सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

आरूषि हत्याकांड़ प्रकरण का क्या ‘‘पटाक्षेप’’ हो गया हैं?

माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ‘‘आरूषि‘‘ हेमराज’’ दोहरे हत्याकांड के अभियुक्तगण  दंत विशेषज्ञ डॉ. राजेश व उनकी धर्मपत्नि श्रीमति नुपुर तलवार द्वारा गाजियाबाद की विशेष सीबाीआई अदालत द्वारा दी गई आजीवन कारावास की सजा के विरूद्ध की गई अपील को स्वीकार कर विशेष अदालत के दोष-सिद्ध के निर्णय को पलट कर डॉ. राजेश व नुपुर तलवार को दोषमुक्त कर दिया हैं।
‘‘पुत्री’’ ‘‘आरूषि‘‘ व ‘‘नौकर’’ ‘‘हेमराज’’ की हत्या ने पूरे देश के आम नागरिको को बुरी तरह से झंकझोर दिया था। चंूकि आरूषि की हत्या का आरोप उसके ही अपने खून आरूषि के माता-पिता पर लगा, जिनका धर्म, कत्तर््ाव्य व दायित्व सिर्फ पिता-माता होने के संबंध के कारण ही नहीं, बल्कि डाक्टरी पेशे में होने के कारण भी, मानव की जिदगी देना हैं, लेना नहीं। इसीलिये जब अभियुक्तगण पर उनकी ही बेटी व नौकर की जिंदगी लेने का आरोप लगा, तब तत्समय पूरी मीडिया ने डॉं.तलवार दंपति के खिलाफ कई कहानी प्रसारित की। आज जब वे हत्या के आरोप से निर्दाेष करार दिये गये हैं, तब वही डॉं. तलवार दंपति कीे मीडिया नई स्टोरी बता कर उनके प्रति सहानुभूति पैदा करने का प्रयास कर रहा हैं। यह भी प्रश्न उठाया जा रहा हैं कि आरूषि को यदि डॉ. दंपत्ति ने नहीं मारा, तो आखिर किसने मारा हैं! यह भी एक अनबुझी पहेली ही हैं।
न्यायपालिका के निर्णय पर जिस तरह की प्रतिक्रियायंे आ रही हैं, वे वास्तव में आपराधिक न्यायशास्त्र और भारतीय न्याय आपराधिक प्रक्रिया के सिद्धान्त की जानकारी न होने के कारण ही हैं। भारतीय न्याय व्यवस्था के दो मूल सिद्धान्त हैं। प्रथम अपराधी को सजा समस्त उचित संदेह (रीजनेबल डाउट) के परेे होने पर ही दी जाना चाहिए। दूसरा सौ अपराधी छूट जाय, लेकिन एक भी निरापराधी को सजा नहीं होनी चाहिए। आरूषि हत्या प्रकरण में उच्च न्यायालय का निर्णय उपरोक्त धारणा पर ही आधारित हैं। इस हत्याकांड में प्रारंभ से ही, सीबीआई जांच से लेकर, विशेष अदालत व उच्च न्यायालय का निर्णय, सभी में एक बात समान हैं कि जितने भी साक्ष्य, दस्तावेज, परिस्थिति जन साक्ष्य प्रकरण में आये हैं, उपलब्ध हैं, वे सब एक ही बात की ओर इगिंत करते हैं। इस हत्याकांड के लिये यदि कोई जिम्मेदार हैं तो वह नौकर ‘‘हेमराज’’ (जिसकी भी दूसरे दिन हत्या कर दी गई), व कम्पाउडर कृष्णा नहीं बल्कि सिर्फ डॉ. तलवार दंपत्ति ही हैं। चूंकि