गुरुवार, 20 जनवरी 2022

उत्तर प्रदेश के चुनाव में सामान्य वर्ग (जनता) विलुप्त हो गई है।

‘‘दिल्ली‘‘ की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है, राजनीति में रहने से लेकर समझने वाला प्रत्येक व्यक्ति जानता है। इसलिए पांच राज्यों के चुनाव में सबसे ज्यादा अहमियत उत्तर प्रदेश की है, जिसे 2024 के लोकसभा चुनाव के पूर्व का सेमीफाइनल भी कहा जा रहा है।            

वैसे तो उत्तर प्रदेश व बिहार देश के ऐसे राज्य हैं, जहाँ राजनीति का केंद्र बिंदु सिंद्धान्तः राष्ट्रवाद से प्रारंभ होकर अतंतः वस्तुतः धरातल पर जातिवाद पर उतर जाता है। यही दोनों प्रदेशों की राजनैतिक सच्चाई है। ‘‘सबका साथ, सबका-विकास, सबका-विश्वास और सबका-प्रयास’’ का नारा देने वाली भाजपा और बहुजन हिताय को बदल कर सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाए का मंत्र देने वाली बसपा तथा ‘‘सब आये, सबको स्थान व सबको सम्मान’’ की बात करने वाली सपा तीनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियों में सर्व समाज की भावना (जिसमें सामान्य वर्ग भी शामिल है) का सिद्धांत सिद्धांतः शामिल होने पर भी मेरे जैसे एक सामान्य व्यक्ति का दिल खुश होकर मन भी खिल जाता है। परन्तु पिछले तीन दिनों से उत्तर प्रदेश के गरमाते राजनीतिक पिच (पटल) पर जिस तरह की भागम-भागी, परस्पर व दूसरी पार्टीयों से पलायन का दौर दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वियों भाजपा-सपा के बीच चल रहा है और जिस तरह से उक्त पलायन के लिए कारण व जवाबी कसीदें गढ़े जा रहे है, उन्हे पढ़ कर देश की सामान्य वर्ग (जनता) की आंखें खुल जानी चाहिए।

‘‘सांझे की हंडिया चौराहे पर फोड़ने वाले’’ स्वामी प्रसाद मौर्य व उनके एक के बाद एक इस्तीफे देने वाले मंत्रियों व विधायकों की इस्तीफे देने के कारणों की भाषा जो लगभग एक सी है, पर आपका ध्यान आकर्षित कराना चाहता हूं। जब वे सब एक सुर में यह कहते नहीं थक रहे हैं कि दलितों, पिछड़ों, शोषितों, वंचितों, कुचला, कमजोर, गरीब, मजदूर वर्ग किसानों व बेरोजगार नौजवानों के साथ भाजपा नेतृत्व ने न केवल अत्याचार किया है, बल्कि वस्तुतः धोखा किया है और उनके हित में कुछ नहीं किया। वैसे स्वामी प्रसाद यह बतलाने में असफल रहे कि मंत्रिमंडल में शामिल होने के बाद उन्होंने इन वर्गो के हितों के लिये मंत्रीमंडल व पार्टी फोरम में कब-कब आवाज उठाई? और योगी सरकार ने जब कोई कार्यवाही नहीं की तब सत्ता के सुख के विकर्षण? के कारण उन्हे यह समझने में पांच साल लग गये? तब जब सत्ता का आकर्षण समाप्त हो रहा था। जबकि भाजपा उक्त आरोपों के बचाव में यह कह रही है कि हमने इन सब वर्गों के लिए जितना कार्य किया है, उतना किसी ने आज तक नहीं किया। मतलब साफ है! इस देश की 134 करोड़ जनता को इन्हीं वर्गों (उपरोक्त उल्लेखित) में विभाजित है और जिनके विकास किए जाने की बात भाजपा व समाजवादी पार्टी कर रही है। इसमें सामान्य वर्ग कहां खड़ा है? बड़ा प्रश्न यह है? यदि उपरोक्त वर्णित वर्गो का प्रतीकात्मक रूप जाति से संबंध न होकर केवल आर्थिक स्थिति से है, तो इसमें सामान्य वर्ग भी शामिल है, यह माना जायेगा। इस दृष्टि से तो स्वागत किया जाना चाहिये। अन्यथा जैसा कि कहा जाता है ‘‘घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध‘‘, विकास की दौड़ में सामान्य वर्ग को छोड़कर शेष पिछड़े वर्गो की सुध लेने की बात समस्त पार्टियां कर रही है। 

