गुरुवार, 9 मई 2024

‘‘निर्भया कांड’’ से उत्पन्न ‘‘भय’’, खौफ व मानवीय संवेदनाएं ‘‘तार-तार’’?


निर्भया कांड

याद कीजिए! दिल्ली के एक बस ड्रायवर एवं 5 अन्य अपराधियों के द्वारा दिसम्बर 2012 में एक छात्रा के साथ चलती बस में हैवानियत की समस्त हदें पार कर अमानवीय व वीभत्स तरीके से दुष्कर्म हुआ था। फलस्वरूप पीड़िता की अंततः कुछ समय बाद सम्पूर्ण यथासंभव बेहतरीन इलाज के बावजूद मृत्यु हो गई। पूरे देश में भयंकर आक्रोश व एक सिहरन की लहर सी उठ गई थी। प्रतिक्रिया स्वरूप सोता हुआ एक आम नागरिक ने भी जागृत होकर रोड़ पर आकर विभिन्न तरीेकों से प्रतिक्रियाएं कर एक इंसान होने व इंसानियत तथा मानवीयता का एक परिचय दिया था। परिणाम स्वरूप ही यौन अपराध में दुष्कर्म सहित भारतीय दंड संहिता सहित की कई धाराओं में कई महत्वपूर्ण संशोधन हुए और एक नया अधिनियम ‘पाक्सो’ भी अस्तित्व में आया।

कर्नाटक रेवन्ना सेक्स कांड

विपरीत इसके कर्नाटक में सामने आयी तथाकथित ‘‘अय्याश राज-नेता’’ की सेक्स वीडियों की तुलना कर लीजिए। (अभी तक वीडियो की सत्यता की पुष्टि रासायनिक जांच (फॉरेसिक परीक्षण) से नहीं हुई है।) हासन सीट के वर्तमान सांसद व जेडीएस लोकसभा उम्मीदवार प्रज्वल रेवन्ना पूर्व प्रधानमंत्री एचडी (हरदन हल्ली डोडेगौड़ा) पूर्व मंत्री विधायक एचडी रेवन्ना के पुत्र हैं देवगौड़ा के पोते, तथा पूर्व मुख्यमंत्री कुमार स्वामी के भतीजे इसके विरूद्ध 266 महिलाओं के साथ यौन शोषण की 2976 सेक्स वीडियों क्लिक की पेन डाईव पूरे देश में सोशल मीडिया के माध्यम से हासन लोकसभा क्षेत्र में फैल गई घर-घर व दुकान सीडी फेकी गई। ‘‘निर्भया कांड’’ और इस ‘‘सेक्स कांड’’ में जो मूलभूत व भारी अंतर है, वह है, निर्भया कांड में 6 अपराधियों ने मात्र एक बेटी के साथ गैंगरेप किया था। परन्तु यहां पर तो एक आरोपी ही 266 महिलाएं, जिनमें बच्चियों से लेकर 60 साल तक की महिलाएं शामिल है, के साथ लम्बे समय से लगातार यौन शोषण करता है। इन पीड़िताओं में घर में काम करने वाली नौकरानियाँ (मैड) से लेकर सरकारी अधिकारी, नौकरीपेशा और पार्टी की महिला कार्यकर्ता भी शामिल हैं। ऐसा यौन अपराधी आश्चर्यजनक रूप से मानसिक रूप स्वस्थ है, उसे मानसिक रूप से विक्षिप्त या पागल करार नहीं दिया गया, सहसा विश्वास नहीं होता है। ऐसा भी व्यक्ति समाज में हो सकता है, यह कल्पनातीत है। यौन अपराधी होने के साथ-साथ रेवन्ना के ‘‘भ्रष्ट आचरण’’ के आधार पर उच्च न्यायालय ने उनकी 2019 की लोकसभा चुनाव को भी अवैध घोषित कर दिया। हालांकि उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के उक्त आदेश को स्थगित कर दिया है।

पारिवारिक राजनीतिक धरोहर ‘‘चकनाचूर’’।

कुछ व्यक्तियों का दिल तो इस कांड से अवश्य दहल गया होगा। परन्तु देश के दिल की धड़कन कश्मीर से कन्याकुमारी तक वैसे नहीं दहली, जैसी निर्भया कांड में दहली थी। इसका क्या यह अर्थ यह नहीं निकाला जाए कि निर्भया कांड के अपराधीगण समाज के छोटे से वर्ग ड्राइवर, क्लीनर, फल विक्रेता, जिम ट्रेनर थे, इसलिए पूरे देश का गुस्सा अदने से निम्न वर्ग से आने वाले इन अपराधियों पर आ पड़ा। इसके विपरीत यहां पर अपराधी सफेदपोश एक शक्तिशाली राज नेता है, जिसे जनता ने कई बार चुना है, जिसके पिता को सांसद चुना व उसके दादा को प्रधानमंत्री पद पर बैठाया, परिवार के अन्य सदस्य (लगभग 8 सदस्य) भी सांसद, विधायक, मंत्री चुने गये। इसलिए ऐसी राजनीतिक धरोहर वाले परिवार के घृणास्पद आरोपी सदस्य के विरूद्ध आम जनता की प्रतिक्रिया क्या खौफ-ड़र-दहशत के कारण निर्भया कांड के समान वैसी तीव्र व व्यापक नहीं हुई? अथवा आम व्यक्ति की जिंदगी में राजनीति इतनी घुल मिल गई है कि उससे जुड़ी हैवानियत की सीमा तक की बुराई दहशतगर्दी भी जनता को या तो दिखती नहीं है अथवा व उसे अनदेखा कर देती है? जैसा कि बृजभूषण शरण सिंह के मामले में भी देखने को मिला है। क्या जनता ऐसी घटनाओं को भी सिर्फ ‘‘राजनीतिक चश्मे’’ से ही देखना चाहती है? बडा प्रश्न यह है? तथाकथित भद्द् समाज के चेहरे पर यह एक बड़ा तमाचा है।

मीडिया की भूमिका का ‘‘भूमिगत’’ हो जाना।

एक भी तथाकथित राष्ट्रीय (मेन स्ट्रीम) टीवी चैनल ने इस कांड पर बहस तक नहीं की प्रश्नों की बौछार तो छोडिये; एक प्रश्न भी नहीं पूछा। याद कीजिए! निर्भया कांड से लेकर अनेको यौन अपराध देश के विभिन्न अंचलों में जब-जब घटित हुए, जिनमें राजनीतिक जमात के लोग शामिल नहीं होते है, तो टीवी चैनल बहस करते-कराते थक जाते हैं और अपनी ‘‘टीआरपी’’ को बढ़ाते हैं। शायद मीडिया को  इस घटना को लेकर यह विश्वास हो गया होगा कि इस घटना पर चर्चा से टीआरपी तो बढ़ेगी नहीं? तो फिर बहस का फायदा क्या? क्या जनता से लेकर मीडिया किंग कर्तव्यविमुख हो गया? ऐसी शर्मनाक घटना पर अपना दायित्व पूरा करने में मीडिया पूरी तरह से असफल हो गया है। यह एक बडी चिंता का विषय है, और इस पर पूरी गहराई से विचार किया जाना आवश्यक है। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है।  

विक्षिप्त मानसिकता?