ये समस्त उपलब्ध साक्ष्य  उपरोक्त अपराधिक न्याय सिद्धान्त द्वारा रेखांकित की गई सीमा को पार नहीं कर पा रही थी, इसीलिए न केवल वे दोषमुक्त ठहराये गये, बल्कि इसी कारण से डॉं. तलवार दंपत्ति को सीबाीआई ने प्रथम चरण में ही चार्जशीट योग्य न मानकर प्रकरण की खात्मा रिपोर्ट न्यायालय में प्रस्तुत की थी। तब भी सीबीआई का कथन यही था कि समस्त साक्ष्य यद्यपि डॉ. तलवार दंपत्ति की ओर ही इशारा करते हैं, लेकिन वे साक्ष्य उस सीमा तक प्रबल नहीं हैं कि उन्हे अंततः सजा दिलायी जा सके। इस खात्मा रिपोर्ट को गाजियाबाद सीबीआई की विशेष न्यायालय ने खारिज कर सीबीआई को चालान प्रस्तुत करने के लिये आदेश दिये थे। तब वे ही तथ्यों के साथ जहां एक बार सीबीआई प्रकरण को चार्जशीट लायक भी नहीं मान रही थी, उसने न्यायालय के आदेश पर डॉ. तलवार दंपत्ति के खिलाफ आरूषि व हेमराज की हत्या का उन्ही तथ्यों केे आधार पर मुकदमा चलाया व सीबीआई न्यायालय ने उक्त साक्ष्य के आधार पर तलवार दंपत्ति केा अपनी ही बेटी की हत्या का अपराध सिद्ध पाया जाकर आजीवन कारावास की सजा सुनाई। 
यहां यह तथ्य बहुत ही उल्लेखनीय हैं जिस खात्मा रिपोर्ट में सीबीआई ने डॉ. तलवार दंपत्ति को चार्जशीट करने से इंकार किया था उसी खात्मा रिपोर्ट को डॉ. तलवार दंपत्ति ने (जो उनकेे पक्ष मे थी) को न्यायालय में चुनौती दी,  क्योंकि उस खात्मा रिपोर्ट ने जो प्रश्न वाचक चिन्ह लगाये गये थे वे सब डॉ. तलवार दंपत्ति की ओर इशारा करते थे। दूसरे पक्ष भी उच्च न्यायालय में गये। अंततः उच्चतम् न्यायालय नें ट्रायल करने के आदेश दिये थे। ऐसा न्यायिक इतिहास में शायद कभी नहीं हुआ जब आरोपी ने उस रिपोर्ट को ही चैलेंज किया हो जो उसे दोषमुक्त करती हैं। लेकिन ट्रायल कोर्ट ने अभियोगी को दोषयुक्त माना।
इस पूरे प्रकरण में उपलब्ध समस्त साक्ष्य और परिस्थितियों व जांच को देखने से स्पष्ट हैं कि घटना के प्रथम दिन से ही उत्तर प्रदेश पुलिस घोर लापरवाही बरतने व संदेह के घेरे में रही हैं। उत्तर प्रदेश पुलिस ने डॉ. तलवार दंपत्ति को दोषी न मानकर ही जांच प्रांरभ की थी। घटना स्थल को तुरंत सील न करना, घटना स्थल पर पाये गये समस्त साक्ष्यों का जमा न करना, मकान की तत्काल पूरी जांच न करना, हेमराज के गायब रहने पर उसका तुरंत पता न लगाना, हेमराज के कमरे की तलाशी न लेना, आदि आदि में उत्तर प्रदेश पुलिस अपने कर्त्यव्य का पालन करने में पूर्ण रूप से बुरी तरह असफल रही हैं। जब सीबीआई को जांच के लिये प्रकरण सौपा गया था तब तक प्रकरण के