शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

उन्हे थप्पड़ पड़ा ! सिर्फ एक ! अन्ना हजारे


राजीव खण्डेलवाल:
कृषि मंत्री शरद पवार पर एमडीएमसी सेन्टर में आयोजित एक गैर राजनैतिक कार्यक्रम में मिडिया कर्मियों से चर्चा के दौरान ट्रांसपोर्ट व्यवसायी युवक हरविन्दर सिंह ने अचानक शरद पवार के गाल पर थप्पड़ मार दिया जिसकी गूंज वहां उपस्थित लोगो को भले ही सुनाई न दी हो लेकिन उक्त गूंज को इलेक्ट्रानिक मीडिया ने सम्पूर्ण देश को सुनाया। इस पर त्वरित टिप्पणी करते हुए अन्ना हजारे ने जो उपरोक्त टिप्पणी 'उन्हे थप्पड़ पड़ा! सिर्फ एक!' की गूंज भी शायद उक्तथप्पड़ की गूंज से कम नहीं थी की गरमाहट अन्नाजी के दिमाग तक शायद पहुंची जिसे भाप कर उसका असर होने के पूर्व उन्होने तुरंत अपने उक्त कथन को वापिस लिये बिना उक्त घटना की उसी प्रकार आलोचना एवं निन्दा की जिस प्रकार देश में हो रही राजनीति में राजनैतिक लोग प्रतिक्रिया देते है जिससे स्वयं पंवार भी बच नहीं सकते हैं।
             कहा गया कि देश में बढ़ती हुई महंगाई के गुस्से से आक्रोशित व्यक्ति ने थप्पड़ मारकर अपना गुस्सा प्रदर्शित किया। अन्ना टीम की एक महत्वपूर्ण सदस्य किरणबेदी ने यह कहा यदि उचित लोकपाल विधेयक नहीं आया तो इसी तरह का गुस्सा प्रदर्शित होता रहेगा। टीवी चैनल्स में चर्चा में अपने आप को विशेषज्ञ मानने वाले राशिद अलवी ने यशवंत सिन्हा के महंगाई के मुद्दे पर दिनांक २२ नवम्बर को दिया गया यह बयान कि अगर सरकार महंगाई के मुद्दे पर सोती रही तो यह मुद्दा हिंसा का कारण बन सकता है के बयान को उक्त घटना के लिये दोषी ठहरा दिया। समस्त प्रतिक्रिया जाहिर करने वाले व्यक्तियों ने इस घटना का कड़ी शब्दों में निन्दा तो की लेकिन अपनी-अपनी राजनैतिक रोटिया सेकने का प्राकृतिक (नेचुरल) कार्य भी किया गया। अत: हरविन्दर सिंह ने थप्पड़ इसलिए मारा कि या तो वह महंगाई से बहुत परेशान था या वह जनलोकपाल विधेयक पारित करने में रूकावट एवं विलम्ब के लिये बेहद क्रोधित था ऐसा प्रतिक्रिया-वादियों ने प्रतिक्रिया देते समय स्थापित कर दिया। यहां मैं अन्ना और उनकी टीम की प्रतिक्रिया पर ही चर्चा करूंगा क्योंकि राजनीतिज्ञो की प्रतिक्रियाएं स्वभाविक रूप लिये हुए है और जनता उनसे पूर्ण रूपसे भलीभांति परिचित है।
             वास्तव में 'अन्ना' जैसे शख्स से उक्त तत्काल की गई प्रतिक्रिया की उम्मीद नही की जा सकती है। क्या एक थप्पड़ मारने से महंगाई या जनलोकपाल बिल के स्वास्थ्य पर कोई प्रभाव पड़ेगा? यदि वास्तव में उक्त घटना महंगाई के विरूद्ध प्रतीक मानी जाती है तो अन्ना से यह पूछा जाना चाहिए कि कितने थप्पड़ मारने पर महंगाई खत्म हो जाएगी तब तदानुसार इस देश में जीवित व्यक्ति की मूर्ति स्थापित करने की परम्परा स्थापित करने वाली मायावती के समान ही शरद पवार की भी एक भी मूर्ति बनाकर उसे उतने थप्पड़ जड़वाकर महंगाई को समाप्त कर दिया जाय तो देशहित में यह एक बहुत बड़ा कार्य होगा। अन्ना टीम इस बात का भी जवाब दे कि यदि महंगाई को थप्पड़ का प्रतीक मानते है तो पूरे देश में एक ही व्यक्ति ने थप्पड़ क्यो मारा? क्या देश में एक ही व्यक्ति महंगाई से पीडि़त है? आज के राजनैतिक सार्वजनिक जीवन में लुप्त होते है जा रहे सद्पुरूष अहिंसावादी गांधी 'अन्ना' जैसा व्यक्ति से इस तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं की जा सकती है क्योंकि यह प्रतिक्रिया उन्हे भी आम सार्वजनिक व्यक्तित्व के ऊपर नहीं रखती है। 
             मै अन्ना का बड़ा समर्थक हूं क्योंकि देश की मूक आवाम को आवाज प्रदान कर देश के स्वास्थ्य को सुधारने का सार्थक निस्वार्थ प्रयास उन्होने किया है। मैं शरद पवार की उतना ही घोर विरोधी हूं इसलिए नहीं कि वे कांग्रेसी है बल्कि देश के वे कृषि मंत्री है व देश की कृषि व्यवस्था, बाजार, अर्थ व्यवस्था पर विभिन्न विभिन्न समय पर मामला चाहे अनाज के भंडारण का हो, गन्ना के मूल्य निर्धारण का हो, बढ़ती हुए शक्कर के मूल्य का हो या अन्य कोई नीतीगत मामला हो जिसका सीधा संबंध महंगाई से रहा है उनके बयानों ने आग में घी डालने का ही कार्य किया जिससे उन्हे बचना चाहिए था। लेकिन इस का यह मतलब नहीं है कि इस देश में सामने खड़ी विकराल समस्याओं को उक्त घटना के प्रतीक के रूप में लिया जाये जैसे इलेक्ट्रानिक चैनल तथा देश के राजनीतिज्ञो ने लिया है। अन्ना शायद अपनी त्वरित प्रतिक्रिया की गरमाहट को महंसूस कर गये और इसलिए उस भाप की गरमाहट से जलने के पूर्व उन्होने अपन भाव में संशोधन कर उक्त घटना की कड़ी निन्दा की। लेकिन ज्यादा अच्छा यह होता कि उक्त त्वरित टिप्पणी को वापस ले लेते या उक्त टिप्पणी के बाबत स्पष्टीकरण देते। उक्त बात से एक बात जेहन में आती है सच ही कहा गया है कि जब आत्म विश्वास हद की सीमा पार कर जाता है तब वह 'अहंकार' में बदल जाता है। क्या अन्ना एवं उनकी टीम इस सत्य की शिकार तो नही हो गई है? पिछले कुछ समय से घटित घटनाये इसी तथ्य की और ही इंगित कर रही है। याद कीजिए संसद में सर्व सम्मति से पारित प्रस्ताव द्वारा किये गये अनुरोध को मानने से इनकार कर दिया गया जब तक प्रधानमंत्री की लिखित चिट्टी उन्हे प्राप्त हुई नहीं थी। याद कीजिए जंतरमंतर पर आन्दोलन प्रारंभ करने के पूर्व उन्हे गिरफ्तार कर तिहाड् जेल में रखा गया तब गिरफ्तारी आदेश वापस लेने के बावजूद वे एक दिन अवैधानिक रूप से जेल में कमरे में ही रहे और वही से बाहर जाने के लिए तब तक राजी नही हुए जब तक रामलीला मैदान में जगह नहीं दी गई। याद करें मोहन भागवतजी कें कथन के जवाब में उनका प्रत्युत्तर ''मुझे इनके साथ की क्या जरूरत"। याद कीजिए उस स्थिति को जब उन्होने बाबा रामदेव को अपने आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी करने की स्थिति नहीं बनने दी। याद कीजिए जब इन्होने उमा भारती जैसे राजनीतिज्ञो को (उमा केवल राजनीतिज्ञ ही नही बल्कि देश की एक प्रमुख आध्यात्मिक प्रखर प्रभावशाली वक्ता रही है) मंच के पास तक नहीं आने दिया था। याद करें रामलीला ग्राउण्ड पर आन्दोलन की समाप्ति के समय जब एक राजनैतिक आरोपित व्यक्ति विलासराव देशमुख प्रधानमंत्री का पत्र मंच पर आये तब उन्हे आपत्ती नहीं हुई। लेख लिखते-लिखते अन्ना हजारे का यह बयान ''एक थप्पड़ पर इतना गुस्सा क्यों? किसानों के पिटने पर नही गुस्साते यह बयान भी उनके अहिंसावादी छवि के विपरीत होने के साथ साथ उनके अहंकार को ही दर्शाता है। अत: यह स्पष्ट है कि अचानक प्राप्त हुई सफलता भी कई बार अहंकार को जन्म देती है और अच्छे आदमी को गलत दिशा में ले जाने का प्रयास करती है। 
             अत: यह थप्पड़ सिफ शरद पवार पर नहीं है। परिस्थितियों ने शरद पवार को थप्पड़ मारने का एक प्लेटफार्म अवश्य दिया लेकिन इसका एक अर्थ नहीं बल्कि आने वाले समय में अनेक प्रश्रवाचक चिन्ह इससे उत्पन्न होंगे।

