सोमवार, 31 अगस्त 2020

‘‘मंदी के दौर’’ में माननीय उच्चतम न्यायालय ने ‘‘एक रूपये’’ का मूल्यांकन ‘बढ़ा’ दिया!


 "त्वरित टिप्पणी’’
माननीय उच्चतम न्यायालय ने ‘‘अवमानना’’ के मामलें में आखिरकार आज प्रशांत भूषण को जिन्हे पूर्व में दोषी पाया गया था, बहुप्रतिक्षित ‘‘सजा’’ सुना ही दी। ‘‘सजा’’ ‘‘एक रूपये का जुर्माना’’ (फाइन) और जुर्माना अदा न करने पर तीन महीनों की साधारण जेल तथा तीन साल तक वकालत करने पर प्रतिबंध लगाया गया। जुर्माना; एक रूपये जमा न करने पर विकल्प में जो सजा दी गई है, उक्त एक रूपये का मूल्याकंन आप खुद ही "विकल्प का मूल्यांकन" करके कर सकते है।
‘‘अवमानना’’ का यह प्रकरण कई मामलों में विशिष्टता लिए हुये है। प्रथमत: इस मामले में किसी भी व्यक्ति ने प्रशांत भूषण के विरूद्ध अवमानना की शिकायत नहीं की थी। प्रशांत भूषण द्वारा लिखे गये दो तथाकथित आपत्तिजनक ट्वीटस पर माननीय उच्चतम न्यायालय ने स्वयं संज्ञान लेकर प्रशांत भूषण को नोटिस दिया गया था। इससे एक विचार कौंधता है कि, क्या उच्चतम न्यायालय मानहानि का दृष्टिकोण लेकर, पूरे देश में न्यायालयों के बाबत लिखे जाने वाले लेख, टिप्पणी, भाषण इत्यादि का पर्यवेक्षण करते है? इसके पूर्व माननीय उच्चतम न्यायालय ने कितने बार स्वतः संज्ञान से यही कार्यवाही की है? चुकि माननीय उच्चतम न्यायालय देश की सर्वोच्च न्यायालीन संस्था है, तो क्या अधीनस्थ न्यायालय को भी इस तरह का 'संज्ञान' नहीं लेना चाहिए? यदि वे ऐसा संज्ञान नहीं लेते है तो, यह उच्चतम न्यायालय की अवमानना तो नहीं होगी? 
दूसरी बात इस प्रकरण में ‘‘बार’’ के सम्मानीय प्रतिष्टित वकीलों ने भी न्यायालय को प्रभावित करने का प्रयास किया है। लगभग 1000 से ज्यादा अधिवक्ताओं ने एक ज्ञापन उच्चतम न्यायालय को प्रशांत भूषण के पक्ष में दिया था। यह शायद पहली बार हुआ कि एक व्यक्ति को दोषी "घोषित" किए जाने के बाद 'सजा' सुनाये जाने के पूर्व दोषी पाये जाने के निर्णय का विरोध किया गया। क्या सिर्फ इसलिए कि दोषी व्यक्ति उच्चतम न्यायालय के एक सम्मानित वकील है? क्या इसके पूर्व बार के सदस्यों ने इस तरह से कभी हस्तक्षेप किया है? ज्यादा अच्छा यह होता कि वे एक पुर्निविचार याचिका दायर करते? अटॉर्नी जनरल वेणु गोपाल ने भी न्यायालय से प्रशांत भूषण को चेतावनी देकर कोई सजा न देने का तर्क रखा था। यह भी इस प्रकरण की एक विशिष्टता है जहां  महान्यायवादी  अटॉर्नी जनरल की ओर से उपस्थित न होकर स्वयं प्रशांत भूषण के पक्ष में बोले हैं। ऐसा लगता है, माननीय उच्चतम न्यायालय कहीं न कहीं इस प्रकरण में उपरोक्त ज्ञापन के कारण दबाव व दुविधा में रही हो सकती हैं। उक्त दबाव कितना प्रभावी रहा होगा यह एक गंभीर चिंतन का विषय होगा। एक तरफ माननीय न्यायाधिपति उच्चतम न्यायालय की गरिमा को बनाये रखने के लिए प्रशांत भूषण से माफी मांगने के न्यायालय के अनुरोध के बावजूद उनके द्वारा मांफी न मागने पर वे सजा देने के लिए मजबूर व मजबूत थे। दूसरी ओर कड़क सजा न देकर साफ्ट होकर स्वयं को साफ्ट कॉर्नर बना लिया। एक रूपया जमा न करने पर विकल्प में दी गई सजा दो विपरीत दूरस्थ सिरों के समान है। न्यायालय "न्याय" व "न्यायपालिका" के बीच प्रमुख भूमिका अदा करने वाले "वकीलों" को शायद नाराज नहीं करना चाहती थी। इसीलिए शायद इस तरह की सजा का निर्णय आया। लेकिन इस दुविधा के चलते माननीय न्यायालय ने इसे एक 'अलग' (आइसोलेट) केस न रखने से यह एक "नजीर" बन गई है। भविष्य में किसी भी व्यक्ति द्वारा "माननीय का मान" न रख पाने के कारण दोषी पाये जाने पर वह व्यक्ति इस नजीर का उदहरण देते हुये मात्र एक रूपये में छूट सकता है। 
एक महत्वपूर्ण बात औ! जस्टिस अरूण मिश्रा 2 सितम्बर को रिटायर्ड होने वाले है। यदि आज सजा नहीं सुनाई जाती तो, इस मामलें में फिर से नई बैंच के सामने सुनवाई होती। 27 व 29 जून को किये गये ट्वीटस पर "दो महीने" के भीतर सुनवाई होकर निर्णय भी आ गया। परन्तु इन्ही प्रशांत भूषण पर नवंबर 2009 से चल रहे ‘‘अवमानना’’ का एक मामला उच्चतम न्यायालय में अभी भी 'लम्बित' है। अतः प्रस्तुत मामलें में सुनवाई में कुछ 'जल्दबाजी' सी प्रतीत होती लगती है?
आश्चर्यजनक रूप से, उच्चतम न्यायालय ने एक रुपए जमा करने के लिए 15 दिन का वक्त दिया है। सामान्यतया जब इस तरह के जुर्माने होते हैं, तब तुरंत पैसे जमा न करने पर  कोर्ट उठने तक की सजा दी जाती है। लेकिन यहां पर एक रुपए जमा करने के लिए 15 दिन का समय दिया गया, वही माननीय उच्चतम न्यायालय ने करोड़ों रुपए की कुछ वसूली के मामलों में  तुलनात्मक रूप से इस तरह की सुविधा नहीं दी । इसका अर्थ यही निकलता है कि न्यायालय ने जी "सजा" देते समय भी प्रशांत भूषण को जेल न जाना पड़े, उसका एक रास्ता बनाने का प्रयास किया प्रतीत लगता है।
प्रशांत भूषण ने उच्चतम न्यायालय व अटॉर्नी जनरल के अनुरोधों को यह कहकर स्वीकार नहीं किया कि, मुझे पीड़ा है। मुझे अदालत का अवमानना का दोषी ठहराया गया है। मैं सदमे में हूं। आगे उन्होंने कहा कि मेरा बयान सद्धभावनापूर्ण था। अगर मैं इस अदालत से मांफी मांगता हूं तो यह मेरी "अंतरात्मा" व उस "संस्था" की जिसमें मैं "आस्था" रखता हूं, की अवमानना होगी। प्रशांत भूषण का उक्त कथन शायद नये विवाद को जन्म दे सकता है। व्यक्ति और संस्था में कौन बड़ा है? निःसंदेह संस्था को ही बड़ा माना जाता रहा है। लेकिन यहां पर उन्होंने स्वयं की अंतरात्मा की आवाज को ‘संस्था’ से यदि बड़ा माना नहीं तो उसके 'बराबर' अवश्य ला दिया है।  
चूँकि मैं जूम ऐप (ऑन लाईन) के माध्यम से ‘‘स्वराज्य अभियान से’’ आज जुड़ा था, जहां पर सजा सुनने के बाद प्रशांत भूषण के पिताजी शांति भूषण ने यह कहा कि पूरे देश से एक-एक रूपया उच्चतम न्यायालय में जमा कर देना चाहिए। प्रशांत भूषण इस पर क्या निर्णय लेते है, यह देखने की बात होगी।

शनिवार, 29 अगस्त 2020

आज तक’’ के ’’रिया ’’के इंटरव्यू ने ’’आज (अभी) तक’’ का सबसे बड़ा ’’हंगामा’’ खड़ा कर दिया।

’इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में स्वयं को देश का ’’सबसे आगे’’ ’’सबसे तेज’’ कहने वाला (अरुण पुरी का) चैनल ’’आज तक’’ और उसका अंग्रेजी संस्करण ’’इंडिया टुडे’’ के कार्यकारी संपादक राजदीप सर देसाई के ’’सुशांत आत्महत्या’’ प्रकरण में ’’प्राइम व प्रथम’’ अभियुक्त ’’रिया चक्रवर्ती’’ से  लगभग पौने दो घंटे (एक घंटा 42 मिनट) के धमाकेदार साक्षात्कार (इंटरव्यू) ने ’’दर्शको’’ं के पहले ही स्वंय ’’मीडिया’’ के भीतर ही एक बड़ा ’’धमाका’’ पैदा कर दिया है। देश के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ’’इतिहास’’ में शायद यह पहली बार ही हुआ है, जब एक नामजद अभियुक्त के इंटरव्यू के कारण सबसे ज्यादा दर्शकों के द्वारा देखे जाने वाले प्रमुख इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ’’आज तक’’ के विरुद्ध एक साथ कई अन्य मीडिया चैनल खड़े हो गए हैं। इसके पूर्व कभी भी हमने (परस्पर प्रतिस्पर्धा के बावजूद) मीडिया को सामान्यतया एक दूसरे के विरुद्ध आरोप-प्रत्यारोप लगाते हुए नहीं देखा है। जैसा कि ‘‘रिया’’ के उक्त इंटरव्यू ने कई मीडिया हॉउसेस को ’’आज तक’’ के विरुद्ध खड़ा कर दिया है। यद्यपि ’’न्यूज-18’’ ने भी रिया का इंटरव्यू प्रसारित किया है। साथ ही एन.डी.टी.वी के सवंाददाता ने भी रिया से बातचीत की हैं। लेकिन अन्य मीडिया हाउसेस ने उन सबका संज्ञान शायद इसलिए नहीं लिया है कि टीआरपी की दौड़ में वे न्यूज 18, एन.डी.टी.वी. या अन्य कोई मीडीया को अपना प्रतिद्वंदी नहीं मानते हैं। इसलिए ‘‘आज तक’’ पर ही अन्य मीडियों द्वारा यह आरोप लगाया जा रहा है कि, उसने एक ‘‘मुख्य अभियुक्त’’ को एक बडे मीडिया का प्लेटफॉर्म देकर ‘रिया’ को प्रचारित कर उसके घडि़याली आंसू दिखाकर ’’तथाकथित सात्वना’’ मिलने से ’जांच’ को प्रभावित करने का प्रयास किया जा रहा है। इसलिए यह आरोप भी लगाया गया है कि यह एक प्रायोजित व स्क्रिप्टेड (लिखा हुआ) इंटरव्यू है। क्या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि, किसी अभियुक्त का मीडिया द्वारा पहली बार इन्टरव्यू प्रसारित किया गया है? सैकड़ों अभियुक्तों के उदाहरण समस्त मीडियो के प्लेटफार्म पर मिल जाएंगे। सिर्फ सामान्य अभियुक्तियों के ही नहीं, बल्कि ‘‘आर्थिक आपराधिक अपराधी,’’ कई हत्यारों के ’’हत्यारे’’ डाकू, स्मगलर, आतंकवादी, देशद्रोही, देश के विरूद्व दूसरे देशों के शत्रु व्यक्ति, ऐसे न जाने कितने घृणित अपराधों के आरोपियों को समय-समय पर विभिन्न मीडियो ने अपने स्टुडियों में आदर पूर्वक बुलाकर, चाय पिलाकर इंटरव्यू लिये है। और उन्हें लाइव बहस में बैठा कर चर्चा भी करवाई है। उदाहरणार्थ आतंकवादी दाऊद इब्राहिम, अबु सलेम, याकूब मेमन, ताहिर हुसैन चंदन तस्कर वीरप्पन कई हत्यारों का अपराधी विकास दुबे, ईन्द्राणी मुखर्जी ऐसे न जाने कितने उदाहरणों से मीडिया के स्टूडियों के प्लेटफार्म भरे पड़े हुये होंगे। रिया के आज तक के तथाकथित प्रायोजित साफ्ट लेकिन लम्बे चौडे़ धमाकेदार इंटरव्यू से  यदि जांच प्रभावित होती है, तो कृप्या समस्त मीडिया हाउस क्या यह बतलाने का कष्ट करेंगे कि, पिछले 2 महीने से जिस तरह से सुशांत आत्महत्या प्रकरण में रिया सहित अन्य कई व्यक्तियों के विरुद्ध आत्महत्या के लिये उकसाने से लेकर हत्या तक के आरोपों की स्टोरी (कहानी) मीडिया में चलाई जा रही है। तब क्या जांच प्रभावित नहीं होती है? हद तो तब हो गई, जब ‘‘प्राथमिकी’’ आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध के लिए दर्ज हुई है, हत्या की दर्ज नहीं है। न ही  शिकायतकर्ता ने अपनी लिखित शिकायत में अथवा अपने बयानों व कथनों में हत्या का आरोप लगाया हैं। लेकिन विभिन्न एजेंसियों की जांच के दौरान पाए गए तथाकथित तथ्यों व सबूतों को अनाधिकृत रूप से चुपके से लीक किए जाने के आधार पर मीडिया का एक बड़ा वर्ग उन्हें सत्यापित किए बिना विभिन्न कहानियां गढ़ कर, रच कर, हत्या सिद्ध करने पर तुला हुआ है। यह कितना उचित हैं?
क्या इस तरह से मीडिया द्वारा समस्त दर्ज आरोपियों व ’अनामित’ व्यक्तियों को अपराधी दिखाकर उनके विरुद्ध एक तरफा रिपोर्टिंग नहीं की जा रही है? क्या यही निष्पक्ष व स्वथ्य पत्रकारिता है? क्या ऐसी यह रिपोर्टिंग एक फिक्सड़ (गाइडेड) लक्षित उद्देश्य लेकर की जाने के कारण जांच को प्रभावित करने का यह तरीका नहीं है? समाचार लेखनी व प्रेषण (न्यूज रिपोर्टिंग) (पत्रकारिता) तथा न्याय का यह एक मान्य प्रचलित सिद्धांत है कि, यदि आप किसी व्यक्ति या संस्था के विरुद्ध कोई रिपोर्टिंग कर रहे हैं, तो उस व्यक्ति या संस्था से उनका पक्ष जानकर उनकी भी रिपोर्टिंग करें। तभी वह निष्पक्ष पत्रकारिता कहलाएगी। सिर्फ ’एक पक्ष’ को सामने लाने का मतलब विशिष्ट उद्देष्य के लिये एक पक्षीय रिपोर्टिंग करना कहलायेगा। इसलिए उन मीडिया हॉउसेस को यही सलाह है कि, दूसरों पर पत्थर फेंकने के पहले स्वयं के गिरेबान में भी झांके। जब वे स्वंय ‘‘कांच’’ के घर में रह रहे हैं, तो उनको दूसरे पर ‘‘पत्थर फेंकने’’ का क्या अधिकार है? वैसे उक्त विवाद में एक अच्छी बात यह निकल कर आई है, कि मीडिया के किसी भी व्यक्ति पर अन्य किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा हमला या कोई कार्रवाई करने पर अभी तक समस्त मीडिया एकजुट होकर अपने व्यक्ति की रक्षार्थ दीवार बनकर सामने खड़े हो जाता था। यह पहली बार हुआ है, जब मीडिया का यह सिंडिकेट टूट कर परस्पर आमने सामने खड़ा हो गया है।
उक्त उपजे विवाद ने एक प्रश्न को जरूर जन्म दे दिया है, वह यह कि अभियुक्त के टीवी इंटरव्यू से जांच प्रभावित हो सकती है। तो फिर इन पर वैधानिक प्रतिबंध क्यों नहीं लगा दिया जाता है? और यह मांग वे समस्त मीडिया चैनल क्यों नहीं कर रहे हैं व उठा रहे हैं जो उक्त प्रायोजित इंटरव्यू की आलोचना कर रहे है। अतः यदि उक्त आलोचना को सही अंजाम तक पहुंचाना है, तो आपको ये कदम उठाने ही होंगे। तभी आपकी आलोचना सार्थक कही जा सकती है। ’’प्रेस की स्वतंत्रता’’ व लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ जैसे ’’प्रिय लुभावने नारे’’ व उसकी स्वतंत्रता ‘‘मधुमक्खी के छत्ते के’’ समान होने के, कारण साहस की कमी के कारण से यदि कानून नहीं बनाया जा सकता है, तो समाचार पत्रों, एजेंसियों की संस्था एनबीए, भारतीय प्रेस परिषद व अन्य संस्थाआंे की स्वयं आगे आकर इस संबंध में एक आर्दष आचार संहिता क्यों नहीं बनाना चाहिए? वैसे कल ही भारतीय प्रेस परिषद ने मीडिया की सुशांत प्रकरण की रिपोर्टिंग पर एक एडवाइजरी जारी कर कहा है कि, पत्रकारिता आचरण के मानकों का पालन करते हुये मीडिया स्वयं के समानांतर ट्रायल को अंजाम न दें। उक्त इंटरव्यू में रिया द्वारा अपनी प्रतिरक्षा में दिए गए तथ्यों व तर्को पर पर यह अन्य मीडियो और विशेषकर सुशांत के वकील विकास सिंह द्वारा यह तर्क दिया गया कि कोई आरोपी कभी आरोप स्वीकार करता है क्या? बात सामान्यतया सही है। लेकिन आपको इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि प्रस्तुत प्रकरण में स्वयं रिया ने न केवल सर्वप्रथम सीबीआई जांच की मांग की थी, बल्कि वह अभी भी यह कह रही है कि यह आत्महत्या या हत्या का जो भी मामला है, उसकी पूरी जांच होनी चाहिए। ऐसी परिस्थितियों में इसके पूर्व कभी किसी अभियुक्त ने ऐसा कभी कहा हैं? उच्चतम न्यायलय में भी रिया ने सीबीआई जांच का समर्थन किया था। वह जांच में पूरा सहयोग दे रही है। और अभी तक किसी भी जांच एजेंसियों ने यह आरोप नहीं लगाया है कि रिया जांच में सहयोग नहीं दे रही है। 
इन समस्त बातों के बावजूद ’’आज तक’’ को इस बात का तो स्पष्टीकरण देना ही होगा कि इतने लम्बी समयावधि (लगभग पौने 2 घंटे) के साक्षात्कार की क्या आवश्यकता थी? न तो घटना बड़ी व बहुत ही महत्वपूर्ण थी और न ही अभियुक्त कोई बहुत बड़ी ‘सेलिब्रिटी’ हैं। प्रधानमंत्री के भी इंटरव्यू एक घंटे से ज्यादा अवधि के लिए नहीं किये गये है। जिस प्रकार चुप्पी कई बार प्रश्नांे को जन्म दे देती है। उसी प्रकार उक्त लम्बी अवधि का इंटरव्यू (खटकने के कारण) कुछ आशंका को अवश्य जन्म देता है। इसका जवाब तो ’आज तक’ को देना ही चाहिए।
लेख का समापन करते-करते अभी केन्द्रीय जांच अन्वेक्षण ब्यूरों ने ‘रिया’को सुरक्षा प्रदान करने के आदेश दिये है। इस संबंध में सुशांत के परिवार के वकील विकास सिंह अब क्या कहेगें? क्योंकि यह भी शायद पहली बार ही हुआ है कि, सीबीआई ने मुंबई पुलिस को एक नामजद आरोपी रिया को ‘‘कस्टोडि़यन सुरक्षा’’ की बजाए स्वयं की सुरक्षा हेतु पुलिस सुरक्षा मुहैया कराने के आदेश दिये हैं।

शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

‘‘सुशांत केस’’ ने देश की ‘तंत्र‘ व्यवस्था को ‘‘ए ए ए‘‘ ‘‘श्रेणी’’ में ला दिया है?


