालते हैं, के आंकड़ों की चर्चा करते हैं। तब उनका मतलब जनसंख्या के अनुसार भागीदारी क्या सिर्फ आईएएस तक ही सीमित होने तक है? परन्तु वे स्वयं जनता को यह नहीं बतलाते है कि एआईसीसी (कांग्रेस) के केंद्रीय व राज्यों के कार्यकलापों में पिछड़ा वर्गो के कितने कर्मचारी कार्यरत है? न ही राहुल गांधी से उनका विपक्ष यह प्रश्न करने की जुर्रत करता है। क्या भागीदारी सिर्फ सत्ता पाने तक की ही सीमित रहेगी अथवा संवैधानिक दायित्व और सामाजिक उत्तरदायित्वों में भी उतनी ही होगी? इस तरह के सैकड़ों प्रश्न उत्पन्न होते हैं, जिनका जवाब राजनीति के चलते न तो मिल पाएगा और न ही कोई देना चाहेगा, बल्कि आपको ‘‘पिछड़ा विरोधी’’ घोषित कर दिया जाएगा। </p><p style="text-align: justify;"><b>50 प्रतिशत महिला भागीदारी? जितनी संख्या उतनी भागीदारी में कोई चर्चा नहीं?</b></p><p style="text-align: justify;">लगभग 50 प्रतिशत महिलाओं की जनसंख्या होने के बावजूद ‘‘जिनती संख्या उतनी हिस्सेदारी’’ की बात करने वाले नेतागणों ने इन 50 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी पिछड़े वर्गो से सुनिश्चित करने का कोई ‘‘कथन’’ अथवा ‘‘प्रतिबद्धता’’ नहीं दर्शायी है, जो उक्त प्रतिपादित सिद्धांत के एकदम विपरीत है। आश्चर्य की बात तो यह है कि आरक्षण और जनसंख्या अनुसार हिस्सेदारी की बात करने वाले समस्त राजनेता गण चाहे किसी भी पार्टी के क्यों न हों, ‘‘लंका में सब बावन गज के’’ वे सब समाज के जातिगत विभाजन और जातिवाद का मंच पर विरोध करते हैं, समरसता की बात करते हैं, सबका साथ सबका विकास की बातें करते हैं। इस तरह इनका दो-मुंहापन स्पष्ट रूप से जनता के सामने परिलक्षित है। परन्तु साथ ही दुर्भाग्य की बात यह भी है कि जनता नेताओं के इस दोहरेपन पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया देने में असमर्थ है। ‘‘वक्र चंद्रमहि ग्रसहु न राहू’’ फिर वह कोई भी व्यक्ति हो, चाहे आरक्षित वर्ग का हो अनारक्षित वर्ग का हो या पिछड़ा वर्ग का हो।</p><p style="text-align: justify;"><b>‘‘रेवड़ी’’ या ‘‘जरूरी न्यूनतम आवश्यकता’’</b>।</p><p style="text-align: justify;">देश में इस समय ‘‘जनहित’’ लोकहित के नाम पर रेवड़ियां अथवा आर्थिक रूप से बेहद कमजोर वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ‘मुफ्त’ या ‘सब्सिडी’ के साथ जीवनदायी सुविधा देने, बांटने का कार्य केंद्र से लेकर लगभग हर राज्य की सरकारें कर रही हैं । एक लोकप्रिय और जनोन्मुखी सरकार के लिए कौन सी सुविधाएं रेवड़ियां है और कौन सी या जरूरत मंद आवश्यकताएं है, इनके बीच बहुत ही बारिक ‘‘लक्ष्मण रेखा’’ है। प्रधानमंत्री स्वयं कई बार कह चुके हैं, रेवड़ी बांटना संस्कृति (कल्चर), बंद करना होगा। परंतु कई बार केंद्रीय सरकार भी जनता की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करते-करते लक्ष्मण रेखा को पार कर ‘‘रेवड़ी’’ बांटने में लग जाती हैं इसलिए ‘रेवड़ी’ संस्कृति पर रोक कानूनी प्रक्रिया द्वारा ही लगाई जा सकती हैं। क्योंकि ‘‘जब ‘‘देने’’ वाला ‘‘राजी’’ और ‘‘लेने’’ वाला राजी तो क्या करेगा काजी’’। ‘‘घूस देना-लेना’’ देश में एक अपराध है। फिर रेवड़ियां भी तो एक ‘घूस’ ही है। तब भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में संशोधन कर रेवड़ियों को ‘‘घूस की परिभाषा’’ में लाकर क्यों नहीं रोक लगाने का प्रयास समस्त राजनीतिक पार्टियों करती हंै? जहां समस्त राजनीतिक पार्टियां सिद्धांत रूप से इस बात पर सहमत है कि रेवड़ियां नहीं बटनी चाहिए और इस पर रोक होनी चाहिए।</p><p style="text-align: justify;"><b>मुफ्तखोरी! व्यक्तित्व के विकास में अवरोध।</b></p><p style="text-align: justify;">यदि व्यक्ति को बिना प्रयास के जीवन उपयोगी सभी न्यूनतम आवश्यक साधन सरकार द्वारा उपलब्ध करा दिये जायेगें तो फिर व्यक्ति व व्यक्तित्व का निर्माण व विकास कैसे हो पायेगा? क्या ऐसा व्यक्ति अकर्मण्य नहीं हो जाएगा? और इस कारण से प्रतिभाओं के विकसित होने का अवसर नहीं मिल पायेगा। इन बातों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-76398571637894771062023-09-28T05:57:00.005-07:002023-09-29T00:13:04.883-07:00मध्यप्रदेश की ‘‘राजनैतिक पिच’’ पर भाजपा का दुक्का, तिक्का, छक्का नहीं सत्ते!(सात) <p style="text-align: justify;"><b>‘‘सत्ता के लिए सात’’</b></p><p style="text-align: justify;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3kjtC5HaCqPi3QGUtlrFqUMYj8gxamLTMjh2AG34UBQjqysEWKlKdIA_fecaCZ9MYooK2pu7UNGcIHaiBqPY4b0Bxqvcbu1Ed0FjkiUvroSIoIIjjfKRkZZaPDDC2-ufC4B7FMkQ76R4Mr2G4Xk_eWr8W4kB9F-C90r8Om2_V-xbE0FytL85YlDDClDU/s1200/26_09_2023-bhopal_news_23540131_13647566.jpg" style="clear: right; display: inline; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="675" data-original-width="1200" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3kjtC5HaCqPi3QGUtlrFqUMYj8gxamLTMjh2AG34UBQjqysEWKlKdIA_fecaCZ9MYooK2pu7UNGcIHaiBqPY4b0Bxqvcbu1Ed0FjkiUvroSIoIIjjfKRkZZaPDDC2-ufC4B7FMkQ76R4Mr2G4Xk_eWr8W4kB9F-C90r8Om2_V-xbE0FytL85YlDDClDU/s320/26_09_2023-bhopal_news_23540131_13647566.jpg" width="320" /></a></p><p style="text-align: justify;"><b>लेख का सार </b></p><p style="text-align: justify;">अंत में हिंदुत्व की सबसे बड़ी चेहरा रही फायर ब्रांड साध्वी नेत्री पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमाश्री भारती जिन्होंने वर्ष 2003 में दिग्विजय सिंह की ‘‘बंटाधार सरकार’’ को सफलतापूर्वक हटा कर भाजपा के जीत के10 साल के सूखे को समाप्त किया था, को चुनावी मैदान में न उतार कर भाजपा ने कहीं एक बड़ी गलती तो नहीं कर दी है? महिला आरक्षण व महिला सशक्तिकरण पर जोर-शोर से कार्य करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीति के बावजूद उनके पुरानी मंत्रिमंडल सहयोगी को चुनाव दंगल में न उतारना भी भाजपा के आश्चर्यचकित करने वाला निर्णयों की श्रृंखला का ही भाग हो सकता है। क्या भाजपा नेतृत्व आगे इस गलती को सुधारेगा? यह देखना बड़ा दिलचस्प होगा। क्योंकि एक छोटी सी गलती भी पूरी कार्य योजना को असफल कर सकती है। फिर यह तो एक बड़ी गलती है।</p><p style="text-align: justify;"><b>सत्ता के लिए सात! गुगली या आत्मघाती गोल? </b></p><p style="text-align: justify;">चुनाव नजदीक आते-आते मध्यप्रदेश की राजनीति में दिन प्रतिदिन नये-नये नाटकीय और अचंभित करने वाली घटनाएं मोड़ लेते जा रही हैं। मध्यप्रदेश में भाजपा व कांग्रेस के बीच चुनावी मैदान पूर्णतः क्रिकेट के उस मैदान में परिवर्तित हो चुका है, जहां दोनों पार्टियों द्वारा ‘‘बैटिंग और बॉलिंग’’ के द्वारा परस्पर एक दूसरे पर हावी होने का प्रयास किया जा रहा है। क्रिकेट में टीम जब कभी संकट में होती है, समय कम होता है, तब ‘‘लक्ष्य’’ की प्राप्ति के लिए चौके, छक्के मारना बल्लेबाजों की ‘‘मजबूरी’’ हो जाती है। यदि बल्ला चल जाता है, तो वह मैच जीत जाता है। विपरीत इसके चौके, छक्के मारने में यदि खिलाड़ी आउट हो जाते हैं, तो टीम हार जाती है। मध्यप्रदेश में दोनों पार्टियों की स्थिति कुछ इसी तरह की है कि "क्या पता ऊंट किस करवट बैठता है"। फिलहाल भाजपा ‘‘बैटिंग पिच’’ पर है और सत्ता विरोधी कारक की बॉलिंग जिसमें ‘‘समस्त तीर गुगली’’ सहित शामिल है, से निपटने के लिए भाजपा के चौके (जन आशीर्वाद यात्राएं) तथा छक्के (प्रधानमंत्री मोदी की प्रदेश के लगातार दौरे) के बावजूद भाजपा को जीत के लिए सत्ता (सात) लगाना पड़ गया है। यह भाजपा के लिये "कड़वी गोली" के समान है, कहा भी है कि "कड़वी भेषज बिन पिये, मिटे न तन का ताप"। भाजपा की परिस्थितिवश यह मजबूरी भी होकर विपक्ष से लेकर मीडिया तक ने भाजपा की इस मजबूरी को उसकी ‘‘कमजोर पहचान’’ तक बता दिया है, जिससे सफलतापूर्वक निपटना भाजपा के लिए एक चुनौती है। जबकि भाजपा के बाबत यह बात प्रसिद्ध होकर सिद्ध है कि वह हमेशा बैहिचक चुनौतियां को गंभीरतापूर्वक स्वीकार कर सफलता को प्राप्त करती है। कांग्रेस की स्थिति इसके ‘‘उलट’’ होती है। </p><p style="text-align: justify;"><b> "पार्टी" को नहीं "चेहरे" को बदलने का विकल्प!</b> </p><p style="text-align: justify;">शिवराज सिंह की विभिन्न लोक लुभावनी योजनाओं की चुनावी वर्ष में लगातार घोषणाएं होने के बावजूद व्यक्तिगत शिवराज सिंह के चेहरे की सत्ता विरोधी कारक (एंटी इनकंबेंसी) रिपोर्ट आने से हाईकमान को स्थिति में "चक्की में से साबुत निकल आने लायक़" अपेक्षित सुधार नजर नहीं आ रहा है। वैसे इसे ‘‘सत्ता विरोधी लहर’’ की बजाए शिवराज सिंह का ‘‘थका हुआ चेहरा’’ (थकान, फटीग) कहना ज्यादा उचित होगा। वहीं जनता भी उक्त चेहरे को लगातार देख कर थक सी चुकी है। अतः जनता चेहरे का बदलाव चाहती है, पार्टी का नहीं। जिस प्रकार क्रिकेट में टीम पर देश की इज्जत लगी होती है, इसी प्रकार देश में मोदी के वर्ष 2024 के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के अवसर को सुगमित व सुनिश्चित करने के लिए इस ‘‘सेमीफायनल’’ को जीतने का भार मध्यप्रदेश भाजपा जो भाजपा की प्रयोगशाला (मॉडल स्टेट) रही है, के मजबूत कंधों पर है। इसी कड़ी में एक-एक सीट का महत्व समझते हुए लोकसभा के सात सांसदों जिसमें से चार महत्वपूर्ण कद्दावर नेता, तीन केन्द्रीय मंत्री और एक राष्ट्रीय महासचिव को विधानसभा चुनाव में उतार कर हाईकमान ने छक्का नहीं ‘‘सत्ता (सात)’’ मारा है। ‘‘सत्ता के खेल’’ में ‘‘छक्के की बजाए सात’’ मारना पार्टी की नई ईजाद होकर मजबूरी (शायद) सी बन गई है। यह नया प्रयोग तो मानो पार्टी को "कंकर बीनते हीरा हाथ लगा है",जो पार्टी को सफलता के निकट पहुंचा देगा, ऐसी उम्मीद पार्टी कर रही है और करनी भी चाहिए। क्योंकि पहली बार भाजपा ने क्षेत्रवार क्षत्रप नेताओं को उभारने का गंभीर प्रयास कर जीत के हवन कुंड में उनकी आहुति से हवन की ज्वाला को जलाये रखने का प्रयास किया गया है।</p><p style="text-align: justify;"><b>क्षत्रपों को पहली बार महत्व </b></p><p style="text-align: justify;">ग्वालियर व चंबल क्षेत्र से नरेन्द्र सिंह तोमर, महाकौशल में प्रहलाद सिंह पटेल, मालवा क्षेत्र से कैलाश विजयवर्गीय, और ‘‘आदिवासी वोट बैंक’’ को साधने के लिए फग्गन सिंह कुलस्ते, इन चारों क्षत्रपों को हाईकमान ने बिना कहे यह संदेश देने का प्रयास किया है कि आप न केवल स्वयं की सीट जीते, बल्कि अपने-अपने प्रभाव के क्षेत्रों में अधिकतम सीटें जिताकर लाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी के दावेदारों में स्वयं को शामिल कर ले। कांग्रेस में क्षत्रपों की यह राजनीति पुरानी है। कांग्रेस में नेतृत्व चाहे किसी का भी हो, विभिन्न क्षत्रपों को उनके प्रभाव क्षेत्र में टिकट देने की अलिखित परिपाटी, चली आ रही है। परन्तु भाजपा में टिकट का वैसा अधिकार क्षत्रपों को नहीं दिया गया है। हां पहली बार, मुख्यमंत्री का दावा करने का अप्रत्यक्ष अधिकार ज्यादा सीटें जीत कर लाने पर देने का संकेत अवश्य दिया गया है। वैसे यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि कांग्रेस द्वारा हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में (राष्ट्रीय अध्यक्ष के वहां से होने के बावजूद) स्थानीय क्षत्रपों को महत्व (विपरीत इसके भाजपा ने उतना महत्व येदुरप्पा को नहीं दिया) और चुनाव लडा़ने की सफल नीति को भाजपा ने मध्य प्रदेश में उतारने का निर्णय लिया और शायद यह निर्णय राजस्थान में भी दोहराया जाए। </p><p style="text-align: justify;"> <b>शिवराज सिंह रिटायर हर्ट</b> </p><p style="text-align: justify;">देश के किसी राज्य व प्रमुख राजनैतिक पार्टियों के इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ है, जब तीन केंद्रीय मंत्री और विश्व की सबसे बडी पार्टी के केंद्रीय महामंत्री को एक साथ चुनावी दंगल में उतारा गया है। इससे इस बात का आकलन किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की जोडी मध्य प्रदेश को जीतने के बारे में कितनी चिंतित, सतर्क और सक्रिय रूप से निरंतर लगी है। "कछुए का काटा कठौती से डरने लगता है"। इन प्रभावशाली मुख्यमंत्री के दावेदारो, परिणाम देने वाले सिद्ध क्षत्रपों को चुनाव में उतार कर, साथ ही इनकी टिकट की घोषणा के कुछ समय पूर्व संपन्न हुई ‘‘महारैली’’ में प्रधानमंत्री द्वारा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का एक बार भी नाम न लेना, जबकि अन्य दिवंगत नेताओं के नामों का उल्लेख करना, महिला सशक्तिकरण की बात करते हुए भी शिवराज सिंह की महिलाओं के सशक्तिकरण करने की विभिन्न योजनाएं खासकर ‘‘लाडली बहना योजना’’ का उल्लेख न करना इन सब बातों का स्पष्ट संकेत यह है कि शिवराज सिंह की ‘‘पारी’’ रिटायर्ड हर्ट हुए बिना उन्हें रिटायर कर दिया जाएगा। वैसे हाईकमान ने एक अन्य प्रमुख ग्वालियर चंबल क्षेत्र के ‘‘आयातित’’ क्षत्रप केंद्रीय मंत्री महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया को चारों क्षत्रपों के साथ विधानसभा चुनाव में न उतारकर तीन तरह के संदेश दिए हैं।</p><p style="text-align: justify;"> <b>ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनावी मैदान में न उतारने के मायने?</b> </p><p style="text-align: justify;">प्रथमः एक क्षेत्र में एक ही क्षत्रप का नेतृत्व होगा। अर्थात ग्वालियर चंबल संभाग में नरेंद्र सिंह तोमर अकेले (सिंधिया के साथ नहीं) नेता बने रहेंगे। दूसरा संदेश कम, सोच ज्यादा यह रही है कि सिंधिया को चुनावी पिच पर उतारने पर अंतर्कलह व नेतृत्व के मुद्दे पर खींचतान बढ़ जाने से फायदा कम नुकसान ज्यादा होगा। तीसरा महत्वपूर्ण संदेश यह भी हो सकता है कि महाराजा को पार्टी (जनसंघ-संघ-भाजपा) की नियमावली अनुसार उन्हें उनकी उस सीमा के भीतर ही रखा जावे, ताकि वह भविष्य के एक व्यावहारिक भाजपाई रंग में पूर्णतः ढलकर पार्टी के लिए उपयोगी नेता बन सके। ठीक भी है, "कोतवाल को कोतवाली ही सिखाती है"। यद्यपि उनकी परवरिश तो राजमाता सिंधिया के कारण जनसंघ की ही रही है।