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

शपथ-पत्र की सार्थकता वर्तमान स्थिति में !


राजीव खंडेलवाल:
देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री एवं भाजपा के सर्वोच्च नेता श्री लालकृष्ण आडवानी ने काले धन के मुद्रदे पर अपनी पार्टी के सांसदों का स्वघोषणा पत्र देने का जो कदम उठाने की घोषणा की है उसका स्वागत किया जाना चाहिए। आज के युग में हर मुद्दे पर स्वस्थ परम्परा का निर्वाह न करते हुए मात्र राजनीति करने के उद्देश्य से कांग्रेस ने इस कदम का स्वागत और इसमें सहभागिता करने के बजाय इस आधार पर उनके इस अच्छे कदम को अस्वीकार कर दिया क्योंकि यह भाजपा के लौह पुरूष द्वारा कहा गया था। आज की राजनीति ही ऐसी हो गई है इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। कांग्रेस से क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि स्वर्गीय इंदिरा गांधी के बलिदान दिवस पर पूरे देश में शपथ दिलाई जाती है क्या वे कांग्रेसी होने के कारण समस्त गैर कांग्रेसीयो को शपथ लेने से इंकार कर देना चाहिए? लेकिन आडवानी जी के बयान ने शपथ-पत्र के औचित्य पर एक नई बहस का अवसर प्रदान किया है। 
                      वास्तव में हमारे देश के अनेक संवैधानिक संस्थाओं, कार्यपालिका न्यायपालिका मे पद ग्रहण से लेकर लोंकतंत्र का आधार स्तम्भ चुनावो में भाग लेने से लेकर अनेक कार्यो में शपथ की या स्वघोषणा की व्यवस्था है। वास्तव में इसकी क्यों आवश्यकता है और यह क्या है इसका अर्थ समझ लेना आवश्यक है। शपथ पत्र या स्वघोषणा एक प्रकार का आत्मानुशासन है जो कि एक नागरिक के विवेक पर इस आधार पर छोड़ा जाता है कि वह जो कुछ स्वघोषणा करेगा वह उसे स्वयं की और प्राप्त जानकारी के आधार पर जिसे वह सत्य मानता है उसके विचारों में सत्य है। इसे कानूनी जामा पहनाने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा १९९ एवं १९३ में दांडिक प्रावधान इसलिए किया गया है ताकि कानून का डर शपथकर्ता पर बना रहे और वह झूठा शपथ-पत्र न दे। लेकिन क्या आज शपथ-गृहिता की ऐसी स्थिति वास्तव में है। यह एक प्रश्र भी नही रह गया है बल्कि वास्तविकता इसके लगभग विपरीत है। इसलिए शपथ-पत्र को भी कानूनी रूप से झूठ बालने का एक आम हथियार माना जाने लगा है। 
                      देश में शपथ लेकर अनेक व्यक्तियों ने विभिन्न पदों पर काम किया है और मंत्री से लेकर न्यायपालिका पर कदाचार और भ्रष्टाचार के अनेक आरोप न केवल कई शपथ गृहिता पर लगे है बल्कि उन पर मुकदमें भी चले है और कुछ मामलों में सजा भी हुई है। लेकिन क्या सरकार यह बतलाने का कष्ट करेगी  कि कितने लोगो के विरूद्ध धारा १९९ के अंतर्गत झूठा शपथ पत्र देने के मामले में सरकार या पुलिस प्रशासन ने कार्यवाही की है। यह एक बहुत ही बड़ा विचारणीय मुद्दा है क्योंकि वास्तव में ऐसे विरले ही उदाहरण है जहा झूठा शपथ देने के आधार पर सार्वजनिक-संवैधानिक संस्थाओं पर बैठे किसी व्यक्ति को सजा हुई हो। इसलिए सामान्य रूप से जो व्यक्ति शपथ लेता है उसे कानून का डर नहीं होने के कारण वह शपथ लेने और न लेने में कोई अंतर नहीं मान रहा है। इसलिए जो आत्मानुशासन बने रहने के लिए 'डर' की आवश्यकता होनी चाहिए वह 'न' होने के कारण शपथ पत्र मात्र एक औपचारिकता रह गई है। आयकर वाणिज्यिक कर का वकील होने के कारण शपथ की उक्त आत्म अनुशासन को वही भावना को वर्तमान में मैनें करारोपण प्रावधानों में देखा है। शासन व्यापारियों की हितैषी बनकर प्रशासनिक खर्चो में कटौती कर स्व अनुशासन के आधार पर स्वकर निर्धारण को बढ़ाने का प्रयास कर रही है जिसमें वह एक हद तक सफल भी रही है क्योंकि राजस्व में वृद्धि की हो रही है। लेकिन कर चोरी की स्थिति से इंकार भी नहीं किया जा सकता है। इसलिए आज समय आ गया है कि हम वास्तव में शपथ-पत्र को गरीमा प्रदान करने के लिए कुछ ऐसे आवश्यक कड़े कदम उठाये ताकि लोग शपथ-पत्र और सामान्य कथन में अंतर को महसूस कर सके व तदानुसार उसे अपनाए भी।

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

देश की साख को दांव पर लगाकर ईलेक्ट्रानिक मीडिया का ''टीआरपी" बढ़ाने का यह तरीका क्या उचित है?