भारत ‘‘अनेकता में एकता‘‘ लिए हुआ देश कहलाता है। ठीक इसी प्रकार भारत विभिन्न ‘‘तंत्र‘‘ लिए हुआ देश भी है। वैसे तो यह विश्व का सबसे बड़ा तांत्रिकों का देश भी है। लेकिन आज मैं इन तांत्रिकों की चर्चा नहीं कर रहा हूँ। ये तांत्रिक स्वंय तो ‘‘समाधि निंद्रा में लीन’’ होते है। जब कि ‘‘राजनैतिक तांत्रिक’’ स्वयं को जाग्रत रखकर जनता को सुनहरे सपनों की दुनिया में नींद में सुलाना ही अपना कर्त्तव्य समझते हैं। इसलिए आज इन ‘तंत्रों’ पर राज करने वाले राजनैतिक तांत्रिकों की चर्चा कर रहा हूँ, जो सामयिकी हैं।
सबसे बड़े तंत्र ‘‘लोक‘‘ ‘‘तंत्र‘‘ के साथ ‘विधायिका’, ‘कार्यपालिका’ व ‘न्यायपालिका’ का ‘मजबूत व आदर्श‘ (?) ‘तंत्र‘ हमारे देश में मौजूद है। इन समस्त तंत्रों के सहयोगी ‘प्रशासन‘, ‘पुलिस‘ और ‘मीडिया‘ तंत्रों के ही ज्यादातर दैनिक जीवन दिनचर्या के कार्यों में आगे रहने से हम सब के सामने इन्हीं तंत्रों के प्रदर्शन ज्यादा होते रहें है। इसीलिए स्वभावतः  प्रमुख रूप से आजकल इन्हीं तंत्रों की चर्चाएं प्रायः ज्यादा होती रहती है। उपरोक्त तंत्रों के उल्लेख करने का आशय मात्र इतना ही है कि, जिस प्रकार डिवेन्चर्स या फिल्मों का मूल्यांकन करते समय इस तरह की श्रेणियां ‘ए‘, ‘एए‘, ‘एएए‘, ‘‘बीबीबी’’, ‘‘सीसी’’,‘डी’ इत्यादि देकर उनका मूल्यांकन किया जाता है। वित्तीय कारोबार में भी क्रेडि़ट रेटिंग एजेंसी (सीआरए) ‘क्रिसिल’, इक्रा’, ‘केयर’, ‘मूडीज’ निमित्त ‘फिच’ इत्यादि रेटिंग देती है। ठीक उसी प्रकार सुशांत केस ने इन समस्त ‘‘तंत्रों’’ को ‘‘मजबूत’’ कर के सबसे सर्वश्रेष्ठ ‘ए ए ए‘ श्रेणी (?) में ला खड़ा किया है, जिसके लिये समस्त ‘‘तंत्रों’’ को बधाई। ‘‘सुशांत‘‘ की तरह लगभग  ‘निष्प्राण‘‘ हो चुके सुशांत प्रकरण में ये समस्त तंत्र एक निमित्त साधन बन गये। कैसे! आइये! आगे देखते है।
सबसे पहले पुलिस तंत्र की चर्चा कर लें। सीबीआई भी आम बोल चाल की भाषा व आम समझ में तो वृहत पुलिस का ही भाग मानी जाती है। सर्वप्रथम पटना पुलिस ने अति सक्रियता दिखा कर मुंबई पुलिस की निष्क्रियता के कारण पुलिस तंत्र पर लगे दाग को धो ड़ाला। लेकिन मुम्बई पुलिस को कटघरे में खड़ा कर दिया। मुख्य रूप से आत्महत्या (अभीतक) की घटित घटना का पटना से कुछ संबंध न होने के बावजूद जिस तेजी से एक लिखित शिकायत पर पटना में प्राथमिकी दर्ज कर ली गई, वह वाकई काबिले तारीफ है। 25 जुलाई को प्राथमिकी दर्ज होने के बाद एसआईटी का गठन फिर शिकायतकर्ता के अनुरोध पर बिहार सरकार द्वारा मामला सीबीआई को सौंपने के लिए सिफारिश करने की तीव्रता दिखाने के साथ केन्द्रीय सरकार द्वारा 48 घंटे में उन्हे स्वीकार कर लेने के लिए भी सारे तंत्र बधाई के पात्र है। जबकि उच्चतम न्यायालय को भी सीबीआई जांच का आदेश देने में एक पखवाड़ा लगा। ‘प्राथमिकी’ दर्ज करने के संबंध में उच्चतम न्यायालय का निर्णय भी अपने पूर्व निर्णयों के विपरीत है। 
सीबीआई, जिसे कभी यही माननीय उच्चतम न्यायालय ने ‘‘तोते का पिंजरा’’ कहा था, की तेजी और सक्रियता, तो देखने लायक होकर लाजवाब है। सीबीआई की इतनी तीव्र सक्रियता, मेहनत  निष्पक्षता व निष्ठा शायद ही कभी हाल के याद आने वाले दिनों में दिखी हो। शायद सीबीआई के लिए सुशांत केस ‘‘वॉटरगेट कांड’’ या ‘‘नानावती हत्याकांड’’ से भी ज्यादा महत्व लिए हो गया है, या उसे ऐसा बनने हेतु बाध्य कर दिया गया है? क्योंकि यह तो देखना ही होगा कि सीबीआई यह सब जो कार्रवाई कर रही है वह पिंजरे में बंद तोते के समान कर रही है या जांच कार्यवाही में सीबीआई का तोता अब पिंजरे से स्वतंत्र हो गया है। अथवा यह ‘‘स्वतंत्रता’’ वैसी ही तो नही है जिसमें  पिंजरे के मालिक  द्वारा तोतेे को स्वतंत्र करने के बावजूद वह उड़ कर वापिस लौट कर पुनः उसी पिंजरे में आ जाता हैं।
‘‘सुशांत’’ का देश के लिए बहुत बड़ा योगदान है? ऐसा लगता है, शायद पंडित दीनदयाल उपाध्याय से भी ज्यादा, जिनकी संदेहास्पद स्थिति में हुई मृत्यु की जांच की क्या स्थिति हुई, सबको विदित है। ‘‘सुशांत‘‘ वर्त्तमान में देश के सबसे बड़े  आइकॉन हो या बना दिये गये है। इसी कारण से सीबीआई ने देश की समस्त जांच एजेंसियों को इस जांच में लगा रखा है। फिर चाहे वह मुंबई पुलिस, बिहार पुलिस, एसटीएफ या नारकोटिक्स जांच एजेंसी (एन.सी.बी) हो, ’’एम्स’’ और इससे भी एक कदम आगे जाकर ‘‘ब्रेन ऑटोप्सी’’ जो अभी तक देश में मात्र तीन बार हुई है। आज तो इस मामले में ‘‘मानवाधिकार आयोग‘‘ भी जुड़ गया है। न्याय का यह मान्य व प्रचलित सिद्धांत है कि भले ही सौ दोषी छूट जाएं, लेकिन एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। शायद यही सिद्धांत सीबीआई इस जांच में लगा रहा है कि भले ही सौ पूर्व जांचें असफल हो गई हो, लेकिन इस एक जांच में चाहे गए परिणाम को सामने लाकर सीबीआई अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सकें। इसीलिए इतनी समस्त जांच एजेंसीयों का एक साथ सिर्फ एक मामले में जुड़ना अच्छा लग रहा है न।?
अब बात मीडिया तंत्र की सक्रियता की कर लें। एकाघ मीडिया जैसे ‘एनडीटीवी’ को छोड़ दें तो, लगभग अधिकांश मीडिया ने सुशांत की आत्महत्या होने के दिन से लेकर आज तक अपना कितना समय सुशांत घटना के कवरेज (प्रसार) में लगाया है, इसका आपको अंदाज है? स्वयं को ‘‘सबसे तेज’’ ‘‘सबसे आगे’’ कहने वाले मीडिया को तो अब सबसे ज्यादा समय तक कवरेज करने वाला मीडिया भी कहना चाहिए। अमिताभ बच्चन की एक फिल्म ‘तीन’ संयोग वश जिसे मैंने कल ही देखा है, उसमें उनकी 8 वर्ष की पोती का अपहरण कर लिया जाता है। उसकी जांच पुलिस विभाग के साथ-साथ अभिताभ स्वयं भी करते है और अंजाम तक पहुंच जाते है। शायद इसी फिल्म से प्रेरणा लेकर ही मीडिया भी अलग-अलग अपनी टीमों को भेजकर जांच कर निष्कर्ष निकाल कर कहीं सीबीआई को सहयोग प्रदान तो नहीं कर रही हैं? लेकिन इसी मीडिया ने सुशांत के बाद हुये लगभग डेढ़ महीने बाद एक और कलाकार ‘‘समीर शर्मा’’ की आत्महत्या को ‘‘खबर’’ तक नहीं माना, बेखबर बनी रही । मीडिया की इसी सक्रियता पर उनके ही एक मीडिया साथी अपने एक प्रोग्राम में कह रहे थे, जो खबर नहीं है उसे खबर बनाकर परोसा जा रहा है। मीडिया का एक विकृत चेहरा देखने को मिला है।
मीडिया अपने विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिये खबरों को किस तरह से सिलेक्टिव और चूस (पंसद) करती है, उसकी एक बानगी देखिए! सुशांत व उसके परिवार से संबंधित अक्टूबर-नवंबर 2019 के कुछ वीडियो ’’आज तक’’ ने दर्शकों को दिखाएं और यह कहा की उनके परिवार के बीच तनाव के संबंध नहीं थे, जैसा कि रिया और कुछ अन्य लोग कह रहे हैं। सर्वप्रथम तो सुशांत के उनकी बहन से तनाव के संबंध में कुछ व्हाट्सएप मैसेज भी हैं, जिसे उसी के साथ ‘‘आज तक’’ ने नहीं दिखाया। इसके अतिरिक्त सुशांत व उनके परिवार के बीच कोई दुश्मनी थोड़े ही थी। संबंधों में उतार चढ़ाव रहता था, व कुछ तनाव भी रहता था। इसलिए नवंबर में दिखाएं वीडियो का कतई यह मतलब नहीं है कि उनके परिवार के बीच कभी तनाव रहा ही नहीं। मीडिया का अपने लक्षित (गाइडेड़) उद्देश्य को लेकर खबरों को प्रस्तुत करने का यह एक तरीका मात्र ही हैं।
क्या सीबीआई को मीडिया को भी अपनी एक ‘‘आनुषांगिक शाखा’’ नहीं मान लेनी चाहिए? ताकि उसके कार्यों के वजन का कुछ भार मीडिया वहन कर सकें। वैसे पूर्व में भी हम ‘‘न्यायिक सक्रियता’’ और ‘‘मीडिया की सक्रियता’’ देखते आए है। लेकिन पुलिस तंत्र की सक्रियता की  ऐसी मिशाल शायद ही पहले कभी देखने को मिली होगी। इसीलिए मैंने उपरेाक्त शीर्षक के द्वारा यह जताया है कि सुशांत केस ने समस्त तंत्रों को सक्रिय कर दागों को धोकर जनता की नजर में श्रेणी (अवार्ड) देने की श्रेणी (कैटेगरी) में ला दिया है। जय हो ‘तंत्र’! सुशांत की जय हो! शांत दिखने वाले सुशांत की शांति (जो उस का चरित्र रहा है) ने पूरे देश में अशांति का भूचाल सा ला दिया है और इस धारणा को गलत सिद्ध कर दिया है कि शांति  निस्तब्ध तथा कोला विहीन होती है।  
‘‘आपदा’’ को ‘‘अवसर’’ में बदलने के बोध वाक्य का अनुगमन करने वाले  तथा अन्य राजनैतिकगण, बिहार के होने वाले आगामी आम चुनाव के मद्देनजर हाथ में आये ऐसे अवसर को क्या ऐसे ही चले जाने देगें, छोड़ देगें? शायद नहीं! इसीलिये बिहार का प्रत्येक ‘राजनैतिक वोट’ सुशांत के साथ (शांतिपूर्वक नहीं ?) खड़ा हुआ है।

बुधवार, 19 अगस्त 2020

’आमिर व तुर्की की प्रथम महिला’ के बीच सौजन्य भेंट!एक विश्लेषण!