</p><p style="text-align: justify;"> <b>गुजरात मॉडल की पुनरावृत्ति? </b></p><p style="text-align: justify;">तीन महीने पहले ही मै अपने लेख में लिख चुका हूं कि ‘‘गुजरात माडल’’ मध्य प्रदेश में दोहराया जायेगा। यद्यपि भाजपा हाईकमान चुनाव की घोषणा होने पर "तकल्लुफ में है तकलीफ सरासर" की उक्ति को ध्यान में रखते हुए स्वप्रेरणा व स्वविवेक से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह सहित कुछ प्रमुख मंत्रियों और वरिष्ठ विधायकों से यह घोषणा करवायेगें कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे, संगठन का काम करेंगे, तभी पार्टी को सफलता की उम्मीद हो सकती है। क्योंकि पार्टी अब जनता के समक्ष ‘‘नेता बदलने के लिए पार्टी बदलने की जरूरत नहीं है,’’ की नीति पर आगे बढकर जनता को दूसरे भाजपाई नेताओं का विकल्प देने का प्रयास कर रही है। पार्टी ने अपनी चाल चल दी है और शतरंज की बिछायत पर पार्टी द्वारा फेंके गये इन मोहरों में कौन ‘‘किंग’’ बनकर अंततः उभरेगा, निकलेगा, यह देखना दिलचस्प होगा। यह बात सही है कि पार्टी ने "ब्रह्मास्त्र 2023" हथियार निकालकर उपयोग कर लिया है। अब इस ब्रह्मास्त्र के उपयोग/प्रयोग की सफलता पर टिप्पणी तो समय ही कर सकेगा। जनता तो अब राजनीति के खेल के मैदान के चारों तरफ बैठकर वोट देने की बारी आने की प्रतिक्षा भर कर रही है। मन शायद बना चुकी है। </p><p style="text-align: justify;"> <b>सुश्री उमा श्री भारती की उपेक्षा कहीं भारी न पड़ जाए? </b></p><p style="text-align: justify;">अंत में भाजपा की चार तोपों को चुनावी मैदान में उतारने की कार्य योजना में सिर्फ बुंदेलखंड या लोधी समाज तक सीमित नहीं, बल्कि संपूर्ण मध्यप्रदेश की हिंदुत्व की सबसे बड़ी चेहरा रही फायर ब्रांड साध्वी नेत्री पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमाश्री भारती जिन्होंने वर्ष 2003 में दिग्विजय सिंह की ‘‘बंटाधार सरकार’’ को सफलतापूर्वक हटा हटाकर जीत के 10 साल के सूखे को समाप्त किया था, को चुनावी मैदान में न उतार कर पार्टी ने कहीं एक बड़ी गलती तो नहीं कर दी है? महिला आरक्षण व महिला सशक्तिकरण पर जोर-शोर से कार्य करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीति के बावजूद उनके पुरानी मंत्रिमंडल सहयोगी को चुनाव दंगल में न उतारना भी भाजपा के आश्चर्यचकित करने वाला निर्णयों की श्रृंखला का ही भाग हो सकता है। भाजपा नेतृत्व आगे इस गलती को क्या सुधारेगा? यह देखना बड़ा दिलचस्प होगा। क्योंकि एक छोटी सी गलती भी पूरी कार्य योजना को असफल कर सकती है। फिर यह तो एक बड़ी गलती है।</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-47269448103739624382023-09-17T03:34:00.007-07:002023-09-19T01:49:22.754-07:00 कांग्रेस क्या ‘‘आत्मघाती गोल’’ मारने की ‘‘विशेषज्ञ’’ होती जा रही है? <p style="text-align: justify;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZ3JMbVmI7cBUgjYvFskivaXb16T8WMyCjlM5m7ct9J1uCD7QHo7xiBTpJbK8wWKkCmIAonf0rpR5s7SL3XhOPvqymU2WjfuEgyGah1Lm-ceFi-xSLZHQyxDOQPo41UxYV2AjSrRDUWXCPwdmKHFjJo3thIP2q8Ba8ZkgG0CHbhoGxKSoQfAgx1gx3fyE/s300/download%20(2).png" style="clear: left; display: inline; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="168" data-original-width="300" height="168" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZ3JMbVmI7cBUgjYvFskivaXb16T8WMyCjlM5m7ct9J1uCD7QHo7xiBTpJbK8wWKkCmIAonf0rpR5s7SL3XhOPvqymU2WjfuEgyGah1Lm-ceFi-xSLZHQyxDOQPo41UxYV2AjSrRDUWXCPwdmKHFjJo3thIP2q8Ba8ZkgG0CHbhoGxKSoQfAgx1gx3fyE/s1600/download%20(2).png" width="300" /></a></p><p style="text-align: justify;"><b>14 पत्रकारों के साथ असहयोग/बहिष्कार</b> </p><p style="text-align: justify;">‘‘असावधानी’’ बरतने पर क्रिकेट में ‘‘हिट विकेट’’ और फुटबॉल, हॉकी के खेल में ‘‘गलत पास’’ दे देने से ‘‘आत्मघाती गोल’’ कभी कभार हो ही जाते हैं। परन्तु कांग्रेस की ‘‘राजनीतिक पिच’’ पर पिछले कुछ समय से ऐसा लग रहा है कि ‘‘आत्मघाती गोल’’ मारने का अभ्यास कर कांग्रेस पार्टी उसकी विशेषज्ञ होकर शायद भाजपा की ‘‘चिंता व भार’’ को ‘‘हल्का’’ करने का प्रयास कर रही है? ‘‘औरों को नसीहत और खुद मियां फजीहत’’ उक्ति की प्रतीक कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता सांसद रणदीप सिंह सुरजेवाला का बयान भाजपा का जो समर्थन करता है या जो भी उन्हें वोट देता है, वह, ‘‘राक्षस प्रवृत्ति’’ का हैं। विदेशी धरती पर देश की आर्थिक, राजनीतिक और विदेश नीति पर तथ्य परक न होकर तथ्यों से दूर राहुल गांधी के कथन, टिप्पणियां चाहे-अनचाहे अथवा जाने-अनजाने में कहीं न कहीं देश के सम्मान को विश्व पटल पर कमजोर करती हुई दिखती है। भगवान राम के जन्म, जन्म स्थल और अपमान, रामसेतु, सर्जिकल स्ट्राइक पर प्रश्न, अनुच्छेद 370 हटाए जाने को मुस्लिम बहुल होने के कारण हिंदू-मुस्लिम कार्ड तथा कश्मीर को ‘‘फिलिस्तीन’’ ठहराए जाने का बयान, समान नागरिक संहिता, चाय वाला, नीच इंसान, मौत का सौदागर, मोदी तेरी कब्र खुदेगी, आदि से लेकर नवीन एक राष्ट्र-एक चुनाव, सफल ऐतिहासिक जी-20 के आयोजन पर भी आलोचनात्मक टिप्पणी, सनातन पर और ‘‘इंडिया गठबंधन’’ के एक महत्वपूर्ण घटक डीएमके के नेता मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के पुत्र उदय निधि स्टालिन के बयान का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन करने (कांग्रेस द्वारा उक्त बयान की आलोचना नहीं की गई) जैसे कि ‘‘एक कील ठोंके दूसरा उस पर टोपी टांगे’’ जैसे उदाहरण कांग्रेस के आत्मघाती गोल नहीं है, तो क्या आम जनों को उद्वेलित कर उनके (कांग्रेस के) पक्ष में करने वाले बयान है? नवीनतम उदाहरण तथाकथित ‘‘गोदी मीडिया’’ हालांकि इस ‘‘शब्द’’ का उपयोग नहीं किया गया है, लेकिन अंदाजे बयान तो वही है, चैदह पत्रकारों व चैनल के बहिष्कार का इंडिया गठबंधन जिसमें कांग्रेस प्रमुख भागीदार है, का निर्णय ‘‘जैसी रातों के ऐसे ही सबेरे होते हैं’’ भी इन्हीं आत्मघाती गोलो की कड़ी की एक और कड़ी है। सनातन पर जारी संग्राम अभी ठंडा भी नहीं हुआ है कि उक्त नये मुद्दे को इंडिया गठबंधन ने देवर ‘‘एंचन छोड़ घसीटन में पड़ कर’’ एनडीए को आलोचना करने का पुनः एक मौका अवश्य दे दिया है।</p><p style="text-align: justify;"><b>प्रेस की निष्पक्षता व स्वतंत्रता पर कहीं प्रहार तो नहीं? </b><br /> मजबूत परिपक्व लोकतंत्र जिसका चैथा स्तम्भ ‘‘प्रेस’’ है, ऐसा समस्त पक्षों द्वारा कहा ही नहीं गया है, बल्कि माना भी जाता है। परंतु उलट इसके कांग्रेस द्वारा मीडिया के एंकरों पत्रकारों पर उक्त प्रतिबंध, बहिष्कार या अभी कांग्रेस जिसे असहयोग कह रही है, से प्रेस की स्वतंत्रता व निष्पक्षता पर खतरा है, जिस पर दोनों पक्ष समय-समय पर अपनी चिंता व्यक्त करते रहे हैं। एक पक्ष प्रेस की स्वतंत्रता पर खतरे के कारण बहिष्कार कर रहा है, तो दूसरा पक्ष उक्त प्रतिबंध लगाए जाने को प्रेस की स्वतंत्रता व निष्पक्षता पर खतरा बता रहा है। इस प्रकार प्रेस के स्वास्थ्य को लेकर दोनों पक्ष की चिंता के बावजूद क्या प्रेस स्वयं भी स्वयं की स्वतंत्रता के बाबत चिंतित भी है, बड़ा प्रश्न यह है? यदि प्रेस वास्तव में धरातल पर ‘‘निष्पक्ष’ व शाब्दिक नहीं वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र होती तो, किसी भी पक्ष को उसकी स्वतंत्रता, निष्पक्षता बनाए रखने पर चिंता करने की जरूरत ही नहीं होती। कहते हैं न कि ‘‘औघट चले न चैपट गिरे’’ इसलिए मुद्दा यह नहीं है कि इंडिया गठबंधन के उक्त निर्णय से देश की प्रेस की स्वतंत्रता अच्छुण रह सकती है या खतरे में पड़ सकती है। प्रश्न यह है कि क्या यह कदम संविधान में विचारों के व्यक्त करने के संवैधानिक अधिकार जिस पर ही प्रेस की स्वतंत्रता टिकी हुई है, को देखते हुए क्या उक्त असहयोग का निर्णय उचित है? अथवा ‘‘ओछी नार के समान उधार गिनाने से’’ से बचा जा सकता था? अथवा बैगर किसी शोर-शराबे से इस तरह के निर्णय को व्यवहार में लागू किया जा सकता था, प्रश्न यह हैं? वैसे कांग्रेस के प्रवक्ता पवन खेड़ा ने बहिष्कार की जगह गांधी जी के ऐतिहासिक ‘‘असहयोग आंदोलन’’ के असहयोग शब्द का प्रयोग कर असहयोग आंदोलन पर एक मालिन ही पोता है।<br /><b>‘‘बहिष्कार’’ मतलब अपनी बात को जनता के सामने रखने का एक ‘‘अवसर खोना’’ है। </b><br /> इसमें कोई शक नहीं है देश में अधिकांश मीडिया लगभग 90 प्रतिशत अंबानी, अडानी और भाजपा समर्थकों (जैसे कि डॉ. सुभाष चन्द्रा का ‘‘जी न्यूज’’) का मालिकाना हक है। इस कारण से उन मीडिया हाउसेस में काम करने वाले निष्पक्षता व स्वतंत्रता से काम नहीं करते है बल्कि चाह कर भी नहीं कर पाते है और अपनी ‘‘पत्रकारिता धर्म’’ नहीं निभा पाते हैं, जो उनकी पहचान के लिए आवश्यक है। इसलिए ऐसे मीडिया हाउसेस की डिबेटों में या उनको साक्षात्कार देने पर कहीं न कहीं विपक्ष के लोगों को असुविधा या असहज स्थिति हो जाती है। परन्तु बड़ा प्रश्न यह है कि घेरे में लिए गए उक्त मीडिया के प्रश्न ‘‘निष्पक्ष’’ न होकर ‘‘गाइडेड’’ प्रश्न होते है, जिसे कानून की भाषा में ‘‘लीडिंग प्रश्न’’ भी कह सकते है। परन्तु उत्तर तो आपके (विपक्ष के) ‘जबान’ बुद्धि, क्षमता पर निर्भर करता है। यद्यपि एंकरों गाइडेड उत्तरों को आपकी जुबान पर ठूंसने का प्रयास अवश्य करते है, परन्तु यहीं तो आपके व्यक्तित्व की परीक्षा होती है। इसलिए आपको तो इस बात की खुशी होना चाहिए, किन्ही मुद्दे बिन्दु पर हो रही बहस में आपको बुलाये बिना वे आपके खिलाफ अपने मीडिया पटल पर किसी अवधारणा को प्रसारित नहीं करते हैं। विपरीत इसके निश्चित की गई अवधारणा में आपको बुलाकर एक अवसर उसी प्रकार प्रदान अवश्य करते है, जिस प्रकार कानून का यह मूल सिद्धांत होता है कि कोई भी अपराधी या डिफॉल्टर को सुनवाई का अवसर दिये बिना उसे सजा नहीं दी जा सकती। इसलिए इंडिया गठबंधन को दिए जाने वाले अवसरों को चूकने के बजाय भुनाने का करतब दिखाने का प्रयास करना चाहिए। अन्यथा विपक्ष का हाल ‘‘औसर चुकी डोमनी गावे ताल बेताल’’, जैसा हो सकता है। इसलिए इंडिया गठबंधन को पत्रकारिता के हित में नहीं स्वयं के हित में इस निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए और जहां जिस भी चैनल में नहीं बुलाया जाता है, वहां भी उनको बुलाये जाने का प्रयास किया जाना चाहिए ताकि वह अपनी बात वजनदारी से जनता व श्रोता के सामने रख सके। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। वर्ष 2014 में एनडीटीवी का भाजपा प्रवक्ताओं द्वारा बहिष्कार किया गया था। बीच-बीच में भी कई व्यक्तियों द्वारा घोषित/अघोषित रूप से बायकाट किया जाता रहा है। परंतु लोकतंत्र को स्वस्थ बनाए रखने जिसका महत्वपूर्ण खंभा मीडिया है, को भी स्वस्थ बनाये रखने के लिए तीनों पक्ष, पक्ष-विपक्ष तथा स्वयं मीडिया इस पर गहराई से आत्मचिंतन करे, मनन करे, आरोप-प्रत्यारोप अथवा ‘‘टूल’’ बनने की बजाए जिस उद्देश्य के लिए मीडिया की अवधारणा की गई है, की पूर्ति में समस्त लोग अपनी ‘‘आहुति दे’’। देश के स्वस्थ लोकतंत्र को मजबूत बनाए रखने के इन्ही आशाओं के साथ</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-50196629723770857622023-09-11T06:01:00.007-07:002023-09-11T06:01:57.570-07:00देश के "संसदीय इतिहास" में ‘‘विशेष सत्र’’ का आव्हान ‘‘विशेष तरीके’’ से।<p style="text-align: justify;"> बिना एजेंडा के ‘‘सत्र’’ क्या ‘‘नये तरीका का एजेंडा’’ फिक्स करने का प्रयास तो नहीं है?</p><p style="text-align: justify;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQNHoEEuo2Tk4OFNG2LXXQGunR9YNMK9a5IA0ul07Exn506LpDpI2-wIyif_RmwzmrDCjK_NMqnNvz1gwH0PX2ZHAwJhU6sqhThtqyN6NKSf5UHx3oVpMu-BQIx6WsIUKW0IVb1Nt7DPvelyJIX_pvhmpi2PuhfRIqTs-Co8BGXDFuyJNKE72zQPofXhs/s1200/1200-900-19418126-thumbnail-16x9-parliya.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; display: inline !important; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="900" data-original-width="1200" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQNHoEEuo2Tk4OFNG2LXXQGunR9YNMK9a5IA0ul07Exn506LpDpI2-wIyif_RmwzmrDCjK_NMqnNvz1gwH0PX2ZHAwJhU6sqhThtqyN6NKSf5UHx3oVpMu-BQIx6WsIUKW0IVb1Nt7DPvelyJIX_pvhmpi2PuhfRIqTs-Co8BGXDFuyJNKE72zQPofXhs/s320/1200-900-19418126-thumbnail-16x9-parliya.jpg" width="320" /></a></p><p style="text-align: justify;"><b>विशेष सत्र की संवैधानिक स्थिति। </b></p><p style="text-align: justify;">मुंबई में ‘‘इंडिया’’ गठबंधन की बैठक के ठीक पहले संसदीय कार्यमंत्री प्रहलाद जोशी ने पत्रकार वार्ता के माध्यम से देश के सामने आकर नहीं, बल्कि सर्वप्रथम पहले एक ट्वीट (सोशल मीडिया) के माध्यम से 18 से 22 सितंबर के बीच पांच दिवसीय ‘‘संसद का विशेष सत्र’’ बुलाने की जानकारी देश को दी। यह 17 वीं लोकसभा का 13 वां और राज्यसभा का 261 वां सत्र होगा। देश की संसदीय परम्परानुसार नियम नहीं संसद की तीन सामान्य बैठक मानसून, शीतकालीन व बजट सत्र के अतिरिक्त यदि कोई सत्र बुलाया जाता है, तो वह ‘‘विशेष सत्र’’ कहलाता है। तथापि यह नियम या कानून में परिभाषित नहीं है। यह सरकार का विशेषाधिकार है कि वह विशेष सत्र "कब, कैसे और कारण-अकारण" बुलाए। अनुच्छेद 85 के अनुसार संसद की वर्ष में कम से कम दो बैठके होनी चाहिए, तथा दो सत्रों के बीच छः महीने से अधिक का अंतर नही होना चाहिए। न्यूनतम 10 प्रतिशत से अधिक सांसदों की मांग पर भी विशेष सत्र बुलाया जा सकता है। यही संवैधानिक, वैधानिक स्थिति है।</p><p style="text-align: justify;">अभी तक देश में कुल सात बार:- जून 2017 (आधी रात को जीएसटी के लिए), नवम्बर 2015 (125वीं आंबेडकर जयंती), अगस्त 1997 (स्वतंत्रता के 50 साल पूरे होने पर मध्य रात्रि में) अगस्त 1992 (भारत छोड़ो आंदोलन के 50 वर्ष पूरे होने पर) अगस्त 1972 (आजादी के 25 वर्ष) एवं 1962 (अटलजी के अनुरोध पर चीन युद्ध को लेकर) 14-15 अगस्त1947 को रात्रि को देश की आजादी के औपचारिक ऐलान के लिए पहला विशेष सत्र बुलाये जा चुके हैं। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति शासन लागू करने व विस्तार करने के लिए भी विशेष सत्र बुलाये गये हैं। परंतु "प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं" को चरित्र करती हुई वर्तमान में सीजीपीए (संसदीय कार्यों के लिए कैबिनेट मंत्रियों की कमेटी) द्वारा विपक्षी दलों को विश्वास में लिए बिना (हालांकि ऐसा न तो कोई नियम है और न ही परंपरा) केंद्रीय सरकार ने उक्त निर्णय लेकर विपक्ष को ‘‘अनावश्यक रूप’’ से आलोचना करने का एक अवसर अवश्य दे दिया है। </p><p style="text-align: justify;"><b>‘‘विशेष सत्र’’ फिलहाल बिना ‘‘विषय’’ के</b>। </p><p style="text-align: justify;">प्रश्न यही नहीं रुकता है, बल्कि ‘‘विशेष सत्र’’ बुलाए जाने की सूचना के तुरंत बाद ‘‘सूत्रों’’ के हवाले से समस्त मीडिया में यह समाचार ब्रेकिंग न्यूज के रूप में चलने लग जाता हैं कि इस विशिष्ट सत्र में ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ लागू करने के लिए कानून में संशोधन करने के लिए एक विधेयक लाया जाएगा। सूत्र यही नहीं रूकते हैं, बल्कि आगे यह भी कहते हैं कि ‘‘सत्र’’ में 10 से ज्यादा महत्वपूर्ण बिल पेश किये जा सकते है, जिसमें जम्मू-कश्मीर में चुनाव, यूसीसी, नये दो आपराधिक कानून विधेयक, महिला आरक्षण बिल आदि शामिल हो सकते हैं। ‘‘सूत्रों’’ की उक्त ब्रेकिंग न्यूज को ‘‘सही’’ ठहराने के लिए ही अगले दिन पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय कमेटी बनाई जाने की घोषणा कर दी जाती है, जो ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ के संबंध में अपनी रिपोर्ट/सुझाव देगी। तत्पश्चात अभी एक और ब्रेकिंग न्यूज़ चलने लग गई है कि उक्त विशेष सत्र में इंडिया का नाम भारत किए जाने का विधेयक लाया जाएगा। जबकि सरकार की ओर से यह कहा गया कि ‘‘अमृतकाल में सार्थक चर्चा’’ के लिए यह विशेष सत्र बुलाया गया है। इन सब से हटकर केन्द्रीय सरकार के प्रवक्ता केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने इन सब अटकलों का खंडन करते हुए स्पष्ट रूप से यह कहा कि आम चुनाव ‘‘समय से पहले या बाद में’’ कराने का सरकार का कोई ‘‘इरादा नहीं’’ है। शायद अरुण जेटली के ‘‘शाइनिंग इंडिया’’ के दुष्परिणाम को देखकर तो नहीं? कहीं ऐसा न हो की "कच्ची सरसों पेर की खली होय न तेल"।