यह बात सामान्य वर्ग को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिये कि वह ‘‘न तो तीन में है न तेरह में‘‘। एक बात स्पष्ट है कि इस देश के सामान्य वर्ग की संख्या पिछड़े वर्ग के बाद अन्य सभी वर्गो अनुसूचित जाति, जनजाति, अल्पसंख्यकों के लगभग बराबर की है (मात्र 1-2 प्रतिशत कम ज्यादा)  ‘‘घर का न घाट का’’ वाली स्थिति में है। बावजूद इसके सामान्य वर्ग के हितों की खुलकर उनकी जनसंख्या की हिस्सेदारी के हिसाब से बात करने वाली वाला कोई भी स्थापित राजनीतिक पार्टी नहीं है। सवर्ण वर्ग के नेता भी अपने हितों को लेकर लेकर उतने अग्रणी नहीं है। वास्तव में वे पिछड़े-अगड़े की लड़ाई में अगड़े कहलाने के बावजूद आगे न होकर बहुत पीछे या यह कहा जाय कि लड़ाई में ही नहीं है, तो ज्यादा ठीक व व्यवहारिक होगा।

सवाल यहां पर वर्ग विभाजन की बात करना बिल्कुल नहीं है। क्योंकि देश के राजनीतिक स्वास्थ्य के लिए यह अत्यंत हानिकारक है। लेकिन जब सभी राजनीतिक दल और मीडिया अगड़े-पिछड़े की बात कर सिर्फ पिछड़ों के राजनीतिक हितों की बात करें और बाकी जनता को उनके हाल पर छोड़ दे जो देश हित में नहीं होगा। इनमें सुधार आखिर कौन ला सकता है? जनता ही इसमें सुधार ला सकती है, जिसके वोटिंग पैटर्न के आधार पर उक्त परसेप्शन उत्पन्न हुआ है, यदि देश हित में वे अपना वोटिंग पैटर्न बदले, तभी। 

अब इन इस्तीफों पर भी कुछ चर्चा करना जरूरी हो गया है। भाजपा के कुछ नेता व मीडिया के कुछ भाग में यह खबर आ रही है कि इन विधायकों की टिकट कट रही थी, और यह युक्तियुक्त आशंका उनको हो गई थी, इसलिए उन्होंने इस्तीफा दिया। यदि यह बात सही है तो भाजपा का उच्च नेतृत्व उन्हें मनाने की कोशिश क्यों कर रहा था? क्या नेतृत्व को यह उम्मीद थी कि वे सब भाजपा की राजनीति में लगभग पांच साल रहकर बदलकर संतों की श्रेणी में आ गये है? और इसलिए वे बिना किसी पूर्व से बड़े राजनैतिक पद-लालच, आर्कषण प्लेटफार्म के पार्टी में वापस लौट आएगें? जब पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा व अन्य पार्टियों से भाजपा में नेताओं की भारी भीड़ आई थी, तब भाजपा ने गले में हार डाल कर उनका हार्दिक स्वागत किया था। तब शायद भाजपा को उनके ‘‘ज्यादा जोगी मठ उजाड़’’ का अंदाजा या आशंका नहीं होगी। अतः तब यदि वे वजनदार नेता थे, जिसका फायदा भाजपा को चुनाव में मिला भी (वे चुनाव जीते भी) तो अब क्या वे अस्तित्व हीन प्रभावहीन हो गए? क्या उनके जाने से पार्टी को नुकसान नहीं होगा? यह कहना या ऐसा आकलन करना पूर्णता सही नहीं होगा। यह भारी दल-बदल पश्चिम बंगाल के चुनाव के समय भाजपा के पक्ष में हुये दल बदल के समान परिणाम लिये (निराशावादी) होगा अथवा पूर्व में जब 2017 में हुये विधानसभा चुनाव के पूर्व दल बदल के समान फायदा (सत्ता) मिलेगी? ‘‘उँट किस करवट बैठेगा’’ यह तो समय ही बतलायेगा। यद्यपि जितना फायदा उनके आने से हुआ होगा, उतना उनके जाने से नहीं होगा क्योंकि पार्टी के पास राज्य व केंद्र में योगी व मोदी जैसे जमीन से जुड़े हुए लोकप्रिय नेता है। यद्यपि उत्तर प्रदेश सरकार के प्रवक्ता और कद्दावर मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह ने स्वामी प्रसाद मोर्य के पिछड़े कार्ड के जवाब में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पिछड़ा वर्ग होने के कथन की चूक कर दी। नरेन्द्र मोदी सिर्फ एक वर्ग के नहीं, बल्कि समस्त वर्ग के नागरिक प्रधानमंत्री है। 