   
इस्लामिक देश तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन की धर्मपत्नी श्रीमती एमीन अर्दोआन से आमिर खान की ‘‘इस्ताबुंल’’ में हुई औंपचारिक ‘सौजन्य भेंट‘ की ‘‘सौजन्यता‘‘ ‘छुद्र‘ राजनीति के चलते मीडिया व ‘‘राजनीति‘‘ के हत्थे चढ़ गयी। प्रसिद्ध सुपरस्टार फिल्मी कलाकार आमिर खान अपनी फिल्म ‘‘लाल सिंह चड्ढा‘‘ की शूटिंग के लिए पेशेवर दौरे पर तुर्की गए हुए हैं। वहां के राष्ट्रपति की पत्नी से आमिर खान की मुलाकात को ‘‘कतिपय कुछ भारतीय क्षेत्रों’’ को रास न आने के कारण (उनके द्वारा) हंगामा खड़ा कर दिया गया है। 
प्रधानमंत्री अब्दुल्ला गुल के समय तक वर्ष 1990 से 2002 के बीच भारत, तुर्की के परस्पर संबंध सौहार्द पूर्ण रहे। परंतु वर्त्तमान राष्ट्रपति अर्दोआन के विश्व मुस्लिम समुदाय के ‘‘नेता’’ बनने के चक्कर (लालच) में हर किसी मौके बे मौके पर पाकिस्तान के साथ पूर्ण एकजुटता (सॉलिडिटी) के साथ खड़े दिखना चाहते हैं। ताकि विश्व का मुस्लिम समुदाय एक स्वर से उन्हें अपना नेता स्वीकार कर लें। उक्त उद्देश्य के चलते जुलाई 2020 में ‘‘हागिया सोफिया’’ चर्च को मस्जिद में बदलने के कारण भी वे काफी चर्चित हुये। साथ ही ‘अर्दोआन’ परमाणु शक्ति सम्पन्न बनने के लिये भारत से आवश्यक तकनीकि चाहते थे, जिसके लिए उन्होनें दो बार भारत का दौरा भी किया था। लेकिन भारत के सीधे इंकार कर देने से वे अब पूरी तरह से पाकिस्तान के साथ खड़े हो गये है। 
मामला चाहे कश्मीर में धारा 370 समाप्त करने का हो, या ‘‘उरी हमले’’ का, भारत के प्रति पाकिस्तान के अंध विरोध का उन्होंने लगातार समर्थन ही किया है। ‘‘राम मंदिर’’, ‘‘सीएए’’ कानून  विरोध के मामले में भी उन्होंने अनावश्यक हस्तक्षेप दिखाया था। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘‘आईएमएफ’’ में पाकिस्तान को ‘‘ब्लैक लिस्ट’’ न होने देने में भी तुर्की का बड़ा योगदान रहा है। इसी रुख के चलते उनके द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ की आमसभा (अक्टूबर 2019) में दिये उद्दबोधन में कश्मीर मुद्दे को उठाये जाने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी तुर्की के निर्धारित दौरे को रद्द कर तगड़ा विरोध दर्शाया था। इस प्रकार लगातार भारत विरोधी कदम उठाए जाने के कारण ही भारत देश व जनता की नजरों में फिलहाल तुर्किस्तान ‘‘निशाने’’ पर है। ये किसी सीमा तक, सही भी है। ऐसे उत्पन्न दुर्भाग्यपूर्ण संदर्भ में आमिर खान की हुई उक्त मुलाकात का विरोध कुछ हलकों में हो रहा है। परन्तु यह विरोध कितना जायज या उचित है, इस पर आपने गंभीरता से विचार किया है? आश्चर्य की बात तो यह है कि आमिर खान का यह पहला तुर्की दौरा या मुलाकात नहीं थी। बल्कि वर्ष 2017 में फिल्म ‘‘सीक्रेट सुपरस्टार’’ के प्रमोशन (प्रचार) के सिलसिले में जब वे तुर्की जा चुके है। तब उन्होनें स्वयं राष्ट्रपति अर्दोआन (पत्नि से नहीं) से ही मुलाकत की थी। तब ‘‘राष्ट्रप्रेम’’ को परिभाषित करने वाले इस ‘वर्ग’ की राष्ट्रभक्ति कहां सुप्त व लुप्त हो गई थी?
सुखद स्थिति यह है कि आमिर खान के तुर्की ‘‘जाने‘‘ (यात्रा) को लेकर कोई ‘‘विरोध‘‘ व्यक्त नहीं किया गया है। सिर्फ तुर्की के राष्ट्रपति की पत्नी से हुई उनकी मुलाकात पर गहरी आपत्ति अवश्य की गई है। इसका मतलब साफ है! भारत और तुर्की परस्पर दुश्मन देश तो नहीं है। यहां पर एक प्रश्न अवश्य यह उठता होता है कि क्या दो देशों की सरकारों के समय-समय पर परस्पर बदलते रुख व रवैयों के चलते, उन देशों की जनता के बीच भी संबंधों में तदनुसार बदलाव (तनाव/प्रेम) हो जाना चाहिए? दूसरा भारत सरकार ने अभी तक भारतीय नागरिकों के पाकिस्तान जो (दुश्मन नंबर एक) आने जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया है। परस्पर हाई कमीशन कार्यरत है। तुर्की में भी दूतावास बंद नहीं किया गया है। अर्थात राजनैतिक संबंध विच्छेद नहीं किए गए हैं। आखिर कार सरकार भी तो ‘‘शत्रु’’ देशों से संबंध सुधारना ही चाहती है। इसी भावना के चलते हमारे नेपाल से संबंध जो वर्त्तमान में अत्यंत खराब होकर ऐतिहासिक रूप से बहुत ही निम्न स्तर पर चल रहे हैं, इसके बावजूद भारत नेपाल के बीच नेपाल में भारत द्वारा दिए गए फंड के प्रॉजेक्ट को लेकर 17 अगस्त को ही काठमांडू में बातचीत हुई है। तब तुर्की में एक भारतीय नागरिक की व्यक्तिगत मुलाकात को राष्ट्रविरोधी कैसे ठहराया जा सकता है? जब तक कि यह बात सामने नहीं आ जाए कि उस मुलाकात में कोई राष्ट्र विरोधी चर्चा भी की गई? ऐसा कोई ‘‘आरोप’’ मुलाकात विरोधी लॉबी लगा भी नहीं रही हैं। तुर्की में रहे भारतीय राजदूत एम के भद्रकुमार ने तो उक्त मुलाकात की प्रशंसा की है। 
फिर यहाँ प्रश्न उत्पन्न होता है कि, क्या आमिर खान दोनों देशों के बीच एक ‘‘दूत‘‘ बनकर परस्पर संबंधों को ठीक करने में सहायक सिद्ध नहीं हो सकतें? स्वयं राजनयिक भद्रकुमार ने ऐसी आशा भी व्यक्त की है। आमिर खान की दो बार की मुलाकतों से यह आशा और ज्यादा बलवती हो जाती है। यहाँ मुझे याद आतें है, कि विदेशी मामलों के विशेषज्ञ प्रसिद्ध पत्रकार स्तंभकार डॉ वेद प्रताप वैदिक जिनके पाकिस्तान हुकुमरानों सहित अधिकांश पड़ोसी देशों श्रीलंका, बंग्लादेश, भूटान, अफगानिस्तान आदि के शासकों के साथ अच्छे प्रगाढ़ व्यक्तिगत संबंध रहे हैं, का भी इसी तरह का उपयोग करने के प्रयास भारत सरकार ने समय समय पर किया था। यह बात डॉ. वैदिक ने स्वयं मुझसे हुई व्यक्तिगत बातचीत में स्वीकार की थी। 
इस बात को भी आप को ध्यान में रखना ही होगा कि आमिर खान ने तुर्की के राष्ट्रपति से मुलाकात नहीं की है, बल्कि उनकी पत्नी से, जो वहां पर सरकार में किसी पद पर सुशोभित नहीं है। सिवाय इस विशेषाधिकार के कि वे देश की ‘‘प्रथम महिला‘‘ है। क्या मुलाकात के विरोधी लोगों का यह तर्क है कि भारतीय नागरिकों को तुर्की या पाकिस्तान जाना ही नहीं चाहिए? तब वे इस तरह के प्रतिबंध की मांग भारत सरकार से क्यों नहीं करते हैं? आमिर खान अपनी फिल्म की शूटिंग के लिए प्रोफेशनल दौरे पर तुर्की जाना गलत है तो उसका ‘‘वीसा‘‘‘ भारत सरकार द्वारा निरस्त क्यों नहीं कर दिया गया? यदि मुलाकात विरोधियों का यह कहना है कि एक भारतीय नागरिक को देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी का एहसास करते हुए स्वविवेक का उपयोग कर विवेक पूर्ण व्यवहार का पालन करना चाहिए। तब क्या यह ‘‘लॉबी‘‘ स्वयं विवेक पूर्ण व्यवहार कर रही है? ‘‘एक मुलाकात‘‘ एक ‘‘कदम‘‘ एक ‘‘कथन‘‘ एक ‘‘बयान‘‘ एक ‘‘फोटो सेशन’’ (सब कुछ जो फिलहाल सामान्य सा हैं) पर एक भारतीय नागरिक राष्ट्रभक्त से राष्ट्रद्रोही हो जाता है। परंतु उसकी ‘‘नागरिकता‘‘ हमेशा विद्यमान रहती है। क्या एक राजद्रोही व्यक्ति भारतीय नागरिक बना रह सकता है? ऐसे व्यक्ति की नागरिकता समाप्त करने के लिए कभी कोई प्रश्न उक्त लाबी द्वारा क्यों नहीं उठाया जाता है? मतलब साफ है, सिर्फ यह कोरी राजनीति ही है। 
‘‘राष्ट्रभक्त’’ और ‘‘राष्ट्रद्रोह’’ क्या इतने सस्ते सुलभ शब्द हो गए हैं की हर कभी इनका सुविधानुसार उपयोग कर लिया जाए? देशभक्ति से देशद्रोह तक का एक सफर होकर पड़ाव होता है। यदि आपने कोलकाता का प्रसिद्ध हावड़ा ब्रिज देखा होगा, या उस बाबत पढ़ा होगा, सुना होगा तो वह मात्र दो खम्बों पर टिका हुआ बीच के बिना किसी सहारे के खड़ा है। और एक सिरे से दूसरे सिरे तक लगभग एक किमी चलकर जाना होता है। यदि दोनों कालमों को परस्पर चिपका दिया जाए तो उनकी बीच की दूरी समाप्त हो जाएगी। ठीक इसी प्रकार हमारे देश में ‘‘राष्ट्रप्रेमी लॉबी’’ ने राष्ट्र प्रेम और राष्ट्रों द्रोहियों की बीच की दूरी को समाप्त कर दिया है। अर्थात यदि कोई 100 प्रतिशत राष्ट्र प्रेमी नहीं है, तो देशद्रोही हो जायेगा। राष्ट्र प्रेम के तनिक अभाव में निश्चित रूप से आप राजद्रोही ही ठहराये जायेगें। बीच का कोई सफर अब आपके लिए बचा ही नहीं है। वैसे भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए में परिभाषित देशद्रोह देश विरोध की उच्चतम न्यायालय ने अपने कई निर्णय में विस्तृत रूप से व्याख्या की है। कृपया चलते चलते उसको भी देख लीजियेगा। 
अतः यह स्थिति वास्तव में बहुत खतरनाक है, जो राष्ट्र प्रेम, देश भक्ति व देश के प्रति निष्ठा को मजबूत करने के बजाए और कमजोर करती है। इसलिए राष्ट्र द्रोही वह व्यक्ति नहीं है, जिस पर यह लॉबी प्रश्न-उंगली उठाती रही है (क्योंकि यह पहली बार नहीं हो रहा है) बल्कि अपने तुच्छ, संक्रीण दृष्टिकोण के चलते वह स्वयं राष्ट्र विरोधी जैसा कार्य कर रही है। ऐसे व्यक्ति की राष्ट्र के प्रति निष्ठा पर बेवजह उंगली उठाकर उसे कहीं ‘‘उसी दिशा‘‘ की ओर आप जाने अनजाने मंे ढ़केल तो नहीं रहें हैं? वर्त्तमान में सबसे बड़ी चिंता का विषय यही है।
एक और संयोग देखिए! 15 अगस्त को भारतीय स्वतंत्रता दिवस के दिन ही एक भारतीय नागरिक की व्यक्तिगत मुलाकात पर आपत्ति कर स्वतंत्रता पर ‘प्रतिबंध का आशय‘ प्रदर्शित करना, कितना औचित्य पूर्ण है? 
अंत में आमिर खान ने देशभक्ति व देश का सम्मान लिये हुये कई फिल्में बनाई हैं। जैसे ‘लगान’, ‘मंगल पांडे’, ‘सरफरोश’, ‘तारे जमीं पर’ आदि आदि। आमिर इनकेडि़बल इंडिया (अतिथी देवों भवः) के ब्राड़ ऐबसेड़र भी बनाये गये थे। तथापि उनके द्वारा दिये गये ‘‘असहिष्णुता’’ वाले बयान पर सरकार ने वर्ष 2017 में उन्हें उक्त पद से हटा दिया था। समाज की बुराइयों के खिलाफ समाज में बदलाव लाने की लड़ाई में एक मजबूत संदेश देने के लिए दूरदर्शन व स्टार टीवी नेटवर्क पर प्रसारित ‘‘सत्यमेव जयते’’ कार्यक्रम को बहुत सराहा गया। 88 प्रतिशत लोगों ने उसे क्रांतिकारी कार्यक्रम मानकर आमिर खान को बेहद सकरात्मक समीक्षा मिली थी। ‘‘लातुर’’ (महाराष्ट्र) में पानी की किल्लत को दूर करने में लगभग 100 करोड़ रूपये लोगो की सेवा में खर्च किये है। यद्यपि आमिर खान के पूर्व में कुछ बयान व कार्यवही ऐसी रहे है। जैसे (इजराइल प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से न मिलना) जिस पर कुछ लोगों की जायज आपत्ति हुई है। ऐसे आमिर खान की उक्त व्यक्तिगत शिष्टाचार वश मुलाकात पर अनावश्यक रूप से इतना हाई तोबा क्यों? 

गुरुवार, 13 अगस्त 2020

यह देश की ‘‘नीति’’ नहीं ‘‘राजनीति’’ है और शायद यही ‘‘नियति’’ भी है।

राजस्थान में अंततः सचिन पायलट खेमे की घर वापसी हो गई। यही कहा जा सकता है कि, ‘‘न माया मिली न राम’’ और ‘‘लौट के बुद्धू घर को आए’’। ‘‘सुबह का भूला शाम को घर आये’’ की स्थिति पायलट की नहीं थी। लेकिन ‘‘बुद्धू‘‘ सिर्फ पायलेट ही नहीं बने, बल्कि राजस्थान की भाजपा पार्टी की ‘‘न खुदा ही मिला न विसाले सनम’’ की स्थिति होकर कुछ बुद्धू बनकर उन पर भी थोड़े बहुत छीटें पड़े। महाराष्ट्र में खायी ‘‘विफलता’’ से सबक लेेकर सावधानी बरतते हुये अतिरिक्त होकर अतिउत्साह न दिखाते हुये ‘मध्यप्रदेश’ जैसी नीति अपनाई गई, जिस कारण से पार्टी ने स्वयं को गुनाह बेलज्ज्त होने से स्पष्टरूप से बचा लिया। शायद आंकडों के साथ परिस्थितियाँ एवं सचिन के तुलनात्मक रूप से सिंधिया से कमोत्तर होने के कारण भाजपा को शायद अपेक्षित सफलता नहीं मिल पायी। 
विधानसभा सत्र प्रारंभ होने की पूर्व संध्या को ही राजस्थान भाजपा विधायक दल के नेता गुलाबचंद कटारिया का बयान आया है कि वे 14 तारीख को शुरू होने वाले मानसून सत्र में अशोक गहलोत सरकार के विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाएंगे। क्या यह ‘‘खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे’’ को चरितार्थ तो नहीं कर रही है? ज्यादा समय व दिन नहीं बीते है, जब पत्रकारों द्वारा कूरेद-कूरेद कर पूछें जाने पर भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सतीश पुनिया एवं नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया ने अविश्वास प्रस्ताव लाने से साफ-साफ इंकार कर दिया था। यह कहकर कि न तो हमारे पास बहुमत है और न ही हमारा कोई इरादा अविश्वास प्रस्ताव लाने का है। बल्कि इसके विपरीत मुख्यमंत्री अशोक गहलोत द्वारा राज्यपाल से विश्वास मत प्राप्त करने के लिए सत्र बुलाने के किये गये अनुरोध पर प्रदेश भाजपा द्वारा यह कहकर आपत्ति की गई थी कि, जब मुख्यमंत्री के पास बहुमत का आंकड़ा है और भाजपा अविश्वास प्रस्ताव नहीं ला रही है तब विश्वास मत की क्या एवं क्यों आवश्यकता है। भाजपा का यह कथन व रुख उस स्थिति में था, जब 18 विधायक सचिन पायलेट के साथ राजस्थान से दूर भाजपा की हरियाणा सरकार की ‘‘मेहमान नवाजी की सुर्दृढ़ निगरानी‘‘ में थे। जिनके खिलाफ उनकी सदस्यता समाप्त करने के आवेदन स्पीकर के पास लम्बित थे। पायलट समर्थकों 19 विधायकों के वापस आने के बाद, गहलोत और पायलट के आजू बाजू में एक साथ खडे़ होकर हाथ मिलाते हुए फोटो सेशन के पश्चात और पायलट के कांग्रेस में बने रहने के सार्वजनिक बयान के बावजूद अचानक भाजपा के पास कौन सा आंकड़ों का जादू आ गया है? जिसके चलते राजस्थान भाजपा ने गहलोत सरकार के विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने का निर्णय लिया है। दिमाग काम नहीं करता है। वैसे राजनीति में दिमाग कम ‘’साम’ ‘दाम’ ‘दंड’ ‘भेद’’ ही ज्यादा चलता है। तथापि यह बात भी उतनी ही सही है कि भाजपा को वैधानिक और राजनीतिक दृष्टि से कभी भी अपनी सुविधानुसार अविश्वास प्रस्ताव लाने का पूरा अधिकार है।
राजस्थान की ‘‘नेतागिरी में जादूगरी‘‘ चलती है। मुख्यमंत्री स्वयं ‘‘जादूगरी’’ का कथन कह चुके है व ‘‘सिद्ध‘‘ भी कर चुके है। देश की केंद्रीय सरकार व विभिन्न राज्य सरकारें सिर्फ कोरोना संक्रमितों के मामले में ही आंकडों के खेल की बाजीगरी नहीं कर रही है। बल्कि राजनीति में भी आंकड़ों का ‘‘खेल’’ बखूबी चला आ रहा है। राजस्थान की उक्त घटना ने इस बात को पुनः सिद्ध कर दिया है। अपने 76 अंक में बागी 19 जोड़ने के बाद भी भाजपा बहुमत का दावा नहीं कर रही थी। तो फिर कांग्रेस के 102 के अंक में वापस हुये बागियों की 19 संख्या और जोड़ने के बाद कुल ‘अंकगणित’ भाजपा को अविश्वास प्रस्ताव लाने का नैतिक अधिकार कैसे दे सकता है, जो अधिकार पहले अधिक सुविधा युक्त आंकड़ों के बावजूद ‘‘अंतरात्मा‘‘ के चलते नहीं था। यदि इन आंकडों में आपने जरा सा भी अपना दिमाग खपाया, तो आप चक्कर खा जायेगें और राजनितिज्ञों द्वारा पागल करार दे दिये जायेगें। इसलिए इन राजनैतिज्ञों की राजनैतिक बातों, चालों और संख्या बल के आंकडों को उनके बीच में ही रहने दीजिये और आप अपने दिमाग की शांति के लिए ‘‘दर्शक दीर्घा‘‘ से हट जाये। यही आपके हक व हित में होगा, दीर्घा में खड़ा दर्शन लाभ लेता हुआ मूक दर्शक को भी नेता अपनी भीड़ तंत्र का एक हिस्सा ही मानता है। क्योंकि शायद लोकंतत्र की दशा व दिशा तय करने वाले भी आपसे यही अपेक्षा चाहते है रखते है, व करते है। यद्यपि मैं आपको अवश्य उक्त सलाह दे रहा हूं। परन्तु स्वयं उसका पालन नहीं कर पा रहा हूं। शायद ‘‘पृष्ठभूमि‘‘ के चलते! ‘‘राजनीति का कीड़ा‘‘ काटने के कारण जाने अनजानेे में लेखनी तो ही ‘स्वयं‘ चल पड़ती है।  
धन्यवाद।