समस्त साक्ष्यों को नष्ट कर दिया गया था। इसीलिए अपराधियों के विरूद्ध सीबीआई पर्याप्त आवश्यक पुख्ता साक्ष्य नहीं जुटा पाई। जिन मुद्दो का उल्लेख सीबीआई कोर्ट ने अपने सजा के निर्णय में किया था उन समस्त मुद्दो का एक-एक करके जवाब उच्च न्यायालय ने दोषमुक्त करते समय  दिया हैं। लेकिन कोई प्रत्यक्षदर्शी गवाह के न होने के कारण उच्च न्यायालय को डॉ. तलवार दंपत्ति को हत्यारा मानना उचित नहीं लगा। यदि न्यायालय के निर्णय की बातो को गौर से पढा जाये तो, न्यायालय ने यह स्पष्ट लिखा हैं कि पर्याप्त साक्ष्य के अभाव के कारण दोषमुक्त किया जाता हैं।
निर्दोष व ‘‘संदेह के आधार पर दोषमुक्त’’ में अंतर हैं। दोषमुक्त व्यक्ति को अपराधी की निधारित सीमा के अतिंम छोर तक तो पंहुचा दिया जाता हैं लेकिन कानूनी व्याख्या व अपराधिक न्याय सिद्धान्त के कारण संदेह का लाभ देने के कारण उसे अपराधी घोषित नहीं किया जा सकता हैं। लेकिन ऐसे व्यक्ति के पास नैतिकता का बल लगभग शून्य हो जाता हैं। भारतीय दंड सहिंता में कुछ प्रावधान जैसे धारा 298 ए इत्यादि ऐसे हैं जहां पर अभियुक्त को अपराधी के रूप में दोषी सिद्ध करने का भार अभियोजन पर न होकर अभियुक्त पर होता हैं कि वह अपनी निर्दोषता सिद्ध करे। जबकि अन्य प्रकरणो में दोष सिद्ध का भार अभियोजन पर होता हैं। अभियुक्तगण व आरूषि के बीच का माता-पिता का प्राकृतिक रिश्ता भी दोष सिद्ध माननेे में आड़े आया हो सकता हैं। क्योकि हमारा समाज में बच्चो के माता-पिता की भगवान के रूप में कल्पना की जाती हैं, जहां उसका फर्ज जिंदगी को सवारना होता हैं, खत्म करना नहीं। इसलिए मीडिया व सोशल मीडिया में इस दोहरे हत्या कांड पर अर्नगल प्रतिक्रिया करने से परहेज करना चाहिए। साथ ही ‘‘दोषमुक्त अभियुक्त’’ के प्रति अनावश्यक सहानुभूति भी उत्पन्न न करे क्योकि वह दोषमुक्त तो हैं पर मासूम निर्दोष नहीं!
आरूषि हेमराज हत्याकांड को देश का सबसे व सनसनी खोज मामला (मिस्ट्री) बतलाया गया। लेकिन वास्तव में उपरोक्त तथ्यों के प्रकाश में यह मिस्ट्री नहीं रह गई हैं। इसके बावजूद यदि  इस दोहरे हत्या के लिये किसी भी व्यक्ति को अपराधी नहीं माना गया हैं, तो इसका लिये मूलरूप से उत्तर प्रदेश पुलिस की घोर लापरवाही व उसका उद्देश्य (इंटेशन) ही जिम्मेदार हैं जिसके लिये उच्च न्यायालय ने उन अधिकारियों के विरूद्ध कोई कार्यवाही नहीं की।  

शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2017

एनसीआर-दिल्ली के नागरिको को क्या ‘‘विशेष दर्जा’’ प्राप्त हैं?