</p><p style="text-align: justify;"><b>समिति की ‘‘निष्पक्षता की गुणक्ता’’। </b></p><p style="text-align: justify;">देश के इतिहास में यह भी शायद पहली बार हुआ है, जब पूर्व राष्ट्रपति को किसी ‘‘कमेटी का अध्यक्ष’’ बनाया गया हो, जो ‘‘राजनैतिक सक्रियता’’ का एक भाग है। इसके साथ नहीं, बल्कि 24 घंटे के भीतर इस कमेटी में 7 सदस्य जोड़कर उनका गजट नोटिफिकेशन भी जारी कर दिया गया। पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में बनी समिति को एक ‘‘नोटंकी’’ बताने वाले कांग्रेस ने कमेटी में शामिल किये गये लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी ने समिति की "शुचिता", वैधता पर प्रश्नचिन्ह न लगाकर इस्तीफा नहीं दिया? बल्कि राज्यसभा में विपक्ष के नेता व कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को समिति में शामिल न करने के विरोध में दिया। अब स्पष्ट है कि कमेटी की वैधता, शुचिता, आवश्यकता, गुण व बिना एजेंडा या कहें कोई गुप्त एजेंडा लिए अस्पष्ट कार्यकाल के साथ यह विशेष सत्र बुलाया गया है। यानी कि "प्रारब्ध बन गया है, शरीर रचना भर शेष है"।</p><p style="text-align: justify;">वर्ष 2022 में भी चुनाव आयोग ने स्पष्ट रूप से कहा कि वह एक साथ चुनाव कराने के लिए तैयार है, परंतु इसके पहले संविधान में आवश्यक संशोधन करना होगा। केंद्र सरकार ने भी पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में गठित कमेटी के नोट में अपने कदम के समर्थन में वर्ष 1999 की जस्टिस पी जीवन रेड्डी के लॉ कमीशन की 170 वीं रिपोर्ट का उल्लेख किया है। अतः उक्त कारणों से इस मुद्दे पर सिद्धांत रूप से समस्त लोगों की सहमति होने के बावजूद यह ‘‘राजनीति’’ ही है, जो ‘‘श्रेय लेने-देने’’ की राजनीति के चक्कर में "विरोध के स्वर" उठाए जा रहे हैं।</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-9701174527873474162023-09-06T05:43:00.012-07:002023-09-07T05:53:29.749-07:00एक राष्ट्र एक चुनाव पर अनावश्यक बहस’’ क्यों?<p style="text-align: justify;"> ‘‘सही नीति’’ होने के बावजूद पूर्णतः धरातल पर ‘स्थायी’ रूप से लागू करना संभव नहीं!</p><p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgWHntkrFpUukRwGA5b6z-oCoxpxAWb9qOZrSdQHpuIaXu5DzNGLQqYFnHGV51AfTTNQgp7otS84Dm-PhxIDiJokO4KMa4o64QlWWCB3BaCyBK5tVwLGoUfcHDaDhNm3zNo2cGpwXci80ifq6GR-Nm1p4E_f64K-KVfbvZrPvtlCZpJQxz6a7BJfcaLeYQ/s297/images%20(20).jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="170" data-original-width="297" height="170" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgWHntkrFpUukRwGA5b6z-oCoxpxAWb9qOZrSdQHpuIaXu5DzNGLQqYFnHGV51AfTTNQgp7otS84Dm-PhxIDiJokO4KMa4o64QlWWCB3BaCyBK5tVwLGoUfcHDaDhNm3zNo2cGpwXci80ifq6GR-Nm1p4E_f64K-KVfbvZrPvtlCZpJQxz6a7BJfcaLeYQ/s1600/images%20(20).jpg" width="297" /></a></div><p></p><p style="text-align: justify;"><b>एक राष्ट्र एक चुनाव फिलहाल ‘‘यूसीसी’’ समान एक ‘‘शिगूफा’’ तो नहीं</b>।</p><p style="text-align: justify;">प्रश्न क्या ‘‘एक राष्ट्र एक चुनाव नीति’’ अभी लागू की जाना जरूरी है, उससे पहले यह प्रश्न यक्ष उत्पन्न होता है कि क्या सरकार वास्तव में इस संबंध में गंभीर भी है? यदि सरकार वास्तव में कोई संशोधन बिल लाना ही चाहती होती तो, उक्त उद्देश्य को इस विशेष सत्र बुलाने की घोषणा में समावेश कर लेती। जैसा कि पूर्व में जब-जब विशेष सत्र बुलाए गए हैं, तो उनके उद्देश्य घोषित किए गए थे। तदनुसार संसद में उन विषयों पर कार्यवाही भी हुई। चूंकि वर्तमान में कोई उद्देश्य (एजेंडा) घोषित किये बिना बुलाए इस विशेष सत्र में सरकार इस संबंध में कोई विधेयक लाएगी, इसकी संभावनाएं इसलिए भी नगण्य सी लगती हैं कि, एक तरफ सरकार ने इस संबंध में एक कमेटी ही बना दी है, तब उसकी रिपोर्ट/सिफारिश आने तक तो इंतजार करना ही होगा। यह रिपोर्ट 15 दिन के अंदर आ जाए, ऐसा संभव लगता नहीं है। क्योंकि इस कमेटी का कार्यकाल का समय स्पष्ट रूप से ‘‘निश्चित’’ नहीं किया गया है। दूसरी ओर, संसदीय मंत्री का यह कथन कि कमेटी की रिपोर्ट आयेगी, जिस पर चर्चा होगी। परन्तु उन्होंने भी यह नहीं कहा कि इसी ‘‘विशेष सत्र में ही’’ चर्चा होगी। इसलिए मीडिया या विपक्ष का इस संबंध में हंगामा खड़ा करना उचित नहीं है। वैसे भी जिस प्रकार ‘‘यूनीफार्म सिविल कोड’’ को लेकर सरकार ने विस्तृत जन चर्चा कराई और मीडिया ने खूब सुर्खियां भी बटोरी। परन्तु आज वह ‘‘कोड’’ संसद में किस कोने पर है? कहने की आवश्यकता नहीं है। जोर खरोश से ‘‘सीएबी’’ पारित होने के बावजूद आजतक नियम न बनाये जाने के कारण धरातल पर लागू नहीं किया जा सका। क्यों? </p><p style="text-align: justify;"><b>विपक्ष की प्रतिक्रियाएं।</b> </p><p style="text-align: justify;">‘‘हर शख्स बुद्धिमान है, जब तक वह बोलता नहीं’’, इस सिद्धांत के धुर विरोधी राहुल गांधी के इस संबंध में दिए गए बयान की बात कर लेते हैं। देश की विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस जो ‘‘इंडिया’’ को लीड करती हुई दिख रही है, के सर्वोच्च प्रभावशाली नेता राहुल गांधी का यह कथन की ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ ‘‘संघवाद पर चोट है’’ न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि यह उनकी समझ पर भी ‘‘प्रश्न वाचक चिन्ह’’ फिर लगाता है, जैसा की उनकी भारत यात्रा के पूर्व कई अवसरों पर लगाया जाता रहा है। प्रश्न यह है कि क्या केंद्रीय सरकार ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ के द्वारा कोई नई चीज ला रही है, नई बात कह रही है? बिल्कुल भी नहीं। राहुल गांधी आलोचना में कभी इतने अंधे हो जाते हैं कि जब वे इस मुद्दे पर आलोचना करते हुए यह कह जाते हैं कि यह ‘‘संघवाद पर आघात’’ है, तो वे यह भूल जाते हैं कि वर्ष 1952 से लेकर 1967 तक हुए चुनाव ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ के तहत ही हुए थे। तब समस्त समय कांग्रेस की सरकारे ही थी। क्या तब भी वह संघवाद पर आघात था? ‘‘हंसुआ के ब्याह में खुरपी के गीत गाने वाले’’ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने विरोध करते हुए कहा कि मोदी सरकार चाहती है कि लोकतांत्रिक भारत धीरे-धीरे तानाशाही में तब्दील हो जाए. एक राष्ट्र, एक चुनाव पर समिति बनाने की ये नौटंकी भारत के संघीय ढांचे को खत्म करने का एक हथकंडा है। ‘‘हमारे घर आओगे क्या लाओगे, तुम्हारे घर आएंगे क्या खिलाओगे’’ के आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि देश के लिए क्या जरूरी है, वन नेशन वन इलेक्शन या वन नेशन वन एजुकेशन (अमीर हो या गरीब, सबको एक जैसी अच्छी शिक्षा), वन नेशन वन इलाज (अमीर हो या गरीब, सबको एक जैसा अच्छा इलाज), आम आदमी को वन नेशन वन इलेक्शन से क्या मिलेगा।</p><p style="text-align: justify;"><b>यह कोई नई नीति नहीं, पूर्व प्रचलित प्रणाली ही है।</b> </p><p style="text-align: justify;">जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूं कि ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ कोई ‘‘नया सिद्धांत’’ ‘‘नीति’’ या ‘‘प्रणाली’’ नहीं है। बल्कि वर्ष 1952 से लेकर वर्ष 1967 तक वर्तमान (समय-समय पर संशोधित) जनप्रतिनिधित्व कानून के अंतर्गत ही इस देश में इसी नीति के तहत सफलतापूर्वक चुनाव होते रहे हैं। इसलिए इस नीति के ‘गुण’ (मेरिट्स) पर सिद्धांत न तो कोई आपत्ति की जा सकती है और नहीं कोई विवाद हो सकता है। इस नीति को पुनः धरातल पर उतारने से न केवल समय की बचत होगी, बल्कि भारी धन अपव्यय होने से भी बचेगा। क्योंकि जब स्थानीय निकायों से लेकर विधानसभा, लोकसभा के चुनाव होते हैं, तब दो-ढाई महीने पूर्व से चुनाव की तारीख की घोषणा के साथ ही आचार संहिता लागू कर दी जाती है और सरकार को नीतिगत निर्णय लेने से चुनाव आयोग द्वारा रोक दिया जाता है। वैसे समय-समय पर विभिन्न राजनेता गण इसकी वकालत करते रहे हैं। चुनाव आयोग ने वर्ष 82-83 में एक साथ चुनाव कराने के संबंध में सुझाव दिए थे। दिसम्बर 2015 में संसद की स्थायी समिति ने अपनी 79वीं रिपोर्ट में 1999 की बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाले ला कमीशन की 170 वीं रिपोर्ट के आधार पर दो चरणों में चुनाव करवाने की सिफारिश की थी? वर्ष 2017 में नीति आयोग ने भी एक साथ चुनाव का विश्लेषण ‘‘क्या, क्यों और कैसे’’ नाम से वर्किंग पेपर में किया था। वर्ष 2018 में जस्टिस बी एस चैहान की अध्यक्षता में गठित विधि आयोग ने भी संबंध में एक रिपोर्ट दी थी, जिसमें राजनैतिक दलों से विचार-विमर्श के साथ पांच संवैधानिक संशोधन करने की जरूरत बतलाई थी।</p><p style="text-align: justify;"><b>आम सहमति प्रथम प्राथमिकता</b>। </p><p style="text-align: justify;">सरकार ने कमेटी की घोषणा जिस समय की है, उसकी ‘‘टाइमिंग’’ को लेकर जरूर सरकार को कटघरे में खड़ा करने का एक मौका अवश्य विपक्ष को दे दिया है। प्रश्न फिर वही है कि वास्तव में क्या सरकार इस मुद्दे पर संजीद है? क्योंकि यदि वास्तव में इसको धरातल पर उतारना है, तो कानून में संशोधन करने के पहले केंद्रीय सरकार का यह महत्वपूर्ण दायित्व बनता है कि वह ‘‘हंडिया चढ़ा कर नोन ढूंढने न निकले’’ बल्कि पहले समस्त राज्य सरकारों से इस संबंध में बात कर ‘‘सहमति बनाने का प्रयास अवश्य करें’’ और यदि सहमति बन जाती है, तब फिर कानून में कोई संशोधन करने की आवश्यकता ही उत्पन्न नहीं होगी। जैसा कि कहा जाता है कि ‘‘वक्र चंद्रमहि ग्रसहुं न राहु’’। इसी वर्ष जुलाई 2023 में संसद में सांसद किरोड़ी लाल मीणा द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल का एक साथ चुनाव कराने के संबंध में यह जवाब था कि राजनीतिक दलों की आम सहमति के साथ देश का ‘‘संघीय ढांचा’’ होने के कारण राज्यों के साथ ‘‘सहमति’’ बनाए जाने की आवश्यकता है। साथ ही ऐसा किये जाने पर कई हजार करोड़ का खर्चा ‘‘ईवीएम’’ का बढ़ जाएगा। जबकि ‘‘एक साथ चुनाव’’ के पीछे का मुख्य उद्देश्य समय-धन कम करना ही बताया जा रहा है। वर्ष 1967 के बाद जब यह स्थिति उत्पन्न हुई है, जहां अधिकतर जगह केंद्र राज्यों के चुनाव अलग-अलग समय में होने लगे हैं, तो वह कानून में कोई परिवर्तन होने के कारण नहीं हुए हैं, बल्कि राजनीतिक परिस्थितियों के घटने के कारण वैधानिक रूप से उत्पन्न हुए हैं।</p><p style="text-align: justify;"><b>एक साथ चुनाव क्या ‘‘स्थाई’’ ‘‘रूप-स्वरूप’’ ले सकेगा?</b></p><p style="text-align: justify;">आम सहमति न होने के की स्थिति में संवैधानिक संशोधन किए जा कर एक साथ लोकसभा विधानसभा के चुनाव एक या दो चरण में करने के बावजूद क्या भविष्य में भी यही स्थिति हमेशा रह पाएगी? देश की राजनीतिक स्थिति को देखते हुए यह बिल्कुल भी संभव नहीं है। भविष्य में केंद्र या राज्यों की सरकारें किसी भी कारण से गिरने से या भंग किये जाने की स्थिति में यह चक्र टूटना लाजिमी है। क्योंकि यह कानून नहीं बनाया सकता कि एक बार चुनी गई सरकार 5 साल की पूर्ण अवधि पूरा करेगी। चाहे संसद या विधानसभा में बहुमत हो अथवा नहीं। अथवा उनकी संसद या विधानसभा भंग करने की सिफारिश नहीं मानी जाएगी? हमारे देश में संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली है। अमेरिका के समान राष्ट्रपति प्रणाली नहीं है, जहां राष्ट्रपति प्रतिनिधि सभा या सीनेट के प्रति जिम्मेदार नहीं होता है। वैसे यह राज्य सरकार की नहीं बल्कि केन्द्र सरकार की समस्या ज्यादा है। तब फिर इस तरह की कवायद करने का अर्थ क्या है?</p><p style="text-align: justify;">वैसे चुनाव आयोग को यह अधिकार है कि वह चुनाव को निर्धारित समय के साथ छः महीने पहले या छह महीने बाद तक कर सकती है। यदि चुनाव आयोग के इस अधिकार क्षेत्र को छः महीने की जगह 1 साल का अधिकार दे दिया जाये तो वह समस्त समस्या का व्यवहारिक हल यथा संभव उक्त ‘‘गोल’’ के निकट तक निकाल सकता है।</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-7352862028000723842023-09-01T05:02:00.009-07:002023-09-01T05:26:52.394-07:00 ‘‘गैस सिलेंडर में ₹200 की छूट का ‘‘अर्थ’’, ‘‘अर्थशास्त्र’’ और ‘‘राजनीति शास्त्र’’! तथा पक्ष-विपक्ष के बीच ‘‘शास्त्रार्थ’’!<p style="text-align: justify;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhIHBorghgqbVBqzXxIcyBkiADfStqyXp9RJ4P9PH3aydEqA2bEyyXK2GUlQgWv7dRIMqBrFfDF-yxtHjX8kTAB5Qlxe1eLeoskGgjYRu0za5L92-CoYEWM7Cm7UldxnQAQ4dnjfLaGDECwmNf1DJ8wPSuJtsd3Y5FqpOXrnLBW-cGA1QQff3WKNaiGHnI/s289/download%20(23).jpg" style="clear: right; display: inline; float: right; font-weight: bold; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="174" data-original-width="289" height="174" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhIHBorghgqbVBqzXxIcyBkiADfStqyXp9RJ4P9PH3aydEqA2bEyyXK2GUlQgWv7dRIMqBrFfDF-yxtHjX8kTAB5Qlxe1eLeoskGgjYRu0za5L92-CoYEWM7Cm7UldxnQAQ4dnjfLaGDECwmNf1DJ8wPSuJtsd3Y5FqpOXrnLBW-cGA1QQff3WKNaiGHnI/s1600/download%20(23).jpg" width="289" /></a></p><p style="text-align: justify;"><b>भूमिका</b></p><div style="text-align: justify;">चुनावी वर्ष में हिंदू रीति रिवाज और त्योहारों का ख्याल हर राजनीतिक पार्टी बड़ी ‘‘चिंता’’ से ‘‘चिंता जनक स्थिति’’ को दूर करते हुए करती रही है। सर्व-धर्म, सर्वभाव की सिर्फ कल्पना ही नहीं, बल्कि दावा करने वाले समस्त राजनीतिक दल होते हैं। परंतु अन्य धर्मों के प्रति चुनावी वर्ष में भी वे उतने उदार होते हुए दिखते नहीं हैं, जितने हिंदू धर्म के प्रति। कारण! देश की लगभग 80% जनसंख्या हिंदू धर्म को मानने वाली है। आईये, प्रधानमंत्री की इस घोषणा के अर्थ और उसके पीछे छुपे समस्त ‘‘अर्थ’’ और ‘‘अनर्थ’’ का कुछ बारीकी से अध्ययन कर लें।</div><div style="text-align: justify;"><b>प्रधानमंत्री का "रक्षाबंधन" पर "सत्ता बंधन" को मजबूत करने का प्रयास।</b></div><div style="text-align: justify;">शायद इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गैस उपभोक्ताओं को रसोई गैस सिलेंडर की कीमत में ₹200 की राहत की घोषणा की है, जिसमें 33 करोड़ एलपीजी उपभोक्ताओं को फायदा मिलेगा। ‘‘उज्ज्वला योजना’’ के अंतर्गत ₹200 सब्सिडी देने की घोषणा की है। इस प्रकार उक्त योजना में कुल ₹400 का फायदा एक गृहिणी को होगा। साथ ही 75 लाख नए गैस कनेक्शन ‘‘उज्जवला योजना’’ में जारी होने की घोषणा भी की गई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजनीति से परे शुद्ध नीतिगत, जनोन्मुखी, कल्याणकारी योजना ‘‘उज्ज्वला योजना’’ वर्ष 1 मई 2016 में प्रारंभ की थी, जो वोट पाने की ‘‘लालच’’ से नहीं थी, क्योंकि तब न तो कोई चुनाव थे, और न ही चुनावी घोषणा पत्र में इस योजना का कोई उल्लेख किया गया था। अब रक्षाबंधन के अवसर पर प्रधानमंत्री ने ‘‘सत्ता विखंडन’’ से बचाने के लिए देश की बहनों को ₹200 का रक्षाबंधन का उपहार देकर ‘‘सत्ताबंधन’’ को मजबूत करने का प्रयास ही किया है। सफल कितना होगा? यह तो आगे समय ही बतलाएगा। प्रधानमंत्री ने रक्षाबंधन के अवसर पर ‘‘बहनों’’ का उल्लेख किया है, जैसा की समाचार पत्रों में पूरे पेज के विज्ञापनों से भी सिद्ध होता है। परंतु साथ ही रक्षाबंधन के साथ ‘‘मलयाली ओणम त्योहार’’ जो किसानों का एक बड़ा त्योहार होता है, का उल्लेख नहीं किया है। शायद इसलिए कि ओणम हिंदुओं का त्योहार होने के बावजूद वह सिर्फ मुख्य रूप से केरल प्रदेश तक ही सीमित है, जहां ‘‘लेफ्ट की सरकार’’ है।</div><b><div style="text-align: justify;"><b>सिलेंडर की कीमत का आधार एवं गणित।</b></div></b><div style="text-align: justify;">देश में घरेलू एलपीजी की कीमत का निर्धारण मुख्यतः दो बातों पर निर्भर करता है। एक इंपोर्ट पैरिटी प्राइस (आईपीपी) के फार्मूले से तय होते हैं। भारत में आईपीपी का बेंचमार्क सऊदी अरब की सरकारी तेल कंपनी ‘‘सऊदी अरामको’’ एलपीजी की कीमत तय करती है। नवंबर 2020 की तुलना में गैस के दाम में 104 फीसद की बढ़ोतरी की गई। उस वक्त एलपीजी की दर 376.3 प्रति मीट्रिक टन थी, जो अभी 769.1 डॉलर प्रति मीट्रिक टन पर पहुंच गई है। वर्ष 2014 में यूपीए सरकार के समय सऊदी अरामको एलपीजी की कीमत 1010 डॉलर प्रति मीट्रिक टन थी, जो जनवरी 2023 में घटकर 590 डॉलर मीट्रिक टन हो गई। कच्चे तेल का भी यही हाल है। नवंबर 2020 में कच्चे तेल की दर 41 डॉलर प्रति बैरल थी, जो मार्च 2022 में 115.4 डॉलर पर पहुंच गई। यूपीए सरकार के समय वर्ष 2014 में सिलेंडर के दाम ₹410 थे, जब कच्चे तेल की कीमत 106.85 डॉलर प्रति बैरल के उच्च अंक पर थी, जिस पर जनता को सहूलियत देने के लिए 827 रुपए की सब्सिडी दी जाती थी। यूपीए सरकार की विदाई के बाद एनडीए सरकार में पहली बार 1 मार्च 2015 को गैस सिलेंडर की कीमत बढ़कर 610 रुपए हुई, जो बढ़कर 1 मार्च 2018 में 689 रू. हुई और 1 मार्च 2020 में 805.50 रू. होकर वर्तमान में 1103 रु. हो गई। इसका मुख्य कारण लगातार सब्सिडी को घटाना भी रहा है। वर्ष 17-18 में 23464, 18-19 में 37209 करोड़, 19-20 में 24172 करोड़, 20-21