राजीव खण्डेलवाल:
Photo by: timesofindia.indiatimes.com
विगत दिनांक १७ नवम्बर २०११ से लगातार ''स्टार न्यूज" द्वारा वर्ष १९९६ में भारत श्रीलंका के बीच हुए वल्र्ड कप सेमीफाईनल मैच में कप्तान मो. अजरूद्दीन द्वारा प्रथम फिल्डिंग करने के लिये गये निर्णय बाबत तत्कालीन टीम इंडिया के सदस्य विनोद कांबली द्वारा शंका की उंगली मो. अजरूद्दीन पर उठाई गई है। इस पर न केवल स्टार न्यूज द्वारा सतत लाईव बहस व न्यूज प्रसारण विगत चार दिवस से जारी है अपितु आज की इस गलाफाड़ प्रतिस्पर्धा के युग में अन्य न्यूज चैनल ''आज तक" इत्यादि द्वारा भी प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए इस मुद्दे पर बहस दिखाई जा रही है। क्या यह अनावश्यक होकर देश के समय की बर्बादी और टीआरपी के चक्कर में देश की ईज्जत के साथ खिलवाड़ नहीं है? यह एक प्रश्र एक लगातार प्रसारण स्टार न्यूज चैनल को देखने वाले नागरिकों के दिमाग में कौंध रहा है वह इसलिए कि विनोद कांबली के उक्त शंका पर इतनी लम्बी बहस का कोई मुद्दा ही नहीं बनता है क्योंकि उक्त आरोप के समर्थन में १६ सदस्यीय टीम का कोई भी सदस्य सामने नहीं आया है। जिसे आगे विश्लेषित किया जा रहा है। 
                    सर्वप्रथम यदि हम विनोद कांबली के आरोपो पर दृष्टि डाले तो उन्होने प्रथम बार १७ तारीख को स्टार न्यूज से बातचीत करते हुए कहा कि १९९६ के उक्त मैच के एक दिन पूर्व टीम इंडिया ने सामूहिक निर्णय प्रथम बल्लेबाजी करने का लिया था उसे तत्कालीन कप्तान अजरूद्दीन ने टॉस जीतने के बाद बदलकर फील्डिंग का जो निर्णय लिया जिससे भारत को हार का सामना करना पड़ा। इस कारण उन्होने मैच फिक्सिंग की आशंका व्यक्त की है। लगभग १५ वर्षो के बाद अब यदि विनोद कांबली जो स्वयं भी उस टीम के महत्वपूर्ण सदस्य थे उक्त देरी के लिए उचित स्वीकारयोग्य स्पष्टीकरण के अभाव में आज अकारण ही बिना किसी सबूत के उक्त गम्भीर आरोप लगाकर मात्र आशंका ही जाहिर कर रहे है। मैच फिक्सिंग होने का कोई पुख्ता दावा प्रस्तुत नहीं कर रहे है। इससे यही सिद्ध होता है कि उनके उक्त आरोप को गंभीरता से लेने की आवश्यकता बिल्कुल भी नहीं है जैसा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया उसे दे रहे है। इसके बावजूद हमें यह देखना होगा की क्या उनके बयान में एक प्रतिशत की भी सत्यता है? श्री कांबली के बयान पर यदि बारीकी से गौर किया जाये तो उन्होने यह स्पष्ट कहा की टीम इंडिया का प्रथम बैटिंग करने का सामुहिक निर्णय पूर्व रात्री में लिया गया था जिसे कप्तान अजरूद्दीन ने दूसरे दिन टॉस जीतकर बदल दिया यदि यह तथ्य वास्तव में सही व प्रमाणित है तो बिना किसी अन्य साक्ष्य के कांबली का आरोप प्रमाणित होता है। इसके लिए खेल मंत्रालय, बीसीसीआई एवं आईसीसीआई को केवल कांबली के बयान के आधार पर आवश्यक कार्यवाही करनी चाहिए बल्कि मो. अजरूद्दीन पर देशद्रोह का मुकदमा भी चलना चाहिए था मात्र आजीवन प्रतिबंध लगाकर छोड़ नहीं दिया जाना था। अत: क्या वास्तव में अजरूद्दीन व टीम इंछिया का निर्णय प्रथम बैटिंग का था मूल मुद्दा यही है। तत्कालीन १६ सदस्यीय टीम के अन्य समस्त सदस्यों में से कोई भी सदस्य कांबली के टीम इंडिया के निर्णय दिये गये उक्त कथन का समर्थन नही रहे है। इसके विपरीत टीम के सबसे महत्वपूर्ण सदस्य टीम मैनेजर अजीत वाडेकर, सदस्य वेंकटपति राजू व अन्य दो तीन सदस्यों ने चैनल के साथ बातचीत करते हुए यह स्पष्ट कहा है कि टीम इंडिया का जो सामुहिक निर्णय हुआ था वह फिल्डिंग करने का था न कि बैटिंग का क्योंकि श्रीलंका टीम उस समय टारगेट चेस करने में ज्यादा सफल हो रही थी (फाईनल में भी टीम चेस करने