वर्तमान चुनावी राजनीति में मृतात्माएं (जिन्ना) व जानवर (सांप, नाग व नेवला) की प्रविष्ट होकर वह जीवित व्यक्ति के व्यक्तित्व पर हावी हो रही है। यह राजनीति की गिरती दशा-दिशा का एक और सूचकांक है। तथापि निचले पंचायत स्तर पर जाने वाले नेताओं के प्रभाव को निष्प्रभावी या कम करना इतना आसान नहीं होगा। परंतु इस कारण से एक परसेप्शन जरूर बन रहा है कि डूबते जहाज को बुद्धिमान व्यक्ति छोड़कर चला जाता है। इस कारण से अखिलेश यादव ने एक रेनबो बना कर (सात छोटी-छोटी पार्टियों को जोड़ कर) एक मजबूत विकल्प देने का जो प्रयास कर रहे हैं, को भी मजबूती मिल रही है।

एक और अकाट्य लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य! राजनीति में मूल्यों की नीति, सिद्धांत व नैतिकता को समस्त राजनीतिक पार्टियों ने बेमानी कर दिया है। स्वामी प्रसाद मोर्य के भाजपा को समाप्त करने के लिये उक्त कथन करते समय शायद यह भूल गये कि सांप व नाग मिलकर राष्ट्र को जाति-तोड़ वाले जातिवादी नेवले को अपने में लपेटकर, बांधकर रखने की क्षमता रखते हैं।

शुक्रवार, 7 जनवरी 2022

कोविड-19 म्यूटेन की राजनीतिज्ञों से प्रगाढ़ दोस्ती!

 वैसे भारत एक लोकतांत्रिक देश है, और लोकतंत्र बगैर राजनीति के चल ही नहीं सकता है, बल्कि यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि लोकतंत्र में प्राण फूंकने वाली राजनीति ही हैं। यह राजनीति उसको चलाने वाले राजनेताओं के सर पर हमेशा सवार रहती है, जिसके चलते ये राजनेतागण विभिन्न सार्वजनिक निर्णय जनता के हित के लिये लेते है, जिसे हमेशा जनहित और देशहित में लिया गया निर्णय करार दिया जाता है। चूंकि हमारे संविधान में लोकतंत्र की यही मूल व्यवस्था है, जहां के राजनैतिक दल चुनावों में भाग लेकर जनता का प्रतिनिधित्व चुनकर आकर उनकी सेवा करने का बीड़ा व जिम्मेदारी उठाना बखूबी निभाते आ रहे हैं। चूंकि संविधान में प्रत्येक पांच वर्ष में जनता का जनादेश प्राप्त करने की व्यवस्था है, इसलिए उस व्यवस्था के अनुपालन में आगामी मार्च से मई तक पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होना है। इसकी तैयारी में कोविड-19 से संक्रमित, ग्रसित हमारा देश दो कोविड लहरों सेे गुजरने के बाद तीसरी लहर के द्वार पर खड़ा होने के बावजूद राजनैतिक दल उक्त संवैधानिक दायित्व को बिना हिचकिचाहट के निभाने का कार्य कर रहे हैं। 