यह सेक्स कांड देश का ही नहीं, बल्कि विश्व का शायद सबसे बड़ा घृणित सेक्स कांड होकर गिनीज बूकस् ऑफ रिकार्ड में दर्ज होने लायक होगा। उक्त कांड के आरोपी की उम्र मात्र 33 साल है, जिसने अपने से छोटी व बड़ी महिलाओं के साथ बलपूर्वक, प्रलोभन या ड़र, भय व दहशत के वातावरण में शारीरिक संबंध बनाये। आश्चर्य व चिंता की बात यह नहीं है कि यह घटना लगभग 4-5 साल पुरानी बताई जा रही है, जैसा कि आरोपी के विधायक पिता ने खुद सार्वजनिक रूप से कहा। बल्कि इतनी बड़ी संख्याओं में महिलाओं जिनमें महिला पुलिस अधिकारी एवं प्रशासनिक अफसर भी शामिल है के साथ लम्बे समय से चले आ रहे ‘‘दुराचार’’ के बावजूद किसी भी महिला द्वारा लम्बा समय गुजारने के बावजूद कोई रिपोर्ट न लिखाना, घटना की वीभत्सा व आस-पास विद्यमान भयंकर परिस्थितियों को ही इंगित करती है। याद कीजिये! यह वही कर्नाटक प्रदेश है, जहां की विधानसभा में फरवरी 2012 में 3 भाजपा विधायक पॉर्न विडियो देखते हुए पकड़े गये थे, जिन्हें न केवल 2012 के विधानसभा चुनाव में टिकिट दिया गया, बल्कि इन तीनों में से एक लक्ष्मण सावदी को तो चुनाव हारने के बावजूद उप मुख्यमंत्री भी बना दिया गया। तीन साल बाद त्रिपुरा विधानसभा में पुन एक भाजपा विधायक जादव लाल नाथ भी अश्लील विडियो देखते हुए पकड़े गये थे। 2021 में गुजरात विधानसभा में भी भाजपा के दो विधायक पॉर्न विडियो के शिकार हुए ह। इस कुंठित मानसिकता को सिर्फ किसी एक राजनीतिक दल तक सीमित करना बेहद अनुचित होगा। कांग्रेस के कर्नाटक विधान परिषद के प्रकाश राठौर भी रंगे हाथ पकड़े जा चुके हैं। 

कर्नाटक सरकार की पूर्ण अर्कमणयता।

इस कांड का विलक्षण पहलू यह भी है कि इस सेक्स कांड के आरोपी स्वयं द्वारा जबरदस्ती स्थापित यौन संबंधों का खुद ही वीडियो बनाकर अपनी पेन डाईव में स्टोर करता है। याने यौन अपराध घटित करने के साथ-साथ दूसरे अन्य अपराध ब्लेकमेल करने में भी उसे ड़र नहीं लगा। चुनाव में वोट डालने के पश्चात वह आरोपी भारत छोड़कर जर्मनी चला जाता है। एसआईटी गठित होने के बाद आरोपी के ड्राइवर कार्तिक के भी मलेशिया पहुंचने के समाचार है। राज्य सरकार हाथ पर हाथ धरी बैठी रहती है। राज्य सरकार का इस संबंध में कार्रवाई न करने के संबंध में बचाव पूरी तरह से ‘‘झूठ का पुलिंदा’’ है व अकर्मणयता के साथ सुविधा की राजनीति का जीता जागता उदाहरण है। लुक आउट नोटिस जो राज्य सरकार की जांच एजेंसियां जारी करती है, के जारी किये बिना आरोपी को किसी भी एयरपोर्ट पर रोकना संभव नहीं था। राज्य सरकार द्वारा आरोपी के भारत छोड़ने तक लुक आउट नोटिस जारी न करने के बावजूद केन्द्र सरकार आरोपी को रोकने में असफल रहने का आरोप लगातार निहायत राजनीति है। सरकार का यह कहना कि आरोपी बेंगलुरु न्यायालय से 1 जून 2023 को उक्त तथाकथित वीडियो को  वायरल न करने के गैग (चुप रहने का) ब्लैंकेट आदेश ले लिये थे, इसलिए सरकार चुनावी प्रक्रिया चालू रहने के कारण मामले में हस्तक्षेप नहीं कर पाई। जैसे ही 28 अप्रैल को एक महिला आरोपी की घरेलू सहायिका (मैड) ने हासन में 26 अप्रैल को चुनाव समाप्त होने के बाद विधायक एच.डी. व सांसद प्रज्वल रेवन्ना के विरूद्ध रिपोर्ट लिखाई जबकि वीडियो चुनाव के एक दिन पूर्व से ही वायरल हो रहा था। सरकार ने 27 अप्रैल को कार्रवाई के लिए एक एसआईटी गठित कर दी। आश्चर्यजनक रूप से पहले धारा 376 का अपराध दर्ज नहीं किया गया जो, बाद में जोड़ी गई। प्रारंभिक रूप से मात्र 354ए, 354डी 506 एवं 509 की धाराओं के अंतर्गत प्रकरण दर्ज किया गया। 

न्यायालय का स्टे ब्लैंकेट आदेश! कितना न्यायोचित?

न्यायालय का इस तरह का ब्लैंकेट स्टे आदेश भी अपने आप में ही संदेह के घेरे में तो ही है, परन्तु वह ब्लैंकेट आदेश 86 मीडिया आउटलेट्स एवं तीन व्यक्तियों जिसमें रेवन्ना का ड्राइवर भी शामिल है के विरुद्ध था। सरकार जिसमें पार्टी नहीं थी। न ही राज्य शासन के विरूद्ध कोई स्टे आदेश कार्रवाई न करने का पारित किया गया था। वैसे भी कोई भी अपराध घटित होने पर देश का कोई भी न्यायालय ऐसा ब्लैंकेट आदेश पारित नहीं कर सकता है, जो सरकार को कोई अपराध घटित होने पर आपराधिक कार्रवाई करने से रोक दे। यदि सरकार के विरूद्ध स्टे आर्डर था भी, तब फिर सरकार ने उक्त आदेश के विरूद्ध अपील क्यों नहीं की? प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है। विपक्ष पर आरोप लगाने वाली कांग्रेस यह क्यों भूल जाती है कि इसी जेडीएस के साथ वह वर्ष 2019 में चौदह महीने सरकार में रह चुकी है, जब ये अपराध लगातार घटित हो रहे थे। स्वयं पीड़िता ने प्रज्वल रेवन्ना पर 2019 से 2022 तक यौन शोषण का आरोप लगाया है। कर्नाटक महिला आयोग एवं राष्ट्रीय महिला आयोग कहां खड़ा है, पता नहीं? कर्नाटक महिला आयोग भी हरकत में तब आयी जब उसे पेन ड्राइव मिला, तब उसने राज्य सरकार को एसआईटी गठित करने के लिए पत्र लिखा। क्या आपको नहीं लगता है कि ऐसे महिला आयोगों को तुरंत समाप्त कर खर्चा बचाना चाहिए? अथवा आयोग में राजनैतिक नियुक्तियां प्रतिबंधित कर देनी चाहिए?  