में 11896 करोड़, 21-22 में मात्र 242 करोड़ सब्सिडी घटकर रह गई है। </div><div style="text-align: justify;">कीमत तय करने का दूसरा आधार डॉलर और रुपए का कन्वर्जन मूल्य है, जहां रुपये की कीमत लगातार गिरती जा रही है। स्पष्ट है कि 2020 में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में एलपीजी के दामों में तेजी से बढ़ने से व देश में सब्सिडी लगातार कम किये जाने के कारण गैस की कीमत वर्तमान में 1103 रू. तक पहुंच गई। इसमें ही ₹ 200 की छूट प्रदान की गई है।</div><div style="text-align: justify;"><b>कीमत घटाने के पीछे की राजनीति।</b></div><div style="text-align: justify;">अब इस रसोई गैस की कीमत कम करने के पीछे की न ‘‘नीति’’ न ‘‘अर्थनीति’’ बल्कि ‘‘राजनीति’’ को भी समझ लीजिए। रसोई के ईंधन के अन्य साधन लकड़ी, कोयला, कोक, मिट्टी का तेल इत्यादि को महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक विश्व स्वास्थ्य संगठन का हवाला देते हुए तब बतलाया जाता है, जब धरेलू गैस की कीमतें सरकारें चाहे केंद्र की हो अथवा राज्यों की हों, कम करती है। परंतु आश्चर्य की बात तब होती है, जब ये ही सरकारें इनकी कीमत बढ़ाई जाती हैं, तब उन्हे महिलाओं के ‘‘स्वास्थ्य’’ का ध्यान बिल्कुल भी नहीं रहता है। यही ‘‘राजनीति’’ है, ‘‘नीति’’ नहीं। महंगाई की दौर में गैस कीमतों में की गई कमी को इस तरह से भी देखिये कि जिस प्रकार यूपीए-1 की तुलना में यूपीए-2 के असफल होने से उन्हें सत्ता से वंचित होना पड़ा था। ठीक लगभग कुछ वैसी ही स्थिति एनडीए-1 की तुलना में एनडीए-2 की वर्तमान में हो गई हैं। एनडीए के प्रथम कार्यकाल में मात्र 135 रू. गैस की कीमत में बढ़ोतरी हुई, जबकि वर्तमान द्वितीय कार्यकाल में कुल 645 रू. की की गई। इस कारण से प्रधानमंत्री कहीं न कहीं सत्ता जाने की आशंका से ग्रस्त हो गए लगते हैं। इस कारण चुनावी वर्ष में कुछ न कुछ राहत देते हुए कार्रवाई करते दिखते जाना राजनैतिक मजबूरी भी बन गई थी।</div><b><div style="text-align: justify;"><b>छोटे व्यावसायिक उपयोग की एलपीजी पर राहत क्यों नहीं?</b></div></b><div style="text-align: justify;">कांग्रेस प्रवक्ता सांसद रणदीप सुरजेवाला का यह कहना है कि इन साढ़े 9 सालों में मोदी सरकार ने लगातार गैस के दाम बढ़ाकर 8 लाख 33 हजार करोड़ (यूपीए-एनडीए के समय गैस की कीमत के अंतर के आधार पर की गई गणना) से ज्यादा की वसूली जनता से की है। यद्यपि यह आकड़ा सत्यापित नहीं है और अतिरंजित भी हो सकता है, क्योंकि उक्त गणना में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों में हुए उतार चढ़ाव के प्रभाव को शामिल नहीं किया गया लगता है। वास्तव में कीमतों में कमी का निर्णय यदि नीतिगत होता तो, जिस प्रकार घरेलू उपयोग की एलपीजी के लिए ‘‘उज्जवला योजना’’ बनाई गई, तब क्या व्यावसायिक उपयोग में आने वाली एलपीजी गैस के लिए भी कोई योजना नहीं बनाई जा सकती थी? एक खोमचे वाला, ढाबे, ‘‘चाय’’ की गुमठियों, छोटी होटलें जो जीएसटी की पंजीयन की सीमा में नहीं आती है और बड़ी होटलें तथा 3-5-7 स्टार होटलों में उपयोग में आने वाली सिलेंडर के दाम एक समान नहीं रखे जाते? साथ ही शादी-ब्याह, भंडारा में सिलेंडर का उपयोग व्यावसायिक नहीं माना जाता। स्पष्ट है, इस पर कभी भी विचार ही नहीं किया गया, क्योंकि इस संबंध में ‘‘नीतिगत’’ निर्णय लेने से परहेज किया गया। प्रधानमंत्री के इस निर्णय से चूक भी प्रदर्शित होती लगती है। जिस प्रकार सिक्के के दो पहलू होते हैं, तलवार द्विधारी होती है, उसी प्रकार प्रधानमंत्री के गैस सिलेंडर की कीमत कम करने के निर्णय का दूसरा पहलू का एक मैसेज स्पष्ट संकेत यह भी जाता है कि प्रधानमंत्री ने एक तरह से यह स्वीकार कर लिया है कि देश की जनता महंगाई से पीड़ित है। तब इसके लिए जिम्मेदार कौन? महिलाएं जो इस कमर तोड़ महंगाई का सामना अपनी रसोई घर में ज्यादा महसूस करती हैं, वहां कुछ राहत प्रदान कर महिलाओं को अपनी और झुकाया जा सके। प्रधानमंत्री का उक्त घोषणा या कहें उद्घोषणा का उद्देश्य भी शायद यही है।</div><b><div style="text-align: justify;"><b>देश की आधी जनसंख्या (महिलाएं) का सिर्फ ‘‘वोट’’ के रूप में उपयोग। परन्तु ‘‘अपेक्षा के बदले उपेक्षा’’।</b></div></b><div style="text-align: justify;">देश की लगभग कुल 95.50 करोड़ मतदाताओं में से लगभग 46 करोड़ से अधिक मतदाता महिलाएं है, जिन पर सावन का तथाकथित उपहार (जो वस्तुतः उपहार न होकर यह उनका हक है) के ‘‘भार का दबाव’’ बनाकर संतुष्ट कर सत्ता फतेह की जा सके। परंतु समस्त राजनीतिक पार्टियों कुल मतदाताओं का लगभग आधा भाग महिलाओं के मतों (वोट) की ‘‘आशा’’ की टकटकी लगाये समानांतर जब लोकतंत्र में चुनावों में जनता के बीच जाने के लिए टिकट देने की बात आती है, तब समस्त राजनीतिक दल महिलाओं की लगभग 50% की भागीदारी को बहुत आसानी से सुविधाजनक रूप से भूल जाते हैं। दुखद विषय तो यह भी है कि महिलाएं भी इस ‘‘भूल’’ की सजा उन राजनीतिक पार्टियों को चुनाव में नहीं देती है। शायद इसी कारण से जब सत्ता में भागीदारी की बात उठती है, तब समस्त नेतागण महिलाओं की एकजुटता न रहने के कारण अपेक्षा के बदले उनकी ‘‘उपेक्षा’’ जब तब करते रहते हैं। इसलिए सिद्धांत रूप से समस्त राजनीतिक दलों में सहमति होने के बावजूद आज भी संसद में लोकसभा-विधानसभा की 33% सीटों पर आरक्षण का कानून पारित नहीं हो पाया है। यह सिर्फ महिलाओं का ही नहीं, देश का भी दुर्भाग्य है।</div><div style="text-align: justify;">तथापि जहां तक मध्य प्रदेश का सवाल है, शिवराज सिंह की सरकार ने महिला के जन्म लेने से लेकर मृत्यु तक संपूर्ण समृद्ध जीवन के लिए 147 सरकारी योजनाएं लागू की है, जिस कारण आधी जनसंख्या को फायदा शिवराज सिंह को निश्चित रूप से मिलेगा। प्रश्न यह जरूर है कि यह फायदा निर्णयात्मक होगा अथवा नहीं?</div><div></div>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-15758189967634015632023-08-27T05:23:00.002-07:002023-08-27T05:23:49.307-07:00‘‘क्या पीएम मोदी के चेहरे पर लड़ा जाएगा? मध्यप्रदेश का चुनाव।’<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjrXJ5sS4Rl0Fnz1EMr8569et4FthSfXNR-tM8P4ix1JK-2UQ7HRc-YhFQwpkwzL9IrKCn-zLiYH_LbjymAF71KNH4d4haG1YC62evn7D83uNiaOFJ6Ftu_Qs7kgiLDhShplIkCpY8ftIKgBUbLfD1UgcSot1rnat5-5zWadeaLwhSAJlp1hm23y0U5WRA/s259/download%20(22).jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="194" data-original-width="259" height="194" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjrXJ5sS4Rl0Fnz1EMr8569et4FthSfXNR-tM8P4ix1JK-2UQ7HRc-YhFQwpkwzL9IrKCn-zLiYH_LbjymAF71KNH4d4haG1YC62evn7D83uNiaOFJ6Ftu_Qs7kgiLDhShplIkCpY8ftIKgBUbLfD1UgcSot1rnat5-5zWadeaLwhSAJlp1hm23y0U5WRA/s1600/download%20(22).jpg" width="259" /></a></div><p></p><p style="text-align: justify;"><b>आज तक का सर्वे-‘‘एनडीए-306</b>’’</p><p style="text-align: justify;">हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित भारी हार ने भाजपा नेतृत्व के माथे पर चिंतन की भारी लकीरें खीच दी हैं। चिंतन की लकीरे सिर्फ आगामी होने वाले 4 राज्यों के विधानसभा चुनावों को लेकर ही नहीं हैं। इनमें से दो राज्यों में तो कांग्रेस सत्ता में है तथा एक में भाजपा ने जनादेश का मानमर्दन कर सत्ता प्राप्त की, तथा एक अन्य प्रदेश तेलंगाना में भाजपा लगभग नगण्य स्थिति में है। भाजपा हाईकमान को चारों प्रदेशों से मिल रही लगातार चिंतनीय खबरों को देखते हुए चिंता का मुख्य कारण विधानसभा चुनाव न होकर वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव हैं, जहां अभी तक भाजपा 300 के पार का दावा करती थकती नहीं थी। परन्तु अब बहुमत पाने के ही लाले पड़े रहे है। ‘‘आज तक’’ (इंडिया टुडे-सी-वोटर) के नवीनतम सर्वे में आज चुनाव होने पर एनडीए को 306 (भाजपा को नहीं, जो आंकडा पिछले चुनाव में था) सीटे मिलती हुई दिख रही हैं। वोटों के हिसाब से 43 प्रतिशत एनडीए एवं 41 प्रतिशत इंडिया को मिलने की संभावना बताई गई है। हम सब जानते है कि मुख्य धारा के न्यूज चैनलस् की मजबूरी आर्थिक व राजनीतिक दबाव के कारण कहीं न कहीं भाजपा को वस्तु स्थिति को बढ़ाकर बढ़त दिखाने की होती है। इसलिए इस सर्वे से यह तो स्पष्ट है कि एनडीए को ही बहुमत के लाले पड़ रहे हैं। क्योंकि सर्वो में सामान्यतया भाजपा को कहीं न कही 20-25 प्रतिशत तक वास्तविकता से ज्यादा बढ़त दिखाने का प्रयास सर्वे एजेंसियां अपने हितों को सुरक्षित करने के कारण करती ही है। "अंतर अंगुली चार का, झूठ सांच में होय"। वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को देखते हुए ऐसा होना स्वाभाविक भी है। </p><p style="text-align: justify;"><b>भाजपा की चिंता</b></p><p style="text-align: justify;">अतः यदि आगामी होने वाले विधानसभा चुनाव में विपरीत परिणाम मिलते हैं, जैसे कि लगभग आसार/आशंका लगातार व्यक्त की जा रही है, तो इसका निश्चित ‘‘दुष्प्रभाव’’ लोकसभा चुनाव पर पड़ना स्वभाविक है। तब शायद एनडीए को भी बहुमत पाने के ‘‘लाले’’ पड़ जाये। "आवाज़े ख़ल्क़ को नक्कारा ए ख़ुदा समझना चाहिए"। यही कारण है कि संघ व भाजपा का नेतृत्व इन राज्यों में खासकर मध्यप्रदेश में जहां लगातार चिंतन, मंथन भी अभी तक निश्चयात्मक परिणाम दशा, दिशा तय नहीं कर पा रहे हैं। देश का हृदय प्रदेश मध्य प्रदेश वह प्रदेश रहा है, जो भाजपा की मूल जनसंघ की कर्मभूमि रही है, जिसे वर्तमान भाजपा की प्रयोगशाला कहा जाए जो गलत नहीं होगा। यद्यपि पिछली विधानसभा के चुनाव परिणामों ने यह भी सिद्ध किया है कि विधानसभा चुनावों में हुई हार के बावजूद, तत्काल बाद में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हीं प्रदेशों में अच्छी खासी ही नहीं, बल्कि अप्रत्याशित सफलता प्राप्त की थी। उक्त सफलता की दोहराए जाने की संभावनाओं से पूर्णतः नकारा नहीं जा सकता है। क्योंकि तब सिंगल वोट मोदी की सरकार को देना होता है। इसके सफल होने पर ही राज्यों की ट्रेन में डबल इंजन होगा।</p><p style="text-align: justify;"> <b>प्रधानमंत्री के लगातार दौरे</b>! </p><p style="text-align: justify;"> प्रधानमंत्री के पिछले तीन महीनों में हुए मध्यप्रदेश के लगातार दौरे जिसमें भोपाल का वह चर्चित चेतावनी संदेश देने वाला दौरा भी रहा है, जिसके परिणाम स्वरूप ही महाराष्ट्र के बन गये नये वर्तमान हालात माने जा रहे हैं। अतः यह अनुमान लगाना गलत नहीं होगा कि मध्यप्रदेश में भाजपा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ने जा रही है। वैसे भी राज्यों के संबंध में यह कोई नई बात नहीं है। आप किसी भी राज्य के चुनाव को देख लीजिए, भाजपा ने वे सब चुनाव प्रायः प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर ही लड़े हैं। हिमाचल, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल का या उनके गृह राज्य गुजरात का हो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर ही विधानसभा चुनाव लड़े गये। परन्तु अब मध्यप्रदेश में प्रधानमंत्री के चेहरे के संबंध में नीति थोडी बदली गई लगती है। पहली बार शिवराज सिंह सरकार के विज्ञापनों में अब मोदी-शिवराज ( मोदी पहले शिवराज बाद में) सरकार का उल्लेख किया जा रहा है, जो पिछले आम चुनाव में नहीं था। अर्थात प्रधानमंत्री के चेहरों को शिवराज सिंह के चेहरे के साथ नहीं बल्कि उनके ऊपर रखकर शिवराज सिंह को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित न किया जाकर सिर्फ मोदी के नाम पर केन्द्रित करने की चुनावी रणनीति बनाई जा रही है। </p><p style="text-align: justify;"><b>‘‘मामा’’ के साथ अब ‘‘भाई’’ शिवराज</b></p><p style="text-align: justify;"> यदि हम मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की बात करे तो भाजपा शासित किसी भी प्रदेश की तुलना में शिवराज सिंह चौहान पिछले लगभग 17 सालों से लगातार लोकप्रिय चेहरे के रूप में रहे है। पहले ‘‘मामा’’ और अब साथ में ‘‘भाई’’ (लाडली बहना योजना के कारण) के रूप में अपनी पहचान बना रहे हैं। </p><p style="text-align: justify;"><b>सत्ता विरोधी कारक-शिवराज सिंह का चेहरा</b></p><p style="text-align: justify;">याद कीजिए वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के समय जब नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री के पद के लिए नाम आया था, तब लालकृष्ण आडवानी ने शिवराज सिंह का नाम आगे किया था। इससे उनकी महत्ता स्थापित होने के बावजूद और पंचायत स्तर तक उनकी लोकप्रियता व अपनी पहचान बनाये रखने के बावजूद यदि भाजपा को मध्यप्रदेश में अलग तरीके से मोदी का चेहरा बनाना पड़ रहा है या बनाया जायेगा, तो इसका कारण एकमात्र यही है कि शिवराज सिंह चौहान ने इस समय अपने व्यक्तित्व केे स्वरूप को बड़ा कर दूधारू तलवार के रूप में बना लिया है। शिवराज सिंह ने प्रदेश में नया नेतृत्व पैदा न होने के साथ दूसरे विद्यमान नेतृत्व की धार को