संविधान की इसी मूल तत्व व भावना को हमारे देश के समस्त राजनैतिक दलों ने पढ़ा, महसूस किया और पूरी तरह से अपने में उतार लिया। ऐसा करके राजनेताओं ने कोविड-19 के संक्रमण काल में खासकर कोविड के बढ़ते हुये नए ओमीक्रॉन म्यूटेन के चलते स्वयं के और उनको वोट देने वाली जनता के जीवन की चिंता न करते हुये, लोकतंत्र को मजबूत रखने के तत्व को ज्यादा महत्वपूर्ण व मजबूत मानते हुए शहीद होने की आशंकाओं से ड़रे परे बिना एक देश भक्त होने का अहसास व कर्तव्य पालन का दर्शन न केवल देश को कराया बल्कि संपूर्ण विश्व को भी कराया जिसके लिये वे सब साधुवाद के पात्र है। उन्हे शत् शत् नमन।

देश के प्रधानमंत्री ने अपने 84वें मन की बात में नागरिकों को आत्म अनुशासन का पाठ पढ़ा कर सत्ता पक्ष के साथ विपक्ष ने भी रैली रोकने की जिम्मेदारी से अपने को बहुत ही सुविधाजनक तरीके से अलग कर लिया। अब यह जिम्मेदारी स्वयं नागरिकों की हो गई कि वे आत्मानुशासन का अनुपालन करते हुये रैलियों सहित भीड़ भरे स्थानों पर न जाय, अन्यथा समस्त दुष्परिणामों की जिम्मेदारी उनकी स्वयं की होगी। लेकिन सत्ता व विपक्ष दोनों पक्ष नागरिकों के व्यक्तिगत कार्यक्रम जैसे शादी, पार्टियां और शव यात्रा के अवसरों पर लगाए गए संख्या के प्रतिबंध पर एक शब्द भी नहीं बोले। गोया, कोविड-19 के विभिन्न वेरिएंट, देसी भाषा में कीड़ा राजनेताओं को सम्मान करने के कारण या उनके खौफ व ड़र से (जो शायद उसने जनता के मन के अंदर महसूस किया है) वह लाखों की रैलियों और जन सभाओं में जाकर जनता को परेशान व संक्रमित नहीं करता है? या जाने से ही परहेज करता है? अथवा ‘‘जामर’’ लगे होने के कारण जाने में असफल रहता है? कारण कोई भी हो सरकार व विपक्ष दोनों का सर्वानुमति से उत्पन्न यह विश्वास है। इसीलिए लोकतंत्र की गाड़ी लगातार चलते रहे उसके लिए रैली, रेला और सभा की भीड़ आवश्यक है, जिसकी पूर्ति वे पूरी तन्मयता व कर्तव्य परायणता से कर रहे है? कोविड-19 का वेरिएंट चाहे उसके कितने ही भाई-बहन हो अभी तो एक नया भाई ने नये वैरिएंट के रूप में सामने आ गया है उसे ओमीक्रॉन से 50 प्रतिशत ज्यादा घातक बताया जा रहा है। राजनेताओं व उनके मंच के सामने बैठे नागरिकों वे गले लगाकर चूमता है। परन्तु आम नागरिकों को उनके जन्मदिवस, शादी या अन्य अवसर शव यात्रा में शामिल होने वाले नागरिक के गले लगने पर काटकर मृत्यु का ड़र पैदा कर देता है। क्या कमाल है?  