बुधवार, 12 अगस्त 2020

‘‘सु शांत‘‘ केस ‘‘मोहम्मद साद’’ के ‘‘केस‘‘ के समान कब ‘‘शांत‘‘ होगा?



लोकतंत्र का ‘‘चौथा प्रहरी‘‘ कहे जाने वाले देश के मजबूत मीडिया ने ‘‘सुशांत‘‘ का ‘विग्रह’ कर सुशांत की ‘‘सु‘‘‘‘शांति‘‘, को पूरी तरह से ‘‘अशांति‘‘ में बदल दिया है। कैसे! आइये आगे जानते हैं। 
सुशांत की आत्महत्या के दो महीनों से भी ज्यादा समय व्यतीत हो जाने के बावजूद ऐसा कोई दिन नहीं गया होगा, जब प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक या सोशल मीडिया प्रत्येक में, कुछ न कुछ छप रहा है, दिखलाया जा रहा है, बताया जा रहा है या बोला जा रहा है। क्या मीडिया की यह वैसी ही ‘‘सक्रियता’’ तो नहीं है, जैसा कि न्यायालयों के कुछ मामलों में आए न्यायिक निर्णयों व अपनाई गई प्रक्रिया को लेकर कुछ कानूनविद उसे ‘‘न्यायिक सक्रियता‘‘ का नाम दे देते हैं। इसी को तो ‘‘मीडिया ट्रायल‘‘ कहते है, जहाँ फैसला देने की अनाधिकारिक चेष्ठा की जाती हैं। इस मीडिया ट्रायल ने सामान्य व परिस्थिति जन्य स्थिति में सुशांत की ‘‘शांत मृत्यु’’ ‘‘आत्महत्या’’ जो स्वतः सुखत हैं, की ‘‘गैर अपराधिक‘‘ (दिख रही) घटना को, ‘‘आत्महत्या सिद्ध करने के लिए प्रेरित करने’’ से लेकर हत्या तक के अपराध में बिना किसी ठोस सबूत के बदल दिया है। कोरोनाजन्य बेरोजगारी तथा बाढ़ राहत प्रबंधन की विफलता से घिरी बिहार सरकार के लिए तो सुशांत प्रकरण मानो तपते रेगिस्तान में ‘‘नखलिस्तान’’ (ओएसिस) की बहार लेकर आया है। ऐसे बिहार में होने वाले ‘संभावित’ आम चुनावों के मद्देनजर ‘सुशांत’ की लगातार मीडिया कवरेज से इस बात को पुनः सम्बल मिल गया है कि, मीडिया हाउसेस और राजनीतिक पार्टियों के बीच कितना गहरा नेक्सस (बंधन, गठबंधन, गठजोड़, संबंध, कड़ी, मेल जोल, घाल मेल) विद्यमान होता है।
आखिर सुशांत का इस देश के राजनीतिक सामाजिक और सांस्कृतिक (कल्चरल) क्षेत्र में कितना(?) महत्वपूर्ण योगदान रहा है? परिणाम स्वरूप मीडिया भी लगातार अपना महत्वपूर्ण योगदान  दिए जा रहा है। सुशांत एक ‘‘उभरते हुए’’ और निश्चित रूप से ‘‘सफलता’’ की ओर बढ़ते हुए कलाकार थे, इससे कोई इंकार नहीं। उनकी दुखदाई असामयिक मृत्यु निश्चित रूप से फिल्म उद्योग के लिए एक नुकसान है। परन्तु यह घटना क्या मीडिया में उतनी सुर्खियाँ पाने की अधिकारिणी है, जितनी की टीआरपी व अन्य कारणों के चलते उसे दी जा रही है।  
क्या मीडिया कृपया यह बतलाने का कष्ट करेगा कि, तबलीगी जमात मरकज के अध्यक्ष मोहम्मद साद जिसको शुरू में देश भर की जनता को तेजी से कोरोना संक्रमित करने के लिए बहुत जोर शोर से इसी मीडिया ने जिम्मेदार माना था। स्वयं केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने तत्समय अपनी नियमित संवादाता सम्मेलनों में कोविड़-19 से संक्रमितों की कुल संख्या बतलाते समय देश में संक्रमित तबलीगी जमात मरकज के सदस्यों की संख्या को भी प्रथम से उल्लेख करते रहे। आज उसी मीडिया ने उसे किस ‘कोने’ में रखकर गृह मंत्रालय जिसने इस मामलें में अपनी ‘‘लाईट को स्विच ऑफ’’ कर रिया के सहयोग से विलुप्त कर दिया है? विभिन्न कानूनों के उल्लघंन करने के कारण भिन्न-भिन्न अपराधों के लिये एफआईआर दर्ज करने के सिवाय उसी ‘प्राथमिकी’ के तहत आज तक मोहम्मद साद से कोई पूछताछ तक नहीं की गई है। ‘‘लुकआउट नोटिस’’ जारी करने के बाद आगे उस पर क्या कार्यवाही की गई? जिस प्रकार ‘‘ईडी’’ सुशांत केस में घंटों लगातार बार-बार कई-कई व्यक्तियों से पूछताछ कर रही है। लेकिन ‘साद’’ के मामलें में ‘‘ईड़ी’’ की ‘‘मिनटों’’ की पूछताछ के लिए भी जनता तरस गई। शायद सुशांत केस में अति व्यस्तता के चलते मीडिया के पास प्रश्न पूछने का समय ही नहीं है। इस ‘‘अनबुझे’’ सवाल को जब तक मोहम्मद साद से पूछताछ कर गिरफ्तारी कर प्रकरण को न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में जाने तक मीडिया इसे लगातार क्यों नहीं उठा रहा है? यह समझ से परे है। सुशांत की तुलना में मोहम्मद साद की जांच देश हित में और देश के स्वास्थ्य के लिए ज्यादा जरूरी है। ‘‘अपोजिशन‘‘ (विपक्ष) भी एक बार अपनी ‘‘पोजीशन‘‘ लेकर चुप बैठ गया है। सरकार (‘‘शासन प्रशासन‘‘) ने तो शुरू से ही पूरी तरह ‘‘मौन‘‘ साध लिया था। मीडिया भी इस ‘‘चुप्पी‘‘ व ‘‘मौन’’ पर प्रश्न क्यों नहीं उठा रहा है? शायद मीडिया भी चुप बैठ गया है! क्यों? क्या मीडिया को मौन करा दिया गया है?
दुख विषय इस बात का है कि जनता भी ‘‘मौन’’ पर ‘‘मौन’’ है और ‘‘चिल्लाहट‘‘ पर ‘‘मौन मुस्कुराहट बिखेर‘‘ रही है। मैं भी ‘मौन’ हूं! लेकिन मेरी लेखनी ‘मौन’ नहीं है। लेख समाप्त करने के पूर्व सुशांत केस के कुछ तथ्यों का उल्लेख करना सामियिक होगा। ताकि उक्त प्रकरण की वास्तविक वैधानिक स्थिति आपके सामने स्पष्ट हो सकें।
सुशांत केस में महत्वपूर्ण पहलू पटना में सुशांत के पिताजी के के सिंह की शिकायत आवेदन पर तुरंत फुरंत में बिना प्रारंभिक जांच के प्राथमिकी दर्ज होना है। जिसने पूरे मामलें को ‘‘एक राजनैतिक’’ मोड़ दे दिया है। चंूकि सुशांत बिहार के मूल निवासी थे। जहां पर निकट भविष्य में आम चुनाव होने की प्रबल संभावनाएं है। (क्योंकि आम चुनाव की नियत समय देय (ड्यू) हो गई  है) सुशांत के पिताजी के के सिंह के द्वारा मुंबई पुलिस के पास प्राथमिकी दर्ज करने हेतु कोई लिखित शिकायत नहीं भेजने (बावजूद इसके कि मुंबई पुलिस उक्त प्रकरण में कोई कार्यवाही नहीं कर रही है) के बाद पटना पुलिस का अधिकतम अधिकार क्षेत्र व दायित्व मात्र उक्त लिखित शिकायत पर जीरों पर प्राथमिकी दर्ज कर मुंबई पुलिस को हस्तांतरित कर देना ही है। अधिकतम सिर्फ तथाकथित अवैध पैसे वसूली के आरोप (धारा 383) को लेकर ही पटना मे प्राथमिकी दर्ज की जा सकती है। 
मुंबई पुलिस द्वारा पटना एसपी को क्वांरटाइन कर देने से मुंबई पुलिस की कार्य प्रणाली के संदेह के घेरे में आ जाने से निश्चित रूप से निष्पक्ष जांच होने पर एक प्रश्नचिन्ह अवश्य लगा रहा है। सुशांत के परिवार के पास एकमात्र सही व कानूनी तरीका व विकल्प यही बचा था कि, मुंबई पुलिस के उक्त टाल मटोल रवैये के कारण उस पर अविश्वास की स्थिति निर्मित रहने से सही जांच के लिए वे न्यायालय का दरवाजा खट खटाते। जहां वे न्यायालय से प्रकरण की जांच के लिये एक एसटीएफ के गठन की मांग न्यायालय की निगरानी में जांच के लिए निवेदन कर सकते थे। अथवा सीबीआई जांच की मांग कर सकते थे। लेकिन सक्षम न्यायालय के न्यायिक आदेश के बिना पटना पुलिस क्रमांक देकर प्राथमिकी दर्ज नहीं कर सकती है। यह कानूनी व वैधानिक स्थिति उच्चतम न्यायालय ने कई बार अपने निर्णयों में स्पष्ट की है। ऐसा लगता है कि महाराष्ट्र सरकार के असहयोगात्मक रवैया खासकर पटना एसपी को क्वांरनटाइन कर देने के कारण उच्चतम न्यायालय संभवतः एक दो दिनों मे उक्त प्रकरण में एसटीएफ गठित कर हाईकोर्ट की निगरानी में जांच के आदेश दे सकता है। या न्याय हित में सीबीआई को प्रकरण जांच हेतु सौंप सकता है। परन्तु उक्त मामले को बिहार पुलिस को केस स्थानंतरित करने के आदेश की संभावना न के बराबर है। क्योंकि इसमें दूसरे पक्ष को भी न्याय मिलने में आशंका के बादल हमेशा छाये रहेगें। 