में ही जीती है)। तीन-चार सदस्यों ने इस संबंध में चैनल द्वारा सम्पर्क करने पर अपने कोई कमेंट्रस नहीं दिये व शेष सदस्यों से स्टार न्यूज का कोई सम्पर्क हुआ या नहीं यह भी चैनल द्वारा स्पष्ट नहीं किया गया। अर्थात १६ सदस्यीय टीम में से कोई भी सदस्य कांबली के कथन का समर्थन नहीं करता है। नवजोत सिंह सिद्दू का तत्समय दिया गया बयान कि टीम पहले बैटिंग करेगी या स्टार न्यूज के दीपक चौरसिया का यह कथन कि सिद्दू ने कही अनोपचारिक चर्चा में प्रथम बैंटिंग निर्णय को स्वीकार किया, जिसमें ही यह गलतफहमी फैली है। लेकिन चैनल द्वारा सिद्दू से इस प्रकरण में प्रतिक्रिया मांगने पर उनका प्रतिक्रिया देने से इंकार करना काम्बली के दावे का पूर्णत: कमजोर करता है। एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते एक सासंद होने के कारण उन्हे स्वयं आगे आकर उस समय लिये गये टीम निर्णय के बाबत जानकारी देश को देनी चाहिए थी ताकि चैनल द्वारा फैलाया गया धुआ साफ हो जाता। इसके बावजूद लगातार चार दिन से सतत बहस दिखाना, शंका को जन्म देता है। जितने भी चैनलों द्वारा इस संबंध में लोगो की प्रतिक्रियाए दिखाई जा रही है। उनमें से जो लोग जॉच की मांग कर रहे है उनमें से कोई भी व्यक्ति यह नहीं कह रहा है कि टीम का निर्णय पहले बैटिंग का था जिसे टास जीतने के बाद बदला गया। टीम इंडिया का फिल्डिंग का निर्णय जो लिया गया वह गलत तो हो सकता है जो बाद में हार के परिणाम स्वरूप गलत भी सिद्ध हुआ लेकिन इसे गलत निर्णय को बदला गया निर्णय बिल्कुल भी नहीं कहा जा सकता है। सामुहिक निर्णय गलत सिद्ध होने पर किसी भी व्यक्ति की फिक्सिंग का आरोपी नहीं माना जाता है। इसके बावजूद इलेक्ट्रानिक मीडिया द्वारा इस तरह देश की टोपी को पूरे विश्व में उछालने जो कार्य हो रहा है उस पर तुरंत रोक लगाई जानी चाहिए।
                    ऐसा लगता है कि इस घटना पर वैसी ही राजनीति हो रही है जैसे देश में आमतौर पर घटित कोई भी घटना पर होती है। देश के खेलमंत्री जी का यह कथन की इसकी जॉच की जानी चाहिए  राजनीति की इसी कड़ी का बयान है क्योंकि इसके पूर्व कामन्वेल्थ खेल  कांड में उन्होने प्रभावशाली जॉच की मांग नहीं की थी। चुंकि मैच फिक्सिंग का यह मामला सीधे क्रिकेट से जुड़ा है व क्रिकेट की सर्वोच्च संस्था बीसीसीआई पर खेलमंत्री नकेल डालने का असफल प्रयास कर रहे है इसलिए उनका उक्त बयान आया है। इस देश में यह आम प्रचलन हो गया हे जब भी कोई व्यक्ति किसी दूसरे पर आरोप लगाता है। चाहे वह सरकार के विरूद्ध हो, संस्था के विरूद्ध हो व्यक्तिगत हो तुरन्त जॉच आयोग के गठन की मांग की जाती है आयोग का गठन हो जाता है। जॉच आयोग के बाद समय बीतने के साथ समय के गर्भ में संबंधित पक्षकार भी घटना को भूल जाते है लोग व मीडिया भी उस घटना को भूल जाते है और मामला दफन सा हो जाता है। वास्तव यदि किसी तथ्य की जॉच होनी चाहिए तो वह इस बात की कि स्टार न्यूज ने विनोद कांबली के साथ मिलकर देश की साख पर बट्टा लगाने के मूल्य पर मात्र टीआरपी बढ़ाने के लिए विनोद कांबली के साथ फिक्सिंग तो नहीं की है। जिसके समर्थन में कोई भी तथ्य संबंधित व्यक्तियों के आगे आने के बावजूद स्टार न्यूज या अन्य चैनल प्रस्तुत नहीं कर सके है बल्कि उपलब्ध समस्त कथन, साक्ष्य या तो कांबली के विपरीत हो या मौन है लेकिन तथ्यात्मक रूप से समर्थन में नहीं बल्कि भावनात्मक रूप से। इसकी जॉच की जाकर परिणाम को लोगो के सामने उजागर करना चाहिए जिससे न केवल उक्त फिक्सिंग का सच सामने आये बल्कि उक्त मैच भी फिक्स था या नहीं पता चल सकेगा ताकि भविष्य में इस तरह की ब्राड कास्टिंग-मैच फिक्सिंग न हो सके। 