संवेदनशील सरकार होने के कारण कोविड-19 काल में संक्रमितों व मृत्यु की संख्या अल्प से अल्पतर हो जाने पर कोविड-19 प्रोटोकॉल के प्रतिबंध से पूर्व में पूर्णतः मुक्त किए गए जन्म दिवस, शादी विवाह और शव यात्रा जैसे अवसर पर अब जैसे-जैसे संक्रमितों की संख्या बढ़ती जा रही है, उक्त व्यक्तिगत कार्यक्रमों में शामिल होने वाले की संख्या को लगातार कुछ कुछ दिनों के अंतराल में ठीक उसी प्रकार की कमी कर सीमित की जा रही है जिस प्रकार तेल की कीमतें बढ़ती रही है। और दोनों ही चीजें राष्ट्र के विकास मंत्रियों ने पेट्रोल-डीजल के बढ़े मूल्यों के माध्यम से नागरिकों को अपना योगदान देने की बात की थी। जन के विनाश को बचाने के लिए आवश्यक है? सार्वजनिक परिवहन, ऑफिसेस में 50 प्रतिशत उपस्थिति कम कर और सरकारी आफिसों में निरंक उपस्थिति का वर्क फ्रॉम होम की नीति लागू की जा रही है। इस प्रकार कोविड से बचाव के लिये जिस प्रकार अन्य क्षेत्रों में प्रतिबंध लगाया जा रहा है। वैसा सार्वजनिक रैलियों और सभाओं पर कोई अभी तक वास्तविक प्रभावी प्रतिबंध नहीं लगा है। यदि प्रतिबंध लगा भी है तो कोविड-19 के प्रोटोकॉल को मानने के शर्त के साथ अनुमति दी गई होगी, जिसका अनुपालन न होकर खुल्लम खुल्ला उल्लंघन हो रहा है। और उस पर अपराधिक या किसी तरह की कोई कार्यवाही नहीं हो रही है। इसलिए अब यदि नागरिको को अपने व्यक्तिगत शादी-ब्याह जन्मदिवस या मौत-मिट्टी के कार्यक्रमों में अपने समस्त परिचितों व रिश्तेदारों को बुलाना होगा तो सबसे आसान तरीका उनके पास यही रहेगा कि वे साथ में एक छोटी-मोटी सी राजनीतिक रैली या सभा करने की घोषणा कर दें। बेरोकटोक आपके व्यक्तिगत कार्यक्रम भी ठीक उसी प्रकार से संपादित हो जाएंगे जिस प्रकार से सार्वजनिक रैली, सभाएं लाखों की भीड़ इकट्ठा होकर विसर्जित होने के बाद नागरिक बेरोकटोक अपने घर वापस पहुंच जाते हैं। 

यद्यपि अभी तक चुनाव की घोषणा नहीं हुई है। तथापि आचार संहिता लागू होने पर लगने वाले प्रतिबंधों से फिलहाल उन्मुक्त होने के कारण उसका फायदा उठाकर सरकारी कार्यक्रमों को चुनाव पूर्व चुनावी रैलियों में कैसे बदला जा सकता है, आप सब देख रहे है। जब प्रधानमंत्री स्वयं अपने भाषणों में मंच पर या सभा स्थल पर कोविड-19 के प्रोटोकॉल का पालन नहीं करवा पा रहे है। तब उनके जनता को दिये जा रहे कोविड-19 से बचने के लिए सावधानी बरतने के संदेश की कितनी अहमियत रह जाती है? इस पर आगे कुछ भी कहना व्यर्थ होगा।

गुरुवार, 6 जनवरी 2022

हाय री ‘‘सर्वानुमति‘‘! ‘‘लोकतंत्र की यह कैसी ‘सर्वानुमति’’।

अक्सर हमारे देश के राजनीतिज्ञों एवं राजनैतिक पार्टियों पर परस्पर या अन्य पक्षों द्वारा यह आरोप जड़ दिया जाता है कि देश के मान, सम्मान, विकास, अखंडता व सुरक्षता के मामले में वे कभी भी एक होते हुये दिखते नहीं है। यद्यपि हमारी देश की संस्कृति का मूलभूत सूत्र व सिंद्वान्त ही ‘‘अनेकता में एकता लिये हुये कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हमारा देश एक है’’ रहा है। लेकिन इस सिंद्धान्त को मानते हुये ओैर उक्त आरोप जो एक परसेप्शन है, को नकारते हुये इस देश के राजनीतिज्ञों में कुछ मुद्दों को लेकर जो अभूतपूर्व एकता दिखाई देती हैं, वह देश के हित में है? या विपरीत? इस पर भी कुछ आलोचक अपनी कलम तेढ़ी व भृक्टी (भंगिभाए) तिरछी करते हो तो करते रहे, ‘‘अंधा क्या जाना बसंत की बहार‘‘। खैर इसका जवाब फिर कभी खोजेगे, अभी तो बात सर्वानुमति की एकता को लेकर कर ले। 