सत्ता पर आरूढ़ ‘‘सत्तारूढ़’’ माननीयों का दोहरा चरित्र।


बिना शक ओ शुबह के भारतीय राजनीति का एक प्रमुख चरित्र निसंदेह स्थापित हो चुका है। वह, यह कि वे नागरिकगण (राजनेता) जो भारतीय लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया में भाग लेते है, उनका प्रथम कथन यही होता है कि वे जनता का सेवक (‘‘नौकर’’) होकर जनसेवक है और जनता उनकी मालिक है। जनप्रतिनिधिगण चाहे वे चुने हुये हो या चुनाव में खारिज कर दिये गये हो, सब का प्राथमिक व प्रथम उद्देश्य प्रत्येक हर संभव स्थिति में जनता की सेवा करना ही होता है। तभी तो वे स्वयं को जनसेवक कहलाना ‘पंसद’ करते है। उन क्षेत्रों में जहां से वे जन प्रतिनिधि बनना चाहते है के, समस्त निवासियों का जीवन स्तर उंचा उठे और अधिकतम सुख सुविधाएं उपलब्ध होकर उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करना, वे एक जनप्रतिनिधि होने के नाते अपना धर्म व कर्तव्य मानते है। लोकतंत्र में किन्ही भी विचार धाराओं की राजनीति करने वाले जनप्रतिनिधियों का जनता के प्रति उक्त यह सर्वमान्य स्वीकृत सिंद्धान्त होता है। इस मामलें में समस्त राजनैतिक पाटियों के बीच एक बड़ी (संघर्ष हीन) वैसे ही समानता की भावना विद्यमान है, जिस प्रकार वेतन भत्ते को बढ़ाने के मुद्दे को लेकर (एकता) रहती है। पक्ष-विपक्ष केे बीच का यह अंतर यहाँ समाप्त होकर एक राष्ट्र की एकता लिये हुये समरसता में विलीन सा हो जाता है। 

जनप्रतिनिधियों के उपरोक्त सिद्धांतों व कर्त्तव्यों को उल्लेखित करने का मात्र आशय यही है कि आपकी यादों को तरोताजा कर इस कोरोना काल मंे आपके जनसेवक जनप्रतिनिधि उपरोक्त भावना से कितने युक्त है या ‘‘युक्ति’’ से ‘‘युक्त’ है इस ओर आपका ध्यान मोड़ना चाहता हंू। चूंकि कोरोना संकट काल का संबंध मुख्यरूप से ‘‘स्वास्थ्य’’ से ही है, बाकी समस्याएं कोरोना का उत्पाद है। इसलिये मैं इन माननीय जनप्रतिनिधियों के स्वास्थ्य संबंधित सेवाओं के दावे, उत्तरदात्यिव व कर्त्तव्यों का ही उदहरण कर रहा हूं। 

इस कोरोना संकट काल में आम जनता के साथ कई वीआईपीज व वीवीआईपीज संक्र्रमित हुये हैं। फिलहाल मैं आपका ध्यान इन्ही तक सीमित रखना चाहता हूं। पिछले कुछ दिनों में कुछ प्रमुख व्यक्ति जो संक्र्रमित हुये है। वे है, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, (चिरायु अस्पताल)  प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वी.डी शर्मा, भाजपा संगठन मंत्री सुहास भगत, मंत्री नरोत्तम मिश्रा, अरविंद भदौरिया, विश्वास सांरग, तुलसीराम सिलावट एवं रामखेलावन पटेल (समस्त होम आइसोलेशन), पूर्व केन्द्रीय मंत्री एवं सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया (मैक्स अस्पताल), कर्नाटक के मुख्यमंत्री, बीएस येदियुरप्पा (मनीपाल अस्पताल) स्वास्थ्य मंत्री बी. श्रीरामुलु (होम आइसोलेशन) तमिलनाडु के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहीत (कावेरी अस्पताल) केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह (गुरूग्राम के मेदांता अस्पताल) मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान (मेदांता अस्पताल) अर्जुन राम मेघवाल (एम्स अस्पताल) दिल्ली प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री सत्येन्द्र जैन, (मैक्स अस्पताल) उत्तर प्रदेश भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष व सांसद स्वतंत्र देव सिंह एवं मंत्री बृजेश पाठक (होम आइसोलेशन) उत्तराखंड के मंत्री सतपाल महाराज (एम्स अस्पताल) तेलंगाना के मंत्री चमकुरा मल्लारेड्डी (होम आइसोलेशन) महाराष्ट्र सरकार के मंत्री जितेंद्र अवध, अशोक चव्हाण, (नादेड़ निजी अस्पताल) अब्दुल सत्तार एवं धनंजय मुडे़ (होम आइसोलेशन) बिहार सरकार के मंत्री शैलेश कुमार (होम आइसोलेशन) छत्तीसगढ नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक (एम्स अस्पताल) गुजरात मुख्यमंत्री विजय रूपाणी (होम आइसोलेशन)  आदि आदि।  

इन सब वीआईपीओं में एक प्रायः सामान्य (कामन) बात यह है कि, ये सब सत्ता पर आरूढ हुये जनप्रतिनिधिगण अपने-अपने प्रदेशों मंे अपनी सरकारों के द्वारा बनाये गये शासकीय अस्पतालों मंे भर्ती न होकर निजी अस्पतालों में इलाज हेतु भर्ती हुये है या घर में क्वारंटाइन किये गये है। सिर्फ कुछ ही ‘‘माननीय’’ शायद केन्द्रीय सरकार के मंत्री होने के कारण ‘‘एम्स’’ जो केन्द्रीय सरकार द्वारा संचालित अस्पताल है, पर विश्वास जमे रहने के कारण भर्ती हुये है। यहां और एक बात का उल्लेख करना अनावश्यक नहीं होगा कि मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ मुख्यमंत्री रहते हुए हाथ के अंगूठे के इलाज के लिए शासकीय हमीदिया अस्पताल में भर्ती हुए थे। इसे एक अपवाद माना जाए या और कुछ? यह एक अलग विषय है, जिस पर फिर कभी चर्चा करेंगे। कहीं यह आंशका तो नहीं फलीभूत नहीं हो जायेगी कि उन माननीयों के एम्स व होम क्वारटाइन होने की वस्तु स्थिति की सत्यता की जांच के लिये ‘विपक्ष’ ‘‘जांच आयोग’’ के गठन की मांग तो नहीं कर देगा?  ये सब वे जिम्मेदार ‘माननीय’ है जो सस्ती, अच्छी दुरूस्त व उच्च श्रेणी की स्वास्थ्य सेवाएं शासकीय अस्पतालों में अपने-अपने प्रदेशों की जनता को देने का दावा करते रहे है व तथाकथित रूप से दे रहे है। मतलब इन माननीयों ने शासकीय अस्पतालों को समस्त सुविधायों से युक्त कर दिया है। बावजूद इसके वास्तविकता व सच्चाई यही है, कि इन माननीयों ने इन शासकीय अस्पतालों की उच्च स्तर की सेवा का लाभ स्वयं क्यों नहीं लिया?

इसके दो ही अर्थ निकलते है। एक वास्तव में अस्पतालों में उस स्तर की सुविधाएं अभी तक उपलब्ध नहीं है, जिनका वे दावा करते रहे हैं। दूसरे वे यह जानते है कि, वहां की व्यवस्था इतनी लचर व खोखली है कि वे अपनी स्वयं की जान को जानबूझ कर खतरे में नहीं ड़ालना नहीं चाहते है। शायद ऐसा तो नहीं कि सरकारी अस्पतालों में अच्छी व्यवस्था के चलते भीड़ होने के कारण ‘बैड़’ खाली न होने के कारण ‘‘इच्छा’’ के बावजूद ‘माननीय’ भर्ती न हो पाये हो? यह भी तो हो सकता है कि ‘सेवक’ होने के कारण ‘‘मालिकों’’ ंके लिये बनाई गई सुविधा का लाभ लेने से वे कतरा (हिचक) रहे हो? यदि ऐसा नहीं है, तो फिर इन माननीयों ने कभी यह भी सोचा है कि, शासकीय अस्पतालों में उनके भर्ती न होने से ‘‘जनता जर्नादन’’ जिनके आप ‘‘आइकॉन’’ है के दिलों दिमांग में आपकी शासकीय अस्पतालों की व्यवस्था के प्रति कितना विपरीत प्रभाव पड़ेगा? और फिर सक्षम जनता भी सरकारी अस्पतालों में भर्ती होने से परहेज करेगी। इससे शासकीय स्वास्थ्य व्यवस्था चरमराने नहीं लगेगी?    

आप जानते ही है, देश में कोविड़-19 से संक्रमित व्यक्ति अभी तक 22 लाख से ऊपर हो गई है। आंकडांे की बाजीगरी के खेल में सरकार द्वारा आंकड़ो के माध्यम से अपनी उपलब्धियों को गिनाकर कर स्वयं को व आपको संतुष्ट करना चाहती है। मार्च, अप्रैल व मई महीने में जब संक्रमितों की संख्या कम थी, तब भारत सरकार का स्वास्थ्य मंत्रालय विश्व के अधिकांश देशों से देश की तुलना कर अपनी वाह वाही ले रही थी। अब जब संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है, तो केन्द्रीय स्वास्थ्य विभाग स्वास्थय लाभ (रिकवरी) व मृत्यु रेट के विभिन्न समयांे के विभिन्न देशों के स्वयं के लिये ‘माकूल’ आंकड़ों को चुनकर तुलनात्मक आंकडे़ प्रदर्शित कर पुनः अपनी तथाकथित सफलता के झंडे़ गाढ़ रहा है। अर्थात कोरोना काल में संक्रमितों की संख्या या संख्या दर कम या ज्यादा प्रत्येक स्थिति में वैज्ञानिक रूप देते हुये आंकडों का इस तरह से घालमेल कर आपको गुमराह किया जा रहा है। ताकि आपको मार्च से लेकर अभी तक ‘सूखा’ (संक्रमित बीमार) पड़ने के बावजूद भी हरा ही हरा दिखता रहे। सिर्फ कोविड़-19 के इस कोरोना संकट काल में किसी भी स्तर पर केन्द्रीय स्वास्थ्य विभाग ने किंचित रूप से भी कभी यह नहीं स्वीकारा कि, उनसे कहीं चूक भी हुई है या कोई ‘‘कमी’’ रह गई है। यह सब इसीलिये संभव हो रहा है, क्योंकि सरकार आपकी ‘‘समझ’’ को अच्छी तरह से ‘‘समझती’’ है। ‘‘समझाने व समझने’’ का यह दौर आगे भी चलता-दौड़ता ही जायेगा, इस बात का पूर्ण विश्वास है?

अंत में, शायद इसीलिए कहा गया है हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और होते है। 







शनिवार, 8 अगस्त 2020

राजस्थान‘ में ‘‘उलटी गंगा‘‘ कब तब बहेगी?