माननीय उच्चतम् न्यायालय ने दिल्ली-एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र) में पटाखों कीे बिक्री पर दीवाली तक रोक लगा दी हैं जिसको हटाने की व्यापारियों द्वारा अपील को भी अस्वीकार कर दिया हैं। पटाखों से ही दीवापली त्यौहार की मुख्य पहचान होती हैं। इस प्रकार दिल्ली-एनसीआर के निवासीगण पटाखे (का प्रदूषण) छोडे़ बिना दीपावली मनाना पड़ेगा। लेकिन माननीय उच्चतम् न्यायालय ने इस कमी को पूरा करने के लिए बिक्री पर रोक के निर्णय द्वारा बम ही फोड़ दिया, ताकि नागरिकगण बिना फटाके के दीपावली के ‘‘बम फटाके’’ का अहसास कर सके। माननीय उच्चतम् न्यायालय ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया कि कुछ फटाके ऐसे भी होते हैं जिनसे प्रदूषण नहीं फैलता हैं। पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय ने उच्चतम् न्यायालय के उक्त निर्णय के बावजूद भी कुछ समय (सायं 3 घ्ंाटे) के लिये पटाखों की बिक्री पर छूट प्रदान की हैं जिस कारण पंजाब व हरियाणा प्रदेश तथा चंडीगढ के नागरिकगण 3 घ्ंाटो के लिये दीवाली मना पायेगे। माननीय उच्चतम् न्यायालय ऐसा क्यों नहीं कर सका? शायद इसलिये कि परिपाटी व कानून तो उच्च न्यायालय को उच्चतम् न्यायालय का अनुशरण करने की हैं। 
दीपावली हमारी संस्कृति की विरासत व पहचान का एक बहुत ही महत्वपूर्ण त्यौहार हैं। जब वर्ष का प्रारंभ मानकर शुभ कार्य लक्ष्मी पूजा के साथ किया जाकर दीपो की श्रृखंला प्रज्वलित करके पटाखों के शोर व रंग बिरगी रोशनी के साथ दीपावली धूमधाम से मनाई जाती हैं। उच्चतम् न्यायालय ने रोक लगाते हुये यह कहा कि पटाखों से पर्यावरण के दूषित होने से लोगो का स्वास्थ लगातार खराब हो रहा हैं। साथ ही यह भी देखा जायेगा कि इस रोक से पर्यावरण प्रदूषण पर कितना अंकुश लगा हैं। उक्त निर्णय के अनुषागिंक तुरंत कई टीवी चैनलो ने पटाखांे से पर्यावरण कितना दूषित होता हैं, यह दर्शको को बतलाया। पटाखों के विस्फोट से पर्यावरण दूषित होने के तथ्य से किसी का भी इंकार नहीं हैं। लेकिन इससे जुड़े कई प्रश्न हैं जिन पर उक्त आदेश के परिपेक्ष्य में विचार किया जाना आवश्यक हैं।
अर्जुन गोपाल व अन्य द्वारा वर्ष 2015 में पटाखे व अन्य कारणो से हो रहे पर्यावरण के नुकसान को रोकने के लिये उच्चतम् न्यायालय में एक याचिका दायर की गई हैं। इस याचिका पर माननीय उच्चतम् न्यायालय ने समय-समय पर कई अंतरिम आदेश पारित किये हैं। इनमे से मुख्य अंतरिम आदेश दिनांक 11 नवम्बर 2016 पारित किया जाकर समस्त थोक व चिल्लर विक्रेताओं के लाइसेंस निलम्बित कर दिये गये हैं। तत्पश्चात् 12.09.2017 को इस आदेश में संशोधन करते हुए निलम्बित लाइसेंसो से रोक हटा ली गई। तत्पश्चात 09.10.2017 को पुनः अंतरिम आदेश पारित किया जिसके तहत उक्त (दिनांक 12.09.2017 का) आदेश तुरंत प्रभावशील न करके 01.11.2017 से लागू करने का आदेश दिया गया। अर्थात् 11 नवम्बर 2016 के आदेश पर 12.09.2017 के आदेश द्वारा जो रोक लगायी गई थी, वह अब दिनांक 1.11.2017 से प्रभावशाली होने के कारण, लाइसेंसी अब दीपावली पर भी फटाका नहीं बेच पायेगें।