आपको याद होगा, हाल ही में (23 दिसम्बर 2021 को) इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कोरोना के बढ़ते हुये संक्रमित मरीजों व चुनावी रैलियों में आ रही? अथवा लाई जा रही भीड़ को देखते हुये चिंता व्यक्त करते हुये कोरोना की संभावित तीसरी लहर से जनता को बचाने के लिये प्रधानमंत्री एवं चुनाव आयोग को रैलियों को रोकने व चुनाव टालने का सुझाव दिया था। न्यायालय ने कहा कि राजनैतिक दलों की रैलियों व सभाओं में लाखों लोगों को बुलाने के कारण कोविड-19 प्रोटोकॉल का पालन करना संभव नहीं है। न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव का यह कथन महत्वपूर्ण है कि ‘‘जान है तो जहान है’’। (यद्यपि ये वाक्यांश पूर्व में कोविड-19 के पहले-दूसरे दौर में शासनारूढ राजनीतिज्ञों ने भी लॉकडाउन व प्रतिबंध लगाने के समर्थन में कहे थे ) तथापि अभी तक चुनावों की घोषणा नहीं हई है। संविधान के अनुसार उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में आगामी मार्च से मई महीने के बीच विधानसभा के चुनाव होने है, जो एक संवैधानिक अनुपालन है। यद्यपि अनुच्छेद 21 में वर्णित जीवन के अधिकार का सहारा लेते हुये उच्च न्यायालय के उक्त निर्देश पर प्रश्नवाचक चिन्ह अवश्य उठाये जा सकते है कि क्या यह न्यायालय के क्षेत्राधिकार में आता भी है अथवा नहीं! चूंकि यह एक अलहदा विषय है, जिस पर फिर कभी अलग से चर्चा की जायेगी।

उच्च न्यायालय के उपरोक्त निर्देश पर राजनैतिक दलों की जो प्रतिक्रियाएं आयी है, उससे प्राप्त निष्कर्ष उन लोगों के मुह पर कड़ा तमाचा है जो यह कहते थकते नहीं हैं कि इस देश में राजनैतिक पाटियां राष्ट्रहित के मुद्दों पर कभी भी एक नहीं हो पाती है। आश्चर्यजनक रूप से नहीं, बल्कि देश के वर्तमान राजनैतिक चाल-चरित्र के चलते समस्त राजनैतिक दलों ने सर्वसम्मति से चुनाव आयोग से कोविड प्रोटोकाल का पालन करते हुये’ नियत समय पर’ चुनाव कराने की बात कही है। ‘‘आखिर बाज के बच्चे मुंडेरो पर नहीं उड़ा करते‘‘। विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत ऐसे ही नहीं कहलाता है? लोकतंत्र की नींव, रीढ़ की हड्डी और मुख्य आधार संविधान में निर्धारित समय पर चुनाव कराकर जनता का जनता के लिये अंततः चुने हुए जन प्रतिनिधित्वों को शासन सौंप देना ही असली जनतंत्र-लोकतंत्र है। यह बात और है कि ‘‘जनता तो भेड़ है, जहां जाएगी वही मूंडी जाएगी‘‘। 

