सोमवार, 25 जनवरी 2010

ज्योतिवसु दा राजनीति के एक युग का अवसान!

कुछ समय की बीमारी के बाद अन्ततः आज ज्योतिदा अपने शरीर को छोड़कर चले गये। लगभग जिन्दगी के आखरी सॉसों तक सक्रिय (बीमारी के पूर्व तक) रहने वाला व्यक्ति इस ऋष्टि की जीवन यात्रा पूरा करने के बाद भी अपने मृत शरीर की यात्रा को और कुछ समय के लिए चालू रखने के लिए अपने मृत शरीर को मेडीकल रिसर्च के लिए दान देकर जो दृढ संकल्प दर्शाया है (जिसके लिए वर्ष २००३ में उन्होने संकल्प पत्र पर स्वयं दस्तखत कर दान दिया था) वह अतुलनीय है और उन जैसे व्यक्तित्व को देखते हुए पिछले सदी का यह शायद प्रथम महत्वपूर्ण कृत्य है।
भारतीय संस्कृति में व्यक्ति के मृत्यु के बाद समस्त जाने वाले व्यक्ति को स्वर्गवासी मान कर हम लोग उनकी अच्छाई को याद कर उन्हें श्रंद्वाजली अर्पित करते है । श्रध्देय ज्योतिदा की मृत्यु पर देश के नागरिको की भावयुक्त श्रंद्वाजली क्या मात्र उक्त संस्कृति का ही परिणाम है? या और कुछ! यदि हम कुछ लोग उसे उस संस्कृति का ही मात्र परिणाम मानते है तो निश्चित रूप से यह उनके व्यक्तित्व के साथ अनाचार होगा। आठ व्यक्तियों के साथ सीपीएम (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी) की स्थापना करने वाला अंतिम व्यक्ति आज हमारे बीच में नहीं रहे। ई।एम.एस. नम्बुदरीपाद व हरिकिशन सिंह सुरजीत जैसे व्यक्तित्व के साथ काम करते हुए लगभग २३ साल लगातार (वर्ष १९७७ से १९९० तक) प. बंगाल के मुखयमंत्री के रूप में सफलतापूर्वक कार्य करतें हुए भारतीय राजनीति में संयुक्त प्रगतिशील दल को राजनीति में सीपीएम की सरकारो के गठन में सफलतापूर्वक महत्वपूर्ण स्थान पर रखा व सरकारो की कुंजी आपके पास रखी लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण पार्टी को पीछे छोड़ते हुए एक काडर बेस पार्टी के पूर्णतः अनुशासित कामरेड होने के बावजूद भारतीय राजनीति में उन्होने अपनी वह स्वीकारिता बनाई जो उन जैसे वातावरण के रहते अन्य दूसरा कोई उदाहरण नही है। यह एक अनोखा उदाहरण है जो भारतीय राजनीति में कभी नहीं देखा गया क्योकि जब कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म हुआ था तब उनकी भक्ति (लायल्टी) भारत संघ या भारतीय संविधान के प्रति संदिग्ध मानी जाती थी ऐसा कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति उस समय अनेक व्यक्तियों व विचारको के विचार थे। कम्युनिस्ट पार्टी का जब चीन से लड ाई के मुद्‌दे पर वर्ष १९६२ में विभाजन हुआ था तब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) नई पार्टी के रूप में उभरकर आई तब भी उसकी लायल्टी एक्स्ट्रा टेरिटोरियल मानी गई (सीमा के पार चीन के प्रति) दूसरी ओर कम्युनिस्ट पार्टी की निष्ठा रूस के प्रति मानी गई। ऐसी पार्टी का सदस्य होने के बावजूद जब वर्ष १९९६ उनके नाम पर प्रधानमंत्री पद के लिए कांग्रेस पार्टी ने सहमती बनाई तब भी देश की राजनीति में कम्युनिष्ट होने के बावजूद उनके नाम पर कोई नाक-भो नही सिकोड ी गई जबकि सोनिया गांधी के नाम पर उनकी विदेशी मूल के मुद्वे को प्रमुखता से उछाला गया था।
कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी का कामरेड़ होने के बावजूद लगातार २३ वर्ष तक भारतीय संध के एक राज्य पं। बंगाल प्रांत का मुखयमंत्री रहने के बावजूद संघ (युनियन) भारत देश के प्रति उनकी निष्ठा कभी भी संदिग्ध नहीं मानी गई न ही इस प्रकार का कोई भी आरोप राजनैतिक पार्टी ने उनपर लगायें जबकि जम्मु कश्मीर- उत्तर पूर्वी प्रदेश के कुछ मुखयमंत्री उनके शासन में बने रहने के लिए उनके द्वारा जारी कुछ राजनीति बयानो को भारत संध के विरूध माना गया। 'ज्योतिदा' की भारत सीमा के बाहर निष्ठा का आरोप सहने वाली मार्क्सवादी कम्यूनिष्ट पार्टी के कामरेड होने के बावजूद निष्कलंक सफलता भारतीय राजनीति की एक बहुत बड ी उपलब्धी है।
निश्छल एवं शांतिप्रिय, विरक्ति बनाकर जो अद्‌भुत मिशाल कायम की यह उपलब्धि भी भारतीय राजनीति में एकागता लिये हुए है क्योकि आज की भारतीय राजनीति में पद के लिए समस्त सिद्वांतो पर झाडू लगाकर पद पर कायम रहना राजनीति की कसोटी बन गई जबकि ज्योति दा ने सिद्वातों को अपने गले लगाकर पदो को झाड़ू लगाकर भारतीय राजनीति में अपना झंडा गाड ा जिसकी कोई मिशाल नही है। कुछ लोग कह सकते है कि सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद स्वीकार न कर वही वैराग का भाव दिया है जो ज्योतिदा ने दिया लेकिन यह तुलना करना भी बेमानी होगा और न ही ज्योतिदा के व्यक्तित्व का सही मूल्यांकन होगा।
कामरेड होने के बाबजूद उनकी इमेज प्रकाश कारंत समान एक कट्‌टर वादी नही थी बल्कि वह एक व्यवहारिक राजनीति के सफल संचालक थे। और इसीलिए पं।बंगाल में अपनें कार्यकाल से मार्क्सवाद के कट्‌टर पंथी विचारों से बाहर आकर कुछ व्यवहारिक निर्णय पं. बंगाल के हित के लिये जिस कारण उन्हें कई बार कट्‌टर पंथीयो के विरोध का भी सामना करना पड़ा। उनकी यह व्यवहारिकता कुछ उसी तरह की थी जिस प्रकार से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से भारतीय जनसंध से होते हुऐ भारतीय जनता पार्टी के जनक माननीय अटल बिहारी जी की है, प्रारम्भ में भाजपा एवं कम्यूनिष्ट दोनो ही पार्टी केडरवेस पार्टिया थी लेकिन भाजपा आज उतनी केडर बेस नहीं रह गई जितनी सीपीएम है औेर शायद इसी कारण कम्युनिस्ट पार्टी का उस तरह विस्तार नही हो पाया की जैसा कि भारतीय जनता पार्टी का हुआ है लेकिन केडर बेस होने का तमगा विद्यमान होने के कारण उसे स्थायित्व मिला जिसके अभाव में भाजपा सरकारो को स्थायित्व नही मिला।
सोनिया गांधी ने पद अस्वीकार कर अपने एक सिपाही को उक्त पद पर नामांकित कर (भयमुक्त चुनाव द्वारा निर्वाचित नही) अपनी राजनैतिक इच्छा शक्ति को रिमोर्ट कंट्रोल से चलाने का संकल्प दिखाया जबकि ज्योति दा ने पार्टी के उक्त पद को इसलिए नही अस्वीकार किया कि उन्हे उक्त पद से विरक्ति थी बल्कि पार्टी को व्यक्ति से बड ा मानते हुए पार्टी के आदेश को एक अनुशासित कामरेड के रूप में बिना किसी द्वेश भाव के यह जानकर भी स्वीकार किया कि भविष्य में पार्टी को सत्ता में आने का दुबारा अवसर नही मिलेगा जिसे उन्होने बाद में एक इंटरव्यू में यह स्वीकारा भी था कि पोलित ब्यूरों का उक्त निर्णय गलत था पार्टी हित में नही था क्योकि उस समय प्रश्न ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने का नही था बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पहचान को सुदूर क्षेत्र तक पहुचाने का था।