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

''आरएसएस" एक ''गाली" या ''राष्ट्भक्ति" का प्रतीक?


राजीव खण्डेलवाल:
पिछले कुछ समय से कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं आगामी महत्वपूर्ण होने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रभारी दिग्विजय सिंह देश में घटित विभिन्न घटनाओ/दुर्घटनाओ के पीछे वे आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ) जिम्मेदार मानने के आदी हो चुके है। विगत पिछले कुछ समय से उन्होने आरएसएस के खिलाफ एक (छिपे हुए एजेंडे के तहत?) मुहिम चला रखी है। एक कहावत है कि किसी भी झूठ को लगातार, दोहराया जाय तो वह सच प्रतीत होने लगती है और लोग भी कुछ समय के उसे सच मानने लगते है। एक बकरे का उदाहरण हमेशा मेरे जेहन में आता है- एक व्यक्ति बकरा लेकर बाजार जा रहा था उसे रास्ते में तीन विभिन्न जगह मिले विभिन्न राहगीरो ने उसे बेवकूफ बनाने के लिए उस बकरे को बार-बार गधा बताया जिस पर बकरा ले जाने वाला व्यक्ति भी उसे गधा मानने लगता है। इसी प्रकार दिग्विजय सिंह के कथन सत्य से परे होने के बावजूद वे लगातार झूठ इसलिए बोल रहे है कि वे भी शायद उपरोक्त सिद्धांत के आधार पर अपने ''छुपे हुए एजेंडे" को 'सफल' करने का 'असफल प्रयास' कर रहे जिस पर देश के जागरूक नागरिको का ध्यान आकर्षित किया जाना आवश्यक है।
वास्तव में आरएसएस एक सांस्कृतिक, वैचारिक संगठन है जिसका एकमात्र सिद्धांत राष्ट्र के प्रति प्रत्येक नागरिक के पूर्ण समर्पण के विचार भाव को मजबूती प्रदान कर राष्ट्र को परम वैभव की ओर ले जाना है। इसी उद्वेश्य के लिए वह सम्पूर्ण राष्ट्र में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनके व्यक्तिगत और सामाजिक उत्थान के लिए लगातार वर्ष भर कार्ययोजना बनाकर हजारो स्वयं सेवको की कड़ी मेहनत से नागरिकों के सक्रिय सहयोग से उसे क्रियान्वित करने का संजीदगी से प्रयास करता है। आरएसएस के सिद्धांतो से आम नागरिको को शायद ही कोई आपत्ती कभी रही हो। लेकिन उनकी कार्यप्रणाली को लेकर व उक्त उद्वेश्यों को प्राप्ति के लिए कार्यक्रमों को लेकर अवश्य कुछ लोगो को भ्रांति है जिन्हे दूर किया जाना आवश्यक है। जब से आरएसएस संघटन बना है तब से तीन बार इस पर कांग्रेस के केंद्रीय शासन ने राजनैतिक कारणों से प्रतिबंध लगाया और कुछ समय बाद उन्हे अंतत: उक्त प्रतिबंध को उठाना पड़ा। आज तक संगठन की हैसियत से आरएसएस पर कोई आरोप किसी भी न्यायालय में न तो लगाये गये और न ही सिद्ध किये गये। व्यक्तिगत हैसियत से यदि कोई अपराध किसी सदस्य या व्यक्ति ने किया है तो इसके लिए वह व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से स्वयं जिम्मेदार है न कि संगठन जैसा कि यह स्थिति अन्य समस्त संगठनों, समाजो के साथ है। आरोप लगाने वाले व्यक्ति के संगठन के साथ भी यही स्थिति है। यह स्पष्ट है कि आरएसएस पर लगाये गये आरोपो के विरूद्ध दिग्विजय सिंह या उनके संगठन या सरकार द्वारा कोई वैधानिक कार्यवाही नहीं की गई है और न ही कोई जांच आयोग बैठाया गया है। (क्योंकि अपने देश में जॉच आयोग का गठन तो आरोप मात्र पर तुरंत ही हो जाता है) वे मात्र अपनी 'राजनीति' को चमकाने के लिए 'अंक' बढ़ाने के लिए आरएसएस पर आरोपो की बौछार दिग्विजय सिंह लगा रहे है। लेकिन यह उनकी गलतफहमी है कि इससे उनकी राजनीति चमकेगी। लंबे समय तक न झूठ स्वीकार किया जा सकता है और न ही सत्य को अस्वीकार किया जा सकता है। सुबह उठने से लेकर रात के सोने तक जीने के लिए आवश्यक हर सांस ले रहे है दिग्विजय सिंह कोउसमें आरएसएस के 'कीटाणु' दिख रहे है। लेकिन इससे हटकर जो सबसे दुखद पहलू यह है दिग्विजय सिंह विभिन्न जन आंदोलन को सहयोग देने का आरएसएस पर आरोप लगा रहे है क्या वे वास्तव में आरोप है व वे संगठन खुलकर उक्त आरोपों के प्रतिवाद में क्यों नहीं आ रहे है यह चिंता का विषय है। वास्तव में कोई भी राजनैतिक या गैर राजनैतिक संगठनो पार्टी द्वारा आरएसएस को सहयोग देना या लेना क्या कोई आरोप है क्योंकि आरएसएस कोई अनलॉफुल संगठन नहीं है, न ही उसे कोई न्यायिक प्रक्रिया द्वारा प्रतिबंधित किया गया है। लेकिन मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के चलते खासकर देश के सबसे महत्वपूर्ण और बड़ा राज्य उप्र को देखते हुए मुस्लिम वोट के धु्रवीकरण को देखते हुए कांग्रेस का आरएसएस पर आरोप लगाना एक फैशन हो गया है। इसके विपरीत अनेक राष्ट्र विरोधी संगठन आज भी कश्मीर से लेकर देश के विभिन्न भागो में कार्यरत है। उनके खिलाफ क्या कोई प्रभावशाली आवाज कांग्रेस ने कभी उठाई? कांग्रेस के असम के एक सांसद तो विदेशी नागरिक है व उनकी भारतीय नागरिकता की प्रमाणिकता की जॉच भी चल रही है लेकिन कांग्रेस ने उनके विरूद्ध अभी तक कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं की। यदि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जिनके आंदोलन राष्ट्रीय जन-आंदोलन है जो देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, कालाधन एवं बुराईयों को दूर करने के लिए है ऐसे आंदोलन को यदि संघ का सहयोग प्राप्त है तो कौनसा देशद्रोह का अपराध इसमें अपघटित होता है या भारतीय दंडसंहिता के