 एक तरफ देश के अभी तक के सर्वाधिक लोकप्रिय अनोखे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीे ‘‘मन की बात’’ करते समय न केवल अपने मन की बल्कि नागरिकों के (जिन्होंने उन्हे इस शीर्ष तक पहुंचाया) के मन की भी बात कहते करते हैं। ‘‘अनोखे‘‘ इसलिये कि वे पहले प्रधानमंत्री जिन्हाने अभी तक 84 बार देश के नागरिकों से ‘‘मन की बात‘‘ की है जो कि ‘‘नानी के आगे ननिहाल की बातें‘‘ करने जैसा है। जबकि मोदी के पूर्व अभी तक के समस्त पूर्व प्रधानमंत्री गण सामान्यतः सिर्फ स्वाधीनता दिवस पर ही राष्ट्र को सम्बोधित करते रहे थे। मन मोहने वाले मनमोहन सिंह भी नहीं करते थे। प्रधानमंत्री ने सबकी मन की बात जिसमें उनका मन भी शामिल है ।,कहा कि कोविड-19 अभी गया नहीं है। लोगों को पूर्ण सुरक्षा व सावधानी बरतनी है। 84 वीं मन की बात करते हुये देशवासियों को नये साल की बधाई देते हुये प्रधानमंत्री ने नागरिकों से अपील की स्वयं की सजगता व स्व-अनुशासन ही कोरोना के नये वेरिएंट ओमीक्रान के खिलाफ हमारी शक्ति है। वहीं टीवी स्क्रीन पर लाखोें की भीड़ को कोविड प्रोटोकॉल का पूरा उल्लघंन पाते हुये, देखते हुये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे की तर्ज‘‘ पर अपने विचारों का उदधोषण करते हुये, लगातार दिख रहे है। विपक्ष भी इस क्रम से दूर बिल्कुल नहीं है। वह भी दोनों पक्षों में बराबरी की भागीदारी से सर्वानुमति के साथ है। 

इस देश में सर्वानुमति या आम सहमति का यह अकेला उदाहरण नहीं है। सर्वानुमति (सर्वसम्मति) के अनेकानेक क्षेत्र है, जिनको याद कर ले तो आप अवश्य ही यह महसूस करेगें कि यह देश कम से कम आधी सर्वानुमति से तो अवश्य चल ही रहा है। बात जब सांसदों, विधायको की तनख्वाह बढ़ाने की होती है अथवा पेंशन देने व फिर बढ़ाने की होती है, तब सर्वानुमति अपने आप आ जाती है। मतभेद व मनभेद निरंक व निरर्थक हो जाते है। सब ‘‘मन मन भावे मूंड हिलावे‘‘ की स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं। आधुनिक लोकतांत्रिक शासक यदि आर्थिक रूप से कमजोर होगा तो वह सही ईमानदार शासन कैसे चला पायेगा? कमजोर आर्थिक स्थिति उन्हे कहीं न कहीं ईमानदारी से डोलने पर मजबूर कर सकती है। अतः देश हित में अपने आर्थिक स्थति को मजबूत कर ईमानदार बने रहने की परिस्थितियां बनाये रखने की सर्वानुमति पर किसी को कोई आपत्ति क्यों होना चाहिए? यह समझ से परे है।   

जब भी राजनैतिक पार्टियां परस्पर एक दूसरे के खिलाफ कीचड़  उछालने व आलोचना करती है, तब भी उनमें गजब की सर्वानुमति होती है। ‘‘आखिर हमाम में सभी नंगे होते हैं’’।  प्रत्येक राजनैतिक पाटी अपने ही शासन को श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर की ओर ले जाने का दावा करती है। साथ ही दूसरे (अपने विपक्षियों) को नकारा, निकम्मा व शून्य तक कह देती हैं। चूंकि इन कमियों या उपलब्धियों को यदि नागरिक नहीं उभार पा रहे है, तो देश के राजनैतिक दलों को तो यह ‘‘कार्य’’ करना ही होगा? और इसीलिए उनके बीच यह सर्वानुमति है। 