प्रधानमंत्री द्वारा खेद व्यक्त किया जाना चाहिए था

इस कांड का दूसरा महत्वपूर्ण व चिंताजनक पहलू यह है कि एक सफेदपोश आरोपी के लिए प्रधानमंत्री ने जनता से सार्वजनिक रूप से मंच से वोट देने की अपील करते हुए यह कहा था कि रेवन्ना को दिया गया मत अंततः मोदी के हाथ को मजबूत करेगा। बड़ा प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या प्रधानमंत्री को व्यक्तिगत रूप से इस घटना की जानकारी थी कि नहीं? व्यक्तिगत जानकारी के संबंध में प्रधानमंत्री का कोई कथन अभी तक सामने नहीं आया है। अतः यह माना ही जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री को व्यक्तिगत रूप से तथाकथित उक्त कांड की जानकारी नहीं थी। घटना की जानकारी सार्वजनिक होने पर निश्चित रूप से प्रधानमंत्री को सामने आकर सार्वजनिक रूप से यह बयान जनता के सामने देना चाहिए कि मैंने प्रज्वल रेवन्ना के समर्थन में सार्वजनिक सभा में मत देने की जो अपील की थी, तब मुझे उसके तथाकथित यौन अपराध की जानकारी नहीं थी, जो मुझे अभी मिली है, अतः मैं घटना की घोर भर्त्सना करता हूं। उक्त आरोपी को भारत सरकार जर्मनी से वापिस लाने के लिए त्वरित कार्रवाई करेगी, ताकि उसके विरूद्ध कठोर से कठोर कार्रवाई कर सजा दिलायेगें। अनजाने में हुए इस गलती के लिए हासन क्षेत्र की जनता से माफी मांगता हूं, कि ऐसे व्यक्ति के लिए वोट मांगा। परंतु ऐसा कथन प्रधानमंत्री की ओर से अभी तक नहीं आया है।

कर्नाटक प्रदेश भाजपा को जानकारी दी गई थी।

इस घटना की जानकारी कर्नाटक के समस्त राजनीतिक दलों भाजपा से लेकर कांग्रेस तक को होने के बावजूद किसी के भी द्वारा कार्रवाई के लिए आगे न आना, वास्तव में यह 21वीं सदी की आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के साथ इंसान की किस मानसिकता को प्रदर्शित करता है? यह सभ्य समाज की कल्पना से बहुत दूर है। तथापि रेवन्ना के विरुद्ध लोकसभा चुनाव लड़ने वाले कर्नाटक के भाजपा के नेता एडवोकेट देवराज गौडा ने लिखित पत्र द्वारा लगभग 6 महीने पूर्व 8 दिसंबर 23 को  भाजपा के पदाधिकारियों, प्रदेश अध्यक्ष, राष्ट्रीय महासचिव संगठन, बीएल संतोष को सेक्स कांड की पेन ड्राइव के बाबत सूचित किया था। जनवरी 2024 में एक पत्रकार वार्ता में देवराज ने इन वीडियो का उल्लेख किया था। बावजूद इसके प्रधानमंत्री को उनके चुनावी दौरे के समय भी यह सूचना नहीं दी गई तथा प्रधानमंत्री की सुरक्षा एजेंसी व जांच एजेंसी भी इस संबंध में जानकारी प्राप्त कर प्रधानमंत्री को देने में असफल रही। इस देश की राजनीति में सिर्फ और सिर्फ राज-सत्ता के अलावा कुछ शेष रह गया है क्या? आम नागरिक इस बाबत क्यों नहीं सोचते हैं कि जिस राजनीति के सहारे महात्मा गंाधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ. भीमराव अम्बेड़कर, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, पंडित श्यामप्रसाद मुखर्जी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे धुरंधर नेता इस देश में हुए, क्या वे अब मात्र अवशेष रह जायेगे? आम जनता की स्थिति क्या होगी, इसकी कल्पना आज के सामान्य नागरिक के दिमाग की सोच के बाहर की बात है।

रविवार, 5 मई 2024

‘‘विश्वासघात, अनैतिकता व अदूरर्दिशता’’ का अनूठा परिणाम जनक संगम! सूरत-इंदौर चुनाव।

 कम मतदान! बुद्धिमत्तापूर्ण, ‘‘चतुर’’ कदम!


कांग्रेस! मैच फिक्सिंग का आरोप। पुनः सेल्फ गोल!

सूरत-इंदौर चुनाव को लेकर आत्मघाती गोल की विशेषज्ञता कांग्रेस का बीजेपी पर ‘‘मैच फिक्सिंग’’ का आरोप तो बहुत ही बेहूदा, हास्यास्पद एवं पुनः ‘‘सेल्फ गोल’’ है। ‘‘मैच फिक्सिंग’’ का मतलब भाजपा व कांग्रेस सहित समस्त अन्य दलीय व निर्दलीय उम्मीदवारों के बीच एक छिपी हुई सहमति का होना है। इसका शाब्दिक अर्थ मैच की उस अवस्था को कहते हैं, जिसमें मैच के नियमों का उल्लंघन करते हुए परिणाम पहले से ही निश्चित हो जाते हैं। कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश ने ‘‘एक्स’’ पर लिखा यह ‘लोकतंत्र पर खतरा हैं’, और इसे ‘‘मैच फिक्सिंग’’ करार दिया। इसका मतलब तो यही हैं कि यदि यह फिक्सिंग सिर्फ भाजपा व चुनाव आयोग के बीच हुई है, तो निर्विरोध चुनाव दूसरे उम्मीदवारों की उपस्थिति के कारण हो नहीं सकता था। अतः इस आरोप का दूसरा तार्किक अर्थ यही निकलता है कि इस मैच फिक्सिंग में नामांकन भरने वाली अन्य समस्त छोटी पार्टियां, निर्दलीय व कांग्रेस भी भाजपा के साथ शामिल हैं। यह तो सेल्फ गोल है। 