अभी तक तो आपने, हमने, सभी ने यही पाया है कि, ‘‘सत्ता के ड़र व डंडे‘‘ के आगे सब ‘‘ड़रकर’’ भागते फिरते हैं। सत्ता के डंडे के ड़र का प्रभाव ही लोगों को उच्छंखल व उद्दण्ड़ होने से बचाता है। लेकिन अपने डंडे के डर से स्वयं सत्ता ही भागते फिरे, ऐसा हमने अभी तक न तो देखा है, न सुना है और न ही इसकी कल्पना किसी ने कभी भी की ही होगी। बात राजस्थान की है। अभी तक राजनैतिक उथल पुथल के दौर में कुछ समय के लिये ही ‘‘माननीय’’ ‘‘घोषित छुट्ठियाँं’’ मनाने जाते रहे। पिछले 1 महीने से ‘‘सरकार‘‘ के ‘‘सरकारी निवास‘‘ लगातार बदलते जा रहे हैं। यदि इन दिनों में किसी ‘‘पीडि़त नागरिक‘‘ को अपनी समस्याओं को ‘‘सरकार’’ को अवगत कराने के लिए कोई चिट्ठी लिखनी पड़े तो, पहले यह खोज करनी पड़ेगी कि चिट्ठी पोस्ट करने के लिए ‘‘सरकार‘‘ का सही पता कौन सा है, ताकि उसकी ड़ाक ‘‘सरकार‘‘ तक पहुंच सके। कोरोना काल में यह भी एक नया राजनैतिक अनुभव सरकार के अंदर ही पैदा हुए ‘‘भय‘‘ का देश के नागरिकों को हो रहा है। 
14 अगस्त को राज्यपाल द्वारा विधानसभा सत्र बुलाए जाने की स्वीकृति दी जाने के बाद, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने प्रेस से चर्चा करते हुए कहा कि हॉर्स ट्रेडिंग में रेट 30 करोड़ से बढ़कर असीमित (अनलिमिटेड़) हो गए हैं। इससे बड़ी दुर्भाग्य की क्या बात हो सकती है कि, लोकतांत्रिक रूप से चुने हुए मुख्यमंत्री अपने उन्ही विधायकों को "हॉर्स" कह रहे है, जिन्होंने गहलोत को नेता चुना है। क्या गहलोत ‘‘अस्तबल‘‘ चला रहे हैं, जहां उनके 100 के लगभग हॉर्स बांधे गए हैं? यदि उनके वे सब माननीय ‘‘हॉर्स’’ हैं, तो उन्ही विधायकों द्वारा चुने गए नेता के रूप में बने मुख्यमंत्री "स्वयं" को क्या कहलाना पसंद करेगें? जैसा ‘‘अस्तबल’’ में बोली लगाने के बजाय आज के राजनैतिक बाजार की मंडी में बोली लगाने के लिए क्या अकेले सिर्फ गहलोत ही जिम्मेदार है? यदि ‘‘माननीय’’ बाजार में बोली लगाने लायक एक ‘‘कमोडिटी‘‘ हो गए हैं, तो ‘कई’ ‘‘बोली लगाने वाले‘‘ भी तो होगें? तभी तो अधिकतम बोली मिलने पर आप बिक पाएंगे?चूकि कोरोना काल में ‘‘मंडी‘‘ में नए ‘‘कमोडिटी‘‘ का प्रवेश कुछ ज्यादा ही हो गया है, जिस पर फिलहाल कोई ‘‘मंडी शुल्क‘‘ नहीं लग रहा है। क्या यह सामयिकी आवश्यकता नहीं है कि, इन राजनीतिक मंडियों में नए कमोडिटी के मूल्य की अधिकतम सीमा तय करके और उस पर ‘‘मंडी शुल्क’’ निर्धारित कर उनके व्यापारिक सौदों को नियमित और कानूनी बना दिये जाँय? मंडी में तो अनाज तिलहन इत्यादि अनाजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय रहता है, अधिकतम नहीं! लेकिन राजनैतिक मंडी के कोरोना काल की राजनैतिक मंडी में तेजी से बढ़ती हुई महंगाई के मद्देनजर अधिकतम मूल्य की सीमा भी तय किए जाने की आवश्यकता है? वैसे ज्यादा अच्छा तो यह रहेगा कि, इस नई कमोडिटी के व्यापार के लिए एक नया कानून ही बना दिया जाय। ताकि प्रत्येक बोली कानूनी रहकर‘‘नैतिकता‘‘ इतिहास के गर्त में स्वमेव ही ढ़केलते जायेगी।  
यद्यपि इस ‘‘खरीद फरोख्त’’ की जांच राजस्थान सरकार करवा रही है। चूकि वह  राजनैतिक बाजार की इस मंडी में स्वयं एक पक्ष है, तो ज्यादा अच्छा यह होगा कि, नए कानून बन जाने तक उच्चतम न्यायालय द्वारा एक जांच आयोग का गठन स्वतः के पर्यावेक्षण में किया जावें। जिसकी विषय वस्तु बिकवाल व खरीदार दोनों की भूमिका की गहन जांच होना चाहिए। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार रिश्वत में दोनों पक्ष अपराधी माने जाते है। जांच का एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह भी होना चाहिए कि, ‘‘बाजारों’’ में हजारों तरह के ‘‘माल बिक्री हेतु’’ उपलब्ध होने के बावजूद एक नई कमोडिटी (नैतिकता की गिरावट के कारण) को ‘‘विक्रय’’ की परिभाषा में क्यों लाया जा रहा है? यह ठीक उसी प्रकार से है कि, पुराने सेल्स टैक्स और वर्तमान जीएसटी कानून में कुछ प्रकार के ‘‘लाइसेंसों’’ को जो कि सामान्य रूप से ‘‘कमोडि़टी’’ (वस्तु) नहीं होते है, तथा कुछ वस्तुओं के उपयोग (विक्रय न होकर) को वस्तु़ व ‘विक्रय’ मानकर राजस्व बढ़ाने की दृष्टि से उन पर करारोपण कर दिया गया है। यदि इस आशय से ही उक्त नई कमोडिटी पर भी ‘‘राजस्व’’ की दृष्टि से मंडी में विक्रय हेतु मानकर करारोपण करना है। तो चूकि वह ‘‘उच्च क्वालिटी’’ की कमोडिटी है, इसलिए उस पर उच्चतर दर के रेट से (पेट्रोल डीजल के समान) करारोपण किया जाना उचित होगा। 
कैसे, कब व किन तरीकों से यह संभव हो पायेगा। यह तो आयोग की अंतिम विस्तृत रिपोर्ट आने के बाद ही स्पष्ट होगा। तब तक के लिए इस कोरोना काल में जनता जनार्दन स्वयं को भी आत्मग्लानि से लड़ने के लिए दवाईयों का सेवन अवश्य करती रहें। आत्मग्लानि इसलिये क्योंकि ऐसे माननीयों को अपने ‘‘मताधिकार’’ का प्रयोग करते हुए तो आखिर आपने ही तो चुना है। इस बात की भी आशंका हो सकती है कि, जांच आयोग अपना कार्य क्षेत्र बढ़ाकर कहीं जनता जनार्दन को भी लपेटे में न ले ले? ऐसा घटित न हो, इसके लिए आप ‘‘भगवान’’ से निरंतर प्रार्थना करते रहें। निश्चित रूप से वैसे आप दुराशय दोषी नहीं है।
अंत में एक बात और! ‘राजनीति’ की ‘गंगा’ से तुलना करना बिल्कुल ही अनुचित और गलत है। लेकिन मुझे उक्त शीषर्क मुहावरें का कोई विकल्प न मिल सकने के कारण, क्षमा पूर्वक उक्त मुहावरें का यहां उपयोग किया है। क्षमस्व।

गुरुवार, 6 अगस्त 2020

प्रभु श्रीराम के आगे नरेंद्र मोदी का ‘‘साष्टांग दंडवत होना’’ ‘‘सहजता और समर्पण’’ का सूचक है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों 5 अगस्त 2020 के 12ः44 मिनट और 8 सेकेंड से अभिजीत मुहूर्त में भगवान श्रीराम की जन्म स्थली पर भूमिपूजन हुआ। दुनियाँ में वह क्षण एक ऐतिहासिक पल (धरोहर) के रूप में दर्ज हो गया है। इस ऐतिहासिक घटना की मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में प्रमुख रूप से प्रधानमंत्री की भगवान श्री रामलला को साष्टांग दंडवत करती हुई   फोटो ही प्रमुख रूप से अधिकतम प्रकाशित हुई है। अन्य महत्वपूर्ण फोटो जैसे शिलान्यास करते हुए या पूजा करते हुये इत्यादि समय की ज्यादा दृष्टिगोचर नहीं हुई। यहां तक तो ठीक था। लेकिन जिस तरह से प्रतिक्रियाएं मीडिया खासकर सोशल मीडिया में ‘‘इस फोटो‘‘ को (वायरल) प्र्रचारित कर व्यक्त की जा रही हैं, वह उचित नहीं कही जा सकती। सर्व प्रथम कुछ प्रतिक्रियाओं की बानगी देखिएः-
‘‘प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी’’
भगवान श्री राम के चरणों में साष्टांग दंडवत हैं।
अद्भुत, अकल्पनीय, अविश्वसनीय‘‘।
‘‘यह फोटो इतिहास बन गई‘‘
प्रभु श्रीराम के भक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘‘रामलला को साष्टांग दंडवत’’ होकर प्रणाम करना ‘‘अद्भुत अकल्पनीय अविश्वसनीय‘‘ कैसे? यह समझ से परे है। वास्तव में उक्त फोटो एक आत्म स्वाभिमानी, व्यक्ति जो प्रधानमंत्री के पद पर आरूढ़ है के, अंहकार (यदि कुछ है) को झुका कर अहंकार रहित व्यक्तित्व को भर प्रदर्शित करती है। वह शायद ऐतिहासिक क्षण इसी रूप में हो सकता है। लेकिन मैं ऐसी टिप्पणियां करने वालों से यह जानना चाहता हूं कि, उक्त कृत्य (व फोटो) में अद्भुत अकल्पनीय व अविश्वसनीय क्या है? सर्मपण, सम्मान व स्नेह एक साथ भारतीय संस्कृति में चार तरीकों से व्यक्त किया जाता है। प्रथम हाथ जोड़कर प्रणाम। दूसरा आधा झुककर प्रणाम। तीसरा पूरा झुककर सामने वाले के पैर छूते हुये प्रणाम। और अंतिम पूर्ण समर्पण  के साथ पेट के बल लेटकर साष्टांग दंडवत प्रणाम। (जैसा कि नरेंद्र मोदी ने किया है।) नमस्ते के द्वारा भी अभिवादन किया जाता है, लेकिन इसमें समर्पण की भावना नहीं होती है, मात्र औपचारिकता ही होती है। साष्टांग दंडवत प्रणाम हमेशा नहीं, कभी कभार अति प्रमुख अवसरों पर ही किये जाते है। सामान्यतः उपर वर्णित अन्य तीन तरीकों से ही लोग प्रणाम करते है। 
नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के पहले, मां के बेटे हैं। एक मां जो बेटे की प्रथम गुरू होती है व ईश्वर तुल्य होती है, को प्रणाम करने को क्या आप उक्त अलंकारित शब्दों से सुशोभित कर सकते है? कदापि नहीं! वास्तव में यह मां के प्रति बेटे का सर्मपण, सम्मान व स्नेह मात्र है। ठीक इसी तरह नरेन्द्र मोदी का देश के प्रधानसेवक के रूप मे रामलला के आगे साष्टांग प्रणाम भी वही मां के प्रति लिये श्रद्धापूर्ण समर्पण जैसी भावना के समान ही है! तो फिर व्यक्ति के प्रधानमंत्री हो जाने मात्र से उन्हे अपनी साष्टांग प्रणाम करने की संस्कृति से ओतप्रोत कर्तव्य और अधिकार से आप वंचित कैसे कर सकते हैं? यह बिल्कुल सामान्य मानवीय व स्वभाविक संस्कृति युक्त क्रिया है। इसलिए प्रधानमंत्री ने वही किया, जो इस अवसर पर किसी भी इंसान को चाहे वह किसी भी पद पर बैठा हो, उसे करना चाहिए था।
हमें इस बात को विश्लेषित करना होगा कि, सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी ‘‘पद‘‘ के कारण ही ‘‘सम्मानीय’’ हो जाते हैं। लेकिन जो ‘‘(व्यक्ति का) व्यक्तित्व महान‘‘ होता हैं, वह अपने ‘‘व्यक्तित्व‘‘ एवं कृतित्व के बल पर उस ‘पद’ को ‘‘महान‘‘ बनाता हैं, शपथ लेकर जिस पर वह आरूढ़ होता हैं। मोदी ऐसे ही व्यक्ति हैं, जिन्होंने प्रधानमंत्री के पद की गरिमा को और ऊंचा उठाया है। न कि प्रधानमंत्री के पद ने मोदी के व्यक्तित्व को ऊंचा बनाया है! यह बात जरूर है कि प्रधानमंत्री के पद ने, उन्हें एक अवसर (प्लेटफार्म) जरूर दिया है जहां वे अपने व्यक्तित्व का राष्ट्र हित में सफलतापूर्वक ज्यादा अच्छे तरीके से सार्वजनिक प्रदर्शन कर सकें।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एकदम सामान्य, लेकिन पूर्ण श्रद्धा व आदर पूर्ण भाव के साथ अपने  अंतर्मन से भगवान श्रीराम की शुभ अभिजीत मुहूर्त में विधि विधान के साथ पूजा की है। यह पहली बार नहीं है, वरण इससे पहिले भी मोदी संसद भवन के प्रवेश द्वार की सीढ़ी को प्रणाम कर चुके है। अतः इस तरह की अवांछित टिप्पणियां करके आप स्वाभिमानी, अभिमानी लेकिन अंहकार रहित व्यक्ति के अंदर अहंकार व घमंड को पैदा करने और बढ़ाने में ही सहायक होगंे। अतः देश हित में ऐसी टिप्पणियों से बचिये। 
अंत में एक बात और! प्रधानमंत्री पद का ‘‘वैभव’’ इतना विशाल होता है, कि पूजा कराने वाले ब्राह्मण देवता भी शायद ‘‘अलाैंकिक रूप से अभिभूत’’ एवं विस्मृत हो गये थे। शायद इसीलिए वे ‘‘यजमान’’ की हैसियत से बैठे नरेन्द्र मोदी को संकल्प दिलाते समय ‘‘नरेन्द्र दामोदर दास मोदी’’ की जगह ‘श्री’ नरेन्द्र दामोदार दास मोदी बोल गये। ‘श्री’ शब्द का उपयोग अनावश्यक व औचित्य हीन था। पूजा पाठ कराने वाले ब्राह्मण देवता का ‘‘अभिजीत मुहूर्त’’ के समय पर करने के लिए कोई सही त्रुटि विहिन वैकल्पिक (फुलपू्रफ) व्यवस्था बना कर रखनी थी, ताकि ब्राह्मण देवता का ध्यान मुहूर्त के पास आने के समय पर पूजा से बार-बार भठकता नहीं। 
खैर फिर भी 492 साल की प्रतिक्षा कर एक ऐतिहासिक सुखद (अंत नहीं) प्रारंभ होने के लियेे पूरे विश्व के सनातनियों को बधाई व प्रणाम। कई बार महत्वपूर्ण घटनाएं सिर्फ स्वयं के जीवन में उतारने के लिए होती है, उन पर प्रतिक्रियाएं देने की स्थिति नहीं होती है। लेकिन जब उनका  प्रस्तुतिकरण कुछ इस तरह से हो जाता है कि, वह प्रस्तुतिकरण स्वयं ही प्रतिक्रिया को निमत्रिंत  कर देता है। शायद ऐसा ही ऐतिहासिक समय के व्यतीत हो जाने के बाद उनके प्रस्तुतिकरण ने ही मुझे भी यह प्रतिक्रिया लिखने हेतु आकर्षित किया।  

मंगलवार, 4 अगस्त 2020

‘सुशांत सिंह’’ मामले में बिहार सरकार की ‘‘सीबीआई जांच’’ की "अनुशंसा"! काूननी रूप से कितनी सही!