एक और महत्वपूर्ण सर्वानुमति पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। समस्त राजनैतिक दलों में इस बात की अविवादित सर्वानुमति है कि महिला आरक्षण बिल संसद से पारित होना बेहद जरूरी है ताकि महिलाओं को विधायिका में एक तिहायी आरक्षण मिल सके। परन्तु यह सर्वानुमति होने के बावजूद आरक्षण बिल संसद में आज तक पारित  नहीं हो पाया है। तथापि उसी संसद में बिना सर्वानुमति वाले अनेको बिल यहां तक कि कई विवादित बिल भी सर्वानुमति, सहमति या बहुमत से पारित हो चुके है या रदद भी कर दिये गए है। ऐसा लगता है कि सभी पार्टी के पुरूष सांसद अन्दरखाने में शायद इस बात पर सहमत है कि बिल पारित न होवे। परदे के पीछे संसद के सेंट्रल हाल में गप-शप में मशगूल पुरूष सांसदांे द्वारा महिलाओं को आरक्षण न मिलने के शायद तौर-तरीके दूढे जाते है। यह भी तो सर्वानुमति ही है। वैसे सदन की समस्त महिला सदस्या आरक्षण को लेकर एकमत तो है, लेकिन यह एकमतता पार्टी की लक्ष्मण रेखा को पार नहीं कर पाती है, क्योंकि लक्ष्मण रेखा उलांघने के (दु)साहस के दुष्परिणाम को उन्होंने अवश्य पढ़ा है। यह भी एक तरह की सर्वानुमति ही है।

इसके अतिरिक्त अन्य अनेक मुद्दे है जिन पर प्रायः सभी राजनैतिक दलों की परस्पर अलिखित अथवा मौन सहमति या सर्वानुमति होती है। जैसे राजनैतिक पार्टियों के कार्यकर्ता को संवैधानिक पद, राज्यपाल के रूप मे नियुक्तियाँ, संवैधानिक संस्थाओं का राजनैतिक हित के लिये दुरूपयोग, पार्टी में आंतरिक वास्तविक लोकतंत्र, हाईकमान का वजूद, राजनीति में नैतिकता की दवाई ,राजनीति से अपराधीकरण की मुक्ति , अर्थात आरोपियों अभियोगीयों व अपराधियों को लोकसभा, विधानसभा में टिकिट देने का मामला (कानून अपना काम रहा है, करेगा) या दल बदलुओं को नवाजने का मामला हो आदि आदि।

किसी भी तरह के गंभीर अपराध, राजनैतिक आंदोलन व सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगाड़ने की बात होने पर उस राज्य के विपक्षी दल घटना की मुखर आलोचना करने में तुरंत-फुरंत सामने आ जाते हैं। परन्तु दूसरे राज्यों में जहां उसी विपक्षी दल की सरकारें होती है, वहां पर हुई इस तरह की घटनाएं पर वे मरहम-पट्टी का आवरण लगाकर चुप्पी साध लेते है। घटना तेरी-मेरी कहकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं? मतलब इसे स्पष्ट शब्दों में कहां जाये तो यह अपराध भाजपा का है और यह कांग्रेस का है या अन्य दलों का है, इस पर अपने अंदर झाके बिना, आत्मविलोकन किये बिना घटना वर्णित कर बेशर्मी से महिमा मंडित कर दिया जाता है। बयानवीरों के बयानों के तीक्ष्ण बाणों से इस पर भी सर्वानुमति बन गई है। राजनीतिज्ञों की कथनी-करनी के अंतर की सर्वानुमति का उल्लेख करने की आवश्यकता है क्या? परिवारवाद को सिंद्धान्त गलत कहते हुये इसे अपनाने की भी सर्वानुमति है।  

वैसे उक्त वर्णित पूरी सर्वानुमति को एक लाइन में रेखांकित किया जा सकता है कि वर्तमान में सत्ता का चरित्र इतना बलवान, मजबूत व हावी हो गया है कि उस पर आरूढ़ होने वाला राजनेता सत्ता को न हकाल (चला) कर, सत्ता उन राजनेताओं पर हावी होकर चढ़कर उन्हे चला रही है, जिस कारण से ही आज की सत्ता की राजनीति में उक्त सर्वानुमति परिलक्षित हो रही है। अर्थात यह सत्ता के कारण उत्पन्न सर्वानुमति है।

अब तो आप समझ ही गये होगें कि इस देश में शासन सर्वानुमति से देशहित में राजनीतिज्ञों द्वारा चलाया जा रहा है? कहां है विरोध?

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