अदूरदर्शी नेतृत्व! बदहवास कांग्रेस। 

इन मामलों को लेकर कांग्रेस नेतृत्व अपने कमजोरी को छुपाने के लिए डॉ. भीमराव अंबेडकर के भारतीय संविधान का हवाला देते समय यह भूल जाती है कि डॉ. अंबेडकर ने संविधान में यह प्रावधान नहीं किया था कि सत्ता पक्ष, विपक्ष के सही उम्मीदवारों का चयन कर सही तरीके से फार्म भरवाए और चुनाव कराये, ताकि विश्व में भारतीय लोकतंत्र के ‘‘दिये’’ की ‘‘लौ’’ जलती हुए दिखती रहे। दोनों जगह स्थानापन्न (डमी, वैकल्पिक) उम्मीदवारों का भी नामांकन खारिज हो जाना, कांग्रेस नेतृत्व की तथाकथित रणनीति, गंभीरता व अदूरदर्शिता को ही दिखाता है? कांग्रेस की लगातार हो रही बदहवासी के मात्र उक्त मामले ही नहीं हैं, बल्कि पूर्व में वर्ष 2009 में राजकुमार पटेल (पूर्व सांसद प्रत्याशी) जिन्होंने विदिशा लोकसभा क्षेत्र में चुनाव चिन्ह आवटन का पत्र बी ‘फार्म’ प्रस्तुत नहीं किया था और दूसरे भागीरथ प्रसाद (सेवा निवृत्त आएएस) जिन्हें वर्ष 2014 में कांग्रेस ने भिंड से अपना उम्मीदवार घोषित किया था, परन्तु उन्होंने कुछ सज्जनता बरतते हुए विश्वासघात न करते हुए टिकट वापिस कर भाजपा की टिकट पर चुनाव लड़कर जीते। ऐसी स्थिति से शायद ही देश की किसी अन्य छोटी अथवा बड़ी राजनैतिक पार्टी को गुजरना पड़ा हो। 

चुनावी राजनीति की ‘‘नई प्रणाली का ईजाद’’! 

लोकसभा के इसी आम चुनाव में मध्यप्रदेश के खजुराहो संसदीय क्षेत्र से इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार मीरा यादव का नामांकन एक जगह ‘‘हस्ताक्षर न होने’’ के कारण निरस्त कर दिया गया, वहां भी षड्यंत्र की ‘‘बू’’ की अपुष्ट खबरें हैं। अभी तीसरे दौर के चुनाव में इंदौर से कांग्रेस उम्मीदवार अक्षय कांति बम से भी नामांकन वापिस करवा कर सूरत का इतिहास दोहराने का आंशिक प्रयास अवश्य हुआ। मतलब कांग्रेस के उम्मीदवार ने फार्म तो वापस ले लिया। परंतु अन्य समस्त उम्मीदवारों के फॉर्म वापस न लेने अथवा न हो पाने के कारण इंदौर ‘सूरत’ (निर्विरोध चुनाव की स्थिति) नहीं बन पाया। अभी तो सूरत बनने व बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई है? पश्चिम बंगाल की तेज तर्रार नेत्री मुख्यमंत्री ममता का बंगाल में ‘खेला’ होगा कि नहीं, यह देखना तो अभी शेष है, परन्तु उसी बंगाल के प्रभारी रहे व ममता बनर्जी को सफलता पूर्वक चुनौती (पहली बार लोकसभा की 18 सीटे भाजपा ने जीती थी) देने वाले कद्दावर नेता कैलाश विजयवर्गीय ने अपने घर मध्य प्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर में बड़ा ‘‘खेला’’ कर चौका दिया। कांग्रेस के अक्षय कांति बम कांग्रेस के लिए फुस्सी बम होकर न केवल भाजपा के लिए ‘बम’ फोड़ा है, बल्कि मोदी की स्वच्छता अभियान के पिछले 7 साल से प्रथम रहने वाला इंदौर व 2023 में इंदौर के साथ संयुक्त रूप से सूरत शहर ने प्रथम रहकर राजनीति में भी वही ‘‘स्वच्छता’’ को बनाए रखने के लिए एक बम फोड़ कर इंदौर व सूरत के कांग्रेस के कचरे को हटाकर ‘‘कचरा से ऊर्जा बनाने’’ वाली अपनी मशीन में डालकर नई ऊर्जा बनाकर/पाकर मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत की सोच में भी महत्वपूर्ण योगदान किया है।

जन प्रतिनिधियों को ‘‘बंधक’’ किये जाने की राजनीति को बढ़ावा?

सूरत के बाद इंदौर की घटना ने ‘‘कांग्रेस की सूरत को बदसूरत कर कालिक अवश्य पोत दी’’ है। परंतु अरुणाचल से प्रारंभ होकर खजुराहो, सूरत व इंदौर तक की लगभग एक ही तरह की नई चुनावी पद्धति की घटनाओं की श्रृंखला ने भविष्य की नई तरह की चुनावी राजनीति का संकेत अवश्य दे दिया है। इस नई नीति में पूर्व में चुने गये जन प्रतिनिधियों के साथ आज चुने जाने वाले उम्मीदवार को बंधक बनाने की नीति को बढ़ावा देने के साथ इसे होटल और पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने की नई नीति भी कह सकते हैं। वह इसलिए की अब राजनीतिक पार्टियों को अपने उम्मीदवारों के साथ-साथ प्रस्तावकों को भी नामांकन वापसी की तारीख तक ‘‘होटल’’ में रखना या फिर बाहर घूमने फिरने भेजना होगा। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार अभी तक की राजनीति में, राजनीतिक दलों के टूटने पर या विधानसभा में बहुमत के प्रश्न पर जब बहुमत के आंकड़े ‘‘छीण’’ होते हैं, विधायकों को होटल में रखना या सैर सपाटे के लिए बाहर घूमने भेज देने की राजनीति पिछले कुछ समय से धड़ल्ले से सफलतापूर्वक चल रही है। देश में कुल 4126 विधानसभा क्षेत्र व 781 सांसद है। निर्दलीय उम्मीदवार को 10 प्रस्तावक लगते है। अब आप गणना कर लीजिए इनका खडे होने वाले उम्मीदवारों व उनके प्रस्तावकों की संख्या मिलाकर उनका कुल खर्चा। इस ‘‘नई नवेली नीति’’ का नई नवेली शादी के जोड़े का स्वागत करने के समान की बजाय, इस नीति के लोकतंत्र पर पड़ने वाले परिणाम पर गंभीरतापूर्वक विचार व आकलन करना आवश्यक हो गया है। 

हो रहे कम मतदान से ‘‘लाभ-हानि’’ के आकलन से इतर ‘‘आकलन’’!