बोठल कर दिया है। दूरस्थ अंचल तक पूरे प्रदेश में अपनी पहचान बनाई और अपना प्रभाव बनाया। इस कारण भाजपा नेतृत्व को शिवराज सिंह को छेड़ने में कहीं न कहीं भय बना रहता है। शायद इसीलिए केंद्रीय नेतृत्व शिवराज सिंह को छेड़ने से परहेज भी कर रही है। क्योंकि कर्नाटक में अपने प्रादेशिक मजबूत नेता येदुरप्पा को अपेक्षा के अनुरूप उतना महत्व न दिये जाने का परिणाम भुगत चुकी है। विपरीत इसके नेतृत्व का एक मत यह भी है कि 17 सालों की लम्बी सत्ता की कुर्सी पर विराजमान होने के कारण स्वभावत: उत्पन्न एंटी इनकंबेंसी फैक्टर (सत्ता विरोधी कारक) के पैदा होने के कारण उससे निपटने के लिए शिवराज सिंह की रवानगी ही सबसे सफल अस्त्र होगा। सबसे प्रमुख लक्षण जो चिंताजनक है, वह सत्ता विरोधी कारक संगठन अथवा सत्ता के प्रति उतना नहीं है, जितना शिवराज सिंह के व्यक्तिगत चेहरे को लेकर है। यह तो वही बात हो गयी कि "बूढ़ा हाथी फ़ौज पर भारी"। </p><p style="text-align: justify;">शायद इसीलिए इसके पूर्व ‘‘अबकी बार शिवराज सरकार’’ का नारा देने वाले कार्यकर्ताओं से जब बात करते है तो वे अब यह कहते हैं कि ‘‘अबकी बार भाजपा सरकार’’ लेकिन चेहरा शिवराज सिंह चौहान का नहीं। पार्टी के समर्थक लोग भी जो सामान्यतया कोई कमियां या बुराइयां नहीं गिनाते है, वे भी यही कहते है कि अब तो बख्सो शिवराज! अतः शिवराज के चेहरे व नाम से ऊब सी गई है, जो सिर्फ कार्यकर्ताओं में नहीं बल्कि उस आम जनता के बीच में भी है, जिनके लिए शिवराज सिंह ने पैदा होने से लेकर जीवन की अंतिम यात्रा तक में निर्धन वर्गो के लिए विभिन्न योजनाएं लागू की है। राजनीति का यह नया और विरोधाभास विरोधाभासी चेहरा, व्यक्तित्व शिवराज सिंह का बन गया है, जिसका सफलता पूर्वक सामना करने की समझ भाजपा अभी तक बना नहीं पा रही है। इसीलिए विभिन्न एजेंसीस् के लगातार आ रहे आंतरिक सर्वो में, जहां कांग्रेस को अच्छी खासी बढ़त दिखाई जा रही है और विरोधी मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में भी कमलनाथ को बढत दिखाई जा रही है, बावजूद इसके भाजपा जीत को सुनिश्चित करने के लिए चुनाव शिवराज सिंह को मुख्यमंत्री या बिना मुख्यमंत्री के रूप में लडाया जाये अथवा नहीं को अंतिम रूप से शायद कुछ समय के भीतर तय कर ही लेगी । मेरा मानना है कि यदि आगे शिवराज सिंह के जनता को लुभावने के समस्त प्रयासों के बावजूद मौजूदा परिस्थितियों में सकारात्मक झुकाव नहीं आता है, तो फिर पार्टी के पास विकल्प क्या है?</p><p style="text-align: justify;">भाजपा हाईकमान को एक संशय प्रधानमंत्री की छवि को लेकर भी है। पिछले आम चुनाव के परिणाम के समान इस आम चुनाव में भी मध्यप्रदेश में भी यदि वहीं पिछले परिणाम दोहराये गये तो, दो चुनाव लगातार हारने की स्थिति में 2024 के चुनाव में प्रधानमंत्री की जिताऊ छवि को गंभीर खतरा उत्पन्न हो सकता हैं। इसलिए मध्यप्रदेश में लगातार पार्टी संगठन के स्तर पर कसावट लाकर धरातल पर कार्यकर्ताओं को चुनाव की भट्टी में धोक रही है। पहली बार काफी समय बाद यह देखने को मिला कि भाजपा के पहले कांग्रेस ने प्रियंका गांधी की जबलपुर में सभा कराकर चुनावी एलान की घोषणा कर दीथी। याद कीजिए मध्यप्रदेश के चुनावों में प्रधानमंत्री की इसके पूर्व इतनी भागीदारी नहीं रही। 18 साल के भाजपा के शासन और प्रयोगशाला होने के बाद भी यदि आज प्रधानमंत्री के चेहरे के रूप में या नाम पर चुनाव लड़ने की नीति बनाई जा रही है, तो निश्चित रूप से भाजपा कहीं न कहीं कमजोर होती दिख रही है। पिछले विधानसभा चुनाव के परिणाम से भी यही सिद्ध होता है। प्रधानमंत्री के चेहरे का प्रभाव लड़ाई को कांटे में और कांटे की लड़ाई को जीत में बदल सकता है। "अलख राजी तो ख़लक़ राजी"।</p><span class="gmail_signature_prefix" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"></span>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-15539459744734901072023-08-16T06:35:00.003-07:002023-08-16T06:38:33.076-07:00 ‘‘राक्षस प्रवृत्ति’’ की ‘‘स्व-स्वीकृति’’<p style="text-align: justify;"><b></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh9gmVcJhpXQqa5m2KLUZjUJsY1CrL2pgOjoMmPa3FGvOtzuXif1Oel-Rdr8HCkl4Y1XdBxUrqm67oC30pTgnYA9w3xe1QI1ukxp9hyxyIs6jSPunu7EDf4UT3rvpTdKPAdRHYWkYU5yyyLOuccnDUY-LPyKtKW-CQLhoturi9S9F60RgQy5nFv_usY-Gg/s640/2023_6image_21_45_432142402kjtt.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><br /></a></b></div><b>‘श्राप’’ कहीं ‘‘भस्मासुर’’ न बन जाये।</b><p></p><p style="text-align: justify;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjIrfHBliScDCA7HBw9jCMICe2uwB7G1GYPrvG2Mtnh1RwrtQNTW0U5qbAfsU5fiF42V5EOo_keTeNnDjd9Fu2OvmilNgSsEH6AWig7v8UAmaAFlYmzFp9KFcXqvGnprUgvPw1QfIml-jZX7fbPvc3fjt773s_nE2mW3DvtGG8idTZ2SF8NpA_EC2xi47E/s640/2023_6image_21_45_432142402kjtt.jpg" style="clear: left; display: inline; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="420" data-original-width="640" height="210" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjIrfHBliScDCA7HBw9jCMICe2uwB7G1GYPrvG2Mtnh1RwrtQNTW0U5qbAfsU5fiF42V5EOo_keTeNnDjd9Fu2OvmilNgSsEH6AWig7v8UAmaAFlYmzFp9KFcXqvGnprUgvPw1QfIml-jZX7fbPvc3fjt773s_nE2mW3DvtGG8idTZ2SF8NpA_EC2xi47E/s320/2023_6image_21_45_432142402kjtt.jpg" width="320" /></a></p><p style="text-align: justify;"><b>भूमिका</b></p><p style="text-align: justify;">‘‘लोकतंत्र’’ में जनता जनार्दन ही सब कुछ ही होती है। जनता को ‘‘भगवान’’ मानते है, खासकर राजनेता गण। यह बात कहते-कहते हमारे जन नेता थक जाते हैं, फिर भी लगातार कहते है। लोकतंत्र में चुनाव परिणामों में जनता के निर्णय अर्थात ‘‘जनादेश’’ को सिर-आंखों पर रखकर ‘‘शिरोधार्य’’ किया जाता है, चाहे परिणाम आपके पक्ष में हो अथवा विपक्ष में हो। परन्तु राजनीति के इतिहास में आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ, न देखा, न पढ़ा, न कोई सोच सकता है, जैसा कि रणदीप सिंह सुरजेवाला ने उस जनता के प्रति जिसने साठ सालों से अधिक समय तक कांग्रेस को शासनारूढ़ किया, के प्रति कहा। अभी तक तो सिर्फ यह कल्पना की बात थी, लेकिन श्राप देने वाले स्वयं को ‘‘भगवान’’ की श्रेणी में रखकर अपने मुखारविंद से उक्त शब्दों को जमीन पर भी उतार दिया है। आखिर सुरजेवाला ने कह क्या दिया, जिससे इतना बड़ा बवंडर मच गया। </p><p style="text-align: justify;"><b>सुरजेवाला के ‘‘सत्य वचन’’? ‘‘आत्मघाती गोल’</b>’!</p><p style="text-align: justify;">कांग्रेस महासचिव जो खुद जनता के सीधे चुनाव में कई बार हार चुके हैं, पीछे के दरवाजे से संसद (राज्यसभा) में जरूर प्रवेश करने वाले रणदीप सिंह सुरजेवाला ने हरियाणा के कैथल के उदयसिंह किले में आयोजित जन आक्रोश रैली में बयान दिया ‘‘भाजपा का जो समर्थन करता है या जो भी उन्हें वोट देता है, वह ‘‘राक्षस प्रवृत्ति’’ का हैं। मैं उन्हें महाभारत की धरती से श्राप देता हूं’’। ‘‘अंधा कहे ये जग अंधा’’। यह कथन जनता के लिए अथवा दूसरों के लिए जरूर शर्मसार करने वाला हो सकता है। परन्तु कांग्रेस के लिए यह वास्तव में ‘‘गर्व’’ करने वाली बात है, शायद इसलिए ही उक्त बयान दिया गया है। वास्तव में इस बयान के द्वारा रणदीप सुरजेवाला ने अपनी ‘‘असलियत’’ ही स्वीकार की है। इसलिए आप काहे उनकी आलोचना कर कर उन्हें सुधरने का मौका दे रहे है? देश की लगभग जिन 37 प्रतिशत मतदाताओं ने पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को चुना, उन्हें सुरजेवाला ने राक्षस प्रवृत्ति करार ठहराया दिया। वह शायद इसलिए कि यदि कांग्रेस की ‘‘राक्षसी प्रवृत्ति’’ से निपटना है, तो जनता को भी उसी राक्षस प्रवृत्ति को ही अपनाना होगा। ठीक उसी प्रकार जैसे कि लोहा, लोहा को काटता है। यह बात जनता के दिमाग में भी है और कांग्रेस के दिमाग में तो है ही। इसलिए जब-जब आवश्यकता होती है, जनता राक्षसी स्वरूप अपनाकर रावण रूपी राक्षस को ‘‘राम’’ के सिंहासन पर आने से रोकती है। इसलिए कभी 404 सांसदों वाली पार्टी आज 52 पर ही सिमट गई। क्योंकि कांग्रेस के ‘‘अंधे हाथी अपनी ही फौज को रौंदते हैं’’। कांग्रेस की राक्षस प्रवृत्ति का स्वाभाविक परिणाम जनता की ‘‘अस्वाभाविक स्थिति’’ ‘‘राक्षस प्रवृत्ति बनकर’’आयी। </p><p style="text-align: justify;"><b>सुरजेवाला! ‘‘ऋषि’</b>’?</p><p style="text-align: justify;">सुरजेवाला का अगला कथन तो और भी खतरनाक है, जब वे यह कहते हैं कि मैं उन्हें महाभारत की धरती से श्राप देता हूं। यह कहकर उन्होंने प्रधानमंत्री के उक्त कथन की पुष्टि ही की है, जब नरेन्द्र मोदी ने ‘‘इंडिया’’ गठबंधन को ‘‘घमंडिया गठबंधन’’ कहा। क्योंकि ‘‘अक्ल और हेकड़ी दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते’’। और ‘‘अक्ल का तो आवा का आवा ही कच्चा रह गया’’। 21वीं सदी के कलयुग में ‘‘श्राप’’ देने का अधिकार यदि कोई मानव अपने पास मानता है, तो निश्चित रूप से वह भगवान के अधिकार को छीनकर घमंडी होकर ही ऐसा कर सकता है। ‘‘र्दुःविचार’’ रखने वाले सुरजेवाला शायद स्वयं को आज के ‘‘महर्षि दुर्वासा ऋषि’’ मान बैठे हैं? चूंकि हरियाणा की जनता ने उन्हें दो-बार चुनावों में हराया है। शायद कही इस कारण से तो ही नहीं उन्होंने क्रोधित होकर हरियाणा की जनता को श्राप देकर अपनी ‘‘औकात’’ दिखाई या जनता की अप्रत्यक्ष रूप से औकात में रहने को कहां? यह तो वक्त ही बतलायेगा।</p><p style="text-align: justify;"><b>‘‘अमर्यादित बिगड़ते बोलों पर रोक आखिर कब?’</b>’</p><p style="text-align: justify;">संसद, विधानसभा के अंदर कहे जाने वाले असंसदीय शब्दों को तो स्पीकर के द्वारा परिभाषित किया जा चुका है। इसकी किताब/शब्दावली भी लिखी जा चुकी है। परन्तु चुनाव आयोग ने संसद के बाहर राजनीतिक पार्टियों द्वारा बोले जाने वाले ‘‘असंसदीय’’ ही नहीं, बल्कि ‘‘अमर्यादित’’, अराजक शब्दों की कोई सूची अभी तक नहीं बनाई है। यदि टीएन शेषन समान कोई चुनाव आयुक्त आज होते तो इस बात पर वे जरूर सोचते। टीएन शेषन के जमाने में इस तरह का निम्न स्तर की इतनी गाली गलौज अपशब्द या अशोभनीय भाषा का उपयोग नहीं हुआ करता था अन्यथा वे तभी इस ‘रोग’ को भी ठीक कर देते। परन्तु आज की राजनीति के बिगड़ते हालात को देखते हुए शायद टीएन शेषन जैसा चुनाव आयुक्त आ भी जाये, तब भी वह ऐसी सूची, शब्दावली बनाने से इंकार कर देता। क्योंकि ‘‘तू डाल डाल मैं पात पात’’ की तर्ज पर जितने शब्दों को चुनाव आयोग असंसदीय घोषित करता, तत्पश्चात हमारे प्रिय नेतागण चाहे वह किसी भी झंडे के तले हो, प्रत्येक दिन नये-नये अमर्यादित, शब्दावली ले आयेगें। आखिरकार चुनाव आयोग को थककर हारकर इस मुहिम को बंद करना ही पड़ेगा। क्योंकि यह अंतहीन किताब लिखी जाने वाली हो जायेगी। वर्तमान में हमारे देश में जो लोकतंत्र है, वह ‘‘राजनीति’’ से चलता है, ‘‘नीति’’ से नहीं! आज की राजनीति की ‘‘भूमि’’ इतनी उपजाऊ हो गई है कि नये-नये गाली गलोच से भरे शब्दों की उत्पत्ति होते ही रहेगी। इसलिए कृपया सुरजेवाला को बख्श दीजिए। जनता पहले तो ‘‘इहां कुम्हड़बतिया कोऊ नाहीं’’ वाले रूख पर रहती हैं, फिर अपना रूप बदलकर सक्षम होकर सबक सिखाना भी जानती है, इसमें और किसी की सलाह की आवश्यकता नहीं है।</p><p style="text-align: justify;"><b>न तो बयान से इंकार! न क्षमा!</b></p><p style="text-align: justify;">अभी तक सुरजेवाला ने न तो इस बयान से इंकार किया और न ही कोई स्पष्टीकरण दिया है। ‘‘कहते नाहिं लाजे तो सुनते क्यों लाजे’’ कांग्रेस पार्टी ने भी न तो इस बयान की आलोचना की है और न ही इससे अपने को अलग किया है। साथ ही कांग्रेस ने इसे सुरजेवाला का निजी बयान भी अभी तक नहीं बतलाया है। हो यह जरूर कहा गया कि उनके भावार्थ को समझिए, शाब्दिक अर्थों को नहीं। तो फिर कथन के आपत्तिजनक शब्दों को अभी तक ठीक क्यों नहीं किया? अतः यहां अर्थ का अनर्थ कोई नहीं निकाल रहा है?</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-82070804433485035792023-08-11T06:21:00.008-07:002023-08-12T04:10:21.508-07:00‘‘फ्लाइंग किस’’! फ्लाइंग (‘‘हवा हवाई’’) आरोप? या शिष्टाचार!<p style="text-align: justify;"> <b>राहुल गांधी! क्या ‘‘पुनः निष्कासन की तैयारी’’?</b></p><p style="text-align: justify;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiEEliB2SD2UWu9B0JQCtpG-jUusAWekO7ArkHqjxJKQLDWPeXICqZfKpavW7nU3ZFPrjUMQcHPAHM5-roX56j077XDliFJZfo6bN1xDH9Jexk0D4AD_xsqO9us6I2bAcTrz1odUwyiAp8GKPWioXuWXQ9DYp3AjzGQZqtsncyFykN4Ic4PIH9SmeOFU04/s1200/New-Project-2023-08-09T153457.282.webp" style="clear: right; display: inline; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="900" data-original-width="1200" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiEEliB2SD2UWu9B0JQCtpG-jUusAWekO7ArkHqjxJKQLDWPeXICqZfKpavW7nU3ZFPrjUMQcHPAHM5-roX56j077XDliFJZfo6bN1xDH9Jexk0D4AD_xsqO9us6I2bAcTrz1odUwyiAp8GKPWioXuWXQ9DYp3AjzGQZqtsncyFykN4Ic4PIH9SmeOFU04/s320/New-Project-2023-08-09T153457.282.webp" width="320" /></a></p><p style="text-align: justify;"><b>धारा 354ः-</b></p><p style="text-align: justify;">कृपया भारतीय दंड संहिता की धारा 354 (यौन उत्पीड़न) का अवलोकन करें। संसद में अविश्वास प्रस्ताव के बहस के दौरान राहुल गांधी द्वारा स्मृति ईरानी के प्रति अभद्र तरीके से ‘‘अनुचित इशारा’’ (तथाकथित फ्लाइंग किस) के संबंध में केंद्रीय मंत्री शोभा करंदलाजे ने एनडीए की 20 सांसदों के हस्ताक्षर युक्त एक लिखित शिकायत स्पीकर को दी। (सदन के बाहर, कोतवाली में नहीं?) जबकि प्रेस से बातचीत करते हुए उन्होंने यह कहा कि राहुल गांधी; स्मृति ईरानी एवं सभी महिला सदस्यों को फ्लाइंग किस देकर चले गये। तथापि स्मृति ईरानी ने स्वयं के प्रति उक्त अभद्र व्यवहार का आरोप न लगाते हुए महिला सांसदों के प्रति अभद्र तरीके से अनुचित इशारे के हाव भाव के साथ स्त्री द्वेष का आरोप राहुल गांधी की तथाकथित हरकत के लगभग 35 मिनट बाद (12.47 दोप.-1.22 दोप.) (जानकारी प्राप्त होने पर?) राहुल गांधी पर लगाया। तथापि उल्लेखनीय बात यह भी है कि यौन शोषण (‘‘फ्लाइंग’’ नहीं ‘‘टच’’) के आरोपी ब्रज भूषण शरण सिंह जो आसपास दो ही लाइन पीछे बैठे थे, पर इन शिकायतकर्ता महिला सांसदों को कोई आपत्ति नहीं होती है। मणिपुर में 2 महिलाओं को वस्त्र हीन कर सार्वजनिक रूप से जुलूस में घुमाने पर कोई लिखित या मौखिक आपत्ति या बयान दर्ज नहीं कराती है? अजीब बात है ‘‘औरों को नसीहत खुद मियां फजीहत’’। </p><p style="text-align: justify;">अध्यक्ष द्वारा कार्रवाई की जाने की स्थिति में राहुल गांधी के विरूद्ध उक्त तथाकथित अपराध के लिए अधिकतम धारा 354 भादस के अंतर्गत प्रकरण दर्ज हो सकता है। वैसे अध्यक्ष की अनुमति के बिना संसद के भीतर कहे गए किसी भी कथन का आपराधिक संज्ञान न्यायालय में नहीं लिया जा सकता है। धारा 354 में न्यूनतम 1 वर्ष से अधिकतम 5 वर्ष की सजा का प्रावधान है। अर्थात 2 वर्ष से अधिक की सजा का प्रावधान होने के कारण यदि राहुल गांधी के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज होकर मुकदमा चलता है और यदि राहुल गांधी को पुनः सजा 2 साल से अधिक की हो जाती है, तो राहुल गांधी फिर से संसद से निष्कासित हो जाएंगे। इसे कहते हैं ‘‘ओखली में हाथ डाले, मूसली को दोष देवें’’। अप्रैल 2021 में चुम्बन फेंकने के एक मामले में मुम्बई की एक अदालत में 20 वर्ष के एक व्यक्ति को सजा हुई थी।