भारतीय एयर पोल्युशन कन्ट्रोल संघ संस्था के अध्ययन की एक रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण में वायु एवं ध्वनि से होने वाला प्रदूषण में फटाखे का ध्वनि प्रदूषण मात्र 15 प्रतिशत ही रहता हैं  पटाखे से होने वाला वायु प्रदूषण 20-25 प्रतिशत तक होता हैं। क्या नागरिको को सिर्फ 3 दिन 2 दिन या एक दिन बिना ड़र वैधानिक रूप से उनके मूल अधिकार को सुरक्षा प्रदान करते हुये पटाखा जलाने की अनुमति माननीय उच्चतम् न्यायालय नहीं दे सकता था? जिस प्रकार राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने श्री श्री रविशंकर महारज को यमुना के पास कार्यक्रम करने से यमुना नदी में प्रदूषण के कारण हुई क्षतिपूर्ती को भरने के आदेश दिये थे। वैसा ही कुछ शुल्क पटाखा बेचने पर लाइसेंसियों पर लगाया जाकर उस राशी से पर्यावरण के होने वाले नुकसान की कुछ भरपायी की जा सकती थी, खासकर उस स्थिति में जबकि पर्यावरण को नुकसान पहंुचने का न तो यह एक मात्र कारण हैं और न ही मुख्य बड़ा कारण।    
प्रश्न यह हैं कि पटाखों से क्या केवल दिल्ली-एनसीआर में ही प्रदूषण होता हैं (क्योकि  उच्चतम् न्यायालय ने रोक यहीं लगाई हैं)? क्या देश के दूसरे राज्यो के नागरिको को भी उसी तरह से स्वस्थ्य प्रदूषण रहित वातावरण में रहने का अधिकार नहीं हैं, जिस तरह का अधिकार दिल्ली-एनसीआर के नागरिको को उच्चतम् न्यायालय के आदेश के द्वारा मिला हैं? जब ऐसा कोई कानून नहीं है कि पटाखे फोड़ना गैरकानूनी हैं, तब उस पर रोक लगाना कितना कानूनी हैं? चंूकि उच्चतम् न्यायालय द्वारा पारित (अंतरिम रोक का) आदेश देश का कानून माना जाता हैं, जो समस्त नागरिको पर लागू होता हैं। तो फिर उच्चतम् न्यायालय ने इस रोक को पूरे देश में लागू क्यों नहीं  किया? इसका उत्तर इस प्रश्न से भी पैदा होता हैं, वह यह कि क्या दिल्ली के पटाखा व्यापारियो को लाइसेंस न्यायालय केे आदेश के बाद जारी किये गये? चंूकि लाइसेंस लेने के बाद लाखों करोडो की पंूजी से पटाखे खरीदे गये हैं, तब उनकी बिक्री पर रोक कैसे लग सकती हैं? रोक या तो लाइसेंस जारी करने के पूर्व लगायी जानी चाहिए थी या लाइसंेस की अवधि समाप्त होने के बाद लगाई जानी चाहिए थी। जब उच्चतम् न्यायालय लाइसेंसियों को पटाखा बेचने पर रोक लगा सकता हैं तो लाइसेंस जारी करने पर पूरे देश मंे ही प्रतिबंध क्यों नही लगाया गया? प्रश्न यह हैं। यहां तीसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी पैदा होता हैं कि उच्चतम् न्यायालय ने एक पक्ष जो ‘‘पटाखा बेच कर पर्यावरण को खराब कर रहा हैं,’’ उस पर तो प्रतिबंध लगा दिया लेकिन उसीके दूसरे पक्ष उपभोक्ता के पटाखे फोड़ने पर, प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया। (जिसका कारण उच्चतम् न्यायालय ने  मानिटरिंग करने में असहाय होना बताया)। परंतु सम्पूर्ण प्रतिबंध के बिना पटाखे के पूर्ण  प्रदूषण से कैसे बचा जा सकता हैं। यदि उपभोक्ताओं के पास पहले से ही पटाखे रखे हुए हैं अथवा  वे दूसरे सीमावर्ती प्रदेशो से खरीदते हैं तो उनके फोड़ने पर कोई रोक नहीं हैं, तब उच्चतम् न्यायालय का रोक का निर्णय कैसे प्रभावशाली हो सकेगा? इस प्रकार पर्यावरण को साफ सुथरा रखने के उद्देश्य से पारित रोक के ऐसे आदेश में सफलता मिल सकेगी, इसमे संदेह हैं। लेकिन इस रोक के कारण निश्चित रूप से बेचारे निर्दोष व्यापारियों का असीमित नुकसान होकर दीवाली पर दीवाला निकल जायेगा। क्या लाइसेंसी व्यापारियों को उपलब्ध स्टॉक बेचने की छूट नहीं दी जा सकती थी?