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे बड़ा संसदीय चुनावी महाकुंभ के अभी दोनों फेसों के मतदान पूर्ण हो चुके हैं, जहां कुल 190 (लगभग एक तिहाई) लोकसभा क्षेत्र का भाग्य सील बंद हो गया है। इन दोनों फेस में मतदान पिछले वर्ष 2019 की तुलना में लगभग 6 प्रतिशत कम हुआ है। तथापि अभी-अभी चुनाव आयोग द्वारा जारी नवीनतम अधिकृत आंकड़ों के अनुसार यह अंतर कम होकर लगभग 3 प्रतिशत हो गया है। समस्त विश्लेषक इसका आकलन अपने-अपने हिसाब से कर रहे हैं कि इसका परिणाम/दुष्परिणाम किस गठबंधन के पक्ष में होगा? परन्तु इसे मैं एक बिल्कुल अलग नजरिए से देखता हूं। आखिर ‘‘कम मतदान’’ का कारण क्या है? जब आप इस ‘‘कम मतदान’’ को ‘‘नोटा’’ के साथ मिलाकर देखेंगे तो आपके सामने एक नई पिक्चर ही सामने आयेगी। नोटा का उपयोग वे ही लोग करते हैं, जो वर्तमान राजनीतिक पार्टियों व उम्मीदवारों से परेशान हैं और संतुष्ट नहीं है। अतः वे खीझकर एक ‘‘काल्पनिक’’ उम्मीदवार नोटा जो उनकी ‘‘कल्पना’’ के शायद ज्यादा अनुकूल है, को वोट दे देते है, उस ‘‘नोटा’’ को जो कभी भी शासनारूढ (‘शासन’) नहीं हो सकता है। उच्चतम न्यायालय ने नोटा का अधिकार देते समय लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 79 (घ) का उल्लेख करते हुए इस तथ्य को रेखांकित किया कि जिस प्रकार नागरिकों को ‘‘मत देने’’ का अधिकार है, उसी प्रकार उन्हें किसी भी उम्मीदवार को ‘‘मत न देने’’ का भी अधिकार प्राप्त है। मतलब इस अधिकार की पूर्ति ‘‘नोटा’’ द्वारा अथवा मतदान केन्द न जाकर भी की जा सकती है। मतदान केन्द्र में मत देने न जाने वाले मतदाता का कारण व रूख लगभग वही होता है, जो मतदान केन्द्र में जाकर ‘‘नोटा’’ का बटन दबाते है। अवश्य कुछ लोग अन्य कारणों से शादी-ब्याह, बीमारी या बाहर रहने के कारण वोट ड़ालने जाने से महरूम हो जाते हैं। इसलिए यदि वोटिंग व मत प्रतिशत बढ़ाना है, तो निश्चित रूप से नोटा को हटाना पड़ेगा। अथवा पुर्नगठन कर नोटा को प्रभावी व दंतयुक्त बनाना पड़ेगा, कैसे? जिसका उल्लेख मैंने पिछले लेख में किया है।

शुक्रवार, 3 मई 2024

‘‘नोटा विकल्प के रहते ‘‘निर्विरोध’’ निर्वाचन कितना औचित्यपूर्ण?

 

भूमिका

सूरत लोकसभा के हुए निर्विरोध निर्वाचन के मामले को लेकर जब कांग्रेस द्वारा भारतीय संविधान की दुहाई दी जा रही हो, तब उम्मीदवार का नामांकन निरस्त कर (खजुराहो संसदीय क्षेत्र) एवं तीसरे चरण में हो रहे इंदौर लोकसभा से भी कांग्रेस उम्मीदवार का नामांकन वापिस करवाकर भाजपा में शामिल कर, यथासंभव निर्विरोध चुनाव की नई नीति की अचानक आहट इस लोकसभा चुनाव सुनाई देने लगी है। यह स्थिति तब पैदा हो रही है या की जा रही है, जब दोनों लोकसभा क्षेत्र सूरत व इंदौर से लगातार वर्ष 1989 से व खजुराहो से वर्ष 2004 से भाजपा भारी बहुमत से चुनाव जीतती चली आ रही है। ‘‘नैतिकता’’ का राजनीति में प्रश्न उठाना तो मूर्खता ही कहलायेगी। ऐसी स्थिति में इस पहलू पर जरूर विचार करना आवश्यक हो जाता है कि क्या ‘‘नोटा’’ के रहते हुए एकमात्र बचे उम्मीदवार को ‘‘निर्विरोध’’ निर्वाचित घोषित करने की कानूनी स्थिति पर पुनर्विचार का समय नहीं आ गया है? 

नोटा का अर्थ।

भारतीय संविधान व जन प्रतिनिधित्व कानून में मूल रूप से ‘‘नोटा’’ का प्रावधान नहीं था। परंतु ‘‘पीयूसीएल बनाम भारत सरकार’’ के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्देश के पालन में दिसंबर 2013 में पहली बार मध्य प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में चुनाव आयोग ने ‘‘नोटा’’ का विकल्प भी मतदाता को दिया, तब भारत नोटा का विकल्प देने वाला विश्व का 14वां राष्ट्र बना। वर्ष 2014 में राज्यसभा के चुनाव में भी नोटा का प्रयोग किया गया। यह एक नकारात्मक प्रक्रिया है, जहां नोटा का कोई चुनावी मूल्य नहीं होता है। यह सिर्फ प्रत्याशी की अयोग्यता को दिखाने में मतदाता को सक्षम बनाता है। लेकिन यह भी सच है कि नोटा एक ‘‘काल्पनिक उम्मीदवार’’ होता है, जिस प्रकार भगवान एक लीगल एनटाइटिटी (वैद्य व्यक्ति) होते हैं। ‘‘नोटा’’ का मतलब ऐसा ‘‘दंतहीन विकल्प’’ है, जो ‘‘समस्त’’ उम्मीदवारों को अस्वीकार करने का अधिकार देता है। ‘‘समस्त मतलब सभी’। 

नोटा के रहते निर्विरोध चुनाव! मतदाता के मताधिकार पर कुठाराघात।

जब खुद चुनाव आयोग जोर शोर से यह प्रचारित, प्रसारित करता है कि प्रत्येक नागरिक को अपने ‘मताधिकार’ का उपयोग हर हालत में करना ही चाहिए और 100 परसेंट वोटिंग होना चाहिए, तब ‘‘निर्विरोध’’ परिणाम के कारण सूरत लोकसभा क्षेत्र के लगभग 16 लाख वोटर को तथा उनमें से वे युवा वोटर जिन्हें पहली बार मताधिकार का अधिकार मिला है, वे अपने इस अधिकार से वंचित हो गये और उन्हें वोट देते हुए ‘‘सेल्फी’’ खींचने का मौका भी नहीं मिल पाया। मतदान न करने पर सजा देने का प्रावधान लाने की वकालत करने वालों के लिए तो निर्विरोध चुनाव एक झटके, सदमे से कम नहीं होगा? 