सर्वकालीन पिछले 4 महीनों से कोरोना काल के साथ अभी राम जन्मभूमि में भगवान ‘‘रामलला’’ का जो ऐतिहासिक शिलान्यास होने जा रहा है, के साथ-साथ फिल्मी कलाकार सुशंात सिंह राजपूत की आत्महत्या (हत्या?) का मामला भी पिछले कुछ समय से मीडिया में छाया हुया है। सुशांत सिंह के मामले में इसे मीडिया ट्रायल भी कह सकते है। कुछ मीडिया द्वारा तो लगभग यह सिद्ध कर दिया गया है कि या तो सुशांत की हत्या की गई है या उसे आत्महत्या के लिए उकसाया गया था, जो एक आपराधिक कृत्य होकर अपराध है। मुंबई पुलिस की चल रही जांच की प्रक्रिया व धीमी गति को देखते हुये लोगो को संदेह और उँगली उठाने का एक मौका अवश्य मिल गया है। तदानुसार देश के विभिन्न भागों खासकर सुशांत के गृहप्रदेश बिहार के लोगों द्वारा और साथ ही उनके परिवार के द्वारा सीबीआई जांच की जोर शोर से की जा रही थी। इतना समय बीत जाने के बावजूद भी मुबंई पुलिस अभी तक इसी निष्कर्ष पर पंहुच सकी है कि, वह आत्महत्या का मामला है। चूंकि सुशांत मानसिक डिपरेशन में थे और ‘‘बाइपोलर डिसआर्डर’’ मानसिक रोग से ग्रसित थे। उनका इलाज मनोचिकत्सक (साइक्रियेस्टि एवं साइकोलोजिस्ट) द्वारा इलाज भी चल रहा था, जैसा कि मुंबई पुलिस ने अपनी प्रेस वार्ता में कहा है। 
परन्तु उक्त निष्कर्ष लोगों के गले नहीं उतर पा रहा है। इसका एक बहुत बड़ा कारण, इस घटना के पीछे कुछ प्रमुख ‘‘वीआईपी कलाकारों’’ और शायद ‘‘नेता’’ का संबंध होना भी है, जिन्हे तथाकथित रूप से बचाने की कोशिश हो रही है, जैसा कि सोशल मीडिया में प्रचारित हो रहा है। दूसरा महत्वपूर्ण कारण बिहार पुलिस को मुंबई पुलिस का शिष्टाचार व परम्परागत औपचारिक सहयोग का न मिलना भी है, जो दुखदायी होकर आश्चर्यचकित भी करता है। महाराष्ट्र सरकार के द्वारा पहले बिहार पुलिस के 4 अधिकारियों को जांच हेतु आने दिया गया। लेकिन पटना पुलिस अधीक्षक विनय तिवारी के मुबंई पहंुचते ही उन्हे क्वारंटाइन कर दिया गया। इस प्रकार बिहार पुलिस का सहयोग नहीं किया गया। शायद पूर्व में देश में ऐसा कहीं भी कमी नहीं हुआ होगा। कोरोनाकाल में, जो अन्य दूसरे प्रदेशों से सरकारी कार्यवश महाराष्ट्र आये नेताओं, मंत्रियों, ऑफिसर्स व अन्य वीआईपीज मंे से कितनों को आवश्यक रूप से क्वारंटाइन किया गया? यह निरूत्तर कर देना वाला प्रश्न ही महाराष्ट्र सरकार को जनता की अदालत में खडा कर देता है। लेकिन इस स्थिति से निपटने के लिए बिहार सरकार ने जो निर्णय लिया है, क्यों वह कानूनी रूप से सही और कितना उचित है? आइये; इसका आगे विश्लेषण करते है।
केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरों (सीबीआई) का गठन 1963 में केन्द्रीय सरकार द्वारा डीएसपीई अधिनियम 1946 (दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना) से प्राप्त शक्तियों के अंतर्गत किया गया है। 6 खंडो वाले उक्त अधिनियम में यह कहा गया है कि, सीबीआई केवल उन अपराधों की जांच के लिए है, जो केन्द्र सरकार द्वारा अधिसूचित की गई हो। केन्द्र सरकार भी राज्य सरकार की सहमति के बिना अपनी शक्तियों व अधिकार क्षेत्रांे का उपयोग नहीं कर सकती है। राज्य सरकार का मतलब उस राज्य सरकार से है, जहां कि अपराध उत्पन्न (घटित) हुआ है और जहां उसकी जांच की जानी है या की जा रही हैं। राज्य सरकार डीएसपीई अधिनियम की धारा 6 के अंतर्गत सहमति की अधिसूचना जारी करती है। तदनुसार केन्द्र सरकार अधिनियम की धारा 5 के अंतर्गत अधिसूचना जारी करके प्रकरण सीबीआई को सौंप देती है। इसके अतिरिक्त सर्वोच्च व उच्च न्यायालय को भी, अनुच्छेद 226 के तहत किसी भी प्रकरण को जांच हेतु सीबीआई को सौंपने के अधिकार है, जो उच्चतम न्यायालय ने कई निर्णयों में प्रतिपादित किया है। जैसी व्यवस्था मुख्यरूप से प्रकरण पश्चिम बंगाल राज्य बनाम कमिटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स (2010) 3 एससीसी 571 में स्पष्ट रूप से दी गई है। 
अब सुशांत प्रकरण में मूल प्रश्न, यह है कि घटना चंूकि मंुबई में घटित हुई है, जिसकी प्राथमिकी जांच (प्राथमिकी रिपोर्ट नहीं) मंुबई पुलिस द्वारा की जा रही है। चंूकि आत्महत्या में मृत्यु हो जाने से वह अपराध नहीं रह जाता है। लेकिन आत्महत्या का प्रयास (धारा 309) एवं आत्महत्या के लिए प्रेरित करना (ऐबेटमेंट) धारा 306 के अंतर्गत एक संज्ञेय अपराध है। यद्यपि अभी तक मुंबई पुलिस द्वारा कोई प्राथमिकी (प्रथम सूचना पत्र एफआईआर) दर्ज नहीं की गई है। कारण, अभी तक मुंबई पुलिस को कोई ऐसा साक्ष्य नहीं मिला है जो उक्त आत्महत्या के प्रकरण में किसी के भी खिलाफ प्राथमिकी जांच को ‘‘प्राथमिकी’’ में परिवर्तित कर सकें। सुशांत के पिताजी व उनके वकील का यह तर्क है कि 25 फरवरी को सुशांत के जीवन के खतरे के बावत उनके परिवार के लोगो ने वाट्टसअप पर मुंबई पुलिस को मैसेज किया था। जिस पर मुंबई पुलिस ने इस आधार पर तत्समय कोई कार्यवाही इसलिये नहीं की थी कि, कोई लिखित शिकायत नहीं दी गई है। लेकिन घटना के बाद भी उस वाट्टसअप में उल्लेखित वर्णित तथ्यों का कोई संज्ञान मुंबई पुलिस द्वारा न लेना निश्चित रूप से एक गंभीर चूक है। इस प्रकार के के सिंह के वकील के अनुसार मुंबई पुलिस ठीक से जांच नहीं कर रही है व अभी तक प्राथमिकी जांच ही चल रही है। प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज नहीं हुई है। लेकिन उनकी शिकायत के आधार पर पटना में प्राथमिकी दर्ज (एफआईआर) हो चुकी है। अतः अब जांच का अधिकार बिहार पुलिस को ही है। मेरे मत में कानून की यह गलत व्याख्या है। 
पटना (बिहार) जहां के सुशांत रहने वाले थे, उनके पिताजी द्वारा की गई शिकायत पर पटना पुलिस ने धारा 341, 342, 380, 406, 420, 306 के अंतर्गत अभिनेत्री रिया चक्रवती व अन्य पांच के विरूद्ध प्रकरण दर्ज किया गया है। जोे अपराध दर्ज किये गये है, वे गलत तरीके से रोकना, गलत तरीके से प्रतिबंध लगाना, अमानत में खयानत, चोरी करना व बेइमानी करने के साथ आत्महत्या के लिए उकसाना। इन तथाकथित अपराधों के प्रारंभ होने से लेकर अंत तक घटित होने में, पटना पुलिस का कोई क्षेत्राधिकार प्राप्त नहीं होता है। सुशांत के पिताजी कृष्ण कुमार सिंह के वकील का कहना है कि, पैसों के ऐठने (जबरन अवैध वसूली धारा 383) को लेकर पटना पुलिस को क्षेत्राधिकार प्राप्त होता है, तो क्या बिहार सरकार यह स्पष्ट करेगी कि उसकी धारा 6 के अंतर्गत जारी की गई अधिसूचना सिर्फ पैसे ऐठने से संबंधित अपराध तक ही सीमित होकर, आत्महत्या/हत्या से संबंधित नहीं है। वैसे भी पटना पुलिस ने धारा 383 के अपराध का प्रकरण दर्ज नहीं किया है। 
सामान्यतः असंज्ञेय मामलों में घटना के घटित होने पर जहां जाहिर तौर पर विशिष्ट साक्ष्य नहीं होती है तब, ‘‘प्राथमिकी’’ (एफआईआर)दर्ज करने के पूर्व ‘‘प्राथमिकी जांच ही की जाती है’’ जो मुंबई पुलिस कर रही है। ये बात अलग है कि मुंबई पुलिस किस ‘‘मुस्तेदी’’ से जांच कर रही है? जो स्वयं में एक जांच का विषय हो सकता है। पटना पुलिस द्वारा उस घटना के संबंध में जो उसके प्रदेश में घटित ही नहीं हुई और उससे संबंधित कोई भी साक्ष्य पटना पुलिस के पास तत्समय नहीं थी, तब अतिशीघ्रता से पिताजी की लिखित शिकायत को प्राथमिकी के रूप में दर्ज कर क्रमांक दे दिया। जबकि नियमानुसार पटना पुलिस को जीरो पर एफआईआर दर्ज कर उस संबंधित प्रदेश को जहां उक्त घटना घटित हुई थी, हस्तांतरित करना चाहिए था। क्योंकि नियमानुसार उच्चतम न्यायालय के निर्णयानुसार घटना घटित होने वाले प्रदेश के ही जांच करने का अधिकार है। पटना पुलिस की यह त्वरित कार्यवाही गैरकानूनी होकर अतिरिक्त दिलचस्पी को ही दिखाती है। 
यदि मुंबई पुलिस जांच नहीं कर रही है या जांच में कोई कमी है, तो उच्च या उच्चतम न्यायालय के माध्यम से आवश्यक निर्देश दिलवाये जा सकते है। इसलिए मीडिया से लेकर उनके परिवार और समस्त वकीलों को यह समझने की आवश्यकता है कि सुशांत प्रकरण की जांच सीबीआई से करवानी है तो, या तो उन्हे इसके लिये महाराष्ट्र सरकार से निवेदन करना होगा, अथवा फिर  उन्हे उच्च/उच्चमत न्यायालय में जाना चाहिये और वही सही प्रकिया होगी। यदि महाराष्ट्र सरकार पर इस प्रकरण में राजनीति का आरोप लगाया जा रहा है तो, उसके प्रति उत्तर में वही आरोप बिहार सरकार पर भी लगेगें। यह बात ध्यान में रखनी चाहिए। वस्तुतः पूरा प्रकरण महाराष्ट्र पुलिस की निष्कियता व बिहार सरकार की अतिरिक्त दिलचस्पी के बीच ही झूलता दिख रहा है। इंतजार कीजिये! आगे क्या परिणाम निकलते है।

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