सन्‌ १९६७ के बाद से संयुक्त विधायक दलों की सरकारों के कारण राजनीति में आये अस्थिरता के रहते स्वार्थ की, और भजनलाल की देन आयाराम-गयाराम के नये राजनैतिक कलेवर के बावजूद लगातार २३ साल तक पॉच बार सर्वसम्मति से विधायक दल का नेता चुना जाकर मुखयमंत्री पद पर न केवल कायम रहना बल्कि मुखयमंत्री पद पर रहते हुए स्वास्थ के आधार पर (राजनैतिक दाव पेच के आधार पर नहीं), पद से इस्तीफा देकर पद व राजनीति से जोनिश्छल एवं शांतिप्रिय, विरक्ति बनाकर जो अद्‌भुत मिशाल कायम की यह उपलब्धि भी भारतीय राजनीति में एकागता लिये हुए है क्योकि आज की भारतीय राजनीति में पद के लिए समस्त सिद्वांतो पर झाडू लगाकर पद पर कायम रहना राजनीति की कसोटी बन गई जबकि ज्योति दा ने सिद्वातों को अपने गले लगाकर पदो को झाड़ू लगाकर भारतीय राजनीति में अपना झंडा गाड ा जिसकी कोई मिशाल नही है। कुछ लोग कह सकते है कि सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद स्वीकार न कर वही वैराग का भाव दिया है जो ज्योतिदा ने दिया लेकिन यह तुलना करना भी बेमानी होगा और न ही ज्योतिदा के व्यक्तित्व का सही मूल्यांकन होगा।
कामरेड होने के बाबजूद उनकी इमेज प्रकाश कारंत समान एक कट्‌टर वादी नही थी बल्कि वह एक व्यवहारिक राजनीति के सफल संचालक थे। और इसीलिए पं।बंगाल में अपनें कार्यकाल से मार्क्सवाद के कट्‌टर पंथी विचारों से बाहर आकर कुछ व्यवहारिक निर्णय पं. बंगाल के हित के लिये जिस कारण उन्हें कई बार कट्‌टर पंथीयो के विरोध का भी सामना करना पड़ा। उनकी यह व्यवहारिकता कुछ उसी तरह की थी जिस प्रकार से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से भारतीय जनसंध से होते हुऐ भारतीय जनता पार्टी के जनक माननीय अटल बिहारी जी की है, प्रारम्भ में भाजपा एवं कम्यूनिष्ट दोनो ही पार्टी केडरवेस पार्टिया थी लेकिन भाजपा आज उतनी केडर बेस नहीं रह गई जितनी सीपीएम है औेर शायद इसी कारण कम्युनिस्ट पार्टी का उस तरह विस्तार नही हो पाया की जैसा कि भारतीय जनता पार्टी का हुआ है लेकिन केडर बेस होने का तमगा विद्यमान होने के कारण उसे स्थायित्व मिला जिसके अभाव में भाजपा सरकारो को स्थायित्व नही मिला।
'ज्योतिदा' ने जो संदेश भारतीयों को दिया है वास्तव में राष्ट्र यदि उन्हें सही श्रद्वांजली देना चाहता है तो हम उनके द्वारा दिया गया वह संदेश कि राजनीति में कितना हो बड़ा व्यक्तित्व क्यो न हो वह पार्टी से बहुत छोटा होता है और पार्टी के निर्णय को व्यक्तिगत स्वार्थ या आंकाक्षा से उपर रखकर यदि उसका पालन वह करते है तो निश्चित मानिये कि हाल के वर्षो मे आई भारतीय राजनीति में गिरावट जो अभी भी जारी है उस पर 'ज्योतिदा' का बलिदान कम से कम रोक तो जरूर लगाया ही क्योकि भारतीय संस्कृति की विशेषता यही है कि व्यक्ति के जाने के बाद ही उसको याद किया जाता है।
व्यक्ति के जीते जागते उसके आदर्शो का पालन कर गुणगान करना हमने शायद नही सीखा लेकिन ज्योति दा व्यक्ति का यह पहलू कुछ हमें इस दिशा में आत्मान्दोलित कर दे क्योकि वे मृत्यु के बाद भी कुछ करना चाहते है जो उन्होने अपने शरीर का दान देकर सिद्व किया। राष्ट्र के साथ ऐसे व्यक्ति को मेरा भी साष्टांग अंतिम प्रणाम।