</p><p style="text-align: justify;"><b>मणिपुर मुद्दा! साइड लाइनः</b>- </p><p style="text-align: justify;">दुर्भाग्यवश देश का सुलगता हुआ ज्वलंत मुद्दा ‘‘मणिपुर की हिंसा’’ पर नियमों के चक्रव्यूह में फंसने के कारण सीधे बहस न होने के कारण विपक्ष को मजबूरी में अविश्वास प्रस्ताव लाना पड़ा। परंतु यहां भी ‘‘अवसर चूकी डोमनी गावे ताल बेताल वाली बात हो गई’’, जबकि जहां बहस में सदन के माननीय सदस्य गण बजाय इस बात के कि वे मणिपुर के वर्तमान और भविष्य का स्वर्णिम इतिहास बनाने की योजना को बताते? वे मणिपुर पर कम, परन्तु एक दूसरे का इतिहास खंगालने में ज्यादा लग गए। बहस के दौरान राहुल गांधी के चुभते बाणों (कितने सही या गलत? यह अलग विषय है) से विचलित होकर ‘‘विषयांतर’’ करने के उद्देश्य से फ्लाइंग किस का मुद्दा बनाकर, उछाल कर एनडीए सफल होता हुआ दिख रहा है, जब मीडिया में राहुल गांधी के भाषण पर फ्लाइंग किस कदर हावी हो गया। दरअसल ‘‘एब को भी हुनर की दरकार होती है’’ अन्यथा ‘‘गुनाहे बेलज्जत’’ वाली स्थिति बन जाती है, यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है। </p><p style="text-align: justify;"><b>फ्लाइंग (ब्लोइंग) किस! (उड़न चुम्बन)ः</b>-</p><p style="text-align: justify;">अतः सर्वप्रथम इस बात को समझना अत्यंत जरूरी है कि ‘‘फ्लाइंग किस’’ होता क्या है? क्या यह एक अभिवादन है? सही या गलत गेस्चर (हाव भाव, इशारा) है? अथवा अनैतिक संकेत है? या ‘‘यौन अपराध’’ के अंतर्गत आता है? फ्लाइंग किस किसे ब्लोइंग (फेका हुआ) किस भी कहा जाता है, एक हाव भाव है, जो ‘‘स्नेह’’ (अफेक्शनेट) भाव, आभार का प्रतीक है। यह सामान्य रूप से कुछ दूरी से सुनने वाले समर्थकों को सामान्यतः एकनॉलेज (स्वीकार) के लिए किया जाता है। इसका प्रयोग प्रेम, आदर व आशीर्वाद व शुभकामनाएं के रूप में किया जा सकता है। इसका मूल सामाजिक अर्थय इसके माध्यम से दूसरों को अपनी खुशी और प्रेम की भावना का अनुभव कराना हैं। यह एक सामाजिक और नैतिक मापदंड का प्रतीक है। वैसे किस 20 से ज्यादा प्रकार के (लगभग 23) होते है और वे आपत्तिजनक होकर अपराध की श्रेणी में आते है या नहीं है यह आशय व परिस्थितियों पर निर्भर करता है। राहुल गांधी के संसद के पिछले सत्रों में ‘‘गले मिलने’’ ‘‘झपकी’’ से लेकर ’’आंख मारने‘‘ तक की ‘‘ऐसी करी की धोए न छूटे’’ वाली हरकतें होने के साथ ‘‘मोहब्बत की दुकान’’ कथन का बार-बार रट लगाने वाले से ‘‘फ्लाइंग किस’’ की हरकत को एकदम से नकारा भी नहीं जा सकता है। बावजूद इसके इस बात को देखना आवश्यक होगा कि राहुल गांधी के भाषण समाप्त होने के बाद और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के भाषण प्रारंभ होने के पूर्व वास्तव में राहुल गांधी ने क्या किया था? स्वयं राहुल गांधी का अभी तक इस संबंध में कोई खंडन या बयान नहीं आया है। बावजूद इसके वे इस आरोप को कम से कम में स्वीकार करने से तो रहे? तथापि प्रसिद्ध अभिनेत्री व भाजपा महिला सांसद हेमा मालिनी ने उक्त घटना को देखने से इनकार किया है। <b>‘अपराध’ का भी सत्ता पक्ष-विपक्ष के बीच विभाजन</b></p><p style="text-align: justify;">बड़ा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि राहुल गांधी जैसा कि बताया जा रहा है कि वे स्पीकर की ओर मुखबिर होकर कुछ इशारा कर रहे थे, जिनको 20 महिला सांसदों ने ‘‘फ्लाइंग किस’’ माना है। क्या वह इशारा सिर्फ भाजपा के महिला सांसदों के प्रति कैसे हो गया? जब राहुल गांधी और स्पीकर की आंसदी के बीच क्या सिर्फ वही 20 भाजपा महिला सांसद थी, जो एक साथ एक जगह नहीं, बल्कि विभिन्न जगह बैठी हुई थी? क्या हवा की दिशा (डायरेक्शन) इतनी सधी हुई थी की, "फ्लाइंग किस" किसी विपक्षी महिला सांसदों की ओर नहीं गई? अन्य बैठे पुरुष सांसदों की ओर भी नहीं गई? 20 महिला सांसदों ने अन्य महिला सांसदों को उनके साथ किए गए यौन शोषण के अपराध के विरुद्ध उनके साथ खड़े न होने के लिए संसद या संसद के बाहर लताड़ा क्यों नहीं? क्या ‘‘अपराध’’ भी भाजपा कांग्रेस को देखकर अपनी दिशा व दशा तय करेगा? </p><p style="text-align: justify;"><b>तिल का ताड़</b>?</p><p style="text-align: justify;">घटना का दूसरा विवरण यह भी है कि कुछ कागज के जमीन पर गिर जाने से राहुल गांधी कागज उठाने के लिए नीचे झुके। तब बीजेपी सांसदों के हसने पर राहुल गांधी ने ट्रेजरी बेंच की तरफ फ्लाइंग किस देते हुए मुस्कुराते हुए निकल गये। राजनीति में ‘‘तिल का ताड़’’, अथवा ‘‘राई का पहाड़’’ बनाना कोई नई बात नहीं है। परन्तु यहाँ ‘तिल’और ‘राई’ है कहां ? कम से कम यह तो बतलाइये। अभी तक जिसे तथाकथित ‘तिल’ बतलाया जा रहा है, वह ‘तिल’ का अर्थ अभी तक स्नेह पूर्वक इशारा या भाव ही लगता है। आखिर देश की संसद, संसद सदस्यों, मीडिया को हो क्या गया है? देश की गति की उड़ान पर गहन चर्चा व विचार विमर्श करने की बजाय ‘‘उड़न चुम्बन’’ पर चर्चा करके महत्वपूर्ण समय की बर्बादी क्यों की जा रही है?</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-64764318002043790592023-08-07T05:42:00.004-07:002023-08-07T05:42:26.889-07:00न्यायालय के निर्णय को ‘‘समझने की समझ’’ बनाइए/बढाइये।<p style="text-align: justify;"><b>भूमिका</b>। </p><p style="text-align: justify;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqLsZrd40aLC8S7SZWrmhdnNNUm5nMNV0TvbLcl2XuOKay-DtgHr5vzWR_jzQqYBDtuzjNshv8_IFIEmxhkZVpm_BZ8ngH3Su2GtrIEgOVZTDXPEgdRtYjsc09jcl7Cya9a2HTdTyqBov2gbrDjrqIHF7AGMSzbkFClZ1VWpS-T7o_pZ0tVMDD6Nn4FSg/s1200/rahul-gandhi-sc.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; display: inline !important; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="675" data-original-width="1200" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqLsZrd40aLC8S7SZWrmhdnNNUm5nMNV0TvbLcl2XuOKay-DtgHr5vzWR_jzQqYBDtuzjNshv8_IFIEmxhkZVpm_BZ8ngH3Su2GtrIEgOVZTDXPEgdRtYjsc09jcl7Cya9a2HTdTyqBov2gbrDjrqIHF7AGMSzbkFClZ1VWpS-T7o_pZ0tVMDD6Nn4FSg/s320/rahul-gandhi-sc.jpeg" width="320" /></a></p><p style="text-align: justify;">हम कई बार महत्वाकांक्षी होने के कारण राजनीतिक महत्व के कुछ एक न्यायिक निर्णयों पर ‘‘ऑन द फेस’’ (मुख पर) निर्णय की गहराई तक विस्तृत रूप से विषय के अंदर तक जाए बिना इतनी तत्परता से अपनी भावनाएं, प्रतिक्रियाएं व्यक्त कर देते हैं, जो निर्णय में लिखी गई बातों से पूर्णतः मेल खाती नहीं है। ठीक उसी प्रकार जैसे किसी समाचार की हेडलाइंस या ब्रेकिंग न्यूज के अंदर लिखी/पढ़ी गई पूर्ण समाचारों के तथ्यों से सामान्यतया उस तरह से मेल नहीं खाती हैं, जैसी हेडलाइंस में बताई या दिखाई जाती है। यदि ऐसा ही तत्परता, तीव्रता के साथ जीवन कर्तव्य के दूसरे क्षेत्रों में भी हम अपना लें, तो हम स्वयं को, समाज को व अंततः देश को सुधार ही लेंगे। अतः पारखी बनाएं, गुड़ियों की कमी नहीं, पारखियों की कमी है।</p><div style="text-align: justify;"><b>प्रकरण के तथ्य</b>।</div><div style="text-align: justify;">13 अप्रैल 2019 को कर्नाटक के कोलार में एक चुनावी सभा में ‘‘मोदी उपनाम’’ के संबंध में की गई कथित विवादित टिप्पणी को लेकर गुजरात के पूर्व मंत्री एवं सूरत पश्चिम क्षेत्र के विधायक पूर्णेश मोदी (जो स्वयं मोदी उपनाम का प्रयोग करते नहीं रहे है, भूटाला उपनाम है व मोध वनिका समाज के हैं) ने राहुल गांधी के खिलाफ आपराधिक मानहानि का मुकदमा सूरत के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी हरीश हसमुख भाई वर्मा के न्यायालय में दायर किया था। इस पर निम्न न्यायालय ने राहुल को दोष सिद्धि (कनविक्शन) पाकर अधिकतम प्रावधित दो वर्ष की सजा सुनाई।</div><div style="text-align: justify;">वो जब्र भी देखा है तारीख़ की नजरों ने,</div><div style="text-align: justify;">लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सजा पाई!</div><div style="text-align: justify;">इस दोषसिद्धि एवं अधिकतम दो साल की सजा आदेश के विरुद्ध सत्र न्यायाधीश में अपील की गई, जहां मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी द्वारा 30 दिनों के लिए रोकी गई सजा को तो अपील की सुनवाई तक ‘‘रोक’’ दिया गया, परन्तु दोषसिद्धि पर स्टे नहीं दिया गया। इस कारण से राहुल की लोकसभा की सदस्यता लोकसभा स्पीकर द्वारा कानूनी प्रावधानों के अनुसार परंतु 26 घंटे के भीतर तुरंत-फुरंत आनन-फानन में समाप्त कर जल्दबाजी का एक ‘‘नया इतिहास’’ बना दिया गया। सत्र न्यायाधीश के आदेश के विरूद्ध उच्च न्यायालय में अपील की गई, जहां भी 125 पेज के लंबे चौड़े आदेश द्वारा अस्वीकार कर दी गई। इस आदेश के विरूद्ध प्रस्तुत अपील में उच्चतम न्यायालय ने राहुल गांधी द्वारा चाही गई सहायता देते हुए निम्न परीक्षण न्यायालय के ‘‘दोषी’’ पाये जाने के निर्णय पर स्थगन आदेश जारी कर दिया।</div><div style="text-align: justify;"><b>राजनैतिक प्रतिक्रियाएं एवं न्यायालीन टिप्पणी</b>।</div><div style="text-align: justify;">उच्चतम न्यायालय के उक्त स्थगन आदेश पर जिस तरह की मीडिया रिपोर्टिंग, तथा दोनो राजनीतिक पार्टियां कांग्रेस व उसकी विरोधी पार्टी भाजपा की जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही है, वह राजनीतिक अर्थों से ज्यादा प्रभावित होकर तथ्यों से कम मेल खाती है। इसके साथ ही यह भी लगता है कि उच्चतम न्यायालय ने निर्णय देने में सुनवाई के दौरान जो रिमार्क (टिप्पणियां) किए है, उसमें कहीं न कहीं अनजाने में कुछ ऐसी गलती हुई है, जिनका प्रभाव अंततः राहुल गांधी की सजा व दोषसिद्धि के विरुद्ध की गई अपील की सुनवाई पर सुनवाई करने वाले न्यायाधीश पर पड़ सकता है। कैसे! आइए, इन सब की चर्चा आगे करते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><b>उच्चतम न्यायालय की निम्न अदालत को प्रभावित कर सकने वाली ‘‘परिहार्य’’ टिप्पणियां</b>।</div><div style="text-align: justify;">सर्वप्रथम, उच्चतम न्यायालय ने बहस के दौरान विपरीत दिशाओं में जाने वाली दो प्रमुख बातें कही। प्रथम राहुल गांधी को दिये गये अधिकतम सजा पर यह महत्वपूर्ण प्रश्न चिन्ह लगाया कि इस अधीनस्थ न्यायालयों और उच्च न्यायालय का लम्बा आदेश होने के बावजूद भी अधिकतम सजा का कोई कारण नहीं बतलाया, सिवाय अवमानना के एक मामले (राफेल) में शीर्ष अदालत ने चेतावनी दी है, का संदर्भ दिया है। यही प्रश्नचिन्ह शीर्ष न्यायालय के स्थगन आदेश देने का आधार भी बना। दूसरी तरफ राहुल गांधी के अवमानना वाले बयान को लेकर यह गंभीर टिप्पणी भी की कि, ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं कि बयान ठीक नहीं था’’ और नसीहत देते हुए कहा, ‘‘ऐसे मामलों में सार्वजनिक जीवन के व्यक्ति से सार्वजनिक भाषण देते समय सावधानी बरतने की उम्मीद जताई जाती है’’। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय ने कहीं न कहीं परोक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राहुल गांधी के बयान को एक तरह से गलत माना है। वास्तव में यह राहुल गांधी की मूल लड़ाई के उसी बयान के बाबत है, जिसके बारे में उन्होंने शपथ पत्र पर बार-बार यह कहा कि ‘‘मैं माफी नहीं मांगूंगा’’।</div><div style="text-align: justify;">‘‘<b>अधिकतम सजा’’ पर प्रश्नचिन्ह</b>?</div><div style="text-align: justify;">इसी प्रकार जब उच्चतम न्यायालय यह कहता है कि दो साल की अधिकतम सजा क्यों दी? इसका कारण नहीं दिया; यह कहते हुए न्यायालय ने कहा कि, यदि दो साल में एक महीने कम की सजा दी जाती तो, सदस्यता नहीं जाती। यह कहकर उच्चतम न्यायालय ने कहीं गलती तो नहीं की? क्योंकि इसका एक अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि निम्न न्यायालय ने दो साल की सजा दी है इसलिए, ताकि राहुल गांधी की सदस्यता समाप्त हो जावे। तर्क के लिए यह मान भी लिया जाए, ‘‘उच्चतम न्यायालय के अनुसार यदि जज 1 साल 11 महीने की सजा दे देते या 1 दिन कम की’’, तब दूसरे पक्ष द्वारा क्या यह प्रश्न नहीं उठेगा कि न्यायाधीश ने आशय पूर्वक अभियुक्त को बचाने के लिए 1 महीने अथवा 1 दिन की सजा कम कर के दी? उच्चतम न्यायालय के अधीनस्थ न्यायालयों से उम्मीद करता है कि वे संदर्भ (कांटेक्टस) के बाहर जाकर अपनी बात न रखें। तब कहीं न कहीं (यही बात) उच्चतम न्यायालय पर भी लागू होती है कि वे संदर्भ के अंदर रहते हुए इस तरह के रिमार्क न करे जो कहीं न कहीं निम्न अदालतों पर भार स्वरूप उनके दिल-दिमाग पर भारी न हो जाये, जो अंततः निष्पक्ष न्याय को कहीं न कहीं प्रभावित कर सकते हैं। क्योंकि उच्चतम न्यायालय की टिप्पणियों का अधीनस्थ न्यायालय पर असर होता है, जो अस्वाभाविक नहीं है।</div><div style="text-align: justify;">‘‘<b>ओबिटर डिक्टा’’ (प्रासंगिक उक्ति)! अनावश्यक</b>!</div><div style="text-align: justify;"> एक न्यायाधीश जो ट्रायल मजिस्ट्रेट है, के आदेश को उच्चतम न्यायालय स्थगन आदेश देकर रोक देता है और उस प्रक्रिया में बहस के दौरान कुछ ऐसे कथन कह देता है, जो कहीं न कहीं केस की कमजोरी अथवा मजबूती को इंगित, प्रकाशित करती है, तब उस निम्न न्यायाधीश से एक पद बड़े ‘‘सत्र न्यायाधीश’’ के लिए उन कमेंट्स को नजरअंदाज कर उससे प्रभावित हुए बिना निष्पक्ष होकर प्रकरण पर विचार करना अधीनस्थ जजों के लिए इतना आसान नहीं होता है। ‘‘तलवार के साये में भला कौन चैन से रह सकता है’’। न्यायालय की भाषा में उच्चतम न्यायालय की इस प्रकार की टिप्पणी को ‘‘ओबिटर डिक्टा’’ कहा जाता है, जो एक लैटिन शब्द होकर उसका अर्थ ‘‘अनुषांगिक’’, ‘‘प्रासंगिक उक्ति’’ होता है। इसका व्यवहारिक प्रभाव उच्चतम न्यायालय के निर्णय देने के समान होता है। तथापि रेशों-डिसेंडी (निर्णय का औचित्य) समान कानूनन बंधनकारी नहीं होता है। तथापि यह तकनीकी कानूनी स्थिति है। इसलिए उच्चतम न्यायालय को इस तरह की टिप्पणियों से बचना चाहिए। अतः इस दृष्टि से उच्चतम न्यायालय ने राहुल गांधी के मोदी सरनेम के संबंध में दिए गए बयान के प्रति जो रिमार्क किया है, वह कहीं न कहीं सत्र न्यायाधीश पर बोझ होकर कही वे उस आधार पर उन्हें अवमानना का दोषी न मान कर सिद्ध दोषी करार न कर दे, इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि ‘‘चतुर के चार कान नहीं होते’’, वह दो ही कानों से सुन कर ‘‘जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी’’ कर लेता है। यद्यपि अपीलीय न्यायालय स्थगन आदेश जारी करते समय यह जरूर निर्देश देते है कि अधीनस्थ न्यायालय गुण-दोष के आधार पर मामले पर विचार करेगी।</div><div style="text-align: justify;">‘‘<b>कांग्रेस/भाजपा की प्रतिक्रियाएं।