नोटा दंतहीन प्रावधान! धरातल पर परिणाम मूलक नहीं।

‘‘नोटा’’ व वृद्धाश्रम की ‘‘दशा’’ व ‘‘दिशा’’ एक सी ही है। दोनों ही व्यवस्था समाज की स्वास्थ्य व परिपक्व मानसिकता में कमी के कारण उसकी पूर्ति हेतु ही बनी स्थिति के कारण है। वृद्धाश्रम की आवश्यकता परिवार द्वारा दायित्वों को न निभाने के कारण उत्पन्न होती है। अतः जब समाज और परिवार अपना दायित्व पूर्ण रूप से निभाने में सक्षम होकर निभाने लग जाएगा, तब ‘‘वृद्धाश्रम की सोच’’ ही समाप्त हो जाएगी।  

इसी प्रकार परिपक्व लोकतंत्र में जनता के पास दो विकल्प होते है सत्ता पक्ष व विपक्ष। कुछ विदेशों में तो विपक्ष भी छाया मंत्रिमंडल बनाकर जनता के बीच अपनी नीति को प्रभावी रूप से ले जाते हैं। परन्तु जहां लोकतंत्र परिपक्व नहीं होता है, तब पक्ष-विपक्ष दोनों के नाकाम व असफल सिद्ध हो जाने की स्थिति में तभी मजबूरी वश ‘‘नोटा’’ का प्रावधान कर विकल्प दिया जाता है। परन्तु नोटा का प्रयोग होने के बावजूद मतदाता अपने उद्देश्यों में वस्तुतः सफल नहीं हो पाता है। क्योंकि अंततः ‘‘शासक’’ तो दोनों पक्षों में से कोई एक ही बनता है, जिसे न चुनने के लिए नोटा का उपयोग किया गया था। ‘नोटा’ का बहुमत होने की स्थिति में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसे ‘‘शासन का अधिकार’’ नहीं मिल जाता है। अतः नोटा में वास्तविक परिणाम को लागू करने वाली शक्ति निहित न होने के कारण, जिस मुद्दे को लेकर नोटा का प्रयोग किया गया है, उसकी प्राप्ति न होने से नोटा का आह्वान करना, व्यावहारिक रूप से उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कहीं से कहीं उचित नहीं ठहरता है।

जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन आवश्यक।

इस बात पर गहनता से विचार करने की आवश्यकता है कि ‘नोटा’ ‘‘किन’’ उद्देश्यों की पूर्ति करता है? अथवा उच्चतम न्यायालय ने जिन उद्देश्यों के लिए इसका प्रावधान करने के निर्देश चुनाव आयोग को दिये थे, की क्या पूर्ति हो रही है? वास्तव में यदि ‘नोटा’ को ‘प्रभावी’ बनाना है, तो जन प्रतिनिधित्व कानून में यह संशोधन किया जाना आवश्यक है कि यदि नोटा को अधिकतम वोट मिलते है, तो न केवल चुनाव फिर से होना चाहिए, बल्कि जिन भी उम्मीदवारों को नोटा से भी कम मत मिले है, उन्हें पुनः खड़े होना का अधिकार नहीं होना चाहिए। यद्यपि समय के साथ ‘नोटा’ की लोकप्रियता बढ़ने के बावजूद अभी तक नोटा ‘‘बहुमत’’ हासिल करने में कामयाब नहीं हुआ है। अधिकतम व बहुमत में अंतर है। साथ ही जीत का अंतर नोटा को मिले मत से कम होने पर पुनः चुनाव होना चाहिए। इस तरह की मांग को लेकर एक जनहित याचिका प्रसिद्ध लेखक व मोटिवेशनल (प्रेरक) शिव खेड़ा ने उच्चतम न्यायालय में दायर की है, जिस पर चुनाव आयोग ने नोटिस भी जारी कर दिया है। नवम्बर 2018 में महाराष्ट्र व हरियाणा राज्य में स्थानीय निकायों के चुनाव में संशोधन कर अधिकतम वोट मिलने पर फिर से चुनाव होने का प्रावधान किया गया है। आखिर उपरोक्त प्रस्तावित संशोधन की मांग से नुकसान किस बात का है? किसका है?

वर्तमान ‘नोटा’ संसदीय प्रणाली को अराजकता की स्थिति की ओर अग्रसर करता है। 

हमारे देश में संसदीय प्रणाली है, जहां चुने गये विधायक/सांसद, ही कार्यपालिका के माध्यम से ‘‘शासन’’ चलाते हैं। चंूकि नोटा शासक नहीं हो सकता है, अतः आप एक अराजकतावादी स्थिति की ओर ‘नोटा’ के माध्यम से अग्रसर हो रहे हैं। इसलिए ‘‘नोटा’’ का प्रयोग करने वालो से भी ज्यादा बुद्धिमान वे लोग है, जो नोटा का प्रयोग करने वालों के कारणों को ही अपनाते हुए ही समय व खर्च को बचाते हुए वोट ड़ालने ही नहीं जा रहे है, जिस कारण से मत प्रतिशत गिर रहा है। यदि आप नोटा’ के समर्थक है, तो वही काम तो मत न ड़ालने से भी हो रहा है। अतः जितना कम प्रतिशत मतदान हुआ है, उसको ‘नोटा’ ही माना जाना चाहिए। यदि आप नोटा के मतदान को मतदान के कम प्रतिशत के आकडे में जोड़ दें, तो आप देखेगें कि एक बड़ा वर्ग लगभग 40 प्रतिशत से अधिक लोग वर्तमान चुनावी प्रणाली में भाग न लेकर उससे दूर है। तभी आप चैतन्य होकर चिंता से उस तंत्र को विकसित करेंगे, जिस पर विश्वास होकर, लोग ज्यादा संख्या में मतदान करने आगे आयेगा। 

‘‘नोटा’’ के बजाए! अटल जी का सिद्धान्त ‘‘रोटी पलटने’’ को अपनाईये।

मतदाता को यह समझना चाहिए कि यह भगवान राम का देश होते हुए भी ‘‘कलयुग’’ होने के कारण देश में ‘राम राज्य’ नहीं है, जहां घर पर ‘ताला’ लगाने की आवश्यकता नहीं होती थी। अतः यदि आपको कुँआ या खाई, चोर या डाकू में एक किसी एक का चुनाव करना ही है, तब आपने यदि डाकू चुना है, तो वह भविष्य में डाकू से चोर बनने की ओर अग्रसर होगा, ताकि पुनः वह पांच वर्ष के लिए चुना जा सके। और यदि चोर चुना गया है, तो वह ‘‘साहूकार’’ बनने का प्रयास अवश्य करेगा। यदि ऐसा नहीं हो पाता है, तब अटल जी के शब्दों में हर पांच सालों में ‘रोटी’ पलट देना चाहिए ताकि रोटी (लोकतंत्र) जल न सके को अपना लेना चाहिए। तभी लोकतंत्र सुरक्षित रह पायेगा। 2018 में मध्य प्रदेश विधानसभा के हुए चुनाव में भाजपा व कांग्रेस के बीच मात्र 0.1 प्रतिशत वोट शेयर का अंतर था, जबकि नोटा का 1.4 प्रतिशत वोट शेयर रहा, जो परिणाम को बदल सकता था।

जय हिंद!