प्रदूषण सिर्फ पटाखो से ही नहीं होता हैं अन्य दूसरी चीजों से भी प्रदूषण होता हैं। फिर चाहे वह डीजे, ध्वनि विस्तार यंत्रो, वाहनो के कारण ‘‘ध्वनि’’ का प्रदूषण हो। ‘‘गंदगी’’ और ‘‘प्लास्टीक कचरा’’ सीधे एवं ‘‘नाला’’ ‘‘सीवेज’’ इत्यादि के द्वारा नदियों में मिलने के कारण तथा उन सबके कारण नदियों में जल बहाव न हो पाने के कारण जल का प्रदूषण। ‘‘कल कारखानों’’ से विभिन्न रासायनिक क्रियाओं से उत्पन्न ‘वायु’ को दूषित करने वाला एवं कारखानो द्वारा नदी नालो में छोडे गये अवशेषो के कारण ‘‘औद्योगिक प्रदूषण’’। आद्यौगिक विकास के कारण नष्ट होते जंगल, वृक्ष व कृषि भूमि का रकबा कम हो जाने के कारण हो रहा प्रदूषण। कीटनाशक व रासायनिक खाद्य के प्रयोग के कारण ‘‘जमीन’’ की उत्पादकता को क्षरण करने वाला प्रदूषण। निर्माण कार्य सड़क पर धूल के कारण प्रदूषण। कृषि अवशेष को जलाने से उत्पन्न प्रदूषण। डीजल पेट्रोल के उपयोग के कारण फैलता प्रदूषण। राजनैतिक रैली व मीटिगें में लाखो की भीड़ एकत्रित करण के कारण लाउड़ स्पीकर इत्यादि के द्वारा हो रहा ध्वनि एवं अन्य प्रदूषण। मिलावटी चीजों के उपयोग के कारण मानव के स्वास्थ्य में गिरावट डालने वाला प्रदूषण। आदि-आदि अनेकानेक प्रदूषण के कारक हमारे जीवन में जीवित होकर बाधक हैं। ऐ.सी. से भी प्रदूषण होता हैं (एच.एफ.सी के कारण) लेकिन हद तब होती हैं जब प्रदूषण पर नियत्रंण के निर्णय, निर्देश, आदेश ऐ.सी. रूम में लिये जाते हैं।
सबसे बड़ी दिक्कत यह हैं कि न केवल इस मुद्दे में या इस तरह के अन्य मुद्दो में सरकार से लेकर न्यायालय तक में जो हो रहा हैं वह मुद्दो की मूल (जड़) में न जाकर मात्र उनसे उत्पन्न परिणामों को रोकने का प्रयास भर हो रहा हैं, जिससे इस प्रकार के प्रयास असफल हो रहे हैं। सर्वविदित ‘‘मूल’’ तथ्य हैं कि शराब पीना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हैं, लेकिन सरकार बेच रही हैं। वह कतिपय जगहो पर शराब बेचने पर प्रतिबंध लगाती हैं, लेकिन शराब के उत्पादन पर रोक नहीं लगा रही हैं। उत्पादको द्वारा ‘‘सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हैं,’’ यह चेतावनी, विज्ञापन में छापने के बाद न केवल उसे बेचने की छूट हैं बल्कि उसका खूब उपभोग भी किया जा सकता हैं जो वायु प्रदूषण करता हैं। यद्यपि सरकार ने वीआईपी व्यक्तियों के लिये वीआईपी जगह पर स्मोकिग जोन