सोनिया गांधी ने पद अस्वीकार कर अपने एक सिपाही को उक्त पद पर नामांकित कर (भयमुक्त चुनाव द्वारा निर्वाचित नही) अपनी राजनैतिक इच्छा शक्ति को रिमोर्ट कंट्रोल से चलाने का संकल्प दिखाया जबकि ज्योति दा ने पार्टी के उक्त पद को इसलिए नही अस्वीकार किया कि उन्हे उक्त पद से विरक्ति थी बल्कि पार्टी को व्यक्ति से बड ा मानते हुए पार्टी के आदेश को एक अनुशासित कामरेड के रूप में बिना किसी द्वेश भाव के यह जानकर भी स्वीकार किया कि भविष्य में पार्टी को सत्ता में आने का दुबारा अवसर नही मिलेगा जिसे उन्होने बाद में एक इंटरव्यू में यह स्वीकारा भी था कि पोलित ब्यूरों का उक्त निर्णय गलत था पार्टी हित में नही था क्योकि उस समय प्रश्न ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने का नही था बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पहचान को सुदूर क्षेत्र तक पहुचाने का था।
कामरेड होने के बाबजूद उनकी इमेज प्रकाश कारंत समान एक कट्‌टर वादी नही थी बल्कि वह एक व्यवहारिक राजनीति के सफल संचालक थे। और इसीलिए पं।बंगाल में अपनें कार्यकाल से मार्क्सवाद के कट्‌टर पंथी विचारों से बाहर आकर कुछ व्यवहारिक निर्णय पं. बंगाल के हित के लिये जिस कारण उन्हें कई बार कट्‌टर पंथीयो के विरोध का भी सामना करना पड़ा। उनकी यह व्यवहारिकता कुछ उसी तरह की थी जिस प्रकार से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से भारतीय जनसंध से होते हुऐ भारतीय जनता पार्टी के जनक माननीय अटल बिहारी जी की है, प्रारम्भ में भाजपा एवं कम्यूनिष्ट दोनो ही पार्टी केडरवेस पार्टिया थी लेकिन भाजपा आज उतनी केडर बेस नहीं रह गई जितनी सीपीएम है औेर शायद इसी कारण कम्युनिस्ट पार्टी का उस तरह विस्तार नही हो पाया की जैसा कि भारतीय जनता पार्टी का हुआ है लेकिन केडर बेस होने का तमगा विद्यमान होने के कारण उसे स्थायित्व मिला जिसके अभाव में भाजपा सरकारो को स्थायित्व नही मिला।
'ज्योतिदा' ने जो संदेश भारतीयों को दिया है वास्तव में राष्ट्र यदि उन्हें सही श्रद्वांजली देना चाहता है तो हम उनके द्वारा दिया गया वह संदेश कि राजनीति में कितना हो बड़ा व्यक्तित्व क्यो न हो वह पार्टी से बहुत छोटा होता है और पार्टी के निर्णय को व्यक्तिगत स्वार्थ या आंकाक्षा से उपर रखकर यदि उसका पालन वह करते है तो निश्चित मानिये कि हाल के वर्षो मे आई भारतीय राजनीति में गिरावट जो अभी भी जारी है उस पर 'ज्योतिदा' का बलिदान कम से कम रोक तो जरूर लगाया ही क्योकि भारतीय संस्कृति की विशेषता यही है कि व्यक्ति के जाने के बाद ही उसको याद किया जाता है।
व्यक्ति के जीते जागते उसके आदर्शो का पालन कर गुणगान करना हमने शायद नही सीखा लेकिन ज्योति दा व्यक्ति का यह पहलू कुछ हमें इस दिशा में आत्मान्दोलित कर दे क्योकि वे मृत्यु के बाद भी कुछ करना चाहते है जो उन्होने अपने शरीर का दान देकर सिद्व किया। राष्ट्र के साथ ऐसे व्यक्ति को मेरा भी साष्टांग अंतिम प्रणाम।

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