गुरुवार, 2 मई 2024

‘‘सूरत’’ का सच! ‘‘निर्विरोध अथवा ‘‘विरोध’’ पर ‘सत्ता बल’ भारी?

रवीश कुमार की एकतरफा रिपोर्टिंग।

‘‘निर्विरोध’’ चुनाव सूरत!

वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव की जिस धमाकेदार तरीके से आगाज भाजपा खास कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने की है, इसकी
एक बानगी ‘‘हीरा’’ नगरी ‘‘सूरत’’ से भाजपा उम्मीदवार मुकेश दलाल का निर्विरोध चुना जाना है। भाजपा के इतिहास में वे पहले निर्विरोध सांसद होकर एक साथ ‘हीरा’ और ‘‘हीरो’’ बन गए हैं। 400 पार के हुंकार के चलते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ‘‘पहला कदम’’ पहला ‘कमल’ ‘‘मुकेश’’ के रूप में मिला। हाल के वर्षों में सांसद के निर्विरोध चुनाव के उदाहरण देखने को मिलते नहीं हैं। वर्ष 2012 में समाजवादी पार्टी की डिंपल यादव का कन्नौज लोकसभा उपचुनाव में निर्विरोध सांसद के चुनाव को छोड़ दे तो, अंतिम बार वर्ष 1989 में मोहम्मद शफी भट जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी से श्रीनगर लोकसभा से निर्विरोध चुने गये थे। शायद इसका कारण विद्रोह व आतंकवाद के चलते (जहां राज्य की शेष सीट पर मात्र 5 प्रतिशत से भी कम मतदान हुआ था) दूसरे उम्मीदवार द्वारा नामांकन न भरना रहा था। स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभी तक कुल 35 सांसद निर्विरोध चुने जा चुके हैं। अभी अरुणाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी 10 भाजपा उम्मीदवार निर्विरोध जीते हैं। 

रवीश कुमार की प्रतिक्रिया एकतरफा। 

इस ‘‘निर्विरोध’’ चुनाव को लेकर कांग्रेस और सोशल मीडिया खासकर प्रसिद्ध पत्रकार रवीश कुमार की जो प्रतिक्रिया आई है, वह किसी भी रूप में न तो उचित कही जा सकती है और न ही तथ्यों से मिलान खाती है। आम आदमी पार्टी द्वारा इस निर्विरोध चुनाव को ‘‘लोकतंत्र की नींव खोखला कर देने वाला’’ ठहराया। सोशल मीडिया में सूरत लोकसभा के निर्विरोध चुनाव को लेकर लोकतंत्र की हत्या बताने वाले डिंपल यादव के निर्विरोध निर्वाचन पर कहां गायब हो गए थे? पत्रकारिता के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय रेमन मैग्सेसे’ पुरस्कार से नवाजे गये रवीश कुमार एक ऐसे निर्भीक, खोजी पत्रकार हैं, जिनके प्रशंसक, फॉलोअर्स सोशल मीडिया में लाखों की संख्या में है (लगभग 80 लाख से अधिक सब्सक्राइबर (ग्राहक) है), उनमें से एक प्रशंसक मैं भी हूं। वह इसलिए की उनकी पत्रकारिता अन्य पत्रकारों की ‘‘मीडिया ट्रायल’’ पत्रकारिता (जैसे अर्णब गोस्वामी) की तुलना में ज्यादा तथ्योंपरक और आम जनों की समस्याओं से ज्यादा जुड़ी रहती हैं। युवाओं की बेरोजगारी, शिक्षा, परीक्षा, नकल, किसान आंदोलन, वन रैंक वन पेशन, ओआसी, अग्निवीर योजना साम्प्रदायिक सदभाव और इन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण नागरिक, सामाजिक सक्रियतावादी (एक्टिविस्ट) एवं पत्रकारों की नागरिक स्वतंत्रता पर अतिक्रमण करने वाली घटनाओं का विस्तृत विवरण सहित अनेकोंनेक जन समस्याओं पर उन्होंने पत्रकारिता की कई सीरीज की हैं, जिन्हें पत्रकारों की बड़ी जमात उठाने में सामान्यतः परहेज करती रही है। बावजूद इसके उन्हें भी पूर्ण रूप से एक ‘‘निष्पक्ष’’ पत्रकार की श्रेणी में इसलिए ‘‘नहीं’’ रखा जा सकता है, कि अधिकांशतः सरकार की आलोचना के अतिरिक्त रवीश कुमार को कभी भी सरकार के अच्छें कार्यों को लेकर वीडियो बनाते हुए या पीठ थपथपाते हुए समाचार देते हुए शायद ही देखा गया हो? जैसे ‘‘चंचल नार की चाल छिपाये न छिपे’’ वैसे ही रवीश कुमार का वर्तमान सत्ता का अंध विरोध छिपता नहीं है। अपने इस रुख के लिए ऐसे पत्रकार इस आदर्श सिद्धांत के पालन का सहारा लेते है कि पत्रकार का कार्य सिर्फ सत्तापक्ष से ही प्रश्न पूछना है, विपक्ष से बिल्कुल नहीं। 

वीश कुमार! संतुलित नहीं बल्कि अंध भक्त विरोध।

रवीश कुमार की पत्रकारिता की आलोचना-समालोचना में देश के ‘‘तंत्र’’ को बचाए रखने की चिंता अवश्य झलकती रहती है, परंतु यहां पर तो निश्चित रूप से उन्होंने अंधभक्त मीडिया जिसे वे स्वयं गोदी मीडिया कहते थकते नहीं हैं, के समान ही अंध भक्त विरोध का चश्मा लगाते हुए सूरत लोकसभा चुनाव के परिणाम की बेमैल तुलना चंडीगढ़ मेयर चुनाव के साथ कर दी। इसे ‘‘मैच फिक्सिंग’’ तक करार कर दिया, जिसका आगे अर्थ स्पष्ट किया गया है। कुछ अन्य यूटूबरर्स ने सूरत चुनाव को चंडीगढ़ मेयर चुनाव से भी ज्यादा खतरनाक ठहरा दिया। इसे तो बिल्कुल ‘‘जलेबी के समान सीधा’’ विश्लेषण ही कहा जा सकता है, जो किसी भी रूप में न तो तथ्यात्मक है और न ही सही है। चंडीगढ़ मेयर चुनाव में स्वयं चुनाव अधिकारी द्वारा कैमरे के सामने सरेआम वोटों का डाका ड़ाला गया था, जबकि यहां पर तो बिना कैमरे के ही सूरत की राजनीतिक रूप से प्रसिद्ध फाइव स्टार होटल ‘‘ली मेरिडियन’’ ने अपना इतिहास दोहरा दिया। जरा आपको याद दिला दें कि इसी ‘‘स्टार’’ होटल में महाराष्ट्र में जब शिवसेना में दो फाड़ होकर महाराष्ट्र विकास आघाड़ी की सरकार गिराए जाने का ‘‘ऑपरेशन लोटस’’ चल रहा था, तब पाला बदलने वाले विधायकों को यहीं ठहराया गया था। सूरत चुनाव के संबंध में रवीश कुमार द्वारा तीन-तीन वीडियो बनाना, उनके एजेंडे को स्पष्ट रूप से संकेत करता है। यदि आप उनके इन वीडियो को पूरा देखेंगे (जैसा कि वे हमेशा कहते हैं कि वीडियो पूरा देखिए) तो उससे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगा कि ये वीडियो रवीश कुमार का पूर्णतः अंध भक्त विरोध के एजेंडा का एक भाग ही है, बजाय देश की लोकतंत्र की चिंता का विषय, जैसा कि वह कहते हैं, दावा करते हैं।