अंतर्गत क्या अपराध है या कौन सा राजनैतिक अपराध है? यदि नही तो बाबा रामदेव, अन्ना हजारे या श्री श्री रविशंकर जी को आगे आकर स्वयं ही साहसपूर्वक यह तथ्य स्वीकार करना चाहिए क्योंकि यदि वे किसी अच्छे कार्य में लगे है और चाहते है कि देश का प्रत्येक नागरिक, संगठन, संस्था पार्टी इस कार्य में लगे, सहयोग करे और आरएसएस उक्त आंदोलन में सहायता दे रहा है तो उन्हे सार्वजनिक रूप से उनके सहयोग को स्वीकार करने में आपत्ति या हिचक क्यों होनी चाहिए या फिर वे यह कहे कि आरएसएस एक राष्ट्र विरोधी संगठन है और हमें उनके सहायता की आवश्यकता नहीं है। अन्ना का आज मोहन भागवतजी के बयान के संबंध में दिया गया जवाबी बयान न केवल खेदजनक है बल्कि बेहद स्वार्थपूर्ण है। देश के सैकड़ो संगठनों ने अन्ना के आंदोलन का समर्थन किया लेकिन अन्ना का संघ के बारे में यह बयान कि ''मुझे उनके साथ की जरूरत क्या है" क्या अन्ना भी दिग्विजयसिंह समान संघ के 'अछूते' मानते है स्पष्ट करे। वास्तव में यदि दिग्विजय सिंह के कथन का वास्तविक अर्थ निकाला जाये तो यह बात आईने के समान साफ है कि दिग्विजय सिंह जो कह रहे है जिसे इलेक्ट्रानिक मीडिया आरोपों के रूप में पेश कर रहे है वह वास्तव में आरएसएस की प्रशंसा ही है। अन्ना, बाबा और रविशंकर जी के जनआंदोलन सामाजिक व आध्यात्मिक कार्यो को पूरे देश की जनता ने स्वीकार किया है, राष्ट्रहित में माना है। राष्ट्रउत्थान के लिए माना है इस तरह से दिग्विजय सिंह के आरोपो ने आरएसएस को राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रहित का कार्य करने का प्रमाण पत्र ही दिया है।
आपको कुछ समय पीछे ले जाना चाहता हूं। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने काश्मीर विलय के समय व चीन युद्ध में आरएसएस की भागीदारी एवं भूमिंका की प्रशंसा की थी व उन्हे २६ जनवरी की राष्ट्रीय परेड में आमंत्रित किया था। काश्मीर से लेकर देश के किसी भी भाग में आये हुए राष्ट्रीय आपदा, संकट, बाढ़, सूखा में आरएसएस के स्वयं सेवकों की जो निर्माणात्मक व रचनात्मक भूमिका रही है उसे भी कांग्रेस के कई नेताओं सहित देश ने स्वीकारा है। यदि कुछ घटनाओं जैसा कि दिग्विजय सिंह कहते है मालेगांव बमकांड जैसे मे यदि कोई व्यक्ति जो आरएसएस का तथाकथित स्वयं सेवक कभी रहा हो, आरोपित है तो उससे पूरे संगठन को बदनाम करने का अधिकार किसी व्यक्ति को नहीं मिल जाता है। प्रथमत: जो आरोप लगाये गये है वे ही अपने आप में संदिग्ध है। राजनैतिक स्वार्थपूर्ति के तहत कई बार देशप्रेमी सगठन और व्यक्तियों को बदनाम करने की साजिश रची जाती है। यह कहीं भी न तो आरोपित है और न ही सिद्ध किया है कि तथाकथित आरएसएस के व्यक्ति के कृत्य के पीछे आरएसएस की संगठित सोच है, प्लान है जिसके तहत उस व्यक्ति ने संगठन के आदेश को मानते हुए उक्त तथाकथित अपराध घटित किया है। कांग्रेस में कई घोटाले हुए है कामनवेल्थ कांड से लेकर २जी स्पेक्ट्रम कांड के आगे तक सैकड़ों घोटाले आम नागरिकों के दिलो-दिमाग में है। क्या यह मान लिया जाए कि इन घोटालों के पीछे कांग्रेस पार्टी का सामुहिक निर्णय है जिसके पालन में मंत्रियों ने उक्त घोटाले किये? राजनीति में यह नहीं चल सकता कि कडुवा-कड़ुवा थूका जाए और मीठा-मीठा खाया जाए। यदि किसी राजनीति के तहत या राजनैतिक आरोप लगा रहे है तो उससे आप स्वयं भी नहीं बच सकते है और वह सिद्धांत आप पर भी लागू होता है। इसलिए मीडिया का खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया का उत्तरदायित्व बनता है कि वह इस प्रकार के बेतुके तथ्यों को जनता तक परोसने से पहले उसके वैधानिक, संवेधानिक और नैतिक जो दायित्व है उसकी सीमा में ही अपने कार्यक्रम प्रसारित करेंगे तो वो देश के उत्थान में वे एक महत्वपूर्ण योगदान देंगे। मीडिया के दुष्प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है तो उसके प्रभाव को नकारने का प्रश्र ही कहा उठता है। मैं उन समस्त नागरिकों और संस्थाओं और पार्टियों से अपील करता हूं कि यदि अच्छा कार्य कोई भी व्यक्ति, संस्था या पार्टी करती है तो खुले दिल से उसकी प्रशंसा होनी चाहिए उसका सम्मान किया जाना चाहिए न कि उसकी आलोचना होते हुए मूक रूप से देखते रहना चाहिए।
अंत में एक बात और जो आरएसएस पर साम्प्रदायिकता का आरोप अक्सर दिग्विजय सिंह द्वारा जड़ा जाता है। वह वास्तव में गलत व एक तरफा है। किसी एक सम्प्रदाय (दिग्गी राजा के शब्दों में हिन्दु) को संगठित कर एक संगठन खड़ा करना साम्प्रदायिकता है तो यही सिद्धांत दूसरा सम्प्रदायों पर वे क्यों लागू नहीं करते है। क्या दूसरेसम्प्रदाय के लोगो ने अपना संगठन नहीं बनाया है। यदि हिंदु समाज की ही बात करे तो उसमें भी विभिन्न समाजो के सामाजिक स्तर पर अखिल भारतीय स्तर से लेकर जिले तक कई संगठन है। जब २५ करोड़ वैश्य समुदाय का अ.भा.वै. महासम्मेलन संगठन यदि साम्प्रदायिक नहीं है तो तब १०० करोड़ हिन्दुओ को संगठित करने वाला संगठन साम्प्रदायिक कैसे? साम्प्रदायिकता संगठन बनाने से नहीं विचारों से पैदा होती है। यदि एक सम्प्रदाय वाले लोग दूसरे सम्प्रदाय के लोगो को घृणा की दृष्टि को देखते है तो वह साम्प्रदायिकता है जिसे अवश्य कुचला जाना चाहिए?