</b>’’</div><div style="text-align: justify;">राहुल गांधी प्रतिक्रिया स्वरूप यह कहते है ‘‘सत्य की जीत होती ही है। मुझे क्या कहना है, इसको लेकर मेरे मन में स्पष्टता है’’। लेकिन इस जीत के अवसर पर वे वह ‘‘स्पष्टता’’, ‘‘स्पष्ट’’ (व्यक्त) नहीं करते हैं। कांग्रेसी भी मिठाई बांट कर जीत का जश्न मना रहे है, क्यों न मनाएं मनाए? ‘‘घर का देव, घर के पुजारी’’। परंतु उन्हे इस बात पर विचार करना चाहिए कि राहुल गांधी दोषमुक्त या सजा से बरी नहीं किए गए हैं, जैसा कि मीडिया के कुछ क्षेत्रों में भी कहा अथवा ‘‘कहलवाया’’ जा रहा है। विपरीत इसके उच्चतम न्यायालय ने दोषसिद्धी (कन्विक्शन) को स्थगित करते समय जो उक्त टिप्पणी की है, कहीं वह राहुल के लिए चिंता की लकीर तो नहीं बन जायेगी? फिलहाल यह भविष्य के गर्भ में छुपी है। कांग्रेस व अखिलेश यादव की यह प्रतिक्रिया कि भारतीय जनता पार्टी की ‘‘साजिश बेनकाब’’ हो गई है, बहुत ही हास्यास्पद है। क्या तीनों अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णय भाजपा की साजिश और षड्यंत्र अनुसार हुए हैं? जो सरासर न्यायपालिका की कानूनी मानहानि ही नहीं, बल्कि अपमान भी है। इसी प्रकार भाजपा के सांसद मनोज तिवारी का संसद परिसर में राहुल गांधी पर कटाक्ष करते हुए दिये गए बयान से स्वयं उनकी ही बेइज्जती हुई है, जब वे यह कहते हैं कि राहुल गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में माफी मांग ली होगी, (जो सत्य से परे है) तभी तो सजा पर रोक लगी है। यदि पहले ही माफी मांग लेते तो इतनी बेइज्जती नहीं होती?</div><div style="text-align: justify;"><b>सुनवाई सिर्फ स्थगन आवेदन तक सीमित! प्रकरण के गुण दोष पर नहीं</b>।</div><div style="text-align: justify;"> वस्तुतः उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रकरण गुण-दोष के आधार पर दोष सिद्धि व सजा को लेकर सुनवाई के लिए नहीं था, बल्कि मात्र सिर्फ दोष सिद्धि के स्थगन को लेकर था। निम्न परीक्षण न्यायालय द्वारा दोष सिद्धी और दो साल की सजा में से दो साल की सजा को तो अपीलीय सेशन कोर्ट ने ही स्थगित कर दिया था। परंतु दोषसिद्धि को स्टे न करने के कारण द्वितीय अपील उच्च न्यायालय में की गई, जहां भी सफलता न मिलने पर उच्चतम न्यायालय में हुई उक्त अपील में दोषसिद्धि को भी स्टे कर दिया गया। केस की मेरिटस या डी मेरिटस (गुण-अवगुण) का कोई मुद्दा था ही नहीं। यह मुद्दा तो सत्र न्यायालय के समक्ष लंबित अपील में लडा जायेगा व वहां तय होगा। उच्चतम न्यायालय या कोई भी अपीलीय न्यायालय अपील के साथ प्रस्तुत स्थगन आवेदन पर स्टे आदेश देते समय सिर्फ इस बात पर ही विचार करता है कि सुविधा का संतुलन (बैलेंस ऑफ कन्वीनियंस) अपीलार्थी के पक्ष में है अथवा नहीं? ताकि स्टे न होने की स्थिति में उसे अप्राय्प नुकसान (अपूरणीय क्षति) न हो जाये, अन्यथा उसका अपील पेश करने का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जाएगा। कानूनी और तकनीकी स्थिति यही है। प्रस्तुत प्रकरण में भी यही स्थिति विद्यमान थी, जहां स्टे न होने पर 6 महीने के भीतर संवैधानिक बाध्यता होने के कारण वयनाड लोकसभा क्षेत्र से उपचुनाव हो जाते, तब राहुल गांधी के अपील जीतने के बाद भी उनकी लोकसभा सदस्य बहाल नहीं की जा सकती थी।</div><div style="text-align: justify;">‘‘<b>आपराधिक न्यायशास्त्र’’ में परिवर्तन की आवश्यकता</b> !</div><div style="text-align: justify;">अवमानना का यह प्रकरण कहीं न कहीं इस बात पर ध्यान आकर्षित करता है कि ‘‘आपराधिक न्यायशास्त्र’’ में यह परिवर्तन अवश्यसंभावी होना चाहिए कि जब न्यायालय एक तरफ आरोपी को दोषसिद्ध घोषित करके ही सजा दी जाती है, तब दोषसिद्धि (अर्थात मूल आधार) को स्टे किये बिना, सजा को स्टे कैसे कर सकते है? यह तो वही बात हुई कि ‘‘घर आये नाग पूजे नहीं, बाँबी पूजन जाय’’। जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (3) में स्पष्ट लिखा है कि दोषसिद्धि होने पर ‘‘और’’ (एंड) दो साल से ऊपर की सजा होने पर सदस्यता स्वयमेव समाप्त हो जाएगी। ‘‘एंड’’ का अर्थ है, दोनों शर्तें की पूर्ति होने पर ही सदस्यता जाएगी। जब दो साल की सजा स्वयं निचली अदालत ने 30 दिन के लिए स्थगित कर दी थी, तब फिर प्रभाव में सजा का लागू न होना शून्य प्रभावी हो जाने से धारा 8 (3) की दूसरी शर्त का पालन न होने से सदस्यता समाप्त नहीं की जानी चाहिए थी? अतः यदि सजा के स्टे किया गया है, तो दोषसिद्धि भी स्वयमेव स्थगित हो जानी चाहिए, यह कानून बनाया जाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय का यह अवलोकन (ऑब्जरवेशन) कि, अयोग्य करार दिए जाने से न केवल सार्वजनिक जीवन में बने रहने का उनका अधिकार प्रभावित हुआ, बल्कि मतदाताओं के अधिकार को भी प्रभावित किया है, जिन्होंने उन्हें अपने निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना था। एक बड़ा प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या धारा 8 (3) की अयोग्यता का प्रावधान जिसे उच्चतम न्यायालय ने स्वयं लिली थॉमस मामले में धारा 8 (4) को असंवैधानिक घोषित करते हुए संवैधानिक माना था, क्या वह कानून गलत है?</div>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-16212595140350652812023-08-03T00:59:00.002-07:002023-08-03T04:13:17.745-07:00‘समाधान’’ नहीं ‘‘समस्या’’ की वजह है ‘‘राज्य सरकार ’’<p style="text-align: justify;"><b>आखिर हिंसा की आग कब बुझेगी?</b></p><p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkEX5I25Lxtenc-H98-YkOx0mkJcplzX9b7eGzLM9hJ0TBaDaIPVviawNJZy0NE5T6HY2BLLEpjfP_NfVBopGQ-obDNPANHZNYgZxozuma9UXLF7AVGMw4iQ7mAWLeNfQ81rpnRXnugdlemvTk7t3PPMzT57nmHprlg6AZiQZurRleYmimu0Akoisg9UQ/s300/images%20(19).jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="168" data-original-width="300" height="168" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkEX5I25Lxtenc-H98-YkOx0mkJcplzX9b7eGzLM9hJ0TBaDaIPVviawNJZy0NE5T6HY2BLLEpjfP_NfVBopGQ-obDNPANHZNYgZxozuma9UXLF7AVGMw4iQ7mAWLeNfQ81rpnRXnugdlemvTk7t3PPMzT57nmHprlg6AZiQZurRleYmimu0Akoisg9UQ/s1600/images%20(19).jpg" width="300" /></a></div><p></p><p style="text-align: justify;"><b>यौनाचार के अपराधियों के बढ़ते महिमामंडित करने का परिणाम: मणिपुर कांड!</b> </p><p style="text-align: justify;">कठुआ, बिलकिन बानो, मुजफ्फरनगर, राम-रहीम, ब्रज भूषण शरण सिंह आदि दुष्कर्म काडों को महिमामंडित किए जाने के कारण तथा शिक्षण संस्थानों (शिक्षा मंदिर) जैसे हल्द्वानी मेडिकल कॉलेज, दून तथा पंतनगर विश्वविद्यालय में हो रही यौन उत्पीड़न की घटनाओं पर कोई कार्यवाही न होने के कारण भी बढ़ रही यौन हिंसा व दुराचार के दुष्परिणाम का विस्तार ही मणिपुर का वह गंदा व वीभत्स वायरल वीडियो है, जिसके कारण मणिपुर पर चुप रहे प्रधानमंत्री को बोलना पड़ा है। 4 मई को मणिपुर की राजधानी इंफाल से 35 कि.मी. दूर कांगपोकपी जिले के मैतई बहुल थोबल में हुई घटना की 16 तारीख को पीडित की मां की ‘सेकुल’ थाने में शून्य प्राथमिकी दर्ज हो जाने के लगभग एक महीने बाद 13 जून को ‘जीरो’ एफआईआर क्षेत्राधिकार वाले थाने ‘पारेपैट’ में हस्तांतरित की जाती है। तब भी कोई कार्रवाई नहीं की जाती है। जब तक कि वीडियो वायरल नहीं हो जाता है। प्राथमिकी भारतीय दंड संहिता की धारा 153-ए, 397,398, 392, 326 302, 427, 456, 448, 354, 364 एवं धारा 34 तथा शस्त्र अधिनियम की धारा 25(1सी) 376 के तहत दर्ज की गई। धारा 302 जो पूर्व में दर्ज नहीं थी, सीबीआई के द्वारा प्रकरण हाथ में लेने के बाद दर्ज की गई।</p><p style="text-align: justify;"><b> खुफिया तंत्र की असफलता!</b> </p><p style="text-align: justify;">19 जूलाई को दो महिलाओं के उत्पीड़न का वीडियो जहां घटना में वास्तव में तीन महिलाओं (जिनमें से एक महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था) के साथ अमानवीय पाशविक व्यवहार किया गया था, के सामने आते ही मुख्यमंत्री ने अमानवीय कृत्य पर संवेदना व्यक्त करते हुए यह कथन किया कि घटना का स्वतः संज्ञान लेते हुए पुलिस हरकत में आयी और एक अपराधी को तुरंत 24 घंटे के भीतर गिरफ्तार कर लिया गया। मुख्यमंत्री आगे यह भी कहते हैं कि ऐसी ‘‘सैकड़ो शिकायते’’ है। उच्चतम न्यायालय ने भी वीडियो आने के बाद इसका स्वतः संज्ञान लेकर आरोपियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के निर्देश दिये। न्यायालय ने सख्त लहजे में कहा कि अगर सरकार कार्रवाई नहीं करेगी, तो हम करेंगे। उच्चतम न्यायालय ने लगातार तीन दिन की सुनवाई के दौरान यह भी कह दिया है कि यह सिर्फ एक वीडियो तक सीमित नहीं है। लगभग 5500 से अधिक प्राथमिकी दर्ज हुई है, जिनमें से की जांच सीबीआई ने मात्र 7 प्राथमिकी दर्ज कर जांच प्रारंभ की है। उच्चतम न्यायालय द्वारा इन दर्ज 5500 प्राथमिकी का वर्गीकृत विवरण मांगने पर उस केंद्र सरकार ने जवाब देने के लिए एक महीने का समय मांगा, जिसने स्वयं अनुच्छेद 355 लागू कर बढ़ी हुई जिम्मेदारी को ओढ़ा। अभी तक कुल 10 अपराधियों (जिसमें एक नाबालिग शामिल है) को गिरफ्तार किया जा चुका है। इसका मतलब साफ है कि या तो राज्य में खुफिया तंत्र असफल हो गया। इसे ही कहते हैं ‘‘अंधे अंधा ठेलिया, दोनों कूप पडंत’’। अथवा यदि ‘तंत्र’ की जानकारी में थी, मतलब तंत्र के असफल होने का आरोप गलत है, तब फिर कार्रवाई क्यों नहीं की गई? जब तक कि मामला वीडियो के माध्यम से ‘‘सार्वजनिक’’ नहीं हो गया। </p><p style="text-align: justify;"> <b>सरकार की असफलता एवं अकर्मण्यता</b>! </p><p style="text-align: justify;">दूसरा! जब यह तथ्य सामने आ चुका है कि शिकायत किए जाने के लगभग एक महीने बाद भले ही देरी से एफआईआर दर्ज हुई, तब वहां से लेकर गिरफ्तारी तक संबंधित थाने के थानेदार से लेकर आईजी तक द्वारा कोई कार्रवाई न किए जाने के कारण मुख्यमंत्री ने उनको नौकरी से बर्खास्त क्यों नहीं किया? न ही अभी तक भी कोई कार्रवाई करने का संकेत दिये हैं। इसका अर्थ यह क्यों यह नहीं निकाला जाए कि पुलिस तंत्र ने मुख्यमंत्री के पास जानकारी भेजी होगी, इसलिए अधिकारियों के विरूद्ध कोई कार्यवाही नहीं गई? क्या इस कारण से एक अतिवादी विवादित तथाकथित आरोप कि यह राज्य द्वारा प्रायोजित हिंसा है, को कुछ बल नहीं मिलता है? आखिर ‘‘उंट की चोरी झुके-झुके तो नहीं हो सकती’’। मुख्यमंत्री ने इस्तीफे की नौटंकी क्यों की? राष्ट्रीय महिला आयोग के पास शिकायत को 12 जून को शिकायत भेजने (अध्यक्ष रेखा शर्मा ने 12 तारीख को शिकायत प्राप्त होने से इंकार किया हैं) के बाद यदि राज्य सरकार ने कोई जवाब नहीं दिया तो, क्या महिला आयोग कार्रवाई नहीं करेगा? "कदली और कांटों में कैसी प्रीत"। और क्या दूसरे प्रदेशों में शोषण व उत्पीड़न की शिकायत आने पर क्या महिला आयोग ने अपने अधिकारी नहीं भेजे है? </p><p style="text-align: justify;"> <b>प्रधानमंत्री की समझ में न आने वाली चुप्पी? </b></p><p style="text-align: justify;">याद कीजिए! मणिपुर विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री का यह कथन मणिपुर मेरा है, अपना है, मैं यहां इतने बार आया हूं जिनकी गिनती करना संभव नहीं है। जितने भी प्रधानमंत्री अभी तक आये है, उनसे कहीं ज्यादा बार मैं आया हूं। फरवरी 2017 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह ट्वीट ‘‘जो लोग राज्य में शांति सुनिश्चित नहीं कर सकते है, उन्हें मणिपुर पर शासन करने का अधिकार नहीं है’’। मणिपुर प्रेमी, घुमक्कड़ प्रधानमंत्री की जरूरत के वक्त सुलगते मणिपुर में जाकर आग को अपने प्रयासों से ठंडा करने के लिए न पहुंचना, आज तक भी न पहुंचना तथा हिंसा के संबंध में एक शब्द भी न बोलने का क्या अर्थ निकला जाय? यही कि मूक बधिर बन जाना बचाव का श्रेष्ठ उपाय है? गोया कि ‘‘आंख फूटी पीर गई, कान गयो सुख आयो’’। </p><p style="text-align: justify;">हिंसा प्रारंभ होने के 79 दिन बाद मणिपुर (तब भी हिंसा पर एक शब्द नहीं) पर आया माननीय प्रधानमंत्री का बयान पूरे मीडिया और राजनीतिक दलों की हवा, रूख व नरेशन को ही बदल देता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि इस देश में क्या ‘‘बुद्धि का अकाल’’ हो गया है? विपक्ष व मीडिया के एक भाग द्वारा मणिपुर पर प्रधानमंत्री के बयान की मांग अनुरूप ही क्या प्रधानमंत्री का उक्त बयान आया है? जहां मणिपुर की हिंसा का के बाबत एक शब्द भी न कहा हो। प्रधानमंत्री के 36 सेकेंड के मणिपुर पर बयान को ध्यान पूर्वक सुनिये! संसद में नहीं, संसद परिसर में दिये गये बयान में उन्होंने महिलाओं के साथ हुई घटना का जिक्र करते हुए गहरा छोभ व्यक्त करते हुए कहा घटना ने पूरे देश को शर्मसार किया है। मोदी ने कहा कि ‘‘मणिपुर की बेटियों के साथ जो हुआ, उस पर मेरा हृदय पीड़ा और क्रोध से भरा है, जिन्होंने ये कृत्य किया उन्हे माफ नहीं करेंगे। लेकिन प्रधानमंत्री ने उक्त बयान में क्रमानुसार राजस्थान, छत्तीसगढ़ (परंतु भाजपा शासित राज्यों उत्तर प्रदेश आदि का उल्लेख नहीं) फिर मणिपुर का ‘‘एक तवे की रोटी, क्या पतली क्या मोटी’’ के रूप में उल्लेख किया। जो मणिपुर की घटना की वीभत्सा को कहीं न कहीं ‘कमतर’ करता है। क्योंकि इस तरह की महिला के साथ यौन अत्याचार तथा वस्त्रहीन कर सार्वजनिक परेड कर और उसके बचाव में पिता व भाई के आने पर उनकी हत्या करने जैसे घटना नहीं हुई है। </p><p style="text-align: justify;"> <b>राजनैतिक दलों द्वारा "धर्म नीति" के बजाय "राजनीति"</b>! </p><p style="text-align: justify;">प्रधानमंत्री के इस बयान को किसी भी तरह मणिपुर की हिंसा पर बयान नहीं कहा जा सकता है, (जैसा कि राज्यपाल ने हिंसा के बाबत कहा है), जिसकी मांग लगातार 78 दिनों से की जा रही थी। यह तो वीडियो वायरल होने के संबंध में देने (दूसरे दिन) वाला ही बयान ही कहलायेगा। प्रधानमंत्री द्वारा हिंसा की घटना पर एक शब्द न बोलने व शांति की अपील न करने के साथ ही घटना स्थल पर और पीड़ित परिवार वालो से मिलने व ढांढस पहुंचाने कितने राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता पहुंचे? क्या इसलिए कि थोबल ग्राम जहां यह दरिदगी घटी; देश के दूरस्थ उत्तर पश्चिम प्रदेश का भाग था? इसलिए वहां जाना उचित नहीं समझा? उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश या अन्य किसी क्षेत्र मध्य भारत में घटित हो जाती, तो नेतागण पहुंच जाते? क्या इसलिए भी पीड़ित दबे, कुचले जनजाति समुदाय के लोग थे? विपरीत इसके 32 लाख की जनसंख्या वाले मणिपुर ने जहां 50 से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी दिए हैं, के खेल रत्न, अर्जुन, द्रोणाचार्य व अन्य पुरस्कार प्राप्त विभिन्न खिलाड़ियों, मीराबाई चानू, अनीता चानू, एन कुंजारानी देवी, एल सरिता देवी, संध्या रानी देवी, विमोल जीत सिंह, इबोला सिंह आदि द्वारा पत्रकार वार्ता या संदेश भेज कर शांति की अपील की है। 16 वर्षो तक मानवाधिकारी की लडाई लड़ने वाली महिला विश्व प्रसिद्ध इरोम शर्मिला मणिपुर की ही थी, जिस के बारे में कहा जाता है कि "कर्ता से कर्तार हारे। "कश्मीर फाइल", "द केरला स्टोरी" बनाने वाले फिल्म निर्माता की क्या अगली कड़ी ‘‘मणिपुर हैवानियत’’ होगी?