रवीश कुमार कांग्रेस नेतृत्व की कमजोरी को नजरअंदाज करना!

रवीश कुमार का उक्त वीडियो में यह कहना कि यदि विपक्ष के उम्मीदवार को इस तरह से ‘‘मैनेज’’ किया जाने लगा और प्रस्तावक गायब होने लगे तो कहीं लोकतंत्र ही गायब न हो जाए? उच्चतम न्यायालय से तुरंत हस्तक्षेप करने की गुजारिश भी रवीश कुमार ने कर डाली। ‘‘ऑपरेशन निर्विरोध’’ या ‘‘ऑपरेशन दलाल’’ की ‘‘दलाली’’ किसने की, यह तो जांच के बाद ही पता चल जायेगा। परंतु ‘‘चलती चक्की में से साबुत निकल आने वाले’’ रवीश कुमार निश्चित रूप से यदि यह कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार भ्रष्टाचार में लेने वाला व देने वाला दोनो बराबरी के अपराधी होते हैं। ठीक उसी प्रकार लोकतंत्र के इस चुनावी खेल में नेताओं, सांसदों, विधायकों और अब ‘‘उम्मीदवारों’’ का बिकना जो एक आम चलन (प्रक्रिया) हो गई है, के लिए दोनों पक्ष आपराधिक रूप से कानूनन् दोषी है। तकनीकी रूप से सही होने के बावजूद रवीश कुमार की निष्पक्षता स्पष्ट रूप से एक पक्ष की ओर 180 डिग्री नहीं तो 90 डिग्री से जरूर झुकती हुई दिखती है, जब वे कांग्रेस की इस बात के लिए बिल्कुल भी आलोचना नहीं करते हैं, नजरअंदाज कर देते है कि कांग्रेस को अपना घर संभालना नहीं आ रहा है। विपरीत इसके वे सीधे उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप की मांग कर बैठते हैं। क्या यह कांग्रेस नेतृत्व (प्रादेशिक व केन्द्रीय) की जिम्मेदारी नहीं थी कि जिस व्यक्ति को वह उम्मीदवार बना रहे है, वह इतना कमजोर व दोगला (जो बाद में अंततः भाजपा में शामिल ही हो गया) और ‘‘आप अपने हाथ बिकने वाला चकरया’’ निकल जाएगा? वह पार्टी को धोखा देकर विपक्षी से मिलकर ‘‘ऑपरेशन निर्विरोध’’ सफल कर ‘‘निर्विरोध’’ चुनाव का रास्ता बना कर सूरत के 16 लाख वोटो के मताधिकार को छीन लेगा? आखिर यह घटना कुछ घंटे या 1 दिन की तो थी नहीं? इसकी भूमिका कहीं न कहीं 3-4 दिनों से बन रही थी, जैसा कि स्थानीय मीडिया में छपा भी है। सूरत की यह कहानी अभी इंदौर लोकसभा में दोहराई जा रही है, जहां कांग्रेस उम्मीदवार ने अपना पर्चा वापिस लेकर भाजपा में शामिल हो गया।

‘‘कांग्रेस’’ या ‘‘संविधान’’ को ‘‘बदसूरत’’ करता ‘‘सूरत’’? 

इस निर्विरोध चुनाव के दूसरे पहलू जिस पर रवीश कुमार ज्यादा जोर देते है, पर भी विचार किया जाना चाहिए। क्या यह निर्विरोध चुनाव एक सामान्य प्रक्रिया के तहत हुआ है? अर्थात सामान्य प्रक्रिया के तहत पानी का बहाव उतार की ओर हुआ है अथवा मोटर पंप से पानी चढ़ाव की ओर उतारा गया है? क्या इस प्रक्रिया में राज्य पुलिस बल, केंद्रीय एजेंसीस ई.डी. आदि का धन-बल, धमकी ड़र का भी समावेश हुआ है? यह निष्कर्ष तो एक स्वतंत्र जांच आयोग की रिपोर्ट के बाद ही निकाला जा सकता है। हस्ताक्षर को जाली ठहराकर अस्वीकार करने वाले शपथ पत्र के हस्ताक्षर के सत्यापन की जांच किसने की? जब वे तीनों प्रस्तावक निर्वाचन अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत ही नहीं हुए? निर्वाचन अधिकारी अथवा कांग्रेस सहित विपक्षी पार्टियों द्वारा झूठे हस्ताक्षर के लिए प्रस्तावकों के विरुद्ध अभी तक एक भी प्रथम प्राथमिकी दर्ज क्यों नहीं कराई? सरदार वल्लभ भाई पटेल, ग्लोबल रिपब्लिकन पार्टी सहित छोटे दलों के 4 प्रत्याशियों सहित शेष समस्त निर्दलीय प्रत्याशी ने भी नामांकन वापस ले लिये। बसपा प्रत्याशी को क्राईम ब्रांच उठाकर ले गई और तदनुसार उनका फार्म वापिस हो गया। तथापि इस तथ्य को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि सूरत में भाजपा 1984 से लगातार जीतते चली आ रही है। जहां पर वर्तमान समस्त विधायक व सभासद (पार्षद) भाजपा के ही हैं, व इस चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार की पूर्व की ही भांति लाखों मतों से जीतने का एक अनुमान/आकलन है।  

अंत में मैं यह जरूर चाहूंगा कि पाठक गण मेरे इस लेख को रवीश कुमार तक जरूर पहुंचाएं, जिससे वे इसे पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया जरूर दें, ताकि कोई त्रुटियां (यदि) तथ्यात्मक अथवा गुण दोष के आधार पर उनकी नजर में इस लेख में हैं, तो तदनुसार सुधारा जा सके।

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