''अन्ना टीम" पर उभरते आरोपों का औचित्य क्या है?



राजीव खण्डेलवाल:
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बाबा रामदेव के ''भ्रष्ट-तंत्र" और ''कालेधन" के विरूद्धकिये गये ''सफल आंदोलन" को ''सफलता पूर्वक कुचलने" के बाद केन्द्र शासन और कांग्रेस का हौसला बढऩा स्वाभाविक था। इसी कारण से उक्त सोच लिये केन्द्रीय शासन द्वारा पुन: अन्ना के बहुत बड़े ऐतिहासिक जन आंदोलन को उसी तरह से निपटाने का प्रयास किया गया था। लेकिन प्रबल 'जनबल' और 'अन्ना' के स्वयं के महात्तप के प्रभाव के कारण डरी हुई सरकार रामलीला ग्राउण्ड पर हुए अन्ना के जनआंदोलन को बाबा रामदेव के नेतृत्व में हुए आंदोलन के समान नेस्तानाबूद (जमीनदोज) नहीं कर सकी। लेकिन मन में वही पुरानी मंशा लिए हुए वह लगातार अन्ना टीम के सदस्यों पर हमला करने के बहाने व अवसर ढूंडने में लगी रही। निष्कर्ष में अंतत: यदि संतोष हेगड़े को छोड़ दिया जाए तो अन्ना सहित उनकी टीम के प्रत्येक सदस्य अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, शांतिभूषण, प्रशांत भूषण, कुमार विश्वास आदि पर विभिन्न तरह के  आरोप प्रत्यारोप लगाये गये जिनका कुछ बुद्धिजीवी वर्ग ने भी तथाकथित नैतिकता के आधार पर समर्थन किया। परिणामस्वरूप जो मूल रूप से भ्रष्टाचार के लिए आरोपित व्यक्ति, संस्था या जिम्मेदार समूह, लोग थे वे अपनी काली चादर बचाये रखने में इसीलिए सफल होते दिख रहे हैं कि सामने वाले की सफेद चादर में लगा दाग जो इक्का-दुक्का होने के कारण दूर से ही चमकता है, दिखने के कारण मीडिया भी उन इक्के-दुक्के दागो की ओर ही निशाना बनाये हुए है बजाए पूरी काली चादर वालो को निशाना बनाने के। इससे प्रश्र यह उत्पन्न होता है कि यह जो कुछ हो रहा है क्या वह उचित है? न्यायोचित है? नैतिक है? संवैधानिक है? कानूनी है? और उससे भी बड़ा प्रश्र क्या ये आरोप मात्र सैद्धांतिक है या वास्तविक व्यवहारिक है?
उक्त मुद्दे को समझने के पूर्व इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि दुनियां में कोई भी चीज एब्सोल्यूट (absolute पूर्ण) नहीं होती है अर्थात कोई भी व्यक्तित्व १०० प्रतिशत गुण या अवगुणों से परिपूर्ण नहीं होता है। वास्तविकता सदैव १०० प्रतिशत से कम ही होती है। जब कोई सिद्धांत, तथ्य, वस्तु, कार्य को वास्तविकता मेें उतारा जाता है तो वह १०० प्रतिशत से कम हो जाता है। अर्थात १०० प्रतिशत मांत्र एक भावना है, वास्तविकता नहीं। इसे हम निम्र उदाहरण से समझ सकते है। शुद्ध सोना २४ केरेट का होता है लेकिन क्या हम २४ केरेट का सोना उपयोग में ला सकते है। जब हम उसका आभूषण या अन्य उपयोग में लाते है तो उसमें कुछ न कुछ मिलावट करना आवश्यक हो जाता है तब भी उसके गुण खत्म नहीं हो जाते, वह शुद्ध आभूषण ही कहलाता है। यही वास्तविकता एवं सच है इसलिए हम सब इसे स्वीकार भी करते है। इसी प्रकार जब दुधारू जानवर का दूध दोहा जाता है तब उसके उपयोग के पूर्व उसमें एक-दो बूंद पानी मिलाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि गाय का दूध सूख न जाये इसलिए उसमें एक-दो बूंद पानी मिलाया जाता है फिर भी दूध शुद्ध ही माना जाता है। यदि उपरोक्त दोनो सिद्धांत अन्ना की टीम पर लागू किये जाये तो क्या अन्ना टीम पर लगाये गये आरोप सही सिद्ध होते है, क्या वे भ्रष्टाचारी कहलायेंगे? यदि अन्ना टीम और टूजी स्प्रेक्टम के घोटालों से लेकर अनेक बड़े चर्चित घोटालों के आरोपियों को एक साथ तराजू पर रखा जाए तो अंतर एकदम स्पष्ट नजर आएगा। अत: आज प्रत्येक नागरिक को इस स्थिति पर मम्भीरता से विचार करना होगा अन्यथा हम सब भी उस दोष के भागी होंगे जो हमने किया नहीं है अर्थात भ्रष्टाचारियों को बचाने का यह एक अप्रत्यक्ष तरीका है और इस पर रोक लगनी चाहिए जो प्रत्येक जागरूक नागरिक है उन्हे इस दुष्प्रचार के विरूद्ध आवाज उठानी चाहिए।
यदि अन्ना टीम के प्रत्येक सदस्यों पर लगे आरोपों की चर्चा, विश्लेषण किया जाये तो लेख लंबा हो जाएगा लेकिन इन सबमें जो एक कॉमन तथ्य है वह यह है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जो पूरा देश उठ खड़ा हुआ है वह मुख्य रूप से सरकारी तंत्र में लिप्त उस भ्रष्टाचार के विरूद्ध है जिसके द्वारा जनता के वह पैसे की गाढ़ी कमाई से दिया गया टेक्स से इक_ा हुये रूपये की बरबादी हो रही है। जबकि अन्ना टीम पर (सिवाय प्रशांत भूषण को छोड़कर) लगे भ्रष्टाचार और अनियमितता के आरोप को अधिकतम अनियमितता कहा जा सकता है अवैधानिकता नहीं और न ही इसमें कोई सरकारी पैसे का इनवाल्वमेंट है। यह अलग बात है कि वे इस अनियमितता से भी बच सकते थे और भविष्य में उन्हे इससे बचना भी चाहिए। लेकिन मात्र इस कारण से उनकी भ्रष्टाचार के विरूद्ध उठाई गई मुहिम को नैतिक और वैधानिक अधिकार के आधार पर उंगली नहीं उठायी जा सकती खासकर वे लोग जिनकी चाद्दर ही भ्रष्टाचार से पूर्ण पूरी काली है। 
इसलिए सिविल सोसायटी की कोर समिति की बैठक में किसी भी प्रकार के दबाव में आये बिना कोर कमेटी के भंग करने की मांग न मानने का जो निर्णय लिया है। वह सही है लेकिन साथ ही भविष्य में सिविल सोसायटी को इस बात से सावधानी बरतनी होगी कि वे अपने सदस्यों के आचरण में पूरी तरह की पारदर्शिता बनाये रखते हुए किसी भी व्यक्ति को उन पर उंगली उठाने का मौका नहीं दें। क्योंकि हाल में जो आरोप लगे है अनमें से कुछ आरोपकर्ता सिविल सोसायटी के सदस्य रहे है जिनके कारण वे आरोप एकदम से अलग-थलग नहीं किये जा सकते है। अरविंद केजरीवाल का हिसार चुनाव के मुद्दे पर दिया गया स्पष्टीकरण न तो वस्तुपरक है और न ही स्वीकारयोग्य है। केजरीवाल इस तथ्य को बिल्कुल नजर अंदाज कर रहे कि रामलीला मैदान में अनशन से उठने के पूर्व अन्ना की मांग पर न केवल कांग्रेस बल्कि पूरी संसद ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था बल्कि संसद में बहस के दौरान भी आगामी शीतकालीन सत्र में लोकपाल बिल प्रस्तुत करने की सहमति ही समस्त सदस्यों द्वारा दी गई थी। इसके बावजूद यदि केजरीवाल को कांग्रेस में नियत पर शक है जो बहुत कुछ वास्तविक भी है। तो भी उनका यह कथन औचित्यपूर्ण नहीं है कि कांग्रेस ने अन्य पार्टियों समान शीतकालीन सत्र में लोकपाल बिल पारित करने का आश्वासन नहीं दिया है। इसलिए उन्होने हिसार में चुनाव में कांग्रेस का विरोध किया। यह बात उन्हे शीतकालीन सत्र की समाप्ति के बाद ही कही जानी थी। इस कथन से सिविल सोसायटी अभी तक की गैर राजनैतिक छवि को गहरा धक्का लगा है जिससे उभरने का कोई उपाय कोर कमेटी की बैठक में नही किया गया जो कि खेदजनक है। 

क्या 'निजता' क अधिकार को सार्वजनिक करने पर उचित अंकुश लगाने का समय तो नही आ गया है?