सिगरेट पीने के लिये बनाई हैं। क्या आपने किसी ग्राम में बीडी पीने के लिये स्मोकिग जोन देखा हैं? चंूकि पटाखे फोड़ना वातावरण को प्रदूषित करता हैं इसीलिए उनकी बिक्री पर कुछ जगह रोक जरूर लगायी गई हैं लेकिन उनके उत्पादन पर कोई रोक नहीं हैं। ऐसी ही अनेकानेक कितनी ही वस्तुएं हैं जो हमारे स्वास्थ्य, प्रकृति व प्राकृतिक वातावरण के लिए सर्वथा हानिकारक हैं लेकिन हम उनके ‘‘मूल’’ अर्थात् ‘‘उत्पादन’’ पर किसी प्रकार की रोक नहीं लगाते हैं। केवल बिक्री पर सीमित प्रतिबंध लगाकर अपने दायित्व व कर्त्तव्यो की इतिश्री मान लेते हैं। जब तक इनके ‘‘मूल’’ यानि ‘‘उत्पादन’’ पर रोक नहीं लगाई जाती हैं तब तक सिर्फ उसके उपयोग/उपभोग पर अंाशिक प्रतिबंध से कुछ हासिल नहीं कर पायेगे। मात्र मीडिया में कुछ मिनट की सुर्खियाँ हासिल कर लेने के अलावा! इसके लिये इतिहास हमे कभी माफ नहीं करेगा। ऐसे दूषित दुर्व्यसनो का उपयोग, उपभोग,उपभोक्ता न करे इसका नैतिक पाठ पढाने की, व नागरिको को जागरूक करने के लिये कोई समयबद्ध, चरणबद्ध लगातार नीति निर्धारण करने एवं उनको लागू करने का नैतिक बल भी हमारे शासन-प्रशासन में नजर नहीं आता। 
सीमित प्रतिबंध कहीं न्यायालय द्वारा, कही प्रशासन द्वारा व कही शासन के द्वारा विधायिका के माध्यम से कानून बनाकर लगाया गया हैं। लेकिन इन सबके बावजूद हमारी मूल जड़ को ध्वस्त करने की इच्छाशक्ति नहीं हैं क्योंकि इनसे सरकार को बड़ा राजस्व मिलता हैं तो उपभोक्ता को भी आनंद की अनुभूति होती हैं। शायद इसीलिए मध्य प्रदेश सरकार ने तो आंनद विभाग ही खोल दिया हैं और हमारे यहां के गृहमंत्री ने प्रभावीत प्रदेशो के नागरिको को अपने प्रदेश में निमत्रित कर पटाखा फोडने का आंनद लूटने का खुला आमंत्रण दिया हैं। शायद मध्य प्रदेश भारत का एक मात्र प्रदेश हैं जहां आंनद विभाग की उत्पत्ति हुई हैं, जो अपनी स्थापना के औचित्य को सिद्ध करने के प्रयास में लगा हुआ हैं।
अंत में एक बात और जब डीजल-पेट्रोल से होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिये सीएनजी इलेक्ट्रानिक, बैटरी की कार, टैक्सी, बस चलाई जा सकती हैं, तब बिना प्रदूषण रहित पटाखे का निर्माण हमारे देश के वैज्ञानिक क्यो नहीं बना पा रहे हैं, इस प्रश्न का उत्तर ढूढ़ने का प्रयास अवश्य किया जाना चाहिये।  

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