</p><p style="text-align: justify;"><b>तत्काल राष्ट्रपति शासन लागू हो</b>! </p><p style="text-align: justify;">प्रश्न यह है कि आज भी इस समस्या की जड़ की तह तक कोई नहीं जाना चाहता है। क्योंकि तब राजनीति चमकाने का अवसर कहां मिलेगा? महामहिम राज्यपाल ने वीडियो वायरल होने के बाद गहरा क्षोभ व्यक्त करते हुए यह कहा कि ऐसी हिंसा उन्होंने कभी नहीं देखी। यह भी कहा कि मैंने ‘‘ऊपर तक’’ अपनी बात पहुंचा दी है। अप्रैल के अंत तक पुलिस व कुकी समुदाय के बीच चल रहा संघर्ष आगे कुकी व मैतोई समुदाय के बीच संघर्ष में बदल गया जो न तो एक तरफा है, और न ही पूर्णत: धार्मिक। बल्कि मादक पदार्थ (अफीम) के व्यापार को मणिपुर सरकार द्वारा कुचलने की की गई कार्रवाई की प्रतिक्रिया भी इस हिंसा में शामिल है। क्या राज्यपाल ने लगभग 3 महीने से चल रही इन सब हिंसक घटनाओं और महिलाओं के साथ हुए अत्याचार के कारण संवैधानिक तंत्र के ध्वस्त हो जाने से राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश की है? इसका खुलासा तो महामहिम ही कर सकती हैं। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने भी इस मामले में बेहद सावधानी से रिपोर्टिंग करने की अपील की है, इससे भी मामले की गंभीरता को समझा जा सकता है। बड़ा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या राष्ट्रपति शासन का उपयोग सिर्फ राज्य को अस्थिर करने व अपनी सरकार को स्थिर करने में राजनीतिक आधार पर ही किया जाएगा? जैसा कि शुरू से होता चला आ रहा है। ‘‘पार्टी विथ डिफरेश’’ का नारा देने वाली भाजपा ने इस ‘‘परिपाटी’’ को आमूल चूल रूप से खत्म करने की बजाय पार्टी ‘‘भाई गति सांप छछूंदति केरी’’ की अवस्था को क्यों प्राप्त हो गयी? राजनीति जरूर कीजिए, क्योंकि आप राजनेता है। परन्तु राजनीतिक दल राजनीतिक करते-करते इस निम्न स्तर तक गिरते जा रहे हैं कि एक दिन ऐसा भी आयेगा, जब ‘‘स्तरहीन राजनीति’’ के कारण ‘‘राजनीति’’ करने की परिस्थितियां व अवसर ही समाप्त हो जायेगी। तब ‘‘स्तरहीन राजनीति’’ करने का भी अवसर कहां मिलेगा? इस बात को यदि समझ ले तो, कुछ ज्यादा समय तक राजनीति कर पायेगें।</p><p style="text-align: justify;"> <b>स्तरहीन राजनीति</b>! </p><p style="text-align: justify;">स्तर हीन राजनीति का ही परिणाम है कि पक्ष-विपक्ष दोनों संसद में मणिपुर के मुद्दे पर बहस के लिए तैयार हैं, ऐसा गला फाड़ फाड़ कर जनता को सुना व दिखा रहे हैं। बावजूद इसके मणिपुर के मुद्दे पर विशिष्ट बहस हो ही नहीं पा रही है। मतलब "मुंह में राम बगल में छुरी"। मतलब दोनों पक्ष चर्चा से भाग रहे हैं। तथापि विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव लाकर अवश्यंभावी बहस होने का लाने का तरीका निकाला। जिसका सत्तापक्ष ने इसलिए स्वागत किया कि वह विपक्ष को मणिपुर के अतिरिक्त अन्य मुद्दों को लेकर प्रधानमंत्री के धारदार भाषण से घेर सकेगा । परंतु सबसे आश्चर्य जनक बात यह है कि सरकार के संसदीय कार्य चल रहे हैं, बिल प्रस्तुत होकर पारित हो रहे हैं जबकि परिपाटी के अनुसार अविश्वास प्रस्ताव अध्यक्ष द्वारा स्वीकार करते ही अन्य संसदीय कार्य तुरंत सस्पेंड (स्थगित) कर अविश्वास प्रस्ताव पर बहस कराई जाती है। वही दूसरी ओर विपक्ष भी सरकार के दिल्ली सरकार के अधिकार के संबंध में जारी किए गए अध्यादेश पर कानून बनाने के लिए सरकार द्वारा प्रस्तुत विधेयक पर चर्चा के लिए तैयार है, हंगामा बहिष्कार नहीं कर रहा है। इससे राजनेताओं की दोगली नीति स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होती है।</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6041942905362743830.post-82640255806471873692023-07-30T05:05:00.004-07:002023-07-30T05:06:45.876-07:00 ‘‘रोम जल रहा था....’’। ‘‘मणिपुर जल रहा है.........!’’<p style="text-align: justify;"><b>राजनीतिक दलों द्वारा ‘मलहम’ के नाम पर सिर्फ ‘‘वाणी’’ रूपी ‘‘पेट्रोल का छिडकाव’’</b>।</p><p style="text-align: justify;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijE9Ua5Ym-bqbs5vrqdcW77v-jNbqoUULRe8TRt8VdV_PMZopuE4PeMsc2tVACew8JhSjb1o1jN9uZ6zZJwULjgfFqCxhKOVmWGSQY7qFYw4GjiJ6AtfWuAQQvMgHXFtwKxv8S0lAeEYaLy5O-rLpYErzjDhe-YMQTyQITz6dZOKDCe5N_3f-fP64wemQ/s300/images.jpg" style="clear: left; display: inline; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="168" data-original-width="300" height="168" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijE9Ua5Ym-bqbs5vrqdcW77v-jNbqoUULRe8TRt8VdV_PMZopuE4PeMsc2tVACew8JhSjb1o1jN9uZ6zZJwULjgfFqCxhKOVmWGSQY7qFYw4GjiJ6AtfWuAQQvMgHXFtwKxv8S0lAeEYaLy5O-rLpYErzjDhe-YMQTyQITz6dZOKDCe5N_3f-fP64wemQ/s1600/images.jpg" width="300" /></a></p><p style="text-align: justify;">76 साल के हमारे स्वतंत्र देश के इतिहास में अनेक राज्यों में हिंसक, अलगाववादी, आतंकवादी, नक्सलवादी, जातीय संघर्ष की घटनाएं होती रही हैं। इन्हे कानून, सेना के डंडे के बल पर या बातचीत के टेबल पर लाकर अधिकतर मामलों व मुद्दों को निपटा कर, शांत कर, सामान्य स्थिति बहाल की गई है। चाहे सरकार किसी भी दल की रही हो। फिर चाहे पंजाब में भिंडरावाले का खालिस्तान का आंदोलन रहा हो, जिस कारण से हुए ‘‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’’ के कारण देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपनी जान तक का बलिदान करना पड़ा । अथवा नागालैंड, मिजोरम, त्रिपुरा, असम की बोडो समस्या हो, पश्चिम बंगाल की गोरखालैंड की समस्या हो या विभिन्न राज्यों में राज्य विभाजन (अलग राज्य) की मांग रही हो, लगभग सभी समस्याओं से कमोबेश निपटा गया है। शेष रह गई कुछ समस्याओं को भी सुलझाने के प्रयास लगातार चलते रहे हैं।</p><p style="text-align: justify;">याद कीजिए! इंदिरा गांधी ने पंजाब केसरी अखबार के मालिक लाला जगत नारायण, डीआईजी ए एस अटवाल की हत्या होने पर बिना देर किये अनुच्छेद 356 का उपयोग कर अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री दरबारा सिंह को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू किया था। इसी प्रकार पी वी नरसिम्हा राव ने वर्ष दिसम्बर 1993 में मणिपुर प्रदेश में अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री राजकुमार दोरेंद्र सिंह को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू किया था। जून 2001 में जब मणिपुर में हिंसा का पुनः दौर शुरू हुआ, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 6 दिन के भीतर ही विपक्षी दलों से मुलाकात कर मणिपुर के लोगों से ‘‘शांति की अपील’’ की थी। स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभी तक 121 बार राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा चुका है। जिसमें अधिकतम 10 बार जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश के साथ पूर्वोत्तर का सबसे छोटा राज्य मणिपुर, जिसकी जनसंख्या मात्र लगभग 30 लाख है, में भी 10 बार राष्ट्रपति शासन लागू किया जा चुका है। तब आज विकल्प हीन आवश्यकता होने पर भी फिर क्यों नहीं? 54 ईस्वी में ‘रोम जल रहा था’, तो एक कहावत प्रसिद्ध हो गई थी। आज मणिपुर जल रहा है तब...?<span style="white-space: pre;"> </span></p><p style="text-align: justify;">तथापि भारत का ‘‘गहना’’ (जवाहर लाल नेहरू ने नाम दिया था) कहे जाने वाले राज्य मणिपुर (पुराना नाम कंलैपाक्) में पिछले लगभग 3 महीनों से पुलिस शस्त्रागार से हजारों स्वचालित हथियार लूटे गये या सुरक्षा बलों द्वारा लुटाए गए हथियारों के कारण फैली हिंसा ने दो राज्य के बीच बफर जोन बनने की स्थिति जैसी बफर जोन की स्थिति दो जातियों मैतेई व कुकी-जोमी के बीच जातीय संघर्ष के कारण पैदा हो गई। 40000 से अधिक सैनिकों, अर्द्धसैनिकों व पुलिस बल की तैनाती होने के बावजूद हिंसक घटनाओं व क्रूरता का अभूतपूर्व ‘‘तांडव’’ चल रहा है, जिसमें अभी तक 160 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और लगभग 300 से अधिक घायल है। 17 सौ से अधिक मकान जलाए जा चुके हैं। लगभग 50,000 से अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं। अनेक चर्च व मंदिर जलाएं व तोड़े जा चुके हैं। इस हिंसा के चलते ही दो महिलाओं जिनमें से एक महिला के पहले पिता और बाद में बचाव में आने पर भाई की हत्या कर दी गई, के यौन उत्पीड़न, अत्याचार व सार्वजनिक परेड का शर्मसार करने वाला वीडियो वायरल हुआ है। मानो ‘‘इक नागिन अरू पंख लगायी’’, वह निसंदेह देश की अभी तक की हुई समस्त समस्याओं व घटनाओं से मणिपुर की इस अभूतपूर्व समस्या को अलग-थलग करता है। इस वीडियो का सबसे दुखद व सिर झुका देने वाला पहलू यह भी है कि परेड में शामिल एक नग्न की गई महिला के पति, जो कारगिल में लडाई लड़ चुके हैं, का बड़ा ही अफसोस जनक व मार्मिक बयान आया कि मैंने कारगिल युद्ध में लड़ाई की व देश की रक्षा की, पर अपने घर अपनी पत्नी और साथ ही ग्रामीणों की रक्षा नहीं कर सका। इसलिए इस समस्या से वास्तविक रूप से निपटने के लिए भी बिल्कुल ही अलग रूख अपनाना होेगा। परन्तु क्या राजनैतिक दलों, यहां तक की स्वयं सरकार में यह इच्छाशक्ति है? इंदिरा गांधी के बाद से अभी तक के सबसे दृढ़ इच्छाशक्ति वाले 56 इंच सीना फुलाए ‘‘विश्व गुरू’’ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इंदिरा गांधी एवं नरसिम्हा राव समान अनुच्छेद 356 का उपयोग अभी तक मणिपुर में क्यों नहीं किया? इसका जवाब व हल खोजना दोनो मुश्किल है।</p><p style="text-align: justify;">मणिपुर भारत के उत्तर-पूर्वी भाग का प्रदेश है, जिसकी राजधानी इंफाल है। मणिपुर प्रदेश के कुल क्षेत्रफल का 10 प्रतिशत भाग इंफाल है, जबकि वहां 57 प्रतिशत आबादी रहती है। बाकी आबादी 43 प्रतिशत 90 प्रतिशत पहाड़ी इलाके में रहती है। इंफाल घाटी में मैतेई समुदाय के लोग रहते है, जो ज्यादातर हिंदू है, जिनकी कुल भागीदारी 53 प्रतिशत है। 60 में से 40 विधायक मैतेई समुदाय के है और शेष नगा-कुकी जाति के है, जिनमें 33 मान्यता प्राप्त जनजाति है जो मुख्य रूप से ईसाई धर्म को मानती हैं। लगभग 8-8 प्रतिशत मुस्लिम व सनमही समुदाय है। संविधान के अनुच्छेद 371 सी के अनुसार मणिपुर पहाड़ी जनजातियों को विशेष दर्जा व सुविधाएं मिली है, जो बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को नहीं मिलती हैं। </p><p style="text-align: justify;">केन्द्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय की सिफारिश के आधार पर 19 अप्रैल को उच्च न्यायालय का ‘‘मैतेई समुदाय’’ को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने के निर्णय आने के बाद से ही तनाव बढ़ गया। इंसानी तासीर है कि वह ‘‘अपने दुःख से ज्यादा दूसरे के सुख से दुखी होता है’’। इसके विरोध में 3 मई को ऑल इंडिया ट्राइबल स्टूडेंट यूनियन मणिपुर ने आदिवासी एकता मार्च निकाला। यही से स्थिति बिगड़नी चालू हो गई। ‘‘एक आंख फूटे तो दूसरी पर हाथ रखते हैं’’ लेकिन इसी बीच मणिपुर सरकार की आदिवासी समुदायों के बीच मणिपुर फॉरेस्ट एक्ट 2021 के तहत फारेस्ट लैड से अवैध अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई ने ‘‘आग में घी’’ डालने का काम किया। इसके पूर्व 2008 में केंद्र सरकार व कुकी विद्रोहियों के बीच सरकार की सैन्य कार्यवाही में दखल देने तथा राजनीतिक बातचीत को बढ़ावा देने के लिए हुए एक समझौता ‘‘एसओएस’’ हुआ था जिसका कार्यकाल समय-समय पर बढ़ाया गया। लेकिन 10 मार्च को कुकी समुदाय के दो हथियार बंद संगठन ऑर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर्स एक्ट यानी व कुकी नेशनल आर्मी समझौते से पीछे हट गये। ये लोग ही बाद में मणिपुर की हिंसा में शामिल हो गये है, ऐसा बताया जाता है।</p><p style="text-align: justify;">यह मणिपुर का संक्षिप्त भौगोलिक, जातिगत व राजनीतिक समीकरण है। जैसा कि मैं पिछले लेख में लिख चुका कि इस घटना पर किसी भी तरह की ‘‘राजनीति’’ किसी भी पक्ष द्वारा नहीं की जानी चाहिए। परन्तु यह बात सिर्फ शब्दों व पेपर पर ही सिमट कर रह गई है। लेकिन विपरीत इसके जैसा कि कहा जाता है ‘‘अंग लगी मक्खियां पीछा नहीं छोड़तीं’’, इस पर ‘‘राजनीति’’ ही की जा रही है। ऐसी निम्नतम स्तर की घृणित घटना के साथ राजनीति करने का ‘‘साहस’’ आ कैसे जाता है? इसलिए घटना से ज्यादा ऐसी राजनीति निंदनीय व शर्मनाक है। मेरा मणिपुर तेरा राजस्थान, मेरा छत्तीसगढ़, तेरा मणिपुर मेघालय कर देने से क्या हम पीड़ितों व उनके परिवार को व समाज को सांत्वना दे सकते हैं? ‘‘ओस चाटने से प्यास नहीं बुझती’’। यद्यपि ‘‘इल्ली को मसलने से आटा वापस नहीं मिलता‘‘। क्या इससे घटना की तह पर पहुंचा जा सकता है? और क्या इससे भविष्य में ऐसी घटना पर रोक लगाई जा सकती है? जनता से लेकर राजनैतिक दल, मीडिया तक इस संबंध में गंभीर लगते नहीं हैं। आखिर ‘‘कौन’’ ‘कब’ व ‘‘कितने’’ गंभीर होंगे यह भी बड़ा यक्ष प्रश्न है? जिसका उत्तर दूर-दूर तक फिलहाल कहीं दिखता नहीं है, जब जनता स्वयं जाग्रत होकर, उठकर ऐसी घटना पर राजनीति करने वाले दलों को ‘‘उघरे अंत न होहिं निबाहू’’ की उक्ति अनुसार उनके घर बैठाल न दे। क्या यह संभव भी होगा, यह भी यक्ष प्रश्न है?</p><p style="text-align: justify;">बात मणिपुर घटना की क्रोनोलॉजी और इस पर आ रही क्रिया-प्रतिक्रिया की कर ले। 4 तारीख की घटना का वीडियो 19 तारीख को वायरल होने बाद ही विश्व जगत को घटना के संबंध में जानकारी हुई, जिसमें मणिपुर के मुख्यमंत्री जो गृहमंत्री भी है, शामिल है। भारत सरकार के गृह मंत्री, प्रधानमंत्री, और ‘‘आंख न दीदा काढ़े कसीदा’’ की उक्ति को चरितार्थ करती हुई विभिन्न खुफिया एजेंसी आईबी, सीबीआई, ईडी, एनआईवी इत्यादि क्या किसी को इस संबंध में कोई जानकारी नहीं थी? और यदि जानकारी किसी को भी थी, तो तुरन्त आवश्यक कार्रवाई करने के लिए व संस्थाएं या व्यक्ति सामने क्यों नहीं आये। और यदि नहीं थी, तो अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगे राज्य होने के कारण केन्द्र व राज्य की खुफिया एजेंसी की असफलता से क्या देश की सुरक्षा पर गंभीर प्रश्न नहीं लगता है? और इस पर यह कह देना कि घटना के वीडियो के वायरल होने के समय की क्रोनोलॉजी (टाइमिंग) देखिये! सदन प्रारंभ होने के तुरंत पहले ही क्यों हुआ पहले या बाद में क्यों नहीं? मतलब ‘‘वीडियो महत्वपूर्ण नहीं’’ है, वीडियो के ‘‘वायरल होने का समय महत्वपूर्ण’’ है। यदि राजनीतिक उद्देश्यों व षड़यंत्र के तहत ही किन्ही विपक्षियों द्वारा वीडियो को संसद प्रारंभ होने के समय वायरल कराया गया, तब भी घटना का गंभीर, वीभत्स व माथे पर कलंक लगाने वाला स्वरूप तो नहीं बदल जाता? क्या ‘‘अंधेरे में भी हाथ का कौर मुंह की जगह कान में चला जाता है’’? यदि वास्तव में षड़यंत्र के तहत वीडियो की तय ‘‘टाइमिंग’’ के तहत वायरल हुई है, तो समस्त जांच एजेंसी जो राज्य व केन्द्र सरकार के पास है, के द्वारा सत्य जनता के सामने वह क्यों नहीं लाया जा रहा है? वीडियो वायरल होने के 8 दिन बाद जांच हेतु सीबीआई को उक्त मामला सौंपने से सरकार की इस समस्या के प्रति ‘‘गंभीरता’’ व ‘‘संवेदनशीलता’’ को समझा जा सकता है?</p>Rajeeva Khandelwalhttp://www.blogger.com/profile/07160642920976453257noreply@blogger.com1