राजीव खण्डेलवाल:-

सिविल  सोसायटी के महत्वपूर्ण सदस्य और सुप्रीम कोर्ट के सीनियर अधिवक्ता व पूर्व केन्द्रीय कानून मंत्री शांति भूषण के बेटे प्रशांत भूषण के द्वारा कश्मीर पर जनमत संग्रह के समर्थन में जो बयान हाल ही में आया था उसकी तात्कालिक प्रतिक्रियावादी प्रक्रियावादी के रूप में और फिर बाद में धीरे-धीरे ''क्रियावादी''रूप में पूरे देश में हुई जो प्रारंभ में अस्वाभाविक होते हुए की धीरे-धीरे स्वाभाविक रूप लेने लगी। जब उनके बयान पर भगतसिंह क्रांति सेना के तीन व्यक्तियो ने खुले आम दिन दहाड़े उनके उच्चतम न्यायालय के चेम्बर में जाकर उनके साथ हाथापाई को तो देश के अधिकांश लोगो ने, बुदिधजीवी वर्ग ने उक्त आक्रमण की तीव्रता के साथ आलोचना तो की लेकिन हमले की आलोचना करने के साथ-साथ प्रशांत भूषण के देश विरोधी बयान पर तात्कालिक वैसी ही कड़ी आपत्ति और प्रतिक्रिया सामान्यत: नही व्यक्त की गई सिवाय शिवसेना को छोड़कर। बाद में कुछ लोगो ने जिसमे अन्ना और इनकी टीम के लोग भी शामिल थे प्रशंत भूषण के बयान को उसके निज विचार बताकर अपना पल्ला झाड़ लिया। लेकिन न तो प्रशांत भूषण की इस बात की आलोचना की गई कि उन्होने इस तरह का बयान क्यो दिया और न ही प्रशांत भूषण को उन्होने अपने से अलग-थलग करने का प्रयास किया। इससे एक बात की आशंका पुन: बलवती हुई कि जो लोग सिद्धांतो की राजनीति करने का दावा करने से अघाते नही है और जिन्हे देश का अपूर्व समर्थन प्राप्त हुआ है वे भी कही न कही सुविधा की राजनीति के शिकार तो नही हो गये है? इससे भी बड़ा प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या ''निजता" की आड़ में सार्वजनिक रूप से कुछ भी बोला जा सकता है और क्या अब समय नही आ गया कि इस पर भी प्रभावी अंकुश विचारो की स्वतंत्रता के होते हुये भी नही लगाया जाना चाहिये?
एक नागरिक होने के नाते प्रशांत भूषण को अपनी निजी राय को सार्वजनिक करने का अधिकार हेै लेकिन उसका औचित्य वही तक है जब तक वह संविधान की सीमा में है, किसी कानून का उल्लघन न करती हो व, मर्यादित हो ,नैतिकता की रेखा से नीचे न गिरे। यदि उक्त आधारो पर प्रशांत भूषणके बयान को परखा जाये तो निश्चित रूप से उनका बयान संविधान और कानून के खिलाफ है। जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और उसका भारत मे विलय अमिट है । राष्टृ की भू-सीमा एकता के खिलाफ  आया प्रशांत भूषण का बयान देना कश्मीर के संबंध मे अलगाववादियो द्वारा जो स्टैण्ड लिया गया है उसका समर्थन करता है तो क्या यह कृत्य देश द्रोह नही है और क्या इसके लिये प्रशांत भूषण के खिलाफ  कार्यवाही नही की जानी चाहिये। अन्ना ने तुरन्त ही उनके बयान की कड़ी भत्सना करते हुए गलत क्यो नही ठहराया मात्र यह कहकर कि ये उनके निजी विचार है, उन्हे छोड़ दिया। क्या इस आधार पर लोगो को अन्ना पर उनकी सुविधा की राजनीति करने का आरोप लगाने का मौका नहीं मिलेगा। भ्रष्टाचार का मतलब सिर्फ पैसो का लेन देन नही  है बल्कि नैतिकता और कानून के विरूद्ध उठाया गया वह हर कदम भ्रष्ट आचरण की सीमा में आता है। क्या प्रशांत भूषण आज राष्ट् के सम्मान के प्रति भ्रष्टाचारी नही है? क्या निजता के आधार पर उन्हे ऐसी बयान बाजी करने की छूट दी जा सकती है  एक पति-पत्नि को सम्भेग करने का निजता का अधिकार प्राप्त है। लेकिन इस अधिकार के रहते इसका सार्वजनिक प्रदर्शन क्या वे कर सकते है?  कहने का तात्पर्य यह है कि निजता के अधिकार पर भी नैतिकता, कानून का कोई न कोई बंधन है जिसका पालन किया जाना आवश्यक है । आजकल यह एक सार्वजनिक फैशन हो गया क्योकि जब भी कोई व्यक्ति किसी मुद्दे पर अपने विचार सार्वजनिक करता है तब असहजता की स्थिति होने पर उस व्यक्ति से जुड़ी संबंधित संस्था ,पार्टियो या व्यक्तियो के समुह संबंधित व्यक्ति के बयान को उनको निजी विचार कहकर अपना पल्ला झाड़ लेती है जिस पर आवश्यक रूप से रोक लगायी जानी चाहिये। यदि किसी व्यक्ति को व्यक्तिगत विचार व्यक्त करने का शौक है तो वह अपने घर के सभी सदस्यो केा बुलाकर उनके बीच क्येा नही व्यक्त कर देता । कानून का  एक मार्मिक विशेषज्ञ माना जाने वाला व्यक्ति जो न्याय व्यवस्था का हिस्सा माना जाता है, ऐसे वकील भूषण के द्वारा इस तरह के अलगाववादी बयान पर भगतसिंह क्रांति सेना के स्वयंसेवको द्वारा जिस तरीके से प्रतिक्रिया की गई वह स्वाभाविक है। एक्सट्रीम क्रिया की एक्सट्रीम प्रतिक्रिया होनी चाहिये (श्व3ह्लह्म्द्गद्गद्व ड्डष्ह्लद्बशठ्ठ स्रद्गह्यद्गह्म्1द्ग द्ग3ह्लह्म्द्गद्गद्व ह्म्द्गड्डष्ह्लद्बशठ्ठ) बल्कि मेरे मत में एक गैर सवैेंधानिक बयान पर जो प्रतिक्रिया 'सेनाÓ द्वारा दी गई है वह सवैंधानिक व कानूनी है। वह इस तरह से कि इस देश के प्रत्येक नागरिक को राइट आफ सेल्फ डिफेन्स का अधिकार प्राप्त है अर्थात् उसे अपनी संपत्ति और जानमाल की सुरक्षा के लिये परिस्थितिवश हिंसा की अनुमति भारतीय दंड संहिता देता है। काश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, देश की माटी हमारी माता है और हमारी माता के अस्तित्व पर अगर कोई प्रश्र चिन्ह लगाएगा, आक्रमण करेगा तो हमारी माता के अस्तित्व की रक्षा के लिये राइट आफ  सेल्फ  डिफेन्स का अधिकार प्राप्त है। इसलिये भगत सिंह क्रांति सेना के उन बहादुर लड़को क ो जिन्होने उक्त कदम उठाकर विरोध व्यक्त किया है के साथ'-साथ शिवसेना केा भी मैं बधाई देना चाहता हूॅं। जिन्होने आत्मसम्मान की रक्षा करने वाले कृत्य को प्रोत्साहित करने का साहस किया। यदि उन्होने अपने अधिकार क्षेत्र का कोई उल्लघन किया हो अर्थात् हिंसा का प्रयोग यदि कानून में परमिटेड सीमा से अधिक किया है तो वे उसके दोषी हो सकते है जिसके लिये उन पर मूकदमा चलाया जा सकता है लेकिन इस बात के लिये उनकी प्रशंसा की जानी चाहिये और उन्हे इसके लिये साधूवाद दिया जाना चाहिये क्योकि उन्होने अपने इस कृत्य द्वारा देश के सोये हुये कई नागरिको को जगाने का कार्य भी किया है। 

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